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हिन्द स्वराज/३

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हिन्द स्वराज
लेखक:मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी

अहमदाबाद - १४: हिंदी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, पृष्ठ ३२ से – ४३ तक

 

कांग्रेस और उसके कर्ता-धर्ता

पाठक: आजकल हिंदुस्तानमें स्वराज्यकी हवा चल रही है। सब हिंदुस्तानी आज़ाद होनेके लिए तरस रहे हैं। दक्षिण अफ्रिकामें भी वही जोश दिखाई दे रहा है। हिंदुस्तानियोंमें अपने हक पानेकी बड़ी हिम्मत आई हुई मालूम होती है। इस बारेमें क्या आप अपने ख़याल बतायेंगे?

संपादक: आपने सवाल ठीक पूछा है। लेकिन इसका जवाब देना आसान बात नहीं है। अखबारका एक काम तो है लोगोंकी भावनायें जानना और उन्हें ज़ाहिर करना; दूसरा काम है लोगोंमें अमुक ज़रूरी भावनायें पैदा करना; और तीसरा काम है लोगोंमें दोष हों तो चाहे जितनी मुसीबतें आने पर भी बेधड़क होकर उन्हें दिखाना। आपके सवालका जवाब देनेमें ये तीनों काम साथ-साथ आ जाते हैं। लोगोंकी भावनायें कुछ हद तक बतानी होंगी, न हों वैसी भावनायें उनमें पैदा करनेकी कोशिश करनी होगी और उनके दोषोंकी निंदा भी करनी होगी। फिर भी आपने सवाल किया है, इसलिए उसका जवाब देना मेरा फ़र्ज मालूम होता है।

पाठक: क्या स्वराज्यकी भावना हिन्दमें पैदा हुई आप देखते हैं?

संपादक: वह तो जबसे नेशनल कांग्रेस कायम हुई तभीसे देखनेमें आई है। 'नेशनल' शब्दका अर्थ ही वह विचार ज़ाहिर करता है।

पाठक: यह तो आपने ठीक नहीं कहा। नौजवान हिन्दुस्तानी आज कांग्रेसकी परवाह ही नहीं करते। वे तो उसे अंग्रेजोंका राज्य निभानेका साधन[] मानते हैं।

संपादक: नौजवानोंका ऐसा ख़याल ठीक नहीं है। हिन्दके दादा दादाभाई नौरोजीने ज़मीन तैयार नहीं की होती, तो नौजवान आज जो बातें
कर रहे हैं वह भी नहीं कर पाते। मि॰ ह्यूमने जो लेख लिखे, जो फटकारें हमें सुनाईं, जिस जोशसे हमें जगाया, उसे कैसे भुलाया जाय? सर विलियम वेडरबर्नने कांग्रेसका मकसद हासिल करनेके लिए अपना तन, मन और धन सब दे दिया था। उन्होंने अंग्रेजी राज्यके बारेमें जो लेख लिखे हैं, वे आज भी पढ़ने लायक हैं। प्रोफेसर गोखलेने जनताको तैयार करने के लिए, भिखारीके जैसी हालत में रहकर, अपने बीस साल दिये हैं। आज भी वे गरीबीमें रहते हैं। मरहूम जस्टिस बदरुद्दीनने भी कांग्रेस के ज़रिये स्वराज्यका बीज बोया था। यों बंगाल, मद्रास, पंजाब वगैरामें कांग्रेसका और हिंदका भला चाहनेवाले कई हिन्दुस्तानी और अंग्रेज लोग हो गये हैं, यह याद रखना चाहिये।

पाठक: ठहरिये, ठहरिये। आप तो बहुत आगे बढ़ गये। मेरा सवाल कुछ है और आप जवाब कुछ और दे रहे हैं। मैं स्वराज्यकी बात करता हूँ और आप परराज्यकी बात करते हैं। मुझे अंग्रेजों का नाम तक नहीं चाहिये और आप तो अंग्रेजों के नाम देने लगे। इस तरह तो हमारी गाड़ी राह पर आये, ऐसा नहीं दिखता। मुझे तो स्वराज्यकी ही बातें अच्छी लगती हैं। दूसरी मीठी सयानी बातों से मुझे संतोष नहीं होगा।

