हिंदी साहित्य का इतिहास/आदिकाल/प्रकरण ३ देशभाषा काव्य (वीरगाथा)

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प्रकरण ३

देशभाषा काव्य

वीरगाथा

पहले कहा जा चुका है कि प्राकृत की रूढ़ियों से बहुत कुछ मुक्त भाषा के जो पुराने काव्य-जैसे, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो-आजकल मिलते हैं वे संदिग्ध हैं। इसी संदिग्ध सामग्री को लेकर जो थोड़ा बहुत विचार हो सकता है, उस पर हमें संतोष करना पड़ता है।

इतना अनुमान तो किया ही जा सकता है कि प्राकृत पढ़े पंडित ही उस समय कविता नहीं करते थे। जनसाधारण की बोली में गीत दोहे आदि प्रचलित चले आते रहे होंगे जिन्हें पंडित लोग गंवारू समझते रहे होंगे। ऐसी कविताएँ राजसभाओं तक भी पहुंच जाती रही होगी। 'राजा भोज जस मूसरचंद' कहने वालों के सिवा देशभाषा मे सुंदर भाव भरी कविता कहने वाले भी अवश्य ही रहे होंगे। राजसभाओं में सुनाए जानेवाले नीति, श्रृंगार आदि विप्रय प्रायः दोहो मे कहे जाते थे और वीररस के पद्य छप्पय में । राजाश्रित कवि अपने राजाओं के शौर्य, पराक्रम और प्रताप का वर्णन अनूठी उक्तियों के साथ किया करते थे और अपनी वीरोल्लासभरी कविताओं से वीरों को उत्साहित किया करते थे। ऐसे राजाश्रित कवियों की रचनाओं के रक्षित रहने का अधिक सुबीता था । वे राजकीय पुस्तकालयों में भी रक्षित रहती थी और भट्ट चारण जीविका के विचार से उन्हें अपने उत्तराधिकारियों के पास भी छोड़ जाते थे । उत्तरोत्तर भट्ट चारणों की परंपरा में चलते रहने से उनमें फेरफार भी बहुत कुछ होता रहा । इसी रक्षित परंपरा की सामग्री हमारे हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल में मिलती है। इसी से यह काल 'वीरगाथा-काल' कहा गया ।

भारत के इतिहास में यह वह समय था जब कि मुसलमानों के हमले उत्तर पश्चिम की ओर से लगातार होते रहते थे। इनके धक्के अधिकतर भारत [ ३० ]के पश्चिमी प्रांत के निवासियों को सहने पड़ते थे जहाँ हिंदुओं के बड़े-बड़े राज्य प्रतिष्ठित थे । गुप्त साम्राज्य के ध्वस्त होने पर हर्षवर्धन ( मृत्यु-संवत् ७०४ ) के उपरांत भारत का पश्चिमी भाग ही भारतीय सभ्यता और बल-वैभव का केंद्र हो रहा था । कन्नौज, दिल्ली, अजमेर, अन्हलवाड़ा आदि बड़ी-बड़ी राजधानियाँ उधर ही प्रतिष्ठित थी । उधर की भाषा ही शिष्ट भाषा मानी जाती थी और कवि-चारण आदि उसी भाषा मे रचना करते थे । प्रारंभिक काल का जो साहित्य हमें उपलब्ध हैं उसका आविर्भाव उसी भूभाग में हुआ । अतः यह स्वाभाविक है कि उसी भूभाग की जनता की चित्तवृत्ति की छाप उस साहित्य पर हों । हर्षवर्धन के उपरांत ही साम्राज्य-भावना देश से अंतर्हित हो गई थी और खंड खंड होकर जो गहरवार, चौहान, चंदेल और परिहार आदि राजपूत-राज्य पश्चिम की ओर प्रतिष्ठित थे, वे अपने प्रभाव की वृद्धि के लिये परस्पर लड़ा करते थे । लडाई किसी आवश्यकता-वश नहीं होती थी; कभी कभी तो शौर्य-प्रदर्शन मात्र के लिये यों ही मोल ली जाती थी । बीच बीच में मुसलमानों के भी हमले होते रहते थे। सारांश यह कि जिस समय से हमारे हिंदी-साहित्य का अभ्युदय होता है, वह लड़ाई भिड़ाई का समय था, वीरता के गौरव का समय था और सब बाते पीछे पड़ गई थी ।

महमूद गजनवी ( मृत्यु-संवत् १०८७ ) के लौटने के पीछे गजनवी सुलतानों का एक हाकिम लाहौर में रहा करता था और वहाँ से लूटमार के लिये देश के भिन्न भिन्न भागों पर, विशेषतः राजपूताने पर,चढ़ाइयां हुआ करती थी । इन चढ़ाइयों का वर्णन फारसी तवारीखों में नहीं मिलता, पर कही कहीं संस्कृत ऐतिहासिक काव्यों में मिलता हैं। सॉभर ( अजमेर) का चौहान राजा दुर्लभराज द्वितीय मुसलमानों के साथ युद्ध करने में मारा गया था। अजमेर बसानेवाले अजयदेव ने मुसलमानो को परास्त किया था ! अजयदेव के पुत्र अर्णोराज ( आना ) के समय में मुसलमानों की सेना फिर पुष्कर की घाटी लांघकर उस स्थान पर जा पहुंची जहाँ अब आनासागर है! अणराज ने उस सेना का संहार कर बड़ी भारी विजय प्राप्त की। वहाँ म्लेच्छ मुसलमानो का रक्त गिरा था, इससे उस स्थान को अपवित्र मानकर वहाँ अणो्राज ने एक बड़ा तालाब बनवा दिया जो ‘आना सागर” कहलाया है। [ ३१ ]आना के पुत्र बीसलदेव ( विग्रहराज चतुर्थ ) के समय में वर्तमान किशनगढ़ राज्य तक मुसलमानों की सेना चढ़ आई जिसे परास्त कर बीसलदेव आर्यावर्त से मुसलमानों को निकालने के लिये उत्तर की ओर बढ़ा है। उसने दिल्ली और झॉसी के प्रदेश अपने राज्य में मिलाए और अार्यावर्त के एक बड़े भूभाग से मुसलमानों को निकाल दिया । इस बात का उल्लेख दिल्ली के अशोक-लेखवाले शिवालिक स्तभ पर खुदे हुए बीसलदेव के वि० सं० १२२० के लेख से पाया जाता है। शहाबुद्दीन गोरी की पृथ्वीराज पर पहली चढ़ाई (सं० १२४७ ) के पहले भी गोरियों की सेना ने नाड़ौल पर धावा किया था, पर उसे हारकर लौटना पड़ा। इसी प्रकार महाराज पृथ्वीराज के मारे जाने और दिल्ली तथा अजमेर पर मुसलमानों को अधिकार हो जाने के पीछे भी बहुत दिनों तक राजपूताने आदि में कई स्वतंत्र हिंदू राजा थे जो बराबर मुसलमानों से लड़ते रहे। इनमे सबसे प्रसिद्ध रणथंभौर के महाराज हम्मीरदेव हुए है जो महाराज पृथ्वीराज चौहान की वंश-परंपरा में थे । वे मुसलमानो से निरंतर लड़ते रहे और उन्होंने उन्हें कई बार हराया था। सारांश यह कि पठानो के शासन-काल तक हिंदू बराबर स्वतंत्रता के लिये लड़ते रहे।

राजा भोज की सभा में खड़े होकर राजा की दानशीलता का लंबा चौड़ा वर्णन करके लाखों रुपए पाने वाले कवियो का समय बीत चुका था। राजदरबारों मे शास्त्रार्थों की वह धूम नहीं रह गई थी । पांडित्य के चमत्कार पर पुरस्कार का विधान भी ढीला पड़ गया था। उस समय तो जो भाट या चारण किसी राजा के पराक्रम, विजय, शत्रु-कन्या-हरण आदि का अत्युक्तिपूर्ण आलाप करता या रणक्षेत्रों में जाकर वीरों के हृदय में उत्साह की उमंगें भरा करता था, वही सम्मान पाता था।

