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अद्भुत आलाप/परिचित्त-विज्ञान-विद्या

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अद्भुत आलाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

लखनऊ: गंगा ग्रंथागार, पृष्ठ ४८ से – ५९ तक

 
५--परिचित्त-विज्ञान-विद्या

बेतार की तारबर्क़ी का प्रचार हुए अभी थोड़ा ही समय हुआ। इसमें तार लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। सिर्फ़ दो यंत्रों से ही काम निकल जाता है। इस तारबर्क़ी के सिद्धांतों को ढूंँढ़ निकालने का दावा तो कई आदमी करते हैं, पर सबमें इटली के मारकोनी साहब हो प्रधान हैं। क्योंकि उन्हीं के सिद्धांतों के अनुसार इस तारबर्क़ी का अधिक प्रचार है। जान पड़ता है, किसी दिन मारकोनी की मिहनत खाक में मिल जायगी। इस तारबर्क़ी की ज़रूरत ही न रह जायगी। लोग एक दूसरे के मन को बात घर बैठे आप-ही-आप जान लेंगे! जो ख़बर जिसके पास चाहेंगे, इच्छा करते ही भेज सकेंगे। जो बात पूछनी होगी, मन-ही-मन पूछ लेंगे। जिस विद्या से ये बाते संभव समझी गई हैं, उसका नाम है 'परिचित्त-विज्ञान-विद्या' इसका ज़िक्र 'अंतःसाक्षित्वविद्या' पर लिखे गए लेख में आ चुका है।

अँगरेज़ी में एक मासिक पुस्तक है। उसका नाम है--'रिव्यू ऑफ रिन्यूज़'। यह पुस्तक बहुत प्रतिष्ठित है। इसके संपादक हैं डब्लू० टी० स्टीड साहब। संसार में आपका बड़ा नाम है। भारत के आप बड़े ही हितैषी हैं। आपने परिचत्त-विज्ञान का, प्रत्यक्ष देखा हुआ, एक वृत्तांत अपने मासिक पत्र में प्रकाशित किया है। उसका सारांश हम यहाँ पर थोड़े में देते हैं। आपकी कथा आप ही के मुँह से सुनिए---
मुझे इस बात का पूरा विश्वास था कि यदि दो आदमियों के चित्त एक हों, तो वे परस्पर एक दूसरे के मन की बात, हज़ारों कोस दूर रहने पर भी, जान सकते हैं। पर मैं अब तक यही समझता था कि मन को अद्ध-सज्ञान दशा में ही यह बात हो सकती है, अन्यथा नहीं। मैं अब तक न जानता था कि साधारण तौर पर, चित्त की संपूर्ण सज्ञान अवस्था में भी, यह बात संभव है। पर डेनमार्क के रहनेवाले ज़ानसिग साहब और उनकी स्त्री ने मेरा यह संदेह दूर कर दिया। मुझे अब विश्वास हो गया है कि दो चित्तों का ऐक्य होने से कोई भी आदमी, सज्ञान अवस्था में भी, परस्पर एक दूसरे के अंत:-करण की बात जान सकता है।

