आदर्श महिला/३ दमयन्ती/३

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आदर्श महिला  (1925) 
द्वारा नयनचंद्र मुखोपाध्याय, अनुवादक जनार्दन झा

[ १५४ ]उसी दम उन लोगों की आँख बचाकर वहाँ से चल पड़ी, और जिधर का रास्ता मिला उधर ही को जाने लगी। अँधेरे में रास्ता न सूझता था। बड़ी-बड़ी कठिनाइयों से वह वहाँ से बहुत दूर निकल गई।

रात बीती, सबेरा हुआ। बिना ठौर-ठिकाने के, तेज़ी से चलने के कारण, उसके कपड़े फट गये और सारे शरीर पर धूल छा गई। अब दमयन्ती लाचार होकर एक नगर में गई। वहाँ के ऊधमी लड़कों ने, उसकी ऐसी सूरत देखकर, उसे पगली समझा। इसलिए वे उसका पीछा करके उसको चिढ़ाने लगे। आसरा पाने के लिए दमयन्ती सामने के राजमहल की ओर गई। पता लगा कि यह चेदि देश के राजा सुबाहु का महल है। दमयन्ती जब उस महल के दरवाज़े पर पहुँची तो राजमाता खिड़की से उस दीन वेषवाली स्त्री को देखकर तरस खा गई। उन्होंने एक लौंडी से कहा कि तुम इस स्त्री को तुरन्त मेरे पास ले आओ।

दमयन्ती के बाल बिखरे हुए थे। उसकी सारी भी चिथड़े-चिथड़े हो गई थी। जब इस वेष से दमयन्ती ने राज-भवन में जाकर राजमाता को सिर नवाया तो राजमाता ने लौंडी से कहा--तुम झटपट इसको नहाने के कमरे में ले जाकर नहला-धुला दो।

लौंडी उसको नहाने के घर में ले गई। दमयन्ती ने बदन का धूल-धक्कड़ धोकर राजमाता का दिया हुआ एक कपड़ा पहना। राजमाता की दया से उस सुन्दरी का चेहरा चमक उठा।

तब राजमाता ने उससे पूछा---बेटी! तू ऐसी पगली की तरह वन-वन क्यों घूमती थी?

दमयन्ती का शोक उमड़ आया। आँसुओं से उसकी छाती भीगने लगी। राजमाता ने आँचल से उसकी आँखे पोंछकर कहा--बेटी! यहाँ तेरे डरने की कोई बात नहीं। बेखटके तू मुझको अपना [ १५५ ]हाल बता दे। तेरी हालत देखने से तो यही जान पड़ता है कि तू बहुत दुःख में है। मुझसे जहाँ तक होगा वहाँ तक, मैं तेरे दुःख को दूर करने का उपाय करूँगी। सिर में सेंदुर देखने से मालूम होता है कि तू, सुहागिन है। बेटी! तेरी ऐसी दुर्दशा क्यों है?

दमयन्ती ने हृदय के शोक को दबाकर कहा---"मैया! मैं बड़ी ग़रीबिनी हूँ। मेरे स्वामी, दिनों के फेर से, घर-बार छोड़कर वन में रहते थे। मैं उनको, बुरी हालत के दुःख से, सदा व्याकुल देखती थी और मेरा कोई कष्ट देखकर उनका भी कलेजा फटने लगता था। बीच-बीच में वे मुझसे इस तरह की बात भी कह देते थे कि 'मुझे भाग्य के साथ लड़ाई करके अपनी हालत बदलनी होगी।' मैं रोती तो वे बड़े प्रेम से मेरी आँखों के आँसू पोंछ देते। मा! आज चार दिन हुए, वे अँधेरी रात में मुझको घने वन में छोड़कर न जाने कहाँ चले गये हैं। मैं चार दिन से वन-वन भटककर उनको ढूँढ़ती फिरी किन्तु कहीं उनका दर्शन नहीं हुआ।" धीरे-धीरे उसने उन सब विपत्तियों का कच्चा हाल सुना दिया जो उस पर इन चारों दिनों में बीती थीं। महल की स्त्रियाँ उसके पातिव्रत्य का परिचय पाकर हक्का-बक्का हो गई।