इस दशा में काव्य या साहित्य के और भिन्न भिन्न अंगों की पूर्ति और समृद्धिका सामुदायिक प्रयत्न कठिन था । उस समय तो केवल वीरगाथाओं की उन्नति संभव थी । इस वीरगाथा को हम दोनों रूपो में पाते हैं- मुक्तक के रूप में भी और प्रबंध के रूप में भी । फुटकल रचनाओं का विचार छोड़कर यहाँ वीरगाथात्मक प्रबंध काव्यों का ही उल्लेख किया जाता है । जैसे, योरप में वीरगाथाओं का प्रसंग युद्ध और प्रेम रहा, वैसे ही यहाँ भी था। किसी [ ३२ ]राजा की कन्या के रूप का संवाद पाकर दलबल के साथ चढ़ाई करना और प्रतिपक्षियों को पराजित कर उस कन्या को हरकर लाना वीरों के गौरव और अभिमान का काम माना जाता था। इस प्रकार इन काव्यों में शृंगार का भी थोड़ा मिश्रण रहता था, पर गौण रूप से, प्रधान रस वीर ही रहता था। शृंगार केवल सहायक के रूप में रहता था। जहाँ राजनीतिक कारणों से भी युद्ध होता था, वहाँ भी उन कारणों का उल्लेख न कर कोई रूपवती स्त्री ही कारण कल्पित करके रचना की जाती थी। जैसे शहाबुद्दीन के यहाँ से एक रूपवती स्त्री का पृथ्वीराज के यहाँ आना ही लड़ाई की जड़ लिखी गई है। हम्मीर पर अलाउद्दीन की चढ़ाई का भी ऐसा ही कारण कल्पित किया गया है। इस प्रकार इन काव्यों में प्रथानुकूल कल्पित घटना की बहुत अधिक योजना रहती थी ।

ये वीरगाथाएँ दो रूपों में मिलती है––प्रबंध काव्य के साहित्यिक रूप में और वीरगीतों (Ballads) के रूप में। साहित्यिक प्रबंध के रूप में जो सबसे प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध है, वह है "पृथ्वीराज रासो"। वीरगीत के रूप में हमें सबसे पुरानी पुस्तक 'बीसलदेव रासो' मिलती है, यद्यपि उसमें समयानुसार भाषा के परिवर्तन का आभास मिलता है। जो रचना कई सौ वर्षों से लोगों में बराबर गाई जाती रही हो, उसकी भाषा अपने मूल रूप में नहीं रह सकती। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आल्हा है, जिसके गानेवाले प्रायः समस्त उत्तरीय भारत में पाए जाते हैं।

यहाँ पर वीर-काल के उन ग्रंथो का उल्लेख किया जाता है जिनकी या तो प्रतियाँ मिलती हैं या कहीं उल्लेख मात्र पाया जाता है। ये ग्रंथ 'रासो' कहलाते हैं। कुछ लोग इस शब्द का संबंध "रहस्य” से बतलाते हैं। पर "बीसलदेव रासो" में काव्य के अर्थ में 'रसायण' शब्द बार बार आया है। अतः हमारी समझ में इसी "रसायण" शब्द से होते होते 'रासो' हो गया है।

(१) खुमानरासो––संवत् ८१० और १००० के बीच में चित्तौड़ के रावल खुमान नाम के तीन राजा हुए हैं। कर्नल टाड ने इनको एक मानकर इनके युद्धों का विस्तार से वर्णन किया है। उनके वर्णन का सारांश यह है कि कालभोज ( बाप्पा) के पीछे खुम्माण गद्दी पर बैठा, जिसका नाम मेवाड़ के [ ३३ ]इतिहास में प्रसिद्ध है और जिसके समय में बगदाद के खलीफा आलमामूँ ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की। खुम्माण की सहायता के लिये बहुत से राजा आए और चित्तौड़ की रक्षा हो गई। खुम्माण ने २४ युद्ध किए और वि॰ सं॰ ८६९ से ८९३ तक राज्य किया। यह समस्त वर्णन 'दलपत विजय' नामक किसी कवि के रचित खुमानरासो के आधार पर लिखा गया जान पड़ता है। पर इस समय खुमानरासो की जो प्रति प्राप्त है, वह अपूर्ण है और उसमें महाराणा प्रतापसिंह तक का वर्णन है। कालभोज (बाप्पा) से लेकर तीसरे खुमान तक की वंशपरंपरा इस प्रकार है–कालभोज (बाप्पा), खुम्माण, मत्तट, भर्तृपट्ट, सिह, खुम्माण (दूसरा), महायक, खुम्माण (तीसरा)। कालभोज का समय वि॰ सं॰ ७९१ से ८१० तक है और तीसरे खुम्माण के उत्तराधिकारी भर्तृपट्ट (दूसरे) के समय के दो शिलालेख वि॰ सं॰ ९९९ और १००० के मिले हैं। अतएव इन १९० वर्षों का औसत लगाने पर तीनों खुम्माणों का समय अनुमानतः इस प्रकार ठहराया जा सकता है–

खुम्माण (पहला)–वि॰ सं॰ ८१०–८३५

खुम्माण (दूसरा)––वि॰ सं॰ ८७०–९००

खुम्माण (तीसरा)––वि॰ सं॰ ९६५–९९०

अब्बासिया वंश का अलमामूँ वि॰ सं॰ ८७० से ८९० तक खलीफा रहा। इस समय के पूर्व खलीफों के सेनापतियों ने सिंध देश की विजय कर ली थी और उधर से राजपूताने पर मुसलमानों की चढ़ाइयाँ होने लगी थी। अतएव यदि किसी खुम्माण से अलमामूँ की सेना से लड़ाई हुई होगी तो वह दूसरा खुम्माण रहा होगा और उसी के नाम पर 'खुमानरासो' की रचना हुई होगी। यह नहीं कहा जा सकता कि इस समय जो खुमानरासो मिलता है, उसमें कितना अंश पुराना है। उसमें महाराणा प्रतापसिंह तक का वर्णन मिलने से यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जिस रूप में यह ग्रंथ अब मिलता है वह उसे वि॰ संवत् की सत्रहवीं शताब्दी में प्राप्त हुआ होगा। शिवसिंहसरोज के कथनानुसार एक अज्ञातनामा भाट ने खुमानरासो नामक एक काव्य-ग्रंथ लिखा था जिसमें श्रीरामचंद्र से लेकर खुमान तक के युद्धों का वर्णन था। यह नहीं कहा जा [ ३४ ]सकता कि 'दलपत-विजय' असली खुमानरासो का रचयिता था अथवा उसके पिछले परिशिष्ट का।


(२) बीसलदेवरासो––नरपति नाल्ह कवि विग्रहराज चतुर्थ उपनाम बीसलदेव का समकालीन था। कदाचित् यह राजकवि था। इसने "बीसलदेवरासो" नामक एक छोटा सा (१०० पृष्ठों का) ग्रंथ लिखा है जो वीरगती के रूप में है। ग्रंथ में निर्माण-काल यों दिया है––

बारह सै बहोत्तराँ मझारि। जेठ बदी नवमी बुधवारि।
'नाल्ह' रसायण आरंभइ। सारदा तूठी ब्रह्मकुमारि॥

