हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/४ उत्तर-काल/भूषण

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

[ ३५३ ] वीर ह्रदय भूषण इस शताब्दी के ऐसे कवि हैं जिन्होंने समयानुकूल वीर रस-धारा के प्रवाहित करने में ही अपने जीवन की चरितार्थता समझी [ ३५४ ]जब उनके चारों ओर प्रवल वेग से शृंगार रस की धारा प्रवाहित हो रही थी उस समय उन्होंने वीर रस की धारा में निमग्न हो कर अपने को एक विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न पुरुष प्रतिपादित किया। ऐसे समय में भी जब देशानुराग के भाव उत्पन्न होने के लिये वातावरण बहुत अनुकूल नहीं था, उन्होंने देश-प्रेम-सम्बन्धी रचनायें करके जिस प्रकार एक भारत-जननी के सत्पुत्र को उत्साहित किया उसके लिये कौन उनकी भूयसी प्रशंसा न करेगा ? यह सत्य है कि अधिकतर उनके सामने आक्रमित धर्म की रक्षा ही थी और उनका प्रसिद्ध साहसी वीर धर्म-रक्षक के रूप में ही हिन्दू जगत के सम्मुख आता है। परन्तु उसमें देश प्रेम और जाति-रक्षा की लगन भी अल्प नहीं थी। नीचे की पंक्तियां इसका प्रमाण है. जो शिवाजी की तलवार की प्रशंसा में कही गयी हैं:---

तेरो करवाल भयो दच्छिन को ढाल भयो हिन्द को दिवाल भयो काल तुरकान को

इसी भाव का एक पूरा पद्य देखियेः--

राखी हिंदुआनी हिंदुआन को तिलक राख्यो अस्मृति पुरान राखे वेद विधि सुनी मैं।
 राखी रजपूती राजधानी राखी राजन की धरा में धरम राख्यो राख्यो गुन गुनी मैं ।
भूषन सुकवि जीति हद्दमरहठ्ठन की देस देस कीरति बखानी तव मुनी मैं ।
साह के सपूत सिवराज समसेर तेरो दिल्ली दल दाषिके दिवाल राखी दुनी मैं ।

भूषण की जितनी रचनायें हैं वे सब वीर रस के दर्प से दर्पित हैं। शृंगार रस की ओर उन्हों ने दृष्टिपात भी नहीं किया । देखिये, नीचे के पद्यों की पदावली में धर्मरक्षा की तरंग किस प्रकार तरंगायमान है: [ ३५५ ]

१-देवल गिरावते फिरावते निसान अली,

ऐसे डूबे राव राने सबै गये लब की।

गौरा गनपति आप औरन को देत ताप,

आप के मकान सब मार गये दबकी।

पीरां पैगम्वरां दिगम्बरां दिखाई देत,

• सिद्ध की सिधाई गयी रही बात रबकी।

कासिहुं ते कला जाती मथुरा मसीत होती,

सिवाजी न होतो तौसुनति होतीसबकी।

२-वेद राखे विदित पुरान राखे सारजुत,

रामनाम राख्यो अति रसना सुघर मैं ।

हिन्दुन की चोटी रोटी राखो है सिपाहिन की,

कांधे मैं जनेऊराख्यो माला राखी गरमैं ।

मींड़ि राखे मुगल मरोरि राखे पादशाह,

बैरी पीसि राखे बरदान राख्यो कर मैं ।

राजन की हद्द राखी तेग बल सिवराज,

देव राखे देवल स्वधर्म राख्यो घर मैं ।

उनके कुछ बीररस के पद्यों को भी देखिये ।

३-डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी सी रहति छाती,

बाढ़ी मरजाद जस हद्द हिन्दुआने की। •

कढ़ि गयी रैयत के मन की कसक सब,

मिटि गयी ठसक तमाम तुरकाने की।

भूषन भनत दिल्लीपति दिल धकधक,

सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की।

[ ३५६ ]