"बेटी! तुम मेरी लड़की की तरह मेरे यहाँ रही। यहाँ तुम्हें किसी तरह का डर नहीं है। मैं तुम्हारे स्वामी को ढुँढ़वाऊँगी।" कहकर राजमाता ने अपनी लड़की से कहा---बेटी सुनन्दा! यह तुम्हारी उमर की है, इसलिए तुम इसको अपनी सखी समझना।

दमयन्ती को सुनन्दा अपने कमरे में लिवा गई। दमयन्ती राज-महल में राजमाता का प्रेम और सुनन्दा का सखित्व पाकर निडर ही

रहने लगी। [ १५६ ]

[ १२ ]

धर विदर्भदेश के राजा ने जमाई और बेटी के देश त्यागने की बात सुनकर, उनको ढूँढ़ने के लिए देश-देश में आदमी भेजे। वे लोग अपने मालिक के हुक्म से-गाँव-गाँव, नगर-नगर, जंगल-जंगल---नल और दमयन्ती की खोज में रात-दिन घूमने लगे।

एक दिन सुदेव नामक एक ब्राह्मण ने दैवयोग से चेदि-राज्य की राजपुरी में, सुनन्दा के साथ दमयन्ती को टहलते देखा। दमयन्ती ने, पिता के घर से आये हुए, सुदेव ब्राह्मण को पहचाना और उसे पास बुलाकर माता-पिता का कुशल-समाचार पूछा। थोड़ी दूर पर खड़ी होकर सुनन्दा उन दोनों की बातचीत सुनती थी। उसने जब सुना कि उसकी सखी विदर्भ देश की राज-कन्या है तब वह बड़े अचरज से माता के पास दौड़ी गई। उसने जाकर माता से कहा---"मा! दीन वेष में आई हुई मेरी सखी कोई मामूली स्त्री नहीं है। वह विदर्भ-राज की लड़की और निषध-नरेश महाराज नल की रानी दमयन्ती है।" यह सुनकर राजमाता ने अचरज से कहा ---सुनन्दा! तुम यह क्या कहती हो? तब तो दमयन्ती अपने नाते की ही है। परन्तु उसकी ऐसी हालत क्यों हुई? मैंने अब तक कुछ भी हाल नहीं जान पाया। तुम क्या कहती हो, कुछ समझ में नहीं आता। दमयन्ती की ऐसी दशा होती तो विदर्भ-नरेश मुझे खवर ज़रूर देते। दमयन्ती कहाँ है? उसको मेरे पास बुला तो लाओ।

सुनन्दा ने दमयन्ती से जाकर कहा---"सखी! तुमको मा बुलाती हैं।" दमयन्ती सुदेव ब्राह्मण को ठहराकर राजमाता से भेंट करने के लिए महल में गई।

राजमाता ने कहा---बेटी दमयन्ती! तुमने इतने दिन मुझको अपना परिचय क्यों नहीं दिया? आज मैंने सुनन्दा के मुँह से सब [ १५७ ]सुन लिया है। बेटी! मैंने तुमको कभी देखा ही नहीं था। तुम तो मेरी गोद की लड़की हो। तुमने मुझसे छिपाया क्यों? मैंने तुम्हारा असली परिचय न पाकर न जाने कब कैसा बर्ताव किया हो। ख़ैर, उसका कुछ ख़याल मत करना।

राज-महल में धूम मच गई। चारों ओर यही चर्चा होने लगी कि जो नई स्त्री आई है, वह विदर्भ की राज-कुमारी और निषध-राज की रानी है। वह राजमाता की रिश्तेदारिन है। आज विदर्भराज के भेजे हुए एक ब्राह्मण ने आकर दमयन्ती को पहचाना है।

राजमाता की आज्ञा से सुदेव की बड़ी ख़ातिरदारी हुई। दूसरे दिन शुभ मुहूर्त में राजमाता ने बहुतसे कपड़े और गहने देकर दमयन्ती को बड़े आदर-मान से विदर्भ देश को भेजा।

[ १३ ]

