हिन्दुस्थानी शिष्टाचार/सामाजिक शिष्टाचार
सामाजिक शिष्टाचार
(१) सभाओं और पाठशालाओं में
सभाओ में प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम तीन बातों का ध्यान
अवश्य रखना चाहिये—(१) बैठक (२) बातचीत (३) शारीरिक
क्रिया । जहाँ हम बैठे हो वहां हमे यह देखना चाहिए कि
हमारे बैठने से किसी को कोई अड़चन तो नहीं होती। यदि
हम अपने पास बैठने-वालो से यह पूछ लें कि उन लोगाें को
हमारे बैठने से कोई कष्ट नही है तो यह अनुचित न होगा । दुसरे के दृष्टिपथ को
रोककर अथवा दूसरे से बिल्कुल सटकर बैठना अशिष्ट है । इसी
प्रकार हाथ पांँव फंलाकर और केवल अपने ही आराम का ध्यान
रखकर बैठना भी नि ध समझा जाता है। जहाँ सभाओ में खड़े
रहने का प्रयोजन पड़ जाता है वहाँ भी इस विषय का विचार
रखना आवश्यक है । जिस समय सभा में व्याखान होता है अथवा सब
लोग मौन धारण किये किसी विषय पर विचार करते हैं उस समय
आपस में जोर-जोर से बातचीत करना अनुचित है । सभा में जिसे
बोलने का अधिकार है वही सभापति की आज्ञा अथवा अनुमति
से बोल सकता है। यदि अनधिकारी व्यक्ति को बोलने की इच्छा
अथवा आवश्यकता हो तो वह सभा के कार्य में विघ्न डाले बिना
सभापति की आज्ञा से बोले । शारीरिक क्रियाओं के सम्बन्घ
में यह जान लेना आवश्यक है कि जोर से हँसना,खाँसना,
नाक साफ करना, बार-बार आसन बदलना आदि कार्यों से प्राय सभी को
असुविधा होती है, इसलिए ये कार्य अधिकाश मे वज्र्य हैं। सभाओ में बीडी आदि पीना भी निन्ध है।
व्याख्याता को इतने जोर से बोलना चाहिए जिसमे सब श्रोता उसका भाषण सुन सके और ऐसी भाषा का व्यवहार करना चाहिए जिसे अधिकांश श्रोता समझ सकें। बोलने में शीघ्रता न की जावे और शब्दों तथा अक्षरों का उच्चारण स्पष्टता से किया जावे । यथा-सम्भव भाषा में प्रान्तीयता को दूर रखना चाहिए । भाषण में व्यक्तिगत आक्षेप करना अथवा ऐसे दृष्टान्त देना जिनसे श्रोताओ के हृदय पर आघात पहुँच सकता है असभ्यता का लक्षण है। वक्ता को अपने विषय के भीतर ही बोलना उचित है और उसे अपना व्याख्यान इतना न बढ़ाना चाहिए कि वह श्रोताओ को अरुचिकर हो जाय । व्याख्यान में अधिक हँसाना या रुलाना भी अनुचित समझा जाता है।
सभाओ के प्रबन्धकों को यह देखना चाहिए कि सब लोगो के बैठने तथा हवा और उजाले का ठीक प्रबन्ध है या नहीं । निमंत्रित तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों के स्वागत का और अन्यान्य लोगो को सभा-स्थान का मार्ग दिखाने का भी प्रबन्ध होना चाहिए । जहाँ तक हो सभाओ में स्वयं सेवकों की उपस्थिति अपेक्षित है। इन कार्य-कर्ताओं को अपने सद्व्यवहार में अपने कर्तव्य की शोभा बढ़ानी चाहिए । जो काम इन्हें सौंपा गया हो अथवा जिस उद्देश्य से इनकी नियुक्ति की गई हो उसमें सफलता प्राप्त करने के लिए इन्हें प्रयत्न करना चाहिए । सभा-कार्य में अयवस्था होने पर प्रबन्धको के साथ साथ स्वयंसेवक लोग भी दोषी ठहराये जा सकते हैं। इन लोगों में वचन माधुरी और क्रिया चातुरी अवश्य होनी चाहिए ।
सभाओ के विषय के साथ साथ यहांँ पाठशालाओं के शिष्टचार
का भी विचार करना उपयुक्त होगा । यद्यपि पाठशालाओ में
शिष्टाचार के अधिकांश नियम शासन के नियमों में रहते हैं जिनका पालन आज्ञा की कठोरता के साथ कराया जाता है, तथापि ये ( पिछले ) नियम ऐसे नहीं हैं कि इनमें सदैव आज्ञा की ही आवश्यकता हो और इनका पालन दण्ड के भय से ही किया जाय। यदि विद्यार्थी ( और शिक्षक भी) शिष्टाचार के मूल सिद्धान्त पर विचार करे तो उन्हें ज्ञान हो जायगा कि कक्षा में शान्ति रखना और एक ही व्यक्ति का बोलना केवल आज्ञा और दण्ड के विषय नहीं हैं, कितु विवेक के भी हैं । कक्षा में जिस समय शिक्षक पाठ पढ़ा रहा हो उस समय बातचीत करना अथवा अनुमति के बिना प्रश्न करना अनुचित है। यदि किसी विद्यार्थी को कोई शंका उत्पन्न हो तो यह पाठ का एक खण्ड समाप्त होने पर अपना हाथ उठाकर शिक्षक का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करे और उसकी आज्ञा से अपनी शंका खड़े होकर प्रगट करे । केवल असामयिक बाद विवाद की दृष्टि से शंका उपस्थित करना अनुचित है। यदि शिक्षक किसी विद्यार्थी की शंका को साधारण या अनुचित समझकर उसका समाधान न करे तो विद्यार्थी शिक्षक के कार्य में अधिक विघ्न न डालकर किसी अन्य उपयुक्त अवसर पर अपनी शंका का समाधान करा लेवे । शिक्षक और शिष्य के बीच में सदैव नम्रता का व्यवहार होना चाहिए, पर यदि किसी समय शिक्षक की ओर से कोई अनुचित कठोरता हो जाय तो कम से कम शिष्टाचार के अनुरोध ही से विद्यार्थी को यह व्यवहार सहन कर लेना चाहिए।
विद्यार्थी बार बार कक्षा के बाहर न जावे । यदि विशेष आवश्यकता हो तो यह शिक्षक से अनुमति लेकर कुछ समय तक बाहर ही रहे । कार्य के समय बिना शिक्षक की अनुमति के बाहर से कक्षा के भीतर आना भी अशिष्टता है। पाठशाला में आने के और घर जाने के समय शासन के अनुसार विद्यार्थियों को पाठक से प्रणाम
करना चाहिए जिसका प्रेम-पूर्वक उत्तर देना पाठक का कर्तव्य है । पाठशाला के बाहर भेट होने पर भी प्रणाम और उत्तर के नियम में बाधा न आनी चाहिए।
जो बाते विद्यार्थियों के विषय में कही गई हैं वहां थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ शिक्षकों के विषय में भी कही जा सकती है । जहाँ तक हो सके शिक्षक को अपना पाठ पद्धति पूर्वक और खड़े रहकर पढ़ाना चाहिए । पाठक लोग कभी कभी कुरसी और मेज का सुभीता पाकर मेज पर पैर फैला देते हैं । यह अनुचित है । विद्यार्थियों के प्रश्न करने पर उन्हें उसका उत्तर शांति और प्रेम-पूर्वक देना चाहिए । शिक्षक को विद्यार्थियों के प्रति न तो पत्थर सा कड़ा और न मक्खन सा कोमल होना चाहिए, क्योकि दोनो ही अवस्थाओं में मृदु मति बालको पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। उसे मध्य भाव से अपना व्यवहार करना चाहिए ।
(२) भीड़-मेलों तथा रास्तों में
भीड़-मेलो में सेना के शासन के समान अथवा कल की एक- रूपता की तरह पूर्ण व्यवस्था होनी कठिन है, क्योकि सभी लोग सभी स्थानो में और सभी समय पर शिष्टाचार का विचार नहीं रख सकते । इसीलिए ऐसे अवसरों पर प्रबन्ध के लिए स्वयं सेवकों और पुलिस को अावश्यकता होता है । तथापि लोगो की सदिच्छा और विवेकबुद्धि से बहुत से अनुचित व्यवहार रोके जा सकते हैं।
भीड़ मेलो मे स्त्रियां और पुरुष बहुधा अपने साथियों के साथ
जाते हैं और जहाँ तक होता है प्रत्येक अपना साथ बनाये रखता
है। ऐसी अवस्था में लोगो का यह कर्तव्य है कि अपने साथ-
वालो का ध्यान रखें। यदि कहीं कोई साथी छूट जाय तो दूसरे
साथियों को उसे खोजना चाहिए अथवा उसके लिए ठहरना