मोटी भई चंडी बिन चोटी के चबाय मुंड,

खोटी भई संपति चकत्ता के घराने की।

४-जीत्यो सिवराज सलहेरि को समर सुनि,
सुनि असुरन के सुसीने धरकत हैं।

देवलोक नागलोक नरलोक गावैं जस,

अजहूं लौं परे खग्ग दाँत खरकत हैं।

कटक कटक काटि कीट से उड़ाय केते,

भूषन भनत मुख मोरे सरकत हैं ।

रनभमि लेटे अधकटे कर लेटे परे,

रुधिर लपेटे पठनेटे फरकत हैं ।

दो पद्य ऐसे देखिये जो अत्युक्ति अलंकार के हैं। उनमें से पहले में शिवाजी के दान की महिमा वर्णित है और दूसरे में शत्रु -दल के वाला और वालकों की कष्ट कथा विशद रूपमें लिखी गयी है। दोनों में उनके कवि-कर्म का सुन्दर विकास हुआ है।

५-आज यहि समै महाराज सिवराज तूही,

जगदेव जनक जजाति अम्बरीष सों ।

भूषन भनत तेरे दान-जल जलधि में

गुनिन को दारिद गयो बहि खरीक सों।

चंद कर कंजलक चांदनी पराग

. उड़वृंद मकरंद वुंद पुंज के सरीक सों।

कंद सम कयलास नाक गंग नाल,

तेरे जस पुंडरीक को अकास चंचरीकसों।

६-दुर्जन दार भजि भजि बेसम्हार चढ़ीं

उत्तर पहार उरि सिवा जी नरिंद ते।

[ ३५७ ]

भूषन भनत बिनभूषन बसन साधे भूषनपियासन

हैं नाहन को निंदते।।

बालक अयाने बाट बीच ही बिलाने,

कुम्हिलाने मुख कोमल अमल अरबिन्दते ।

दृग-जल कज्जल कलित बढ्यो कढ्यो मानो,

• दूजो सोत तरनि तनूजा को कलिंद ते ।

भूषण की भाषा में जहाँ ओज की अधिकता है वहाँ उस में उतनी सरसता और मधुरता नहीं। जितनी मतिराम को भाषा में है। यह सच है कि भूषण वीररस के कवि हैं और मतिराम श्रृंगार रस के। दोनों की प्रणाली भिन्न है। साहित्य-नियमानुसार भूषण की परुषा वृत्ति है और मतिराम की वैदर्भी। ऐसी अवस्था में भाषा का वह सौन्दर्य जो मतिराम की रचनाओं में है भूषण की वृत्ति में नहीं मिल सकता । किन्तु जहां उनको वैदर्भी वृत्ति ग्रहण करनी पड़ी है, जैसे छठें और सातवें पद्यों में. वहां भी वह सरसता नहीं आयी जैसी मतिराम की रचनाओं में पायी जाती है। सच्ची बात यह है कि भाषा लालित्य में वे मतिराम की समता नहीं कर सकते । किंतु उनकी विशेषता यह है कि उनमें धर्म की ममता है, देशका प्रेम है और है जातिका अनुराग । इन भावों से प्रेरित हो कर जो राग उन्होंने गाया उसकी ध्वनि इतनी विमुग्धकरी है, उसमें यथाकाल जो गूंज पैदा हुई, उसने जो जीवनी धारा बहायी वह ऐसी ओजमयी है कि उसकी प्रतिध्वनि अब तक हिन्दी साहित्य में सुन पड़ रही है। उसी के कारण हिन्दी-संसार में वे वीर-रस के आचार्य माने जाते हैं। उनका सम- कक्ष अब तक हिन्दी-साहित्य में उत्पन्न नहीं हुआ। आज तक इस गौरवमय उच्च सिंहासन पर वे ही आसीन हैं । और क्या आश्चर्य कि चिरकाल तक वे ही उस पर प्रतिष्ठित रहें।

