हिन्दुस्थानी शिष्टाचार/विशेष शिष्टाचार

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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार  (1927) 
द्वारा कामता प्रसाद गुरु
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विशेष शिष्टाचार

( १ ) स्त्रियों के प्रति

हिन्दुस्थानी समाज में स्त्रियों और पुरुषों का बहुधा वैसा स्वतंत्र और परस्पर व्ययहार नहीं होता जैसा अंँगरेजो के समाज में अथवा पर्दा प्रणाली का पालन न करनेवाली अन्य भारतीय समाजों में होता है। हम लोगो के समाज में जहाँ तक होता है पुरुष स्त्रियों के किसी भी काम-काज अथवा सम्मेलन में शामिल नहीं होते, इसलिये हिन्दुस्तानी लोगो को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि ये बिना आज्ञा, अनुमति अथवा सूचना के स्त्रियों की मण्डली में न जावें। परिचित स्त्री से भी बिना विशेष कारण के अधिक बात-चीत करना अनुचित है । यदि बड़ी आवश्यकता हो और उस स्त्री के साथ कोई वयोवृद्ध सगनी हो तो आवश्यक बात चीत कर ली जा सकती है । एकान्त स्थान में किसी अकेली तरुण स्त्री के पास उचित कारण के चिना ठहरना अथवा उससे बात-चीत करना अनुचित है। स्त्रियों से सड़क पर सम्भवत कभी बात-चीत न की जावे।

स्त्रियों के सामने स्त्रियों अथवा पुरुषों से सम्बध रखने-वाले विशेष रोगों की चर्चा करना अथवा उनके लक्षण बताना अशिष्टता है। महिला मण्डली में अश्लील अथवा प्रेम के गीत गाना या असभ्य हँसी करना शिष्टाचार के विरुद्ध है। किसी तरुण स्त्री से उसकी उमर न पूछी जावे और न उमर के सम्बन्ध में कोई और प्रश्न किया जावे । अदालत तक में किसी स्त्री से बहुधा उस विषय
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के प्रश्न नहीं पूछे जाते । किसी पिता से उसकी बड़ी अवस्था-वाली लड़कियो की अवस्था न पूछना चाहिये । यदि आवश्यकता हो तो इस प्रकार के प्रश्न परोक्ष रूप से अथवा दूसरी बातो के सम्बन्ध से पूछे जा सकते हैं । जो स्त्रियाँ सभा-समाजो में आती हैं और पर्दे का पालन नहीं करतीं उनसे भी बात-चीत करने में बड़ी सावधानी की आवश्यकता है। यदि किसी सभा में कोई स्त्री भाषण देती हो तो उसकी ओर टकटकी लगाकर न देखना चाहिये । सभा में आई हुई स्त्रियों को हार पहिनाने की आवश्यकता हो तो यह काम सोलह वर्ष तक की अवस्था-वाले लडको से कराया जाय अथवा हार स्त्रियों के हाथ में दे दिया जावे।

संकट में पड़ी हुई स्त्रियों को बचाना केवल शिष्टाचार ही का कार्य नहीं, किन्तु वीरता (सदाचार) का भी कार्य है। यदि कोई लुच्चा या गुंडा किसी सभ्य स्त्री के साथ छेड़-छाड़ करता हो तो मनुष्य कहलाने वाले प्रत्येक मनुष्य का धर्म है कि यह शक्ति-भर उसे बचाने और अत्याचारी को दण्ड देने या दिलवाने का प्रयत्न करे । राजपूतकाल में तो वीर लोग स्त्रियों की रक्षा के लिए प्राण तक दे देते थे,पर दुर्भाग्य-वश अब वह समय दिखाई नहीं देता।

स्त्रियों में जहाँ तक हो नम्रता का व्यवहार किया जावे । उनके प्रति क्रोध प्रगट करना अथवा दिल दुखाने वाला कोई बात कहना अनुचित है। उनकी भूलें धीरता से सुधार दी जावें और आगे-पीछे बिना किसी विशेष कारण के उन भूलो का उल्लेख न किया जावे। उनकी उचित सम्मति को मान देना चाहिये और महत्व-पूर्ण विषयों में उनकी सम्मति लेना चाहिये । जहाँ तक ही घर का भीतरी प्रबन्ध स्त्रियों ही को सौंप दिया जावे और उनके कार्यों में व्यर्थ हस्तक्षेप न किया जावे।
[ ९७ ]जिन स्त्रियों से हँसी करने का सम्बन्ध होता है उनसे कभी कभी केवल सभ्यता पूर्ण कुछ विनोद किया जाये। भौजाई से हंँसी करना शिष्ट नहीं जान पड़ता और उससे पैर पड़वाना तो और भी असभ्य है । यथार्थ म भौजाई का स्थान माता के लगभग है, इस लिये देवर का कर्तव्य है कि यह भौजाई से नम्रता और आदर का व्यवहार करे। ये विचार बहुधा ऊँची जातियो से ही सम्बन्ध रखते हैं, क्योकि अन्य जातियों में तो भाई के मरने पर भौजाई के साथ पुनर्विवाह कर लेने की प्रथा पाई जाती है। बूढ़ी और जेठी स्त्रियों के साथ विशेष नम्रता का व्यवहार आवश्यक है। उनके अप्रसन्न होने पर भी उन्हें उत्तर देना उचित नहीं है, बरन उनसे बार-बार क्षमा मांँगने की आवश्यकता रहती है । उनको अपने काम-काज में सदा सहायता दी जावे और उनकी आज्ञा का सदा पालन किया जावे। बहुधा तरुण महिलाएँ बूढ़ी स्त्रियों का अनादर करती हैं अथवा उनकी हंँसी उड़ाती हैं, यह बहुत ही अनुचित प्रथा है। हिदुस्थानी समाज में जिस आजी का आदर उसके नाती रानी के समान करते हैं, उसकी ओर भी घर की तरुण स्त्रियाँ अथवा लड़कियांँ कभी-कभी अनुचित व्यवहार करने लगती हैं। यह बर्ताव बहुत ही निन्दनीय है।

यदि मार्ग में कोई स्त्री सामने से आती हो तो उसके लिए मार्ग छोड़ देना उचित है । अनजान स्त्रियों के पीछे पीछे अथवा उनकी बराबरी से चलना भी अनुचित है । किसी प्रमुख स्थान में बैठकर रास्ते में आने जानेवाली स्त्रियों की ओर देखते रहना अशिष्टता है। जिन मेलों में बहुधा स्त्रियांँ ही जाती हैं उनमें पुरुषों को बिना किसी विशेष आवश्यकता के न जाना चाहिए। इसी प्रकार जिस घाट पर स्त्रियांँ नहाती हो वहाँ जाना अथवा एक अोर खड़े होकर उनकी तरफ देखना पुरुषों के लिए अनुचित है। सवारियो

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[ ९९ ]बड़ी उमरवालो के सामने छोटो के लिए बढ़ बढ़कर बाते

करना अथवा गप्प हांकना उचित नहीं है। उनसे बात-चीत करते समय स्थिति के अनुसार “आप" शब्द का उपयोग किया जाय । बड़ो और बूढ़ों के उचित रीति से अप्रसन्न होने पर छोटो को अपनी उद्दण्डता से उन्हें और भी अप्रसन्न न करना चाहिए । उन लोगो से अपने अपराधों के लिए क्षमा माँगने में कोई लज्जा की बात नहीं है।

बूढ़े लोगों का कभी उपहास न किया जाय । कोई कोई मूर्ख लड़के बड़ो और बूढ़ों को चिढ़ाने में अपना गौरव सा समझते हैं, पर ये यह नहीं जानते कि एक दिन उनकी भी वैसी ही दशा होगी और दूसरे लोग उन्हें चिढ़ायेंगे । लोगों की असभ्यता से कष्ट पाकर ही बूढ़े लोग कुछ चिड़चिड़े हो जाते हैं। बड़ा और बूढ़ों से मुँह-जोरी करना भी अशिष्टता का चिह्न है।

भीड़ मेला में बूढ़ों की रक्षा करना तरुण पुरुषों का कर्त्तव्य है। यदि कोई बूढ़ों के प्रति अनुचित बताव करता हो तो दुसरो को उचित है कि वे उस उपद्रवी का दमन करें। यदि आवश्यकता हो तो बूढ़ों को हाथ पकड़कर मार्ग दिखाना चाहिए और उनका सामान आदि ले जाने में भी सहायता देना चाहिए।

बड़ो और बूढ़ों से बाद विवाद करना उचित नहीं समझा जाता। यदि उनकी कही हुई बात सुनने वाले को स्वीकृत अथवा प्रिय न हो तो उसे चुप हो जाना उचित है। यदि कोई विशेष हानि न हो तो दे लोगों के मत का खण्डन न किया जाये। यदि इसका प्रसङ्ग आजावे तो बहुत ही नम्रता पूर्वक खण्डन किया जावें। कभी कभी बूढ़े मनुष्य ही आपस में अनुचित व्यवहार करते हैं और अवस्था के गुण के कारण एक दूसरे की बात मानने में अपनी हीनता समझते हैं। ऐसी अवस्था में किसी योग्य तरुण पुरुष को बीच में
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में भी पुरुषों का यह कर्त्तव्य है कि जहाँ तक हो सके वे स्त्रियों के लिए आवश्यकता पड़ने पर जगह खाली कर दें।

(२) बड़ो और बूढ़ों के प्रति

छोटो का कर्त्तव्य है कि वे अपने से बड़े और बूढ़े लोगो की उचित आज्ञा का पालन करें, चाहे वे किसी भी जाति अथवा स्थिति के क्यों न हो । यदि वे लोग सभ्यता पूर्वक किसी कार्य में छोटों से सहायता मांगे तो इन्हें यथा सम्भव उनकी सहायता करनी चाहिये। बड़े ओर बूढ़े लोगो का उचित आदर किया जाय और उनसे आव श्यक कार्यों में सम्मति ली जावे । अपने से अधिक उमर-वाले परिचित लोगों से भेंट होने पर प्रणाम करना चाहिए और यदि वे कुछ पूछें तो सभ्यतापूर्वक उनकी बात का उत्तर देना चाहिये।

गुरु के प्रति विद्यार्थी को सदैव नम्रता और आदर का भाव प्रकट करना चाहिए । जब तक कोई सदिग्ध अवस्था उपस्थित न हो, तब तक गुरु की आज्ञा टालना अनुचित है। गुरु से जितने बार भेंट हो, उतने ही बार आदर पूर्वक प्रणाम करने में कोई हानि नहीं है। गुरु से व्यर्थ वाद-विवाद अथवा मुँह-जोरी करना विद्यार्थी के लिए निन्दा का विषय है । पाठशाला सम्बन्धी कार्यों में गुरु की आज्ञा न मानना अपने कर्त्तव्य को भूलना है। विद्यार्थी बहुधा पाठशाला में दिया हुआ शिक्षा सम्बन्धी कार्य न करने पर भूल जाने का बहाना करते हैं, पर यह काम समझदार विद्यार्थियों के लिए बहुत ही अनुचित है। गुरु के सामने पोशाक अथवा बातचीत में असाधारणता दिखलाना उचित नहीं । कई-एक विद्यार्थी दूसरे विद्यार्थियों के सामने शिक्षक की कई-एक बातों की नकल करके विनोद किया करते हैं, पर यह काम अशिष्टता का है । जहाँ तक हो विद्यार्थी का कर्तव्य है कि वह आवश्यकता पड़ने पर अपने शिक्षक को शकि-भर उचित सहायता देने में कमी न करे।
[ १०१ ]यदि किसी परिचित व्यक्ति का लड़का कुछ अनुचित कार्य करता हुआ पाया जाये तो उसे इस आशा पर ही रोकना चाहिये कि उसका पिता दूसरे के हस्तक्षेप करने से अप्रसन्न न होगा। यद्यपि कोई भी विचारवान मनुष्य किसी नवयुवक को गढ्ढे में गिरते देख-कर चुप नहीं रह सकना, तथापि उसे बिना सोचे विचारे, दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप करना उचित नहीं, क्योकि कई एक पिता दूसरे के द्वारा की गई अपने लड़को की निन्दा सुनना पसंद नहीं करते। ऐसी अवस्था में छोटे लड़को की शिकायत उनके पिताओ से करने में भी बड़ी सावधानी रखना चाहिये। बहुधा लड़के भी इस प्रकार निन्दा करने वाले से अप्रसन्न हो जाते हैं और उसे अपना द्रोही समझने लगते हैं, इसलिये लड़को की निन्दा को भी पर निन्दा के समान त्याग देना चाहिये। खेद की बात है कि बड़े लोगो की उदासीनता से कई एक नवयुवकों का जीवन भ्रष्ट हो जाता है।

छोटे लड़के बहुधा खिलौनो और मिठाई के लिए इच्छा और हठ किया करते हैं। यद्यपि उनकी इच्छा और हठ को सदैव मान देना अनुचित है, तथापि समय-समय पर इन वस्तुओ से उनका मनोरञ्जन करने की आवश्यकता है। माता पिता तथा बड़े भाई-बहिनो को घर के छोटे-छोटे लड़को के साथ कभी-कभी उनके खेलो में भी शामिल होना चाहिये जिसमे उन्हें अपने बड़ो की सहानुभूति का अवसर मिले और अपने उचित कार्यों मे साहस प्राप्त हो।

कई लोग दूसरो के लड़को के सामने बहुधा उनके माता पिता अथवा अन्य निकट सम्बधियो की निन्दा किया करते हैं। ऐसा करने से वे आगे-पीछे उन लड़को की दृष्टि में हेय समझे जाते हैं और उनके माता-पिता भी उन निन्दको को तिरस्करणीय समझने लगते हैं। जो लड़के गम्भीर नहीं होते वे उस अपमान का ध्यान रखकर भविष्य में समर्थ होने पर उसका बदला लेने का प्रयत्न
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पड़कर उनका समझोता करा देने की आवश्यकता है। बूढ़े मनुष्य अपने अपमान को सहसा भूलते नहीं हैं और समय पड़ने पर बहुधा उसका बदला लेने का प्रयत्न करते हैं, इसलिए बूढ़े मनुष्यों को अपने समवयस्क सज्जन के साथ भलमनसाहत का व्यवहार करना चाहिये । यथार्थ में दो बूढे लोगो का आपस में कुछ कहना सुनना निन्दनीय विषय है।