चाहिए । जहाँ सड़क चौड़ी हो यहाँ सड़क के किनारे से चलना ठीक है जिसमेंम सवारियों के आने जाने में कोई दुर्घटना होने का डर न रहे । झुंडवाले लोग एक कतार में न चलें, किन्तु एक दूसरे के आगे पीछे, और बीच रास्ते में खड़े न रह । प्राय ऐसे ही नियम सवारियों के लिए भी हैं। इनका वेग नियमित होना चाहिए और इन्हें आने-जाने वाले को सभ्यता पूर्बक सचेत कर देना चाहिए । पैदलो और सवारो को एक दूसरे के सुभीते का ध्यान अयश्य रहे। इसी भांति पुरुषों को स्त्रियों के तथा स्त्रियों को पुरुषों के सुभीते का ध्यान रखना चाहिए। जिस ओर में अधिकांश स्त्रियाँ जाती हो उस ओर मे पुरुष न जावें । इसी तरह त्रियाँ भी पुरषों के मार्ग से न चले । स्त्रियों के मार्ग को रोककर खड़े होना अथवा किसी पास के स्थान पर ठहरफर उनको ओर टकटकी लगाकर देखना, ठट्ठा करना या अनुचित गीत गाना नीचता है। यदि किसी मेले के स्थान पर स्त्रियों और पुरुषों के ठहरने, नहाने आदि के लिए अलग अलग स्थानों का प्रबन्ध हो तो प्रत्येक वर्ग को अपने ही निर्दिष्ट स्थान का उपयोग करना चाहिए । अधिक भीड़ होने पर भी स्त्रियों को हटाकर जाना पुरुषों के लिए उचित नहीं है । जिस धर्म के लोगो का मेला हो उनकी सम्मति बिना अन्य धर्मवाले को उसमे विशेष-कर पूजा के स्थान और समय पर सम्मिलित न होना चाहिए।
यदि भीड़ में कोई बालक, स्त्री अथवा अशक्त मनुष्य किसी
प्रकार के संकट में हो तो बलवान् और धनी लोगो को अपनी
योग्यता के अनुसार उसकी सहायता करना चाहिए । दर्शक-गण
और भक्त जन भी मेलो और तमाशो में बहुधा स्वार्थ और मनोर-
जन के लिये जाते हैं, इसलिए उन्हें असहायो को सहायता देने का बहुत कम ध्यान होता है। परतु यथार्थ उपकार करने का अवसर
ऐसे ही स्थानो में मिलता है। क्या ही अच्छा हो यदि कुछ उपकारी सज्जन मेलो में देवताओं और साधुओ के दर्शन करने के पश्चात्कु छ ऐसे असहाय लोगेा के भी दर्शन करें जिनका उस समय केवल ईश्वर ही रक्षक रहता है।
स्वयं-सेवको को भी अपने कर्तव्य का पूरा ध्यान रखना चाहिए । लोगो से सभ्यता पूर्वक बात चीत करना और आवश्य कता पड़ने पर उनको उचित सहायता करना प्रत्येक स्वय-सेवक का कर्त्तन्व होना चाहिए। किसी का पक्ष पात अथवा अपमान करना उनके लिए कलंक की बात है। स्वयं सेवक मन में यह धारणा न रखे कि मैं बिना वेतन के काम करता हूंँ, इसलिए मुझे सब के साथ मनमाना व्यवहार करने को स्वतंत्रता अथवा योग्यता है। उसे अपने नाम “स्वयं सेवक" के अर्थ पर सदैव दृष्टि रखना चाहिए।
इसी सम्बन्ध में दो-चार शब्द पुलिस के लिए भी कह देना
अनुचित न होगा । यद्यपि पुलिस वाले अपने को विशेष अधिकारी
समझने के कारण बहुधा शिष्टाचार का नाम तक नहीं जानते
तथापि मनुष्यता की दृष्टि से वे अपने अधिकार के उपयोग में भी
शिष्टाचार का पालन कर सकते हैं । हिन्दुस्थान का एक मामूली
कानिस्टबिल भी कोई बात पूछने पर टर्राता है जिसका विशेष
कारण अज्ञान और पराधीन प्रकृति है, पर विलायत की पुलिस के
विषय में लिखा है कि वह नीच से नीच अभियुक्त के साथ भी
अशिष्ट व्यवहार नहीं करती। पुलिस को सदैव इस बात का ध्यान
रखना चाहिए कि नम्रता-पूर्वक किये गये प्रश्न का उत्तर नम्रता ही
के साथ दिया जाना चाहिए । उसे लोगो को कठिनाइयो को ओर
उन्हें दूर करने के उपायों को खोज करनी चाहिए और जहाँ केवल
उँगली उठाने से काम चल सकता है वहाँ लट्ठ न चलाना चाहिए ।
आनन्द की बात है कि कुछ दिनों से कहा कहा पुलिस अपने को प्रजा का सेवक समझनेज् लगी है।
मेलो और तमाशो में कई लोग विशेष-कर गुंडे भाई उपद्रव करने ही की दृष्टि से जाते है । एसे लोगो से शिष्टाचार की आशा करना वृधा है पर ऐसे लोगो के अत्याचारो को रोकना प्रत्येक शक्तिशाली नागरिक ओर पुलिस का प्रधान कर्तव्य है । बहुधा तरुण शिक्षित लोग भी इन उपद्रवियों का अनुकरण करने लगते हैं ओर कुछ समय के लिए अपनी शिक्षा, अपने कुल और अपने कर्त्तव्य को भूल जाते हैं। जिस देश में ऐसे नीच लोग होते हैं उसकी प्रतिष्ठा को ये दुष्ट सहज ही में खो देते हैं ।
( ३ ) मन्दिरों में
ऊपर जो कुछ मेलो के विषय में कहा गया है उसका अधिकांश
मन्दिरो में पाले जाने-वाले शिष्टाचार के सम्बन्ध में भी कहा जा
सकता है। कई लोग मन्दिरों में भक्ति के कारण नहीं, किन्तु लोक-लज्जा के वशी-भूत होकर जाते हैं। ऐसे लोगो को भी पूजा स्थान में प्रचलित शिष्टाचार का पालन करना चाहिए । आते जाते समय पुजारी को प्रणाम करना ओर उससे एक-दो बात कर लेना शिष्टता के चिह्न हे। देव-दर्शन के समय ऐसे स्थान में खड़े होना या बैठना चाहिए जिसमें पीछे वाले व्यक्ति का दृष्टि पथ न रुके । प्रार्थना इतने जोर से न की जाये कि दूसरे को किसी प्रकार की असुविधा हो। पूजा करने में इतना अधिक समय न लगाया जाय जिससे दूसरो को पूजा का अवसर न मिले । यदि पुजा के लिए स्त्रियाँ भी आई हो तो उन्हें इस काम के लिए पहले अवसर देना चाहिए । प्रार्थना और पूजा के आगे पीछे तुरंत ही संसारी काम-काज की बातें न छेड़नी चाहिए । जो मनुष्य किसी देवता के ध्यान में मग्न हो अथवा किसी
शिष्टता पूर्वक कोई उचित दिखनेवाली कठिनाई का कारण बताकर निमंत्रण अस्वीकृत कर दे, पर निमंत्रण स्वीकार कर उसे अपने वचन का पालन अवश्य करना चाहिए । कम से कम उसे निमंत्रक के घर तक तो जाना ही चाहिए और यदि आवश्यक हो तो भोजन न करने के कारण अपनी कोई एक कठिनाई बताकर गृह-स्वामी में क्षमा मांँग लेना चाहिए । निमंत्रण स्वीकार कर अपने बदले में लड़को को अथवा किसी निकट सम्बन्धी को भेजना बहुधा अनुचित नहीं माना जाता। जाति-सम्बन्धी भोजो में जिसको निमंत्रण दिया जाता है उसके यहाँ यदि कोई ऐसा आदमी ठहरा हो जिससे निमंत्रणकारी का परिचय अथवा सम्बन्ध है तो उसको भी निमंत्रण दिया जाय ।
भोजन के लिए कम से कम दो बार चुलावा भेजना चाहिए— एक बार सूचना के रूप में और दूसरी बार जेवनार आरम्भ होने के पूर्व । यदि लिखा हुआ निमंत्रण दिया गया है तो दूसरा बुलावा भेजना आवश्यक नहीं है, क्योकि निमंत्रण-पत्र में बहुधा समय और स्थान दिया रहता है।
समय का पालन खानेवाले ओर खिलानेवाले दोनो को करना चाहिए। ऐसा न हो कि नेवतेवालो को भोजन के लिए कई घटों तक ठहरना पड़े अथवा किसी एक व्यक्ति के आगमन की प्रतीक्षा में समय पर पगत ही न बैठ सके। दोनो ओर को अधिक से अधिक एक घंटे का समय दिया जा सकता, है, पर जिन्हें कोई और आवश्यक कार्य करना है उनके भोजन का प्रबन्ध समय पर होना चाहिए । साधारण स्थिति के लोगों के प्रति पाहुनो को कुछ अधिक उदारता दिसानी चाहिए।
भोजन में बैठक का नाम निश्चित करने में बड़ी सावधानी की
आवश्यकता है। यदि किसी विशेष व्यक्ति के उपलक्ष्य में भोज
दिया गया है, जैसे बरात में दूल्हे के अथवा विदाई में किसी पाहुने
के,तो उसे प्रमुख स्थान दिया जावे । उसके पास ही वे लोग बैठाये जायँ जो उसके निकट सम्बन्धी अथवा गाढ़े मित्र हो । यदि जाति-सम्बन्धी भोज हो तो जाति के मुखियों और मान्य लोगों को गाँव में आरभीय स्थान दिया जाना चाहिए । जहाँ इन सब बातो का विचार नहीं है और जाति पाति का बखेड़ा नही है वहाँ प्रमुख ठोर पर ज्ञान-बृद्ध, वयो-वृद्ध तथा प्रतिष्ठित लोगो को बिठाना चाहिए । बैठक के क्रम का बहुत ही सूक्ष्म निर्णय नहीं हो सकता, तथापि जहाँ तक हो इस बात का विचार रखना चाहिए कि किसी का किसी प्रकार अपमान न हो। यदि किसी को किसी के पास बैठकर भोजन करने में आपत्ति हो (पर गृह-स्वामी के मान के विचार से ऐसा होना न चाहिए), तो प्रबन्धक का कर्त्तव्य है कि वह उसे किसी और उचित स्थान पर बैठाले अथवा उसके लिए पास ही किसी अलग और उपयुक्त स्थान का प्रबन्ध कर दे।
