आदर्श महिला/४ शैव्या

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आदर्श महिला  (1925) 
द्वारा नयनचंद्र मुखोपाध्याय, अनुवादक जनार्दन झा
[ चौथा-आख्यान ]
चौथा आख्यान
शैव्या
[ १७१ ]
चौथा आख्यान

शैव्या

[ १ ]

अाजकल का अवधप्रान्त पहले कोशल कहलाता था। पवित्र जलवाली सरयू के किनारे कोशल की राजधानी अयोध्या नगरी थी। अयोध्या के भवन आकाश को चूमते थे। उस धन-जन से भरी-पूरी अयोध्या में महाराज हरिश्चन्द्र राज्य करते थे। सोमदत्त राजा की बेटी शैव्या उनकी रानी थी।

शैव्या रूप में जैसी बेजोड़ थी वैसी ही गुणवती भी थी मानो विधाता ने सारी सुघड़ाई लगाकर शैव्या की देह को बनाया था। शैव्या जैसी रूप-गुणवाली स्त्री को पाकर हरिश्चन्द्र धन्य हुए थे। मतलब यह कि, शैव्या के साथ रहने से एक ओर जैसे महाराज हरिश्चन्द्र को प्रजा के पालने में शौक हुआ था वैसे ही दूसरी ओर हृदय की अच्छी आदतों के खुल जाने से वे एक आदर्श पुरुष हो रहे थे। शूरता को बतलानेवाली उनकी विशाल देह में जैसे वीरता मौजूद थी वैसे ही उनका हृदय भी मनोहरता का खजाना था। महारानी शैव्या राजा के हृदय-सरोवर में खिली हुई कमलिनी की तरह शोभा पाती थी। शैव्या ही हरिश्चन्द्र का शान्ति-सुख, शैव्या ही उनका उत्साह [ १७२ ]और उनका सब कुछ थी। देह अलग-अलग होने पर भी उन दोनों के प्राण हृदय के मिलन से एक हो गये थे।

एक दिन राजा, दुपहर के समय, भोजन के बाद आराम करने के कमरे में पलँग पर लेटे हुए थे। इतने में, मन्दिर से लौटी हुई शैव्या उस कमरे में आकर उनके पैरों के समीप बैठ गई।

"शैव्या! आज तुम ऐसा क्यों करती हो? फूलों की माला की शोभा देवता के गले में होती है, और मणि की शोभा राजा के मुकुट में ही। अयोध्या का राजमहल तुम्हारे समान, तीनों भुवनों की सुन्दरियों से भी सुन्दर, स्त्रीरूपी फूल से सुगन्धित है। शास्त्र में कहा है कि साध्वी स्त्री ही स्वामी के हृदय की देवी है। तुम मेरे उस अधिकार को क्यों छीनना चाहती हो? मैंने तीनों लोकों को ढूँढ़कर जो रत्न पाया है वह मेरा रत्न आज अनुचित स्थान पर क्यों पड़ा है? शैव्या! तुम मेरी कामना के लिए कौस्तुभमणि हो, तुम धूप में तपे हुए स्वामी के लिए शीतल चन्दन हो।" यह कहकर राजा ने प्यार से रानी को, दोनों हाथ पकड़कर, छाती की ओर खींचा।

शैव्या तनिक सिटपिटाकर बोली---नाथ! आपके आदर और प्रेम से मैं बड़भागिनी हूँ, किन्तु, स्वामी! नारी का नारीत्व स्वामी की छाती में नहीं मिलता; वह तो स्वामी के चरणों में है! इतने दिनों तक मैंने अपनी उस साधना के स्थान को नहीं पाया था। आज देवी के मन्दिर में आचार्यजी से यह उपदेश पाया है। नाथ! स्वामी के पास स्त्री का जो यह श्रेष्ठ अधिकार है उसको मुझसे न छीनिए।

