आदर्श महिला/१ सीता/३

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आदर्श महिला  (1925) 
द्वारा नयनचंद्र मुखोपाध्याय, अनुवादक जनार्दन झा

[ ३८ ]विभीषण से कहा—मित्रवर! आप शीघ्र मेरी प्राण-प्यारी सीता देवी को रानी के वेष में यहाँ ले आइए। विभीषण ने सीता देवी के पास जा हाथ जोड़कर निवेदन किया—"रखुकुल-कमलिनी सती! रामचन्द्र ने आज्ञा दी है कि आप अयोध्या की महारानी के वेष में रामचन्द्र से चलकर मिलिए।" सीता देवी ने कहा—"नहीं, मैं इसी वेष में आर्यपुत्र से मिलना चाहती हूँ। तीर्थ-क्षेत्र में सिंगार-पटार के लिए चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है।" तब विभीषण ने कहा—"माता! पति की आज्ञा तोड़ना सती स्त्री के लिए कभी उचित नहीं। उन्होंने जैसा आदेश दिया हे वैसा ही आपको करना चाहिए।" सीताजी विभीषण की यह बात सुनकर बाल बाँधने को तत्पर हुईं।

विभीषण-पत्नी सरमा ने सौभाग्य की अग्रदूती की भाँति, वहाँ पहुँचकर तरह-तरह से सीता देवी का सिंगार किया। लङ्का राजभण्डार के क़ीमती कपड़ों और गहनों से सीता देवी की विरह से दुबली देह-लता आज ख़ूब सज-धज गई। सरमा ने सीताजी का सिंगार करके अन्त में मांग में सेंदुर दिया। वह, गोधूलि-ललाट में सन्ध्या समय के सूर्य की तरह, शोभा देने लगा। सरमा आज विरहिणी को, प्रेमोन्मादिनी के रूप में देखने के लिए, अनेक उपायों से सजाने लगी। सरमा एक बार कोई गहना एक तरह पहनाकर देखती कि अच्छा लगता है कि नहीं। उसमें ज़रा भी कसर जान पड़ने पर उसे निकालकर वह और तरह से पहनाती। सब ठीक-ठाक हो जाने पर सीता देवी पति-दर्शन को चलीं मानो पर्वत से निकली हुई नदी सारी बाधाओं को हटाकर सागर को चली है।

दस महीने बाद, सीता देवी का प्रीति से प्रफुल्लित मुख-कमल देख, रामचन्द्र ने सुध-बुध भूलकर कहा—आज मेरा सब परिश्रम सार्थक [ ३९ ]हुआ। जिस आशा को हृदय में रखकर मैं इस विषम समुद्र में उतरा था आज मेरी वह आशा सफल हुई। आज मेरा युद्ध-श्रम, लक्ष्मण का ऐसा त्याग-स्वीकार और शक्ति-पीड़ा, प्राणाधिक हनुमान का भयानक समुद्र-लंघन, प्रेममूर्त्ति सुग्रीव और धर्मात्मा विभीषण तथा और दूसरे वानर सैनिकों की जीतोड़ चेष्टा सफल हुई। सिद्धि जैसे साधना का कष्ट भुला देती है वैसेही आज मेरी सदा आनन्दः दायिनी सीता देवी ने सब क्लेश दूर कर दिया।

रामचन्द्र के मुँह से निकले हुए अमृत-वचन सुनकर सीताजी सब दुःख भूल गईं। उनका मुख-कमल सौभाग्य की अपूर्व किरण से खिल गया। आनन्दाश्रु से उनके मृग-समान दोनों नेत्र, ओस से भीगे कमल की तरह, अपूर्व शोभा देने लगे।

इस दृश्यमान जगत् में भविष्यत् की दुर्गम अज्ञात मूर्त्ति के साथ मनुष्य की आशा और आकांक्षा सदा झगड़ती रहती है। कहीं आशा और आकांक्षा ने भविष्यत् को पहचान लिया है और कहीं भविष्यत्, आशा और आकांक्षा के कल्पित चित्र की दिल्लगी उड़ाता है। हम लोग यहाँ पर जिस बात की कल्पना भी नहीं कर सके थे वही बात हुई। विरह से व्याकुल साध्वी के सतीत्व के प्रभाव से हम लोगों ने मिलन-सुख की जो आशा की थी उसके बदले भीषण भविष्यत् ने काली रोशनाई से न जाने कैसी भयानक बात लिख रक्खी थी!