पाहुनो के लिए जो स्थान चुना जावे वह जहाँ तक हो स्वच्छ
तथा दुर्गंध से मुक्त हो। हम लोगो के आँगनो के आसपास ही
बहुधा विस्तार की जगह रहती हैं जिनके पास दुर्गध निकलती
है। भोजन का स्थान ऐसी जगहा से इतनी दूर हो कि वहाँ
दुर्गंध न पहुँचे । जिन घरों में अन्य उपयुक्त स्थान हा उनमे दुर्गंध
मय स्थानों के आसपास की जगह भी काम म न लाई जावे ।
यदि निमंत्रित व्यक्तियो की संख्या स्थान के मान से अधिक है
(बहुधा लोग अपनी प्रतिष्ठा के लिए अपवा विवश होकर अनेक
लोगों को निमंत्रित करते हैं ), तो उनकी दो टोलियाँ करके उन्हें
अलग अलग दो पगतो में खिलाना उन्नित होगा। एक पगत के
उठ जाने पर स्थान फिर से साफ किया जाय । भोजन-स्थान में
जहाँ तहाँ धूपबत्तियाँ जलाई जायें और वहाँ से अनावश्यक
कपड़े-लत्ते, वासन-वर्तन आदि सब हटा लिये जायें।
भोजन और पात्रावली की स्वच्छता पर भी विशेष ध्यान
दिया जाय । किसी भी प्रकार की और किसी भी वस्तु की
अस्वच्छता से अमृत रूपी व्यन्जन भी विष मय हो सकता है और
उसे खाने-वालो के जी बिगड जा सकते हैं। किसी किसी भोज
मे तो यहाँ तक देखा और सुना गया है कि भोजन के पश्चात् ही
अधिकांश लोग बीमार हो गये और कई एको को प्राण तक दे
देने पड़े।
पक्ति में बैठकर अपने साथियो की अपेक्षा जल्दी भोजन समाप्त कर लेना अनुचित और अशिष्ट है। यदि किसी का आहार दूसरो से कम है और यह बात स्वाभाविक है तो उसे धीरे धीरे (थोडा थोड़ा) भोजन करना चाहिए।
भोजन करने वालो को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि पत्तल में न तो बहुत सी सामग्री छोडना चाहिए और न पत्तल को बिलकुल साली रखना चाहिए । पर ये बातें अधि- कांश में परोसने वाले की चतुराई पर निर्भर हैं।
परोसने में साधारण से कुछ अधिक आग्रह की आवश्यकता अवश्य है, पर ऐसा कभी न होना चाहिए कि अनेक बार नाही करने पर भी किसी के आगे बहुत सी सामग्री पटक दी जाय । इससे भोजन करने-वाले को प्रसन्नता के बदले संकोच और खेद होता है, और साथ ही बहुत सी सामग्री व्यर्थ जाती है।
भोजन के उपरान्त पाहुनो को गृह-स्वामी के यहाँ कुछ समय तक बैठना चाहिए और उस समय गृह-स्वामी को पान-सुपारी से उनका आदर करना चाहिए । फिर उन्हें चुने हुए शब्दों में गृह- स्वामी के प्रबन्ध को प्रशंसा करके तथा उसकी कठिनाइयों के प्रति
समवेदना प्रगट करके उससे विदा लेनी चाहिए ।
(५) उत्सवों में
उत्सव दो प्रकार के होते हैं-(१) घर-सम्बन्धी (२) जाति-सम्बन्धी। पुत्र-जन्म, विवाह आदि पहले प्रकार के उत्सव हैं और दशहरा, फाग, रामनवमी आदि दूसरे प्रकार के हैं। पहले प्रकार के उत्सवों में गृही का प्रथम कर्त्तव्य यह है कि वह पाहुनो के निवास, भोजन आदि का उचित प्रबन्ध करने में कोई बात उठा न रक्खे। इधर पाहुनो का भी यह कर्त्तव्य है कि वे घर-वाले के ऊपर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यर्थ दबाव न डालें। घरू उत्सवों मे जिस अाग्रह से निमंत्रण दिया जाय उसी के अनुसार उसका पालन किया जाना चाहिए। यदि निमंत्रण केवल शिष्टाचार की दृष्टि से दिया गया है तो उसका पालन भी उसी दृष्टि से किया जावे। ऐसी अवस्था में केवल उत्सव-सम्बन्धी व्यवहार ही भेज देने की आवश्यकता है, उसमे पाहुना बनकर सम्मिलित होने की आवश्यकता नहीं है। इस विषय में कोई कोई गृह-स्वामी यहाँ तक चालाकी करते हैं कि व्यवहारियों को बहुत पीछे निमंत्रण देते हैं जिसमे वे उत्सव में सम्मिलित न हो सकें और साथ ही यह भी न कह सकें कि हमे निमंत्रण नहीं मिला। इस प्रकार के निमंत्रण को कोई मान नहीं दिया जा सकता। हां, शिष्टाचार की दृष्टि से लोग उसका यही उत्तर दे सकते हैं कि किसी अड़चन के कारण हम उत्सव में शामिल नहीं हो सकते।
विवाह के उत्सव में बहुधा बीच वालों के कारण समधियों में अनबन हो जाती है। कभी कभी तो यथार्थ अथवा कल्पित मानरक्षा के प्रयत्न में पूर्वेक्ति दोनो सज्जनो की भूलों ही से बखेडे़ खड़े हो जाते हैं और इनके कारण पाहुनो को व्यर्थ ही शारीरिक और मानसिक कष्ट उठाना पड़ता है। उन्हें बहुधा समय पर भोजन नहीं
मिलता और कभी कभी अपमान भी सहना पड़ता है। यद्यपि ये बातें बहुधा अशिक्षा और दुराग्रह के कारण उत्पन्न होती है, तथापि कई एक शिक्षित और प्रतिष्ठित सज्जन भी अपनी विद्वत्ता और प्रतिष्ठा का प्रर्दशन करने के लिए विवाहादि उत्सवो में छोटी-छोटी बातों पर ही विध्न खड़ा कर देते हैं। ये लोग शिष्टाचार का यहाँ तक उल्लंघन कर बैठते है कि किसी ऐसे सज्जन को जिसमें वे अपने किसी निज कारण से अप्रसन्न रहते हैं कोई न कोई बहाना ढुंढ़कर दूसरे के उत्सव से हटवाने का प्रयत्न करते हैं। यदि हो सके तो ऐसे उपद्रवी लोगो से उत्सव का पवित्र और मुक्त ही
रखना चाहिए, चाहे वे लोग वहिष्कृत होने पर बाहर से अपनी
दुष्टता भले ही करते रहे।
बारातो में बहुधा झगड़े हो जाते हैं। जाति-सम्बन्धी अन्यान्य
कारणों के साथ साथ बरातवालो की उहडता और स्वागत-कारियो
की कृपणता अथवा वचनभंग से भी ये झगड़े उत्पन्न होते हैं। कोई
कोई लड़को वाले बहुधा ऊपरी दिखावे के कामो में बहुत सा
अपव्यय कर डालते हैं, पर बरात के निवास और भोजनादि का
उचित प्रबन्ध करना अनावश्यक समझते हैं। इधर बरात-वाले
लड़की वाले की प्रवृत्ति देखकर उसे आवश्यकता से अधिक दबाते
है और दोनो अवस्याओ का परिणाम बहुधा शोचनीय हो जाता
है । नाई-ढीमरा के जासूसी समाचारो से भी कभी कभी बड़े अनर्थ हो जाते हैं, इसलिए इनकी गवाही बड़ी सावधानी से स्वीकृत की जानी चाहिए । दोनो पक्ष वालो को इस बात पर भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी एक के कारण दूसरे को व्यर्थ ही खरचे में न पड़ना पड़े, और किसी प्रकार का अपमान न सहना पड़े। हर्ष का विषय है कि शिक्षित समाजों में इन विवादों के अवसर धीरे धीरे कम होते जाते हैं।
विवाहो में अश्लील गीतो और चालो का प्रचार रोकने की
बढ़ी आवश्यकता है, क्योकि इन बातों से केवल झगड़े ही नहीं
बढ़ते, किन्तु जाति के लोगो पर, विशेषकर नई वयवालो पर, बड़ा बुरा प्रभाव पड़ता है। साथ ही अन्यान्य जातियों के आगे जिनमें ये कुरीतियांँ नहीं हैं अथवा जिन्होंने अपनी शिक्षा से इनका बहिष्कार कर दिया इन बातों की समर्थक जाति हीन ओर घृणित समझी जाती है। वेश्याओं को नृत्य कराना भी अब अशिष्ट समझा जाने लगा है।
जो लोग उत्सवो में भाग लेते हैं उनकी विदा आदर पूर्वक की जावे । पाहुने की योग्यता ओर जाति-सम्बन्ध के अनुसार उसे भेंट दी जावे ओर दो चार चुने शब्दों में उससे त्रुटियों के लिए क्षमा मांगी जावे। पाहुनो का साथ कुछ दूर तक जाना भी आवश्यक है। सार यह है कि पाहुनो का यथोचित आदर करने में कोई बात उठा न रक्खी जावे।
