हिन्दुस्थानी शिष्टाचार/विदेशी चाल ढाल

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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार  (1927) 
द्वारा कामता प्रसाद गुरु
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(१) विदेशी चाल-ढाल

जो जाति अधिक सभ्य अथवा प्रभावशाली समझी जाती है उसकी चाल-ढाल का अनुकरण बहुधा दूसरी जाति-वाले करने लगते हैं। यह अनुकरण विशेष करके पोशाक, केश-कलाप, श्रृंगार और रहन-सहन में देखा जाता है । इस दुर्गुण में बहुधा पुरुष ही नहीं, किन्तु स्त्रियां भी ग्रसित हो जाती हैं। प्राय देखा जाता है कि अधिकांश हिन्दुस्थानी लोग खुले सिर रहने लगे हैं । यह चाल बंगालियों से सीखी गई है, क्योकि ये लोग किसी समय अपनी विद्या और पद के कारण बहुत प्रतिष्ठित माने जाते थे । यद्यपि खुले सिर रहना बंगालियो में एक सामाजिक रीति है, यहाँ तक कि एक देहाती और गरीब बंगाली भी सिर खुला रखता है, तो भी हिन्दु-स्थानी लोगों में खुला सिर शोक का चिह्न समझा जाता है और साधारण रीति से लोग इन वनावटी बाबुओ को कुछ तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं । सेठो और मारवाड़ी लोगेा में तो खुला सिर रखना असभ्य और अशुभ माना जाता है। इसी प्रकार बहुधा यह भी देखा जाता है कि कोई-कोई हिदुस्थानी स्त्रियां महाराष्ट्र महिलाओं का अनुकरण कर उनकी तरह साड़ी पहिनने लगती हैं । ऐसी स्त्रियों को भी उनकी जाति-वाले एक प्रकार से असभ्य समझते हैं।

यदि कोई जाति की जाति विदेशी श्रेष्ठता अथवा शासन के प्रभाव में पड़कर विदेशी चाल-ढाल सीख ले तो उस अवस्था में देशी चाल-ढाल का पुनरुद्धार करना कठिन है, पर यदि किसी
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जाति के थोडे ही लोगो ने ऐसा अनुचित अनुकरण करना आरम्भ किया हो तो आरम्भ ही में उसका विरोध करना आवश्यक है। यदि पुराने रहन-सहन मे समय के फेर से कठिनाइयों उपस्थित होने लगें, तो उसमे आवश्यक परिवर्तन भले ही कर लिया जाय, पर पुराने रीति रिवाज में आमूल परिवर्तन करना उचित नहीं है। विदेशी चाल-ढाल के अनुकरण से एक तो लोग अपनी प्राचीनता का गौरव नष्ट करते हैं और दूसरे अपनी स्वाधीनता के भाव भी एक प्रकार से खो देते हैं। इसके सिवा हम जिन लोगेा की चाल- ढाल का अनुकरण करते हैं वे भी हम लोगो को विशेष आदर की दृष्टि से नहीं देखते और प्राय चापलूस समझते हैं।

एक विलायत प्रवासी हिन्दुस्थानी सज्जन ने लिखा है कि जब विदेशी पहिनावा पहिनकर किसी महाशय से मिलने जाता था तब वे मुझसे अधिक स्नेह-भाव से मिलते थे। विदेशी पोशाक का पूरा अनुकरण करना कठिन है, इसलिये इसकी छोटी सी भूल भी वड़ उपहास का कारण होती है। पूरी विलायती पोशाक पहिनने पर भी जो लोग कम से कम सिर पर टोपी, साफा या पगडी लगाते हैं वे टोपवालो की अपेक्षा कुछ अधिक गौरववान समझे जाते है । इन सब कारणो पर विचार करने से यही तात्पर्य निकलता है कि मनुष्य को अपनी चाल-ढाल में भी अपनापन (आत्म गौरव) रखना चाहिये।

