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हिंदी साहित्य का इतिहास/आदिकाल/प्रकरण २ अपभ्रंश-काल

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प्रकरण २

अपभ्रंश काव्य

जब से प्राकृत बोलचाल की भाषा न रह गई तभी से अपभ्रंश-साहित्य का आविर्भाव समझना चाहिए पहले जैसे 'गाथा' या ‘गाहा' कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही पीछे “दोहा' या 'दूहा' कहने से अपभ्रंश या लोकप्रचलित काव्यभाषा का बोध होने लगा । इस पुरानी प्रचलित काव्यभाषा मे नीति, शृंगार, वीर आदि की कविताएँ तो चली ही आती थी, जैन और बौद्ध धर्माचार्य अपने मतों की रक्षा और प्रचार के लिये भी इसमें उपदेश आदि की रचना करते थे। प्राकृत से बिगड़कर जो रूप बोलचाल की भाषा ने ग्रहण किया वह भी आगे चलकर कुछ पुराना पड़ गया और काव्य-रचना के लिये रूढ़ हो गया। अपभ्रंश नाम उसी समय से चला । जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक-वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गई तब उसके लिये अपभ्रश शब्द का व्यवहार होने लगा।

भरत मुनि (विक्रम तीसरी शती) ने 'अपभ्रंश’ नाम न देकर लोकभाषा को ‘देशभाषा' ही कहा है। वररुचि के 'प्राकृत प्रकाश' में भी अपभ्रंश का उल्लेख नहीं है । अपभ्रंश' नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है जिससे उसने अपने पिता गुहसैन ( वि० सं० ६५० के पहले ) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है। भामह (विक्रम 9 वीं शती ) ने भी तीनों भाषा का उल्लेख किया है । बाण ने ‘हर्षचरित में संस्कृत कवियों के साथ भाषाकवियों का भी उल्लेख किया है । इस प्रकार अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी में रचना होने का पता हमे विक्रम की सातवीं शताब्दी से मिलता है । उस काल की रचना के नमूने बौद्धो की वज्रयान शाखा के सिद्धों की कृतियों के बीच मिले है । संवत् ९९० में देवसेन नामक एक जैन ग्रंथकार हुए हैं। उन्होने भी 'श्रावकाचार' नाम की एक पुस्तक दोहों में बनाई थी, जिसकी भाषा अपभ्रंस का अधिक प्रचलित रूप लिए हुए हैं, जैसे-

जो जिण सासण भाषियउ सो मई कहियउ सारु ।
जो पालम सइ भाउ करि सो तरि पावई पारु ।

इन्हीं देवसेन ने 'दब्ब-सहाव-पयास’ ( द्रव्य-स्वभाव-प्रकाश ) नामक एक और ग्रंथ दोहों में बनाया था जिसका पीछे से माइंल्ल धवल ने 'गाथा' या साहित्य की प्राकृत में रूपांतर किया। इसके पीछे तो जैन कवियो की बहुत सी रचनाएँ मिलती हैं, जैसे श्रुतिपंचमी कथा, योगसार, जसहरचरिउ, णयकुमारचरिउ इत्यादि । ध्यान देने की बात यह है कि चरित्र-काव्य या आख्यानकाव्य के लिये अधिकतर चौपाई दोहे की पद्धति ग्रहण की गई है। पुष्पदंत ( संवत् १०२६ ) के 'आदिपुराण' और उत्तर पुराण' चौपाइयों में हैं। उसी काल के आस-पास का असहचरिउ” (यशधर-चरित्र) भी चौपाइयों में रचा गया है, जैसे-

विणु धवलेण सयडु किं हल्लई । बिणु जीवेण देहु किं चल्लइ ।
विणु जीवेण मोख्य को पावइ । तुम्हारसु किं अप्पइ आवइ ।।

चौपाई-दोहे की यह परंपरा हम आगे चलकर सूफियों की प्रेम कहानियों मे, तुलसी के रामचरितमानस में तथा छत्रप्रकाश, व्रजविलास, सबलसिंह चौहान के महाभारत इत्यादि अनेक आख्यान-काव्यों में पाते हैं।


बौद्धधर्म विकृत होकर वज्रयान संप्रदाय के रूप में देश के पूरबी भागो में बहुत दिनों से चला आ रहा था । इन बौद्ध तान्त्रिको के बीच वामाचार अपनी चरम सीमा को पहुँचा। ये बिहार से लेकर आसाम तक फैले थे और सिद्ध कहलाते थे ! चौरासी सिद्ध इन्हीं में हुए हैं जिनका परंपरागत स्मरण जनता को अब तक है। इन तात्रिक योगियों को लोग अलौकिक-शक्ति-संपन्न समझते थे । ये अपनी सिद्धियों और विभूतियों के लिये प्रसिद्ध थे- राजशेखर ने ‘कर्पूरमंजरी' में भैरवानंद के नाम से एक ऐसे ही सिद्ध योगी का समावेश किया है । इस प्रकार जनता पर इन सिद्ध योगियों का प्रभाव विक्रम की १०वीं शती से ही पाया जाता है, जो मुसलमानों के आने पर पठानों के समय तक कुछ न कुछ बना रहा। बिहार के नालंदा और विक्रमशिला नामक प्रसिद्ध विद्यापीठ इनके अड्डे थे। बख्तियार खिलजी ने इन दोनों स्थानों को जब उजाड़ा तब ये तितर-बितर हो गए। बहुत से भोट आदि देशों को चले गए।

चौरासी सिद्धों के नाम ये हैं––लूहिपा, लीलापा, विरूपा, डोंभिपा, शवरीपा, सरहपा, कंकालीपा, मीनपा, गोरक्षपा, चौरंगीपा, वीणापा, शांतिपा, तंतिपा, चमरिपा, खडगपा, नागार्जुन, कण्हपा, कर्णरिपा, थगनपा, नारोपा, शीलपा, तिलोपा, छत्रपा, भद्रपा, दोखधिपा, अजोगिपा, कालपा, धोभीपा, कंकणपा, कमरिया, डेगिपा, भदेपा, तधेपा, कुक्कुरिपा, कुचिपा, धर्मपा, महिपा, अचिंतिपा, भल्लहपा, नतिनपा, भूसुकुपा, इंद्रभूति, मेकोपा, कुठालिए, जालंधरपा, राहुलपा, धर्वरिपा, धोकरिपा, मेदिनीपा, पंकजपा, घंटापा, जोगीपा, चेलुकपा, गुंडरिपा, लुचिकपा, निर्गुणपा, जयानंत, चर्पटीपा, चंपका, भिखनपा, भलिपा, कुमरिपा, चँवरिपा, मणिभद्रा (योगिनी), कनखलापा (योगिनी), कलंकलपा, कंतालीपा, धहुरिपा, उधरिपा, कपालपा, किलपा, सागरपा, सर्वभक्षपा, नाराबोधिपा, दारिकपा, पुतुलिपा, पनपा, कोकालिपा, अनंगपा, लक्ष्मीकरा (योगिनी) समुदपा, भलिपा।

('पा' आदरार्थक 'पाद' शब्द है। इस सूची के नाम पूर्वापर कालानुक्रम से नही है। इनमें से कई एक समसामयिक थे।)