ऊपर जो बातें विवाहोत्सव के प्रसंग से कही गई है वही थोड़े हेरफेर से अन्यान्य घरु उत्सवो के सम्बन्ध म भी कही जा सकती हैं। इन सब अवसरों पर उसी उपयोगी नियम का पालन करना चाहिए जिसका उल्लेख पुस्तक के आरम्भ में किया गया है, अर्थात मनुष्य दूसरे के साथ वैसा ही व्यवहार करे जैसा वह दूसरे से अपने साथ कराना चाहता है।
जिन घर-सम्बन्धी उत्सवों में केवल स्त्रियाँ ही भाग लेती हैं, जैसे
सुहागिलो आदि में, उनमे शिष्टाचार का उत्तरदायित्व स्त्रियों पर ही
है। स्त्रियों में आत्म प्रशंसा की प्रवृत्ति बहुधा पुरुषों की अपेक्षा कुछ
अधिक रहती है, इसलिए उन्हें इस प्रवृत्ति को कम करना चाहिए ।
सदा अपने ही विषय की अथवा अपनी वस्तुओं (गहनो, वस्रों
आदि) की चर्चा करना शिष्टता के विरुद्ध है । पुरुषों के समान
स्त्रियों को भी अपनी पाहुनियो का आदर-सत्कार करने में कमी न करनी चाहिए और जहाँ तक हो सभी स्त्रियों के साथ एकसा बर्ताव करना आवश्यक है। विधवाओ ओर वृद्धाओं के प्रति विशेष आदर-भाव व्यक्त करने की आवश्यकता है। यथा-सम्भव चाप-लूसी करने का कोई अवसर न लाया जाय। बात बात में हँसी करने अथवा अपशब्दों के प्रयोग की प्रवृत्ति को भी रोकने की आवश्यकता है। स्त्रियों को ऐसी स्त्रियो के साथ व्यवहार न बढ़ाना चाहिए जिनकी सगति को चार जने दुषित समझते हैं।
आदर-सत्कार में प्रथमता का निर्णय बहुधा पात्र की आयु के अनुसार किया जाय जिसमे किसी को अप्रसन्न होने अथवा आक्षेप करने का अवसर न मिले।
जाति-सम्बन्धी उत्सवों में परस्पर व्यवहार पालने की बड़ी
अवश्यकता है । इन अवसरों पर हम केवल जाति वालो ही के यहाँ नहीं, किन्तु अन्य जाति वाले मित्रों के यहाँ भी आना जाना चाहिए। जिन उत्सवो में सार्वजनिक सभा करने की प्रथा है उनमे हमे उस सभा में सम्मिलित होना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो एक दूसरे के यहाँ जाकर भेट-व्यवहार करना चाहिए । खेद है कि हिन्दुओं में और विशेषकर हिन्दुस्थानी लोगो में जाति-सम्बन्धी
अथवा सामाजिक उत्सव भी बहुधा घरू उत्सवो का रूप धारण
करते हैं जिससे रामनवमी सरीखे महत्व पूर्ण और धार्मिक उत्सव
में भी न लोग एक-दूसरे से मिलते हैं और न कोई सार्वजनिक
सभा ही होती है। इस उदासीनता का यह परिणाम होता है
कि हिन्दुओं के अनेक महत्व पूर्ण सामाजिक उत्सव जाने भी
नहीं जाते और जाति में एकता तथा दूसरे उच्च भाव उत्पन्न
करने का साधन सहज ही हाथ से निकल जाता है । स्थानाभाव
से हम यहाँ अन्यान्य जातीय उत्सवो के विषय में कुछ न कहकर केवल
दशहरे के उत्सव से सम्बन्ध रखने वाले शिष्टाचार की कुछ बातें लिखते हैं।
दशहरे के दिन, राम के रावण को जीतने के उपलक्ष्य में, हिंदू लोग आनन्द मनाते हैं । इस दिन हिन्दुस्थानी लोग अपने मित्रों, व्यवहारियों तथा जतिवालो के यहांँ दशहरे का पान खाने के लिए जाते हैं और भेंट में उन्हे ‘सोना' ( शमी पत्र ) देते हैं । इस अव- सर पर लोग बहुधा उन लोगो के यहाँ भी जाते हैं जिनसे वर्ष के भीतर कभी लड़ाई झगड़ा हो गया हो—अर्थात् इस महोत्सव के उपलक्ष्य में लोग आपसी द्वेष भूल जाते हैं। ऐसा करना सामाजिक उत्कर्ष के लिए बहुत आवश्यक है । दशहरे की भेंट के समय छोटे बड़ो का चरण-स्पर्श अथवा उनको प्रणाम करते हैं । गृह-स्वामी आगत सज्जनों का पान आदि से उचित आदर करते हैं । यदि समयाभाव या ओर किसी अड़चन से कोई किसी के यहाँ दशहरे के दिन नहीं जा सकता तो वह दूसरे दिन जाता है । कोई कोई बडे़ लोग दूसरो के यहाँ नहीं जाते, पर उनका यह आचरण अनु- करणीय नहीं है और दूसरे लोग भी असंतोष के कारण उनके यहाँ जाना बंद कर देते हैं।
दशहरे के दिन संध्या के समय लोग अच्छे कपड़े पहिनकर नीलकंठ के दर्शनो के लिए बस्ती से बाहर जाते हैं ओर वहीं से शमी पत्र लाते हैं। कई लोग नगर के बाहर कभी कभी ऐसे लोगो से अपना व्यवहार निवटा लेते हैं जिनसे साधारण परिचय रहता है और जिनके यहांँ उन्हें जाने का सुभीता नहीं होता।
यद्यपि यह महोत्सव सामाजिक, धार्मिक और ऐतिहासिक
दृष्टि से भी भारतवर्ष और हिन्दू जाति के लिए बड़े महत्व का है
तथापि रजवाड़ा को छोड़ अन्य स्थानों में इसका पालन बहुधा
उदासीनता के साथ होता है। यदि हम लोग चाहें तो इस अवसर
को उसी प्रकार “जातीय" बना सकते हैं जिस प्रकार “ईद" और “बड़ा दिन" बनाये जाते हैं।
राजाश्रय प्राप्त होने के कारण रजवाडो में यह तेवहार बड़ी धूमधाम से होता है। वहीं इसका पालन नियम-पूर्वक होता है जिससे लोगो के नेत्रों के आगे प्राचीन दृश्य एक बार फिर भूलने लगता है । इस उत्सव से सम्बन्ध रखने वाले शिष्टाचार का पालन रजवाड़ो में बड़ी सावधानी से किया जाता है। स्थानाभाव से रजवाड़ो के इस उत्सव का व्यारेवार वर्णन करना कठिन है, तथापि इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अमयादित होने पर भी रजवाड़ो का शिष्टाचार अन्य स्थान के लोगो के लिए अनुकरण का विषय है। यदि हमारे हिन्दु राजा-महाराजा अधिक कर्तव्य शील, सदाचारी और वास्तविक शिष्याचार के अनुरागी हो जायें, तो हमारी सामाजिक अवस्था भी अनुकरणीय हो जाय।
(६) व्यवसाय
व्यवसाय में शिष्टाचार के यथोचित पालन से अनेक लाभ हैं। इससे ग्राहक और परिचय वाले ही प्रसन्न नहीं होते, किन्तु व्यवसायी की साख और आय भी बढ़ती है। जो व्यापारी उदासीनता से अथवा अहभाव से किसी ग्राहक के साथ रूखा अथवा असभ्य व्यवहार करता है उसके यहांँ लोग केवल विवशता के समय जाते हैं। रुखे दुकानदार को उचित मूल्य देना भी ग्राहक को भारी जान पड़ता है, पर शिष्टाचारी व्यापारी को कुछ अधिक देना भी नहीं अखरता।
व्यवसायी के शिष्टाचार में यथासभव सत्य-भाषण भी सम्मिलित
है। यह गुण उसमें विशेषकर इसलिए आवश्यक है जिसमें ग्राहको
का विश्वास उसपर बना रहे और वे उसे सभ्य और सज्जन
समझे । भूठ बोलना केवल सदाचार ही के विरुद्ध नहीं है, किन्तु
शिष्टाचार के भी विपरीत है और व्यवसाय में तो उसके द्वारा,परोक्ष-रूप से, बड़ी हानि होती है।
व्यवसायी को उचित है कि वह ग्राहक की स्थिति, शिक्षा, वय आदि का विचार कर उसे आवश्यक वस्तुएँ दिखाने में आगे पीछे न करे । यह उसके प्रश्नो का उत्तर पूर्णतया ओर सभ्यतापूर्वक देवे तथा कार्य में किसी प्रकार अपनी अड़चन अथवा अधीरता न प्रगट होने दे। जल्दी जल्दी विविध प्रकार की अथवा आवश्यकता से अधिक मूल्य की वस्तुएँ दिखाकर उसे ग्राहक को संकोच में न डालना चाहिए। साथ ही यह अपनी वस्तु की मिथ्या प्रशंसा न करे और न उनके दुने चौगुने दाम बतलावे । व्यापार में धोखा देना भी (जो यथार्थ में एक प्रकार का असभ्य भाषण है) अशिष्ट समझा जाता है। शहरों के चालाक व्यापारी बहुधा अंपढ़ ग्रामीण ग्राहको को मूंँड़ने का प्रयत किया करते हैं, पर यह रीति परम निंदनीय है। वस्तुओं की नापतोल में भी कमी न की जाये, बरन निश्चित परिमाण से कुछ अधिक दे दिया जाये।