राजा---प्यारी! आज तुमको नये रूप में देख रहा हूँ। तुम्हारी वह टेढ़ी चितवन आज मानो जगत् के उदार प्रेम से सीधी हो गई है, मानो तुम आज दोनों हाथों से कल्याण और पवित्रता लेकर जगत् में [ १७३ ]नये जीवन की सूचना कर रही हो। मैं धन्य हूँ, जो स्त्रियों में रत्न-स्वरूप तुम मेरे हृदय-सिंहासन की देवी हुई हो।

रानी---नहीं महाराज, मैं तो दासी हूँ। स्त्री स्वामी के पास देवी बनकर धन्य नहीं होती, वह उनके पास दासी बनने से सार्थक होती है। स्त्री का हृदय स्वामी की पूजा करके धन्य होता है और स्वामी का हृदय पत्नी को प्रेम देकर पवित्र होता है। महाराज! यही तो प्रेम है। इस प्रेम में जहाँ वासना की आग जलती है वहाँ सुख का घर जलकर ख़ाक हो जाता है। वह प्रेम नहीं है। वह तो जवानी का कपट से सना हुआ आमोद है; लालसा की झूठी तृष्णा है; काम की अग्निज्वाला है। महाराज! कामना का चुम्बन शान्ति देनेवाली अमृत की धारा नहीं है; वह तो सत्यानाश की उबलती हुई मदिरा है। प्रेम का अड़्कुर उसमें सदा के लिए सूख जाता है। प्रेम में जहाँ कामना है वह स्थान केवल अमङ्गल का मरघट है।

हरिश्चन्द्र ने कहा---रानी! मैं तुम्हारी बात समझ गया। तुमने इस ग्रीष्म की दुपहरिया में प्रणय से विह्वल स्वामी के पास जिस बात की भूमिका बाँधी है उसे मैं भली भाँति समझ गया हूँ।

रानी---महाराज! समझ गये? क्यों नहीं समझोगे। सूर्य की किरणें क्या सदा मेघ में छिपी रह सकती हैं? आपकी जो कीर्ति- कहानी सदा के लिए पृथिवी पर चमकती रहेगी वह क्या कभी छिप सकती हैं? आपको बड़प्पन के मुकुट से सजे हुए देखने के लिए मेरा जी तरस रहा है। महाराज! वासना का अन्त नहीं है, एक के पूर्ण होने पर एक और वहाँ पहुँच जाती है। एक बार बीती हुई बातों की याद कीजिए। जब गरमी में राजधानी के राजमहल अग्नि के कुण्ड-समान गरम हो जाते तब इन्हें छोड़कर आप बर्फ़ से ढके हुए हिमाचल की शान्त शीतल चोटियों पर जा रहते; फिर वर्षाऋतु आने पर, [ १७४ ]संगमर्मर के पहाड़ों से लिपटनेवाली नर्मदा में जल-विहार करने की इच्छा होती। वासना से छुट्टी यहीं थोड़े मिल जाती? नर्मदा-तीर के कास-फूल जब वर्षा की बिदाई के गीत गाते, जब सूर्य की किरणों में पीलापन दिखाई देता, मीठी बोलीवाले हंस जब नीले आकाश के बदन में सफ़ेद कमलों की माला पहनाकर उत्तर में मानसरोवर को जाते, तब आपके हृदय में एक और नई वासना की उमङ्ग उठती। आप फिर, मुझे साथ लेकर, मानसरोवर को चल देते किन्तु लालसा से छुटकारा वहाँ भी न होता। जिस समय आप देखते कि मानसरोवर में खिले हुए कमल-दल, ओसरूपी आँसू गिराकर, शरद की बिदाई का रङ्ग प्रकट कर रहे हैं उस समय आप राजधानी को लौट आते, किन्तु नाथ! सुख की उस गृहस्थी में भी और एक लालसा कोई मोहिनी मूर्ति धरकर आपके हृदय को खींचा करती। जब आप देखते कि यह धरती शरद के बाद फूलों से फूल-सी हो गई है, सूर्य की किरणें सुहावनी लगती हैं, और जब आप देखते कि मलयाचल की, भीनी-भीनी हवा बहती है और चिड़ियाँ मस्त होकर चहक रही हैं तब आपका हृदय फिर निकुञ्ज में रहने को ललचता। महाराज! तब आप मुझे साथ लेकर फिर बग़ीचों में चले जाते। विचारकर देखिए, वासना की निवृत्ति है कहाँ? यह काल-समुद्र की लहर की तरह जीवन को कितना डाँवाडोल कर देती है! मैं इस बात को नहीं समझती थी, इसी से किसी गुप्त सुख का भ्रम मेरी दृष्टि को रोके हुए था। मैं भविष्य को नहीं देखती थी। मैंने अपने प्रेम-प्यासे पति के हृदय में लालसा की धधकती हुई आग को घी डालकर धीरे-धीरे बढ़ा दिया था। महाराज! मेरा वह भ्रम मिट गया है। मैं समझ गई हूँ कि सुख निवृत्ति में है—सुख कर्तव्य को पूरा करने में है।