( ३ ) छोटों के प्रति

छोटी अवस्था वालो के प्रति बड़ों का व्यवहार सहानुभूति पूर्ण होना चाहिये । जब तक छोटे, परन्तु समझदार लोग जान बूझकर कोई अपराध न करें तबतक बड़ो को उन्हें शान्ति पूर्वक क्षमाकर देना चाहिए । बिना किसी विशेष कारण के बड़े लोगो को छोटों के प्रति क्रोध अथवा तिरस्कार प्रगट करना उचित नहीं है। छोटो के कार्यों में बड़ो को सदैव सहायता देने के लिए तैयार रहना चाहिये।

छोटों के प्रणाम का उत्तर प्रेम-पूर्वक और उचित रीति से दिया जावे । छोटी उमर-वाले प्रार्थना अथवा परामर्श के रूप में जो कुछ कहना चाह उसे उदारता-पूर्वक सुनना उचित है। यदि छोटे लोग किसी कुसंग में पड़े हो अथवा किसी कुकर्म में प्रवृत हों तो बड़ो का यह काम है कि वे लोग उन्हें बिगड़ने से बचाने का उपाय करें। ऐसे लोगो को एकान्त मे परामर्श देना उचित है।

नव-युवक बहुधा बात-चीत, पोशाक और चाल-ढाल में कुछ वनावट प्रकट करते हैं। कुछ सीमा तक यह प्रवृत्ति उचित है, परन्तु अधिक होने पर उसे रोकने की आवश्यकता है । जिस समय छोटी उमर-वाले किसी आवेश में आकर कुछ अनुचित बातचीत करने लगें उस समय उनको किसी न किसी प्रकार से शान्त करना आवश्यक है और फिर किसी दूसरे समय उनसे अनुचित बात-चीत के सम्बन्ध में थोड़ा-बहुत असंतोष प्रकट करना चाहिये।
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यदि कोई दीन दुखी भिक्षा माँगने आय और वह दानका पात्र हो तो उसे अवश्य कुछ न कुछ भिक्षा में देना चाहिये । उसमे किसी प्रकार के कटु शब्द कहना या उसे धुतकारना बडप्पन के विपरीत है। महाजनो को भी उचित है कि वे दीन दुखियों को ऋण बटाने के लिए अनुचित कष्ट न देवें और उनका अपमान न करें।

यदि कोई मनुष्य किसी शारीरिक अवयव से हीन हो तो उसकी हँसी उड़ाना अथवा बिना कारण के उसकी उस अवयव-हीनता का उल्लेख करना असभ्यता है । अपाङ्ग मनुष्यों का तिरस्कार करना अथवा किसी अवयव की हीनता के कारण उनका वैसा नाम रखना अनुचित है। शरीर के अप्रिय अंग के कारण भी किसी का अपमान न किया जावे । धनाभाव के कारण जो लोग स्वच्छ वस्त्र नहीं पहिन सकते अथवा बाला को स्वच्छ नहीं रख सकते उनसे भी घृणा न की जावे । गरीब आदमियो के लड़के बच्चो की और भी घृणा भाव न दिखाया जावे । दरिद्रता ऐसा पाप नहीं है कि उसने कारण मनुष्य दूसरे लोगो के साथ न बैठ सके । घर पर आये हुए दीन मनुष्य को भी उसके अनुरूप आदर के साथ बिठाना चाहिये और उससे सहानुभूति पूर्ण बात-चीत करना चाहिये।

जो धनवान लोग किसी विषम सङ्कटम ग्रसित हो जाते हैं वे भी एक प्रकार के दीन मनुष्य हैं । उनके संकट ग्रस्त होने पर उन्हें किसी प्रकार का उपालम्भ देना अथवा उनसे संकट की ओर उदा-सीनता दिसाना उचित नहीं है । यदि किसी सच्चे मनुष्य ने हमारा कोई अपराध किया हो और यह सच्चे हदय से दीन होकर हमसे क्षमा की प्रार्थना करे तो हमे सहर्ष उसे क्षमा प्रदान करना चाहिए। यदि उसका व्यवहार आगे सतोष-दायक रहे तो हमे किसी भी समय उसके पूर्व अपराध की चर्चा न चलाना चाहिये। किसी दीन पर किये गये उपकार का भी कभी उल्लेख न किया जावे।
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करते हैं, इसलिये पर-निन्दकों को कम से कम लडको के सामने उनके सम्बधियों की निन्दा से विरत रहना चाहिये।

यहाँ विद्यार्थियों के प्रति शिक्षको की और से होने वाले व्यवहार पर भी विचार कर लेना उचित होगा । बहुधा शिक्षक विद्यार्थियो से अपने घर का काम-काज कराते हैं जिसके विरुद्ध शिष्य-गण संकोच वश कुछ नहीं कह सकते । कमी-कभी वे अपने कुछ विद्यार्थियों की इसलिये दगड देते हैं कि ऐसा करने से उन्हें लड़कों को घर पर पढ़ाने का अवसर मिल जाय । इस प्रकार के कार्य अत्यन्त निन्द- नीय हैं। क्रोध में आकर अथवा बालको की किसी भूल से अचा- नक अप्रसन्न होकर उन्ह अनुचित दण्ड देना अशिष्टता है । बालको की उचित जिज्ञासा का उत्तर न देना अथवा अपने अज्ञान को कपट से छिपाकर कुछ का कुछ बता देना शिक्षक के लिए बड़ी ही निन्दा की बात है। विद्यार्थियों को उनकी मूर्खता के कारण बार- बार लज्जित करना अथवा उनसे व्यङ्ग-पूर्वक बोलना असभ्यता का चिह्न है। लड़को से उनके घर की बातें न पूछी जाये ओर न उनके द्वारा किसी प्रकार का अस्पष्ट संदेशा भेजा जावे । पाठशाला के मुख्य अध्यापक का यह कर्तव्य है कि वह इन सब दोषों को दूर करने का प्रयत्न करे।

( ४ ) दीनों और रोगियों के प्रति

दीनों को सताना केवल शिष्टाचार ही के विरुद्ध नहीं, किन्तु धर्म और नीति के भी विरुद्ध है। ऐसे मनुष्य को पीडा पहुंँचाना, जो किसी प्रकार बढाबा नहीं ले सकता मनुष्यता के विपरीत है। दीन मनुष्य के सामने ऐसा कोई काम करना अथवा बात निकालना जिससे उसे अपनी हीनावस्या पर मार्मिक खेद होने लगे, धनवानो के लिए उचित नहीं है। दीनो को तिरस्कार की दृष्टि से देखना अथवा जान-बूझकर उनका अपमान करना असभ्यता का चिह्न है।
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कर्तव्य है। लोग बहुधा ऐसे समय में उन लोगेा के यहाँ नहीं जाते जिनसे किसी प्रकार का परिचय नहीं है, तथापि अवसर मिलने पर ऐसे लोगो के यहाँ जाने में कोई संकोच न करना चाहिये। किसी कीक्षबीमारी की दशा में जो परिचित अथवा अपरिचित व्यक्ति आवे, उसके यहाँ रोगी मनुष्य को स्वास्थ्य-लाभ करने पर मिलने केक्षलिए एक बार अवश्य जाना चाहिये । उसको बीमारी अथवा किसी अन्य सङ्कट की अवस्था में भी उसके यहाँ एक-दो बार जाना आवश्यक है। बीमार मनुष्य को लोगो के आने से बहुधा धीरज बँधता है, इसलिये जब तक वैद्य न रोके, तब तक इस अवसर पर उसके पास एक दो बार जाने की आवश्यकता है।

रोगी के पास जाकर ऐसी बात न निकालना चाहिये, अथवा ऐसे प्रश्न न पूछना चाहिये जिसमे उमे अधिक बोलना पडे । यदि कोई रोगी अपनी इच्छा ही से अधिक बात-चीत करे तो भी उसे अधिक बोलने से धीरज पूर्वक रोक देना उचित है। रोगी को कभी बीमारी की भयङ्करता न बताई जावे और न उसके सामने आवश्यकता होने पर भी उस वैद्य की निन्दा की जावे जो उस समय उसका इलाज कर रहा हो । यदि किसी को यह जान पड़े कि अमुक वैद्य की चिकित्सा विशेषतया हानि-कारक है तो वह खूब सोच समझकर अपना मत रोगी के किसी हितैषी को प्रकट कर देवे। सोते हुए रोगी को जगाना बढी अशिष्टता है। रोगी के पास बैठकर उसके सामने किसी तरह की काना फूसी न की जावे और न उसके रोग के सम्बध में विवाद उपस्थित किया जावे । यदि तुम्हारे जाने के समय रोगी के पास वैद्य उपस्थित हो तो वैद्य से भी रोग के सम्बन्ध में कोई विशेष पूछ-ताछ करना अनुचित है।

रोगी को धीरज बाँधना बहुत आवश्यक है । उसे सदैव यह आशा दिलाई जावे कि रोग कुछ समय में अच्छा हो जावेगा। तो भी उससे
[ १०६ ]लूले, लॅगड़े और अन्धे लोगों को सड़क पर मार्ग दिखाने की आवश्यकता हो, तो इस काम में उनकी सहायता करना प्रत्येक सभ्य और शिक्षित व्यक्ति का कर्तव्य है। सवारी में जाने वाले लोगो को इस बात पर विशेष ध्यान रखना चाहिये कि उनके वाहनों से रास्ते में आने-जाने वाले दीन-दुखियो को कष्ट न पहुँचे । किसी को अपने सुभीते के लिये ऐसे लोगो को अपने स्थान से हटाना उचित नहीं। कई लोग अपनी प्रभुता मे मत्त होकर दीन-दुखियों के साथ निर्दयी व्यवहार करते हैं, परन्तु ऐसा करना महान् नीचता है। जो दीन-दुखी किसी के यहाँ काम-काज के लिए नौकर रखे जावें उनके साथ भी उदारता और शिष्टता का व्यवहार किया जावे।

धनवान् लोगो का यह कर्तव्य है कि वे अपने नगर अथवा ग्राम के दीन दुखियो की जीविका के लिए अपनी शक्ति के अनुसार कुछ प्रबंध अवश्य करें । जो बेकार लोग शरीर से सशक्त हैं उनको कुछ काम देना धनाढयों का कर्तव्य है। इन्हें अनाथ बच्चो के पालन-पोषण का प्रबंध भी करना चाहिये और जहाँ तक हो सके उनके लिए अनाथालय खोलना चाहिये।

जो कुछ यहाँ दीन-दुखिया के विषय में कहा गया है वही कुछ घटा-बढ़ाकर ग्रामीणों के विषय मे भी कहा जा सकता है। नगर के रहने वाले गांँव वालों को बहुधा बिलकुल मूर्ख समझकर उनकी हंँसी उड़ाते और उनका तिरस्कार करते हैं। शहर वाले कभी-कभी यहाँ तक नीचता करते हैं कि वे ग्रामीण स्त्रियों तक की हँसी उड़ाते हैं। हम लोग दूसरी जाति के लोगो के असभ्य व्यवहार की शिकायत करते हैं, पर यह नहीं सोचते कि हम लोग खुद अपने ही जाति-वालो के साथ इससे भी अधिक असभ्य व्यवहार कर रहे हैं।

परिचित अथवा अपरिचित रोगियों के यहांँ कभी-कभी जाना या उनकी सेवा शुश्रुपा में सहायता देना प्रत्येक सभ्य व्यक्ति का
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कर्तव्य है। लोग बहुधा ऐसे समय में उन लोगो के यहांँ नहीं जाते जिनसे किसी प्रकार का परिचय नहीं है, तथापि अवसर मिलने पर ऐसे लोगो के यहाँ जाने में कोई सकोच न करना चाहिये। किसी की बीमारी की दशा में जो परिचित अथवा अपरिचित व्यक्ति आवे, उसके यहाँ रोगी मनुष्य को स्वास्थ्य-लाभ करने पर मिलने के लिए एक बार अवश्य जाना चाहिये । उसकी बीमारी अथवा किसी अन्य संकट की अवस्था में भी उसके यहा एक दो बार जाना आवश्यक है। बीमार मनुष्य को लोगो के आने से बहुधा धीरज बँधता है, इसलिये जब तक वेद्य न रोके, तब तक इस अवसर पर उसके पास एक दो बार जाने को अवश्यकता है।

रोगी के पास जाकर ऐसी बात न निकालना चाहिये, अथवा ऐसे प्रश्न न पूछना चाहिये जिसमे उसे अधिक बोलना पड़े। यदि कोई रोगी अपनी इच्छा ही से अधिक बात-चीत करे तो भी उसे अधिक बोलने से धीरज पूर्वक रोक देना उचित है। रोगी को कभी बीमारी की भयङ्करता न बताई जाये और न उसके सामने आवश्य का होने पर भी उस वेद्य की निन्दा की जावे जो उस समय उसका इलाज कर रहा हो । यदि किसी को यह जान पड़े कि अमुक वेद्य की चिकित्सा विशेषतया हानि-कारक है तो वह खूब सोच समझकर अपना मत रोगी के किसी हितैषी को प्रकट कर देवे। सोते हुए रोगी को जगाना बढ़ी अशिष्टता है। रोगी के पास बैठकर उसके सामने किसी तरह की काना फूसी न की जाये और न उसके रोग के सम्बन्ध में विवाद उपस्थित किया जाये । यदि तुम्हारे जाने के समय रोगी के पास वैद्य उपस्थित हो तो वैद्य से भी रोग के सम्बध में कोई विशेष पूछ ताछ करना अनुचित है।