रामचन्द्र सीता के मुँह की ओर देखकर सब दुःख भूल गये। उनके हृदय में प्रेम-वीणा बज उठी। वह इतने दिन से विरह के टूटे तार पर प्रेम की जो साधना करते थे वह साधना आज पूरी हुई। उस वीणा की मधुर तान से उनका हृदय उछल पड़ा। सहसा उनके इस सुख में बाधा पड़ी। उनकी उस साधना ने अचानक विसर्जन [ ४० ]का विषाद-सुर पकड़ा। रामचन्द्र के मन में लोक-निन्दा की आशङ्का खड़ी हुई।

हाय री लोकनिन्दा! जो पति-सुहागिनी जी-जान से पति के मुख-कमल का ध्यान करती आई हैं, जिन्होंने राक्षस-पुरी में घटा से घिरे हुए चन्द्रमा की भाँति अपनी महिमा को स्थिर रक्खा है, जिन्होंने हताशा से पीड़ित हृदय को सतीत्व की शोभा के अपूर्व गौरव-किरीट से शोभित किया है, और जो भविष्यत् में सतीत्व और मातृत्व के आदर्शस्वरूप बनी रहेंगी उन पर भी तू अपने अन्धकारमय राज्य की छाया डालती है।

सहसा रामचन्द्र का हृदय लोकनिन्दा से हिचक गया। उन्होंने सोचा, मैं जानता हूँ कि सीता सतीत्व की अत्युज्ज्वल मूर्त्ति हैं, वे महिमा की बिना सूँघी हुई कुसुम-माला और प्रेम की अटूट पीयूष धारा हैं; किन्तु मैं राजा हूँ, मेरा हृदय प्रजारञ्जन करने के लिए बाध्य है, मुझे तनिकसी भी स्वतन्त्रता नहीं। साधारण प्रजा का जो यहाँ सत्य को नहीं समझ सकेगा। यद्यपि सीता देवी को ग्रहण करने पर मैं धर्म से नहीं गिरूँगा बल्कि मेरा हृदय सती का साथ मिलने से और भी अधिक तृप्त होगा; किन्तु प्रजा इसमें न जाने कितना अनर्थ सोचेगी।

यह सोचकर रामचन्द्र ने सीता देवी से कहा—मैं पवित्र इक्ष्वाकु-वंश की मर्यादा बनाये रखने के लिए इस महायुद्ध में प्रवृत्त हुआ था। जो मनुष्य, अपमानित होकर, अपमान का बदला नहीं लेता वह कापुरुष है; उस अभागे से वंश को कलङ्क लगता है। मैंने इसी आशङ्का से दुष्ट रावण को निवेश करके तुम्हारा उद्धार कर भुवन-विख्यात रघुवंश का सम्मान बढ़ाया है। जानकी! तुम मुझे प्राण से भी प्यारी हो किन्तु, नीति की मर्यादा तोड़कर, मैं तुमको ग्रहण करने में असमर्थ हूँ। मनुष्य इस पृथ्वी पर अपने कर्म का फल भोगते हैं। तुम अपने [ ४१ ]कर्म का फल भोगो। विषयी रावण तुमको बुरी दृष्टि से देखता था और उस पापी ने तुम्हारे शरीर को स्पर्श किया था इसलिए मैं तुमको ग्रहण नहीं कर सकता। मेरे इस रण-श्रम और वैर-साधन को केवल अपने पवित्र वंश की गौरव-वृद्धि के लिए समझना। देवी! यह विशाल पृथिवी अनेक प्राणियों को अपनी गोद में लेकर अन्न-जल देती है, तुम भी जहाँ जी चाहे वहाँ जाकर स्वाधीन भाव से रहो। अथवा रामचन्द्र के मुँह से और बात नहीं निकली। वे हृदय के हाहाकार को दबाकर ज्वालामुखी पहाड़ की तरह बार-बार लम्बी साँस लेने लगे। पास में बैठी हुई बन्दर-सेना रामचन्द्र के मुँह से असम्भव बात सुनकर व्यथित हुई। पतिव्रताओं की गौरव-पताका-स्वरूप सीता देवी स्वामी के मुँह से ऐसी अनायोचित बात सुनकर मर सी गई; मानो पृथिवी पर उन्हें, मुँह छिपाने को, कहीं स्थान ही नहीं रहा।

पहले ही कहा गया है कि सीता क्षत्रियाणी हैं। नीति को मर्यादा को रखकर, उन्होंने वनवास जाने को तैयार स्वामी के साथ चलने के लिए जो-जो युक्तियाँ दिखाई थीं उनका वर्णन करते हुए हमने सीता देवी की एक गौरवमयी मूर्त्ति देखी है। यहाँ फिर उन्हीं सीता देवी को, अपने पक्ष-समर्थन में चतुर, उज्ज्वल मूर्ति देखेंगे।