'बारह सै बहोत्तर' का स्पष्ट अर्थ १२१२ है। 'बहोत्तर' शब्द, 'बरहोत्तर' 'द्वादशोत्तर' का रूपांतर है। अतः 'बारह सै बहोत्तराँ' का अर्थ 'द्वादशोत्तर बारह से' अर्थात् १२१२ होगा। गणना करने पर विक्रम संवत् १२१२ में ज्येष्ठ बदी नवमी को बुधवार ही पड़ता है। कवि ने अपने रासो में सर्वत्र वर्तमान काल का ही प्रयोग किया है जिससे वह बीसलदेव का समकालीन जान पड़ता है। विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) का समय भी १२२० के आसपास है। उसके शिलालेख भी संवत् १२१० और १२२० के प्राप्त हैं। बीसलदेवरासो में चार खंड हैं। यह काव्य लगभग २००० चरणों में समाप्त हुआ है। इसकी कथा का सार यों है––

खंड १––मालवा के भोज परमार की पुत्री राजमती से साँभर के बीसलदेव का विवाह होना।

खंड २––बीसलदेव का राजमती से रूठकर उड़ीसा की ओर प्रस्थान करना तथा वहाँ एक वर्ष रहना।

खंड ३––राजमती का विरह-वर्णन तथा बीसलदेव का उड़ीसा से लौटना।

खंड ४––भोज का अपनी पुत्री को अपने घर लिवा ले जाना तथा बीसलदेव का वहाँ जाकर राजमती को फिर चित्तौड़ लाना।

दिए हुए संवत् के विचार से कवि अपने नायक का समसामयिक जान पड़ता है। पर वर्णित घटनाएँ, विचार करने पर, बीसलदेव के बहुत पीछे की जान पड़ती है जब कि उनके संबंध में कल्पना की गुंजाइश हुई होगी। यह [ ३५ ]घटनात्मक काव्य नहीं है, वर्णनात्मक है। इसमें दो ही घटनाएँ है––बीसलदेव का विवाह और उनका उड़ीसा जाना। इनमे से पहली बात तो कल्पना-प्रसूत प्रतीत होती है। बीसलदेव से सौ वर्ष पहले ही धार के प्रसिद्ध परमार राजा भोज का देहांत हो चुका था। अतः उनकी कन्या के साथ बीसलदेव का विवाह किसी पीछे के कवि की कल्पना ही प्रतीत होती है। उस समय मालवा में भोज नाम का कोई राजा नहीं था। बीसलदेव की एक परमार-वंश की रानी थी, यह बात परंपरा से अवश्य प्रसिद्ध चली आती थी, क्योंकि इसका उल्लेख पृथ्वीराजरासो में भी है। इसी बात को लेकर पुस्तक में भोज का नाम रखा हुआ जान पड़ता है। अथवा यह हो सकता है कि धार के परमारों की उपाधि ही भोज रही हो और उस आधार पर कवि ने उसको केवल यह उपाधिसूचक नाम ही दिया हो, असली नाम न दिया हो। कदाचित् इन्हीं में से किसी की कन्या के साथ बीसलदेव का विवाह हुआ हो। परमार-कन्या के संबंध में कई स्थानों पर जो वाक्य आए हैं, उनपर ध्यान देने से यह सिद्धांत पुष्ट होता है कि राजा भोज का नाम कहीं पीछे से न मिलाया गया हो । जैसे––"जनमी गोरी तू जेसलमेर"; "गोरडी जेसलमेर की"। आबू के परमार भी राजपूताने में फैले हुए थे। अतः राजमती का उनमें से किसी सरदार की कन्या होना भी संभव है। पर भोज के अतिरिक्त और भी नाम इसी प्रकार जोड़े हुए मिलते है; जैसे––'माघ अचारज, कवि कालिदास'।

जैसा पहले कह आए हैं, अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव (विग्रहराज चतुर्थ) बड़े वीर और प्रतापी थे और उन्होंने मुसलमानों के विरुद्ध कई चढ़ाइयाँ की थीं और कई प्रदेशों को मुसलमानों से खाली कराया था। दिल्ली और झाँसी के प्रदेश इन्हीं ने अपने राज्य में मिलाए थे। इनके वीरचरित का बहुत कुछ वर्णन इनके राजकवि सोमदेव-रचित "ललितविग्रहराज नाटक" (संस्कृत) में है जिसका कुछ अंश बड़ी बड़ी शिलाओं पर खुदा हुआ मिला है। और राजपूताना म्यूजियम में सुरक्षित है, पर 'नाल्ह' के इस बीसलदेवरासो में, जैसा कि होना चाहिए था, न तो उक्त वीर राजा की ऐतिहासिक, चढ़ाइयों का वर्णन है, न उसके शौर्य-पराक्रम का। शृंगाररस की दृष्टि से विवाह और रूठकर विदेश जाने का (प्रोषितपतिका के वर्णन के लिये) मनमाना वर्णन है। अतः [ ३६ ]इस छोटी सी पुस्तक को बीसलदेव ऐसे वीर का 'रासो' कहना खटकता है। पर जब हम देखते हैं कि यह कोई काव्यग्रंथ नहीं है, केवल गाने के लिये रचा गया था, तो बहुत कुछ समाधान हो जाता है।

भाषा की परीक्षा करके देखते हैं तो वह साहित्यिक नहीं है, राजस्थानी है। जैसे, सूकइ छै( =सूखता है ), पाटण थीं ( =पाटन से ), भोज तणा ( =भोज का ), खंड खंडरा ( =खंड खंड का ) इत्यादि। इस ग्रंथ से एक बात का आभास अवश्य मिलता है। वह यह कि शिष्ट काव्यभाषा में ब्रज और खड़ी बोली के प्राचीन रूप का ही राजस्थान में भी व्यवहार होता था। साहित्य की सामान्य भाषा 'हिंदी' ही थी जो पिंगल भाषा कहलाती थी। बीसलदेवरासो में बीच बीच में बराबर इस साहित्यिक भाषा (हिंदी) को मिलाने का प्रयत्न दिखाई पड़ता है। भाषा की प्राचीनता पर विचार करने के पहले यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गाने की चीज होने के कारण इसकी भाषा में समयानुसार बहुत कुछ फेरफार होता आया है। पर लिखित रूप में रक्षित होने के कारण इसका पुराना ढाँचा बहुत कुछ बचा हुआ है। उदाहरण के लिये——मेलवि=मिलाकर, जोड़कर। चितह=चित्त में। रणि=रण में। प्रापिजइ= प्राप्त हो, या किया जाय। ईणी विधि=इस-विधि। ईसउ=ऐसा। बाल हो=बाला का। इसी प्रकार ‘नयर' (नगर), ‘पसाउ' (प्रसाद), ‘पयोहर' (पयोधर) आदि प्राकृत शब्द भी हैं जिनका प्रयोग कविता में अपभ्रश-काल से लेकर पीछे तक होता रहा।

इसमें आए हुए कुछ फारसी, अरबी, तुरकी शब्दों की ओर भी ध्यान जाता है, जैसे—महल, इनाम, नेजा, ताजनो (ताजियाना) आदि। जैसा कहा जा चुका है, पुस्तक की भाषा में फेरफार अवश्य हुआ है; अतः ये शब्द पीछे से मिले हुए भी हो सकते हैं और कवि द्वारा व्यवहृत भी। कवि के समय से पहले ही पंजाब में मुसलमानों का प्रवेश हो गया था और वे इधर उधर जीविका के लिये फैलने लगे थे। अतः ऐसे साधारण शब्दों का प्रचार कोई आश्चर्य की बात नही। बीसलदेव के सरदारों में ताजुद्दीन मियाँ भी मौजूद हैं।