रोगी को धीरज बाँधना बहुत आवश्यक है। उसे सदैव यह आशा दिलाई जावे कि रोग कुछ समय में अच्छा हो जावेगा। तो भी उससे
[ १०८ ]लूले, लँगड़े और अन्धे लोगो को सड़क पर मार्ग दिखाने की आवश्यकता हो, तो इस काम में उनकी सहायता करना प्रत्येक सभ्य और शिक्षित व्यक्ति का कर्त्तव्य है। सवारी में जाने-वाले लोगो को इस बात पर विशेष ध्यान रखना चाहिये कि उनके वाहनों से रास्ते में आने-जाने वाले दीन-दुखियों को कष्ट न पहुँचे । किसी को अपने सुभीते के लिये ऐसे लोगो को अपने स्थान से हटाना उचित नहीं । कई लोग अपनी प्रभुता मे मत्त होकर दीन-दुखियो के साथ निर्दयी व्यवहार करते हैं, परन्तु ऐसा करना महान् नीचता है। जो दीन-दुखी किसी के यहाँ काम काज के लिए नौकर रखे जावे उनके साथ भी उदारता और शिष्टता का व्यवहार किया जावे।

धनवान् लोगो का यह कर्त्तव्य है कि वे अपने नगर अथवा ग्राम के दीन-दुखियों की जीविका के लिए अपनी शक्ति के अनुसार कुछ प्रबंध अवश्य करें। जो बेकार लोग शरीर से सशक्त है उनको कुछ काम देना धनाढ्यों का कर्तव्य है। इन्हें अनाथ बच्चो के पालन पोषण का प्रबंध भी करना चाहिये और जहाँ तक हो सके उनके लिए अनाथालय खोलना चाहिये।

जो कुछ यहाँ दीन-दुखियों के विषय में कहा गया है वही कुछ घटा-बढ़ाकर ग्रामीणों के विषय में भी कहा जा सकता है। नगर के रहने वाले गांव वालो को बहुधा बिलकुल मूर्ख समझकर उनकी हँसी उड़ाते और उनका तिरस्कार करते हैं। शहर-वाले कभी-कभी यहाँ तक नीचता करते हैं कि वे ग्रामीण स्त्रियों तक को हँसी उड़ाते हैं। हम लोग दूसरी जाति के लोगो के असभ्य व्यवहार की शिकायत करते हैं, पर यह नहीं सोचते कि हम लोग खुद अपने ही जाति-वालो के साथ इससे भी अधिक असभ्य व्यवहार कर रहे हैं।

परिचित अथवा अपरिचित रोगियों के यहां कभी-कभी जाना या उनकी सेवा शुश्रुषा में सहायता देना प्रत्येक सभ्य व्यक्ति का
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कर्त्तव्य है। लोग बहुधा ऐसे समय मे उन लोगो के यहाँ नहीं जाते जिनसे किसी प्रकार का परिचय नहीं है, तथापि अवसर मिलने पर ऐसे लोगो के यहाँ जाने में कोई संकोच न करना चाहिये । किसी की बीमारी की दशा में जो परिचित अथवा अपरिचित व्यक्ति आवे, उसके यहाँ रोगी मनुष्य को स्वास्थ्य लाभ करने पर मिलने के लिए एक बार अवश्य जाना चाहिये । उसकी बीमारी अथवा किसी अन्य सदृष्ट की अवस्था में भी उसके यहांँ एक दो बार जाना आवश्यक है। बीमार मनुष्य को लोगो के आने से बहुधा धीरज बाॅधता है, इसलिये जब तक वैद्य न रोके, तब तक इस अवसर पर उसके पास एक दो बार जाने को आवश्यकता है।

रोगी के पास जाकर ऐसी बात न निकालना चाहिये, अथवा ऐसे प्रश्न न पूछना चाहिये जिसमे उसे अधिक बोलना पड़े। यदि कोई रोगी अपनी इन्छा ही से अधिक बात चीत करे तो भी उसे अधिक बोलने से धीरज पूर्वक रोक देना उचित है । रोगी को कभी बीमारी की भयङ्करता न बताई जावे और न उसके सामने आवश्यकता होने पर भी उस वैद्य की निन्दा की जावे जो उस समय उसका इलाज कर रहा हो। यदि किसी को यह जान पड़े कि अमुक वैद्य की चिकित्सा विशेषतया हानिकारक है तो वह खुब सोच-समझकर अपना मत रोगी के किसी हितैषी को प्रकट कर देवे । सोते हुए रोगी को जगाना बढ़ी अशिष्टता है । रोगी के पास बैठकर उसके सामने किसी तरह की काना फूसी न की जावे और न उसके रोग के सम्बध में विवाद उपस्थित किया जावे । यदि तुम्हारे जाने के समय रोगी के पास वैद्य उपस्थित हो तो वैद्य से भी रोग के सम्बन्ध में कोई विशेष पूछ ताछ करना अनुचित है।

रोगी को धीरज बँधाना बहुत आवश्यक है। उसे सदैव यह आशा दिलाई जावे कि रोग कुछ समय में अच्छा हो जावेगा। तो भी उससे
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पथ्य में सावधानी रखने के लिए अनुरोध करना अनुचित नहीं है। रोगी के पास जोर-जोर से बातें करना ठीक नहीं । वहाँ किसी ऐसे विषय पर भी बात-चीत न की जावे जो रोगी को अप्रिय जान पड़े। रोग के सम्बन्ध में बात चीत करते समय सच होने पर भी यह कभी न कहा जावे कि अमुक मनुष्य इस रोग से मर गया। रोगी के पास केवल उसी समय तक बैठना चाहिये जब तक उसके दवाई पीने का अथवा भोजन करने का समय न आवे ।

यदि कोई परिचित रोगी किसी सार्वजनिक औषधालय में हो तो वहाँ भी उसकी खबर पूछने के लिए जाना उचित है। यदि आवश्यक हो तो उसके लिए दवाई लाने अथवा वैद्य को बुला लाने में सहायता देना चाहिये । रोगी मनुष्य को उठने बैठने अथवा करवट बदलने में सहायता देना प्रशसनीय कार्य है। अशक्त रोगी को नीच से नीच सेवा भी उच्च शिष्टाचार का लक्षण है।

जहांँ तक हो परिचित रोगी के पास रोग की अवस्था में एक बार से अधिक जाना आवश्यक है जिससे यह कार्य निरा शिष्टाचार न समझा जावे । कोई-कोई लोग सहानुभूति की प्रेरणा से नहीं, किन्तु निरे शिष्टाचार के अनुरोध से किसी रोगी को देखने जाते हैं और एक बार जाकर ही अपने कर्तव्य की इति-श्री मान लेते हैं। इस प्रकार की उदासीनता शिष्टाचार और नीति दोनो के विरुद्ध है।

रोगी के पास जाकर ऐसे स्थान में न वैठना चाहिये कि जहाँ से हवा का आवागमन रुक जावे अथवा रोगी के कोठे में अँधेरा हो जावे । ऐसे स्थान में भी बैठना उचित नहीं, जहाँ रोगी सरलता से अपनी दृष्टि न डाल सके । कुशल पूछने के लिए जाने -वाले सज्जनो को सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनको किसी भी क्रिया अथवा व्यवहार से रोगी को कष्ट न पहुंचे।
[ १११ ]वैद्यो या डाक्टरों को रोगी के साथ बहुत ही शिष्ट व्यवहार करना चाहिये, क्योंकि उस पर उनकी प्रत्येक बात का बड़ा असर पड़ता है। कई और अनिश्चित दाम लेनेवाले वैद्य के भाषी बिल के स्मरण मात्र से ही साधारण स्थिति के रोगी का रोग दिन में कई चार बढ़ जाता है। इस पर उसकी उतावली ओर धमकियांँ तो प्रलय उत्पन्न कर देती हैं। केवल धन खींचने की आशा से औषधि की योजना करना और एक पैसे की पुड़िया के लिए चार आने का बिल देना मनुष्यत्व के विपरीत है।

रोगी को आश्वासन देना, सच्चे मन से उसकी चिकिसा करना और आवश्यकता के समय उसकी दशा स्वयं देखना सभ्य वैद्य का कर्त्तव्य हे। कई वैध और डाक्टर तो ऐसे हैं कि वे अपने ही किसी मरते हुए रोगी को बिना फीस के नही देखते और मरे हुए रोगी को भी देखने की फीस ले लेते हैं । रोगी से पर-वशता के कारण कई भूलें हो जाती हैं, इसलिये क्रोध में आकर उसे मझधार में छोड़ देना सभ्य वैद्य के लिए उचित नहीं है । अनेक रोगियो की मृत्यु पीड़ा देखने से वैद्यो का हृदय बहुत कुछ कठोर हो जाता है। इसलिए उन्हें उसमे कुछ दया का सचार करना चाहिए ।

(५) मित्रों के प्रति

मित्रता धीमी बाढ़ का पौधा है, इसलिये उसका पालन करने में बड़ी सावधानी की आवश्यकता है । यद्यपि सभी मित्रता में शिष्टाचार के प्रभाव से बहुधा कोई नहीं पड़ता और उसके उपयोग से रूखापन समझा जाता है, तथापि सभ्यता की पराकाष्ठा से उतनी हानि नहीं है जितनी असभ्यता की छाया-मात्र से है। आज-कल विशेष परिचयवाले सज्जन भी मित्र कहलाते हैं,इसलिये साधारण रीति से सभी प्रकार के मित्रों के साथ उचित शिष्टाचार के पालन की अवश्यकता है । यद्यपि गहरी मित्रता
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में शिष्टाचार की छोटी-छोटी भूलों से बहुधा बाधा नहीं पहुँचती, तथापि यही छोटी छोटी बातें एकत्र होकर कभी-कभी बड़ा परिमाण प्राप्त कर लेती है और मित्रता-रूपी बन्धन को ढीला करके तोड़ देती है।

मित्र के साथ व्यवहार करने में उसे ऐसा न जान पडे कि उसके साथ भिन्नता का व्यवहार किया जाता है। मित्र के अनजाने में किये हुए दोषों पर उदारता की दृष्टि रक्खी जावे और उसको अप्रसन्न करने का अवसर सदैव टाला जावे। जहाँ तक हो सच्चे मित्र के साथ सगे भाई का सा व्यवहार करना चाहिये । मित्र के कुटुम्बियो को मित्र ही के समान आदर और प्रेम का पात्र समझना चाहिये । मित्र से जहाँ तक हो छल-कपट का व्यवहार न किया जावे और न उस पर किसी प्रकार का अनुचित दबाव डाला जाये।

मित्रता-रूपी पौधे को सदैव सदाचार-रूपी जल से सींचने की आवश्यकता है। मित्र से कभी अनुचित हँसी न की जावे और न उसे नीचा दिखाने का अवसर लाया जावे । यदि मित्रता भिन्न- भिन्न स्थिति के लोगो में हो तो उन्हें आपस मे ऐसा व्यवहार करना चाहिये जिससे उनकी स्थिति की भिन्नता के कारण भेद-भाव उपस्थित न हो। मित्र के साथ अनावश्यक बाद विवाद करना भी अनुचित है, क्योकि मत-भिन्नता के कारण बहुधा गाढ़ी से गाढ़ी मित्रता भी टुट जाती है। संसार में विद्या और ज्ञान की कोई सीमा नहीं है, इसलिये बड़े से बड़े विद्वान को भी अपनी विद्वत्ता पर अभिमान न करना चाहिये क्योंकि इससे अल्पज्ञान वाले मित्रों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

मित्र के साथ अनुचित विनोद करना भी हानिकारक है। यद्यपि हँसी मजाक साधारण बात है, तथापि इससे बहुधा भयङ्कर परि-
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णाम उपस्थित होते हैं। कोई भी आदमी, चाहे वह गाढ़ा मित्र क्यो न हो, हँसी के द्वारा किया गया अपना प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष अपमान सहन नहीं कर सकता और जब वह उसका बदला लेने का प्रयत्न करता है तब परस्पर की खीचा-तानी से अवस्था भयङ्कर हो जाती है, इसलिये हँसी दिल्लगी को जिसमे बहुधा व्यति-गत आक्षेप रहता ही है सर्वथा त्याज्य समझना चाहिये । कहा भी है— “हँसी लडाई को जड़ है" । हंँसी मजाक का दोष बहुधा तरुण मित्रो में पाया जाता है, परन्तु कभी-कभी बड़ी उमर-वाले और सयाने लोग भी इस दुर्गुण के दास हो जाते हैं।

मित्र के कामो को कभी सन्देह की दृष्टि से न देखना चाहिये। यदि तुम्हारा मित्र सच्चा है तो तुम्हारे साथ कभी कपट न करेगा। मित्र के कपट का एक-दो बार परिचय मिलने पर समझना चाहिये कि यह व्यक्ति मित्रता के योग्य नहीं है। ऐसे मनुष्य से धीरे-धीरे और बड़ी चतुराई के साथ घनिष्टता का सम्बध कम करना चाहिये, जिससे कुछ समय के पश्चात् उससे केवल शिष्टाचार का सम्बन्ध रह जावे ओर वह प्रत्यक्ष रूप से तुम्हारा शत्रु न बने । संसार में बिना कारण के किसी को शत्रु बना लेना मूर्खता का कार्य है । यदि मित्र की ओर से किसी प्रकार का सन्देह हो तो उसे मन में छिपाकर रखने के बदले किसी अवसर पर प्रकट कर देना और उसकी सफाई कर लेना अधिक चतुराई की बात है। यदि सन्देह मन मे भरा रहे और अन्य मिथ्या कारणो से उसकी वृद्धि हो जावे तो परस्पर बुरे भाव उत्पन्न होंगे जिसका परिणाम दोनो ओर हानिकारक होगा।