इनकी मुख्य भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उसमें उसके सब लक्षण पाये जाते हैं। परंतु अनेक स्थानों पर इनकी रचना में खड़ी बोली के प्रयोग भी मिलते हैं । नीचे की पंक्तियों को देखियेः[ ३५८ ]१-'अफजलखान को जिन्हों ने मयदान मारा'

२-'देखत में रुसतमखां को जिन खाक किया'

३-'कैद किया साथ का न कोई बीर गरजा'

४-'अफजल का काल सिवराज आया सरजा'

उन्होंने प्राकृत भाषा के शब्दों का भी यत्र तत्र प्रयोग किया है। 'खग्ग' शुद्ध प्राकृत शब्द है । पर निम्न लिखित पंक्ति में वह ब्यवहृत है।

'भूषन भनत तेरी किम्मति कहाँ लौं कहौं

अजहूँ लौं परे खग्ग दाँत खरकत हैं।

पंजाबी भाषा का प्रयोग भी कहीं कहीं मिलता है। 'पीरां पैगंवरां दिगंबरां दिखाई देत' इस वाक्य में चिन्हित शब्द पंजाबी हैं। कोबी कहैं कहाँ ओ गरीबी गहे भागी जाहिं इसमें कीबो' शब्द बुंदेलखंडी है। इसी प्रकार फारसी शब्दों के प्रयोग करने में भी वे अधिक स्वतंत्र हैं, शब्द गढ़ भी लेते हैं। गाढ़े गढ़ लीने अरु बेगे कतलाम कीन्हे.' 'चारि को सो अंक लंक चंद सरमाती हैं'. 'जानि गैर मिसिल गुसीले गुसा धारि उर' इन वाक्य खंडों के चिन्हित शब्द ऐसे ही हैं। प्रयोजन यह कि उनकी मुख्य भाषा व्रजभाषा अवश्य है, परंतु शब्द-विन्यास में उन्होंने बहुत स्वतंत्रता ग्रहण की है। फ़ारसी के शब्दों का जो अधिक प्रयोग उनकी रचना में हुआ. उसका हेतु उनका विषय है, शिवाजी की विजय का सम्बन्ध अधिकतर मुसल्मानों की सेना और वर्तमान सम्राट औरंगज़ेब से था। इस लिये उनको अनेक स्थानों पर अपनी रचना में फ़ारसी अरबो के शब्दों का प्रयोग करना पड़ा। कहीं कहीं उनको उन्होंने शुद्ध रूप में ग्रहण किया और कहीं उनमें मनमाना परिवर्तन छन्द की गति के अनुसार कर लिया। इसो सूत्र से खड़ी बोली के वाक्यों का मिश्रण भी उनकी कविता में मिलता है। परन्तु इन प्रयोगों का इतना वाहुल्य नहीं कि उनसे उनकी मुख्य भाषा लाञ्छित हो सके।

(४) कुलपति मिश्र आगगे के निवासी चतुर्वेदी ब्राह्मण थे। ये सँस्कृतके बड़े विद्वान् थे इन्हों ने काव्य-प्रकाश के आधार पर 'रस-रहस्य' नामक [ ३५९ ]एक ग्रन्थ लिखा है. उसमें काव्य के दसों अङ्गों का विशद वर्णन है इनके और भी ग्रन्थ बतलाये जाते हैं । जिनमें ‘संग्रह-सार', 'युक्ति-तरंगिनी, और 'नख शिख' अधिक प्रसिद्ध हैं। ये जयपुर के महाराज जयसिंह के पुत्र रामसिंह के दरबारी कवि थे। अपने ‘रस रहस्य' नामक ग्रन्थ में इन्होंने रामसिंह को बहुत अधिक प्रशंसा की है। इनकी अधिकांश रचना की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। जिसमें बड़ी ही प्राञ्जलता और मधुरता है । किंतु कुछ रचनायें इनका ऐसी भी हैं जिनमें खड़ी बोली के साथ फारसी, अरबी शब्दों का प्रयोग अधिकता से मिलता है। इससे पाया जाता है कि इन्हों ने फारसी भी पढ़ी थी । इन्होंने ऐसी रचना भी की है जिस में प्राकृत के शब्द अधिकता से आये हैं । इन तीनों के उदाहरण क्रमशः नीचे दिये जाते हैं:-