तेजस्विनी सीता देवी ने अपने आँसू पोंछकर अभिमान-पूर्वक दृढ़ स्वर से कहा—आर्य्यपुत्र! आप, साधारण मनुष्य की भाँति, यह क्या कह रहे हैं? जान पड़ता है कि लड़ाई की हैरानी से आपका चित्त ठिकाने नहीं है। नहीं तो इक्ष्वाकु-वंश की गौरव-रक्षा करने के लिए निरपराधिनी धर्म-पत्नी को छोड़ने का इरादा क्यों करते? जिस अनन्य-शरणा ने एक-चित्त से पति-देवता के पवित्र चरणों का ध्यान करते हुए दिन बिताये हैं उसको बिना अपराध त्यागकर आप वंश का गौरव बढ़ाया चाहते हैं? युद्ध-क्षेत्र में भ्रान्त-बुद्धि हतभाग्यों का [ ४२ ]जीवन-प्रदीप बुझाकर, विजय-पताका को फहराते हुए, निरपराध स्त्री को निकाल देने का दण्ड ही क्या मनुष्यत्व या अपमान का बदला है? आर्य्यपुत्र! आप मुझे कहते हैं कि "तुम मुझे प्राण से भी प्यारी हो!" किन्तु जो प्राण से भी प्यारी हो उसके साथ क्या ऐसा सलूक ही उसके योग्य आदर है? नीति की जो बातें आपने कहीं वे आपके जैसे स्थिर-बुद्धि मनुष्य के योग्य कभी नहीं! जो मनुष्य को सत्पथ पर चलाती है वही अगर नीति है तो आप पति-प्राणाधारा धर्म-पत्नी को छोड़कर नीति की मर्यादा कैसे रक्खेंगे—यह मेरी समझ में नहीं आता। मुझे रावण ने बुरी दृष्टि से देखा था और उस पापात्मा ने मुझे छू भी लिया था, किन्तु इसमें मेरा क्या अपराध है? राहु के ग्रास से छूटने पर सूर्यदेव की वन्दना करने के लिए क्या लाखों-करोड़ों हाथ नहीं उठते? या सर्प से छुआ हुआ वन-फूल क्या देवता के चरणों पर चढ़ने के योग्य नहीं होता? आर्य्य! मैं साधारण स्त्री हूँ अपना पक्ष समर्थन करने की मुझ में शक्ति नहीं है। आपने मुझे जो कुछ सिखाया है, उससे मैं यही जानती हूँ कि मेरा मन-रूपी भौंरा आपके चरण-कमल का रस पीने को लालायित है। हृदय आपका सदा भक्त है। दुरात्मा के बाहुबल में बाधा देने के लिए भला कोमल-स्वभाववाली अबला में शक्ति कहाँ? किन्तु अपने हृदय पर तो मेरा पूरा अधिकार है, वह मेरे कहने में है। पापी की क्या मजाल थी कि उस पवित्र हृदय को स्पर्श करता? आर्य्यपुत्र! विवाह के दिन की बात याद करो; जिस दिन आप धनुष तोड़कर उपस्थित जनता की उत्सुकता-पूर्ण दृष्टि में एक अपूर्व जगत् के नवीन देवता से जान पड़े थे, जिस दिन प्रथम मिलन के अवसर पर प्रेम से हम दोनों अपने को भूल गये थे, उस समय की बात को याद करो। आप उस हृदय पर व्यर्थ सन्देह क्यों करते हैं? उस हृदय पर अपवित्रता [ चित्र ]

मनसि वचसि काये जागरे स्वप्नसंगे यदि मम पतिभावो राघवादन्यपुंसि।
तदिह दह ममाङ्ग पावनं पावकेदं सुकृतदुरितभाजां त्वं हि कमैकसाक्षी॥—पृ॰ ४३


इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग। [ ४३ ]की स्याही भूल से भी नहीं लगी है। वह हृदय-देवता का पुण्य-पीठ है; वह असुर का क्रीड़ा-कानन नहीं हो सकता।

यह कहकर सीता ने रामचन्द्र के मुख की ओर टकटकी लगाई। उन्होंने देखा कि इतने पर भी श्रीराम के हृदय से सन्देह दूर नहीं हुआ। तब उन्होंने गिड़गिड़ाकर लक्ष्मण से कहा—देवर लक्ष्मण! जिसके लिए तुमने इतना कष्ट सहा है, उस चिर-दुःखिनी के लिए थोड़ासा कष्ट और सही। जब स्वामी इस शरीर से घृणा दिखा रहे हैं तब इस शरीर की आवश्यकता ही क्या है? लक्ष्मण! चिता बना दो। तुम लोगों के पवित्र मुँह को देखते-देखते मैं चिता पर चढ़कर इस घृणित शरीर को छोड़ दूँगी।

लक्ष्मण ने रोष-भरी दृष्टि से रामचन्द्र की ओर देखा। उन्होंने देखा कि वे नीचा सिर किये चुपचाप बैठे हैं। सीता देवी की उस बात में रामचन्द्र की असम्मति न देखकर लक्ष्मण चिता बनाने की तैयारी करने लगे।

तुरन्त चिता तैयार हो गई। प्यारे के विरह से व्याकुल जानकी, समय पलटने पर, दुर्बल देह-लता को अनेक प्रकार के आभूषणों से सजाकर पति के पास आई थीं। उन्होंने उसी वेष में आँखें नीची किये हुए रामचन्द्र को प्रणाम करके, प्रदक्षिणा के अन्त में, अग्नि-कुण्ड के पास जाकर और हाथ जोड़कर निवेदन किया—

मनसि वचसि काये जागरे स्वप्नसंगे यदि मम पतिभावो राघवादन्यपुंसि।
तदिह दह ममाङ्ग पावनं पावकेदं सुकृतदुरितभाजां त्वं हि कर्मैकसाक्षी॥