यदि मित्र में ऐसे दोष हों जिनसे मित्रता की वृद्धि में बाधा पहुँचती हो, तो मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह अपने मित्र के इन दोषों को धीरज और बुद्धिमानी से दूर करने का प्रयत्न करे । यदि
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मित्र को दोषों की सूचना से बुराई जान पड़ तो इस विषय में उसका समाधान करना आवश्यक है। समझदार मनुष्य अपने मित्र की बताई हुई सूचनाओं को अपने लिए लाभदायक समझकर उनका पालन करेगा। जब किसी भी उपाय से मित्र के दोष दूर न हो सके और उनसे बड़ी भारी हानि होने की सम्भावना हो तब अन्त में इस बात का विचार करना आवश्यक है कि ऐसे मनुष्य से मित्रता स्थिर रक्सा जाये या नहीं। यदि दोष साधारण है और मित्रता में विध्न पड़ने को कोई सम्भावना नहीं है, ना उसे क्षमा की दृष्टि से देखना चाहिये।

जर तक कई बढ़ी आवश्यकता न हो तब तक मनुष्य को किसी के साथ अपनी मित्रता का विषय सर्व साधारण में प्रकाशित न करना चाहिये । दो आदमियों के परस्पर व्यवहार और सम्भाषण की रीति ही से बाहरी लोगेा को इस बात का पता लग सकता है कि उन दोना से कैसा भाव है। सभी बातों में और सभी कही अपने मित्र का अन्ध पक्षपात करके दूसरे लोगो को मित्रता की घनिष्ठता न बताई जाने। अपने मित्र की भलाई के लिए सब कुछ किया जावे, परन्तु उसके लिए आत्म-गौरव न खोया जावे और दूसरे की बुराई न की जावे।

संकट के समय मित्र की सेवा तन मन-धन से की जावे। यह एक बड़ा भारी अवसर है जिस पर लोग अपने मित्रो से बहुत कुछ आशा करते हैं और यदि ऐसे समय में शक्तिशाली होने पर भी कोई मनुष्य अपने मित्र की सहायता न करेगा तो उनकी मित्रता बहुत दिन नहीं चल सकती। यथार्थ में सहानुभूति ही मित्रता का प्रधान लक्षण है और यदि मित्रता में इसी गुण का प्रयोग न किया जावेगा तो वह मित्रता कैसे रहेगी? इसी सहानुभूति से मित्र की और उदारता का भाव उत्पन्न होता है।
[ ११५ ]मित्र के विरुद्ध चुगली करने वाले लोगो की बातो पर सहसा विश्वास कर लेना उचित नहीं, क्योकि कुछ लोग ऐसे हैं कि उनके मन को दो मनुष्यो के बीच में गाढ़ी मित्रता देखकर ईर्षा होती है। जब तक अनेक उदाहरणों से चुगली में कहे गये अपराधों का कोई पक्का प्रमाण न मिले तब तक मित्र की ओर किसी प्रकार का संदेह न करना चाहिये । अधिकांश चुगलियां झूठ निकलती हैं और उन पर सहसा विश्वास करके कोई धृष्टता कर डालने से बुरा परिणाम होता है । चुगल खोर केवल मित्रता को शत्रुता बनाकर ही सन्तुष्ट नहीं होते, किन्तु शत्रुता को घोर घृणा में परिणत कर देते हैं।

( ६ ) विद्वानों और साधुओं के प्रति

प्राचीन काल से विद्वान पुरुष आदर के पात्र होते आये हैं। जो विद्वान् अनभिमानी और शान्त स्वभाव वाले होते हैं उनका आदर विशेष रूप से किया जाता है। विद्वानो के आदर का प्रधान कारण यह जान पडता है कि उनके पास प्राय सभी प्रकार की विद्यायों और ज्ञान का वह कोप रहता है जिसकी आवश्यकता औरो को पढ़ती है । उनकी आदरणीयता का एक और कारण यह समझ पड़ता है कि उनके समक्ष और मानसिक प्रभाव के कारण अल्प विद्या वाले मनुष्य अपना अल्पज्ञान स्वतंत्रता पूर्वक प्रदर्शित करने की धृष्टता नहीं कर सकते । इतना होने पर भी विद्वानो का यथार्थ मान बहुत कम होता है और इसका एक मुख्य कारण यह है कि अधिकांश विद्वान धनहीन होते हैं।

विद्वानों का मान करने में अवस्था पर विशेष ध्यान न देना चाहिये जिसमें विद्या के साथ अवस्था और स्थिति की श्रेष्ठता हो, वह तो सर्वमान्य है ही, परन्तु जहाँ पिछले दो गुण न हो वहाँ विद्या को ही उचित आदर देना चाहिये । विद्वान के आगे बढ़-चढ़कर बातें करना
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किसी के लिए भी शोभा-प्रद नहीं है। विद्वानों के मत को थोथी युक्तियो के आधार पर खंण्डित करने का प्रयत्न करना उपहास-जनक है। थोड़ी विद्या-वाले को विद्वान के साथ वाद-विवाद करना भी शोभा नहीं देता। यदि किसी विद्वान से उच्चारण अथवा तर्क की कोई भूल हो जावे, तो उसके कारण विद्वान मनुष्य की हँसी उड़ाना अथवा भूल पर अनुचित कटाक्ष करना असभ्यता है।

विद्वान की गति विद्वान ही जान सकता है,मूर्ख नहीं, इसलिये यदि कोई मूर्ख किसी विद्वान का अनादर कर दे तो उससे किसी शिक्षित व्यक्ति को प्रसन्न होने के बदले दुखित होना चाहिये । जो लोग विद्वानो का अनादर करते हैं वे शिक्षित समाज मे निन्दनीय समझे जाते हैं । यदि कोई मनुष्य स्वयं विद्वान होकर अथवा अपने को। विद्वान समझकर दूसरे विद्वान की अवहेलना, अनादर अथवा घृणा की दृष्टि से देखे तो उसकी विद्वत्ता को निम्नकोटि की समझना चाहिये।

कभी कभी कुछ लोग अपनी प्रभुता बढ़ाने के विचार से विद्वानो की समता अथवा अवहेलना करते हैं । ये लोग ऐसा समझते है कि विद्वानों का तिरस्कार करने से दूसरे लोग हमे विद्वानो से श्रेष्ठ समझेंगे, पर यह उनकी भूल है । जो मनुष्य सच्चा गुण-ग्राहक है और जिसमे सच्ची सद् बुद्धि है, वह विद्वानो के अपमानकारी को तुच्छ ही समझेगा, चाहे वह अपनी विद्वत्ता का कैसा ही ढिंढोरा पीटे । ऐसे ही आत्म-प्रशंसा के लोभ में कुछ अल्पज्ञ लोग बहुतों

के मत का खण्डन करने की ढिठाई करते हैं। वे समझते हैं कि विद्वानो से भिड़ने पर जीते भी जीत है ओर हारे भी जीत है, पर यह समझना अल्पज्ञों की बड़ी भारी भूल है । कितना ही प्रयत्न किया जावे, तो भी मनुष्य की अल्पक्षता छिप नहीं सकती और विद्वान के सामने बात-बात पर उसे अपने अल्पज्ञान के कारण मोन धारण करना पड़ता है। किसी ने ठीक कहा है,
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विद्या-मय हैं प्रकट अति, चतुर, बहुथुत, विज्ञ ।
पर वर्ण-क्रम से निपट, निकल पड़े अनभिज्ञ ।।

विद्वानो के साथ अथवा विशेषज्ञो के साय वाद विवाद करने- वालों को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि केवल तर्क और युक्ति ही से काम नहीं चल सकता, उसके लिए शास्त्र ज्ञान की भी आवश्यकता है। विना पूर्ण ज्ञान के, विद्वानो से भिड़ना बड़ी मूर्खता है । रहीम कवि ने कहा है,

करत निपुनई गुन चिना, रहिमन निपुन हजूर ।
मानो टेरत विटप चढ़ि, इहि प्रकार हम फर ॥

कोई-कोई साधु महात्मा बड़े विद्वान होते हैं। उनका आदर- सत्कार विद्वानो से अधिक करना उचित है, क्योकि उनमे विद्वानो से एक अधिक गुण (संसार-त्याग) रहता है। आज-कल मूर्ख और कपटी साधुओं की अधिकता है। इसलिये इन लोगों से सावधान रहना चाहिये । यद्यपि इन धूर्तों के साथ आदर-सत्कार करने के व्यवहार का अवसर बहुत कम आता है, तथापि इनका प्रकट रूप से अनादर करना आवश्यक नहीं है। इनके साथ अवसर आने पर उदासीनता का व्यवहार किया जावे। सच्चे साधु महात्माओं से बिना किसी विशेष प्रयोजन के उनकी पूर्व जाति, वृत्ति अथवा वैराग्य का कारण पुछना असभ्यता है। पर सदिग्ध अवस्था में साधु-वेष धारी लोगो से जांँच के लिए ये सब बातें पूछी जा सकती हैं। साधुओं के निश्चित कार्यक्रम में बाधा डालना ठीक नहीं है। उन्हें नियम के विरुद्ध अनेक प्रकार के स्वादिष्ट भोजन कराना अथवा सुख-चैन में रखना उचित नहीं है। उनके

सामने गृहस्थाश्रम के सुखो की चर्चा करना भी अशिष्टता है।
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( ७ ) राजा और अधिकारियों के प्रति

यद्यपि अनेक राजा और अधिकारी लोग अपनी प्रभुता के अभिमान में साधारण लेगा को अत्यन्त तुच्छ समझने हैं, तथापि जब तक इन लोगो का व्यवहार मनुष्यता के अनुरूप है, तब तक लोगो को इन महानुभावों का उचित और नियमानुकूल आदर करना आवश्यक है । राजाओं और अधिकारियों के सामने जाकर जहाँ ओर जैसे खड़े होने अथवा बैठने की रीति हो, वहाँ वैसे ही खड़े होना अथवा बैठना चाहिये । इन लोगों को प्रणाम भी निश्चित रीति से किया जावे। कोई कोई राज्याधिकारी अपने अधीन कर्म चारी और प्रार्थियो को बैठने तक के लिए आसन नहीं देते और उन्हें खड़ा रखने में अपना गौरव समझते हैं। आवश्यकता के कारण इस अपमान को सहना ही भाग्य है क्योकि शक्तिशाली महापुरुषों को उदण्डता के लिए कोई सहज और सभ्य प्रतिकार नहीं है। कोई-कोई अधिकारी प्रणाम का उत्तर केरल अभिमान पूर्वक सिर हिलाकर देते हैं। यह भी एक अत्याचार है जिसके रोकने के लिए आन्तरिक घृणा के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं दीखता।

पूर्वक्ति महानुभावों से मिलने और बातचीत करने के सम्बन्ध में सावधानी की आवश्यकता है। उनसे केवल नियत समय पर मिलना और निश्चित बातचीत करना चाहिये । जहाँ तक हो बात चीत में किसी दूसरे मनुष्य की निन्दा न की जाय और न अपनी बड़ाई प्रकट की जाय । राज्याधिकारियो के पास उतने ही समय तक ठहरना चाहिये जितने समय तक कार्य की आवश्यकता हो । बात-चीत संक्षेप में परन्तु स्पष्ट-रीति से करना चाहिये जिसमें । कहनेवाले का उद्देश्य सिद्ध हो और सुननेवाले को यथार्थ व्यवस्था सरलता से प्रकट हो जावे । संकोच के वश कुछ न कहना और
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धृष्टता के वश आयश्यकता से अधिक कह डालना, ये दोनों ही अवस्थाए त्याज्य हैं।

राज्य की उचित आज्ञाओं का पालन करना प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है। आवश्यकता पड़ने पर प्रजा के प्रत्येक मनुष्य को शासन के कार्य में सहायता देना चाहिये और अपने राजा तथा देश के लिए तन मन, धन अर्पण करने में भी सोच न करना चाहिये। प्रत्येक उत्तरदायी नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह प्रजा पर होने वाले अत्याचारों की सूचना राजा अथवा दूसरे अधिकारियों को देने में किसी प्रकार का संकोच न करे । यदि हो सके तो उसे राज्य की ओर से की गई किसी भारी भूल की सूचना भी उपयुक्त अधिकारी के पास पहुँचा देना चाहिये।

राज्य की ओर से जिन लोगों को सम्मान अथवा उन्च पद प्राप्त हुआ है उनके प्रति भी हमे आदर प्रकट करना चाहिये । जब तक असंतोष का कोई कारण उपस्थित न हो, तब तक राज्याधिकारियों के प्रति सदैव आदर और सभ्यता का व्यवहार किया जावे। किसी लोक प्रिय राज्याधिकारी का स्थानान्तर होने पर छोटा मोटा उत्सव कर देना भी शिष्टाचार की सीमा के भीतर है । प्रजा हितैषी राजा के किसी स्थान में पधारने पर वहाँ के निवासियो को अपनी राज भक्ति का पूरा परिचय देना चाहिये । राजा चाहे छोटी अवस्था का हो अथवा युवराज ही हो, पर उसके आदर-सत्कार में किसी प्रकार की त्रुटि न की जावे । राज परिवार के लोगों के साथ भी, जब तक उनमें राजोषित सभ्यता है, आदर और शिष्टाचार का व्यवहार किया जावे।

उच्च राज-कर्मचारियो से बात चीत करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जब तक उनके साथ घनिष्ठता का सम्बन्ध न तब तक उनसे विनोद पूर्ण सम्भाषण न किया जाय।
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ष्टता होने पर भी विनोद की मात्रा सभ्यता-पूर्ण रहे। किसी विषय पर निवेदन करते समय दूसरे लोगो के विरद्ध अथवा अपने पक्ष में केवल उतनी ही बातें कही जानें जिनसे उस विषय का सम्बन्ध हो। इससे अधिक आत्म प्रशंसा अथवा पर-निन्दा के लिए शिष्टाचार में स्थान नहीं है । यद्यपि अधिकांश राजकीय कार्य पत्र-व्यवहार ही से निष्पन्न करना उचित और आवश्यक है तथापि कई-एक बातें आपसी भेंट मुलाकात में सरलता पूर्वक निश्चित हो सकती है; इसलिये राजकर्मचारियों से कभी-कभी मिलने की आवश्यकता होती है।