वज्रयान शाखा में जो योगी 'सिद्ध' के नाम से प्रसिद्ध हुए वे अपने मत का संस्कार जनता पर भी डालना चाहते थे। इससे वे संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त अपनी बानी अपभ्रंश-मिश्रित देशभाषा या काव्यभाषा में भी बराबर सुनाते रहे हैं उनकी रचनाओं का एक संग्रह पहले म॰ म॰ हरप्रसाद शास्त्री ने बँगला अक्षरों में "बौद्धगान ओ दोहा" के नाम से निकाला था। पीछे त्रिपिटकाचार्य राहुल सांकृत्यायनजी भोट देश में जाकर सिद्धों की और बहुत सी रचनाएँ लाए। सिद्धों में सबसे पुराने 'सरह' (सरोजवज्र भी नाम है) हैं जिनका काल डाक्टर विनयतोष भट्टाचार्य्य[] ने विक्रम संवत् ६९० निश्चित किया है। उनकी रचना के कुछ नमूने दिए जाते हैं–– अंतस्साधना पर जोर और पंडितो को फटकार-

पंडिअ सअल सत्त बक्खाणइ । देहहि बुद्ध बसंत न जाणइ।
अमणागमण ण तेन बिखंडिअ । तोवि णिलज्ज भणइ हउँ पंडिअ ।।

जहि मन पवन ने संचरइ, रवि ससि नाहि पवेस ।
तहिं बट चित्त बिसाम करु, सरेहे कहिअ उवेस ।।
घोर अँधारे चँदमणि जिमि उज्जोअ करेइ ।
परम महासुह एखु कणे दुरिअ अशेष हरेइ ।।
जीवंतह जो नउ जर सो अजरामर होई ।
गुरु उपएसें बिमलमई सो पर घण्णा कोई ॥


दक्षिण मार्ग छोड़कर वाममार्ग-ग्रहण का उपदेश-

नाद न बिंदु न रवि न शशि मंडल । चिअराअ सहाबे मूकल ।
उजु रे उजु छाड़ि मा लेहु रे बंक । निअहि वोहि मा जादु रे रंक ।।

लूहिपा या लूइपा (संवत् ८३० के आसपास) के गीतो से कुछ उद्धरण-

काआ तरुवर पंच -बिडाल। चंचल चीए पइठो काल ।

दिट करिअ महासुह परिमाण । लूइ भणई गुरु पुंच्छिअ जाण ।।

भाव न होई, अभाव ण जाई । अइस संबोहे को पतिआइ

लुइ भणइ बट दुर्लक्ख बिणाण । तिअ धाए बिलसई, उह लागे णा ।

बिरूपा ( संक्त् ६०० के लगभग ) की वारुणी-प्रेरितं अतर्मुख साधना की पद्धति देखिए-

सहजे थिर करि वारुणी साध । अजरामर होइ दिट कांध । दशमि दुआरत चिह्न देखईआ । आइल गराहक अपणे बहिआ । चउशठि घडिए देट पसारा । पइठल गराहक नाहिं निसार ।

कण्हपा ( सं ०.९०० के उपरांत ) की बानी के कुछ खंड नीचे उद्धृत किए जाते हैं

एक्क ण किज्जइ मंत्र ण तंत । णिअ धरणी लइ केलि करंत ।
णिअ घर घरणी जाब ण मज्जइ । ताब किं पंचवर्ण बिहरिज्जइ ।
जिमि लोण बिलज्जइ पाण्डिएहि, तिमि घृरिणी लई चित्त ।
समरस जइ तखणे जइ पुषु ते सम नित्त ।।

वज्रयानियो की योग-तंत्र-साधना से सच्च तथा स्त्रियों का-विशेषतः डोमिनी, रजकी आदि का-अबाध सेवन एक आवश्यक अंग था । सिद्ध कण्हपा डोमिनी का आह्वान-गीत इस प्रकार गाते है-

नगर बाहिरै डोंबी तोहरि कुडिया छइ ।
छोइ जाई सो बार नाड़िया ।।

आलो डोंबि ! तोए सम करिब म साँग ।
निघिण कृण्ह कपाली जोइ लाग ।।
एक्क सो पदमा चौपहिं पाखुढी । तढ़ि चढि नाच डोंबी बापुडी ।।
हालो डोंबी! तो पुछमि सदभावे । अइससि जासि डॉबी काहरि नावे ।।
——————

गंगा जउँना माझे रे बहइ नाई ।
ताहि बुधिलि मातंगि पोइआ लीले पार करेइ ।
बाहतु डोंबी, बाहुलो डोबी बाट त भइल उछारा ।
सद्गुरु पाअ पए जाइव पुणु जिणउरा ।।
——————

काआ, नावड़ि खटि मन करिआल । सद्गुरु बअणे घर पतवाल ।
चीअ थिर करि गहु रे नाई ! अन्न उपाये पार ण जाई ।।

कापालिक जोगियो से बचे रहने का उपदेश घर में सास ननंद आदि देती ही रहती थी, पर वे आकर्षित होती ही थीं-जैसे कृष्ण की ओर गोपियों होती थी---

राग देस मोह लाइअ छार । परम मोख - लवए मुत्तिहार ।
मारिअ सासु नणंद घरे शाली। माअ मारिया, कण्ह, भइल कबाली ।।

थोड़ा घट के भीतर का विहार देखिए---

नाडि शक्ति दिअ थरिअ खदे । अनंह, डमरू बाजइ' बीर नादे ।
काण्ड कपाली जी पाठ अचारे । देह नअरी विहरइ एकारे ।।

इसी ढंग का कुक्कुरिपा (सं॰ ९०० के उपरांत) का एक गीत लीजिए––

ससुरी निंद गेल, बहुडी जागअ। कानैट चोर निलका गइ मागअ।
दिवसइ बहुढी काढ़ई डरे भाअ। राति भइले कामरू जाअ।

रहस्य-मार्गियों की सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार सिद्ध लोग अपनी बानी को ऐसी पहेली के रूप में भी रखते थे जिसे कोई विरला ही बूझ सकता है । सिद्ध तांतिपा की अटपटी बानी सुनिए-

बेंग संसार बाड़हिल जाअ। दुहिल दूध के बेटे समाअ॥
बलद बिआएल गविआ बाँझे। पिटा दुहिए एतिना साँझे॥
जो सो बुज्झी सों धनि बुधी। जो सो, चोर सोइ साधी॥
निते निते पिआला पिहे षम जुझअ। ढेंढपाएर गीत विरले बुझअ॥

ैै्ैैैै्ैैै्ैैैै्ैै्ैैैै्ैैै्ैैैैैै्ैैैै्ैैै्ैैैैै्ैैैै्ैैै

बौद्ध धर्म ने जब तांत्रिक रूप धारण किया तब उसमें पाँच ध्यानी बुद्धों और उनकी शक्तियों के अतिरिक्त अनेक बोधिसत्वों की भावना की गई जो सृष्टि का परिचालन करते है। वज्रयान में आकर 'महासुखवाद' का प्रवर्तन हुआ। प्रज्ञा और उपाय के योग से इस महासुखदशा की प्राप्ति मानी गई। इसे आनंद-स्वरूप ईश्वरत्व ही समझिए। निर्वाण के तीन अवयव ठहराए गए––शून्य, विज्ञान और महासुख। उपनिषद् में तो ब्रह्मानंद के सुख के परिमाण का अंदाज कराने के लिये उसे सहवास-सुख से सौगुना कहा था पर वज्रयान में निर्वाण के सुख का स्वरूप ही सहवास-सुख के समान बताया गया। शक्तियों सहित देवताओं के 'युगनद्ध' स्वरूप की भावना चली और उनकी नग्न मूर्तियों सहवास की अनेक अश्लील मुद्राओं में बनने लगीं, जो कहीं कही अब भी मिलती हैं। रहस्य या गुह्य की प्रवृत्ति बढ़ती गई और 'गुह्य समाज' या 'श्री समाज' स्थान स्थान पर होने लगे। ऊँचे नीचे कई वर्षों की स्त्रियों को लेकर मद्यपान के साथ अनेक बीभत्स विधान वज्रयानियों की साधना के प्रधान अंग थे। सिद्धि प्राप्त करने के लिये किसी स्त्री का (जिसे शक्ति, यौगिनी या महामुद्रा कहते थे) योग या सेवन आवश्यक था। इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस समय मुसलमान भारत में आए उस समय देश के पूरबी भागों में (बिहार, बंगाल और उड़ीसा में) धर्म के नाम पर बहुत दुराचार फैला था। रहस्यवादियों की सार्वभौम प्रवृत्ति के अनुसार ये सिद्ध लोग अपनी बानियों के सांकेतिक दूसरे अर्थ भी बताया करते थे, जैसे-