इधर ग्राहक को भी उचित है कि वह एसी वस्तुएँ देखने को इच्छा न करे जो उसे लेना नही है अथवा जिनका मूल्य उसकी शक्ति के बाहर है। किसी वस्तु को देखते समय उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह जाँच के कारण विगड़ न जाय और व्यापारी को कोई हानि न हो । यदि ग्राहक बहुत समय तक अनेक प्रकार की वस्तुएँ देख-कर भी कोई वस्तु मोल लेने का निश्चय न कर सके तो उसे उचित है कि यह अत्यन्त साधारण मूल्य की कोई वस्तु अवश्य मोल लेवे जिसमे व्यापारी का कुछ समाधान हो जाय और ग्राहक अशिष्टता के अपराध मे बच जाय।
व्यापारी और ग्राहक को लेन-देन के समय इतने धीरज और
गौरव के साथ परस्पर वर्ताव करना चाहिए जिसमे किसी ओर से
कभी कड़ी बातचीत अथवा अनुचित क्रिया करने का अवसर न आवे । मिथ्याभिमान अथवा कोरी ऐंठ की प्रवृत्ति से दोनो को हानि होने की सभावना रहती है।
( ७ ) वेश-भूषा में
अाजकल जब कोट, टोप, कालर, नेकटाई और अर्द्ध-पतलून का साम्राज्य है तब किसी को यह बतलाना प्राय व्यर्थ ही है कि उसे अपने देश, काल ओर पात्र के अनुसार कपडे़ पहिनना चाहिए । इन दिनों सर्वसाधारण की ओर विशेषकर सकारी नौकरों की यह धारणा है कि प्रतिष्ठा और पद की प्राप्ति अँगरेजी पोशाक पर निर्भर है। यह धारणा मिथ्या नहीं है, क्योकि उच्च सरकारी नौकरी के लिए विदेशी पोशाक वहुधा एक आवश्यक गुण माना जाता है और कई लोग तो केवल पोशाक को प्रभुता ही से प्रतिष्ठित पदों पर स्थापित हो गये हैं। प्राय ऐसे ही कई कारणो से देशी लोग भी अपने देशी पहिनावे का विशेष आदर नहीं करते । यद्यपि मनुष्य की योग्यता बहुधा पोशाक से जानी जाती है, तथापि उसके लिए विलायती पोशाक पहिनना अनिवार्य नहीं है। आज भी हिन्दुस्थानी समाज में आधे से अधिक लोग अपना पहिनावा पहिनते हैं, चाहे वह नगर का हो अथवा ग्राम का । श्रीमान मालवीयजी सदृश सज्जन आज भी अपनी पोशाक पहिनकर उच्च प्रतिष्ठा ओर पद के पात्र हैं।
अंँगरेजी पोशाक का प्रचार संसार में प्राय सर्वत्र बढ़ रहा है।
ऐसी अवस्था में जिन हिन्दुस्थानी लोगो ने इस विदेशी पहिनावे को
ग्रहण कर लिया है, उनसे उसे छुड़वाना साध्य नहीं है, तथापि
इतना अवश्य हो सकता है कि वे इस पोशाक के साथ भी अपनी
जातीयता का कोई चिह्न सुरक्षित रख सकते हैं । नेकटाई अंगरेजो
का निजी धार्मिक चिह्न है जिसमे ईसा मसीह के क्रूस का बोध
होता है, अतएवहिन्दुस्थानी हिन्दुओं को उसे त्याग देना चाहिए। उसके त्याग देने से उनके वेतन में संभवत कोई कमीन होगी और न वे ऊँचे पद से वज्जित रक्खे जायेंगे। साथ ही वे, समय पड़ने पर, अंँगरेजों और ईसाइयों से, जिनस नेकटाई का विशेष प्रचार है अलग समझे जा सकेंगे। पराधानावस्था में भी कुछ स्वाधीनता रख लेना गौरव का चिह्न है । नेकटाई के सिवा उन्हें टाप लगाना भी छोड़ देना चाहिए। उसके बदले साफा बांधने अथवा टापी लगाने से वे अपनी जातीयता का कम से कम एक चिह्न स्थिर रख सकेंगे। लाला लाजपतराय सरीखे सज्जनो को उनके साफेही के कारण हम लोग “अपना" समझ सकते हैं और समझ रहे हैं। ऐसे स्थान में पहुँचने पर जहाँ हमारा कोई न हो, हम केवल अपनी भाषा सुनकर और अपना भेष देखकर ही कुछ ढ़ाढ़स प्राप्त कर सकते हैं। यदि हमे यहाँ इन दोनो चिह्रो में से एक ही चिह्न मिल जावे तो भी हमारे क्रोध की सीमा न रहे । अतएव जातीयता ओर जाति प्रेम की दृष्टि से हैट और नेकटाई धारण करने वाले हिदुस्थानियों का यह प्रधान कर्त्तव्य है कि ये अपनी वेश भूषा में उनके बदले अपने एक-दो चिह्न अवश्य रक्खे।
धार्मिक और सामाजिक उत्सवों में हम लोगो को अपना ही पहिनावा पहिनना चाहिए । यदि कोई हिदुस्थानी हाफ-पेण्ट पहिन कर मंदिर में पूजा करेगा अथवा विवाह में कन्या दान देगा वे लोग उसकी दासता को धिक्कारेंगे और उसके स्वांग पर तालियाँ पीटेंगे। घर में भी हमें बहुधा अपनी पोशाक में रहना चाहिए।
अाजकल बंगालियों का अनुकरण कर हम लोगेा में से कई
एको ने खुले सिर रहना स्वीकार कर लिया हे, पर हिंदुस्थानी
समाज में यह रीति अशिष्ट और अशुभ समझी जाती है । घर से
थोड़ी दूर तक इस अवस्था में जाने से विशेष हानि नहीं है, पर
बाजारो में अथवा दूसरे मुहल्लों में इस तरह फिरना या जाना अनुचित है। बड़ी अवस्था के लोगो को केवल कुरता पहिनकर जाना भी योग्य नहीं है।
जहाँ तक हो सके पोशाक देशी कपड़े की हो । आजकल विदेशी कपड़े का व्यवहार शिष्टाचार के विरद्ध समझा जाता है। यदि देशी सूत का कपडा न मिले तो कम से कम देशी पुतलीघरो का कपड़ा काम में लाया जाय । देशी पोशाक के समान, धार्मिक और सामाजिक कृत्यो में देशी कपड़े का उपयोग आवश्यक और उचित है।
कपड़ों की बनावट देग चाल के अनुसार और उपयुक्त हो, पर उसमे वेल वूटे आदि न रह । चमकीले तथा भड़कीले कपड़ो का उपयोग बहुत कम किया जाय । रंगों की चुनाई में भी ध्यान रखना चाहिए कि ये गहरे न हा । मूल रंगों की गहराई और भी वर्जनीय है।
कपड़ो के उपयोग में उपयोगिता और शोभा का ध्यान तो रहता ही है, पर इस बात का भी विचार रखना चाहिए कि शरीर के यावश्यक अंग ढँके रहें ।
पात्र की अवस्था के अनुसार पोशाक होनी चाहिए । कोई
कोई बूढ़े लोग तरुण पुरुषों के से सटे हुए और कोई कोई तरुण
पुरुष बूढे लोगो अथवा बालको के से ढीले कपडे पहनते हैं ।
ऐसा पहनावा भदेस दिखाई देता है । साधारण स्थिति के लोगों को
धनाटयो अथवा उच्च पदाधिकारियो के समान पोशाक करना
उचित नहीं। एक बार कचहरी में एक महाशय ऊँचे दरजे की
पोशाक करके एक नये आये हुए न्यायाधीश से मिलने गये।
न्यायाधीश ने उनसे हाथ मिलाया और उन्हें अपनी बराबरी से
कुरसी देकर उनका उचित सत्कार किया। पीछे जब न्यायाधीश
को यह मालूम हुआ कि सत्कृत सज्जन केवल दव्करी हैं तब उन्ह
इन सज्जन को अपनी अदालत से दूसरी जगह बदलवा देना पड़ा।
इसके विरुद्ध यह भी न होना चाहिये कि कोई उच्च श्रेणी का
मनुष्य साधारण लोगो के से वस्त्र धारण करे।
बाजारी लोगो और गुंडों की एक प्रकार की विशेष पोशाक होती है जिससे वे तुरन्त पहचान लिये जाते हैं। इस प्रकार के परिधान से प्रत्येक शिक्षित और सभ्य व्यक्ति को बचना चाहिए। यह वेश-भूषा निन्दनीय समझी जाती है और इसे धारण करने- वाले व्यक्ति की ओर से लोगो की श्रद्धा हट जाती है।
कइ सरकारी विभागों में कर्मचारियों की एक विशेष रूप की पोशाक रहती है जिसे 'वर्दी' या 'दरेस' कहते हैं। इस पोशाक के अधिकारियो को निजी कामो ओर अवसरों पर अपनी जाति सम्बन्धी पोशाक पहिनना चाहिए । इस वेशभुषा का अनुकरण केवल शिष्टाचार ही को दृष्टि से नहीं, कितु कानूनी दृष्टि से भी औरो के लिए व्यर्थ।
वस्रो की उपयुक्तता जितनी आवश्यक है उतनी ही उनकी स्वच्छता प्रार्थनीय है । बहुमूल्य वस्त्र भी स्वच्छता के अभाव में शोभा की सामग्री नहीं हो सकते । केवल स्वास्थ्य ही को दृष्टि से नहीं, कितु शिष्टाचार की दृष्टि से भी स्वच्छ वस्त्र धारण करना कर्तव्य है। मैले वस्त्र पहिनना धार्मिक दृष्टि से भी निदनीय है, क्योकि वे अशुभ समझे जाते हैं।
जिन्हें सामर्थ्य हो उन्हें कम से कम चार जोड़ी कपडे अवश्य
रखना चाहिए जिसमें वे उन्हें प्रति सप्ताह बदल सकें । एक ही