१-ऐसिय कुञ्ज बनै छवि पुज रहें

अलि गुंजत यों सुख लीजै ।

नैन विसाल हिये बनमाल बिलोकत

रूप सुधा भरि पीजै ।

जामिनि जाम की कौन कहै जुग

जात न जानिये ज्यों छिन छीजै ।

आनँद यों उमग्यो हो रहैं पिय
मोहन को मुख देखिबो कीजै ।

२-हूँ मैं मुशताक़ तेरी सूरत का नूर देखि

दिल भरि पूरि रहै कहने जवाब से•।

मेहर का तालिब फ़क़ीर है मेहरेबान

चातक ज्यों जीवता है स्वातिवारे आब से।

तू तो है अयानी यह खूबी का खजाना तिसे

खोलि क्यों न दीजैसेर कीजिये सवाब से ।

[ ३६० ]

देर की न ताब जान होत है कबाब

बोल हयाती का आब बोलोमुख महताब से।

३-दुज्जन मद मद्दन समत्थ जिमि पत्थ दुहुँनि कर ।

चढ़त समर डरि अमर कंप थर हरि लग्गय धर ।

अमित दान दै जस बितान मंडिय महि मंडल ।

चंड भानु सम नहिं प्रभानु खंडिय आखंडल ।

कुलपति मिश्र अपने समय के प्रसिद्ध कवियों में थे उनकी गणना आचार्यों में होती है।

(५) जोधपुरके महाराज जसवन्तसिंह जिस प्रकार एक वीर हृदय भूपाल थे उसी प्रकार कविता के भी प्रेमी थे। औरङ्गज़ेब के इतिहास से इनका जीवन सम्बन्धित है। इन्हों ने अनेक संकट के अवसरों पर उसकी सहायता की थी, किन्तु निर्भीक बड़े थे। इसलिये इन्हें काबुल भेज कर औरङ्गज़ेबने मरवा डाला था। इनको वेदांत से बड़ा प्रेम था। इसलिये 'अपरोक्ष सिद्धान्त', 'अनुभव प्रकास', 'आनन्द-विलास', 'सिद्धान्तसार' इत्यादि ग्रन्थ इन्होंने इसी विषय के लिखे। कुछ लोगों की सम्मति है कि इन्होंने पारंगत विद्वानों द्वारा इन ग्रन्थों की रचना अपने नाम से कराई। परन्तु यह बात सर्व-सम्मत नहीं। मेरा विचार है, इन्हों ने ऐसे समय में जब श्रृंगार रस का स्रोत बह रहा था, वेदान्त सम्बन्धी ग्रंथ रच कर हिन्दी-साहित्य भाण्डार को उपकृत किया था । भाषा भूषण' इनका अलंकार-सम्बन्धी ग्रंथ है। इस रचना में यह विशेषता है कि दोहे के एक चरण में लक्षण और दूसरे में उदाहरण है. यह संस्कृत के चन्द्रालोक ग्रंथ का अनुकरण है, मेरा विचार है कि इस ग्रन्थ के आधार से ही इन्हों ने अपनी पुस्तक बनाई है।

कविता की भाषा व्रजभाषा है और उसमें मौलिकता का सा आनन्द है। हां, संस्कृत अलंकारों के नामों का बीच बीच में व्यवहार होने से प्रांजलता में कुछ अन्तर अवश्य पड़ गया है। कुछ स्फुट दोहे भी हैं, [ ३६१ ]उनमें अधिक सरसता पायी जाती है । दोनों के उदाहरण नीचे लिखे जाते हैं।