संपादक: आप अधीर हो गये हैं। मैं अधीरपन बरदाश्त नहीं कर सकता। आप जरा सब्र करेंगे तो आपको जो चाहिये वही मिलेगा। ‘उतावलीसे आम नहीं पकते, दाल नहीं चुरती'-यह कहावत याद रखिये। आपने मुझे रोका और आपको हिन्द पर उपकार करनेवालोंकी बात भी सुननी अच्छी नहीं लगती, यह बताता है कि अभी आपके लिए स्वराज्य दूर है। आपके जैसे बहुतसे हिन्दुस्तानी हों, तो हम (स्वराज्यसे) दूर हट कर पिछड़ जायेंगे। वह बात जरा सोचने लायक है।

पाठक: मुझे तो लगता है कि ये गोल-मोल बातें बनाकर आप मेरे सवाल का जवाब उड़ा देना चाहते हैं। आप जिन्हें हिन्दुस्तान पर उपकार करनेवाले मानते हैं, उन्हें मैं ऐसा नहीं मानता; फिर मुझे किसके उपकारकी बात सुननी है? आप जिन्हें हिन्दके दादा कहते हैं, उन्होंने क्या उपकार
किया? वे तो कहते हैं कि अंग्रेज राजकर्ता न्याय करेंगे और उनसे हमें हिलमिल कर रहना चाहिये।

संपादक: मुझे सविनय[] आपसे कहना चाहिये कि उस पुरुषके बारेमें आपका बेअदबीसे यों बोलना हमारे लिए शरम की बात है। उनके कामोंकी ओर देखिये । उन्होंने अपना जीवन हिन्दको अर्पण[] कर दिया है। उनसे यह सबक हमने सीखा। हिन्दका खून अंग्रेजोंने चूस लिया है, यह सिखानेवाले माननीय दादाभाई हैं। आज उन्हें अंग्रेजों पर भरोसा है उससे क्या? हम जवानी के जोशमें एक कदम आगे रखते हैं, इससे क्या दादाभाई कम पूज्य हो जाते हैं? इसे क्या हम ज्यादा ज्ञानी हो गये? जिस सीढ़ी से हम ऊपर चढ़े उसको लात न मारनेमें ही बुद्धिमानी[] है। अगर वह सीढ़ी निकाल दें तो सारी निसैनी गिर जाय, यह हमें याद रखना चाहिये। हम बचपनसे जवानीमें आते हैं तब बचपनसे नफरत नहीं करते, बल्कि उन दिनोंको प्यारसे याद करते हैं । बरसों तक अगर मुझे कोई पढ़ाता है और उससे मेरी जानकारी जरा बढ़ जाती है, तो इससे मैं अपने शिक्षक[] से ज्यादा ज्ञानी नहीं माना जाऊंगा; अपने शिक्षकको तो मुझे मान[] देना ही पड़ेगा। इसी तरह हिन्दके दादाके बारेमें समझना चाहिये। उनके पीछे (सारी) हिन्दुस्तानी जनता है, यह तो हमें कहना ही पड़ेगा।