राजा ने मन ही मन सोचा—ऐसी प्रतिभा से चमकती [ १७५ ]सुन्दरता की प्रतिमा की सलोनी शोभा को मैंने पहले कभी नहीं देखा था। आज शैव्या मेरी केवल पत्नी ही नहीं है, बल्कि वह आज मेरी प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली भाग्य-देवी भी है। फिर रानी से कहा—शैव्या, जान पड़ता है वासना की ज्वाला से मैंने हृदय को रेगिस्तान की ख़ुश्क धरती से भी भयानक बना दिया है, किन्तु प्राणप्यारी! मेरा वह मोह काटने से भी नहीं कटता है।

रानी—नाथ! मैं खूब जानती हूँ कि आप मुझे कितना प्यार करते हैं, किन्तु वह प्यार ही सीमा लाँघकर भयानक हो गया है। आपकी जो जीवन-नौका कर्त्तव्य-रूपी समुद्र की ऊँची-ऊँची लहरों को चीरती-फाड़ती नये वेग से जा रही थी वही अब अँधेरे में, दूसरे रास्ते, विपद की ओर जा रही है। क्या आप इसे समझते हैं?

राजा—रानी! अगर तुम पर मेरा प्यार है, अगर मैं तुम्हें पहचानता हूँ तो इसे सच समझना कि मेरी वह नौका डूबने न पावेगी। मुझ भूले-भटके के लिए तुम ध्रुव नक्षत्र हो।

रानी—महाराज! मैं आपसे आदर पाकर बड़भागिन हूँ। मैं जानती हूँ कि आप दया की प्रत्यक्ष मूर्त्ति हूँ, मनुष्यत्व के उज्ज्वल चित्र हैं। इसी भरोसे पर मैं आपकी भूल दिखाने की हिम्मत करती हूँ। राजन्! आप एक बार अपने कर्त्तव्य-पालन का विचार करें; अपनी प्रजा पालने की निपुणता का स्मरण करें। आप देखें कि प्रजापालन के पवित्र मंत्र पर ही कोशल का राज-सिंहासन रक्खा हुआ है। दुराचार को दण्ड देने से कोशलराज की हुकूमत ने इज्जत पाई है, किन्तु महाराज! आप, मेरे ही कारण, बहुधा राजकीय कर्त्तव्य पालने में टालमटोल कर देते हैं। अब समझ गये न, मैं क्या कहना चाहती हूँ। [ १७६ ]

राजा—रानी! मेरा चित्त ठिकाने पर आ गया। अब मैं सब समझ गया हूँ। मुझे अब याद आ रहा है। तुम्हारी प्रेम से पवित्र पुकार माना मेरे आलसी शरीर में उत्साह भर रही है। तुम्हारी मधुर दृष्टि ने मुझे रास्ता दिखा दिया है। अब मुझे वही करना होगा जिससे तुम सुखी रहो।