इतनी देर तक रामचन्द्र चुपचाप बैठे थे। उन्होंने देखा कि आँखों के सामने ही सीता की देह-लता गायब हो गई। डबडबाई हुई आँखों से रामचन्द्र ने विलाप करते-करते क्रोध से धनुष पर बाण चढ़ाकर [ ४४ ]—भगवन् अग्निदेव! तुम मेरी सती जानकी को लौटा दो। तुम समझ लो कि सीता बिना राम का अस्तित्व नहीं है। मैंने बिना सोचे-विचारे प्यारी को कटुवचन कहा है किन्तु मेरी प्यारी सतियों में आदर्श है। मेरी प्राणप्यारी सीता को तुमने ले लिया है। अगर तुम उसको नहीं लौटाओगे तो यह देखो, तुम्हारा नाश करने के लिए मैं बाण चढ़ाता हूँ। शक्ति हो तो सँभालो।

रामचन्द्र की यह बात समाप्त होते न होते लाल वस्त्र-धारी अग्निदेव सीता देवी को गोद में लेकर चिता से निकले और तुरन्त रामचन्द्र के निकट जाकर बोले—रामचन्द्र! सीता को ग्रहण कीजिए। चिर-पूज्या माता के चरण-स्पर्श से मेरा ज्वालामय हृदय आज सुशीतल हुआ है! हे रामचन्द्र! सीताजी पवित्रता की गङ्गाधारा हैं, ये सदा पवित्र हैं। इनके विषय में सन्देह न कीजिए।

एक-एक करके, सब देवताओं ने आकर रामचन्द्र से सीता के सतीत्व की बात कही।

रामचन्द्र ने उपस्थित अग्नि आदि देवताओं से कहा—हे देवताओ! मैं जानता हूँ कि सीता देवी आदर्श-चरित्रवाली हैं; गङ्गाजल में अपवित्रता रह सकती है, और सूर्य-किरणों में भी मलिनता हो सकती है किन्तु सीता देवी में अपवित्रता का होना बिलकुल असम्भव है। मैंने केवल सीता देवी के सतीत्व की बात को जगद्-विख्यात करने ही के लिए यह परीक्षा की थी।

आशीर्वाद देकर देवता लोग स्वर्ग को चले गये।

रामचन्द्र ने तुरंत लंका की राजलक्ष्मी विभीषण को सौंपकर सुग्रीव, लक्ष्मण, विभीषण और सीता-सहित पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्या की ओर यात्रा की। [ ४५ ]

[१०]

अयोध्या की राजलक्ष्मी रामचन्द्र के सिंहासन पर बैठने से और चमक उठी-प्रजा सब दुःखों को भूल गई।

रामचन्द्र सीता-सहित विश्रामागार में सुखदायक बातें करके दिन बिताने लगे। वनवास के क्लेश के बाद यद्यपि अयोध्या के राजपाट ने उनके जीवन को सब तरह से मुग्ध कर लिया तथापि सीता देवी शीतल छायावाले तपोवन के माधुर्य को और मुनि-कन्याओं के उस पवित्र संगसुख को भूल नहीं सकीं। इससे सीताजी ने आदर से रामचन्द्र के निकट अपने जी का अभिलाष प्रकट किया।

उस समय सीताजी के पाँच महीने का गर्भ था। रामचन्द्र ने सीता देवी की बात से सन्तुष्ट होकर कहा—"जल्द इसका बन्दोबस्त कराय देता हूँ।" सीता देवी ने प्रसन्न-चित्त से कहा—"आर्यपुत्र! आपका स्नेह अटूट है। मैं नहीं समझती थी कि आप इस अवस्था में भी मेरी इस बात को मान लेंगे।" किन्तु यह वासना ही सीता के लिए काल-स्वरूप हुई। विषम भविष्यत् ने तसल्ली के बहाने उनके सर्वनाश का रास्ता खोल दिया।

बहुतेरी बातें होने पर सीताजी सो गईं। इतने में रामचन्द्र ने अपने विश्वासी दूत दुर्मुख से सुना कि अयोध्या की प्रजा, रावण के घर में रहने के कारण, सीताजी पर कलङ्क लगाती है।

आदर्श राजा रामचन्द्र के हृदय का भाव बदल गया। जो सीता उनको प्राण से प्यारी थीं, जो सतीत्व के प्रभाव से देवताओं की भी पूजा पाने योग्य थीं, जो अयोध्या की राज-लक्ष्मी थीं, और जो उनके जीवन की सुखशान्ति थीं, उन्होंने उनको भी प्रजा-रञ्जन के लिए त्याग देने का संकल्प किया। उन्होंने सोचा कि सीताजी ने तपोवन देखने [ ४६ ]का जो अभिलाष प्रकट किया है उसी के बहाने उनको महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ देना चाहिए।

रामचन्द्र ने भाइयों को बुलाकर सीता के सम्बन्ध में अयोध्या की प्रजा की राय सुनाते हुए अपना विचार प्रकट किया कि मैं सीताजी को क्या करना चाहता हूँ। लक्ष्मण ने उनको बहुत समझाया; किन्तु आदर्श राजा रामचन्द्र के चित्त को ढाढ़स नहीं हुआ। प्रजा-रञ्जन के लिए उन्होंने अपना सुख-चैन त्यागकर वाल्मीकि के आश्रम में सीता देवी के छोड़ आने की आज्ञा लक्ष्मण को दी। भ्रातृ-भक्तिपरायण लक्ष्मण ने लाचार होकर रामचन्द्र के इस हुक्म की तामील करना स्वीकार किया।