मयन्ती ने नैहर पाकर माता-पिता के चरणों की वन्दना की। प्राणों से प्यारी लड़की के वियोग से राजा-रानी का मन बहुत उदास हो गया था। आज दमयन्ती को देखकर उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बह चली। नैहर में दमयन्ती का बड़ा आदर-मान होने लगा, किन्तु यह उसको अच्छा नहीं लगता था। नल के विरह की आग उसके हृदय को सदा जलाती रहती थी। माता-पिता से इतना आदर पाकर भी दमयन्ती दिन-दिन दुबली और पीली होने

लगी। राजा ने नल को ढूँढ़ने के लिए, फिर देश-देश में आदमी भेजने का बन्दोबस्त किया। दमयन्ती ने उन सब आदमियों से कह दिया---"आप लोग देश-देश में घूमते समय एक पद कहिएगा। अगर कोई आदमी इसका उत्तर दे तो आप लोग उसका सब हाल-हवाल मालूम कर लीजिएगा। दमयन्ती ने हर एक दूत को यह पद लिख दिया--[ १५८ ]

अरे आधे वसन के तुम चोर हो कहँ छिप रहे।
देखो तुम्हारे विरह में उसने घनेरे दुख सहे॥
वह प्रेम प्यारी का बिसर, तुम क्यों निठुर ऐसे भये?
तेरे बिना उस दुःखिनी के प्राण होठों आ गये॥१॥
वह अन्न-जल छूती नहीं रो-रो बिताती रात-दिन।
कैसे कहूँ जो हो रही उसकी दशा है आप बिन॥
उस विजन वन में रात को सोती हुई को छोड़कर।
तुम चल दिये क्या धर्म है यह फिर न देखा लौटकर॥२॥
कार्य पति का मुख्य है पत्नी-सुरक्षा जानिए।
स्वामी बिना अबला सती का विफल जीवन मानिए॥
हा! गया सुख का दिन, रहे छिप शूर होकर भी डरे।
मलिना कमलिनी हो रही, कब प्रात होगा हे हरे॥३॥
दिन सोचकर दुर्भाग्य का इति धीरता न कभी तजो।
होगा मिलन फिर भी फिरे दिन ईश के पद को भजो॥४॥

देश-देश में, राज्य-राज्य में, जाकर दूत लोग इस पद्य को पढ़कर सुनाते, पर उन्हें कहीं से कुछ भी उत्तर नहीं मिला।

एक दिन, पर्णाद नामक एक ब्राह्मण ने अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण की सभा में जाकर दमयन्ती का सिखाया हुआ वह पद पढ़ा; किन्तु कोई उस कविता का उत्तर न दे सका।

ऋतुपर्ण राजा का बदशकल कुबड़ा सारथि बाहुक उस पद को सुनकर पर्णाद से एकान्त में बोला---हे श्रेष्ठ ब्राह्मण! मैं आपको इस का उत्तर दे सकता हूँ। आप लौटते समय मुझसे इसका उत्तर लेते जाइएगा।

पर्णाद जब स्वदेश को लौटने लगा तब बाहुक ने उसको दमयन्ती

के पद के उत्तर में आगे लिखी पंक्तियाँ लिखकर दे दीं--[ १५९ ]

उस दूर कोशल देश में ऋतुपर्ण की नगरी जहां।
अाधे वसन का चोर दुख से है बिताता दिन वहाँ॥
वह स्वर्ण-पक्षी वस्त्र लेकर जब हमारा उड़ गया।
हा! तब तुम्हारे चित्त में कुछ कम विषाद नहीं भया॥१॥
प्यारी तुम्हारे प्रणय का साखी हमारा नयन है।
जो आँसुओं के नीर में रहता किये ही शयन है॥
यह भूल ही तबसे गया है---नींद कहते हैं किसे?
ईश्वर करे अब शीघ्र ही दर्शन तुम्हारे हों इसे॥२॥

पर्णाद नाम के ब्राह्मण ने विदर्भ राज्य में लौटकर, राज-सहल में आकर, दमयन्ती से कहा---राजकुमारी! मैंने निषध-नरेश को खोजते-खोजते अनेक देशों में भटककर, अन्त में कोशल-राज ऋतुपर्ण के कुबड़े सारथि से यह उत्तर पाया है।