ज़ानसिग और उनकी स्त्री की उम्र ४० पर्प की होगी। वे अच्छी तरह अँगरेज़ी बोल सकते हैं। वे एक ही गाँव के रहनेवाले हैं। लड़कपन में एक ही साथ उन्होंने खेला-कूदा और पढ़ा-लिखा है। नौकरी भी दोनो ने, कुछ समय तक, अमेरिका में, एक ही आदमी के यहाँ की है। दोनो का मन मिल जाने से उन्होंने शादी कर ली। इस बात को हुए १९ वर्ष हुए। शादी होने के बाद, पति-पत्नी का मन यहाँ तक एक हो गया कि पत्नी अपने पति के मन की बातें, बिना बतलाए ही, जानने लगी। जब ज़ानसिग को दृढ़ विश्वास हो गया कि उनकी स्त्री उनके मन की बातें जान लेती है, तब उन्होंने नौकरी छोड़ दी, और अपनी स्त्री के परिचित्त-ज्ञान की बदौलत रुपया कमाने की ठानी।
उसके हाथ पर होने लगा। जहाँ उसके हाथ पर कोई चीज़ रक्खो गई, या जहाँ कोई चीज़ उसे दिखाई गई, तहाँ उसकी स्त्री ने उसका नाम स्लेट पर लिखा। इसके बाद काग़ज़ के टुकड़ों पर या कार्डों पर पेसिल से संख्याएँ लिखकर दर्शकों ने ज़ानसिग को दिखाना शुरू किया। उधर उसकी स्त्री ने तत्काल ही उन संख्याओं को यथाक्रम स्लेट पर लिखना आरंभ किया। एकआध दफ़े उसने ग़लती की। अँगरेज़ी ३ को उसने ८ लिखा, ओर ६ को ९। इसका कारण इन अंकों के प्रकार की समानता थी। पर प्रायः उसने और सब संख्याएंँ सही लिखीं। लंबी-लंबी संख्याएँ लोगों ने काग़ज़ पर लिखीं। उन्हें मन-ही-मन पढ़ने में ज़ानसिग को थोड़ी-बहुत कठिनता भी हुई; पर उसकी स्त्री को, उन्हें स्लेट पर लिखने में, ज़रा भी कठिनता न हुई। ज़ानसिग इधर-उधर दर्शकों के चीज़ दोड़ता रहा। कभी इस चीज़ को देखा, कभी उस चीज़ को। उधर उसकी स्त्री सबके नाम साफ़-साफ स्लेट पर लिखकर दर्शकों को आश्चर्य के महासमुद्र में डुबोती रही। कुछ देर में ज़ानसिग मेरे पास बैठे हुए मेरे एक मित्र के पास आया। बोला---"कुछ दीजिए। बैंक का नोट, या जो आपके मन में आवे।" मेरे मित्र ने एक कोरी चेक निकाली।

ज़ानसिग ने पूछा---"यह क्या है?"

"यह एक चेक है।"

"कितने की है ?" "कितने की भी नहीं; कोरी है।"

"इसका नंबर क्या है?"

नंबर बतलाने पर उसकी स्त्री ने स्लेट पर एक के बाद एक अंक सही-सही लिख दिए। इसे हाथ की चालाकी या और कोई बात न समझिए। पर यह चित्त-विज्ञान का फल था। ज़ानसिग और उसकी स्त्री का चित्त दूध-बूरे की तरह एक हो रहा था। इसी से ज़ान-सिग के मन की बात उसकी स्त्री को तत्काल मालूम हो जाती थी। पर विशेषता यह थी कि स्त्री के मन की बात ज़ानसिग नहीं जान सकता था।

इन लोगों को अच्छी तरह परीक्षा करने के इरादे से मैं ज़ानसिग और उसकी स्त्री के साथ एक अलग कमरे में गया। वहाँ जाकर मैंने ज़ानसिग की स्त्री को पड़ोस के कमरे में अपने एक मित्र के साथ बिठलाया। उसे स्लेट-पेंसिल दी। दूसरे कमरे में मैं ज़ानसिग के पास बैठा। इस कमरे में एक और शख्स भी थे। उन्होंने स्लेट पर एक ही लाइन में ८ अंक लिखे। स्लेट मैने ज़ानसिग के हाथ में दी। उसने एक-एक अंक को क्रम-क्रम से ध्यानपूर्वक देखना शुरू किया। जैसे-जैसे वह देखता गया, वैसे-ही-वैसे दूसरे कमरे से उसकी स्त्री एक-एक अंक उच्चारण करती गई। याद रखिए, दोनो कमरों के बीच दो दरवाजे थे। और भी कितनी ही परीक्षाएँ हम लोगों ने कीं। सबमें ज़ानसिग की स्त्री पास हो गई। ज़ानसिग ने एक बार अपनी स्लेट पर एक वृत्त बनाया। उसके ऊपर उसने

एक त्रिकोण खींचा। उधर दूसरे कमरे में ज़ानसिग की स्त्री ने ये ही शकलें स्लेट पर खींच दीं। मैंने अपनी स्लेट पर पक्षी का एक चित्र बनाया। इस पर ज़ानसिग की स्त्री दूसरे कमरे से बोल उठी--"मैं चित्र खींचना नहीं जानती, फिर किस तरह मैं स्लेट पर चिड़िया बना सकती हूँ।"