मुखससि वा ससि सों अधिक उदित जोति दिन राति।
सागर तें उपजी न यह कमला अपर सोहाति ।
नैन कमल ये ऐन हैं और कमल केहि काम ।
गमन करन नीकी लगै कंनक लता यह बाम ।
अलंकार अत्युक्ति यह बरनत अति सै रूप ।
जाचक तेरे दान ते भये कल्प तरु भूप ।
पर जस्ता गुन और को और विषे आरोप ।
होय सुधाधर नाहिं यह बदन सुधाधर ओप ।

महाराज जमवन्त सिंह ऐसे पहले हिन्दी साहित्यक हैं. जिन्होंने हिन्दी भाषा का एक नहीं कई सुन्दर पद्य ग्रन्थ राज्यासन पर विराजमान हो कर भी प्रदान किये। यह इस बात का प्रमाण है कि उन दिनों ब्रजभाषा प्रकार समाहत हो कर विस्तार-लाभ कर रही थी ।

(६)गोपालचन्द्र मिश्र छत्तीसगढ़ के रहनेवाले थे। इनके पुत्र का नाम माखनचन्द्र था। इन्होंने पांचग्रन्थों की रचना की थी. जिनमें से जैमिनी अशवमेघ', भक्ति-चिंतामणि' और छन्दविलास' अधिक प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि एक हैहयवंशी गजा के ये मन्त्री थे ओर उनके यहाँ इनका बड़ा सम्मान था। 'छन्द-विलास' नामक ग्रन्थ वे अधूरा छोड़ गये थे। जिसे उनके पुत्र माखनचन्द्रने उनकी आज्ञासे पूरा किया था। ये सरस हृदय कवि थे और भावमयी रचना करनेमें समर्थ थे । इनके कुछ पद्य देखियेः-

१-सोई नैन नैन जो बिलोके हरि मूरति को।
सोई बैन बैन जे सुजस हरि गाइये ।
सोई कान कान जाते सुनिये गुनानुवाद
सोई नेह नेह हरि जू सों नेह लाइये ।

[ ३६२ ]

सोई देह देह जामैं पुलकित रोम होत,

सोई पाँव पाँव जाते तीरथनि जाइये ।

सोई नेम नेम जे चरन हरि प्रीति बाढ़ै

सोई भाव भाव जो गुपाल मन भाइये ।

२-दान सुधा जल सों जिन सींचि

सतो गुन बीच बिचार जमांयो ।

बाढ़ि गयो नभ मण्डल लौं महि

मण्डल घेरि दसो दिसि छायो ।

फूल घने परमारथ फूलनि

पुन्य बड़े फल ते सरसायो ।

कीरति वृच्छ बिसाल गुपाल

सु कोबिद बृन्द विहंग बसायो।

इनकी कविता की भाषा साहित्यिक व्रजभाषा है और उसमें मधुरता के साथ प्रांजलता भी है।

(•) सुखदेवमिश्र की गणना हिन्दी के आचार्यों में है। उन्होंने रीति ग्रन्थों की रचना बड़े पांडित्य के साथ की है। वे संस्कृत और भाषा दोनों के बड़े विद्वान थे । उनके 'वृत्तविचार . रसार्णव'. 'श्रृंगारलता' और नखशिख' आदि बड़े सुन्दर ग्रन्थ हैं । उनका अध्यात्म-प्रकाश प्रसिद्ध ग्रन्थ है। अनेक राज्य दरबारों में उनका सम्मान था । उन्हें कविराज को पदवी मिली थी। उनकी रचनायें प्रौढ़, काव्य-गुणों से अलंकृत. और साहित्यिक ब्रजभाषा के आदर्श-स्वरूप हैं। कुछ पद्य देखिये।