दमयन्ती ने पर्णाद के दिये हुए पत्र को एक बार, दो बार, तीन बार---कई बार पढ़ा। पढ़कर वह समझ गई कि यह मेरे जीवननाथ की ही चिट्ठी है। बहुत दिनों तक दर्शन न पाने के कारण खेद के विष से जो देह जर्जर हो रही थी, उसमें अाज अाशा का अमृत बरस गया।

दमयन्ती ने हड़बड़ाकर पूछा--हे द्विजवर! कृपा करके बताइए कि ऋतुपर्ण राजा के सारथि का नाम क्या है और उनका चेहरा कैसा है।

पर्णाद---राजकुमारी! सारथि का नाम बाहुक है। वह बहुत दुबला-पतला और काले रङ्ग का है। फिर भी चेहरे से ऊँचे खान्दान का मालूम पड़ता है।

यह बात सुनकर दमयन्ती को धोखा हुआ। उन्होंने रानी से कहा--मा! ऋतुपर्ण राजा के सारथि ही बहुत करके निषध-पति [ १६० ]हैं। मैं उस सारथि को देखना चाहती हूँ। सुदेव शर्मा एक बार कोशल देश में जाकर यह कह आवें कि 'दमयन्ती फिर स्वयंवर करेगी।' स्वयंवर का न्यौता पाकर जब महाराज ऋतुपर्ण विदर्भराज्य में आवेंगे तब उनके साथ वह सारथि ज़रूर आवेगा।

रानी---यह कैसे हो सकता है? शायद वह सारथि न भी आवे। राजा के सिर्फ़ एक ही सारथि तो होता नहीं।

दमयन्ती---"नहीं मा! इसके लिए मैंने एक तदबीर सोची है। कोशल देश यहाँ से बहुत दूर है। अगर सुदेव वहाँ जाकर कहे कि कल ही विदर्भ-राजकुमारी का स्वयंवर है तो राजा ऋतुपर्ण उस सारथि को ज़रूर साथ ले आवेंगे। मा! मैं जानती हूँ कि निषध-पति घोड़ा हाँकने में अपना जोड़ा नहीं रखते। एक दिन में, इतनी दूर, महाराज नल के सिवा और कोई नहीं आ सकेगा।" रानी ने बेटी की बात मानकर सुदेव को कोशल-देश में भेज दिया। सुदेव ने कोशल-राज के दरबार में जाकर कहा---कल, विदर्भ-राजकुमारी का फिर से स्वयंवर होगा।

स्वयंवर में पहुँचने के लिए महाराज ऋतुपर्ण तुरन्त तैयार हो गये। उन्होंने बाहुक को बुलाकर कहा---सारथि! अगर तुम एक ही दिन में मुझे विदर्भ-देश पहुँचा सको तो मैं तुमको मुँह माँगा इनाम दूँगा।

नल समझ गये कि यह सिर्फ़ दमयन्ती की चालाकी है। इसलिए वे अपनी बात के पूरी होने की आशा कर राज़ी हो गये और उन्होंने चुने हुए घोड़ों को रथ में जोता। रथ हवा की चाल से आकाश-मार्ग में जाने लगा।

राजा ऋतुपर्ण को बाहुक अनेक देश दिखाता गया। एकाएक घोड़ों [ १६१ ]की लगाम खींच ली गई और रथ में जुते हुए चारों घोड़े धीरे-धीरे पृथिवी पर उतरे।

ऋतुपर्ण ने पूछा---बाहुक! रथ की चाल धीमी क्यों हुई?

बाहुक---महाराज! हम लोग विदर्भ-राज्य के पास पहुँच गये।

राजा---अयँ! इतने थोड़े समय में, तुमने इतनी दूर का रास्ता कैसे तय कर लिया!

बाहुक---महाराज! मैंने पहले समय में महाराज नल से घोड़ा हाँकने की विद्या सीखी थी। इस विद्या के प्रभाव से मैं घड़ी भर में चार सौ कोस तक रथ ले जा सकता हूँ। ये देखिए, ताप्ती और भद्रा आदि विदर्भ-राज्य की नदियाँ हैं।

राजा---भद्र, मैं तुम्हारा घोड़ा हाँकना देखकर बहुत ख़ुश हुआ हूँ। बताओ, तुमको क्या इनाम दूँ?