कई हिन्दुस्थानी लोग मुसलमानो की तरह ढीला पायजामा पहिनते हैं अथवा कुलाह पर साफा बांधते हैं और इन पोशाको को गौरव अथवा नवीनता का कारण समझते हैं, पर वे यह नही समझते कि उनको छोड़कर दूसरे लोग उहें क्या समझते हैं। क्या कभी शिक्षित मुसलमान धोती पहनते हैं ? अाजकल, अोर प्राचीन समय से भी, अलग अलग जाति को अलग अलग पोशाक है जिससे
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उस जाति की पहचान होती है। हम पोशाक देखकर ही यह जान सकते हैं कि अमुक मनुष्य मारवाड़ी है, अमुक मनुष्य सिन्धी है और अमुक मनुष्य गुजराती है। इसी प्रकार बालों की रचना से भी हम अनुमान कर लेते हैं कि यह मनुष्य मद्रासी है और वह पंजाबी है। पारसी लोगों को हम उनके कोट, पतलून और टोपी से तुरन्त पहचान सकते हैं। ऐसी अवस्था में जो लोग दूसरो की चाल-ढाल का अनुकरण करते हैं, वे मानो बगुला बनकर हंसो की समाज में मिलते हैं और अपना अपमान कराते हैं।

विदेशी वालो का अनुकरण करने वाले हिन्दुस्थानी सज्जनों को कम से कम इस बात पर अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि वे अपनी चोटी न कटाया करें। आज कल एक हिन्दुस्थानी जाति ही ऐसी अभागिनी है कि वह बहुतसी बातो में मुसलमानो से मिलती- जुलती है । ऐसी अवस्था में यदि हिन्दुस्थानी लोग चोटी न रखेंगे तो उनके मुसलमान समझे जाने में कोई सन्देह न रह जायगा। जातीय झगड़ो में उनके सजातीय ही उन्हें शिखा-नष्ट समझकर अपने कोप का पात्र बना लेंगे और उनकी दशा चमगीदड़ की सी हो जायगी। आज कल छोटे-छोटे बाल रखना सर्वस सभ्य समझा जाता है, इसलिये जो लोग बडे बिल रखते हैं उन्हें लोग कुछ असभ्य अथवा शोकीन समझते हैं। ऐसी अवस्था में भी बालों के सम्बन्ध में दूसरी जाति का अनुकरण करना अशिष्ट माना जाता है।

अलग-अलग जातियों में भोजन करने की रीति अलग-अलग है । जो आदमी किसी दूसरी जाति के यहाँ भोजन करने जाता है उसके बैठने और भोजन करने की रीति से तुरंत पता लग जाता है कि यह मनुष्य किस जाति का है। यद्यपि स्वादिष्ट भोजन बनाने की रीति किसी दूसरी जाति से सीखना और उसके अनुसार भोजन बनाना अनुचित नहीं है, तथापि जातीय जेवनारो में इस
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नवीनता का समावेश करना अनुचित है। किसी जाति में प्रचलित विशेष प्रकार के पात्रों का उपयोग करना भी अशिष्ट समझा जाता है। यद्यपि मुसलमानो के टोटीदार लोटे के समान पात्र से जल पीने में अधिक सुभीता है, तथापि हिदुस्थानियों के लिए ऐसे पात्र का उपयोग करना उपहास का कारण और अशिष्टता का चिन्ह होगा। हम लोग देखते हैं कि मुसलमान लोग अपने पूर्वजो को चाल-ढाल की रक्षा करने में ऐसी रहन-सहन का उपयोग करते हैं जो हिन्दुओ की दृष्टि से विरुद्ध समझी जाती है । उदाहरणार्थ हम लोग कुहना से शुरू करके पंजो तक हाथ धोते हैं, परन्तु मुसलमान लोग इसके विपरीत पंजो से आरंभ करके कुहनो तक हाथ धोने की रीति पालते हैं। इन क्रिया में स्वयं कोई विशेषता नहीं है, वरन मुसलमानो का रीति मे वहुधा पहिने हुए कपड़े भींग जाते हैं, तो भी एक जाति दुसरी जाति को हाथ धोने की रीति को केवल इसीलिये अनुचित समझती है कि वह विदेशी रीति है।

इसी प्रकार उठने बेठने, चलने फिरने अभिवादन करने और मिलने जुलने की रीति में एक जाति दूसरी जाति से बहुधा भिन्न होती है और जो लोग जानकर अथवा अनजाने भी दूसरी जाति के चाल व्यवहार का व्यर्थ अनुकरण करते हैं वे सभ्यता की श्रेणी में बहुत नीचा स्थान प्राप्त करते हैं ।