अधिकारियों के पास उचित पोशाक पहिनकर जाना चाहिये। यदि किसी दरवार में जाने का प्रयोजन हो तो दरवार के नियमो के अनुसार विशेष प्रकार के वस्त्र धारण करने की आवश्यकता है। विशेष करके विद्वानों के लिए सर्वसम्मति से जो पोशाक निश्चित की गई हो वही उनको धारण करना चाहिये।

न्यायालय में जो कुछ पूछा जावे उसका उत्तर स्पष्ट रीति से और सभ्यता-पूर्वक देना चाहिये । न्यायाधीश की निष्पक्ष आज्ञा मानना परम आवश्यक है, इसलिये जिस समय वह किसी से शान्त होने को कहे तो उस समय उसे शान्त हो जाना चाहिये । न्यायालय में किसी उत्तर-दायी कर्म-चारी की आज्ञा के बिना कोई कागज पत्र पढ़ना अथवा उठाना-धरना केवल शिष्टाचार के ही विरुद्ध नहीं, किन्तु कानून के भी खिलाफ है । न्यायाधीश को अपमान जनक उत्तर देना भी एक अपराध है, इसलिये उसके अप्रसन होने पर भी उसे वैसी ही अप्रसन्नता से उत्तर न देना चाहिये । यदि किसी न्यायाधीश के न्याय से किसी को असन्तोष हो तो उसके लिए उचित न्याय के निमित्त दूसरा बड़ा न्यायालय खुला रहता है।

अधिकांश राज-कर्मचारी दौड़े पर जाकर देहातो में बड़ा ही अनुचित व्यवहार करते हैं। ये लोग गरीब ग्रामीणों से केवल बेगार
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ही नहीं कराते, किन्तु और भी कई प्रकार के अनुचित काम लेते हैं। यदि ये लोग सभ्यता का व्यवहार करें तो गाँव के निवासी अपनी मान मर्यादा भूलकर इनके छोटे-छोटे काम भी प्रसन्नता पूर्वक कर सकते है, पर ये कर्मचारी बहुधा अपनी प्रभुता के अभिमान में पढ़े लिखे लोगो से भी कभी-कभी ऐसा काम करने को कहते हैं जो केवल अनपढ़ नौकर के करने योग्य होता है। ऐसी अवस्था में गाँव के प्रतिष्ठित, शिक्षित और उत्तरदायी सज्जनों का यह काम है कि वे राज कर्मचारियो को अनुचित इच्छाओ का सदैव सभ्यता पूर्वक प्रतिवाद करें और अपनेको उनकी किसी ऐसी सेवा में न लगावें जिसमे गाँव के आत्म सम्मान में कलंक लगे। यदि कोई कर्मचारी अपने अशिष्ट व्यवहार को बंद न करे तो उसकी रिपोर्ट उच्च कर्म-चारियों के पास की जावे, अथवा उसके साथ उदासीनता का ऐसा व्यवहार किया जाये जिससे उसे अपनी भूल पर पछताना पड़े।

(८) पड़ोसी के प्रति

पड़ोसी के साथ प्रेम भाव रखना केवल शिष्टाचार ही की दृष्टि से नहीं, किन्तु उपयोगिता और सहयोग की दृष्टि से भी आवश्यक है। नीति के विचार से भी पड़ोसी के प्रति सद्भाव प्रगट करना उचित है। पड़ोसी चाहे ऊँची जाति का हो अथवा नीची जाति का, धनवान् हो या कड़्गाल, विद्वान हो अथवा अशिक्षित, उसके साथ सदैव शिष्ट व्यवहार किया जावे। कई लोग प्रभुता पाकर बहुधा पड़ोसियों को पीड़ित करने में अपना गौरव समझते हैं, परन्तु उनका यह व्यवहार सर्वथा निन्दनीय है। यदि किसी कारण से पड़ोसी के साथ मित्र भाव स्थापित हो सके तो ऐसी दशा में शिष्ट उदासीनता का व्यवहार करना उचित होगा।

घर बनाने अथवा विस्तार करने में मनुष्य को इस बात की सावधानी रखनी चाहिये कि पड़ोसी को उससे कोई अड़चन अथवा
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खेद न हो । कई महानुभाव छल-कपट से अथवा अधिकार के बल पर पड़ोसियों की जमीन दवाने, उनका विस्तार रोकने और अपने निरड़्कुश व्यवहार से उन्हें तङ्ग करने का प्रयत्न करते रहते हैं जिसका,परिणाम यह होता है कि बहुधा दोनो मे कई पीढ़ियों तक शत्रुता चली जाती है। ये सब कार्य मनुष्य की जंगली अवस्था के चिह्न है। उचित तो यह है कि यदि कोई पड़ोसी सभ्य ओर शान्त स्वभाव वाला है तो उसकी सब प्रकार से सहायता को जावे । यदि पड़ोसी का मकान नीचा हो तो अपने मकान से उसके घर की ओर झॉकना अथवा उसे अड़चन देने वाला कोई विस्तार करना अशिष्ट है। पड़ोसी के मकान की ओर छज्जे, खिडकियाँ अथवा नालियों निकालना किसी भी अवस्था मे उचित नहीं है।

पड़ोसी के लड़को-बच्चों पर प्राय अपने ही बच्चों के समान प्रेम-व्यवहार करना चाहिये और पड़ोसी की माँ बहिनों को अपनी माँ-बहिनो के समान मानना चाहिये । समय-समय पर पड़ोसी के यहाँ आना-जाना और उसके उत्सव आदि कार्यों में योग देना शिष्टता का चिह्न है । यदि हो सके तो कभी-कभी उसे भोज नादि के लिए भी निमंत्रित करना चाहिये । यदि पड़ोसी गरीब हो तो मनुष्य को पड़ोसी के आगे अपने धन आदि का ऐसा वैभव न दिखाना चाहिए जिससे उसे आन्तरिक वेदना हो । पड़ोसी के लड़को-बच्चो की उपस्थिति में कोई मनुष्य अपने बच्चों को खाने- पीने की ऐसी चीजें न देवे जिन्हें यह दूसरे बच्चो को न दे सके।

पड़ोसी की बीमारी की दशा में उसकी सहायता करना चाहिये और समय-समय पर उसका समाचार लेना चाहिये। पड़ोस की स्त्रियों की बीमारी में खबर के लिए स्त्रियों का जाना उचित है। यदि पड़ोसी के यहाँ गमी हो जाय तो उसमे भी सम्मलित होना आवश्यक है। निर्धन पड़ोसी की बीमारी अथवा विपत्ति की
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अवस्था में आर्थिक सहायता देना शिष्टता और नीति का कर्तव्य है। आवश्यकता पड़ने पर पड़ोसी को उचित सलाह देना चाहिये और उसके किसी भी गुप्त भेद को प्रगट करने अथवा जानने की इच्छा न करना चाहिए । यदि पड़ोसी की अोर से दो-एक बार साधारण अपराध हो जाय तो उन्हें क्षमा की दृष्टि से देखना चाहिये ।

जहाँ तक हो सके पड़ोसी से लडाई झगडा करने का अवसर न लाया जावे, क्योंकि पड़ोसी की शत्रुता सब अवस्थाओ में हानि-कारक होती है। कोई मनुष्य बार-बार शत्रु को देखने अथवा उसकी बातों का स्मरण करने से चित्त की शान्ति स्थिर नहीं रख सकता, इसलिये, पड़ोसी से बिगाड़ होने का अवसर सदैव टाल दिया जावे । यद्यपि दुष्ट का संग नरक के वास से भी बुरी कहा गया है, तथापि यह बात सम्भव है कि किसी के शिष्ट-व्यवहार से दुष्ट मनुष्य भी अपना व्यवहार सुधार सकता है। बहुधा दुष्ट मनुष्य भी अधिकाश में अपने पड़ोसी के साथ दुष्टता का व्यवहार नहीं करते । पड़ोसी की सहायता यहाँ तक लाभकारी होती है कि लोग बहुधा उसके भरोसे अपना घर द्वार और लड़के बच्चे छोड़ जाते हैं।

यदि पड़ोसी के यहाँ की स्त्रियों में पर्दे की चाल हो तो उनके मिलने पर पुरुषों को अपनी दृष्टि इस भाँति फेर लेना चाहिये जिसमे उन्हें कोई अड़चन न हो और अपने पर्दे का पालन करने के लिए अवसर मिल जाये। पड़ोसी के घर के भीतरी भाग में बिना आवश्यकता के अथवा बिना सूचना दिये जाना उचित नहीं। जब तक कोई आवश्यक कार्य न हो तब तक अपने घर के भीतरी भाग से अथवा ऊपरी कोठे से पडोसी को बुलाना अथवा उससे बात-चीत करना अशिष्टता का चिह्न है। स्त्रियाँ बहुधा इस नियम का उल्लघंन कर देती हैं, पर उनका यह कार्य नियम विरुद्ध ही है।
[ १२४ ]पड़ोसी का महत्त्व इसी एक बात से सिद्ध हो सकता है कि लोग किसी भी दुष्ट अथवा अभिमानी व्यक्ति के पड़ोस में रहना पसंद नहीं करते।

(९) सेवकों के प्रति

सेवकों के साथ शिष्टाचार का व्यवहार करना कई कारणों से आवश्यक है। एक मुख्य कारण तो यह है कि हम अपने शिष्टाचार से सेवकों को स्वाभाविक अशिष्टता को सुधार सकते हैं। नीति की दृष्टि से तो सेवकों का पालन पोषण करना स्वामी का एक प्रधान कर्त्तव्य है । वन को जाते समय रामचन्द्र जी ने अपने दास और दासियो को बुलाकर तथा उन्हें गुरु को सौंपकर कहा था कि “सब कर सार-सॅभर गुसाई । करेहु जनक जननी की नाई ॥"

जहाँ तक हो नौकरो के प्रति कड़ा व्यवहार न किया जावे। उन्हें काम में बार-बार टोकना या उन पर सदा क्रोध करते रहना केवल शिष्टाचार ही की दृष्टि से नहीं, किन्तु उपयोगिता की दृष्टि से भी हानिकारक है। मालिक की रात-दिन की खट-खट से ऊवकर नौकर काम छोड़ देने के लिए तैयार हो जाता है और जिसके यहाँ नौकर बहुधा बदलते रहते हैं उसके विषय में लोग निन्दा करने लगते हैं। ऐसी अवस्था में उचित यही है कि नौकरी के साथ न्याय और दया का बर्ताव किया जावे।

इस बात का प्रयत्न करना आवश्यक है कि नौकर अपना काम मन लगाकर करे; इसके लिए उपयुक्त अवसर पर उसे कुछ पुरस्कार दिया जावे। नौकर की बीमारी और विपत्ति की दशा में भी उसके साथ सहानुभूति प्रकट करने की आवश्यकता है। जहाँ तक हो बीमारी या साधारण गेर-हाजिरी में उसकी तनखाह न काटी जाये । नौकर पर क्रमश विश्वास बढ़ाना चाहिये जिसमे वह अपना काम अधिक सच्चाई से करने का उद्योग करता रहे।
[ १२५ ]
नौकर के द्वारा मोल मॅगाई गई वस्तुओं को सावधानी से देखना और उनका मूल्य जाँचना बहुत आवश्यक है, पर आने दो आने के अन्तर पर उसे सहसा झूठा बनाना उचित नहीं।

कई नौकर स्वभाव ही से दुष्ट चोर और चालाक होते हैं। इसलिये ऐसे नौकरों को बिना पूरा विश्वास किये काम में लगाना ठीक नहीं । यदि भूल से ऐसे नौकर काम म लगा लिये जायें, तो भूल मालूम होने पर उन्हें चतुराई से जवाब दे देना चाहिये। किसी भी अवस्था में ऐसा अवसर कभी न लाया जाय कि मालिक और नौकर के बीच में खुल्लम-खुल्ला कहा सुनी या गाली-गलोज होने लगे।

यदि आदमी अकेला हो तो उसे तरुण स्त्रियों को नौकर न रखना चाहिये, क्योंकि इससे निन्दा तथा हानि होने की सम्भावना रहती है। नौकरी से बहुधा उतना ही काम लिया जाय जितना वेतन उन्हें दिया जाता है। ज्यादा काम के लिए ज्यादा दाम देना वाजिव ओर जरूरी है। नौकर से कभी ऐसा काम न कराया जावे जो उसके गौरव के विरुद्ध हो । यदि लाभ के वशीभूत होकर कोई नौकर अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध कोई काम करना स्वीकार कर ले तो उसका यह भेद सब में प्रकट न किया जावे ओर न सब के सामने उससे वैसा काम करने को कहा जावे। इस प्रकार के अपमान-कारी कामों का एक उदाहरण यह है कि लोग कमी-कभी ढोमरों से जूते साफ करवाते हैं जिसको वे लोग बहुधा अपनी जाति के विचार से स्वीकार नहीं करते । नौकर से कभी ऐसा गूढ़ कार्य न कराया जाय जिसे वह किसी समय नौकरी छोड़ने पर प्रगट कर दे । उसके आगे दूसरो की निन्दा करना भी उचित

नहीं। बहुत पुराने नौकर के साथ कई बातो का अनुग्रह करने की आवश्यकता है।
[ १२६ ]