काआ तरुअर पंच बिड़ाल

(पंच विड़ाल- बौद्ध शास्त्रों में निरूपित पंच प्रतिबद्ध-आलस्य, हिंसा, काम, चिकित्सा और मोह। ध्यान देने की बात यह है कि विकारों की यही पॉच संख्या निर्गुण धारा के संतो और हिंदी के सूफी कवियो ने ली । हिदू शास्त्रों में विकारों की बंधी संख्या ६ हैं । )

गंगा जउँना माझे बहइ रे नाई ।

( - इला पिंगला के बीच सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से शून्य देश की ओर यात्रा ) इसी से वे अपनी बानियों की भाषा को "संध्याभाषा” कहते थे ।

ऊपर उद्धृत थोड़े से वचनो से ही इसका पता लग सकता है कि इन सिद्धो द्वारा किस प्रकार के संस्कार जनता में इधर उधर बिखेरे गए थे। जनता की श्रद्धा शास्त्रज्ञ विद्वानो पर ले हटाकर अंतर्मुख साधनोवाले योगियो पर जमाने का प्रयत्न ‘सरह' के इस वचन घट में ही बुद्ध है यह नहीं जानता, आवागमन को भी खंडित नहीं किया, तो भी निर्लज कहता है कि "मै पंडित हूँ” में स्पष्ट झलकता है। यहीं पर यह समझ रखना चाहिए कि योगमार्गी बौद्वो ने ईश्वरत्व की भावना कर ली थी-

अत्यात्मवेद्यो भगवान् उपमावर्जितः प्रभुः ।।

सर्वगः सर्वव्यापी च कर्ता हत्त जगत्पतिः ।।

श्रीमान् वजसत्त्वोऽसौ व्यक्तभाव-प्रकाशक ।।

-व्यक्त भावानुगत तत्त्वसिद्धि

( दारिकपा की शिष्या सहजयोगिनी चिता कृत )

इसी प्रकार जहाँ रवि, शशि, पवन आदि की गति नहीं वहाँ चित्त को विश्राम कराने का दावा, ऋजु' ( सीधे, दक्षिण ) मार्ग छोडकर ‘बंक’ (टेढ़ा, वाम ) मार्ग ग्रहण करने का उपदेश भी है । सिद्ध कण्हपा कहते हैं कि जब तक अपनी

1 Buddhist Esoteriom. Dr Benoytosh Bhattacharya गृहिणी का उपभोग न करेगा तब तक पंचवर्ण की स्त्रियों के साथ विहार क्या करेगा ?' । वज्रयान में ‘महासुह’ ( महासुख ) वह दशा बतलाई गई है जिसमे साधक शून्य में इस प्रकार विलीन हो जाता है जिस प्रकार नमक पानी में । इस दशा का प्रतीक खड़ा करने के लिये ‘युगनद्ध' ( स्त्री-पुरुष का आलिंगनबद्ध जोड़ा ) की भावना की गई । कण्हपा का यह वचन कि "जिमि लौण बिलिज्जइ पाणिएहि तिमि घरणी लई चित्त", इसी सिद्धांत का द्योतक है । कहने की आवश्यकता नहीं कि कौल, कापालिक आदि इन्हीं वज्रयानियों से निकले । कैसा ही शुद्ध और सात्विक धर्म हो, 'गुह्य' और 'रहस्य के प्रवेश से वह किस प्रकार विकृत और पाखंडपूर्ण हो जाता हैं, वज्रयान इसका प्रमाण है।


गोरखनाथ के नाथपंथ की मूल भी बौद्धों की यही वज्रयान शाखा है। चौरासी सिद्धों में गोरखनाथ ( गोरक्षपा ) भी गिन लिए गए है । पर यह स्पष्ट है कि उन्होंने अपना मार्ग अलग कर लिया । योगियों की इस हिंदूशाखा ने वज्रयानियों के अश्लील और बीभत्स विधान से अपने को अलग रखा, यद्यपि शिव-शक्ति की भावना के कारण कुछ शृंगारमयी वाणी भी नाथपंथ के किसी किसी ग्रंथ ( जैसे, शक्तिसंगम तंत्र ) में मिलती है । गोरख ने पतंजलि के उच्च लक्ष्य, ईश्वर-प्राप्ति को लेकर हठयोग का प्रवर्तन किया । वज्रयानी सिद्धों का लीला-क्षेत्र भारत का पूरबी भाग था । गोरख ने अपने पंथ का प्रचार देश के पश्चिमी भागो मे--–राजपुताने और पंजाब में----किया । पंजाब में नमक के पहाड़ों के बीच बालनाथ योगी का स्थान बहुत दिनों तक प्रसिद्ध रहा । जायसी की पद्मावत में "बालनाथ का टीला" आया है ।

गोरखनाथ के समय का ठीक पता नहीं । राहुल सांकृत्यायनजी ने वज्रयानी सिद्धो की परंपरा के बीच उनका जो स्थान रखा है, उसके अनुसार उनका समय विक्रम की दसवीं शताब्दी आता है । उनका आधार वज्रयानी सिद्धों की एक पुस्तक "रत्नाकर जोपम कथा" है, जिसके अनुसार मीननाथ के पुत्र मत्स्येद्रनाथ कामरूप के मछवाहे थे और चर्पटीपा के शिष्य होकर सिद्ध हुए थे । पर सिद्धो की अपनी सूची में सांकृत्यायनजी ने ही मत्स्येंद्र को जलंधर का शिष्य लिखा है, जो परंपरा से प्रसिद्ध चला आता है । गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्रनाथ ( मछंदरनाथ ) थे, यह तो प्रसिद्ध ही है । सांकृत्यायनजी ने मीननाथ या मीनपा को पालवंशी राजा देवपाल के समय में अर्थात् संवत् ९०० के आसपास माना है । यह समय उन्होने किस आधार पर स्थिर किया, पता नहीं । यदि सिद्धों की उक्त पुस्तक में मीनपा के राजा देवपाल के समय में होने का उल्लेख होता तो वे उस ओर विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करते । चौरासी सिद्धो के नामों में हेर-फेर होना बहुत संभव हैं । हो सकता है कि गोरक्षपा और चौरंगीपा के नाम पीछे से जुड़ गए हो और मीनपा से मत्स्येद्र का नाम-साम्य के अतिरिक्त, कोई संबंध न हो। ब्रह्मानंद ने दोनों को बिल्कुल अलग माना भी है ( सरस्वती भवन स्टडीज )। संदेह यह देखकर और भी होता है कि सिद्धों की नामावली में और रस सिद्ध की जाति और देश का उल्लेख है, पर गोरक्ष और चौरंगी का कोई विवरण नहीं। अतः गोरखनाथ का समय निश्चित रूप से विक्रम की १० वी शताब्दी मानते नहीं बनता ।

महाराष्ट्र संत ज्ञानदेव ने, जो अलाउद्दीन के समय ( सवत् १३५८ ) में थे, अपने को गोरखनाथ की शिष्य-परम्परा में कहा है। उन्होंने यह परंपरा इस क्रम में बताई है -

