हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/४ उत्तर-काल/(ग) रीति ग्रन्थकार

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

[ ३३४ ]

(ग)

इस सत्रहवीं शताब्दी में रीति ग्रन्थकार बहुत अधिक हुये । और उन्होंने शृंगार रस, अलंकार और अन्य विषयों की इतनी अधिक रचनायें की, कि ब्रजभाषा-साहित्य श्री सम्पन्न हो गया। यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि रीति ग्रन्थकारों ने शृंगार रस को ही अधिक प्रश्रय दिया परन्तु यह समय का प्रभाव था। यह शताब्दी जहांगीर और शाहजहाँ के राज्य-काल के अन्तर्गत है. जो विलासिता के लिये प्रसिद्ध है। जैसे मुसल्मान बादशाह और उनके प्रभावशाली अधिकारीगण इस समय बिला- सिता-प्रवाह में बह रहे थे वैसे ही इस काल के राजे और महाराजे भी । यदि मुस्लिम दरबार में आशिकाना मज़ामीन और शाइरी का आदर था तो राजे-महाराजाओं में रसमय भावों एवं बिलासितामय वासनाओं का सम्मान भी कम न था। ऐसी अवस्था में यदि शृंगार रसके साहित्य का अधिक विकास हुआ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। ज्ञान विराग योग इत्यादि में एक प्रकार की नीरसता सर्व-साधारण को मिलती है । उसके अधिकारी थोड़े हैं। शृंगार रस की धारा ही ऐसी है जिसमें सर्व- साधारण अधिक आनन्द लाभ करता है, क्योंकि उसका आस्वादन जैसा मोहक और हृदयाकर्षक है. वैसा अन्य रसों का नहीं। स्त्री-पुरुषों के परस्पर सम्मिलन में जो आनन्द और प्रलोभन है बाल बच्चों के प्यार और प्रेम में जो आकर्षण है उसमें ही सांसारिकता और स्वाभाविकता अधिक है। प्राणीमात्र इस रस में निमग्न है। परमार्थ का आनन्द न इतना व्यापक है और न इतना मोहक, चाहे वह उच्च कोटि का भले ही हो । आहार-विहार. स्त्री-पुत्रों का स्नेह और उससे उत्पन्न आनंदानुभव पशु[ ३३५ ]पक्षी-कृमि तक में व्याप्त है। परमार्थमावना उनमें है ही नहीं। यदि यह मावना मिलती है तो मनुष्य में ही मिलती है। परन्तु मनुष्य की इस भावना पर अधिकतर सांसारिकता का ही रंग चढ़ा है। परमार्थ- चिन्ता तो वह कभी कभी ही करता है। वह मी समष्टि-रूप से नहीं, व्यष्टि रूप से। यही कारण है कि कुछ महात्माओं और विद्या व्यसनी विद्वानों को छोड़ कर अधिकांश जनता शृंगार रस की ओर ही विशेष आकर्पित रहती है। और ऐसी दशा में यदि उसी के गीत अधिक कंठों से गाये जाते सुने जावें, उसी के ग्रन्थ अधिकतर सरस हृदय द्वारा रचे जावें और उनमें अधिकतर सरसता लालित्य और सुन्दर शब्द-विन्यास पाये जावें तो कोई आश्चर्य नहीं । अतएव सत्रहवीं शताब्दीमें यह स्वाभाविकता ही यदि बलवती हो कर कवि वृन्द द्वारा कार्य-क्षेत्र में आयी तो कोई विचित्र बात नहीं। इस शताब्दी के जितने बड़े बड़े कवि और रीतिग्रन्थकार हैं उनमें से अधिकांश इसी रंग में रेंगे हुये हैं और उनकी संख्या भी थोड़ी नहीं है। मैं सब की रचनाओं को आप लोगों के सामने उपस्थित करने में असमर्थ हूं। उनमें जो अग्रणी और प्रधान हैं और जिनकी कृतियों में 'भावगत' सुन्दर व्यंजनाय अथवा अन्य कोई विशेपतायें हैं। मैं उन्हीं की रचनायें आप लोगों के सामने उपस्थित कर के यह दिग्खलाऊंगा कि उस समय ब्रजभापा का श्रृंगार कितना उत्तम और मनोमोहक हुआ और किस प्रकार व्रजभाषा सुन्दर ओर ललित पदों का मांडार बन गयी। जिन सुकवियों अथवा महाकवियों की रचनाओं ने व्रजभापा संसार में उस समय कल्पना राज्य का विस्तार किया था उनमें से कुछ विशिष्ट नाम ये हैं-