(१०) अछूतो के प्रति

अछूतों के पास बिठालने अथवा मंदिरों में जाने देने के लिए अभी बहुत समय लगेगा, पर उनसे सभ्यता और दयालुता का व्यवहार किसी भी समय किया जा सकता है। अछूत जातियों में विशेषकर घसोर, भड़्गी, चमार, डोम, आदि सम्मलित हैं। यद्यपि ओर भी कई जातियाँ ऐसी है जो इनसे पवित्रता या शुद्धता में किसी प्रकार बढ़कर नहीं है तथापि लोग उन्हें अछूत नहीं मानते। प्राय सभी लोग इन जातियो के गरीब आदमियो से अनादर-पूर्वक बोलते हैं और यदि भीड़ में धोखे से भी इन लोगों का छुआ लग जाय तो दूसरी जाति वाले इन्हें डॉटते हैं। यह सब स्वार्थ और असभ्यता का व्यवहार है। हाँ, इतना अवश्य है कि इन जातियों के लोग शरीर ओर कपड़ों की शुद्धता पर पूरा ध्यान नहीं देते जिससे दूसरे लोगो को इनके पास बैठने म घृणा होती है।

अछूत जातियो से दया पूर्वक वर्ताव करना उचित है और यदि किसी को धोखे से इन लोगो का छुआ लग जाय तो उसको इन्हें डाँटना अनुचित है। इन लोगो से जो काम कराया जाय उसकी मजदूरी पूरी देना चाहिये। कई लोग इन्हें थोड़े ही अपराध पर गाली देने को तैयार हो जाते हैं, पर गाली देनेवाले लोग यह नहीं सोचते कि जो काम अछूत लोग करते हैं वह ऊँची जातिवालों से नहीं बन सकता। जब हमे इन लोगो पर इतना अवलम्बित रहना पड़ता है तब हमारे लिए यह उचित नहीं है कि हम इनका तिरस्कार करें। समय ने पलटा खाया है, इसलिये अब अछूत जातियांँ भी अपने अपमान का प्रतिवाद करने लगी हैं। ऐसी अवस्था में एक ब्राह्मण को किसी अछूत मनुष्य से झगड़ा करते देख किसको दुख न होगा? कई एक अभिमानी लोग अछूत जाति की स्त्रियों से भी अशिष्टता का व्यवहार करते हैं। यह भी दुख का विषय है।
[ १२७ ]हम लोगो की सामाजिक प्रथाएँ इतनी दूषित हैं कि अछूत जातियाँ किसी प्रकार अपनी उन्नति कर ही नहीं सकती । ये लोग पाठशालाओं में पढ़ने नहीं पाते, किसी के दरवाजे के भीतर पैर नही रख सकते और न रेल आदि सवारियों में स्वतन्त्रता से बेठने के अधिकारी हो सकते हैं। ऐसी अवस्था में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि ये लोग अपने आराम के लिए पूर्वजों का धर्म छोडकर दूसरे धर्म में चले जाते हैं। हिन्दुस्थानी लोगों को उचित है कि वे इन जातियो को यथा शक्ति सुधारने का प्रयत्न करें। यद्यपि शहरों में इन लोगो के साथ असभ्य वर्ताव किया जाता है तो भी गाँव के लोग इन्हें अछूत मानकर भी इनसे एक प्रकार का कल्पित पारिवारिक सम्बध मानते हैं। जब गाँव की कोई स्त्री किसी चमार को दादा या भैया कहकर पुकारती है तब क्षण भर के लिए मनुष्य के हृदय की उदारता का चित्र आँखों के सामने आ जाता है।

जहाँ तक हो अछूत जातियों से सहानुभूति का भी व्यवहार किया जावे । यदि उच्च जाति के लोग इनके दुख-सुख में शामिल हो और समय पड़ने पर इन्हें उचित परामर्श देवें तो ऊँची जाति- वालो को कदाचित् कोई नाम न धरेगा और न जाति से निकालेगा। हमे इस विषय में ईसाइयो का अनुकरण करना चाहिये जो इन लोगो के घर जाकर इन्हें पढ़ना लिखना और अपना धर्म सिखाते हैं।

कुछ लोग ऐसा अनुमान करते हैं कि नीच जातियो को उत्तेजन देने से वे आगे उद्दण्डता का व्यवहार करने लगेंगी। इस आशंका को दूर करने का सब से उत्तम उपाय इन लोगो की शिक्षा है जिससे इनका हृदय विस्तृत और बुद्धि उन्नत हो सकती है । यदि हमारे कुछ उत्साही सहधर्मी अछूत जातियों की शिक्षा का भार अपने ऊपर ले लेवें और दूसरो के आक्षेपों का विचार न कर अपना
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कर्तव्य पालते जावें, तो अछूतोद्धार की समस्या बहुत कुछ हल हो सकती है।

( ११ ) प्रार्थियों के प्रति

अदालतो में प्रार्थियों की प्राय बड़ी दुर्दशा होती है। वहाँ चपरासी से लेकर न्यायाधीश तक और वकील के मुन्शी से लेकर स्वंय वकील साहब तक प्रार्थियों की ओर बहुधा अशिष्टता का व्यवहार करते हैं । किसी किसी न्यायाधीश के विषय में तो यहाँ तक सुना गया है कि वे प्रार्थिनी स्त्रियों तक को गालियाँ देते हैं । कचहरी के अधिकांँश कर्मचारियो की अशिष्टता का एक कारण यह जान पडता है कि वे लोग प्रार्थियों से बहुधा बात बात पर पैसे खींचना चाहते हैं और जब वे इस काम में सफल नहीं होते तब बहुधा अशिष्टता का व्यवहार करने लगते हैं। बहुत दिन के अभ्यास से इन कर्मचारियों का, जिनमे बहुतसे शिक्षित भी होते हैं, स्वभाव बहुधा इतना बिगड जाता है कि वे छोटी छोटी बातों पर भी बड़ी ऐंठ दिखाते हैं । भले से भले आदमी को मूर्ख बना देना इनके लिए एक साधारण बात है। यद्यपि कचहरी के अशिट कर्मचारियो को अपनी ऐंठ की सफलता पर आनन्द होता है, तथापि शिक्षित और सभ्य समाज में इन्हें सच्चा आदर प्राप्त नहीं हो सकता।

अशिष्ट न्यायाधीश को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यदि वह किसी अपराधी को शिष्ट वचन कहकर दण्ड देगा तो अपराधी दण्ड पाकर भो उस न्यायाधीश की प्रशंसा करेगा। इसके विरुद्ध जो न्यायाधीश कठोर वचन कहकर अपराधी को दण्ड आज्ञा सुनाएगा, वह अपराधी की दृष्टि में दुहरा कठोर समझा जायगा और सम्भव है कि अपराधी आगे पीछे उससे बदला लेने । यदि कोई न्यायाधीश किसी कैदी को फाँसी का हुकुम सुनाने के पश्चात् उससे यह कहे कि “मुझे तुम्हारे प्राण पर
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“बहुत दया आती है और मैं बहुत चाहता हूं कि तुम्हें इस दण्ड से मुक्त कर दूँ। परन्तु खेद है, मैं न्याय के कारण विवश होकर तुम्हें यह सब से कठिन दण्ड देता हूँ", तो उस न्यायाधीश के प्रति मरते-मरते भी अपराधी के मन में अच्छा भाव रहेगा।

अशिष्टता के सब से बुरे उदाहरण अधिकांश में मूर्ख पुलिसवाले प्रकट करते हैं। इन लोगों की दृष्टि में किसी से सभ्यता पूर्वक बात करना कदाचित् अपना रुप खो देना है । ये लोग बहुधा सीधे बात करना जानते ही नहीं और अपराध स्वीकार कराने में तो भावी अपराधी का कभी-कभी प्राणान्त कष्ट दे डालते हैं। पुलिसवालों के लड़के-बच्चे तक अपने पिताओं की प्रवृत्ति का अनुकरण कर बहुधा दूसरे लड़को पर अपना अधिकार जमाना चाहते हैं । पुलिसवालो की अनुचित प्रवृति और असभ्य व्यवहार के कारण लोग बहुधा इनके पड़ोस में रहना पसंद नहीं करते । यद्यपि हिन्दुस्थान की पुलिस की इतनी निन्दा होती है तो भी इँग्लेण्ड की पुलिस के विषय में केवल प्रशंसा ही सुनी जाती है। हिन्दुस्थान में भी अनेक पुलिसवाले बड़े ही सभ्य देखे और सुने गये हैं पर ऐसे लोग अपने विभाग में बहुधा सफल नहीं समझे जाते।

प्राथियो के प्रति अशिष्टाचार प्राय ऐसे स्थानों में भी देखा जाता है जहाँ इसके लिए कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं दिखाई देता। यदि कोई नौकर किसी महाजन के यहांँ जाकर नौकरी के लिए प्रार्थना करता है तो महाजन उस नौकर को कभी-कभी धुतकार देता है। यदि कोई किसी से उपयोग के लिए कोई वस्तु मांँगता है तो उस वस्तु का स्वामी बहुधा उद्दण्डता पूर्वक यह उत्तर देता है कि “यह चीज यहाँ कहाँ रखी है।"
[ १३० ]दफ्तरों के कई एक बड़े बाबू तो अपने पद का इतना गर्व करते कि वे उम्मेदवारों को अपने कमरे के भीतर ही नहीं आने देते अथवा उनकी एक भी घात का निश्चित उत्तर नहीं देते। कई विभाग प्रार्थियों को बार-बार भटकाते हैं और अन्त में उनकी प्रार्थना निर्दयता-पूर्वक अस्वीकृत कर देते हैं । सभ्यता पूर्वक सूचित की गई अस्वीकृति प्रार्थियो को उतना कष्ट नहीं पहुंँचाती जितना अधिकारियो की अहमन्यता और असभ्यता।

कई एक वकीलो की यह रीति है कि वे बहुधा आसामिया से रुपया तो भर-पूर ले लेते हैं, पर मुकदमे की तैयारी नही करते और र्कुशी पर हाजिर नहीं होते। यदि मुवरिल उनसे कुछ कहना है तो वे दुत गरम होते हैं और मुकदमा छोड़ देने की धमकी दे देते हैं । बेचारा आसामी यह अत्याचार उन लोगों के हाथो सहता है जो उसी के नेता बनने का दम भरते हैं । गोसाई जी ने ठीक कहा है कि “पर उपदेश कुशल बहुतेरे"।

(१२) सम्पादकीय

सम्पादकीय शिष्टाचार में सम्पादक, लेसक, प्रकाशक और पाठको का परस्पर शिष्ट व्यवहार सम्मलित है । प्रकाशक को पत्र की छपाई पुराने पिसे टाइपो से न करानी चाहिये और यदि पत्र का मूल्य महँगा हो तो उसे अच्छे कागज पर छपाना चाहिये। उनमें अश्लील विज्ञापन न छापे जायें और जहाँ तक हो धृर्तों के विज्ञापन प्रकाशित न किये जायें । सम्पादको को ऐसे लेख न छापना चाहिये जिनमे किसी एक रस की पराकाष्ठा हो । उसे प्राय सभी रसो के उचित परिमाण वाले लेख छापना उचित है । मासिक पत्रों में पद्य का भी उचित समावेश होवे ।

किसी पुस्तक की समालोचना करते समय पुस्तक हो की समालोचना करना उचित है, उसके लेखक के विषय में व्यक्तिगत
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रूप से अनविकार चर्चा करना उचित नहीं । कोई कोई सम्पादक किसी लेखक से कारण वशात् अप्रसन्न होने के कारण विरुद्ध समालोचना कर बैठते हैं, यह कार्य अशिष्टता-मय है । जो सम्पादक जिस विषय को न जनता हो—सभी सम्पादक सर्वज्ञ नहीं होते—उसे उस विषय मे अपनी सम्मत्ति देने की धृष्टता न करनी चाहिये । इसके लिए उचित उपाय यही है कि सम्पादक उस विषय की समालोचना किसी विशेषज्ञ से कराने और उसके साथ समालोचक का नाम लिख देवे । यदि समालोचक चाहे तो उसके यथार्थ नाम के बदल कोई करिपत नाम छाप दिया जावे । कई एक सम्पादक समालोचना के लिए भेजी गई उपयुक्त पुस्तको की प्राप्ति भी स्वीकृत नहीं करते और स्वार्थ वश कभी-कभी उनकी समालोचना नहीं छापते । यह व्यवहार निन्दनीय है।

किसी-किसी मासिक पत्र में ऐसे-ऐसे समालोचको के नाम छापे जाते हैं जिन्हें पत्रों के विद्वान पाठक समालोचना करने के योग्य नहीं समझते। ऐसे समालोचको से समालोचना कराकर और उसके साथ उनका नाम छपाकर सम्पादक लोग प्रत्यक्ष रूप से अपने पत्रो की प्रतिष्ठा घटाते हैं और परोक्ष रूप से योग्य लेखको का अपमान करते हैं। साथ ही वे पत्र के पाठको पर भी एक प्रकार का मानसिक अत्याचार करते हैं। कई एक सम्पादक ऐसे देखे जाते हैं जो स्वय पुस्तक-प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता और साथ ही सम्पादक तथा विज्ञापक भी हैं। ऐसे लोग भला दूसरो की पुस्तको की उचित समालोचना कब कर सकते हैं। कई समालो चक अश्लीलता तक का उपयोग कर बैठते हैं और अपनी विचार- शैली से गुगडो के पद को भी पार कर जाते हैं।

लेखकों को ऐसे विषय पर लेखनी चलाना उचित नहीं जिनका उन्हें अच्छा ज्ञान न हो । आज-कल हिन्दी में कई एक लेखक इसी
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दफ्तरों के कई एक बड़े बाबू तो अपने पद का इतना गर्व करते हैं कि ये उम्मेदवारों को अपने कमरे के भीतर ही नहीं आने देते अथवा उनकी एक भी बात का निश्चित उत्तर नहीं देते। कई लोग प्रार्थियों को बार-बार भटकाते हैं और अन्त में उनकी प्रार्थना को निर्दयता पूर्वक अस्वीकृत कर देते हैं। सभ्यता-पूर्वक सूचित की हुई अस्वीकृति प्रार्थियों को उतना कष्ट नहीं पहुँचाती जितना अधि- कारियो की अहमन्यता और असभ्यता।