आदिनाथ, मत्येंद्रनाथ, गोरक्षनाथ, गैनोनाथ, निवृत्तिनाथ और ज्ञानेश्वर ।

इस महाराष्ट्र-परंपरा के अनुसार गोरखनाथ का समय महाराज पृथ्वीराज के पीछे आता है। नाथ-परंपरा में मत्स्येद्रनाथ के गुरु जलंधरनाथ माने जाते हैं। भोट के ग्रंथों में भी सिद्ध जलंधर आदिनाथ कहे गए हैं। सब बातों का विचार करने से हमें ऐसा प्रतीत होता है कि जलंधर ने ही सिद्धों से अपनी परम्परा अलग की और पंजाब की ओर चले गए। वहाँ काँगड़े की पहाडियों तथा और स्थानों में रमते रहे। पंजाब का जलंधर शहर उन्हीं का स्मारक जान पड़ता है। नाथ संप्रदाय के किसी ग्रंथ में जलंधर को बालनाथ भी कहा है । नमक के पहाड़ों के बीच ‘बालनाथ का टीला' बहुत दिनों तक प्रसिद्ध रहा। मत्स्येन्द्र जलंधर के शिष्य थे, नाथपंथियों की यह धारणा ठीक जान पड़ती है। मीनपा के गुरु चर्पटीनाथ हो सकते हैं, पर मत्स्येंद्र के गुरु जलंधर ही थे । सांकृत्यायन जी ने गोरख का जो समय स्थिर किया है, वह मीनपा का राजा देवपाल का समसामयिक और मत्स्येंद्र का पिता मानकर । मत्स्येंद्र का मीनपा से कोई संबंध न रहने पर उक्त समय मानने का कोई आधार नहीं रह जाता और पृथ्वीराज के समय के आसपास ही- विशेषतः कुछ पीछे-गोरखनाथ के होने का अनुमान दृढ़ होता है।

जिस प्रकार सिद्धों की संख्या चौरासी प्रसिद्ध है, उसी प्रकार नाथो की संख्या नौ। अब भी लोग 'नवनाथ' और 'चौरासी सिद्ध' कहते सुने जाते हैं। ‘गोरक्ष सिद्धांतसंग्रह' में मार्ग प्रवर्तको के ये नाम गिनाए गए हैं:-

नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चंद्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरक्षनाथ, चर्पट, जलंधर और मलयार्जुन ।

इन नामों में नागार्जुन, चर्पट और जलंधर सिद्धो की परंपरा में भी है । नागार्जुन (सं० ७०२) प्रसिद्ध रसायनी भी थे । नाथपंथ में रसायन की सिद्धि है । नाथपंथ सिद्धों की परंपरा से ही छटकर निकला है, इसमें कोई संदेह नहीं।

इतिहास से इस बात का पता लगता है कि महमूद गजनवी के भी कुछ पहले सिंध और मुलतान में कुछ मुसलमान बस गए थे जिनमें कुछ सूफी भी थे । बहुत से सूफियों ने भारतीय योगियों से प्राणायाम आदि की क्रियाएँ सीखीं, इसका उल्लेख मिलता है । अतः गोरखनाथ चाहे विक्रम की १०वीं शताब्दी में हुए हों चाहे १३वीं में, उनका मुसलमानों से परिचित होना अच्छी तरह मानी जा सकती है; क्योंकि जैसा कहा जा चुका है, उन्होने अपने पंथ का प्रचार पंजाब और राजपूताने की ओर किया ।

इतिहास और जनश्रुति से इस बात का पता लगता है कि सूफी फकीरों और पीरो के द्वारा इसलाम को जनप्रिय बनाने का उद्योग भारत में बहुत दिनो तक चलता रहा । पृथ्वीराज के पिता के समय में ख्वाजा मुईनुद्दीन के अजमेर आने और अपनी सिद्धि का प्रभाव दिखाने के गीत मुसलमानों में अब तक गाए जाते हैं । चमत्कारों पर विश्वास करनेवाली भोली-भाली जनता के बीच अपना प्रभाव फैलाने में इन पीरो और फकीरो को सिद्धों और योगियों से मुकाबला करना पड़ा जिनका प्रभाव पहले से जमा चला आ रहा था । भारतीय मुसलमानों के बीच, विशेषतः सूफियों की परम्परा में, ऐसी अनेक कहानियाँ चली जिनमें किसी पीर ने किसी सिद्ध या योगी को करामात में पछाड़ दिया । कई योगियों के साथ ख्वाजा मुईनुद्दीन का भी ऐसा ही करामाती दंगल कहा जाता है । उपर कहा जा चुका है कि गोरखनाथ की हठयोग-साधना ईश्वरवाद को लेकर चली थी अतः उसमें मुसलमानों के लिये भी आकर्षण था । ईश्वर से मिलाने वाला योग हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिये एक सामान्य साधना के रूप में आगे रखा जा सकता है, यह बात गोरखनाथ को दिखाई पड़ी थी। उसमें मुसलमानों को अप्रिय मूर्तिपूजा और बहुदेवोपासना की आवश्यकता न थी । अतः उन्होंने दोनों के विद्वेश-भाव को दूर करके साधना का एक सामान्य मार्ग निकालने की संभावना समझी थी और वे उसका संस्कार अपनी शिष्य-परंपरा में छोड गए थे । नाथसंप्रदाय के सिद्धांत-ग्रंथो में ईश्वरोपासना के बाह्य विधान के प्रति उपेक्षा प्रकट की गई है, घट के भीतर ही ईश्वर को प्राप्त करने पर जोर दिया गया है, वेद शास्त्र का अध्ययन व्यर्थ ठहराकर विद्वानों के प्रति अश्रद्धा प्रकट की गई है, तीर्थाटन आदि निष्फल कहे गए हैं।

१. योगशास्त्र पठेन्नित्यं किमन्यैः शास्त्र-विस्तरैः ।
२. न वेदो वेद इत्याहुर्वेदा वेदो निगद्यते ।
परमात्मा विद्यते येन स वेदो वेद उच्यते ।
न संध्या संधिरित्याहुः संध्या संधिर्निगद्यते ।
सुषुम्णा संधिमः प्राणः सा संध्या सधिरुच्यते ।।}}

अंतस्साधना के वर्णन में हृदय दर्पण कहा गया है जिसमें आत्मा के स्वरूप का प्रतिबिंब पड़ता है-

३. हृदयं दर्पणं यस्य मनस्तत्र विलोकयेत् ।
दृश्यते प्रतिबिंबेन आत्मरूपं सुनिश्चितम् ।।

परमात्मा की अनिर्वचनीयता इस ढंग से बताई गई है-

शिवं न जानामि कथं वदामि । शिव च जानामि कथं वदामि ॥

इसके संबंध में सिद्ध लुहिपा भी कह गए हैं---

भाव न होइ, अभाव न होइ । अइस संबोहे को पतिआइ ?