तुरन्त सीता देवी के तपोवन जाने की तैयारी हुई। सीताजी मुनि-कन्याओं के लिए अच्छे-अच्छे वस्त्र और आभूषण आदि लेकर प्रसन्न-चित्त से सुमन्त के रथ पर चढ़कर लक्ष्मण-सहित वन को चलीं। उनके जी में तो प्रसन्नता छा रही थी किन्तु दुर्भाग्य विकट हँसी हँसकर उनका उपहास कर रहा था।

धीरे-धीरे रथ गङ्गा-तट पर पहुँचा। गङ्गा-दर्शन कर लक्ष्मण का शोक-प्रवाह उछल पड़ा। यह देखकर सीता ने आश्चर्य से पूछा—"वत्स लक्ष्मण! तुम्हारे मुँह पर एकाएक इस प्रकार उदासी क्यों छा गई?" लक्ष्मण ने, किसी तरह बात छिपाकर, शीघ्र पार उतरने का बन्दोबस्त किया।

अचानक ही सीताजी का दायाँ नेत्र फड़क उठा। चारों ओर शून्य मालूम होने लगा। ऐसा जान पड़ने लगा मानो रामचन्द्र से सदा के लिए बिछोह हो गया। वे इसी सोच-विचार में पार उतरीं। गङ्गा-पार उतरने के साथ ही साथ सीताजी आनन्द-समुद्र के भी उस पार जा उतरीं। [ ४७ ]

नाव से उतरकर जब सीताजी तपोवन देखने को जाने की जल्दी करने लगीं तब लक्ष्मण ने कहा—"भाभीजी! ज़रा ठहरिए तो, मुझे कुछ कहना है।" सीताजी ने लक्ष्मण की कातरता देखकर कौतुक से कहा—जल्दी कहो न, क्या कहना है?

लक्ष्मण से वह मर्मभेदी बात कहते नहीं बनती और इधर सीताजी भी घोर सन्देह में पड़ रही हैं। उन्हें एक पल एक युग के समान बीतने लगा। सीता ने कहा—"वत्स! मैं समझ गई। मेरा भाग्य फूट गया है, नहीं तो तुम कहते क्यों नहीं?" सीता की चञ्चलता और आग्रह देखकर लक्ष्मण ने कहा—"देवी! मेरा दोष मत मानिएगा—हाय रे दैव! ऐसे ही असाध्य साधन के लिए तुमने अभी तक मुझे जीवित रक्खा है!" बड़े कष्ट से सिर नीचे किये हुए वे बोले—देवी! आप बहुत दिनों तक रावण के घर रह चुकी हैं। इससे अयोध्या की प्रजा आप के चरित्र पर कलङ्क लगाती है। आर्य्य रामचन्द्र ने यह जानकर आपको जन्म भर के लिए त्याग दिया है; और मुझे आज्ञा दी है कि तपोवन-दर्शन के बहाने ले जाकर इन्हें वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ आओ। देवी! यह वाल्मीकि का तपोवन है।

सुनते ही सीताजी मूर्च्छित हो गई। लक्ष्मण बड़े प्रयत्न से सीताजी की मूर्छा छुड़ाने लगे। बड़ी देर के बाद सीताजी ने होश में आकर कहा—लक्ष्मण! अफ़सोस मत करना। इसमें तुम्हारा कुछ भी अपराध नहीं। दोष सब मेरे भाग्य का है। वत्स! भगवान् ने दुःख भोगने के लिए ही मुझे जन्म दिया है, नहीं तो जगत्-प्रसिद्ध रघुवंश की कुलवधू होकर मुझे वनवास क्यों करना पड़ता? मनुष्य इसी पृथ्वी पर कर्म्म-फल भोगता है। जान पड़ता है, मैंने पूर्व-जन्म में किसी प्रेम-मयी साध्वी को पति की गोद से छुड़ाया था। मुझे इस पृथ्वी पर उसी पाप का दण्ड भोगना पड़ा है। वत्स! मनुष्य के ऊपर अच्छा-बुरा [ ४८ ]जो बीतता है उसके बनानेवाले भगवान् हैं। मेरे भाग्य में जो हुआ वह उन्हीं का विचित्र विधान है। इसलिए वत्स! यदि मेरे ऊपर तुम्हारा स्नेह हो तो तुम शोक त्यागो। लक्ष्मण! मैं वनवास में नई नहीं हूँ। मैं तो आर्य्य रामचन्द्र के साथ बहुत दिन वन में रह चुकी हूँ। स्वामी के साथ वनवास में अयोध्या के राज-सुख को और माया के ऐश्वर्य को मैं भूल ही गई थी। मुझे अपने लिए कोई चिन्ता नहीं है, मैं केवल यही सोच रही हूँ कि अगर वनवासी मुनिगण मुझसे वनवास का कारण पूछेंगे तो मैं क्या बताऊँगी। 'आर्य्यपुत्र! तुमने मुझे निरपराध जानकर भी केवल प्रजा-रञ्जन के लिए विपद के इस दुस्तर समुद्र में डाल दिया है। भगवान् तुम्हारी इस आदर्श प्रजाप्रियता को पूरी करें।' मेरी मानसिक व्यथा के लिए कोई ढाढ़स नहीं है। इक्ष्वाकु-वंश की सन्तान मेरे गर्भ में है, इससे मैं आत्म-हत्या करके उसका प्राण लेने को तैयार नहीं हूँ।