जोहै जहाँ मगु नन्द कुमार तहाँ

चली चन्दमुखी सुकुमार है ।

मोतिन ही को कियो गहनों सब

फूल रही जनु कुन्द की डार है ।

[ ३६३ ]

भीतर ही जु लखी सु लखी अब

बाहिर जाहिर होति न दार है।

जोन्ह सी जोन्है गई मिलि यों

मिलि जात ज्यों दृध में दूध की धार है।

मंदर महिंद गन्ध मादन हिमालय में

जिन्हें चल जानिये अचल अनुमाने ते।

भारेक जरारे तैसे दीरघ दतारे मेघ

मण्डल विहंडैं जे वै सुंडा दंड ताने ते।

कीरति विसाल क्षिति पाल श्री अनूप तेरे

दान जो अमान कापै बनत बखाने ते ।

इतै कवि मुख जस आखर खुलत

उतै पाखर समेत पील खुलै पीलखाने ते।

इनका अध्यात्म-प्रकाश वेदांतका बड़ा सुन्दर ग्रंथ है। उसको रचना की बड़ी प्रशंसा है. उसमें विषय-सम्वन्धी ऐसी महत्तायें हैं कि उनके आधार से लोग इनको महात्मा कहने लगे थे। इसमें संदेह नहीं कि इनकी रचनायें ब्रज- भाषा-साहित्य में अमूल्य हैं। उसी के वल से इन्होंने औरंगज़ेब के मंत्री फाज़िल अली से बड़ा सत्कार प्राप्त किया था, जो इस बातका सूचक है कि अकबर के समय से जो ब्रजभाषा को धाक उनके बंशवालों पर जमी वह लगातार बहादुर शाह तक अचल रही ।

(८) कालिदास त्रिवेदी सहृदयता में यथा नामः तथा गुणः अर्थात दूसरे कालिदास थे। 'कालिदास हज़ारा' इनका बड़ा मुंदर संग्रह कहा जांता है इसमें २०० से अधिक कवियों की रचनायें संगृहीत हैं। इसके आधार से शिवसिंह सरोजकार ने अनेक प्राचीन कवियों की जीवनी का उद्धार किया था । इनका नायिका-भेद का वधू-विनोद नामक ग्रंथ भी प्रसिद्ध ग्रंथ है। इन्होंने 'जंजीराबंद' नाम का एक ग्रंथ भी बनाया था । उसमें ३२ कबित्त [ ३६४ ]है, उसे सभो कवि-जीवनी लेखकों ने बड़ा अद्भुत बतलाया है । वास्तव में कालिदास बड़े सहृदय कवि थे । उनकी रचनायें एक सुविकसित सुमन के समान मनोहर और सुधानिधि की कला के समान कमनीय हैं । उनकी रचना की रसीली भाषा इस बात का सनद ब्रजभाषा को देती है कि वह सरस से सरस है:-

चूमौ करकंज मंजु अमल अनूप तेरो,

रूप के निधान कान्ह मोतन निहारि दै ।

कालिदास कहै मेरी ओर हरे हेरि हरि,

माथे धरि मुकुट लकुट कर डारि दै ।

कुंवर कन्हैया मुखचंद की जुन्हैया चारु,

लोचन चकोरन की प्यासन निवारि दै ।

मेरे कर मेंहदी लगी है नंद लाल प्यारे,

लट उरझी है नेक बेसर सुधारि दै ।

हाथ हंसि दीन्हों भीति अंतर परसि प्यारी,

देखत ही छकी मति कान्हर प्रवीन की ।

निकस्यो झरोखे मांझ बिगस्यो कमल सम.

ललित अंगूठी तामैं चमक चुनीन की ।

कालिदास तैसी लाली मेँहदी के बुंदन की,

चारु नखचंदन की लाल अँगुरीन की ।

कैसी छबि छाजत है छाप के छलान की

सुकंकन चुरीन की, जड़ाऊ पहुंचीन की।