मैंने इन लोगों की और भी परीक्षा करने का निश्चय किया। इसलिये मैंने उन्हें अपने मकान पर खाना खाने के लिये निमंत्रण दिया। निमंत्रण उन्होंने कबूल कर लिया। यथा-समय वे मेरे यहाँ आए। मकान पर मैंने और कई आदमियों को बुला रक्खा था। खाना खा चुकने पर हम लोग बैठक में आए। वे दोनो पति-पत्नी अलग-अलग कमरों में कर दिए गए। मैंने ज़ानसिग को अनेक चीज़ें दिखलाई, अनेक नाम बतलाए, अनेक संख्याएँ लिख-लिखकर दी। मेरा दिखलाना या देना था कि उधर उसकी स्त्री ने उसके नाम अपनी स्लेट पर लिख दिए। मेरे मित्र ने तीन नाम, एक दूसरे के नीचे लिखकर, ज़ानसिग को दिए। उसकी स्त्री ने वे ही नाम, उसी क्रम से, स्लेट पर लिख दिए। मेरे मित्र ने ज़ानसिग को जेब-घड़ी की एक छोटी-सी चाभी दी। उस पर बनानेवालें का नाम 'हंट', बहुत छोटे-छोटे अक्षरों में, था। वह मुश्किल से पढ़ा जा सकता था। उसकी स्त्री ने दूसरे कमरे से आवाज़ दी--यह घड़ी की चाभी है। इसका नाम है 'हंट'! आठ-आठ संख्याओं की कई सतरें रलेट पर लिखकर ज़ानसिग को

दिखलाई गईं। उन्हें भी उसकी खी ने सही-सही लिख दिया। इसके बाद मैंने अपनी जेब से एक बहुत पुराना नोट निकाला। जब मैं 'हालोवे'-जेल से छूटा था, तब यह नोट मुझे एक लेडी ने दिया था। तब से मैं इसे हमेशा अपनी पॉकेट में ही रखता आया हूँ। पुराना होने के कारण यह बहुत मैला हो गया है। इसके नंबर वग़ैरह मुश्किल से पढ़े जाते हैं। इसे मैंने ज़ानसिग के हाथ में दिया। उसने अपनी स्त्री से पुकारकर पूछा--"यह क्या चीज़ है?" इस बात को न भूलिएगा कि स्त्री दूसरे कमरे में थी। कमरे के बीच में पर्दा पड़ा था। स्त्री ने जवाब दिया-"नोट है।" इसकी तारीख? जवाब मिला--'३ जुलाई, १८८५ ।" और नंबर? स्त्री ने कहा--"पहले ५ है, फिर ९, फिर ८, फिर ४ ।" पर्दा उठाकर जो उसकी स्लेट देखी गई, तो उस पर लिखा था--५९८४। ये सब बातें बिलकुल सही थीं। इसके पहले ही ज़ानसिग को स्त्री ने कहा था कि यह नोट आग में झुलस-सा गया है । यह बात भी एक तरह ठीक थी। नोट झुलस तो नहीं गया था, पर २० वर्ष से लगातार पॉकेट में, नोटबुक के भीतर, रहने से उसका रंग बिलकुल ही उड़ गया था, और मालूम होता था कि ज़रूर धुएँ से खराब हो गया है। और भी कई परीक्षाएँ मैंने कीं, और सबमें ज़ानसिग की स्त्री उत्तीर्ण हो गई।

इन सब परीक्षाओं से मेरा संदेह दूर हो गया। मैंने समझ लिया कि परिचित्त-विज्ञान के सिवा और कोई भेद इसमें नहीं।
ये लोग पास-ही-पास इस विषय की परीक्षाओं की जाँच करने देते हैं, बहुत दूर जाकर नहीं। अर्थात् एक दूसरे से दो चार मील दूर जाकर ये अपनी करामात नहीं दिखलाना चाहते। ये कहते हैं कि पास-पास रहकर ही हम इस तरह के करिश्मे दिखलाकर रुपया पैदा करते हैं, दूर नहीं जाना चाहते। संभव है, दूर जाने से हम लोग अपनी इस अलौकिक शक्ति को खो दें। ऐसा होने से हमारा बड़ा नुक़सान होगा। यदि हमारी जीविका का और कोई ज़रिया होता, तो हम ऐसा भी करते। पर इस समय हमारी अवस्था जैसी है, उसके खयाल से हमें डर लगता है कि कहीं ऐसा न हो, जो हम परीक्षा के झगड़े में पड़कर इस परिचित्त-विज्ञान की शक्ति को खो बैठे।