सीता की यह विषाद-मयी मूर्त्ति और आँसुओं की धारा देखकर लक्ष्मण ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। सीता ने स्नेह-पूर्वक अञ्चल से लक्ष्मण के आँसू पोंछकर कहा—लक्ष्मण! शान्त हो। तुम राजा की आज्ञा पालन करने के कारण अपराधी नहीं; मैं आर्य्यपुत्र के हृदय का हाल जानती हूँ। मैं अपराधिनी हूँ, यह समझकर उन्होंने मेरा त्याग नहीं किया है; किन्तु आदर्श प्रजा-प्रिय राजा प्रजा-रञ्जन के कारण ऐसा करने को लाचार हुए हैं। मैं जानती हूँ कि उनके हृदय में मेरे ऊपर बड़ा प्रेम है और मुझे त्याग कर वे भी मेरी तरह शोक-सागर में डूब गये हैं। लक्ष्मण! आर्यपुत्र आदर्श राजा, आदर्श पति, अदर्श मित्र और आदर्श देवता हैं। उनको पाप नहीं लग सकता। लक्ष्मण! उनके पास शीघ्र लौट जाओ। तुम सदा उनकी सेवा करना और उनके पास रहकर उनको ढाढ़स देना। वत्स! देखना, वे अकेले पड़कर [ ४९ ]कभी दुःखी न हों । तुमसे एक बात और कह देती हूँ। तुम आर्य्यपुत्र के चरणों में निवेदन करना कि उनके त्याग करने से मैं दुःखित नहीं हूँ। जिस राज-धर्म के लिए उन्होंने मुझे छोड़ दिया है, उनका वह राज-धर्म सफल हो। आज से उनका मङ्गल मनाना ही मेरी नई साधना का मूल उद्देश होगा। लक्ष्मण! शोक छोड़ो; मेरे प्रति तुम्हारा मातृवत् व्यवहार मुझे सदा याद रहेगा। वत्स! आर्य्यपुत्र से कहना कि वह मुझे छोड़कर अब पछतावें नहीं। मैं दूसरे जन्म में भी उन्हीं को स्वामी चाहूँगी। गुणवान् लक्ष्मण! अगर मेरा फिर स्त्री का जन्म हो तो तुम्हारे ही जैसा देवर पाऊँ। वत्स! जाओ, अब देर मत करो। आर्य रामचन्द्र तुम्हारे लौटने की बाट देख रहे होंगे। जानो, सासुओं के चरणों में मेरा प्रणाम निवेदन करना। वत्स! और एक बात है कि मेरी प्यारी बहनों को कुछ दुःख न होने पावे। उनका हृदय मर विरह से बहुत व्यथित है। मेरी शपथ है, तुम उनका मन रखने का सदा ख़याल रखना। और आर्य्यपुत्र के चरणों में मेरा साष्टाङ्ग प्रणाम निवेदन करके कहना कि वे मेरे लिए विलाप करके अपने कर्त्तव्य से न चूकें। और यह भी कह देना कि पत्नी-भाव से मुझे त्याग देने पर भी साधारण दीन प्रजा के भाव से ही मेरा स्मरण करें।

लक्ष्मण प्रणाम और प्रदक्षिणा करके बिदा हुए। जहाँ तक नज़र गई वहाँ तक सीता लक्ष्मण की ओर ताकती रहीं। अन्त में लक्ष्मण जब गङ्गापार उतर गये तब सीताजी उनको न देखकर सिर धुनने और रोने लगीं। गङ्गाजल से शीतल वायु सीता देवी के पसीने और आँसुओं को पोछने का प्रयास करता था किन्तु हृदय की आग उस जल-धारा को और बढ़ाती ही जाती थी। गङ्गा के किनारे खड़े होकर सीता ने सोचा— [ ५० ]

पतिर्हि देवता नार्याः पतिर्बन्धुः पतिर्गुरुः।
प्राणैरपि प्रियस्तस्माद् भर्त्तुः कार्य विशेषतः॥

पति ही स्त्रियों के लिए देवता, मित्र और गुरु है। इसलिए पति का कार्य प्राण से भी प्रिय है। मैं जी-जान से पति का कार्य करूँगी, पति को प्यारा लगनेवाला काम करना ही मेरे जीवन-रूपी यज्ञ का मूल उद्देश है।

सीता मन को जितना ही समझाती हैं मानो वह उतना ही उमड़ आता है। उस देवता-समान स्वामी की गोद से अलग होने पर सती को सुख कहाँ? स्वामी के स्नेह ने उनको व्याकुल कर दिया। सीता रो-रोकर उस जंगल को कँपाने लगी।