कई एक वकीलो की यह रीति है कि वे बहुधा आसामियो से रुपया तो भर पूर ले लेते हैं, पर मुकदमे को तैयारी नहीं करते और पेशी पर हाजिर नहीं होते। यदि मुवकिल उनसे कुछ कहता है तो ये बहुत गरम होते हैं और मुकदमा छोड़ देने की धमकी दे देते हैं । बेचारा आसामी यह अत्याचार उन लोगों के हाथो सहता है जो देश के नेता बनने का दम भरते हैं । गोसाई जी ने ठीक कहा है कि “पर उपदेश कुशल बहुतेरे"।

(१२) सम्पादकीय

सम्पादकीय शिष्टाचार में सम्पादक, लेखक, प्रकाशक और पाठको का परस्पर शिष्ट व्यवहार सम्मलित है । प्रकाशक को पत्र की छपाई पुराने पिसे टाइपो से न करानी चाहिये और यदि पत्र का मूल्य महंगा हो तो उसे अच्छे कागज पर छपाना चाहिये। पत्र में अश्लील विज्ञापन न छापे जायँ ओर जहाँ तक हो ध्रूतौं के विज्ञापन प्रकाशित न किये जायँ । सम्पादको को ऐसे लेख न छापना चाहिये जिनमे किसी एक रस को पराकाष्टा हो । उसे प्राय सभी रसो के उचित परिमाण वाले लेख छापना उचित है । मासिक पत्रों में पद्य का भी उचित समावेश होवे ।

किसी पुस्तक की समालोचना करते समय पुस्तक ही की समालोचना करना उचित है, उसके लेखक के विषय में व्यक्तिगत
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रूप से अनविकार चर्चा करना उचित नहीं। कोई कोई सम्पादक किसी लेखक से कारण वशात् अप्रसन्न होने के कारण विरुद्ध समालोचना कर बैठते हैं, यह कार्य अशिष्टता मय है। जो सम्पादक जिस विषय को न जनता हो—सभी सम्पादक सर्वज्ञ नहीं होते—उसे उस विषय में अपनी सम्मत्ति देने की धृषृता न करनी चाहिये। इसके लिए उचित उपाय यही है कि सम्पादक उस विषय की समालोचना किसी विशेषज्ञ से करावे और उसके साथ समालोचक का नाम लिख देवे । यदि समालोचक चाहे तो उसके यथाथ नाम के बदले कोई करिपत नाम छाप दिया जावे । कई एक सम्पादक समालोचना के लिए भेजी गई उपयुक्त पुस्तको की प्राप्ति भी स्वीकृत नहीं करते और स्वाथ वश कभी कभी उनकी समालोचना नहीं छापते। यह व्यवहार निदनीय है।

किसी किसी मासिक पत्र में ऐसे समालोचको के नाम छापे जाते हैं जिन्हें पत्रों के विद्वान पाठक समालोचना करने के योग्य नहीं समझते। ऐसे समालोचको से समालोचना कराकर ओर उसके साथ उनका नाम छपाकर सम्पादक लोग प्रत्यक्ष रूप से अपने पत्रो की प्रतिष्टा घटाते हैं और परोक्ष रूप से योग्य लेखको का अपमान करते हैं। साथ ही वे पत्र के पाठको पर भी एक प्रकार का मानसिक अत्याचार करते हैं। कई एक सम्पादक ऐसे देखे जाते हैं जो स्वय पुस्तक प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता और साथ ही सम्पादक तथा विज्ञापक भी हैं। ऐसे लोग भला दूसराें की पुस्तको की उचित समालोचना कब कर सकते हैं? कई समालोचक अश्लीलता तक का उपयोग कर बेठते हैं और अपनी विचार- शैली से गुणडो के पद को भी पार कर जाते हैं।

लेखको को ऐसे विषय पर लेखनी चलाना उचित नहीं जिनका उन्हें अच्छा ज्ञान न हो । आज-कल हिन्दी में कई एक लेखक इसी
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कोटि के पाये जाते हैं । ये लोग बहुधा दूसरी भाषाओ का व्यावसा- यिक ज्ञान प्राप्त करके उनके उच्च कोटि के लेखो का अनुवाद करते हैं और मूल लेख का उल्लेख न कर स्वयं ही उस लेख के लेखक धन बैठते हैं ! इसी प्रकार कई एक लेखक बिना किसी कृतक्षता के दुसरी पुस्तको से पृष्ठ के पृष्ठ नकल करके अन्य ग्रन्थ तैयार कर लेते हैं। समय-समय पर ऐसे लेखकों की पोल खोली जाती है, पर लोगो के आक्षेप बहुधा उन्हें अपने स्वार्थ-मार्ग से नहीं हटा सकते । कई एक पुराने लेखकों की कृतियों से इस समय यह पता लगा है कि उनके जो ग्रन्थ कुछ समय तक युगान्तर उपस्थित करते रहे वे यथार्थ में दूसरी भाषा की पुस्तको के अनुवाद मात्र थे। ऐसी अशिष्ट कृतियों से प्रशसा नहीं हो सकती।

सम्पादक लोग बहुधा दूसरो के लेखों में बे-हिसाब काट-छाँट करने की उद्दण्डता भी कर टालते हैं। यद्यपि कई लेखक अपने लेखो की उमङ्ग में कभी-कभी ये सिर पैर को बातें लिख मारते हैं तो भी सम्पादक को उचित है कि वह किसी भी लेख में अल्पतम परिवर्तन करे । हाँ, जो लेख बिलकुल ही बदलने के योग्य हो, परन्तु जिसमे महत्व पूर्ण विवेचन किया गया हो, उसे लेखक की आज्ञा लेकर पूरा बदल देना अनुचित नहीं है। किसी लेखक से लेख प्राप्त होने पर उसकी सूचना देना चाहिये और यदि लेख छपने योग्य हो तो उसे उपयुक्त अवधि में छाप देना चाहिये । जहाँ तक हो सके अस्वीकृत लेख नम्रता पूर्वक कारण समझाकर लेखक को लौटा दिये जायें । ऐसा न हो कि लेख प्राप्त होने पर उसकी पहुँच न लिखी जायें और लेखक के पूछने पर उसे कुछ उत्तर न दिया जाय।

सम्पादको को अपने पत्रों में दूसरे पत्रों का उल्लेख बहुत कम करना चाहिये । यद्यपि पत्रों की परस्पर मुठभेड़ से अधिकांश पाठको का मनोरञ्जन होता है और जिस पत्र के उत्तर कुछ अधिक
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पत्रों में धड़ाधड़ उर्दू की गजलें छपवा रहे हैं। कुछ लेखक ऐसे भी हैं जो शेक्सपियर ओर मिलटन की दुहाई दिये बिना और हिन्दी अनुवाद के साथ उनके विचार अंगरेजी मे उदधृत किये बिना अपने को धन्य नहीं मान सकते । किसी किसी लेख म उर्दू शब्दों की इतनी प्रधानता रहती है कि यह लेख लेखक की उर्दू विक्षता प्रकट करने के सिवा प्राय ओर कोई बात प्रकट नहीं करता । कई-एक लेखक ऐसे विचित्र हैं कि उनका एक वाक्य एक पृष्ठ में और एक पैरा तीन पृष्ठों में पूरा होता है । यदि ऐसे लेखको और सम्पादको को केवल हिन्दी जाननेवाले पाठक अनुभव हीन और अयोग्य समझ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।

(१३) सार्वजनिक

जिन स्थानो पर सर्व साधारण का विस्तार होता है, उन पर दूसरो का विस्तार रोकना और केवल अपना ही विस्तार करना अनुचित है। ग्राम सड़क के बीच में अथवा उस पर चलने वाले लोगो के मार्ग में सड़ा होना अशिष्टता है। लोग बहुधा सड़को पर अपनी दूकाने बढ़ा लेते हैं अथवा चबूतरे बनाकर उनपर अपना रही विस्तार करते हैं। ये कार्य भी अनुचित हैं। कही कही लोग आवागमन के मार्ग मे गाड़ियां खड़ी कर देते हैं अथवा अपने सामान या माल का ढेर लगाते हैं । कोई-कोई लोग तो अपने उत्सवो के कारण सड़को पर पूरा अधिकार करके कुछ समय के लिए लोगो का आवागमन ही बंद कर देते हैं । यद्यपि ये सब अपराध कानून से दण्डनीय है तथापि इनमे शिष्टाचार का भी उल्नधन होता है।

सडको पर बहुधा ऐसी चीजें,न फेकना चाहिये जो घृणित हो अथवा जिनसे दूसरो के स्वास्थ्य में विघ्न पड़ने का भय हो । घरो के निकट इस प्रकार के विस्तार भी न किये जा जो स्वच्छता की दृष्टि से विषिद्ध हैं। सड़को की और पाखानो के दरवाजे न खोले जायें
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और न उनमे सडी-गली चीजें जमा की जायँ । लोग बहुधा रोगियो के स्नान का पानी अथवा उसके शरीर से निकली हुई दूसरी चीजें सडक पर इस विश्वास से फेक दिया करते हैं कि ऐसा करने से रोगी अच्छा हो जायगा और उसका रोग सड़क पर चलनेवालों को लग जायगा ! ये टोटके नीचता से परिपूर्ण हैं। सड़को पर पत्थर या काटे न टाले जायँ और यदि किसी को ये चीजें वहाँ मिल जाँय तो वह कृपा कर इहें सडक से अलग कर देवे । जहाँ तक हो ऐसे धन्धे-वाले लोगो को जिनके धन्यो म दुर्गध पूर्ण वस्तुओ का उपयोग होता है अपना काम-काज बस्ती से दूर करना चाहिये।

किसी सार्वजिनक स्थान को हानि पहुँचाना अथवा अपवित्र करना अथवा उसमें जाकर असभ्य व्यवहार करना शिष्टता के विरुद्ध है । कुएँ, तालाब अथवा नदी के जल को बिगाड़ना अथवा उनका उपयोग करने में किसी को रोकना कानून और शिष्टाचार दोनो के विरुद्ध है। जिन धर्म शालाओं या सरायों में लोगो को ठहरने के लिए बिना भाड़े के स्थान मिलता है उन्हें अपने उपयोग के पश्चाचात् स्वच्छ करके अथवा कराके छोडना चाहिये। सावजनिक स्थानों में कोई नशा करना, अश्लील गीत गाना अथवा किसी धर्म की निन्दा करना असभ्यता है । पुस्तकालयो में पुस्तको अोर मासिक- पत्रो को पढ़ने के पश्चात् यथा-स्थान रख देना चाहिये । उन्हें किसी प्रकार मोड़ना या फाइना न चाहिये।

खेल-तमाशो में स्थान छोड़कर बार-बार आना जाना, हल्ला करना, किसी के दृष्टि पथ को रोकना और व्यर्थ दंगा करना अनुचित है। जो स्थान स्त्रियो के लिए नियत हों उनमे पुरुषों को न जाना चाहिये और न उस मार्ग से निकलना चाहिये जहाँ से स्त्रियांँ आती जाती हों। नाटक वालों को ऐसे खेल न दिखाना चाहिये जिनसे दर्शकों को सुरुचि पर आघात पहुँचे या स्त्रियों की स्वाभा-
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विक लज्जा पर बुरा प्रभाव पड़े। नाटको में रंग मञ्च पर मृत्यु अथवा श्रृंगार-रस की पराकाष्ठा न दिखाई जावे और न करुणा-रस की अधिकता से दर्शको के चित्त में अत्यत व्याकुलता उत्पन्न की जावे।

सड़को पर या गलियों में अश्लील गीत गाते हुए निकलना असभ्यता है । जुलूस के अवसर को छोड़कर किसी दूसरे समय में अकेले व्यक्ति अथवा कुछ लोगो के समूह के लिए सड़क पर या गलियों में गाते हुए चलना अनुचित है। फकीर अथवा साधु लोग सड़को और गलियों में गाते हुए निकलते हैं, पर उनके पक्ष में ऐसा करना अशिष्ट नहीं समझा जाता । बस्ती के रास्तो में जोर-जोर से बातें करते हुए निकलना भी अनुचित है । कई एक महात्मा नग्न वस्था में स्त्री-पुरुषो को भीड़ के साथ सडको पर फिरते हैं। इन महात्माओ को ब्रह्म-ज्ञान के साथ-साथ कुछ शिष्टाचार-ज्ञान भी होना आवश्यक है। प्रत्येक मनुष्य को सड़क पर अपने बायें हाथ की ओर चलना चाहिये जिससे सवारियो और दूसरे लोगों को आने -जाने में सुभीता हो । व्याख्याताओ को अथवा उत्सव मनाने वालों को अपना काम सड़क के ऐसे भाग में न करना चाहिये जहाँ लोगो का आवागमन होता है

ऐसे कार्यालयों में जहाँ कई लोगो का काम रहता है, लोगो को समय के क्रम से अपना काम कराना चाहिये । कार्यालय के कर्म- चारी को भी उचित है कि वह पहले आये हुए व्यक्ति का कार्य पहले करे, चाहे वह किसी भी स्थिति का क्यो न हो। शिष्टाचार का पालन न करने से बहुधा अदालतो, डाकघरो और स्टेशनो में अपना-अपना काम शीघ्र निकालने की इन्छा के कारण पढ़े-लिखे लोगो में भी परस्पर धक्का-मुक्की हो जाती है। कभी-कभी बल वान और प्रतिष्ठित लोग दुसरो की आवश्यकता पर कुछ भी ध्यान
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न देकर अपना काम पहले कराने के लिए सब प्रकार के उचित और अनुचित उपाय करते हैं। हम लोगों में स्वार्थ-साधन की उत्सुकता और दूसरे के सुभीते की अवहेलना इतनी प्रबल है कि कभी कभी बलवान या धनवान लोग रेल गडिया में आराम से लेटे रहते हैं और निर्बल,बालक,वृद्ध और स्त्रीयाँ उनके सामने घटों खड़ी रहती हैं।