जोड़ी कपड़े को बार बार धुलाकर पहनना दरिद्रता का सूचक है।
जो लोग दिन में चार चार कपडे बदलते हैं ये तो शिष्टाचार को
पराकाष्टा तक पहुंचा देते हैं, पर जो सजन एक ही कपड़े को
महीनो पहिने रहते हैं वे शिष्टाचार को बढ़ने ही नहीं देते । विशेष
अवसरों पर विशेष प्रकार की पोशाक पहिनना शिष्ट समझा जाता
है। यदि इस समय लोग प्रतिदिन की पोशाक पहिनते है तो दूसरो
का इस बात से असंतोष होता है। विशेष आदरणीय स्थान में
अथवा विशेष अादरणीय पुरुष के पास साधारण परिधान में जाना
उस स्थान और पुरुष का निरादर करना है।
पोशाक में असंगति न होनी चाहिए । धोती पहिनकर टोप लगाना अथवा कोट-पतलून पर अलवान आढना असगत है । इसी प्रकार अँगरखे के साथ पतलून शोभा नहीं देती। साहबी पोशाक के साथ दिल्ली के पतले जूते भी अच्छे नही लगते । कोई-कोई लोग दोनों पक्षो का समर्थन करते हुए धोती के ऊपर पतलून पहनते हैं और पीछे एक पोटली भी बाँधे फिरते हैं। यह रीति अशिष्ट समझी जाती है। मोजो के बिना पतनून के साथ जूते भी शोभा नहीं देते। इसी भांति अन्यान्य अनमिल पाहनावे भी शिष्टाचार के विरुद्ध समझे जाते हैं । काई कोई साहब पोशाक के प्रेमी सज्जन दिन ही का नाइट-केप (रात की टोपी) लगाकर असंगति का परिचय देते हैं।
कपडो के साथ साथ केश कलाप का प्रश्न भी विचार के
योग्य है। आजकल प्राय सर्वत्र अंगरेजो के अनुकरण पर छोटे
बाल रखने की प्रथा प्रचलित है । ऐसी अवस्था में पुराने समय के
नमूने के बडे-बड़े बाल रखना भदेस समझा जाता है। हाँ, जो लोग धर्म की प्रेरणा से डाढ़ी, मूंछ और सिर के बाल कटाना अनुचित समझते हैं उनके केश-कलाप को कोई नाम नहीं रखता । जो ही, बालो के रखने में सगति अवश्य होनी चाहिए । ऐसा न हो कि सिर पर एक भी बाल न रहे और डाढ़ी लम्बी फहरावे अथवा सामने घोसले के समान बड़े-बड़े बाल रखकर सिर के शेष भाग
में बारीक बाल रखे जावें। पिछले प्रकार के बालो का प्रचार नीच जातियों में देखा जाता है। लोग मुंँछो के साथ भी बहुधा अन्याय
करते हैं। अंँगरेजी बाल के अनुकरण पर कई लोग आधी-आधी
मूँछे रख लेते हैं । इस फेशन से केवल जातीय चिह्न ही नष्ट नहीं
होता, किन्तु चेहरे के रूप में कुरूपता भी आ जाती है। कई एक
सज्जन मूँछो का ऊपर-नीचे से बनाकर उन्हें एक बिन्दु में मिलने-
वाली दो पतली रेखाओ का रूप दे देते हैं । यह भी देखने में
अच्छा नहीं लगता। जिन लोगो में मूँछ मुड़वाने की चाल नहीं है
वे भी कभी-कभी उन्हें बोझ समझकर अथवा स्वयं विद्वान समझे
जाने की दृष्टि से उन्हें मुड़वा डालते हैं। ऐसा करना ठीक नहीं
समझा जाता । मूँछें पुरुषत्व का चिह्न है, इसलिये इन्हे सरलता से निकाल देना मानो अपने पुरुषत्व का रूप नष्ट करना है। यह बात सत्यासियो के लिए लागू नहीं हो सकती जो धर्मानुसार भोंहा को छोड़कर सिर और मुख पर बाल नहीं रख सकते । सिर के कुछ भाग में बाल रखना और अन्य भाग में बिलकुल बनवा देना भी अशिष्टता का चिह्न है । हिंदुओं को फैशन के फेर में पड़कर अपनी चोटी न कटा देना चाहिए, क्योकि यही एक ऐसा चिह्न है जिससे हिन्दू को पहिचान सरलता पूर्वक हो सकती है। जातीय झगड़ो में शिखा-नष्ट लोगों को बड़ी दुर्दशा होती है ओर वे अपनी समाज से भी तिरस्कृत किये जाते हैं।
सारांश यह है कि परिधान और केश-कलाप में अनुचित नवीनता अथवा विचित्रता का समावेश न किया जाये।
(८) प्रवास में
प्रवास मनुष्य की शिक्षा का एक अंग है, इसलिये उसे देश-
देशान्तरो में अपने सामर्थ्य के अनुसार प्रवास अवश्य करना
चाहिए, चाहे वह शिक्षित हो चाहे अशिक्षित । ऐसी सभ्य समाज
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में जहाँ देश-विदेश की चर्चा होती है, उस मनुष्य के
मत को बहुत कम मान दिया जाता है, जिसने थोड़ा बहुत प्रवास नहीं किया। आजकल प्रवास के साधनो की बहुतायत होने से शिक्षित मनुष्यों में कोई विरला ही होगा जो अपने गांव या शहर से बाहर न गया हो।
प्रयास में या तो पूर्व प्रबन्ध से अथवा देवयोग से कुछ लोगो का साथ हो जाता है और कभी कभी यह संगति मित्रता का रूप धारण कर लेती है। प्रवास के समय इन साथियो से हमारा व्यव हार इस प्रकार का होना चाहिये कि उन्हें हमारी ओर से कोई कष्ट न पहुंचे और यदि हो सके तो हम से उन्हें उचित सहायता प्राप्त हो । इस सद्-यवहार के बदले बहुत संभव है कि हमारे वे साथी हम से भी वैसी ही सभ्यता का व्यवहार करेंगे।
प्रवासी मनुष्य को अपने साथ इतना रुपया, भोजन-सामग्री और कपड़े-लत्ते रखना चाहिए जिसमे वह किसी वस्तु के लिए दूसरो का आश्रित ( मुहताज ) न हो । यद्यपि प्रवास में कभी-कभी दूसराें से कोई एक आवश्यक वस्तु मांँगने का प्रयोजन पड़ जाता है तथापि किसी से कोई वस्तु बार-बार अथवा कई वस्तुएँ माँगना निन्दनीय समझा जाता है। अपने साथियों से बात-चीत करते समय मुंँह से ऐसी कोई बात न निकाली जावे जिससे उन्हें खेद हो अथवा आपस में झगड़े का अवसर उपस्थित हो जाय । यद्यपि प्रत्येक प्रवासी को अपने और अपने साथियों के लेन-देन का ठीक लेखा रखना उचित है, तथापि उन्हें एक दूसरे के लिए थोड़ी-बहुत आर्थिक हानि सहने का धीरज होना चाहिए।
यदि हमारा कोई प्रवासी भाई किसी जगह अचानक बीमार हो
जाय अथवा किसी विपत्ति में पड़ जाय तो उस समय हमे
अपनी क्षमता के अनुसार उसे सहायता देना और कुछ सा..च
उसके साथ रहना चाहिए । यदि कोई मनुष्य किसी विशेष व्यक्ति के भरोसे अथवा आसरे, प्रवास में आया हो तो इसे सब अवस्थाओं में उसकी सहायता करना चाहिए।
सवारियों में बेठने के समय शिष्टाचार को बड़ी आवश्यकता है। लोगो को इस प्रकार न बेठना चाहिए जिसमे दूसरो को बैठने के लिए अथवा समान रखने के स्थान न मिले । स्वार्थ के वश होकर लोग बहुधा दूसरो को बैठने के लिए स्थान ही नहीं देते और रेल में तो बहुधा उन्हें अपने डब्बे में ही नहीं आने देते । इस प्रकार की उद्दडताओ से कभी-कभी यात्रियों में परस्पर मार पीट तक हो जाती है जो असभ्यता का एक बड़ा भारी चिह्न है। रेन गाड़ियों के अवबंध के कारण लोगो को कभी-कभी एक दूसरे की परवाह न कर पशुओ की तरह भागना पड़ता है और अपने ही सुभीते की ओर पूरा ध्यान देने की आवश्यकता पड़ती है। ऐसी अवस्था में भी यदि लोग स्वार्थ की मात्रा कम करके धीरज और उदारता से काम लें तो गाड़ियों में सब को उचित स्थान मिल सकता है और लोग व्यर्थ की धक्का-मुक्की से बच सकते हैं । यहाँ हम रेल के कर्मचारियों से अनुरोध करते हैं कि वे अधिक सभ्यता और शिष्टाचार से यात्रियों के साथ वर्ताव करें जिससे इन्हें गँवारी करने का कोई अवसर ही न मिले । यदि किसी धनी अथवा प्रतिष्ठित आदमी के पास कोई साधारण अथवा गरीब यात्री आकर बेठ जावे तो उसे अपने अहभाव में इस मनुष्य का तिरस्कार न करना चाहिए । हाँ, यदि कोई दुष्ट मनुष्य गॅवारी का व्यवहार करे तो उसे उसकी दुष्टता का बदला अवश्य दिया जाये।
यदि प्रवास में स्त्रियों का साथ हो तो पुरुषो का कर्त्तव्य है कि
ये उनके सुभीते का पूरा ध्यान रखें। स्त्रियों के आवश्यक कार्य