रानी—अवश्य कीजिए। महाराज! आप आदर्श राजा हैं। आपके छत्र के नीचे असंख्य राजा प्रीति के मंत्र से मोहित होकर मिले हुए हैं। आप समुद्र की तरह गम्भीर हैं। दुनिया के मामूली मोहमद से आपका हृदय चञ्चल कैसे हो सकता है?

इस प्रकार की बातचीत में बहुत समय बीत गया। स्वामी की आज्ञा लेकर शैव्या, मन्दिर में जाने के योग्य कपड़े पहनकर, सहचरी और दासी की बाट देखने लगी।

थोड़ी देर में सहचरी और दासियाँ आ पहुँचीं। लाल रेशमी साड़ी पहने शैव्या रानी, तारापुञ्ज से समुज्ज्वल आकाशगङ्गा के मार्ग में विचरनेवाली सुराङ्गना की भाँति, मन्दिर की ओर चली। रानी के एक हाथ में, सोने के बने पुष्पपात्र में, तरह-तरह के सुगन्धित फूल और दूसरे हाथ में जल तथा पूजा की और सामग्री थी।

[२]

मन्दिर से लौटने पर शैव्या ने, आराम करने के कमरे में जाकर, देखा कि महाराज सो गये हैं। उसने, स्वामी के पैरों के नीचे बैठकर, धीरे से उनके दोनों पैर अपने सिर पर रखते हुए कहा—हे विधाता! स्वामी के ये चरण ही मेरे लिए परम तीर्थ हैं। अबलां के हृदय में शक्ति दो कि मैं इस परम तीर्थ के निकट वासना छोड़कर अमर फल पा सकूँ। [ चित्र ]
[ १७७ ]

यह कहते-कहते शैव्या की आँखों से दो बूँद आँसू टपककर राजा के चरणों पर जा गिरे।

इस बात का फ़ैसला करना सहज नहीं कि संसार में कौन छोटा है और कौन बड़ा। इसी तरह, इस बात का निश्चय करना भी बड़ा कठिन है कि किसका क्या काम है। रानी ने सोये हुए राजा के दोनों चरणों को हाथों में लेकर सिर पर रक्खा। कमल के समान चरणों की रज से सती का सेंदुर लगा हुआ माथा पवित्र हुआ तथापि राजा की नींद नहीं टूटी, किन्तु दो बूँद आँसू गिरते ही राजा जाग उठे। उन्होंने आँखे खोलकर देखा कि कमरे में शोभा की अपूर्व बाढ़ आ गई है।

राजा ने तुरन्त शय्या से उठ रानी को गले लगाकर कहा—शैया! तुम रोती क्यों हो? तुम्हारे एक बूँद आँसू ने मेरी सारी साधना को व्यर्थ कर दिया। आज दुपहर में तुम्हारी डबडबाई हुई आँखें देखकर मैंने जो शिक्षा पाई है उसे मैं हमेशा याद रक्खूँगा। देखो देवी, आज तुम्हारे इस आँसू की सफ़ाई से यह दिये की ज्योति मलिन-सी हो गई है।

रानी ने मधुर कण्ठ से कहा—नाथ! आप धन्य हैं और आपसे अधिक धन्य मैं हूँ कि जिसने आपके ऐसा देवियों को भी दुर्लभ स्वामी पाया है।

राजा में प्रेम-पूर्ण दृष्टि से रानी की ओर देखकर कहा—शैव्या! तुम्हारे समान स्त्री-रत्न को हृदय में धारण कर मैं धन्य हुआ हूँ, तृप्त हुआ हूँ।

रानी ने कहा—स्वामी! देवता के गले में फूलों की माला शोभा पाती है, इसमें देवता धन्य हैं कि फूलों की माला?