पाठक: यह आपने ठीक कहा । दादाभाई नौरोजीकी इज़्ज़त करना चाहिये, यह तो समझ सकते हैं। उन्होंने और उनके जैसे दूसरे पुरुषोंने जो काम किये हैं, उनके बगैर हम आजका जोश महसूस नहीं कर पाते, यह बात ठीक लगती है। लेकिन यही बात प्रोफेसर गोखले साहबके बारेमें हम कैसे मान सकते हैं? वे तो अंग्रेजोंके बड़े भाईबंद बन कर बैठे हैं; वे तो कहते हैं कि अंग्रजोंसे हमें बहुत कुछ सीखना है। अंग्रेजोंकी राजनीतिसे हम वाकिफ़ हो जायं, तभी स्वराज्यकी बातचीत की जाय। उन साहबके भाषणोंसे तो मैं ऊब गया हूँ। संपादक: आप ऊब गये हैं,यह दिखाता है कि आपका मिज़ाज उतावला है। लेकिन जो नौजवान अपने माँ-बापके ठंडे मिज़ाजसे ऊब जाते हैं और वे(मां-बाप) अगर अपने साथ न दौड़ें तो गुस्सा होते हैं, वे अपने मां-बाप का अनादर[] करते हैं ऐसा हम समझते हैं। प्रोफेसर गोखलेके बारेमें भी ऐसा ही समझना चाहिये। क्या हुआ अगर प्रोफेसर गोखले हमारे साथ नहीं दौड़ते हैं? स्वराज्य भुगतनेकी इच्छा रखने वाली प्रजा अपने बुजुर्गोंका तिरस्कार[] नहीं कर सकती। अगर दूसरे की इज़्ज़त करनेकी आदत हम खो बैठें, तो हम निकम्मे हो जायेंगे। जो प्रौढ़[] और तजरबेकार हैं, वे ही स्वराज्य भुगत सकते हैं, न कि बे-लगाम लोग। और देखिये कि जब प्रोफेसर गोखलेने हिन्दुस्तानकी शिक्षा[१०] के लिए त्याग किया तब ऐसे कितने हिन्दुस्तानी थे? मैं तो खास तौर पर मानता हूँ कि प्रोफेसर गोखले जो कुछ भी करते हैं वह शुद्ध भावसे और हिन्दुस्तानका हित मानकर करते हैं। हिन्दके लिए अगर अपनी जान भी देनी पड़े तो वे दे देंगे, ऐसी हिन्दके लिए उनकी भक्ति है। वे जो कुछ कहते हैं वह किसी की खुशामद करने के लिए नहीं, बल्कि सही मानकर कहते हैं। इसलिए हमारे मनमें उनके लिए पूज्य भाव होना चाहिये।

पाठक: तो क्या वे साहब जो कहते हैं उसके मुताबिक हमें भी करना चाहिये?

संपादक: मैं ऐसा कुछ नहीं कहता। अगर हम शुद्ध बुद्धिसे अलग राय रखते हैं, तो उस रायके मुताबिक चलनेकी सलाह खुद प्रोफेसर साहब हमें देंगे। हमारा मुख्य काम तो यह है कि हम उनके कामोंकी निन्दा न करें; हमसे वे महान हैं ऐसा मानें और यकीन रखें कि उनके मुकाबिलेमें हमने हिन्दके लिए कुछ भी नहीं किया है। उनके बारे में कुछ अखबार जो अशिष्टतापूर्वक[११] लिखते हैं उसकी हमें निन्दा करनी चाहिये और प्रोफेसर गोखले जैसोंको हमें स्वराज्य के स्तंभ[१२] मानना चाहिये। उनके ख़याल गलत और हमारे ही सही हैं, या हमारे ख़यालों के मुताबिक़ न बरतनेवाले देशके
दुश्मन हैं, ऐसा मान लेना बुरी भावना है।

पाठक: आप जो कुछ कहते हैं वह अब मेरी समझमें कुछ आता है। फिर भी मुझे उसके बारेमें सोचना होगा। पर मि० ह्यूम, सर विलियम वेडरबर्न वगैराके बारेमें आपने जो कहा उसमें तो हद हो गई।

संपादक: जो नियम हिन्दुस्तानियोंके बारेमें है, वही अंग्रेजोंके बारेमें समझना चाहिये। सारेके सारे अंग्रेज बुरे हैं, ऐसा तो मैं नहीं मानूंँगा। बहुतसे अंग्रेज चाहते हैं कि हिन्दुस्तानको स्वराज्य मिले। उस प्रजामें स्वार्थ ज्यादा है यह ठीक है, लेकिन उससे हरएक अंग्रेज बुरा है ऐसा साबित नहीं होता। जो हक-न्याय[१३]-चाहते हैं, उन्हें सबके साथ न्याय करना होगा। सर विलियम हिन्दुस्तानका बुरा चाहनेवाले नहीं हैं, इतना हमारे लिए काफी है। ज्यों ज्यों हम आगे बढ़ेंगे त्यों त्यों आप देखेंगे कि अगर हम न्यायकी भावनासे काम लेंगे, तो हिन्दुस्तानका छुटकारा जल्दी होगा। आप यह भी देखेंगे कि अगर हम तमाम अंग्रेजोंसे द्वेष[१४] करेंगे, तो उससे स्वराज्य दूर ही जानेवाला है; लेकिन अगर उनके साथ भी न्याय करेंगे, तो स्वराज्यके लिए हमें उनकी मदद मिलेगी।