महल पलाण्यो ताजदीन। खुरसाणा चढि चाल्यो गोंड॥

[ ३७ ]उपर्युक्त विवेचन के अनुसार यह पुस्तक न तो वस्तु के विचार से और न भाषा के विचार से अपने असली और मूल रूप में कही जा सकती है। रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इसे हम्मीर के समय की रचना कहा है। (राजपूताने का इतिहास, भूमिका, पृष्ठ १९)। यह नरपति नाल्ह की पोथी का विकृत रूप अवश्य है जिसके आधार पर हम भाषा और साहित्य संबंधी कई तथ्यों पर पहुँचते हैं। ध्यान देने की पहली बात है, राजपूताने के एक भाट का अपनी राजस्थानी में हिंदी का मेल करना। जैसे, "मोती का आखा किया"। "चंदन काठ को माँड़वो"। "सोना की चोरी", "मोती की माल” इत्यादि। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि प्रादेशिक बोलियो के साथ साथ ब्रज या मध्यदेश की भाषा का आश्रय लेकर एक सामान्य साहित्यिक भाषा भी स्वीकृत हो चुकी थी जो चारणों में 'पिंगल' भाषा के नाम से पुकारी जाती थी। अपभ्रंश के योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो साहित्यिक रूप था, वह 'डिंगल', कहलाता था। हिंदी-साहित्य के इतिहास में हम केवल पिंगल भाषा में लिखे हुए ग्रंथों का ही विचार कर सकते हैं। दूसरी बात जो कि साहित्य से संबंध रखती है, वीर और शृंगार का मेल है। इस ग्रंथ में शृंगार की ही प्रधानता है, वीररस का किंचित् आभास मात्र है। संयोग और वियोग के गीत ही कवि ने गाए हैं।

'बीसलदेवरासो' के कुछ पद्य देखिए—

परणबा[१] चाल्यो बीसलराय। चउरास्या[२] सहु[३] लिया बोलाइ।
जान-तणी[४] साजति करउ। जीरह रँगावली पहरज्यो टोप॥
XXXX
हुअउ पहसारउ बीसलराव। आवी सयल[५] अँतेवरी राव।[६]
रूप अपूरब पेषियइ। इसी अली नहिं सयल संसार॥
अति रंग स्वामी सूँ मिली राति। बेटी राजा भोज की॥
XXXX
गरब करि उभो[७] छई साँभरयो राव। मो सरीखा नहिं ऊर भुवाल॥
म्हाँ घरि[८] साँभर उग्गहरु। चिहुँ दिसि थाण जैसलमेर॥

 

[ ३८ ]

"गरबि न बोलो हो साँभरया-राव। तो सरीखा घगा और भूवाल॥
एक उड़ीसा को धणी[९]। बचन हमारइ तू मानि जु मानि॥
ज्यूँ थारइ[१०] साँभर उग्गहइ। राजा उणि घरि उग्गहइ हीरा-खान"॥
XXXX
कुँवरि कहइ "सुणि, साभरया राव। काई[११] स्वागी तू उलगई[१२] जाइ?
कहेउ हमारउ जइ सुणउ। थारइ छइ[१३] साठि अंतेवरी नारि"॥
"कड़वा बोल न बोलिस नारि। तू मो मेल्हसी[१४] चित्त बिसरि"॥
जीभ न जीभ विगोयनो[१५]। दव का दाधा कुपनी मेल्हइ[१६]
जीभ का दाधा नु पाँगुरइ[१७]। नाल्ह कहइ सुणीजइ सब कोइ॥
XXXX

आव्यो राजा मास बसंत। गढ़ माहीं गूड़ी ऊछली[१८]
जइ धन मिलती अंग सँभार। मान-भंग होतो बाल हो[१९]

ईणी परिरहता राज दुवारि[२०]


(३) चंद वरदाई (संवत् १२२५-१२४९)——ये हिंदी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका पृथ्वीराजरासो हिंदी का प्रथम महाकाव्य है। चंद दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट् महाराज पृथ्वीराज के सामंत और राजकवि प्रसिद्ध हैं। इससे इनके नाम में भावुक हिंदुओं के लिये एक विशेष प्रकार का आकर्षण है। रासो के अनुसार ये भट्ट जाति के जगात नामक गोत्र के थे। इनके पूर्वजों की भूमि पंजाब थी जहाँ लाहौर में इनका जन्म हुआ था। इनका और महाराज पृथ्वीराज का जन्म एक ही दिन हुआ था और दोनों ने एक ही दिन यह संसार भी छोड़ा था। ये महाराज पृथ्वीराज के राजकवि ही नहीं उनके सखा शौर 'सामंत भी थे, तथा षड्भाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य, [ ३९ ]छंदशास्त्र, ज्योतिष, पुराण, नाटक आदि अनेक विद्याओं में पारंगत थे। इन्हें जालधरी देवी के इष्ट था। जिनकी कृपा से ये अदृष्टकाव्य भी कर सकते थे। इनका जीवन पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिला जुला था कि अलग नहीं किया जा सकता। युद्ध में, आखेट में, सभा में, यात्रा में सदा महाराज के साथ रहते थे, और जहाँ जो बातें होती थी, सब में समिलित रहते थे।

पृथ्वीराजरासो ढाई हजार पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसमे ६९ समय (सर्ग या अध्याय) हैं। प्राचीन समय में प्रचलित प्रायः सभी छंद का व्यवहार हुआ है। मुख्य छंद हैं, कवित्त (छप्पय), दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या। जैसे कादंबरी के संबंध में प्रसिद्व है कि उसका पिछला भाग बाण-के पुत्र ने पूरा किया है, वैसे ही रासो के पिछले भाग का भी चंद के पुत्र जल्हण द्वारा पूर्ण किया जाना कहा जाता है। रासो के अनुसार जब शहाबुद्दीन गोरी पृथ्वीराज को कैद करके गजनी ले गया, तब कुछ दिनो पीछे चंद भी वही गए। जाते समय कवि ने अपने पुत्र जल्हण के हाथ में रासो की पुस्तक देकर उसे पूर्ण करने का संकेत किया। जल्हण के हाथ में रासो को सौंपे जाने और उसके पूरे किए जाने का उल्लेख रासो में हैं––

पुस्तक जल्हन हत्थ दै चलि गज्जन नृप-काज।

  • **

रघुनाथचरित हनुमतकृत भूप भोज उद्धरिय जिमि।
पृथिराज-सुजस कवि चंद कृत चंद-नद उद्धरिय तिमि॥

पृथ्वीराजरासो में आबू के यज्ञकुंड से चार क्षत्रिय कुलों की उत्पत्ति तथा चौहान के अजमेर में राजस्थापन से लेकर पृथ्वीराज के-पकड़े जाने तक का सविस्तार वर्णन है। इस ग्रंथ के अनुसार पृथ्वीराज अजमेर के चौहान राजा सोमेश्वर के पुत्र और आर्णोराज के पौत्र थे। सोमेश्वर क विवाह दिल्ली के तुँवर (तोमर) राजा अनंगपाल की कन्या से हुआ था। अनंगपाल की दो कन्याएँ थीं––सुंदरी और कमला! सुंदरी का विवाह कन्नौज के राजा विजय पाल के साथ हुआ और इस संयोग से जयचंद राठौर की उत्पत्ति हुई। दूसरी कन्या कमला का विवाह अजमेर के चौहान सोमेश्वर के साथ हुआ जिनके पुत्र पृथ्वीराज हुए। अनंगपाल ने अपने नाती पृथ्वीराज को गोद लिया जिससे [ ४० ]अजमेर और दिल्ली का राज एक हो गया। जयचंद को यह बात अच्छी न लगी। उसने एक दिन राजसूय यज्ञ करके सब राजाओं को यज्ञ के भिन्न भिन्न कार्य करने के लिये निमंत्रित किया और इस यज्ञ के साथ ही अपनी कन्या संयोगिता का स्वयंवर रचा। राजसूय यज्ञ में सब राजा आए पर पृथ्वीराज नहीं आए। इस पर जयचंद ने चिढ़कर पृथ्वीराज की एक स्वर्णमूर्ति द्वारपाल के रूप में द्वार पर रखवा दी।