राजा ने प्रेम से कहा—दोनों ही धन्य हैं। [ १७८ ]

रानी ने हँसकर कहा—नहीं महाराज, यहाँ अन्याय मत कीजिए।

इस प्रकार की बातचीत में राजा-रानी की सुख की रात बीती।

सचमुच ही वह सुख की रात थी। जिस दिन नया जीवन मिलता है, जिस दिन अपने आपको भूला हुआ मनुष्य अपने को पहचान लेता है, जिस दिन राह भूला हुआ मनुष्य अपना रास्ता ठीक कर लेता है, और जिस दिन तत्त्वज्ञान का विकास होता है, वही दिन असल में बड़े सुख का है। आज हरिश्चन्द्र पत्नी की आँसू-भरी आँखों में स्वर्ग की पवित्रता देखकर और उसके अमृत-समान वाक्य सुनकर धन्य हुए हैं। आज उसी पुण्यात्मा रानी के खेद-भरे आँसुओं से, उसकी प्रेम-पूजा के नैवेद्य से और सच्ची सरलता से, वह अनर्थ कट गया है। वर्षा से बिगड़ा हुआ नीला आसमान शरदृतुरूपी सुन्दरी के प्यारे स्पर्श से साफ़ होकर पुण्य के तारों से जगमगा गया है। यह क्या राजा हरिश्चन्द्र के थोड़े सुख का दिन है?

इस प्रकार, राजा हरिश्चन्द्र ने बड़े सुख से कई वर्ष बिताये। यथासमय रानी शैव्या का पाँव भारी हुआ। राजमहल में आनन्द की लहरें उछलने लगीं।

समय आने पर रानी के एक सुन्दर पुत्र हुआ। कोशल-राज, कुमार के शुभ आनन्द के जलसे में मग्न होकर, आनन्द की लहरें लेने लगे। राजपुरोहित ने कुमार के जन्म-संस्कार की विधि से पूजा करा दी। बालक के रूप की ज्योति से सौरीघर जगमगा गया। ऐसा, जान पड़ने लगा मानो सूतिकागार की दीपावली तुरन्त जनमे हुए बालक की अङ्ग-शोभा के आगे फीकी पड़ गई। आशा की मोहिनी वीणा शैव्या के हृदय में बजने लगी। नये कुँवर के मुँह को देखकर शैव्या सब दुःख भूल गई। [ १७९ ]

उस दिन कोशल देश में आनन्द सैकड़ों धाराओं में बहने सा लगा। नगर के बीच नौबतख़ाने पर, मङ्गल-बाजे बजने लगे। नगर की स्त्रियाँ कुँवर के जन्म की ख़ुशी में प्रसन्नता से सोहर गाने लगीं। नये कुँवर के राज़ी-ख़ुशी रहने के लिए हरिश्चन्द्र ने ख़ज़ाना खोल दिया। ग़रीब-दुखिया, लँगड़े-लूले आदि बहुत धन पाकर असीस देने लगे। ज़मीन चाहनेवालों को ज़मीन मिली, अन्न चाहनेवालों को अन्न मिला। ब्राह्मणों ने हज़ारों गायों के साथ बहुत कुछ भेंट पाई। राजा ख़ुश होकर दोनों हाथों से दान करने लगे। क़ैदी छोड़े गये। वे राजकुमार की जय मनाते हुए प्रसन्नचित्त से घर गये।