परंतु परिचित्त-विज्ञान-विद्या झूठी नहीं, सच है। उसके बल से मनुष्य हज़ारों कोस दूर बैठकर भी औरों के मन का हाल जान सकता है। सौभाग्य से मुझे इसका भी प्रमाण मिला है। अमेरिका के जार्जिया-प्रांत में अटलांटा-नामक एक शहर है। उसमें ऐंड मेकडानल नाम के एक साहब रहते हैं। उन्होंने, अभी कुछ ही दिन हुए, मेर पास प्रकाशित होने के लिये एक लेख भेजा है। उसमें उन्होंने लिखा है कि वह कुमारी मेबल रे नाम की एक स्त्री से, १२०० मील की दूरी से, बातचीत कर सकते हैं। पहले उनको इतनी दूर से बातचीत करने का अभ्यास न था। यह अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ा है। मुझे

विश्वास है कि लेखक का कहना ठीक है। वह समय नजदीक जान पड़ता है, जब इस विद्या के तत्त्व अच्छी तरह लोगों के ध्यान में आ जायँगे, और अभ्यास करते-करते लोग सैकड़ों कोस दूर रहनेवाले अपने इष्ट-मित्रों से, बिना किसी कठिनाई के, बातचीत कर सकेंगे।

मनुष्य के मस्तिष्क में जो ज्ञानागार है, वह आर कुछ नहीं, सिर्फ़ एक प्रकार की बिजली की शक्ति का खजाना है। उसी शक्ति की प्रेरणा से, इच्छा करते ही, आदमी हाथ-पैर हिला सकता है, और अपने अंगों का आकुंचन और प्रसारण कर सकता है। किसी बात की चिंतना करने या किसी बात को सोचने से भी बिजली का प्रवाह ज्ञानागार से बह निकलता है। विश्वव्यापी ईथर-नामक पदार्थ में भी बिजली की शक्ति है। उस शक्ति से मस्तिष्क की वैद्युतिक शक्ति का सम्मेलन होने पर उस प्रवाह का लगाव हजारों क्या, लाखों कोस दूर तक हो सकता है। इस दशा में, किसी और जगह पर दूर रहनेवाले आदमी के मस्तिष्क से प्रवाहित होनेवाली वैद्युतिक शक्ति का प्रवाह भी यदि उसी परिमाण में प्रवाहित हो, तो दोनो एक होकर एक दूसरे के मन की बात तत्काल जान सकते हैं। मारकोनी की बेतार की तारबर्क़ी भी इसी सिद्धांत का अनुसरण करती है। मनुष्य के मस्तिष्क में जो छोटे-छोटे दाने हैं, उनमें बिजली की शक्ति है। उनमें वे ही गुण हैं, जो मारकोनी की बेतार की तारबर्क़ी के यंत्रों में हैं। ये यंत्र दो होते हैं---

एक ख़बर भेजने के लिये, दूसरा ख़बर लेने के लिये। दोनो का वैद्यतिक बल तुल्य होता है । तुल्यवलत्व ही इस तारबर्क़ी का मूल मंत्र है यदि किसी को मानसिक बिजली का प्रवाह विशेष शक्तिशाली हो जाय, और वैसी ही शक्ति किसी और आदमी के भी मस्तिष्क में पैदा होकर दोनो में तुल्यबलत्व उत्पन्न हो जाय, तो वे दोनो, सहज ही में, परस्पर एक दूसरे से दूर रहकर भी, बातचीत कर सकें। इसमें समान भाव की बड़ी ज़रूरत है। इसमें कोई संदेह नहीं कि बिजली की शक्ति हर आदमी में है। यदि दो आदमी उसे अधिक बलवती करके अपनी मानसिक बिजली की शक्ति को एक ही दरजे का कर दें, तो उनके मन एक हो जायँ। मन की एकता होते ही उनका मानसिक भेद दूर हो जाय। यह अवस्था प्राप्त होते ही एक दूसरे के मन की बात जानने में ज़रा भी कठिनाई न पड़े। विद्युन्मय मानसिक शक्ति को बढ़ाकर भिन्न-भिन्न चित्तों की विद्युन्मात्रा को एक कर देना ही परिचित्त-विज्ञान विद्या का मूल है।