( २ ) विदेशी-भाषा

लोगो के मन पर विदेशी-भाषा का बड़ा प्रभाव पड़ता है जो कभी लाभदायक और कभी हानिकारक होता है। जब विदेशी- भाषा के प्रभाव में पडकर लोग उसे ज्ञान की प्राप्ति और सत्य की खोज के लिए पढ़ते हैं तब यह प्रभाव लाभकारी होता है, परन्तु
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जब विदेशी भाषा पंडिताई बखारने अथवा मातृ-भाषा की अवहेलना के निमित्त पढ़ी जाती है तब उसका प्रभाव हानिकारक होता है। विदेशी भाषा का प्रभाव अथवा अनुराग लोगो में स्वभाव ही से इतना प्रबल होता है कि जो लोग उस भाषा के दो-चार ही शब्द सीख लेते हैं वे उनका जहाँ तहाँ उपयोग किया करते हैं ।

विदेशी-भाषा जानने वाला मनुष्य बहुधा भावुकता के कारण श्रोताओं की दृष्टि में असाधारण विद्वान समझा जाता है । इस कारण लोग उस भाषा का टूटा फूटा ज्ञान प्राप्त करके भी प्रशंसा के पात्र बनने की इच्छा करते हैं। हमी लोगो में जो मनुष्य सस्कृंत,पाली अथवा प्राकृत का ज्ञान रखता है वह केवल हिन्दी जानने वाला की अपेक्षा अधिक प्रतिष्ठा का पात्र समझा जाता है, चाहे उसे अपनी मातृ-भाषा का अधूरा ही ज्ञान हो । इसी प्रकार फारसी अथवा अरबी जानने वाले लोग भी असाधारण आदर के योग्य माने जाते हैं। जो लोग केवल इसी प्रशंसा-प्राप्ति के उद्देश्य से विदेशी भाषाएँ सीखते हैं उनके सम्बन्ध से भी समझना चाहिये कि उन पर विदेशी भाषा का हानिकारक प्रभाव पड़ा है। आज- कल अँगरेजी के ज्ञान का यह मान नहीं है जो तीस वर्ष पूर्व था; तथापि अब भी लोग अंगरेजी के ज्ञान को केवल जीविका का ही नहीं किन्तु प्रतिष्ठा का भी साधन मानते हैं।

विदेशी भाषा का ज्ञान अनावश्यक नहीं है । आज-कल लोगो को पृथ्वी के कई भागों में व्यापार के लिए आना जाना पड़ता है। ऐसी अवस्था में किसी एक या अनेक विदेशी भाषाओं के ज्ञान के बिना काम नहीं चल सकता । अनेक प्रकार की विद्याओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी उन्नत विदेशी भाषाओं को सीखना आवश्यक है। इसके सिवा राजकाज का अनुभव प्राप्त करने के लिए भी विदेशी भाषाओ का ज्ञान आवश्यक है, अतएव कोई भी आवश्यक
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विदेशी भाषा सीखना प्रत्येक विद्वान और व्यवसायी का कर्त्तव्य है। शब्द शास्त्रियों के लिए तो अनेक भाषा का ज्ञान अनिवार्य है।

कई हिन्दुस्थानी लोग उर्द-भाषा बहुधा इसलिये पढ़ते हैं कि ये उर्दू की प्रेममयी (आशिगना) गजल गावें और मुसलमानों के साथ लच्छेदार बातचीत करें। यह प्रवृत्ति निन्दनीय है। हाँ, जो लोग इस विचार से उर्दू का अध्ययन करें कि हम उर्दू और हिन्दी का यथार्थ अन्तर समझे, अपने विषय मे मुसलमान-लेखको का मत जाने अथवा उस भाषा की सुन्दर रचनाओं को अपनी मातृ भाषा में अनुवादित करें, उनका यह प्रयत्न अवश्य सराहनीय है। तथापि जो लोग विदेशी भाषा के प्रति आदर और मातृभाषा की और उदासीनता प्रगट करते हैं उनका यह विचार केवल शिष्टाचार ही के विरुद्ध नहीं, किन्तु नीति, समाजादश और राष्ट्र निम्माण की दृष्टि से भी निन्दनीय है।