संयोगिता का अनुराग पहले से ही पृथ्वीराज पर था, अतः जब वह जयमाल लेकर रंगभूमि में आई, तब उसने पृथ्वीराज की मूर्ति को ही माला पहना दी। इस पर जयचंद ने उसे घर से निकालकर गंगा-किनारे के एक महल में भेज दिया। इधर पृथ्वीराज के सामंतो ने आकर यज्ञ-विध्वंस किया। फिर पृथ्वीराज ने चुपचाप आकर संयोगिता से गांधर्व विवाह किया और अंत में वे उसे हर ले गए। रास्ते में जयचंद की सेना से बहुत युद्ध हुआ, पर संयोगिता को लेकर पृथ्वीराज कुशल-पूर्वक दिल्ली पहुँच गए। वहाँ भोग विलास में ही उनका सारा समय बीतने लगा, राज्य की रक्षा का ध्यान न रह गया।

बल का बहुत कुछ ह्रास तो जयचंद तथा और राजाओं के साथ लड़ते लड़ते हो चुका था और बड़े बड़े सामंत मारे जा चुके थे। अच्छा अवसर देख शहाबुद्दीन चढ़ आया, पर हार गया और पकड़ा गया। पृथ्वीराज ने उसे छोड़ दिया। वह बार बार चढ़ाई करता रहा और अंत में पृथ्वीराज पकड़कर गजनी भेज दिए गए। कुछ काल के पीछे कवि चंद भी गजनी पहुँचे। एक दिन चंद के इशारे पर पृथ्वीराज ने शब्दबेधी बाण द्वारा शहाबुद्दीन को मारा। और फिर दोनों एक दूसरे को मारकर मर गए। शहाबुद्दीन और पृथ्वीराज के वैर का कारण यह लिखा गया है कि शहाबुद्दीन अपने यहाँ की एक सुंदरी पर आसक्त था जो एक दूसरे पठान सरदार हुसेनशाह को चाहती थी। जब ये दोनों शहाबुद्दीन से तंग हुए, तब हारकर पृथ्वीराज के पास भाग आए। शहाबुद्दीन ने पृथ्वीराज के यहाँ कहला भेजा कि उन दोनों को अपने यहाँ से निकाल दो। पृथ्वीराज ने उत्तर दिया कि शरणागत की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म है, अतः इन दोनों की हम बराबर रक्षा करेंगे। इसी बैर से शहाबुद्दीन ने दिल्ली पर चढ़ाइयाँ की। यह तो [ ४१ ]पृथ्वीराज का मुख्य चरित्र हुआ। इसके अतिरिक्त बीच बीच में बहुत से राजाओं के साथ पृथ्वीराज के युद्ध और अनेक राज-कन्याओं के साथ विवाह की कथाएँ रासो मे भरी पड़ी हैं।

ऊपर लिखे वृत्तांत और रासो मे दिए हुए संवतो का ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बिल्कुल मेल न खाने के कारण अनेक विद्वानों ने पृथ्वीराजरासो के पृथ्वीराज के सामयिक किसी कवि की रचना होने में पूरा संदेह किया है और उसे १६वीं शताब्दी में लिखा हुआ एक जाली ग्रंथ ठहराया है। रासो में चंगेज, तैमूर आदि कुछ पीछे के नाम आने से यह संदेह और भी पुष्ट होता है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा रासो में वर्णित घटनाओं तथा संवतों को बिल्कुल भाटों की कल्पना मानते हैं। पृथ्वीराज की राजसभा के काश्मीरी कवि जयानक ने संस्कृत में 'पृथ्यीराज-विजय' नामक एक काव्य लिखा है जो पूरा नहीं मिला है। उसमें दिए हुए संवत तथा घटनाएँ ऐतिहासिक खोज के अनुसार ठीक ठहरती है। उसमें पृथ्वीराज की माता का नाम कर्पूरदेवी लिखा है जिसका समर्थन हाँसी के शिलालेख से भी होता है। उक्त ग्रंथ अत्यंत प्रामाणिक और समसामयिक रचना है। उसके तथा 'हम्मीर-महाकाव्य' आदि कई प्रामाणिक ग्रंथों के अनुसार सोमेश्वर का दिल्ली के तोमर राजा अनंगपाल की पुत्री से विवाह होना और पृथ्वीराज का अपने नाना की गोद जाना, राणा समरसिंह का पृथ्वीराज का समकालीन होना और उनके पक्ष में लड़ना, संयोगिता-हरण इत्यादि बातेx असंगत सिद्ध होती हैं। इसी प्रकार आबू के यज्ञ से चौहान आदि चार अग्निकुलों की उत्पत्ति की कथा भी शिलालेखों की जाँच करने पर कल्पित ठहरती है; क्योंकि इनमें से सालंकी चौहान आदि कई कुलों के प्राचीन राजाओं के शिलालेख मिले हैं जिनमें वे सूर्यवंशी, चद्रवंशी आदि कहे गए है, अग्निकुल का कहीं कोई उल्लेख नहीं है।

चंद ने पृथ्वीराज का जन्मकाल संवत् १११५ में, दिल्ली गोद जाना ११२२ में, कन्नौज जाना ११५१ में और शहाबुद्दीन के साथ युद्ध ११५८ में लिखा है। पर शिलालेखों और दानपत्रों में जो संवत् मिलते हैं, उनके [ ४२ ]अनुसार रासो में दिए हुए संवत् ठीक नहीं है। अब तक ऐसे दानपत्र या शिलालेख जिनमें पृथ्वीराज, जयचंद और परमर्दिदेव (महोबे के राजा परमाल) के नाम आए है, इस प्रकार मिले हैं——

पृथ्वीराज के ४, जिनके संवत् १२२४ ओर १२४४ के बीच में है। जयचंद के १२, जिनके संवत् १२२४ और १२४३ के बीच में हैं। परमर्दिदेव के ६, जिनके संवत् १२२३ और १२५८ के बीच में हैं। इनमें से एक संवत् १२३९ का है जिसमें पृथ्वीराज और परमर्दिदेव (राजा परमाल) के युद्ध का वर्णन है।

इन संवतों से पृथ्वीराज का जो समय निश्चत होता है उसकी सम्यक् पुष्टि फारसी तवारीखो से भी हो जाती है। फारसी इतिहासों के अनुसार शहाबुद्दीन के साथ पृथ्वीराज का प्रथम युद्ध ५८७ हिजरी (वि० सं० १२४७——ई० सन् ११९१) में हुआ। अतः इन संवतों के ठीक होने में किसी प्रकार का संदेह नही।

पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या ने रासो के पक्षसमर्थन में इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि रासो के सब संवतों में, यथार्थ संवतों से ९०-९१ वर्ष का अंतर एक नियम से पड़ता है। उन्होंने यह विचार उपस्थित किया कि यह अंतर भूल नहीं है, बल्कि किसी कारण से रखा गया है। इसी धारणा को लिए हुए उन्होंने रासो के इस दोहे को पकड़ा——

एकादस सै पंचदह विक्रम साक अनंद।
तिहि रिपुजय पुरहरन के भए पृथिराज नरिंद॥


और “विक्रम साक अनंद" का अर्थ किया——अ=शून्य और नंद=९ अर्थात् ९० रहित विक़म संवत्। अब क्यों ये ९० वर्ष घटाए गए, इसका वे कोई उपयुक्त कारण नहीं बता सके। नंदवंशी शूद्र थे, इसलिये उनका राजत्वकाल राजपूत्र भाटो ने निकाल दिया, इस प्रकार की विलक्षण कल्पना करके वे रह गए। पर इन कल्पनाओं से किसी प्रकार समाधान नहीं होता। आज तक और कहीं प्रचलित संवत् में से कुछ काल निकालकर संवत् लिखने की प्रथा नहीं पाई गई। फिर यह भी विचारणीय है कि जिस किसी ने प्रचलित विक्रम संवत् में से ९०-९१ वर्ष निकालकर पृथ्वीराजरासो में संवत् दिए हैं, उसने [ ४३ ]क्या ऐसा जान-बूझकर किया है अथवा धोखे से या भ्रम में पड़कर। ऊपर जो दोहा उद्धृत किया गया है, उसमें 'अनंद' के स्थान पर कुछ लोग ‘अनिंद’ पाठ का होना अधिक उपयुक्त मानते हैं। इसी रासों में एक दोहा यह भी मिलता है——