रोने का शब्द सुनकर महामुनि वाल्मीकि वहाँ आ गये। उन्होंने स्नेह-भरे कण्ठ से कहा—बेटी जानकी! तुम शोक मत करो। मैं जानता हूँ कि तुम कौन हो। तुम्हारे पवित्र चरणों की धूल पड़ने से आज मेरा यह आश्रम पवित्र हो गया। सती! विलाप छोड़ो; स्वामी के निकट तुम अविश्वासिनी नहीं हो, मैं दिव्य दृष्टि से देखता हूँ कि रामचन्द्र तुमको परित्याग कर उदास मन से दिन काट रहे हैं। देवी! अयोध्या की राजलक्ष्मी तुम्हारे बिना मलिन हो गई है। बेटी! तुम मुझे पिता-समान जानना। मुझसे तुम्हें किसी बात का कष्ट नहीं होगा। मैं देखता हूँ कि तुम्हारे महीने पूरे हो चले हैं। यहाँ तुम्हें कुछ कष्ट नहीं होगा।

शोकाकुल सीता देवी का मुँह देखकर वाल्मीकि वहुत दुःखित होते और उनको अपने होमकुण्ड के पास बुलाकर शास्त्र की कितनी ही बातें सुनाया करते। वे सीता देवी के हताश हृदय को यह कहकर आनन्दित करते कि तुम्हारे पेट में दो तेजस्वी बालक हैं। [ ५१ ]

[११]

सीता देवी ने यथासमय एक साथ दो पुत्रों को उत्पन्न किया। महर्षि वाल्मीकि ने जातकर्म करके उनका लव और कुश नाम रक्खा। सीताजी उन कुसुम-समान कोमल दो बेटों के मुख को देखकर सब दुख भूल गईं। वाल्मीकि का वह शान्त स्निग्ध तपोवन इन लीला-चञ्चल दो बालकों के हास्य से गूँजने लगा। राजवधू सीता तपस्विनी के वेश में दोनों राजकुमारों का पालन करने लगीं।

महर्षि वाल्मीकि ने रामचन्द्र के महान् चरित के आधार पर रामायण नाम का एक महाकाव्य बनाया था। जब लव-कुश कुछ बड़े हुए तब महर्षि ने उनको रामायण गाना सिखाया। दोनों कुमार वीणा के सुर में सुर मिलाकर रामायण गाने लगे। सीताजी दोनों पुत्रों के, वीणा को लजानेवाले, सुर में वाल्मीकि की बनाई हुई रचना को सुनकर पुलकित होतीं और अपने घर के इतिहास तथा इक्ष्वाकु-वंश की गौरव कीर्ति को दोनों कुमारों के मुख से सुनकर आँसुओं की धारा बहातीं।

इधर रामचन्द्र ने अश्वमेध यज्ञ की तैयारी की। उस यज्ञ में शिष्यों-सहित उपस्थित होने का निमंत्रण पाकर महर्षि ने सीता देवी से कहा—"बेटी! रामचन्द्र ने अश्वमेध यज्ञ में मुझे न्यौता दिया है। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारे दोनों लड़कों को वहाँ ले जाऊँ।" सीताजी ने कहा—इसके लिए मुझसे पूछने की क्या आवश्यकता है? आप खुशी से उनको ले जा सकते हैं।

सीताजी रामचन्द्र के अश्वमेध यज्ञ के समाचार से, एक बात सोचकर, विशेष चिन्तित हुईं। यह उनकी नई चिन्ता थी। सौभाग्यवती को अश्वमेध यज्ञ का समाचार पाकर बड़ा खेद हुआ। मायके में स्वामी की सेवा के विषय में शास्त्र की कितनी ही बातें सुनने से वे जानती थीं कि—"सस्त्रीको धर्ममाचरेत्"—धर्मकार्य स्त्री के साथ [ ५२ ]किया जाता है। तब अश्वमेध यज्ञ में रामचन्द्र की बग़ल में सहधर्मिणी का कार्य कौन करेगा? उन्होंने फिर विवाह तो नहीं कर लिया! इसी सन्देह से वे रामचन्द्र के स्नेह की त्रुटि-कल्पना करके सोच में पड़ी हुई थीं कि इतने में लव और कुश ने हँसते-हँसते उनके पास आकर कहा—मा! महर्षि कहते हैं कि आज वे हम लोगों को, रामायण के नायक, राजा रामचन्द्र का अश्वमेध यज्ञ दिखाने ले जायँगे। मा! हम लोगों ने रामायण में राजा रामचन्द्र के कितने ही सद्गुणों का परिचय पाया है। हमने नहीं सुना कि ऐसा आदर्श राजा और कभी किसी देश में हुआ हो। बात ही बात में महर्षि ने पत्र लानेवाले दूत से पूछा—'अश्वमेध यज्ञ तो स्त्री के साथ किया जाता है; परन्तु राजा रामचन्द्र ने प्रजा को प्रसन्न रखने के लिए अपनी साध्वी पत्नी को त्याग दिया है। अब क्या यज्ञ सम्पन्न करने के लिए उन्होंने दूसरा विवाह किया है?' दूत ने कहा—'वशिष्ठ आदि ने उनसे विवाह करने के लिए बहुत कुछ कहा-सुना किन्तु वे किसी प्रकार राजी नहीं हुए; वे अपनी साध्वी पत्नी की एक सोने की मूर्त्ति बनवाकर यज्ञ करेंगे।' मा! हम लोग रामचन्द्र का हाल पढ़कर विस्मित हुए हैं। अब यह समाचार पाकर हम लोग और भी अत्यन्त पुलकित हो रहे हैं। मा! आज्ञा दो कि हम लोग महर्षि के साथ वहाँ जाकर उस नर-देवता के दर्शन से कृतार्थ हों।