'राजा हरिश्चन्द्र के पुत्र हुआ,' सुनकर देव-कन्याएँ जय-जय शब्द करने लगीं। नगर की स्त्रियों ने राजकुमार को देखने के लिए सौरीघर के द्वार पर बड़ी भीड़ लगा दी। ब्राह्मणों ने दोनों हाथ उठाकर नये जनमे हुए राजकुमार को हृदय से आशीर्वाद दिया। हरिश्चन्द्र के प्रेमी सामन्त राजा लोग क़ीमती रत्न आदि भेंटें देकर राजकुमार के हँसते हुए मुखड़े को देखकर ख़ुश हुए। नगर की प्रजा ने, राजकुमार के देखने को आकर, उस भारी भवन को प्रीतिपूर्ण बातों से गुँजा दिया। महाराज हरिश्चन्द्र ने देखा कि प्रजा की उस आनन्द-पूर्ण जय-जयकार से राज-महल की शोभा कई गुनी बढ़ गई है।

राजा और रानी दोनों लड़के के लुभावने रूप को एकटक देखने लगे।

शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की तरह राजकुमार दिन-दिन बढ़ने लगा। हरिश्चन्द्र ने कुमार का नाम रोहिताश्व रक्खा। नाम-करण का दस्तूर हो जाने से राजकुमार और भी अधिक सुन्दर हो गया। धोरे-धीरे, बालक के सुन्दर मुँह में दो-एक दाँत निकल आये। बालक की तोतली [ १८० ]बातें सुनकर रानी और राजा मग्न हो जाते थे। बच्चे को देखकर उनका हृदय इस तरह उछलने लगा जैसे चन्द्रमा को देखकर समुद्र उछलता है।

एक दिन राजकुमार रोहिताश्व ने माता के साथ बग़ीचे में घूमते-घूमते कहा—माँ! मुझे हिरन का बच्चा मँगा दो, मैं उसे पालूँगा।

रानी शैव्या ने तुरन्त बग़ीचे की मालिन को हुक्म दिया कि कुमार के लिए एक सुन्दर हिरन का बच्चा ले आ।

रानी के हुक्म की तुरन्त तामीली करने के लिए मालिन बग़ीचे की दूसरी ओर पशुशाला को दौड़ी गई। वहाँ देखा तो हिरन का एक भी बच्चा नहीं। मालिन ने डरते-डरते आकर रानी से यह बात कही।

इधर कुमार रोहिताश्व मृग-छौने के लिए माता से हठ करने लगा।

रानी ने कहा—बेटे! यहाँ इस समय मृग-छौना नहीं है। मैं महाराज से कहकर तुम्हारे लिए हिरन का बच्चा मँगा दूँगी।

रानी ने हज़ार समझाया किन्तु कुमार रोहिताश्व ने मृग-छौने के लिए ज़िद नहीं छोड़ी। रानी के इशारे से बग़ीचे की मालिन एक सुन्दर चिड़िया ले आई। रानी ने उस चिड़िया को दिखाकर कहा—"बेटा! देखो, यह कैसी बाँकी चिड़िया है!" कुमार चिड़िया को पाकर मृग-छौने की बात भूल गया।

रानी शैव्या कुँवर को गोद में लेकर महल में आई। उसने राजा हरिश्चन्द्र से कहा—नाथ! आज बग़ीचा घूमते समय में बड़ी मुश्किल में पड़ गई थी।

हरिश्चन्द्र ने मुश्किल की बात सुनकर पूछा—रानी, किस मुश्किल में पड़ी थीं?

शैव्या ने सब कह सुनाया। हरिश्चन्द्र ने कुँवर का मुँह चूम[ १८१ ]कर प्रेम से कहा—अच्छा बेटा! मैं तुमको बहुत उम्दा मृग-छौना ला दूँगा।

[३]

एक दिन अमरावती में देवताओं की सभा बैठी। उस सभा में तरह-तरह की हँसी-ख़ुशी के साथ अप्सराओं का नाच-गान प्रारम्भ हुआ। तिलोत्तमा, रम्भा, उर्व्वशी, और मेनका आदि अप्सराओं का नाच होने लगा। कुछ नवसिख, नई उम्र की, अप्सराओं के बे-ताल हो जाने से देवताओं की उस बड़ी सभा की गम्भीरता नष्ट हो गई। देवराज इन्द्र ने उन अप्सराओं को शाप दिया—तुम लोगों ने इस देवसभा की गम्भीरता नष्ट कर दी है, इसलिए तुम दुःख से भरी पृथिवी पर जाकर दण्ड भोगो।