'नाद' और 'बिंदु' संज्ञाएँ वज्रयान सिद्धों में बराबर चलती रही । गोरखसिद्धांत में उनकी व्याख्या इस प्रकार की गई है--

नाथाशो नादो, नादाशः प्राणे; शक्त्यशो बिन्दु, विन्दोराश: शरीरम्।

 

––गोरक्षसिद्भातसंग्रह

(गोपीनाथ कविराज संपादित)

'नाद' और 'बिंदु' के योग से जगत् की उत्पत्ति सिद्ध और हठयोगी दोनो मानते थे।

तीर्थाटन के संबंध में जो भाव सिद्धो का था वहीं हठयोगियों का भी रहा। 'चित्तशोधन प्रकरण' में बज्रयानी सिद्ध आर्यदेव (कर्णरीपा) का वचन है––

प्रतरन्नपि गंगायां नैव श्वा शुद्धिमर्हति।
तस्माद्धर्मधिया पुंसां तीर्थस्नानं तु निष्फलम्॥
धर्मो यदि भवेत् स्नानात् कैवर्तानां कृतार्थता।
नक्तं दिवं प्रविष्टाना मत्स्यादीनौ तु का कथा॥

जनता के बीच इस प्रकार के भाव क्रमशः ऐसे गीतो के रूप में निर्गुणपंथी संतों द्वारा आगे भी बराबर फैलते रहे, जैसे––

गंगा के नहाए कहो को नर तरिगे, मछरी न तरी, जाको पानी में घर है

यहाँ पर यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है कि ८४ सिद्धों में बहुत से मछुए, चमार, धोवी, डोम, कहार, लकड़हारे, दरजी तथा और बहुत से शूद्र कहे जाने वाले लोग थे। अतः जाति-पाँति के खंडन तो वे आप ही थे। नाथसंप्रदाय भी जब फैला तब उसमे भी जनता की नीची और अशिक्षित श्रेणियों के बहुत से लोग आए जो शास्त्रज्ञान-संपन्न न थे, जिनकी बुद्धि का विकास बहुत सामान्य कोटि का था[]। पर अपने को रहस्यदर्शी प्रदर्शित करने के लिये शास्त्रज्ञ पंडितो और विद्वानो को फटकारना भी वे जरूरी समझते थे। सद्गुरु का माहात्म्य सिद्धों में भी और उनमें भी बहुत अधिक था।

नाथ-पंथ के जोगी कान की लौ में बड़े बड़े छेद करके स्फटिक के भारी भारी कुंडल पहनते हैं, इससे कनफटे कहालते हैं। जैसा पहले कहा जा चुका है। इस पंथ का प्रचार राजपूताने तथा पंजाब की ओर ही अधिक रहा। अतः जब मत के प्रचार के लिये इस पंथ में भाषा के भी ग्रंथ लिखे गए तब उधर की ही प्रचलित भाषा का व्यवहार किया गया। उन्हें मुसलमानों को भी अपनी बानी सुनानी रहती थी जिनकी बोली अधिकतर दिल्ली के आसपास की खड़ी बोली थी। इससे उसका मेल भी उनकी बानियों में अधिकतर रहता था। इस प्रकार नाथ-पंथ के इन जोगियों ने परंपरागत साहित्य की भाषा या काव्यभाषा से, जिसका ढाँचा नागर-अपभ्रंश या ब्रज का था, अलग एक 'सधुक्कड़ी' भाषा का सहारा लिया जिसका ढाँचा कुछ खड़ी बोली लिए राजस्थानी था। देशभाषा की इन पुस्तकों में पूजा, तीर्थाटन आदि के साथ साथ हज, नमाज आदि का भी उल्लेख पाया जाता है। इस प्रकार की एक पुस्तक का नाम है 'काफिरबोध'।[]

नाथपंथ के उपदेशों का प्रभाव हिंदुओं के अतिरिक्त मुसलमानों पर भी प्रारंभकाल में ही पड़ा। बहुत से मुसलमान, निम्न श्रेणी के ही सही, नाथ-पंथ में आए। अब भी इस प्रदेश में बहुत से मुसलमान जोगी गेरुआ वस्त्र पहने गुदड़ी की लंबी झोली लटकाए, सारंगी बजा बजाकर 'कलि में अमर राजा भरथरी' के गीत गाते फिरते हैं और पूछने पर गोरखनाथ को अपना आदिगुरु बताते हैं। ये राजा गोपीचंद के भी गीत गाते हैं जो बंगाल में चटिगाँव के राजा थे और जिनकी माता मैनावती कहीं गोरख की शिष्या और कहीं जलंधर की शिष्या कही गईं हैं।

देशभाषा में लिखी गोरखपंथ की पुस्तकें गद्य और पद्य दोनों में हैं और विक्रम संवत् १४०० के आसपास की रचनाएँ हैं। इनमें सांप्रदायिक शिक्षा है। जो पुस्तकें पाई गई हैं उनके नाम ये हैं––गोरख-बोध, गोष्ठी, महादेव-गोरख संवाद, गोरखनाथ जी की सत्रह कला, गोरखबोध, दत्त-गोरख-संवाद, योगेश्वरी साखी, नरवइ बोध, विराट पुराण, गोरखसार, गोरखनाथ की बानी। ये सब ग्रंथ गोरख के नहीं, उनके अनुयायी शिष्यो के रचे हैं। गोरख के समय में जो भाषा लिखने-पढ़ने में व्यवहृत होती थी उसमें प्राकृत या अपभ्रंश शब्दों का थोड़ा या बहुत मेल अवश्य रहता था | उपयुक्त पुस्तकों में नरवइ बोध' के नाम (नरवइ = नरपति ) में ही अपभ्रंश का आभास है । इन पुस्तकों में अधिकतर संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद हैं। यह बात उनकी भाषा के ढंग से ही प्रकट होती है । ‘विराट् पुराण’ संस्कृत के 'वैराट पुराण' का अनुवाद है। गोरखपथ के ये संस्कृत ग्रंथ पाए जाते हैं-

सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति, विवेक-मार्तड, शक्ति-संगम तंत्र, निरंजन पुराण, वैराट पुराण'।

हिंदी भाषा में लिखी पुस्तके अधिकतर इन्हीं के अनुवाद या सार हैं। हाँ, 'साखी’ और ‘बानी' में शायद कुछ रचना गोरख की हो । पद को एक नमूना देखिए-

स्वामी तुम्हई गुर गोसाईं । अम्हे जो सिव सबद एक बुझिवा ।।

निरारंवे चेला कृण विधि रहै। सतगुरु होइ स पुछया कहै ।।

अबधू रहिया हाटे बाटै रूप विरष की छाया ।

तजिवा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया ।।

सिद्व और योगियों का इतना वर्णन करके इस बात की ओर, ध्यान दिलाना हम आवश्यक समझते है कि उनकी रचनाएँ तात्रिक विधान, योगसाधना, आत्मनिग्रह, श्वास-निरोध, भीतरी चक्रो और नाड़ियों की स्थिति, अंतर्मुख साधना के महत्व इत्यादि की साप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई संबंध नहीं । अतः वे शद्ध साहित्य के अंतर्गत नही आतीं । उनको उसी रूप में ग्रहण करना चाहिए जिस रूप में ज्योतिष, आयुर्वेद आदि के ग्रंथ । उनका वर्णन यह केवल दो-बातों के विचार से किया गया है ।

(१) पहली बात है भाषा । सिद्धो की उद्धृत रचनाओं की भाषा देशभाषा मिश्रित अपभ्रश अर्थात् पुरानी हिंदी की काव्य-भाषा है, यह तो स्पष्ट है । उन्होंने भरसक उसी सर्वमान्य व्यापक काव्य-भाषा में लिखा है जो उस समय गुजरात, राजपूताने और ब्रजमंडल से लेकर बिहार तक लिखने पढ़ने की शिष्ट भाषा थी। पर साध में रहने के कारण सिद्धों की भाषा में कुछ पूरबी प्रयोग भी ( जैसे, भइले, बूड़िलि ) मिले हुए है । पुरानी हिंदी की व्यापक काव्य-भाषा का ढॉचा शौरसेनी-प्रसूत अपन्नश अर्थात् ब्रज और खड़ी बोली ( पच्छिमी हिंदी ) का था। वहीं ढाँचा हम उद्धृत, रचनाओं के-