(१) सेनापति, (२) बिहारी लाल. (३) चिन्तामणि, (४) मति राम, (५) कुलपति मिश्र, (६) जसवन्त सिंह. (७) बनवारी. (८) गोपाल चन्द्र- मिश्र, (९) बेनी और (१०) सुखदेव मिश्र । में क्रमशः इन लोगों के विषय में अपना विचार प्रकट करूगा और यह भी बतलाऊंगा कि इनकी रच- नाओं का क्या प्रमाव व्रजमापा पर पड़ा। बीच बीच में अन्य रसों के विशिष्ट महाकवियों की चर्चा भी करता जाऊंगा। [ ३३६ ]१) सेनापति कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। उन्होंने 'काव्य-कल्पद्रुम' और 'कवित-रत्नाकर' नामक दो ग्रन्थों की रचना की। वे अपने समय के बड़े ही विख्यात कवि थे। हिन्दू प्रतिष्ठित लोगों में इनका सम्मान तो था ही मुसल्मानों के दरबारों में मी उन्होंने पूरी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। व्रजमाषा जिन महाकवियों का गर्व कर सकती है उनमें सेनापति का नाम मी लिया जाता है । उनकी रचनायें अधिकतर प्रौढ़ सुन्दर. सरस और मावमयी हैं। षड्ऋतु का जेसा उदात्त और व्यापक वर्णन सेनापति ने किया वैसा दो एक महाकवियों की लेखनी ही कर सकी। उन्होंने अपना परिचय इस प्रकार दिया है:-

दीक्षित परशुराम दादा हैं विदित नाम ।
जिन कीन्हें जज्ञ जाकी विपुल बड़ाई है।
गंगाधर पिता गंगाधर के समान जाके ।
गंगातीर वसति “अनूप" जिन पाई है ।
महा जानमनि विद्या दान हूँते चिन्ता मनि।
हीरामनि दीक्षित ते पाई पंडिताई है ।
सेनापति सोई सीतापति के प्रसाद जाकी।
सब कवि कान दै सुनत कविताई है ।

कहा जाता है कि अंत में वे बिरक्त हो गये थे और क्षेत्र-सन्यास ले लिया था। इस भाव के पद्य भी उनकी रचनाओं में पाये जाते हैं। एक पद्य देखियेः-

केतो करौ कोय पैये करम लिखोय ताते।
दूसरो न होय डर सोय ठहराइये।
आधी ते सरस बाति गई है बयस ।
अब कुजन बरस बीच रस न बढ़ाइये।

[ ३३७ ]

चिंता अनुचित धरु धीरज उचित
सेनापति ह सुचित रघुपति गुन गाइये।
चारि बरदानि तजि पांय कमलेच्छन के
पायक मलेच्छन के काहे को कहाइये ।

विरक्ति-सम्बन्धी उनके दो पद्य और देखिये:-

१-पान चरनामृत को गान गुन गानन को।
हरिकथा सुनेसदा हिये को हुलसियो।
प्रभु के उतीरनि की गूदरी औ चीरनि की।
भाल भुज कंठ उरछापन कोलखियो।
सेनापति चाहत है सकल जनम भरि
वृदावन सीमा ते न याहर निकसियो।
राधा मनरंजन की सोभा नैन कंजन की
मालगरे गुंजन की कुंजन को बसियो।

२-महामोह कंदनि में जगत जकंदनि में
दीन दुख हुँदनि में जात है बिहाय कै ।
मुख को न लेस है कलेस सब भांतिन को
सेनापति याहीते कहत अकुलाय के।
आवै मन ऐसी घरबार परिवार तजौं
डारौं लोक लाजकेसमाज बिसराय के।
हरिजन पुजनि में वृदावन कुंजनि में
रहौं बैठि कई तरवर तर जाय कै।

एक पद्य उनका ऐसा देखिये जिसमें आर्य ललना की मर्यादाशीलता

का बड़ा सुंदर चित्र है:[ ३३८ ]

फूलन सों बाल की बनाइ गुही बेनी लाल,
भालदीनी बेंदी मृगमद की असित है।
अंग अंग भूषन बनाइ ब्रजभूषन जू
बीरी निज कर की खवाई अतिहित है।
है कै रस-बस जब दीबे को महावर के
सेनापति श्याम गह्यो चरन ललित है।
चूमि हाथ नाथ के लगाइ रही आँखिन सों
कही प्रानपति यह अति अनुचित है।

अब कुछ ऐसे पद्य देखिये जो ऋतु वर्णन के हैं, इनमें कितनी स्वाभाविकता, सरसता और मौलिकता है, उसका अनुभव स्वयं कीजिये:-

कातिक की राति थोरी थोरी सियराति
सेनापति को सुहाति सुखीजीवनकेगन हैं
फूले हैं कुमुद फुली मालती सघन बन
फूलि रहे तारे मानो मोती अनगन हैं।
उदित विमल चंद्र चांदनी छिटिक रही
राम कैसो जस अध ऊरध गगन है।
तिमिर हरन भयो सेत है बरन सब
मानहुं जगत छीर सागर मगन है।
सिसिर मैं ससि को सरूप पावै सविताऊ
घामहूं मैं चांदनी की दुति दमकति है।
सेनापति होती सीतलता है सहस गुनी
रजनी की झांई बासर में झमकति है।
चाहत चकोर सर ओर दृगछोर करि
चकवा की छातीधरि धीर धमकति है।