पाठक: अभी तो ये सब मुझे फिजूलकी बड़ी बड़ी बातें लगती हैं। अंग्रेजोंकी मदद मिले और उससे स्वराज्य मिल जाय, ये तो आपने दो उलटी बातें कहीं। लेकिन इस सवालका हल अभी मुझे नहीं चाहिये। उसमें समय बिताना बेकार है। स्वराज्य कैसे मिलेगा, यह जब आप बतायेंगे तब शायद आपके विचार मैं समझ सकूंँ तो समझ सकूंँ। फिलहाल तो अंग्रेजोंकी मददकी आपकी बातने मुझे शंकामें डाल दिया है और आपके विचारोंके खिलाफ मुझे भरमा दिया है। इसलिए यह बात आप आगे न बढ़ायें तो अच्छा हो।

संपादक: मैं अंग्रेजोंकी बातको बढ़ाना नहीं चाहता। आप शंकामें पड़ गये, इसकी कोई फिकर नहीं। मुझे जो महत्त्व[१५]की बात कहनी है, उसे पहलेसे ही बता देना ठीक होगा। आपकी शंकाको धीरजसे दूर करना मेरा फर्ज़ है। पाठक: आपकी यह बात मुझे पसन्द आयी। इससे मुझे जो ठीक लगे वह बात कहनेकी मुझमें हिम्मत आई है। अभी मेरी एक शंका रह गई है। कांग्रेसके आरम्भसे स्वराज्यकी नींव पड़ी, यह कैसे कहा जा सकता है?

संपादक: देखिये, कांग्रेसने अलग अलग जगहों पर हिन्दुस्तानियोंको इकट्ठा करके उनमें ‘हम एक-राष्ट्र हैं’ ऐसा जोश पैदा किया। कांग्रेस पर सरकारकी कड़ी नज़र रहती थी। महसूलका हक प्रजाको होना चाहिये, ऐसी मांग कांग्रेसने हमेशा की है। जैसा स्वराज्य कैनेड़ामें है वैसा स्वराज्य कांग्रेसने हमेशा चाहा है । वैसा स्वराज्य मिलेगा या नहीं मिलेगा, वैसा स्वराज्य हमें चाहिये या नहीं चाहिये, उससे बढ़कर दूसरा कोई स्वराज्य है या नहीं, यह सवाल अलग है। मुझे दिखाना तो इतना ही है कि कांग्रेसने हिन्दको स्वराज्यका रस चखाया। इसका जस कोई और लेना चाहे तो वह ठीक न होगा, और हम भी ऐसा मानें तो बेक़दर[१६] ठहरेंगे। इतना ही नहीं, बल्कि जो मक़सद हम हासिल करना चाहते हैं उसमें मुसीबतें पैदा होंगी । कांग्रेसको अलग समझने और स्वराज्यके ख़िलाफ माननेसे हम उसका उपयोग नहीं कर सकते।

बंग-भंग

पाठक: आप कहते हैं उस तरह विचार करने पर यह ठीक लगता है कि कांग्रेसने स्वराज्यकी नींव डाली। लेकिन यह तो आप मानेंगे कि वह सही जागृति[१७] नहीं थी। सही जागृति कब और कैसे हुई?