समाप्त हो जाने पर ही पुरुष अपने कामो को निबटाने का उद्योग
करें। ऐसा न हो कि स्त्रियों की आवश्यकताओं को रोककर पुरुष बल-पूर्वक अपने कार्य साधें । अबलाओं को संकट में पड़े हुए अथवा पड़ते हुए देखकर पुरुषों को तन-मन-धन से उनकी रक्षा करना चाहिए। यदि उनके सतीत्व की रक्षा करने में पुरुषों को
अपने प्राण भी देना पड़े तो कोई बड़ी बात नहीं है । जो मनुष्य
इतने ऊँचे विचारों से प्रेरित होगा यह कम से कम ऐसा कभी नहीं
कर सकेगा कि पानी लेने के लिए स्त्रियों को खड़ी रखकर स्वंय
कुएँ की पाट पर बैठकर आनन्द से घंटों स्नान करे और कपड़े
धोवे । जो व्यवहार स्त्रियों के प्रति कहा गया है वही बूढो, बालकों ओर अपाहिजो के साथ किया जाय।
विदेश में पहुंँचकर वहां के लोगो से बातचीत करने में उनकी भाषा, भेष, भोजन और रीति की तीन आलोचना करना उचित नहीं, चाहे ये सब बातें किसी को अनौखी अथवा अनुचित ,क्यो न मालूम पड़े। साथ ही यह भी अनुचित है कि मनुष्य अपने देश की इन सब बातो की आवश्यकता से अधिक प्रशंसा करे, चाहे उसका कहना सब प्रकार से भले ही सत्य हो । दूसरे देश के हीन लोगो से भी सभ्यता और सहानुभूति का व्यवहार होना चाहिए।
( ९ ) श्मशान-यात्रा में
हिन्दुस्थानी लोगो में छुआछूत और जाति-भेद का विचार होने
के कारण लोग बहुधा अन्य जाति-वालों की श्मशान-यात्रा में
सम्मिलित नहीं होते, यद्यपि यह प्रथा दूषित है। हम लोगो में यह
भी कुप्रथा है कि बहुधा चुने हुए मित्रों और नातेदारो को ही मृत्यु
की सूचना दी जाती है, इसलिये जिन लोगो के पास ऐसी सूचना
नहीं पहुँचती, ये अन्य स्थान से समाचार पा लेने पर भी कभी-
कभी संकोच-वश अपने साथियों की अरथी के साथ नहीं जाते।
ऐसी अवस्था में भी जब-तक कोई विशेष कारण न हो तब तक
हम लोगों को अपने धर्म वाले किसी सज्जन की मृत्यु का समाचार किसी भी प्रकार मिलने पर उसकी श्मशान यात्रा में जाना उचित है। कई लोग केवल बड़े आदमियों की लकड़ी में जाना आवश्यक और उचित समझते हैं, परन्तु इससे अधिक पुण्य उन लोगो की लकड़ी में शामिल होने से मिलता हे जिनके न कोई मित्र हैं न सहायक और न नातेदार हैं। इस विषय में हिदुस्थानियों को अन्य धर्मवालो से बहुत कुछ सीखना है। हम लोग अपनी विचार संकीर्णता से सार्वजनिक कार्यकर्त्ताओं अथवा नेताओं का भी पूरा-पूरा अन्तिम आदर नहीं कर सकते। लोगो के पतित और ईर्षा-पूर्ण विचारो के कारण उन्हें नीति और शिष्टाचार का कुछ भी ध्यान नहीं रहता।
जहाँ तक हो श्मशान यात्रा में हम लोगो को हिन्द धर्म के अनुसार नंगे पाँव जाना चाहिए। यदि किसी कारण से इस नियम का पालन न हो सके तो कम से कम अरथी में कंधा देने के समय अवश्य ही जूते उतार दिये जाय। अरथी को ले जाते समय जल्दी-जल्दी चलना अनुचित है। लोग संसारी काम काजो को इतना महत्त्व देते हैं कि वे उतावली में मृतक की अंतयेष्टि क्रिया भी बहुधा पूर्णता से नहीं करते। श्मशान यात्रा में लोगो को जोर-जोर से बातें न करना चाहिए और न हँसना ही चाहिए। इस अवसर पर यह भी आवश्यक है कि सब लोग जहाँ तक हो इकट्ठे अरथी के साथ चलें, अलग-अलग टुकड़ियाँ न बनावें। इस यात्रा मे पान खाना और तमाखू पीना भी असभ्यता है।
श्मशान में तब तक ठहरना चाहिए जर तक लाश पूरी न जलजाने। इस अवधि में लोग साधारण बात चीत करके अपना समय काट सकते हैं और पान बीड़ी भी खा पी सकते हैं, पर उन्हें कोई मनोरञ्जन का काम न करना चाहिए। एक बार कुछ लागों ने
यह समय ताश खेलकर बिताया था, पर ऐसा करना परम निन्दनीय है। किसी किसी शिक्षित जाति मे यह चाल है कि शव को चिता पर रखने के पूर्व उपस्थित सज्जनो में से कोई एक महाशय मृत व्यक्ति के गुण-कथन पर व्याख्यान देते हैं और उसके कुटुम्बियों और उत्तराधिकारियो के साथ अपनी सहानुभूति प्रकट करते हैं। प्रतिष्टित व्यक्तियों के सम्बन्ध से तो यह व्याख्यान बहुत ही आवश्यक समझा जाता है, पर इस प्रथा से शिष्टाचार का इतना घना सम्बन्ध है कि मेरी समझ में इसका प्रचार सर्वत्र होना चाहिए । सारांश यह है कि हम मृत प्राणी के शरीर और आत्मा का जितना ही अधिक आदर करेगे उतनी ही हमारी उदारता सिद्ध होगी।
श्मशान से लौटकर बिना स्नान किये मृतक के घर अथवा अपने घर नहीं आना चाहिए । श्मशान से लौटते समय मार्ग के किसी जलाशय में स्नान करके मृतक के घर को ओर फिर अपने घर को आना उचित है। मार्ग में उसी गंभीरता का अवलम्ब करना चाहिए जिसका उल्लेख पहिले हो चुका है। यदि हो सके तो मृतक के सम्बन्धियो से सहानुभूति प्रकट करने के लिए उनके यहाँ दूसरे दिन फिर जाना उचित है।
जो लोग किसी की लकड़ी में जाते हैं वे बहुधा तेरहवीं के दिन भोजन के लिए निमंत्रित किये जाते हैं। इन लोगो को यदि कोई सामाजिक अथवा धार्मिक बन्धन न हो तो उस भोज में अवश्य ही सम्मिलित होना चाहिए जिससे मृतक के सम्बन्धियो को परम अनुग्रह के ऋण से कुछ अंश में मुक्त हो जाने का अवसर मिल जावे।
( १० )जातीय व्यवहार में
जाति-वालो और सम्बन्धयों के साथ शिष्टाचार का पूरा
पालन न करने से बहुधा आपस में वैमनस्य हो जाता है,
इसलिये इन लोगो के साथ उचित व्ययहार करने में बड़ी दूरदर्शिता ओर सावधानी की आवश्यकता है। लोगो को चाहिए कि जहाँ तक हो अपने जातिवालो ओर सम्बन्धियो में धन, पदवी ओर
विद्या के कारण उँचाइ निचाइ का विशेष अन्तर न मानें, और सब
के साथ यथासम्भव प्राय एक ही सा प्रेम पूर्ण व्यवहार करे । जाति के साधारण से साधारण मनुष्य को भी इस बात का भन न होने पाये कि जाति का दूसरा मनुष्य मेरी हीनता के कारण मुझे तुच्छ समझता है । जातीय सभाओं में भी, जहाँ तक हो, गरीब अशिक्षित तथा साधारण स्थिति-बाले व्यक्तियों को भी जान-बुझकर, नीचा स्थान न दिया जाय । जाति के बड़े लोगो का यह कर्तव्य है कि ये अपने साधारण स्थिति-बाल भाइयों को, सुख-दुख में उनके घर जाकर अपने प्रेम का परिचय देवे। यदि ऐसा न किया जायगा तो जाति-बन्धन दृढ़ नहीं रह सकता।
जाति-वालो के यहाँ से किसी आवश्यक कार्य का निमंत्रण
आने पर उसका पालन अयश्य किया जाय । यदि किसी
विशेष कारण मे निमंत्रण स्वीकृत करना इष्ट न हो तो इस बात
की सूचना नम्रता पूर्वक दे देनी चाहिए। किसी के यहाँ भोजन
करते समय अथवा उसके पश्चात् रसोई के विषय में कोई कटाक्ष
करना उचित नहीं, चाहे वह भोजन तुम्हारी रुचि के अनुकूल न
हो। धनाढव लोगो को साधारण स्थिति के लोगो के यहांँ रुपये
पैसे का व्यवहार देने में सदा इस बात का ध्यान रखना चाहिए
कि व्यवहार का परिमाण दूसरे मनुष्य की स्थिति के अनुसार हो
जिसमे उसे यह न जान पड़े कि मुझ पर धन का व्यर्थ दबाव डाला जाता है। उसका दिये जाने-वाले वस्त्र और दूसरे पदार्थ इतने बहुमूल्य न हो कि यह साधारण मनुष्य उनको धनवान के धन की प्रर्दशनी समझे। बातचीत में भी ऐसा कोई भेद भाय न दिखाई दे
जिससे किसी को अपनी हीनता का अनुभव होने लगे और उससे मन में खेद उत्पन्न हो। जाति-वालों के यहांँ कम से कम दो एक महीने में एक बार अवश्य जाना चाहिए । उस मनुष्य के यहाँ हमें विशेषकर जाना आवश्यक है जो हमारे यहाँ बहुधा आया करता हो । यद्यपि किसी के यहाँ बार-बार जाना अशिष्ट समझा जाता है, तथापि उसके यहाँ कभी न जाना और भी अशिष्ट है।