बाहुक ने नम्रता से कहा---महाराज! आप पासा खेलने में चतुर हैं। मुझे वही विद्या सिखा दीजिए।

राजा ऋतुपर्ण ने कहा---मैं तुमको वह विद्या सिखा दूँगा। परन्तु एक शर्त है---मैं तुमसे, उसके बदले में, घोड़ा हाँकने की विद्या सीखना चाहता हूँ।

विदर्भ---नगर के बाहर, बाहुक ने राजा ऋतुपर्ण को घोड़ा हाँकने की, और ऋतुपर्ण ने उसे जुआ खेलने की, विद्या सिखा दी।

ऋतुपर्ण ने विदर्भ में पहुँचकर स्वयंवर का कोई भी चिह्न न देखा। इससे उन्हें अचरज हुआ। उन्होंने सोचा, तो क्या किसी ने मुझे धोखा दिया है! अब उनको होश हुआ। वे सोचने लगे कि "दमयन्ती क्या फिर स्वयंवर कर सकती है! जिसने देवताओं को छोड़कर निषध-पति के गले में जयमाल डाली थी, उसके फिर स्वयंवर करने की खबर पर विश्वास करके मैं यहाँ आया हूँ! अफ़सोस!" [ १६२ ]राजा ऋतुपर्ण बहुत सिटपिटाये। कुछ सोच-विचार कर तय किया, "जब यहाँ आ गया हूँ तब एक बार विदर्भराज से मिल ही लेना चाहिए।" ऋतुपर्ण विदर्भ-राजधानी में आये।

राजा भीम को कोशल देश के राजा ऋतुपर्ण के आने का समाचार जानकर बड़ा अचरज हुआ। वे तुरन्त उनके पास गये। यथा-योग्य मिल-भेटकर बड़े आदर-मान से उनको वे राज-महल में ले आये। राजा भीम की आज्ञा से सारथि और घोड़ों के रहने का ठीक-ठीक बन्दोबस्त हुआ।

ऋतुपर्ण ने कहा---विदर्भराज! मुझे एक बड़ा ही चतुर सारथि मिला है। रथ पर घूमते-घूमते, एकाएक जी में आया कि बहुत दिन से आपसे भेंट नहीं हुई। इसी से आज बिना ख़बर दिये ही आपका मेहमान हो गया।

कोशलपति के आने का समाचार पाकर दमयन्ती के चित्त में एक नया भाव उठा। उसने अपनी प्यारी सखी केशिनी को बुलाकर कहा---केशिनी! तुम कोशलराज के सारथि को एक बार देख तो आओ।

केशिनी ने उस कुरूप और कुबड़े सारथि के पास जाकर बड़ी नम्रता से पूछा---महाशय! आप लोग कहाँ से और किस मतलब से यहाँ आये हैं? मुझे बतलाइए। मेरी सखी दमयन्ती इस बात को जानना चाहती हैं।

बाहुक---मेरे मालिक कोशलराज कल एक ब्राह्मण के मुँह से विदर्भ-राजकन्या के स्वयंवर की बात सुनकर आये हैं। मैं उनका सारथि हूँ।

केशिनी---महाशय! आपके साथ सारथि की पोशाक पहने हुए जो और एक आदमी है, वह कौन है? [ १६३ ]बाहुक---निषधराज नल के यहाँ पहले सारथि थे; उनका नाम वार्ष्णेय है। नल जब जुए में सब कुछ हार गये तब उनकी चतुर रानी ने अपने प्राण समान प्यारे बेटे और बेटी को इनके साथ विदर्भ भेज दिया। फिर इनको ऋतुपर्ण के यहाँ सारथि की जगह मिल गई।

केशिनी---आप जानते हैं कि आजकल नल कहाँ हैं? आपने अपने साथी वार्ष्णेय से राजा नल के विषय में तो कुछ नहीं सुना है?