संपादक: बीज हमेशा हमें दिखाई नहीं देता। वह अपना काम ज़मीनके नीचे करता है और जब खुद मिट जाता है तब पेड़ ज़मीनके ऊपर देखनेमें आता है। कांग्रेसके बारेमें ऐसा ही समझिये। जिसे आप सही जागृति मानते हैं वह तो बंग-भंगसे हुई, जिसके लिए हम लॉर्ड कर्ज़नके आभारी हैं। बंग-भंगके वक्त बंगालियोंने कर्जन साहबसे बहुत प्रार्थना की, लेकिन वे साहब अपनी सत्ताके मदमें लापरवाह रहे। उन्होंने मान लिया कि हिन्दुस्तानी लोग सिर्फ बकवास ही करेंगे, उनसे कुछ भी नहीं होगा । उन्होंने अपमानभरी भाषाका प्रयोग किया और ज़बरदस्ती बंगालके टुकड़े किये। हम यह मान सकते हैं कि उस दिनसे अंग्रेजी राज्यके भी टुकड़े हुए। बंग-भंगसे जो धक्का अंग्रेजी हुकूमतको लगा, वैसा और किसी कामसे नहीं लगा । इसका मतलब यह नहीं कि जो दूसरे गैर-इन्साफ़ हुए, वे बंग-भंगसे कुछ कम थे। नमक-महसूल कुछ कम गैर-इन्साफ़ नहीं है। ऐसा और तो आगे हम बहुत देखेंगे। लेकिन बंगालके टुकड़े करनेका विरोध[१८] करनेके लिए प्रजा तैयार थी। उस वक्त प्रजाकी भावना बहुत तेज़ थी। उस समय बंगालके बहुतेरे नेता अपना सब कुछ न्यौछावर करनेको तैयार थे। अपनी सत्ता, अपनी ताकतको वे जानते थे। इसलिए तुरन्त आग भड़क उठी। अब वह बुझनेवाली नहीं है, उसे बुझानेकी ज़रूरत भी नहीं है। ये टुकड़े क़ायम नहीं रहेंगे, बंगाल फिर एक हो जायगा। लेकिन अंग्रेजी जहाजमें जो दरार पड़ी है, वह तो हमेशा रहेगी ही। वह दिन-ब-दिन चौड़ी होती जायगी। जागा हुआ हिन्द फिर सो जाय, वह
नामुमकिन है। बंग-भंगको रद करनेकी मांग स्वराज्यकी मांगके बराबर है। बंगालके नेता यह बात खूब जानते हैं। अंग्रेजी हुकूमत भी यह बात समझती है। इसीलिए टुकड़े रद नहीं हुए। ज्यों ज्यों दिन बीतते जाते हैं, त्यों त्यों प्रजा तैयार होती जाती है। प्रजा एक दिनमें नहीं बनती; उसे बननेमें कई बरस लग जाते हैं।

पाठक: बंग-भंगके नतीजे आपने क्या देखे?

संपादक: आज तक हम मानते आये हैं कि बादशाहसे अर्ज़ करना चाहिये और वैसा करने पर भी दाद न मिले तो दुःख सहन करना चाहिये; अलबत्ता, अर्ज़ तो करते ही रहना चाहिये। बंगालके टुकड़े होनेके बाद लोगोंने देखा कि हमारी अर्ज़ के पीछे कुछ ताक़त चाहिये, लोगोंमें कष्ट सहन करनेकी शक्ति चाहिये। यह नया जोश टुकड़े होनेका अहम नतीजा माना जायगा। यह जोश अखबारोके लेखोंमें दिखाई दिया। लेख कड़े होने लगे। जो बात लोग डरते हुए या चोरी-चुपके करते थे, वह खुल्लमखुल्ला होने लगी-लिखी जाने लगी। स्वदेशीका आन्दोलन[१९] चला। अंग्रेजोंको देखकर छोटे-बड़े सब भागते थे, पर अब नहीं डरते; मार-पीटसे भी नहीं डरते; जेल जानेमें भी उन्हें कोई हर्ज नहीं मालूम होता; और हिन्दके पुत्ररत्न आज देशनिकाला भुगतते हुए (विदेशोंमें) विराजमान हैं। यह चीज उस अर्ज़से अलग है। यों लोगोंमें खलबली मच रही है। बंगालकी हवा उत्तरमें पंजाब तक और (दक्षिणमें) मद्रास इलाकेमें कन्याकुमारी तक पहुँच गई है।

पाठक: इसके अलावा और कोई जानने लायक नतीजा आपको सूझता है?