ज़ानसिग साहब ने लंदन के 'डेली मेल' पत्र में अपनी जिंदगी का हाल प्रकाशित किया है। उससे मालूम होता है कि आप अपनी स्त्री के साथ किसी समय भारतवर्ष भी आए थे, और कलकत्ता, बंबई आदि नगरों में अपने परिचित्त-विज्ञान का तमाशा दिखाया था। आपने इस देश के योगियों और ऐंद्रजालिकों की बड़ी तारीफ़ की है। आप कहते हैं--
एक दिन हम लोगों ने एक राजा की ओर उसकी सभा के सभासदों को तमाशा दिखाया। देखनेवाले बहुत ख़ुश हुए। मुझे बड़ी शाबाशी मिली। जब हम अपने होटल को लौट आए तब, कुछ देर बाद, एक सज्जन हमसे मिलने आए। वह मुझसे अच्छी अँगरेज़ी बोलते थे। उन्होंने कहा--"तुम देर तक ध्यानस्थ नहीं रहते। तुम्हें चित्त की एकाग्रता बढ़ानी चाहिए। तुम्हारे लिये इसकी बड़ी ज़रूरत है। तुम मांस बहुत खाते हो। मांस खाना मानसिक शक्तियों की वृद्धि के लिये हानिकारी है। तुम उपवास भी यथेष्ट नहीं करते, ओर न प्राणायाम द्वारा अपने मन और शरीर को शुद्ध हो करते हो। इसमें संदेह नहीं कि तुममें एक अद्भुत शक्ति है, पर अफसोस! तुम उसका सदुपयोग करना नहीं जानते।"

इसके बाद मैंने देखा कि वह आगंतुक व्यक्ति अधर में ऊपर उठ गया, और बिना किसी आधार के जमीन से तीन-चार फ़ीट ऊपर हवा में ठहरा हुआ, हमारी तरफ़ देखकर चुपचाप मुस्किराता रहा। मैंने हिंदोस्तान में अनेक अद्भुन-अद्भुत बातें देखी। उनमें से यह भी एक था। एक बार हमने अपने एक नौकर को, भारतवर्ष में, उसकी इच्छा के प्रतिकूल, वरख़ास्त कर दिया। बंबई में जब हम लोग गाड़ी पर सवार हुए, तब वह हमें पहुँचाते आया। उसे मैंने स्टेशन पर ही छोड़ दिया। पर जब हम लोग ठिकाने पर पहुँचे, ओर वहाँ स्टेशन पर गाड़ी खड़ी हुई, तब उसी आदमी ने आकर हमारी गाड़ी का दरवाजा खोला! यह

देखकर हम लोगों को बड़ी हैरत हुई। हिंदोस्तान में हम लोगों को योगियों और ऐंद्रजालिकों के करतब देखने के अनेक मौक़े मिले। आध्यात्मिक बातों में हिंदू बहुत बढ़े-चढ़े हैं। हम लोगों ने अनेक देश घूम डाले, पर सबसे पहले हमें हिंदोस्तान ही में ऐसे आदमी देखने में आए, जिन्होंने हमारे परिचित्त-विज्ञान-विषयक कर्तव्यों को देखकर कुछ भी आश्चर्य नहीं प्रकट किया। उन्होंने समझ लिया कि जिन आध्यात्मिक और मानसिक सिद्धियों की खोज और साधना में उनके देशवाले अनंतकाल से लगे आए हैं, उन्हीं में से हमारी परिचित्त-विज्ञान-विद्या भी एक सिद्धि है। यदि ब्राह्मण और बौद्ध विज्ञानी इस विद्या को मानते हों, तो कुछ कहना ही नहीं, अन्यथा हम इसकी कुछ भी कीमत नहीं समझते।

जिस देश के योगी योग द्वारा 'साक्षात् परब्रह्मप्रमोदार्णव' में निमग्न हो जाते हैं, उनके लिये दूसरे के मन की बात जान लेना कौन बड़ा कठिन काम है? पर इस समय ऐसे योगी दुर्लभ हो रहे हैं।

फरवरी, १९०७