एकादस सै पंचदह विक्रम जिम ध्रमसुत्त।
त्रतिय साक प्रथिराज कौ लष्यौ विप्र गुन गुत्त॥

इससे भी नौ के गुप्त करने का अर्थ निकाला गया है; पर कितने में से नौ कम करने से यह तीसरा शक बनता है, यह नहीं कहा है दूसरी बात यह कि 'गुन गुत्त' ब्राह्मण का नाम (गुण गुप्त) प्रतीत होता है।

बात संवत् ही तक नहीं है। इतिहास-विरुद्ध कल्पित घटनाएँ जो भरी पड़ी हैं उनके लिये क्या कहा जा सकता है? माना कि रासो इतिहास नहीं हैं, काव्य-ग्रंथ है। पर काव्य-ग्रंथों में सत्य घटनाओं में बिना किसी प्रयोजन के उलट-फेर नहीं किया जाता। जयानक का पृथ्वीराज-विजय भी तो काव्य-ग्रंथ ही है; फिर उसमें क्यों घटनाएँ और नाम ठीक ठीक हैं? इस संबंध में इसके अतिरिक्त और कुछ कहने की जगह नहीं कि यह पूरा ग्रंथ वास्तव में जाली है। यह हो सकता है कि इसमें इधर उधर कुछ पद्य चंद के भी बिखरे हों, पर उनका पता लगना असंभव है। यदि यह ग्रंथ किसी समसामयिक कवि का रचा होता और इसमें कुछ थोड़े से अंश ही पीछे से मिले होते तो कुछ घटनाएँ और कुछ संवत तो ठीक होते।

रहा यह प्रश्न कि पृथ्वीराज की सभा में चंद, नाम का कोई कवि था या नहीं। पृथ्वीराज-विजय के कर्त्ता जयानक ने पृथ्वीराज के मुख्य भाट या बंदिराज का नाम “पृथ्वी भट्ट” लिखा है, चंद का उसने कहीं नाम नहीं लिया है, पृथ्वीराज-विजय के पांचवे सर्ग में यह श्लोक आया है——

तनयश्च द्रराजस्य चंद्रराज इवाभवत्।
संग्रह यस्मुवृत्ताना सुवृत्तानामिव व्याधात्॥

इसमें यमक के द्वारा जिस चंद्रराज कवि का संकेत है वह रायबहादुर श्रीयुत पं० गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार 'चंद्रक' कवि है जिसका उल्लेख काश्मीरी कवि क्षेमेंद्र ने भी किया है। इस अवस्था में यही कहा जा सकता है कि 'चंदबरदाई' नाम का यदि कोई कवि था तो वह या तो पृथ्वीराज की सभा में न रहा [ ४४ ]होगा या जयानक के काश्मीर लौट जाने पर आया होगा। अधिक संभव यह जान पड़ता है कि पृथ्वीराज के पुत्र गोविंदराज या उनके भाई हरिराज अथवा इन दोनों में से किसी के वंशज के यहाँ चंद नाम का कोई भट्ट कवि रहा हो। जिसने उनके पूर्वज पृथ्वीराज की वीरता आदि के वर्णन में कुछ रचना की हो। पीछे जो बहुत सा कल्पित "भट्ट-भणत" तैयार होता गया उन सबको लेकर और चंद को पृथ्वीराज का समसामयिक मान, उसी के नाम पर "रासो" नाम की यह बड़ी इमारत खड़ी की गई हो।

भाषा की कसौटी पर यदि ग्रंथ को कसते हैं तो और भी निराश होना पड़ता है क्योकि वह बिल्कुल बे-ठिकाने है——उसमें व्याकरण आदि की कोई व्यवस्था नहीं है। दोहों की और कुछ कुछ कवित्तों (छप्पयों) की भाषा तो ठिकाने की है, पर त्रोटक आदि छोटे छंदो में तो कहीं कहीं अनुस्वारात शब्दों की ऐसी मनमानी भरमार है जैसे किसी ने संस्कृत-प्राकृत की नकल की हो। कहीं कहीं तो भाषा आधुनिक साँचे में ढली सी दिखाई पड़ती है, क्रियाएँ नए रूप में मिलती हैं। पर साथ ही कहीं कहीं भाषा अपने असली प्राचीन साहित्यिक रूप में भी पाई जाती है जिसमें प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों के रूप और विभक्तियों के चिन्ह पुराने ढंग के हैं। इस दशा में भाटों के इस वाग्जाल के बीच कहाँ पर कितना अंश असली है, इसका निर्णय असंभव होने के कारण यह ग्रंथ न तो भाषा के इतिहास के और न साहित्य के इतिहास के जिज्ञासुओं के काम का है।

महामहोपाध्याय पं० हरप्रसाद शास्त्री ने १९०९ से १९१३ तक राजपूताने में प्राचीन ऐतिहासिक काव्यों की खोज में तीन यात्राएँ की थीं। उनका विवरण बंगाल की एशियाटिक सोसायटी ने छापा है। उस विवरण में 'पृथ्वीराजरास' के विषय में बहुत कुछ लिखा है और कहा गया है कि कोई कोई तो चंद के पूर्वपुरुषों को मगध से आया हुआ बताते हैं, पर पृथ्वीराजरासो में लिखा है कि चंद का जन्म लाहौर में हुआ था। कहते हैं कि चंद पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर के समय में राजपूताने में आया और पहले सोमेश्वर का दरबारी और पीछे से पृथ्वीराज का मंत्री, सखा और राजकवि हुआ। पृथ्वीराज ने नागौर बसाया था और वहीं बहुत सी भूमि चंद को दी थी। शास्त्रीजी का कहना है कि नागौर में अब तक चंद के वंशज रहते हैं। इसी वंश के वर्तमान प्रतिनिधि [ ४५ ]नानूराम भाट से शास्त्रीजी की भेंट हुई। उनसे उन्हें चंद का वंशवृक्ष प्राप्त हुआ जो इस प्रकार है—  

चंदबरदाई
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
गुणचंदजल्लचंदXX
 
 
सीताचंद
 
 
वीरचंद
 
 
हरिचंद
 
 
रामचंद्र
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
विष्णुचंद्रउद्धरचंदरूपचंदबुद्धचंद्रदेवचंद्रसूरदास
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
खेमचंदगोविंदचंद्र
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
जयचंद
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
मदनचंदशिवचंदबलदेवचंद
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
चौथचंदबेनीचंद
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
गोकुलचंदवसुचंदलेखचंद
 
 
[ ४६ ]
 
 
कर्णचंद
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
गुणगगचंदमोहनचंद
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
जगन्नाथरामेश्वर
 
 
गंगाधर
 
 
भगवानसिंह
 
 
कर्मसिंह
 
 
माथुरसिंह
 
 
वाग्गोविंदसिंह
 
 
मानसिंह
 
 
विजयसिंह
 
 
आनंदरायजी
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
आसोजीगुमानजीकर्णीदानजैथमलजीवीरचंदजी
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
घमंडीरामजीबुधजी
 
 
 
 
वृद्धिचंदजी
 
 
नानूराम
[ ४७ ]नानूराम का कहना है कि चंद के चार लड़के थे जिनमें से एक मुसलमान हो गया। दूसरे का कुछ पता नहीं, तीसरे के वंशज अभोर में जा बसे और चौथै जल्ल का वंश नागौर में चला। पृथ्वीराजरासो में चंद के लड़कों का उल्लेख इस प्रकार है——