जो, सो, मारिआ, पइठो, जाअ, किंजई, करंत, जावे ( जब तक ), ताब ( तव तक ) भइअ, कोइ, इत्यादि प्रयोग से पाते है । ये प्रयोग मागधी-प्रसूत पुरानी बँगला के नहीं; शौरसेनी-प्रसूत पुरानी पच्छिमी हिंदी के है । सिद्ध कण्हपा की रचनाओं को यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो एक बात साफ झलकती है । वह यह कि उनकी उपदेश की भाषा तो पुरानी टकसाली हिंदी ( काव्य-भाषा ) है, पर गीतो की भाषा पुरानी बिहारी या पूरबी बोली मिली है । यही भेद हम आगे चलकर कबीर की ‘साखी और मैनी’ ( गीत ) की भाषा में पीते है । ‘साखी की भाषा तो खड़ी बोली राजस्थानी मिश्रित सामान्य “सधुक्कड़ी' भाषा है, पर रमैनी के पदों की भाषा मे काव्य की ब्रजभाषा और कंही कहीं पूरबी बोली भी है।

सिद्धों में 'सरह' सबसे पुराने अर्थात् वि० सं० ६६० के है । अतः हिंदी काव्य-भाषा के पुराने रूप को पता हमे विक्रम की सातवी शताब्दी के अंतिम चरण-से लगता है।

(२) दूसरी बात है सांप्रदायिक प्रवृति और उसके संस्कार की परम्परा । वज्रयानी सिद्धों ने निम्न श्रेणी की प्रायः अशिक्षित जनता के बीच किस प्रकार के भावों के लिये जगह निकाली, यह दिखाया जा चुका है उन्होने बाह्य पूजा, जाति-पाति, तिर्थांटन इत्यादि के प्रति उपेक्षा-बुद्धि का प्रचार किया; रहस्यदर्शी बनकर शास्त्रज्ञ विद्वानों का तिरस्कार करने और मनमाने रूपको के द्वारा अटपटी बानी में पहेलियाँ बुझाने का रास्ता दिखाया, घट के भीतर चक्र, नाड़ियों, शून्य देश आदि मानकर साधना करने की बात फैलाई और नाद, बिंदु, सुरति, निरति’ ऐसे शब्दो की उद्धरणी करना सिखाया। यही परंपरा अपने ढंग पर नाथपंथियो ने भी जारी रखी। आगे चलकर भक्तिकाल में निगुण संत संप्रदाय किस प्रकार वेदांत के ज्ञानवाद, सूफियों के प्रेमवाद तथा वैष्णवों के अहिंसावाद और प्रपत्तिवाद को मिलाकर सिद्धों और योगियों द्वारा बनाए हुए इस रास्ते पर चल पड़ा, यह आगे दिखाया जायगा। कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार 'साखी' और 'बानी' शब्द मिले, उसी प्रकार 'साखी' और 'बानी' के लिये बहुत कुछ सामग्री और 'सधुक्कड़ी' की  भाषा भी।

ये ही दो बातें दिखाने के लिये इस इतिहास में सिद्धों और योगियों का विवरण दिया गया है। उनकी रचनाओं को जीवन की स्वाभाविक सरणियों, अनुभूतियों और दशाओं से कोई संबंध नहीं। वे सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, अतः शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकती। उन रचनाओं की परंपरा को हम काव्य या साहित्य की कोई धारा नहीं कह सकते। अतः धर्म संबंधी रचनाओं की चर्चा छोड़, अब हम सामान्य साहित्य की जो कुछ सामग्री मिलती है, उसका उल्लेख उनके संग्रहकर्त्ताओं और रचयिताओं के क्रम से करते हैं।


हेमचंद्र—गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह (संवत् ११५०-११९९) और उनके भतीजे कुमारपाल (११९९-१९३०) के यहाँ इनका बड़ा मान था। ये अपने समय के सबसे प्रसिद्ध जैन आचार्य थे। इन्होंने एक बड़ा भारी व्याकरण-ग्रंथ 'सिद्ध हेमचंद्र शब्दानुशासन' सिद्धराज के समय में बनाया, जिसमें संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का समावेश किया। अपभ्रंश के उदाहरणों में इन्होंने पूरे दोहे या पद्य उद्धृत किए है, जिनमें से अधिकांश इनके समय से पहले के हैं। कुछ दोहे देखिए––

भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु।
लज्जेजं तु वयसिअहु जइ भग्गा घरु एंतु॥

(भला हुआ जो मारा गया, हे बहिन! हमारा कांत। यदि वह भागा हुआ घर आता तो मै अपनी समवयस्काओं से लज्जित होती।)

जइ सो न आवइ, दूइ! घरु काहँ अहोमुहु, तुज्झु।
वयणु ज खंडइ तस, सहि ए! सो पिउ होइ न मुज्झु॥

(हे दूती! यदि वह घर नहीं आता तो तेरा क्यों अधोमुख है? हे सखी! जो तेरा वचन खंडित करता है––श्लेष से दूसरा अर्थ; जो तेरे मुख पर चुंबन द्वारा क्षत करता है––वह मेरा प्रिय नहीं।)

जे महु दिण्णा दिअहड़ा दहएँ पवसत्तेण।
ताण गणंतिए अंगुलिउँ जज्जरियाउ नहेण॥

(जो दिन या अवधि दयित अर्थात् प्रिय ने प्रवास जाते हुए मुझे दिए थे। उन्हे नख से गिनते गिनते मेरी उँगलियाँ जर्जरित हो गईं।)

पिय संगमि कउ निद्दड़ी? पियह परक्खहो केंव।
महँ विन्निवि विन्नासिया, निह न एँव न तेंव॥

(प्रिय के संगम में नींद कहाँ और प्रिय के परोक्ष में भी क्योंकर आवे? मैं दोनों प्रकार से विनाशिता हुई––न यों नींद न त्यों।)

अपने व्याकरण के उदाहरणों के लिये हेमचंद्र ने भट्टी के समान एक 'द्वयाश्रय काव्य' की भी रचना की है जिसके अंतर्गत "कुमारपालचरित" नामक एक प्राकृत काव्य भी है। इस काव्य में भी अप्रभ्रंश के पद्य रखे गए हैं।

सोमप्रभ सूरि––ये भी एक जैन पंडित् थे। इन्होंने संवत् १२४१ में "कुमारपालप्रतिबोध" नामक एक गद्यपद्यमय संस्कृत-प्राकृत-काव्य लिखा जिसमें समय समय पर हेमचंद्र द्वारा कुमारपाल को अनेक प्रकार के उपदेश दिए जाने की कथाएँ लिखी हैं। यह ग्रंथ अधिकांश प्राकृत में ही है––बीच बीच में संस्कृत श्लोक और अपभ्रंश के दोहे आए हैं। अपभ्रंश के पद्यों में कुछ तो प्राचीन हैं और कुछ सोमप्रभ और सिद्धिपाल कवि के बनाए हैं। प्राचीन में से कुछ दोहे दिए जाते है––

रावण जायउ जहि दिअहि दह मुह एक सरीरु।
चिंताविय तइयहि जणणि कवणु पियवउँ खीरु॥

(जिस दिन दस मुँह एक शरीरवाला रावण उत्पन्न हुआ तभी माता चिंतित हुई कि किसमें दूध पिलाऊँ।)

बेस बिसिट्ठह बारियइ जइवि मणोहर गत्त।
गंगाजल पक्खालियवि सुणिहि कि होइ पवित्त?


(वेश-विशिष्टो को वारिए अर्थात् बचाइए, यदि मनोहर गात्र हो तो भी। गंगाजल से धोई कुतिया क्या पवित्र हो सकती है?)