जिन मार्गों से मनुष्यों का आवागमन अधिकता से होता है उनमे से पशुओं को निकालना अथवा गाडियो या घोडों का बड़े वेग से दोड़ाना उचित नहीं। सड़क के किनारे रहने-वालो को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि वे अपने छोटे-छोटे बच्चो को सड़क पर खेलने या फिरने न देवें, क्योंकि ऐसा करने से दुर्घटनाओं की सम्भावना रहती है। कई एक गाड़ीवान इतने मूर्ख होते हैं कि वे परिणाम का कुछ भी ध्यान न कर अपनी गाड़ी को दूसरे की गाड़ी आगे निकालने के लिए उसे किसी भी तरफ बड़े जोर से चलाते हैं। ये लोग बहुधा अशिक्षित होने के कारण पैदल लोगों को एक तरफ हटने के लिए सूचना देने में सभ्यता पूर्वक बोलना ही नहीं जानते।

( १४ ) बाल-शिष्टाचार

लड़को में बहुधा आपसी झगड़े हो जाते हैं, जिनका एक मुख्य कारण उन लोगों में शिष्टाचार को शिक्षा का साधारण अभाव है। यद्यपि पाठ-शालाओं में शिष्टाचार को थोड़ी-बहुत शिक्षा प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से दी जाती है तथापि विद्यार्थी अपनी अवस्था के प्रभाव में पड़कर बहुधा व्यवहार में उस शिक्षा को भूल जाते हैं। कई विद्वानों का ऐसा मत है कि लड़को को शिष्टाचार की शिक्षा देना मानो उन्हें बंधन में डालना है, पर अनुभव से इस बात की
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आवश्यकता जानी जाती है कि लड़को को शिष्टाचार की मोटी-मोटी बातें बताई जावें और उनके अनुसार उनसे कार्य कराया जावे।

लड़कों के बहुतसे आपसी झगडे व्यक्तिगत मिथ्या अभिमान से उत्पन्न होते हैं। कोई लड़का अपने को औरों से अधिक बलवान समझकर उनका अनादर करता है, कोई पढ़ने लिखने में बहुत अधिक चञ्चल होने के कारण दूसरो को मूर्ख समझता है और कोई सीधे स्वभाव वाला विद्यार्थी उपद्रवी लड़को से मन ही घृणा करता है । इन अवस्थाओं में बहुधा अनबन हो जाती है और लड़के एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयत्न करते हैं। कोई-लडके अपने पिता के धन या उच्च पद के अभिमान में दूसरे लड़को के सामने दून की हांकते हैं और यदि कोई लड़का उनके बात का खण्डन कर देता है तो वे उससे बदला लेने की घात में रहते हैं। किसी-किसी विद्यार्थी का स्वभाव ही ऐसा दूषित हो है कि वह अपने मिथ्या महत्व के आगे किसी भी लडके का महत्व सहन ही नहीं कर सकता । कई-पको में अपनी पोशाक ही ऐसा अभिमान होता है कि वे दूसरे लड़को से सीधे बात ही नहीं करते और नम्र से नम्र प्रश्न का उत्तर बड़ी ऐंठ के साथ देते है यहाँ कदाचित् यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि इन दुर्गुणों से केवल लड़को की ही नहीं, किन्तु उनके माता-पिता की बड़ी निन्दा होती है।

लड़को और विद्याथियो में कुसगति से बड़े-बड़े दोष उत्पन्न जाते हैं, इसलिये माता-पिता को यह बात अवश्य देखना चाहिए कि लड़का किन लोगो की संगति में रहता है। कभी-कभी बुरे और नीच लोग भी स्वार्थ-वश अथवा अपनी दुष्प्रकृति के कारण कम उमर के लड़की को दुराचरण सिखाते हैं । ऐसे लोगो की संगती
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से भी छोटे छोटे लड़कों को बचाना चाहिये। कोमल मति होने के कारण बहुधा लड़के उचित और अनुचित का शीघ्र निर्णय नहीं कर सकते और सरलता से गड्ढे में गिर जाते हैं। ऐसी अवस्था में उन्हे कम से कम शिष्टाचार की शिक्षा तो अवश्य दी जाये जिसमे लड़के बुरे आचरण वाले साथियो और लोगों से अपने को बचा सकें।

लड़कों की अनबन का एक प्रमुख कारण एक दूसरे को चिढ़ाना अथवा आपस में अनुचित हंसी-ठट्टा करना है, इसलिये प्रत्येक समझदार विद्यार्थी का यह कत्तव्य है कि वह दूसरे से व्यर्थ हंसी-ठट्टा न करे। दूसरे को चिढ़ाने या उसकी हंसी उड़ाने में जो मिथ्या आनन्द प्राप्त होता है उसकी प्रेरणा से लड़के तो क्या, बड़ी उमर वाले भी कभी कभी नहीं बच सकते। ऐसी अवस्था में यह बात बहुत आवश्यक है कि लड़को की यह दूषित प्रवृत्ति यथा-सम्भव कम की जाये। यदि लड़के स्वयं इस बात को सोचे कि जिसको ये चिढ़ाते हैं उसके मन में कितना खेद न होता होगा तो वे स्वयं दूसरे के मन को व्यर्थ दुखाने से अवश्य पीछे हटेंगे। तुलसीदास जी ने कहा है कि “परहित सरिस धर्म नहि भाई। पर पीड़ा सम नहिं अपमाई॥" जो लड़का दूसरे को न चिढ़ावेगा उसे सम्भवत दूसरे लड़के कभी न चिढ़ावेंगे। लड़को को चाहिये कि वे मिलकर ऐसे व्यक्ति के दोषो को रोके जो दूसरो के साथ व्यर्थ हंसी मजाक करता है या उनको अश्लीलता सिखाता है।

लड़को के मिथ्याभिमान से भी बड़े-बड़े अनर्थ होते हैं। लड़के बहुधा अपनी बड़ाई और दूसरे की निन्दा करने में बड़ा आनन्द मानते हैं। गरीब लड़के तो इन मिथ्याभिमानी लड़को की दृष्टि में किसी प्रकार योग्य ही नहीं ठहरते। विद्या-सम्बन्धी मिथ्याभिमान के वशीभूत होकर लड़के बहुधा व्यर्थ वाद विवाद में प्रवृत हो जाते
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आवश्यकता जानी जाती है कि लड़कों को शिष्टाचार की मोटी-मोटी बातें बताई जावें और उनके अनुसार उनसे कार्य कराय जावे।

लड़को के बहुतसे आपसी झगडे व्यक्तिगत मिथ्या अभिमान से उत्पन्न होते हैं। कोई लड़का अपने को औरों से अधिक बलवान समझकर उनका अनादर करता है, कोई पढ़ने-लिखने में कुछ अधिक चंच्चल होने के कारण दूसरों को मूर्ख समझता है और कोई सीधे स्वभाव वाला विद्यार्थी उपद्रवी लड़को से मन ही मन घृणा करता है। इन अवस्थाओं में बहुधा अनबन हो जाती है और लड़के एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयत्न करते हैं। कोई-कोई लडके अपने पिता के धन या उच्च पद के अभिमान में दूसरे लड़को के सामने दून की हॉकते हैं और यदि कोई लड़का उनकी बात का खण्डन कर देता है तो वे उससे बदला लेने की घात में रहते हैं। किसी किसी विद्यार्थी का स्वभाव ही ऐसा दूषित होता है कि वह अपने मिथ्या महत्व के आगे किसी भी लड़के का महत्व सहन ही नहीं कर सकता । कई-एको में अपनी पोशाक ही का ऐसा अभिमान होता है कि वे दूसरे लड़को से सीधे बात ही नहीं करते और नम्र से नम्र प्रश्न का उत्तर बड़ी ऐंठ के साथ देते हैं । यहाँ कदाचित् यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि इन दुर्गुण से केवल लड़को की ही नहीं, किन्तु उनके माता-पिता की भी बड़ी निन्दा होती है।

लड़को और विद्याथियों में कूसंगति से बड़े-बड़े दोष उत्पन हो जाते हैं , इमलिये माता पिता को यह बात अवश्य देखना चाहिये कि लड़का किन लोगो को संगति में रहता है। कभी-कभी दुष्ट और नीच लोग भी स्वार्थ-वश अथवा अपनी दुष्प्रकृति के कारण कम उमर के लड़कों को दुराचरण सिखाते हैं। ऐसे लोगो की संगति
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से भी छोटे छोटे लडकों को बचाना चाहिये । कोमल मति होने के कारण बहुधा लड़के उचित और अनुचित का शीघ्र निर्णय नहीं कर सकते और सरलता से गड्ढे में गिर जाते हैं। ऐसी अवस्था में उन्हे कम से कम शिष्टाचार की शिक्षा तो आवश्य दी जावे जिससे लड़के बुरे आचरण वाले साथियो ओर लोगों से अपने को बचा सके।

लड़को की अनबन का एक प्रमुख कारण एक दूसरे को चिढ़ाना अथवा आपस में अनुचित हंसी ठट्ठा करना है, इसलिये प्रत्येक समझदार विद्यार्थी का यह कर्तव्य है कि वह दूसरे से यर्थ हंसी ठट्ठा न करे । दूसरे को बिढ़ाने या उसकी हँसी उड़ाने में जो मिथ्या आन्नद प्राप्त होता है उसकी प्रेरणा से लड़के तो क्या, बड़ी उमर-वाले भी कभी-कभी नहीं बच सकते । ऐसी अवस्था में यह बात बहुत आवश्यक है कि लड़को की यह दूषित प्रवृत्ति यथा- सम्भव कम की जावे। यदि लड़ने स्वय इस बात को सोचें कि जिसको वे चिढ़ाते हैं उसके मन मे कितना खेद न होता होगा तो वे स्वयं दूसरे के मन को व्यथ दुखाने से अवश्य पीछे हटेंगे। तुलसी- दास जी ने कहा है कि “परहित सरिस धर्म नहि भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥" जो लड़का दूसरे को न चिढावेगा उसे सम्भवत दूसरे लड़के कभी न चिढ़ावेंगे। लड़को को चाहिये कि वे मिलकर ऐसे व्यक्ति के दोषो को रोकें जो दूसरो के साथ व्यर्थ हंसी मजाक करता है या उनसे अश्लीलता सिखाता है।

लड़को के मिथ्याभिमान से भी बडे-बड़े अनर्थ होते हैं। लडके बहुधा अपनी बड़ाई और दूसरे की निन्दा करने मे बडा आंनद मानते हैं । गरीब लडके तो इन मिथ्यामिमानी लड़को की दृष्टि में किसी प्रकार योग्य ही नहीं ठहरते। विद्या-सम्बन्धी मिथ्याभिमान के वशीभूत होकर लडके बहुधा व्यर्थ वाद विवाद में प्रवृत्त हो जाते
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हैं और एक दूसरे की बात हठ पूर्वक काटने लगते हैं। कभी-कभी ये लोग ऐसी सम्मतियाँ प्रकट करते हैं जो केवल बड़ी उमर-वाले अथवा अनुभवी लोग ही प्रगट कर सकते हैं। इतना ही नहीं, ये लोग कभी-कभी अपने से अधिक ज्ञान वाले तरुण पुरुषों से भी बहस और हुज्जत करने लगते हैं। इन दोषो से बचने के लिए विद्यार्थियों को चाहिये कि वे ऐसी बातो में बहुत सोच-समझकर भाग लेवें।

कई-एक उद्दड लडके दूसरे लडको को व्यर्थ ही दवाते हैं और कभी-कभी उनसे कुछ खींच भी लेते हैं । दूसरे लडको को चाहिये कि ऐसे दुष्ट लड़कों के साथ कभी घनिष्ठता न बढावें ओर केवल ऊपरी मेल-जोल रक्खे । कोई कोई लडके तो यहाँ तक नीव होते हैं कि आप तो पढ़ने में मन लगाते नहीं और ईर्षा-वश दूसरे लड़कों का मन पढ़ने से हटाने का उपाय करते हैं। कोई-कोई बड़े आद- मियो के मद बुद्धि लड़के गरीब आदमियों के तीर-बुद्धि लड़को से मन ही मन ईर्षा रखते हैं और उनके कामो में विघ्न डालते हैं।

लड़के बहुधा छोटी-छोटी बातों में एक दूसरे से अप्रसन्न हो जाते है और अपनी इच्छा की अपूर्ति को मान-भग समझकर परस्पर लड़ बेठते हैं । इसलिये उन्हे उचित है कि ये किसी से अप्रसन्न होने के पहले कम से कम एक बार इतना अवश्य सोच लिया करें कि उनका ऐसा करना उचित है या नहीं। लड़को में बहुधा स्वार्थ की इतनी अधिक मात्रा रहती है कि वे प्रायः प्रत्येक बात में अपनी ही टेक चलाते हैं और दूसरे के हानि-लाभ अथवा सुख दुख का बहुत कम विचार करते हैं । यदि कोई उनसे उन्हीं के लाभ की बात कहे तो उसमें भी वे विश्वास नहीं करते। यही कारण है कि क्सुङ्ग में पड़े हुए लड़के कठिनाई से सुधरते हैं। लड़कों की वृद्धि कच्ची होने के कारण वे बहुत दूर तक विचार
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नहीं कर सकते जिसके कारण वे बहुधा धूर्त लोगो के फुसलावे में जाते हैं। यदि लडके शिष्टाचार की बाते स्वयं नहीं समझ सकते तो उनके माता पिता का कर्त्तव्य है कि वे संतान को सभ्य-आचरण की शिक्षा देवें।


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