हिन्दुस्थानी शिष्टाचार/आधुनिक हिन्दुस्तानी शिष्टाचार के भेद

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आधुनिक हिन्दुस्थानी शिष्टाचार के भेद

शिष्टाचार का विषय इतना व्यापक है—अर्थात् इस गुण का प्रयोग करने के स्थल और अवसर इतने बहुत हैं—कि सब अवस्थाओं के लिए पूरे पूरे नियम बनाना बहुत कठिन कार्य है । यद्यपि इस विषय के प्रयोग का सम्बन्ध मनोविज्ञान, नीति- शास्त्र और समाज शास्त्र से है, तोभी यह स्वय कोई शास्त्र नहीं है, क्योकि इसमें हम कोई सिद्धात अथवा अटल नियम स्थापित नही कर सकते । अपने से बड़े को प्रणाम करने की प्रवृत्ति किसी स्वाभाविक प्रेरणा से अवश्य उत्पन्न होती है, पर वह सब अवस्थायो में एकसी नहीं रहती और किसी विशेष अवस्था में मिट भी जाती है । शिष्टाचार केवल एक प्रकार की ललित कला है जिसका उद्देश्य दूसरे को सुभीता और संतोष देना है और जो बहुधा अभ्यास से आती है। ऐसी अवस्था में इस विषय का विवेचन सिद्धान्तो के आधार पर तथा पूर्णता से करना कठिन है। तो भी इस विषय के मुख्य मुख्य स्वरुपो का वर्णन अधिकाश में क्रम-पूर्वक और स्पष्टता से किया जा सकता है।

शिष्टाचार को हम तीन विभागो में बाँट सकते हैं—(१) सामा- जिक (२) व्यक्तिगत (३) विशेष ।

(१) सामाजिक शिष्टाचार

जो शिष्टाचार किसी समाज विशेष म प्रचलित है और जिसे उस समाज के व्यक्ति के लिए समान के प्रति करना उचित और आवश्यक है उसे सामाजिक शिष्टाचार कहते हैं। किसी बाहरी
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समाज के प्रति अवसर पड़ने पर उस समाज का शिष्टाचार-पालन भी सामाजिक शिष्टाचार का एक अंग है। परन्तु इस पुस्तक में उस शिष्टाचार का विचार न किया जायगा, क्योंकि उसके अनेक भेद हो सकते हैं और प्रत्येक भेद के लिए एक अलग पुस्तक की आवश्यकता है । इस ग्रन्थ का उद्देश्य तो केवल आधुनिक हिन्दुस्थानी समाज के शिष्टाचार का वर्णन करना है। ‘समाज' शब्द भी बहुत व्यापक है और अभी तक उसकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं बनाई गई, अतएव इस पुस्तक में समाज उन व्यक्तियों का समूह माना गया है जो विशेष काल वा स्थान से सम्बन्ध रखते हैं और जिनके रीति रिवाज,सभ्यता और नैतिक तथा पादार्थिक अवस्था में बहुत कुछ सादृश्य रहता है। हिन्दुस्थानी समाज उस समाज का नाम है जो अधिकाश में मध्य-देश* का निवासी ओर हिन्दी भाषा-भाषी है । आधुनिक शब्द से गत और प्रचलित शताब्दी की लगभग उतनी अवधि का अभिप्राय है जिसके भीतर हमारे समाज की “भाषा, भोजन, भेष, भाव और भावी” में समधि-रूप से विशेष परिवर्तन नहीं हुआ और न होगा । समाज के पूर्वोक्ति चिह्नों में किसी समय विशेष हेरफेर भी हो जाय, तो भी व्यक्तियों के सम्बन्ध से उनमें सादृश्य रहता ही है । यदि ऐसा न होता तो यह जानना कठिन हो जाता कि कौन व्यक्ति किस समाज का है। आधुनिक हिंदुस्थानी शिष्टाचार के वर्णन में प्राय उन्हीं सब रीति रिवाजो का वर्णन रहेगा जिनसे अधिकाश में हिन्दुस्थानी समाज की पहचान होती है।


  • प्राचीन काल के मध्य देश को आज-कल हिन्दुस्थान कहते हैं जो 'दक्षिण' का विरोधार्थी है । इस देश के निवासी हिन्दुस्थानी
कहलाते है जिनकी भाषा हिन्दी (वा हिन्दुस्थानी ) है और धर्म वैदिक है ।। [ २३ ]

( २ ) व्यक्ति-गत शिष्टाचार

सामाजिक शिष्टाचार में हमें एक ही समय एक से अधिक व्यक्तियों के साथ सद्-व्यवहार करना पड़ता है, पर व्यक्ति-गत शिष्टाचार में हमारा सम्पूर्ण ध्यान किसी एक ही व्यक्ति की आव- भगत में लगा रहता है। यद्यपि सामाजिक शिष्टाचार में भी व्यक्ति- गत शिष्टाचार का भाव मिला रहता है, तोभी अनेक अवसर ऐसे आते हैं जिनमे व्यक्ति ही की प्रधानता रहती है । यदि किसी समय केवल व्यक्ति की प्रधानता हो, जेसे सभा में सभापति की और विदाई में अतिथि की होती है—तो उस समय हमें व्यक्ति-गत शिष्टाचार का विशेष ध्यान रखना चाहिए, पर साधारण रीति से सामाजिक शिष्टाचार के अवसर पर किसी एक व्यक्ति के प्रति विशेष शिष्टाचार का प्रयोग करने से अन्यान्य व्यक्तियों को अपमान प्रतीत हो सकता है । यद्यपि सामाजिक शिष्टाचार में ऊँच-नीच का भेद मानना प्राय अनुचित है,तो भी शिष्टाचार पात्र की योग्यता के अनुसार घट-बढ़ हो सकता है। व्यक्ति-गत तथा सामाजिक शिष्टाचार में जो व्यवहारी समष्टि-रूप से अपना दृष्टिकोण स्थिर रखता है वही अधिक शिष्ट अोर सभ्य समझा जाता है।

( ३ ) विशेष शिष्टाचार

इस विभाग में उन सब व्यक्तियों के प्रति होनेवाले शिष्ट व्यवहार का समावेश होता है जिनके साथ किसी का व्यक्ति-गत अथवा विशेष सम्बन्ध होता है अथवा जो किसी विशेष अवस्था के कारण विशेष रूप से शिष्टाचार के पात्र माने जाते हैं। यद्यपि इस विषय के नियम अन्यान्य प्रकार के शिष्टाचार के नियमो से अधिकांश में भिन्न नहीं है,तथापि इसकी कई बातो में विशेषता है जिसके कारण इस विषय का एक अलग विभाग किया गया है। उदाहरणार्थ, स्त्रियों की अथवा
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बूढो की बातो का उत्तर देने में नम्रता को मात्रा साधारण से कुछ अधिक होनी चाहिए । समाज में सब को एक ही दृष्टि से देखना ओर उनके साथ एक ही सा व्यवहार करना इष्ट होने पर भी सर्वदा शक्य नहीं है। अतएव देश-काल-पात्र के अनुसार शिष्टाचार में कुछ भेद करना ही पड़ता है, पर उसमे इस बात का ध्यान अवश्य रक्खा जावे कि वैसे व्यवहार से अन्यायन लोगो को असन्तोष का अवसर प्राप्त न हो।



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