[ ३३९ ]

चन्द के भरम होत मोद है कुमोदिनी को
ससि संकपंकजिनी फूलि ना सकति है।
सिसिर तुषार के बुखार से उखारतु है
पूस बीते होत सून हाथ पाथ ठिरिकै।
द्योस की छुटाई की बड़ाई बरनी न जाइ
सेनापति गाई कछु,सोचिकै सुमिरिकै।
सीत ते सहस कर सहस चरन है कै
ऐसो जात भाजि तम आवतहैघिरिकै
जो लौं कोक कोकीसों मिलत तो लौं होत राति
कोक अति बीच ही ते आवतु है फिरिकै

एक मानसिक भाव का चित्रण देखिये और विचारिये कि उसमें कितनी स्वाभाविकता है:-

जो पै प्रान प्यारे परदेस को पधारे
ताते बिरहते भई ऐसी तातिय कीगतिहै
करि कर ऊपर कपोलहिं कमल नैनी
सेनापति अनिमनि बैठियै रहति है।
कागहिं उड़ावै कबौं-कबौं करै सगुनौती
कबौं बैठि अवधि के बासर गिनतिहै।
पढ़ी-पढ़ी पाती कबौं फेरि के पढ़ति
कबौं प्रीतम के चित्र में सरूप निरखतिहै।

आप कहेंगे कि भाषा-विकास के निरूपण के लिये कवि की इतनी अधिक कविताओं के उद्धरण की क्या आवश्यकता थी । किन्तु यह सोचना चाहिये कि भाषा के विकास का सम्बन्ध शाब्दिक प्रयोग ही से नहीं है, वरन् भाव-व्यंजना से मी है। भाषा की उन्नति के लिये जैसे चुस्त और [ ३४० ]सरस शब्द-विन्यास की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार मनोहर भाव- व्यंजना की भी । भाषा के विकास से दोनों का सम्बन्ध है। इस बात के प्रकट करने के लिये ही उनकी कविता कुछ अधिक उठाई गई । सेनापति की भाषा साहित्यिक व्रजभाषा है। हम उनकी भाषा को टकसाली कह सकते हैं। न तो उनकी रचना में खड़ी बोलो की छूत लग पायी है न अवधी के शब्दों का ही प्रयोग उनमें मिलता है। कहीं दो एक इस प्रकार के शब्दों का मिल जाना कवि के भाषाधिकार को लांछित नहीं करता। व्रजमाषा की पूर्व कथित कसौटी पर कसकर यदि आप देखेंगे तो सेनापति की भाषा बावन तोले पाव रत्ती ठीक उतरेगी। मैं स्वयं यह कार्य करके विस्तार नहीं करना चाहता। समस्त पदों से वे कितना बचते हैं, और किस प्रकार चुन चुन कर संस्कृत तत्सम शब्दों को अपनी रचना में स्थान देते हैं इस बात को आप ने स्वयं पद्यों को पढ़ते समय समझ लिया होगा। वे शब्दों को तोड़ते-मरोड़ते भी नहीं। दोषों से बचने की भी वे चेष्टा करते हैं । ये बातें ऐसी हैं जो उनको कविता को बहुत महत्व प्रदान करती हैं। उनके नौ पद्य उठाये गये हैं। उनमें से एक पद्य में ही एक शब्द द्यौस' ऐसा आया है जिसको हम विकृत हुआ पाते हैं। परन्तु यह ऐसा शब्द है जो व्रजभाषा की रचनाओं में गृहीत है। इसलिये इस शब्द को स्वयं गढ़ लेने का दोष उन पर नहीं लगाया जा सकता । किसी कविता का सर्वथा निर्दोष होना असंभव है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि साहित्यिक दोषों से उनकी कविता अधिकतर सुरक्षित है। इससे यह पाया जाता है कि उनकी कविता कितनी प्रौढ़ है। उनकी कविता की अन्य विशेषताओं पर मैं पहले ही दृष्टि आकर्षित करता आया हूं। इसलिये उसपर कुछ और लिखना वाहुल्य मात्र है। इनके जिन दो ग्रन्थों की चर्चा मैं ऊपर कर आया है उनमें से 'कवित्त रत्नाकर' अलंकार और काव्य की अन्य कलाओं के निरूपण का सुंदर ग्रन्थ है। काव्य-कल्पद्रुम' में उनकी नाना-रसमयो कविताओं का संग्रह है। दोनों ग्रन्थ अनूठे हैं और उनकी विशेषता यह है कि घनाक्षरी अथवा कवित्तों में ही वे लिखे गये हैं। कुछ दोहों को छोड़ कर दूसरा कोई छंद उसमें है ही नहीं।