जहाँ अपनी मातृ भाषा बालने से काम चल सकता है वहाँ विदेशी भाषा बोलना अशिष्टता है। सम्भाषण में अनावश्यक विदेशी शब्दों को बीच बीच में बोलना भी एक प्रकार को अशिष्टता है। कई एक हिन्दुस्थानी अफसर अपने सहायक कर्मचारियों के साथ अंगरेजी में अनावश्यक बात-चीत करना अपना गौरव समझते हैं। पर यह उनकी भूल है । कभी-कभी तो ऐसा विचित्र दृश्य देखा जाता है कि एक मनुष्य हिन्दी में बात करता है और दूसरा उसको अंगरेजी में उत्तर देता है। कई एक अँगरेजी पढे उच्च कर्म- चारी थोड़ी अंगरेजी जानने वाले अपने हिदुस्थानी भाई के साथ अंगरेजी में बात करके उस अल्पज्ञ सज्जन को व्यर्थ हो सकोच में डालते हैं जिससे उसे विवश होकर टूटी फूटी विदेशी भाषा बोलनी पड़ती है। जो मनुष्य किसी विदेशी भाषा को शीघ्रता पूर्वक न बोल
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कई पीढ़ियों से सच्चित होती है और मनुष्य के जीवन में अनेक वर्षों तक बढ़ती है। यथार्थ में धर्म का सम्बन्ध जितना मनुष्य की बुद्धि से नहीं है उतना उसकी भावुकता से है। यदि हृदय में ईश्वर के प्रति सच्ची प्रीति है और उसके प्राणियों की ओर सच्ची दया हैं तो इस बात की कोई चिन्ता नहीं है कि मनुष्य हिन्दू कहलावे अथवा मुसलमान । इतना होने पर भी यह परम आवश्यक है कि मनुष्य सहसा अपने कुल के धर्म से कभी वाहर न हो।

कई लोग अपने धर्म की बड़ाई और दूसरे के धर्म की निन्दा किया करते हैं । ये दोनो बातें शिष्टाचार के विरुद्ध हैं। अनेक धर्मान्ध और सकीर्ण हृदय-वाले लोग तो यहांँ तक समझते हैं कि केवल उन्हीं का धर्म संसार में श्रेष्ठ है और दूसरे के धर्म में कोई सार ही नहीं। उनकी समझ में जो लोग पूर्व को मुख करके ईश्वर की प्रार्थना करते हैं वे पापी और अशिक्षित हैं। ऐसे मूर्ख तो यहां तक समझते हैं कि उनका ईश्वर और है और दूसरों का और । असभ्य लोग तो एक दूसरे के ईश्वर को गालियां तक सुना देते हैं। ये मूर्ख केवल अपनी ही नहीं, किन्तु अपने धर्म की भी निन्दा कराते हैं। ईश्वर का ज्ञान और उसकी भक्ति ऐसे विषय नहीं हैं जो किसी एक जाति के ठेके में आये हों। ऐसी अवस्था में मनुष्यों को एक दूसरे के धर्म की ओर अनादर-भाव कभी न प्रकट करना चाहिये।

यद्यपि धर्म के अनेक नियम और सिद्धान्त शास्त्रार्थ तथा वाद- विवाद से सरलता-पूर्वक जाँचे जा सकते हैं और विद्वानो को इस प्रकार की जांच अवश्य करना चाहिये, तथापि बिना प्रयोजन के धर्म-सम्बन्धी विषयो मे वाद-विवाद उपस्थित करना अनुचित है । हम लोग पाद विवाद करके किसी से भी ऐसा धर्म स्वीकार नहीं करा सकते जिसमें उसकी श्रद्धा न हो और जिसमे केवल बल का प्रयोग किया जावे। यदि कोई मनुष्य किसी से बल पूर्वक कोई
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धर्म स्वीकार करानेका तो अवसर आने पर अथवा अधिक ज्ञान प्राप्त होने पर वह ऐसे निर्दयी धर्म को छोड़ देगा।