संपादक: बंग-भंगसे जैसे अंग्रेजी जहाजमें दरार पड़ी है, वैसे ही हममें भी दरार-फूट-पड़ी है। बड़ी घटनाओंके परिणाम[२०]भी यों बड़े ही होते हैं। हमारे नेताओंमें दो दल हो गये हैं: एक मॉडरेट और दूसरा एक्स्ट्रीमिस्ट। उनको हम ‘धीमे’ और ‘उतावले' कह सकते हैं। (‘नरम दल’ व ‘गरम दल’ शब्द भी चलते हैं।) कोई मॉडरेटको डरपोक पक्ष और एक्स्ट्रीमिस्टको हिम्मतवाला
पक्ष भी कहते हैं। सब अपने अपने ख़यालोंके मुताबिक इन दो शब्दोंका अर्थ करते हैं। यह सच है कि ये जो दल हुए हैं, उनके बीच ज़हर भी पैदा हुआ है। एक दल दूसरेका भरोसा नहीं करता, दोनों एक-दूसरेको ताना मारते हैं। सुरत कांग्रेसके समय करीब करीब मार-पीट भी हो गई। ये जो दो दल हुए हैं वह देशके लिए अच्छी निशानी<reg>चिह्न।</ref> नहीं है, ऐसा मुझे तो लगता है। लेकिन मैं यह भी मानता हूँ कि ऐसे दल लम्बे अरसे तक टिकेंगे नहीं। इस तरह कब तक ये दल रहेगे, यह तो नेताओं पर आधार रखता है।

अशांति और असंतोष

पाठक: तो आपने बंग-भंगको जागृतिका कारण माना। उससे फैली हुई अशांतिको ठीक समझा जाय या नहीं?

संपादक: इनसान नींदमें से उठता है तो अंगड़ाई लेता है, इधर-उधर घूमता है और अशान्त[२१] रहता है। उसे पूरा भान[२२]आनेमें कुछ वक्त लगता है। उसी तरह अगरचे बंग-भंगसे जागृति आई है, फिर भी बेहोशी नहीं गई है। अभी हम अंगड़ाई लेनेकी हालतमें है। अभी अशान्तिकी हालत है। जैसे नींद और जागके बीचकी हालत ज़रूरी मानी जानी चाहिये और इसलिए वह ठीक कही जायगी, वैसे बंगालमें और उस कारणसे हिन्दुस्तानमें जो अशान्ति फैली है वह भी ठीक है। अशान्ति है यह हम जानते हैं, इसलिए शान्तिका समय आनेकी शक्यता[२३]है। नींदसे उठनेके बाद हमेशा अंगड़ाई लेनेकी हालतमें हम नहीं रहते, लेकिन देर-सबेर अपनी शक्तिके मुताबिक पूरे जागते ही हैं। इसी तरह इस अशान्तिमें से हम ज़रूर छूटेंगे। अशान्ति किसीको नहीं भाती।

पाठक: अशान्तिका दूसरा रूप क्या है?

संपादक: अशान्ति असलमें असंतोष है। उसे आजकल हम ‘अनरेस्ट' कहते हैं। कांग्रेसके जमानेमें वह ‘डिस्कन्टेन्ट' कहलाता था। मि. ह्यूम हमेशा 
कहते थे कि हिन्दुस्तानमें असंतोष फैलानेकी ज़रूरत है। यह असंतोष बहुत उपयोगी चीज है। जब तक आदमी अपनी चालू हालतमें खुश रहता है, तब तक उसमें से निकलनेके लिए उसे समझाना मुश्किल है। इसलिए हर एक सुधारके पहले असंतोष होना ही चाहिये। चालू चीजसे ऊब जाने पर ही उसे फेंक देनेको मन करता है। ऐसा असंतोष हममें महान हिन्दुस्तानियोंकी और अंग्रेजोंकी पुस्तकें पढ़कर पैदा हुआ है। उस असंतोषसे अशान्ति पैदा हुई; और उस अशान्तिमें कई लोग मरे, कई बरबाद हुए, कई जेल गये, कईको देशनिकाला हुआ। आगे भी ऐसा होगा; और होना चाहिये। ये सब लक्षण[२४] अच्छे माने जा सकते हैं। लेकिन इनका नतीजा बुरा भी हो सकता है।

स्वराज्य क्या है?