जाति वालों के यहांँ गमो में एक दो बार अवश्य जाना चाहिए और उनसे सहानुभूति सूचक वार्तालाप करना चाहिए । यदि उनके यहाँ स्त्रियों के भी आने-जाने का सम्बन्ध हो तो ऐसे अवसर पर स्त्रियों का जाना भी आवश्यक है। इस अवसर पर किसी के यहाँ सवारी में बैठकर जाना उचित नहीं पर यदि सवारी के बिना काम न चल सके तो उसे उस स्थान से कुछ दूरी पर छोड़ देना चाहिए और वहाँ से उसके यहाँ पैदल आना चाहिए । सारांश यह है कि ऐसा काम न किया जाय जिसमे बनावट या दिखावट दिखाई देवे।
तेवहारौ के अवसर पर जाति-वालो के यहाँ जाना बहुत आवश्यक है। ऐसे समय में इस बात को बाट न देखना चाहिए कि जब कोई हमारे यहाँ आयगा तब हम उसके यहाँ जायेंगे । यदि दोनेा पक्षों के मन में ऐसे ही विचार एक ही समय उत्पन्न हो तो उनका मिलना कभी सम्भव नहीं हो सकता । तेवहारो में जाति-वालों को भोजन कराना भी बहुत उपयुक्त है, विशेष कर बड़े लोगो को इन अवसरों पर छोटों को निमंत्रित करना चाहिए । इस प्रकार के सम्मेलन में जाति के मुखिया जाति वालों को आवश्यक उपदेश भी दे सकते हैं जिससे उनमें प्रचलित कुरीतियों का परिहार हो सके।
यदि जाति में किसी मनुष्य पर संकट उपस्थित हो जाये तो
जाति-वाले प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह अपनी
के अनुसार तन मन धन मे उसकी सहायता करे। इस उपाय से अकाल, रोग, विप्लव, राजदण्ड आदि के समय किसी भी जाति के लोग रक्षा पा सकते हैं और सजातियों का पुण्य का भागी बना सकते हैं।
यद्यपि जातीय पक्षपात कुछ सीमा तक उचित ओर शिष्ट समझा जाता है तथापि सीमा के बाहर इसका प्रचार त्याज्य है। कोई कोई लोग यहाँ तक जातीय पक्षपात करते हैं, कि यदि उन्हें कोई पद या अधिकार प्राप्त हो जाता है तो वे अपने ही जाति वालो को नौकरियां दिलाते हैं । इस पक्षपात से केवल अनीति ही उत्पन्न नहीं होती, किन्तु दूसरे लोगो का हक मारा जाता है और बहुधा योग्य व्यक्तियों के बदले अयोग्य लोगो का नियुक्ति हो जाती है। इस प्रकार के पक्षपात के कारण कई लोगो को हानि उठानी पड़ी है।
जाति-वाला और सम्बन्धयों के यहांँ जाने के समय छोटे
लड़को के लिए पर मिठाई, खिलाने अथवा कपड़े आदि ले जाना
आवश्यक है। पूज्य नातेदारो का रुपये की भेंट करना चाहिए ।
जहाँ बड़े लोगो के चरण छूने की चाल है वहांँ इस प्रथा का
पालन किया जाय । यदि नातेदार के यहाँ उत्सव के अवसर पर
जाने में कोई अड़चन आ जाये तो उसके यहाँ किसी उपाय से
व्यवहार का रुपया और कपड़ा अवश्य भिजवा दिया जाय । ऋतु
के अनुसार, सम्बधियों के यहाँ फल, मेवा प्रादि भेजना भी
शिष्टराचार का लक्षण है । यदि धनाढ्य लोग अपने निर्धन जाति-
वालो ओर सम्बन्धयों की यात्रा का विवाह और बालकों का
यज्ञापवीत करा दिया करें अथवा इनकी शिक्षा में उचित सहायता
दिया करें तो ये काम केवल शिष्टाचार ही के नहीं, किन्तु परम
पुण्य के प्रकाशक होगे।
यदि कोई जातिवाला अथवा सम्बन्धी किसी कठिन रोग से
ग्रस्त हो जाय तो उसकी खबर पूछने और चिकित्सा में यथा-शक्ति-सहायता देने के लिए दो-चार वार जाना आवश्यक है। ये
बातें केवल शिष्टाचार की हैं, इसलिये जो लोग किसी दुखित व्यक्ति के साथ अधिक भलाई करना चाहते, उनका यह काम पुण्य,परोपकार और नीति का होगा।
( ११ ) पंचायत में
पंचायत में प्रत्येक दल के मुखिया को अपना मत प्रकट करने के लिए पूरा अवसर दिया जावे । जब-तक कोई आदमी अपने पक्ष की युक्तियाँ उपस्थित करता रहे तब तक दूसरे पक्षवाले को उन्हें काटने का अधिकार न देना चाहिए । एक पक्ष का कथन समाप्त होने पर विरुद्ध मत वाले को बोलने का अधिकार दिया जावे । सिरपंच का यह कर्तव्य है कि वह प्रत्येक पक्ष के भाषण के लिए उचित और उपयुक्त समय देवे । पंचायतों में बहुधा एक ही समय कई लोग बोलते हैं और कभी कभी तो उनमे दस-दस पाँच पाँच आदमी मिलकर और अपनी अलग-अलग टोलियाँ बनाकर आपस में वाद-विवाद करते रहते हैं। इस प्रथा से समय और विषय का व्यर्थ ही नाश होता है।
पंचायत में जो प्रार्थी आते हैं उनके साथ धन, पदवी आदि के
कारण पक्षपात न किया जावे । पंचायत के अध्यक्ष को इस बात
का ध्यान रखना चाहिए कि वाद विवाद में कोई व्यक्तिगत आक्षेप
न आने पावे और न विवादियो का आपसी झगड़ा बढ़ने पावे ।
अनावश्यक बातें करने-वाले व्यक्ति की बातचीत कुछ कम कर दी
जावे । स्त्री प्रार्थियो से सब के सामने इस प्रकार के कोई प्रश्न न
किये जावें जिनका उत्तर देने में उन्हें संकोच होवे । जहाँ तक हो
नागलिग लड़कों को गबाही पर किसी झगड़े का निपटारा न
किया जाये।
पंचायत का कार्य आवश्यकता से अधिक बढ़ाया जावे और रात-रात भर बैठकर पंचायत न की जाये। सिरपंच को निष्पक्ष रहना चाहिए और अपने उत्तरदायित्व का पूरा विचार करके अपना अंतिम निर्णय सुनाना चाहिए । जो अध्यक्ष कान का कच्चा हो पर किसी बात का स्यवं निर्णय करने की शक्तित्व रखता हो उमे समा का प्रधान न बनना चाहिए । केवल प्रतिष्ठा पाने के लोभ में पड़कर उसे दूसरों का हानि पहुँचाना उचित नहीं।
झुठा निर्णय करना अथवा किसी दल के प्रति अत्याचार करना केवल सदाचार ही के विरुद्ध नहीं, किन्तु शिष्टाचार के भी विरुद्ध है। जो मनुष्य प्रमुख, चतुर और प्रभावशाली समझा जाता हो उसके लिए यह निन्दा की बात है कि वह प्रगट रूप से असङ्गत बातें करे और अपने पक्ष का समर्थन करने में दूसरे पक्ष की बातों का कुछ भी विचार न करे । प्रपंची पंचो के विषय में किसी कवि ने ठीक कहा है कि “नर्क परैं तिनके पुरखा, जे प्रपंच करें अरु पंच कहा" पंचायत के सभासदों को इस उपालम्भ से सदैव बचना चाहिए।
पंचायत में जो लोग बुलाए जाँय उनके मत पर ध्यान देना
और उस पर विचार करना बहुत आवश्यक है । ऐसा न होना
चाहिए कि जो मनुष्य पंचायत में बुलाया जावे उससे कोई सम्मति
न ली जाय । पुराने विचार वालों को नये विचार वालों के मत को
घृणा की दृष्टि से न देखना चाहिए और न नये विचार वालों को पुराने लोगों की प्रत्येक बात का खण्डन करना चाहिये । यदि कोई छोटी उमर-वाला आदमी कोई उचित प्रस्ताव करे अथवा न्याय पूर्ण
सम्मति देवे तो उसका भी आदर करना उचित और आवश्यक है।
पंचायत के लिए ऐसा स्थान चुनना चाहिये जहाँ सब दलों के
लोग सुभीते से पहुँच सकें और जहाँ किसी विशेष व्यक्ति अथवा
दल को कोई विशेष अधिकार प्राप्त न हो सके। कम से कम वादी
अथवा प्रतिवादी के घर पंचायत करना अनुचित है, क्योंकि कोई
भी आदमी किसी के घर जाकर विशेष-रूप से उसका विरोध नहीं
कर सकता । पंचायत के निश्चित समय पर ध्यान रखने की बड़ी
आवश्यकता है। किसी को यह उचित नहीं है कि वह किसी काम
में समय पर न जाकर दूसरे लोगो को व्यर्थ ही बहुत समय तक
बैठा रक्खे और उनके काम में बाधा डाले।
यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।
यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।