दहति पुत्र कविचंद के सुंदर रूप सुजान।
इक जल्ह गुन बावरों गुन-समुंद ससभान॥

पृथ्वीराजरासो में कवि चंद के दसों पुत्रों के नाम दिए हैं। 'सूरदास' की साहित्यलहरी की टीका में एक पद ऐसा आया हैं जिसमें सूर की वंशावली दी है। वह पद यह है——

प्रथम ही प्रथु यज्ञ तें भे प्रगट अद्भुत रूप। ब्रह्मराव विचार ब्रह्मा राखु नाम अनूप॥
पान पय देवी दियो शिव आदि सुर सुख पाय। कह्यो दुर्गा पुत्र तेरो भयो अति अधिकाय॥
पारि पायँन सुरन के सुर सहित अस्तुति कीन्। तासु वंस प्रसंस में भौ चंद चारु नवीन॥
भूप पृथ्वीराज दीन्हों तिन्हें ज्वाला देस। तनय ताके चार कीनो प्रथम आप नरेस॥
दूसरे गुनचंद ता सुत सीलचंद सरूप। वीरचंद प्रताप पूरन भयो अद्भुत रूप॥
रणथंभौर हमीर भूपति सँगत खेलते जाय। तासु बंस अनूप भी हरिचंद अति विख्याय॥
आगरे रहि गोपचल में रह्यो ता सुत वीर। पुत्र जनमे सात ताके महा भट गंभीर॥
कृष्णचंद उदारचंद जु रूपचंद सुभाइ। बुद्धिचंद प्रकाश चौथे चंद भे सुखदाइ॥
देवचंद प्रबोध ससृतचंद ताको नाम। भयो सप्तो दाम सूरजचंद मंद निकाम॥

इन दोनों वंशावलियों के मिलाने पर मुख्य भेद यह प्रकट होता है कि नानूराम ने जिनको जल्लचंद की वंश-परंपरा में बताया है, उक्त पद में उन्हें गुणचंद की परंपरा में कहा है। बाकी नाम प्रायः मिलते हैं।

नानूराम का कहना है कि चंद ने तीन या चार हजार श्लोक-संख्या में अपना काव्य लिखा था। उसके पीछे उनके लड़के ने अंतिम दस समयों को लिखकर उस ग्रंथ को पूरा किया। पीछे से और लोग उसमें अपनी रुचि अथवा आवश्यकता के अनुसार जोड़ तोड़ करते रहे। अंत में अकबर के समय में इसने एक प्रकार से परिवर्तित रूप धारण किया। अकबर ने इस प्रसिद्ध ग्रंथ को सुना था। उसके इस प्रकार उत्साह-प्रदर्शन पर कहते हैं कि उस समय रास नामक अनेक ग्रंथों की रचना की गई। नानूराम का कहना है कि असली पृथ्वीराजरासो [ ५० ]केदार ने 'जयचंद-प्रकाश' नाम का एक महाकाव्य लिखा था। जिसमें महाराज जयचंद के प्रताप और पराक्रम का विस्तृत वर्णन था[२१]। इसी प्रकार का 'जयमयंक-जसचंद्रिका' नामक एक बड़ा ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं है। केवल इनका उल्लेख सिंधायच दयालदास कृत 'राठौडॉ री ख्यात' में मिलता है जो बीकानेर के राजपुस्तक-भण्डार में सुरक्षित है। इस ख्यात में लिखा है कि दयालदास ने आदि से लेकर कन्नौज तक का वृत्तांत इन्हीं दोनों ग्रंथों के आधार पर लिखा है।

इतिहासज्ञ इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के आरंभ से उत्तर भारत के दो प्रधान साम्राज्य थे। एक तो था गहरवारो (राठौरों) का विशाल साम्राज्य, जिसकी राजधानी कन्नौज थी और जिसके अंतर्गत प्रायः सारा मध्य देश, काशी से कन्नौज तक, था। दूसरा चौहानो का, जिसकी राजधानी दिल्ली थी और जिसके अंतर्गत दिल्ली से अजमेर तक का पश्चिमी प्रांत था। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन दोनो में गहरवारों का साम्राज्य अधिक विस्तृत, धन-धान्य-संपन्न और देश के प्रधान भाग पर था। गहरवारो की दो राजधानियाँ थी––कन्नौज और काशी। इसी से कन्नौज के गहरवार राजा काशिराज कहलाते थे। जिस प्रकार पृथ्वीराज का प्रभाव राजपूताने के राजाओ पर था उसी प्रकार जयचंद का प्रभाव बुँदेलखंड के राजाओं पर था। कालिंजर या महोबे के चंदेल राजा परमर्दिदेव (परमाल) जयचंद के मित्र या सामंत थे जिसके कारण पृथ्वीराज ने उन [ ५१ ]पर चढ़ाई की थी। चंदेल कन्नौज के पक्ष में दिल्ली के चौहान पृथ्वीराज से बराबर लड़ते रहे।


(६) जगनिक (सं॰ १२३०)——ऐसा प्रसिद्ध है कि कालिंजर के राजा परमाल के यहाँ जगनिक नाम के एक भाट थे जिन्होंने महोबे के दो देशप्रसिद्ध वीरों——आल्हा और ऊदल (उदयसिंह)——के वीर चरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना सर्वप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमशः सारे उत्तरीय भारत में——विशेषतः उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे——हो गया। जगनिक के काव्य का आज कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिंदी भाषा-भाषी प्रांतों के 'गाँव गाँव' में सुनाई पड़ते हैं। ये गीत 'आल्हा' के नाम से प्रसिद्ध हैं और बरसात में गाए जाते हैं। गाँवों में जाकर देखिए तो मेघ-गर्जन के बीच में किसी अल्हैत के ढोल के गंभीर घोष के साथ यह वीरहुंकार सुनाई देगी——

बारह बरिस लै कूकर जीऐं, औ तेरह लै जिऐं सियार।
बरिस अठारह छ‌‌त्री जीऐं, आगे जीवन के धिक्कार।

इस प्रकार साहित्यक रूप में न रहने पर भी जनता के कंठ में जगनिक के संगीत की वीरदर्पपूर्ण प्रतिध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है। इस दीर्घ काल-यात्रा में उसका बहुत कुछ कलेवर बदल गया है। देश और काल के अनुसार भाषा में ही परिवर्तन नहीं हुआ है, वस्तु में भी अधिक परिवर्तन होता आया है। बहुत से नए अस्त्रों (जैसे, बंदूक, किरिच), देशों और जातियों (जैसे, फिरंगी) के नाम संमिलित हो गए हैं और बराबर होते जाते हैं। यदि यह ग्रंथ सहित्यिक प्रबंधपद्धति पर लिखा गया होता तो कहीं न कहीं राजकीय पुस्तकालयों में इसकी कोई प्रति रक्षित मिलती। पर यह गाने के लिये ही रचा गया था इससे पंडितों और विद्वानों के हाथ इसकी रक्षा की ओर नहीं बढ़े, जनता ही के बीच इसकी गूँज बनी रही——पर यह गूँज मात्र है, मूल शब्द नहीं। आल्हा का प्रचार यों तो सारे उत्तर भारत में है पर बैसवाड़ा इसका केंद्र माना जाता है; वहाँ इसके गानेवाले [ ४८ ]की प्रति मेरे पास है। पर उन्होंने महोबा समय की जो नकल महामहोपाध्याय पंडित हरप्रसाद शास्त्री को दी थी वह और भी ऊटपटांग और रद्दी है।