पिय हउँ थक्किय सयलु दिणु तुह बिरहग्गि किलंत।
थोड़इ जल जिम मच्छलिय तल्लोविल्ली करंत॥


(हे प्रिय! मैं सारे दिन तेरी विरहाग्नि में वैसे ही कड़कड़ाती रही, जैसे थोडे़, जल में मछली तलबेली करती है।)

जैनाचार्य्य मेरुतुंग––इन्होंने संवत् १३६१ में 'प्रबंधचिंतामणि' नामक एक संस्कृत ग्रंथ 'भोज-प्रबंध' के ढंग का बनाया, जिसमें बहुत से पुराने राजाओं के आख्यान संगृहीत किए। इन्हीं आख्यानों के अंतर्गत बीच-बीच में अपभ्रंश के पद्य भी उद्धृत हैं जो बहुत पहले से चले आते थे। कुछ दोहे तो राजा भोज के चाचा मुंज के कहे हुए है। मुंज के दोहे अपभ्रंश या पुरानी हिंदी के बहुत ही पुराने नमूने कहे जा सकते है। मुंज ने जब तैलंग देश पर चढ़ाई की थी तब वहाँ के राजा तैलप ने उसे बंदी कर लिया था और रस्सियों से बाँधकर अपने यहाँ ले गया था। वहाँ उसके साथ तैलप की बहिन मृणालवती से प्रेम हो गया। इस प्रसंग के दोहे देखिए––

झाली तुट्टो किं न मुउ, किं न हुएउ छरपुंज।
हिंदइ दोरी बँधीयउ जिम मकड़ तिम मुंज॥


(टूट पड़ी हुई आग से क्यो न मरा? क्षारपुंज क्यों न हो गया? जैसे डोरी में बँधा बंदर वैसे घूमता है मूंज।)

मुंज भणइ, मुणालवइ? जुब्बण गयु न झूरि।
जइ सक्कर सय खंड थिय तो इस मीठी चूरि॥


(मुंज कहता है, हे मृणालवति! गए हुए यौवन को न पछता। यदि शर्करा के सौ खण्ड हो जाय तो भी वह चूरी हुई ऐसी ही मीठी रहेगी।)

'जा मित पच्छइ संपजइ सा मति पहिली होइ।
मुंज भणई मुणालवई! विघन न बेढइ कोई॥


(जो मति या बुद्धि पीछे प्राप्त होती है यदि पहले हो तो मुंज कहता है, हे मृणालवति! विघ्न किसी को न घेरे।)

'बाह बिछोड़बि जिह तुहुँ, हउँ तेवहँ का दोसु।
हिअयट्ठिय जइ नीसरहि, जाणउँ मुंज सरोसु॥



(बाँह छुड़ाकर तू जाता है, मैं भी वैसे ही जाती हूँ---क्या हर्ज है? हृदयस्थित अर्थात् हृदय से यदि निकले तो मैं जानूँ कि मुंज रूठा है।)

एउ जन्मु नग्गुह गिउ भड़सिरि खग्गु न भग्गु।
तिक्खाँ तुरियँ न साणियाँ, गोरी गली न लग्गु॥


(यह जन्म व्यर्थ गया। न सुभटो के सिर पर खङ्ग टूटा, न तेज घोड़े सजाए, न गोरी या सुंदरी के गले लगा।)

फुटकल रचनाओं के अतिरिक्त वीरगाथाओं की परंपरा के प्रमाण भी अपभ्रँश-मिली भाषा में मिलते हैं।

विद्याधर---इस नाम के एक कवि ने कन्नौज के किसी राठौर सम्राट (शायद जयचंद) के प्रताप और पराक्रम का वर्णन किसी ग्रंथ में किया था। ग्रंथ का पता नही, पर कुछ पद्य 'प्राकृत पिंगल सूत्र' से मिलते हैं, जैसे---

भअ भज्जीअ बंगा भंगु कलिंगा तेलंगा रण मुत्ति चले।
मरहटठा धिट्टा लगिअ कट्टा सोरट्ठा भअ पाअ पले॥
चंपारण कंपा पब्बअ झंपा उत्थी उत्थी जीव हरे।
कासीसर राणा किअउ पआणा, बिज्जाहर भण मंतिवरे॥

यदि विद्याधर को सम-सामयिक कवि माना जाय तो उसका समय विक्रम की १३वीx शताब्दी समझा जा सकता है।

शार्ङ्गधर---इनका आयुर्वेद का ग्रंथ तो प्रसिद्ध ही है। ये अच्छे कवि और सूत्रकार भी थे। इन्होनें 'शार्ङ्गधर पद्धति' के नाम से एक सुभाषित-संग्रह भी बनाया है और अपना परिचय भी दिया है। रणथंभौर के प्रसिद्ध वीर महाराज हम्मीर देव के प्रधान सभासदों में राघवदेव थे। उनके भोपाल, दामोदर और देवदास ये तीन पुत्र हुए। दामोदर के तीन पुत्र हुए---शार्ङ्गधर, लक्ष्मीधर और कृष्ण। हम्मीरदेव संवत् १३५७ में अलाउद्दीन की चढ़ाई में मारे गए थे। अतः शार्ङ्गधर के ग्रंथों का समय उक्त संवत् के कुछ पीछे अर्थात् विक्रम की १४ वीं शताब्दी के अंतिम चरण में मानना चाहिए।

‘शाईधर-पद्धति' में बहुत से शाबर मंत्र और भाषा चित्र-काव्य दिए हैं। जिनमें बीच बीच में देशभाषा के वाक्य आए है। उदाहरण के लिये श्रीमल्लदेव राजा की प्रशंसा में कहा हुआ यह श्लोक देखिए--

नूनं बादंल छाई खेह, पसरी निःश्राण शब्द: खरः ।
शत्रु' पाहि लुटालि तोड़ हनिसौः एवं भणनतयुद्भटा: ॥
झूठे गर्वभरा मघालि सहसो रे कंत मेरे कहे ।
कंठे पारा निवेश जाह् शरणं श्रीमजदेव विभुम् ।।

परम्परा से प्रसिद्ध है कि शाङ्गधर ने “हम्मीर रासो' नामक एक वीरगाथा काव्य की भी भाषा में रचना की थी। यह काव्य आजकल नहीं मिलता- उसके अनुकरण पर बहुत पीछे का लिखा हुआ। एक ग्रंथ 'हम्मीर राखो' नाम को मिलता है । ‘प्राकृत पिंगल-सूत्र' उलटते पलटते मुझे हम्मीर की चढाई, वीरता आदि के कई पद्य छंदों के उदाहरणों में मिले । मुझे पूरा निश्चय है कि ये पद्म अमली ‘हम्मीर रासो' के ही है । अतः ऐसे कुछ पद्य नीचे दिए जाते है-

ढोला मारिय ढ़ील्ली मह मुच्छिउ मेच्छ-सरीर ।
षुर जजल्ला मंतिवर चलिअ बीर हम्मीर ।।
चलिअ बीर हम्मीर पाअभर मेइणि कंपइ ।
दिगमग णह अंधार धूलि सुररह अच्छाइहि ॥
दिगमग णह अंधार आण खुरसाणुक उल्ला ।
दरमरि दमसि विपक्ख मारु ढिली मह - ढोल्ला ।।

( दिल्ली में ढोल बजाया गया, म्लेच्छों के शरीर मूर्छित हुए। आगे मंत्रिवर जज्जल को करके वीर हम्मीर चले | चरणो के भार से पृथ्वी कॉपती है । दिशा के माग और आकाश में अँधेरा हो गया है; धूल सूर्य के रथ को आच्छादित करती है । ओल मे खुरासानी ले आए। विपक्षियो को दलमल कर दबाया, दिल्ली मे ढोल बजाया। )