सीता ने हर्ष से आज्ञा दे दी। विकट खेद से उनका कलेजा जलता था। दोनों कुमारों की ज़बानी, यज्ञ-सम्पादन के लिए, सोने की सीता-मूर्त्ति बनाने की बात सुनकर उनको अपने सौभाग्य का गर्व हुआ। उनकी आँखों में आँसू दीख पड़े।

वाल्मीकि ने लव और कुश-सहित यज्ञ-भूमि में उपस्थित होकर दोनों शिष्यों को आदेश दिया कि तुम लोग घूम-घूमकर वीणा पर [ ५३ ]रामायण गाना। अगर राजा कौतूहल में आकर तुम लोगों को बुलावें तो विनय-पूर्वक जाना; परन्तु पुरस्कार का लोभ मत करना। अगर राजा कुछ पुरस्कार दें तो कहना कि महाराज! हम लोग ऋषि-कुमार हैं, हम लोगों को धन से कुछ काम नहीं। परिचय चाहें तो कहना कि हम लोग वाल्मीकि के शिष्य हैं।

गुरु से यह उपदेश पाकर दोनों कुमार उपस्थित राजाओं के तम्बुओं के सामने वीणा बजा-बजाकर और मन लगाकर रामायण गाने लगे। उपस्थित राजा लोग कुमारों के शरीर में राज-लक्षण देखकर विस्मित हुए।

धीरे-धीरे यह समाचार राजा रामचन्द्र के कानों तक पहुँचा। उन्होंने एक ब्राह्मण के द्वारा उन दोनों को बुलाया। दोनों कुमार राजा का बुलाना सुनकर विनय-सहित सभा में गये और चित्त लगा कर वीणा के सुर में सुर मिलाकर सीता-राम का प्रेम-विषयक अंश गाने लगे। उसे सुनकर राजा रामचन्द्र का शोक-प्रवाह उमड़ आया। इधर परदे से राजमाता कौशल्या देवी दोनों कुमारों का रूपलावण्य देख कर उल्लास-भाव से पुकार उठीं—लक्ष्मण! ये दोनों बालक तो मेरे राम के वंशधर हैं। यह देखा, मेरे राम और सीता के सब अङ-लक्षण इनके शरीर में दिखाई देते हैं, तुरन्त इनको यहाँ ले आओ।

राजमाता के आदेश से लक्ष्मण तुरन्त दोनों कुमारों को महल में ले गये।

कौशल्या ने, डबडबाई हुई आँखों से, दोनों कुमारों का परिचय पूछा तो उन्होंने विनय-पूर्वक कहा—"हम वाल्मीकि के शिष्य हैं।" राजमहल में जितनी स्त्रियाँ थीं वे सब बोल उठीं—अवश्य ही ये बालक सीता देवी के पेट से जनमे हुए हैं। [ ५४ ]वाल्मीकि ने आकर सब परिचय दिया; तुरन्त ही सीताजी को फिर से ग्रहण करने का प्रस्ताव उठा। रामचन्द्र ने कहा—देव! आप तो सब जानते हैं, सीता को परित्याग करके मैं सुखी नहीं हूँ। केवल प्रजा के असन्तोष के कारण मैं सीता को त्याग कर मरा-सा हो रहा हूँ। अगर प्रजा को कोई एतराज़ न हो, तो मुझे सीता को फिर से ग्रहण करने में कुछ उज्र नहीं है।

शीघ्र ही इसके उपयुक्त प्रबन्ध हुआ। गेरुआ वस्त्र पहने हुए सीता देवी ने धीरे-धीरे सभा में प्रवेश करके सुना कि इस भरी सभा में फिर चरित्र की शुद्धता का प्रमाण देना होगा। यह सुनते ही उनका टूटा हुआ हृदय अस्थिर हो उठा। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा—मा वसुन्धरे! अगर मैं मन, वचन और कर्म से पति-देवता के चरणों का ध्यान करती होऊँ तो तुम शीघ्र अपनी शान्तिमयी गोद में अपनी इस दुखिया बेटी को स्थान दो।

एकाएक सभा-भूमि दो खण्ड होकर फट गई। सबने देखा कि लोक-माता धरणी स्नेह के हाथ से सीता देवी को गोद में लेकर कमलासन पर बैठ गईं।

सब लोग चिल्ला उठे—सीता-राम की जय! धन्य आदर्श राजा! धन्य आदर्श सती!