पाठक: कांग्रेसने हिन्दुस्तानको एक-राष्ट्र बनानेके लिए क्या किया, बंग-भंगसे जागृति कैसे हुई, अशान्ति और असंतोष कैसे फैले, यह सब जाना। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि स्वराज्यके बारेमें आपके क्या ख़याल है। मुझे डर है कि शायद हमारी समझमें फ़रक हो।

संपादक: फ़रक होना मुमकिन है। स्वराज्यके लिए आप-हम सब अधीर बन रहे हैं, लेकिन वह क्या है इस बारेमें हम ठीक राय पर नहीं पहुंचे हैं। अंग्रेजोंको निकाल बाहर करना चाहिये, यह विचार बहुतोंके मुँह से सुना जाता है; लेकिन उन्हें क्यों निकालना चाहिये, इसका कोई ठीक ख़याल किया गया हो ऐसा नहीं लगता। आपसे ही एक सवाल मैं पूछता हूँ। मान लीजिये कि हम माँगते हैं उतना सब अंग्रेज हमें दे दें, तो फिर उन्हें (यहाँसे) निकाल देनेकी ज़रूरत आप समझते हैं?

पाठक: मैं तो उनसे एक ही चीज मांगूँगा। वह है: मेहरबानी करके आप हमारे मुल्कसे चले जायें। यह माँग वे कबूल करें और हिन्दुस्तानसे चले जायं,
तब भी अगर कोई ऐसा अर्थका अनर्थ[२५] करें कि वे यहीं रहते हैं, तो मुझे उसकी परवाह नहीं होगी। तब फिर हम ऐसा मानेंगे कि हमारी भाषामें कुछ लोग 'जाना'का अर्थ 'रहना' करते हैं।

संपादक: अच्छा, हम मान लें कि हमारी माँगके मुताबिक अंग्रेज़ चलें गये। उसके बाद आप क्या करेंगे?

पाठक: इस सवालका जवाब अभीसे दिया ही नहीं जा सकता। वे किस तरह जाते हैं, उस पर बादकी हालतका आधार रहेगा। मान लें कि आप कहते हैं उस तरह वे चले गये, तो मुझे लगता है कि उनका बनाया हुआ विधान[२६] हम चालू रखेंगे और राजका कारोबार चलायेंगे। कहनेसे ही वे चले जायें तो हमारे पास लश्कर तैयार ही होगा, इसलिए हमें राजकाज चलानेमें कोई मुश्किल नहीं आयेगी।

संपादक: आप भले ही ऐसा मानें, लेकिन मैं नहीं मानूँगा। फिर भी मैं इस बात पर ज्यादा बहस नहीं करना चाहता। मुझे तो आपके सवालका जवाब देना है। वह जवाब मैं आपसे ही कुछ सवाल करके अच्छी तरह दे सकता हूँ। इसलिए कुछ सवाल आपसे करता हूँ। हम अंग्रेजोंको क्यों निकालना चाहते हैं?

पाठक: इसलिए कि उनके राज-कारोबारसे देश कंगाल होता जा रहा है। वे हर साल देशसे धन ले जाते हैं। वे अपनी ही चमड़ीके लोगोंको बड़े ओहदे देते हैं, हमें सिर्फ गुलामीमें रखते हैं, हमारे साथ बेअदबीका बरताव करते हैं और हमारी जरा भी परवा नहीं करते।

संपादक: अगर वे धन बाहर न ले जायें, नम्र बन जायें और हमें बड़े ओहदे दें, तो उनके रहनेमें आपको कुछ हर्ज है?