धर्म बदलने से लोगों को अनेक हानियां हैं। इसमे केवल पूर्वजों की और उनकी ही निंदा नहीं होती, किन्तु आगे लडकों बच्चों को अनेक कठिनाइयो का सामना करना पड़ता है, इसलिये किसी भी मनुष्य को धर्म परिवर्तन करके अपनी समाज और सन्तान को संकटावस्था में न डालना चाहिये । राजनीतिक कारणों से भी धर्म- परिवतन दूषित समझा जाता है। हमारे देश के कई राजा लोग इतने असभ्य और अशिष्ट हैं कि ये अपनी प्रजा के धर्म को जिसके ये प्रतिनिधि हैं पूर्ण रूप से नहीं मानते । यथाथ में प्रजा की अपेक्षा राजा को अपने धर्म का अधिक पालन करना चाहिये । ये लोग बहुधा अपनी निरड्कुशता के कारण प्रजा की आदर दृष्टि से गिर जाते है । विलायत में राजा को उसी धर्म का अनुयायी होना पड़ता है जिसके मानने वालों की संख्या अधिक रहती है और यदि वह किसी दुसरे धर्म में चला जाय तो उसका राज्याधिकार दिन जाता है।

मनुष्य को विदेशी धर्म के आक्रमण से अपने धर्म को सदैव बचाना चाहिये और इस बात की चिन्ता रखना चाहिये कि उसके सहधर्मी लोग दूसरे के धर्म की ओर प्रवृत्त तो नहीं हो रहे हैं ? यदि कोई भयभीत होकर दूसरे के धर्म का स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाये, तो सब को उस व्यक्ति की रक्षा करना चाहिये। केवल नवीनता के विचार से अथवा दूसरे धर्म वालो की सेवा- शुश्रूषा से भी अपना धर्म छोड़ देना असभ्यता है। बहुधा विदेशी धर्मवाले अपने धर्म का प्रचार करने के लिए अनेक प्रकार के मनोहर उपाय करते हैं जिनके वश मे होकर कभी कभी हमारे नव- युवक भाई भटक जाते हैं पर उन्हें वहुधा पीछे पछताना पड़ता हैं। धम की व्यवस्था देने वालों का कर्तव्य है कि वे ऐसे भटके
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हुए लोगो को फिर अपने धर्म में मिला लेवें। विदेशी धर्म की पुस्तक भले ही पढ़ी जावे, पर उनमें लिखी हुई ऐसी बातें कभी ग्रहण न का जावें जो पढ़ने वाले के धर्म के प्रतिकुल हो ।

अपने धर्म को पालना, दूसरे के धर्म से उसका बचाना, और धर्म के लिए आवश्यकता पड़ने पर तन मन-धन अर्पण करना प्रत्येक सभ्य और शिष्ट व्यक्ति का कर्तव्य है। कोई-कोई मनुष्य कुछ बातें एक धर्म की और कुछ बातें दूसरे धर्म की मानते हैं । यद्यपि यह प्रवृत्ति नीति, स्वतन्त्रता और ज्ञान की दृष्टि से उचित मानी जा सकती है तथापि शिष्टाचार को दृष्टि से ऐसा करना उपहास-योग्य समझा जाता है। हाँ, यदि किसी महात्मा ने किसी ऐसे धर्म की स्थापना की हो जिसमें कई धमों के सिद्धातों का, समावेश किया गया हो तो उसके अनुयायी का कर्तव्य है कि वह अपने धर्म को उसी रूप में माने ।

कोई कोई विद्वान लोग यथार्थ में नास्तिक हो जाते हैं अथवा अपने को नास्तिक कहने मे अपना गौरव मानते हैं । इन नास्तिकों की देखा-देखी बहुधा नव-युवक लोग भी जिनको ससार का अथवा किसी एक धर्म का बहुत कम अनुभव रहता है अपने को नास्तिक कहने लगते हैं और ईश्वर के विषय में बहुधा पुरानी और थायी युक्तियाँ उपस्थित करते हैं। ऐसे लोगो को सोचना चाहिये कि ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करना अथवा सण्डित करना घड़ी विद्वत्ता का काम है, इसलिये उन्हें ऐसी अनर्गल बातें करना उचित नहीं । उन लोगों को सदैव इस बात का स्मरण रखना चाहिये कि जिस धर्म में ईश्वर की पूजा के लिए स्थान नहीं है यह धर्म मिथ्या है।

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