बाहुक--भद्रे! मैं नल का कुछ हाल नहीं जानता। शायद, वे आजकल वेष बदलकर किसी गुप्त मतलब को साधने की धुन में हैं। मैं समझता हूँ कि मेरे साथी वार्ष्णेय भी नल के बारे में इससे अधिक कुछ नहीं जानते।

"महाशय! राजकुमारी दमयन्ती पति के विरह में, सन्ध्या समय की कमलिनी की तरह, कुम्हलाकर दिन काट रही है। पति के वियोग से व्याकुल दमयन्ती ने लापता महाराज नल को ढूँढ़ने के लिए एक पद्य देकर देश-देश में दूत भेजे थे। उन दूतों में से, पर्णाद नामक ब्राह्मण ने ऋतुपर्ण की राजधानी में एक सारथि से उस कविता का उत्तर पाया। वह क्या आपही का लिखा हुआ है?" केशिनी के मुँह से दनयन्ती की हालत सुनकर छिपे हुए वेष में महाराज नल बहुत दु:खित हुए। उनकी आँखों में आँसू भर आये।

अचरज से बाहुक के अकचकाकर चुप हो रहने और उसकी खेद से डबडबाई हुई आँखें देखकर केशिनी सोचती हुई राज-महल में लौटी।

केशिनी के मुँह से ऋतुपर्ण के वेष वदते हुए सारथि की बात सुनकर दमयन्ती को सन्देह हुआ कि वही नल हैं। उसके हृदय में शोक उमड़ आया। उसने अपने को सँभालकर कहा--केशिनी! तुम एक बार और उस सारथि के पास जाओ। उस आदमी का कोई [ १६४ ]अनोखा काम देखो तो तुरन्त आकर मुझसे कहना। सखी! न जाने क्यों, तुम्हारे मुँह से सारथि की बात सुनने के समय से मेरा चित्त अशान्त हो रहा है मानो मेरी टूटे तारों को प्रेम-वीणा नई तान से सुर दे रही है। केशिनी! जाओ, देर मत करो।

कुछ देर बाद, केशिनी ने पति के विरह से व्याकुल दमयन्ती के कमरे में लौटकर कहा---राजकुमारी! सारथि की अजब लीला देखकर मैं चकरा गई हूँ। मैंने पहले और कभी ऐसे विचित्र मनुष्य को नहीं देखा था। दुनिया के सभी पदार्थ तो उनके नौकर से हैं। सखी! मैंने देखा कि उनके ताकने से ख़ाली घड़ा जल से भर जाता है, बिना ही आग के सूखा तृण और काठ जल उठता है। सखी! और ज़ियादा क्या कहूँ, सारथि के हाथ का मसला हुआ फूल कुम्हलाने या सूखने के बदले और भी खिलकर महकने लगता है। सखी! ऐसी अचरज-भरी बात मैंने कभी नहीं देखी थी। यह आदमी क्या कोई जादूगर है या प्रत्यक्ष देवता?

दमयन्ती ने तड़फड़ाकर कहा--"सखी! मैं सब समझ गई। मेरा सारा सन्देह दूर हो गया---वे देवता ही हैं। मेरे हृदयराज के वही राजा हैं। सखी! यह तो जाड़े से ठिठुरती हुई धरती पर वसन्त का सुखदायी स्पर्श है; रेगिस्तान की तपी हुई भूमि में मन्दाकिनी की शीतल धारा है; आमों के उजड़े हुए बाग में कोयल की मीठी कुहुक है।" केशिनी के अचरज का ठिकाना न रहा।

इसके बाद दमयन्ती ने माता-पिता की सलाह से, सारथि के वेष में आये हुए बाहुक को---पहचानने के निमित्त---अपने कमरे में बुलाने के लिए केशिनी को भेजा।

केशिनी ने जाकर राजकुमारी की इच्छा प्रकट की तो वह [ १६५ ]सारथि एक आधी फटी हुई धोती और दो कपड़े लेकर केशिनी के संग चला।

राजभवन में बाहुक जल्दी आ पहुँचा। उसने सोचा कि हाय रे दुर्दैव! मैं जिस राजभवन में एक दिन चतुरङ्गिनी सेना लेकर ठाट-बाट से आया था आज अभाग्य के फन्दे में पड़कर वहीं इस दीन-वेष में आना पड़ा! बाहुक को साथ में लिये केशिनी दमयन्ती के कमरे में गई।