पिंधउ दिढ सन्नाह, बाह उपरि पक्खर दई ।
बंधु समदि रण धासेऊ साहिं हन्मीर बअण लइ ।।
उङडुङ णहपह भमउँ,, खग्ग रिपु-सांसहि झलउँ ।
पक्खर पक्खर ठेल्लि पेल्लि पब्बअ - अप्फालउँ ।।
हुन्मीर कब्ज जज्जल भणइ कोहाणल मह मइ जलउँ ।
सुलितान-सीस करवाल दइ तज्जि कलेवर दिअ चलउँ ।

( दृढ़ सन्नाह पहले, वाहनों के ऊपर पक्खरे डाली। बंधु बांधवो से विदा लेकर रण में धंसा हम्मीर साहि का वचन लेकर । तारो को नभपथ में फिराउँ, तलवार शत्रु के सिर पर ज़डे, पाखर' से पाखर ठेल पेल चार पर्वतों को हिला डाले । जज्जल कहता है, कि हम्मीर के कार्य के लिये मै क्रोध से जल रहा हूँ । सुलतान के सिर पर खङ्ग देकर शरीर छोड़ मैं स्वर्ग को जाऊँ । )

पअमर दरमरु धरणि तरणि-रह धुल्लिअ ।
कमठ पिठु टरपरिअ,मेरू मंदर सिर कंपिअ ।।
कोहे चलिअ हम्मीर- बीर गअनुह, संजुत्ते ।
किअउ कट्ट, हा कद ! मुच्छि मेच्छिम के पुत्ते ।

( चरणों के भार से पृथ्वी दलमल उठी । सूर्य का रथ धूल से ढक गया । कमठ की पीठ तड़फड़ा उठी , मेरु मंदर की चोटियाँ कंपित हुई । गजयूथ के साथ वीर हम्मीर क्रुद्ध होकर चले । म्लेच्छों के पुत्र हा कष्ट ! करके रो उठे और मूच्छित हो गए। )

अपभ्रंश की रचनाओ की परम्परा यही समाप्त होती है। यद्यपि पचास साठ वर्षं पीछे विद्यापति ( संवत् १४६० से वर्तमान ) ने बीच बीच में देशभाषा के भी कुछ पद्य रखकर अपभ्रंश मे दो छोटी छोटी पुस्तकें लिखीं, पर उस समय तक अपभ्रंश का स्थान देवभाषा ले चुकी थी। प्रसिद्ध भाषातत्त्वविद् सर जार्ज ग्रियर्सन जब विद्यापति के पदो का संग्रह कर रहे थे उस समय उन्हें पता लगा था कि 'कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका' नाम की प्रशस्ति-संबधी दो पुस्तके भी उनकी लिखी है । पर उस समय इनमे से किसी का पता न चला। थोडे दिन हुए, महामहोपाध्याय पं० हरप्रसाद शास्त्री नैपाल, गए थे । वहाँ राजकीय पुस्तकालय मे “कीर्तिलता’ की एक प्रति मिली जिसकी नकल उन्होने ली ।

इस पुस्तक में तिरहुत के राजा कीर्तिसिंह की वीरता, उदारता, गुणग्राहकता आदि का वर्णन, बीच बीच में कुछ देशभाषा के भी पद्य रखते हुए, अपभ्रंश भाषा के दोहा, चौपाई, छप्पय; छंद, गाथा आदि छंदो में किया गया है । इस अपभ्रंश की विशेषता यह है कि, यह पूरवी अपभ्रंश है । इसमे क्रियाओ आदि के बहुत से रूप पूरबी हैं । नमूने के लिये एक उदाहरण लीजिए

रज्ज-लुद्ध असलान बुद्धि बिक्कम बले हारल ।
पास बइसि बिसवासि राय गयनेसर मारल ।।
मारंत राय रणरोल पडु, मेइनिं हा हा सद्द हुअ ।
सुरराय नयर नरअर-रमणि बाम नयन पप्फुरिअ धुअ ।।

दूसरी विशेषता विद्यापति के अपभ्रंश की यह है कि वह प्रायः देशभाषा कुछ अधिक लिए हुए है और उसमे तत्सम संस्कृत शब्दों का वैसा बहिष्कार नहीं है । तात्पर्य यह है कि वह प्राकृत की रूड़ियो से उतनी बँधी नही हैं । उसमे जैसे इस प्रकार की टकसाली अपभ्रंश है-

पुरिसत्तेण पुरिसउ, नहिं पुरिसर जम्म मत्तेन ।
जलेदानेन हु जलओ, न हु जलओ पुजिओ धूमो ।।

वैसे ही इस प्रकार की देशभाषा या बोली भी है-

कतहुँ तुरुक बरकर । बार जाए ते बेगार धर ।।
धरि आनय बाभन बरुआ । मथा चढ़ावइ गाय का चुरुआ ।।
हिंदू बोले दूरहि निकार। छोटउ -तुरुको भभकी मार ॥


अपभ्रंश की कविताओं के जो नए-पुराने नमूने अब तक दिए जा चुके हैं। उनसे इस बात का ठीक अनुमान हो सकता है कि काव्य-भाषा प्राकृत की रूढ़ियों से कितनी बँधी हुई चलती रही । बोलचाल तक के तत्सम संस्कृत शब्दो का पूरा बहिष्कार उसमें पाया जाता है। उपकार’, ‘नगर’, ‘विद्या', 'वचन' ऐसे प्रचलित शब्द भी ‘उअर', 'नअर', 'बिजा’, ‘बअण’ बनाकर ही रखे जाते थे। ‘जासु', 'तासु', ऐसे रूप बोलचाल से उठ जाने पर भी पोथियों में बराबर चलते रहे । विशेषण विशेष्य के बीच विभक्तियों का समानाधिकरण अपभ्रंश काल में कृदंत विशेषणों से बहुत कुछ उठ चुका था, पर प्राकृत की परंपरा के अनुसार अपभ्रंश की कविताओं में कृदंत विशेषणों में मिलता हैं-जैसे, “जुब्बण गेयु न झुरि - गए को यौवन को न झुर - गए यौवन को न पछता । जब ऐसे उदाहरण के साथ हम ऐसे उदाहरण भी पाते है जिनमें विभक्तियों का ऐसा समानाधिकरण नहीं है तब यह निश्चय हो जाता है कि उसका सन्निवेश पुरानी परंपरा का पालन मात्र है । इस परंपरा-पालन का निश्चय शब्दों की परीक्षा से अच्छी तरह हो जाता है। जब हम अपभ्रंश के शब्दों में 'मिट्ठ' और 'मीठी' दोनों रुपों का प्रयोग पाते हैं तब उस काल में 'मीठी' शब्द के प्रचलित होने में क्या संदेह हो सकता है?

ध्यान देने पर यह बात भी लक्षित होगी कि ज्यों-ज्यों काव्यभाषा देशभाषा की ओर अधिक प्रवृत्त होती गई त्यों-त्यों तत्सम संस्कृत शब्द रखने में संकोच भी घटता गया। शार्ङ्गधर के पद्यों और कीर्तिलता में इसका प्रमाण मिलता है।

 

  1. Buddhist Esoteriom
  2. The system of mystic culture introduced by Gorakhnath does not seem to have spread widely through the educated classes.
  3. यह, तथा इसी प्रकार की और कुछ पुस्तकें, मेरे प्रिय शिष्य डाक्टर पीतांबरदत्त बड़थ्वाल के पास हैं।