पाठक: यह सवाल ही बेकार है। बाघ अपना रूप[२७]पलट दे तो उसकी भाईबन्दी से कोई नुकसान है? ऐसा सवाल आपने पूछा, यह सिर्फ वक्त बरबाद करने के खातिर ही। अगर बाघ अपना स्वभाव[२८] बदल सके, तो अंग्रेज लोग अपनी आदत छोड़ सकते हैं। जो कभी होनेवाला नहीं है वह होगा,
ऐसा मानना मनुष्यकी रीत ही नहीं है।

संपादक: कैनेडा को जो राजसत्ता मिली है, बोअर लोगोंको जो राजसत्ता मिली है, वैसी ही हमें मिले तो?

पाठक: यह भी बेकार सवाल है। हमारे पास उनकी तरह गोलाबारूद हो तब वैसा ज़रूर हो सकता है। लेकिन उन लोगोंके जितनी सत्ता जब अंग्रेज हमें देंगे तब हम अपना ही झंडा रखेंगे। जैसा जापान वैसा हिन्दुस्तान। अपना जंगी बेड़ा, अपनी फौज़ और अपनी जाहोजलाली[२९] होगी। और तभी हिन्दुस्तानका सारी दुनियामें बोलबाला होगा।

संपादक: यह तो आपने अच्छी तसवीर खींची। इसका अर्थ यह हुआ कि हमें अंग्रेजी राज्य तो चाहिये, पर अंग्रेज (शासक) नहीं चाहिए। आप बाघ का स्वभाव तो चाहते हैं, लेकिन बाघ नहीं चाहते। मतलब यह हुआ कि आप हिन्दुस्तानको अंग्रेज बनाना चाहते हैं। और हिन्दुस्तान जब अंग्रेज बन जायगा तब वह हिन्दुस्तान नहीं कहा जायगा, लेकिन सच्चा इंग्लिस्तान कहा जायगा। यह मेरी कल्पनाका स्वराज्य नहीं है।

पाठक: मैंने तो जैसा मुझे सूझता है वैसा स्वराज्य बतलाया। हम जो शिक्षा पाते हैं वह अगर कुछ कामकी हो, स्पेन्सर, मिल बगैरा महान लेखकोंके जो लेख हम पढ़ते हैं वे कुछ कामके हों, अंग्रेजोंकी पार्लियामेन्टोंकी माता हो, तो फिर बेशक मुझे तो लगता है कि हमें उनकी नकल करनी चाहिये; वह यहाँ तक कि जैसे वे अपने मुल्कमें दूसरोंको घुसने नहीं देते वैसे हम भी दूसरोंको न घुसने दें। यों तो उन्होंने अपने देशमें जो किया है, वैसा और जगह अभी देखने में नहीं आता। इसलिए उसे तो हमें अपने देशमें अपनाना ही चाहिये। लेकिन अब आप अपने विचार बतलाइये।

संपादक: अभी देर है। मेरे विचार अपने आप इस चर्चामें आपको मालूम हो जायेंगे। स्वराज्य को समझना आपको जितना आसान लगता है उतना ही मुझे मुश्किल लगता है। इसलिए फिलहाल मैं आपको इतना ही समझानेकी कोशिश करूँगा कि जिसे आप स्वराज्य कहते हैं वह सचमुच स्वराज्य नहीं है।

  1. औज़ार, ज़रिया।
  2. अदबसे।
  3. नज़र।
  4. अक़्लमंदी।
  5. उस्ताद।
  6. इज़्ज़त।
  7. बेअदबी।
  8. बेइज़्ज़ती, नफ़रत।
  9. पुख्ता।
  10. तालीम।
  11. बेअदबीसे।
  12. खंभ।
  13. इन्साफ़।
  14. नफ़रत।
  15. अहम्।
  16. कृतघ्न।
  17. जाग।
  18. मुखालिफ़त।
  19. तहरीक।
  20. नतीज़े।
  21. बेचैन।
  22. सुध।
  23. इमकाम।
  24. निशानियां।
  25. सहीका ग़लत अर्थ।
  26. दस्तूर।
  27. सूरत।
  28. मिज़ाज।
  29. समृद्धि, मालामाली।