विरह से व्याकुल दमयन्ती का उदास चेहरा देखकर नल बहुत दुःखित हुए। दमयन्ती ने यद्यपि इस कुरूप और कुबड़े सारथि को नल की छिपी हुई सूरत समझ लिया था तथापि उसका सन्देह अभी दूर नहीं हुआ था। इससे उसने कहा---'हे सारथि! स्वामी के साथ वन में रहनेवाली स्त्री को घोर वन में अकेली सोती छोड़कर चला जाना क्या ऊँचे हृदयवाले स्वामी का काम है? जिन महापुरुष ने स्वयंवर-सभा में आये हुए देवताओं से भी ज़ियादा इज्ज़त लूटकर स्वयंवर की माला पाई थी; जिन्होंने अग्नि को गवाह करके प्रतिज्ञा की थी कि 'मैं तुम्हारा हुआ;' उनका बिना कोई अपराध के---स्वामी को ही प्राणों का आधार समझनेवा‌ली--स्त्री को असहाय अवस्था में छोड़ देना क्या उनके सत्य-प्रतिज्ञ नाम की इज्ज़त बढ़ाता है?" यह बात कहते-कहते दमयन्ती की आँखों से आँसुओं की वर्षा होने लगी।

नल ने रुके हुए स्वर से कहा---देवी! मनुष्य की इच्छा से कोई काम नहीं होता, सब कामों के मालिक भगवान हैं। वे ही इस बड़े भारी विश्वयन्त्र को चलाते हैं। इसलिए सज्जन इस मङ्गलमय जगत् को आँसू बहाकर कभी कलङ्कित नहीं करते। खास कर, गूढ . [ १६६ ]बातों से भरे इस जगत् में कार्य और कारण के सम्बन्ध को जान लेना बड़ा ही कठिन है। कार्य क्या है, कारण क्या है और किस कार्य की जड़ में भगवान् का कौनसा शुभ उद्देश भरा हुआ है---इसको पृथिवी की माया में लिपटे हुए प्राणी नहीं समझ सकते। इसी से इतनी अशान्ति है। देवी! जिस दिन मनुष्य को इसका ज्ञान होता है उसी दिन उसकी मनुष्यता पूरी होती है; उसी दिन ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता का बड़ा मिलाप होता है; उसी दिन मनुष्य को निर्वाण-समाधि मिलती है। जिस दिन बाहरी जगत् के साथ भीतरी जगत् का मिलन साफ़ समझ में आ जाता है उस दिन हृदय में फिर कोई अशान्ति नहीं रहती। 'स्वामी का पद साध्वी स्त्री के लिए पवित्र तीर्थ है,' इसी ज्ञान को स्त्रियाँ अटल सत्य मानें। स्वामी का आचरण देखकर उसके बारे में जी में बुरा ख़याल रखना स्त्री के सती-धर्म में बट्टा लगाता है। खास कर, खूँखार जानवरों से भरे जङ्गल में सोती हुई पत्नी को छोड़ जाने से ही स्वामी को तुम अपराधी नहीं कह सकतीं और ऐसे समय में तो तुम उसको और भी अपराधी नहीं कह सकती जब कि उस पापी कलि का प्रभाव उस पर जमा हुआ रहा हो। मानिनी! खेद मत करो।

दमयन्ती और कुछ नहीं कह सकी। सारथि की ये बातें सुनकर

उसका रहा-सहा सन्देह मिट गया। इतने दिनों से, हृदय के भीतर, जीवननाथ का वह जो ध्यान किया करती थी, देखा कि आज वह पूजा पूरी हुई है। दमयन्ती ने बाहुक की ओर नज़र फेरकर ताड़ लिया कि यही---राख में तुपी आग के समान, राहु से ग्रसे चन्द्रमा के समान---कलि के सताये हुए पुण्यश्लोक नल हैं। जब दमयन्ती अधीर हो गई तब नल ने "रानी! तुमको त्यागने के दिन से मेरी आँखों से आँसुओं की जो धारा जारी हुई है वह, आज तुम्हारी [ चित्र ]
बहुत दिनों के वियोग के बाद आज दो दुःखित प्राण मिल गये—पृ॰ १६७