पृथ्वीराजरासो के ‘पद्मावती समय' के कुछ पद्य नमूने के लिये दिए जाते हैं——

हिंदुवान-थान उत्तम सुदेस। तहँ उदित द्रुग्ग दिल्ली सुदेस।
संभरि-नरेस चहुआन थान। प्रथिराज तहाँ राजंत भान।
संभरि नरेस सोमेस पूत। देवत्त रूप अवतार धृत[२२]
जिहि पकरि साह साहब लीन। तिहुँ बेर करिय पानीप-हीन॥
सिंगिनि-सुसद्द गुनि चढि जँजीर। चुक्कइ न सबद बेधत तीर[२३]


मनहु कला ससभान[२४] कला सोलह सो बन्निय।
बाल बैस, ससि ता समीम अम्रित रस पिन्निय[२५]
बिगसि कमल स्रिग, भमर, बेनु, खंजन मृग लुट्टिय।
हीर, कीर, अरु बिंब मोति नखसिख अहिघुट्टिय[२६]

***
कुट्टिल केस सुदेस पोह परिचियत पिक्क सद[२७]
कमल-गंध बयसंध, हंसगति चलत मंद मंद॥
सेत वस्त्र सोहै सरीर नष स्वाति-बूँद जस।
भमर भवहिं भुल्लह सुभाव मकरंद बास रस॥


प्रिय प्रिथिराज नरेस जोग लिषि कग्गर[२८] दिन्नौ।
लगन बरग रचि सरब दिन्न द्वादस ससि लिन्नौ॥
सै ग्यारह अरु तीस साष संवत् परमानह।
जो पित्री-कुल सुद्ध बरन, बरि रक्खहु प्रानह॥

[ ४९ ]

दिक्खंत दिट्ठि उच्चरिय[२९] वर, इक षलक्क विलँब न करिय।
अलगार[३०], रयनि दिन पंच महि[३१] ज्यों रुकमिनि कन्हर बरिय॥

****

संगह सषिय लिय सहस बाल। रुकमिनिय जेम[३२] लज्जत मराल॥
पूज़ियइ गउरि संकर मनाय। दच्छिनइ अंग करि लगिय पाय॥
फिरि देषि देषि प्रिथिराज राज[३३]। हँसि मुद्ध मुद्ध चर पट्ट लाज[३४]


बज्जिय घोर निसान रान चौहान चहौं दिस।
सकल सूर सामंत समरि बल जंत्र मंत्र तिस॥
उट्ठि राज प्रिथिराज बाग मनो लग्ग वीर नट।
कढत तेग मनबेग़ लगत मनो बीजु झट्ट घट॥

थकि रहे सूर कौतिक गगन, रँगन मगन भइ शोन धर।
हदि[३५] हरषि वीर जग्गे हुलसि हुरेउ[३६] रंग नव, रत्त[३७] वर॥

****

पुरासान मुलतान खंधार मीरं। बलष स्थो[३८] बलं तेग अच्चूक तीरं॥
रुहगी फिरंगी इलब्बी सुमानी। ठटी ठट्ट भल्लोच ढाल निसानी॥
मजारी-चषी[३९], मुक्ख, जबुक्क लारी[४०]। हजारी-हजारी हुँकै[४१] जोध भारी॥


(४–५) भट्ट केदार, मधुकर कवि (संवत् १२२४-१२४३)––जिस प्रकार चंदबरदाई ने महाराज पृथ्वीराज को कीर्त्तिमान् किया है उसी प्रकार भट्ट केदार ने कन्नौज के सम्राट् जयचंद का गुण गाया है। रासो में चंद और भट्ट केदार के संवाद का एक स्थान पर उल्लेख भी है। भट्ट
———————————————––––––––– [ ५२ ]बहुत अधिक मिलते हैं। बुंदेलखंड मे––विशेषतः महोबे के, आसपास––भी इसका चलन बहुत है।

इन गीतों के समुच्चय को सर्वसाधारण 'आल्हा-खंड' कहते हैं जिससे अनुमान होता हैं कि आल्हा-संबंधी ये वीर-गीत जगनिक के रचे उस बड़े काव्य के एक खंड के अंतर्गत थे जो चंदेलों की वीरता के वर्णन में लिखा गया होगा। आल्हा और ऊदल परमाल के सामंत थे और बनाफर शाखा के क्षत्रिय थे। इन गीतों का एक संग्रह 'आल्ह खंड' के नाम से छुपा है। फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर मि॰ चार्ल्र्स इलियट ने पहले पहल इन गीतों का संग्रह करके ६०-७० वर्ष पूर्व छपवाया था।


(७) श्रीधर––इन्होंने संवत् १४५४ मे 'रणमल्ल छंद' नामक एक काव्य रचा जिसमें ईडर के राठौर राजा रणमल्ल की उस विजय का वर्णन है जो उसने पाटन के सुबेदार जफर खाँ पर प्राप्त की थी। एक पद्य नीचे दिया जाता है––

ढमढमइ ढमढमकार ढकर ढोल ढोली जंगिया।
सुर करहि रण-सहणाइ समुहरि सरस रसि समरंगिया॥
कलकलहिं काहल कोढि कलरवि कुमल कायर थरहरइ।
संचरइ शक सुरताण साहण साहसी सवि सगरइ॥

 

  1. ब्याहने।
  2. सामंतों को।
  3. सब।
  4. यान की, बारात की।
  5. सब।
  6. अंतःपुर।
  7. खड़ा है।
  8. घर में।
  9. स्वामी; राजा।
  10. तुम्हारे (यहाँ)।
  11. क्यों।
  12. परदेश में।
  13. तेरे हैं।
  14. भुला डाला।
  15. बात से बात नहीं छिपाई जा सकती।
  16. आग का जला कोपल छोड़ दे तो छोड़ दे।
  17. जीभ का जला नहीं पनपता।
  18. आकाशदीप जलाए गए।
  19. यदि वह धन्या या स्त्री अँग सँभालकर ( तुरंत ) मिलती तो उस बाला का मान-भंग होता।
  20. (और) इसे परिरंभता (आलिंगन करता) राजा द्वार पर ही।
  21. भट्ट-भणत पर यदि, विश्वास किया जाय तो केदार महाराज जयचंद के कवि नहीं, सुलतान शहाबुद्दीन गोरी के कविराज थे। 'शिवसिंहसरोज' में भाटों की उत्पत्ति के संबंध में यह विलक्षण कवित्त उद्धृत है––

    प्रथम विधाता ते प्रगट भए बंदीजन, पुनि पृथुजज्ञ तें प्रकास सरसात है।
    मानै सूत सौनक न, बाँचत पुरान रहै, जैस को बखाने महासुख सरसात है।
    चंद चौहान के, केदार गोरी साह जू के, गंग अकबर के बखानै गुनगात है।
    काव्य कैसे माँस अजनास धन भाँटन को, लुटि धरै ताको खुरा-खोज मिटि जात है।

  22. धृत, धारण किया।
  23. (शब्दबेधी बाण चलाने का उल्लेख) सिंगी बाजे का शब्द गुनकर या अंदाज कर डोरी पर चढ़ उसका तीर उस शब्द को बेधते हुए (बेधने में) नहीं चूकता था।
  24. चंद्रमा।
  25. उसी के पास से मानो अमृतरस पिया।
  26. अभिघटित किया। मनाया।
  27. पोहे हुए अच्छे मोती दिखाई पड़ते हैं।
  28. कागज।
  29. चल दीजिए।
  30. अलग ही अलग। दूसरी ओर से।
  31. मध्ये, मधि, में।
  32. जिमि, ज्यों।
  33. प्रदक्षिणा।
  34. हँसकर उस मोहित मुग्धा ने लज्जा से (मुँह पर का) चला दिया अर्थात् सरका लिया।
  35. हृदय में।
  36. फुरयो, स्फुरित हुआ।
  37. रक्त।
  38. साथ।
  39. बिल्ली की सी आँख वाले।
  40. मुँह गीदड़ और लोमड़ी के से।
  41. हुँकार करते।