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग। [ १६७ ]आँखों के पानी में मिल जाय" कहकर बड़े प्रेम से दमयन्ती के आँसू पोंछ दिये।

बहुत दिनों के वियोग के बाद आज दो दुःखित प्राण मिल गये। दमयन्ती का सायंकाल के कमल-सा कुम्हलाया हुआ मुखड़ा देख- कर नल को दुःख हुआ! नल का ऐसा बिगड़ा हुआ चेहरा देखकर दमयन्ती भी रोने लगी। इस प्रकार, आँसुओं के जल से दोनों की विरह से जलती हुई छाती ठण्डी हुई।

जुदा होने के बाद से अब तक की अपनी-अपनी बीती हुई विपद की कहानी दोनों ने एक-दूसरे को कह सुनाई।

कर्कोटक के दिये हुए दोनों कपड़े बदलकर नल अब असली रूप में हो गये। दुर्भाग्यरूपी राहु से छूटे हुए पूर्णचन्द्र के समान पति को देखकर आज दमयन्ती की प्रीति-नदी में तरङ्गे उठने लगीं।

रात बीतने के साथ-साथ यह अचरज से भरा समाचार सब पर ज़ाहिर हो गया। विदर्भ देश के निवासी, आज राजा के जमाई से राजकन्या की फिर से भेंट देखकर खुशी से उत्सव मनाने लगे!

राजा ऋतुपर्ण ने नल से क्षमा माँगकर बिदा ली।

इसके बाद निषध-पति महाराज नल विदर्भ-राज के घर प्राण से प्यारे पुत्र, कन्या और प्यारी पत्नी से मिलकर कुछ दिन सुख से रहे और फिर अपने राज्य को लौट आये।

महाराज नल के लौटने की बात सुनकर पुष्कर उदास हुआ।

राजधानी में पहुँचते ही नल ने पुष्कर को पासा खेलने के लिए ललकारा। पुष्कर ने ताने की हसी हँसकर कहा---"इतने दिन देश-विदेश में घूमकर ऐसा क्या ले आये हो जो पासा खेलने की [ १६८ ]हिम्मत करते हो?" नल ने कहा---सो दिखा दूँगा, तुम आओ तो सही।

जूआ शुरू हुआ। तुरन्त पुष्कर सब कुछ हार गया, केवल उसका प्राण बाक़ी रह गया। तब नल ने कहा---पुष्कर! अब सिर्फ़ तुम्हारा प्राण बाकी है। मैं चाहूँ तो उसे भी ले सकता हूँ, किन्तु मैं ऐसा नहीं किया चाहता। तुम अपने पहले अधिकार को फिर पाओगे। आशा है, अब तुम ईर्ष्या और घमण्ड छोड़कर मुझ पर प्रीति करोगे।

देवता के समान बड़े भाई नल के अमृत ऐसे वचन सुनकर पुष्कर चरण पकड़कर बार-बार क्षमा माँगने लगा। महाराज नल ने उसके अपराध को क्षमा कर दिया।

इसके बाद, महाराज नल पहले की तरह प्रजा का पालन करने लगे। निषध देश की प्रजा और भारत के दूसरे-दूसरे राजा लेग महाराज नल और महारानी दमयन्ती की उदारता और निष्ठा की बातें सुनकर 'धन्य धन्य' करने लगे।

साध्वी दमयन्ती ने नल के लिए जो कष्ट सहा था उसका वर्णन नहीं हो सकता। दमयन्ती की ऐसी एकाग्रता, निष्ठा और संयम ने हिन्दुओं के पुराणों और इतिहासों को बड़प्पन दिया है। न जाने कितने दिन बीत गये, अभी तक सती के सतीत्व की कथा भारत के इतिहास में सोने के अक्षरों से लिखी हुई है। जब तक हिन्दू-धर्म रहेगा तब तक यह इसी प्रकार घर-घर में आदर पावेगी।