इन्द्र के चरण पकड़कर अप्सराओं ने बार-बार क्षमा माँगी और गिड़गिड़ाकर कहा—हे देवताओं के राजा! एक तो हम सीखी-सिखाई नहीं हैं, दूसरे जवानी के जोश ने हमको पागल-सा बना दिया था, इसी से हम लोगों के बेजाने ताल-भङ्ग हो गया। कृपा करके अभागिनियों के भूल से किये अपराध को क्षमा कीजिए।

इन्द्र के इस भयङ्कर शाप और अप्सराओं की गिड़गिड़ाहट को देखकर देवता लोग सोचते थे कि इनको सज़ा कुछ ज़ियादा दी गई है। इधर इन्द्र का चित्त भी अप्सराओं की गिड़गिड़ाहट से कुछ नरम हो गया। अब वे देवताओं के हृदय के भाव को समझकर अप्सराओं से बोले—"मेरी बात टल नहीं सकती। तुम पृथिवी पर जाकर महर्षि विश्वामित्र के तपोवन के पास रहो। तुम लोग जिस दिन अयोध्या के महाराज हरिश्चन्द्र को देखोगी उसी दिन शाप से छुटकारा पा जाओगी।" अप्सराएँ घोर निराशा में उसी आशा को हृदय में धरकर धीरे-धीरे देवलोक तजकर विश्वामित्र के [ १८२ ]आश्रम*[१] के पास चली आईं। उन्होंने देखा कि उस तपोवन में गुच्छे के गुच्छे फूल खिले हुए हैं और उनपर चारों ओर से भौंरें आ-आकर गूँज रहे हैं। वृक्षों पर चिड़ियाँ चहक रही हैं। तपोवन के तालाब में कमल, कुमुद आदि जल में उपजनेवाले फूल हवा के झोंके से हिलते हुए उस तालाब की ऐसी अनोखी शोभा बढ़ा रहे हैं मानो जल में और थल में फूलों का मेला है। अप्सराएँ विश्वामित्र के तपोवन के आगे स्वर्ग के सुख को भूल गईं।

विश्वामित्र हर घड़ी उस तपोवन में ही नहीं रहते थे। वे कभी हिमालय की चोटियों पर घूमते हुए प्रकृति की सुन्दरता देखते फिरते तो कभी तीर्थों की यात्रा कर हृदय को तृप्त करते; कभी एकान्त गुफा में समाधि लगाकर ब्रह्मानन्द का सुख लूटते और कभी तपोवन में आकर यज्ञ आदि किया करते।

अप्सराएँ उस तपोवन में निडर सरल मृगों को, तरह-तरह के जलचर पक्षियों से शोभायमान तालाब को, खिली हुई वनलताओं के सुहावने दृश्य को, फलदार हरे पेड़ों से लदी हुई वनभूमि की हरियाली को और सारसों से झलकते हुए नीले आकाश को देखकर स्वर्ग का सुख भूल गईं। पाँचों सखियाँ आनन्द से तपोवन में विचरा करतीं। भौंरों की गूँज और कोयलों की कुहुक में वे अपना स्वर मिलाकर गीत गातीं। नये बादल देखकर जब मोर पूँछ फैलाकर नाचने लगते तब वे भी घाँघरा फहराकर प्रेम से उन्हीं की तरह नाचने लगतीं। कभी-कभी जब फूलों का रस पीकर भौंरें, मतवाले होकर गूँजते फिरते तब वे उन्हें फूलों से उड़ाकर उनके पीछे-पीछे दौड़तीं। उस समय उनके गोरे-गोरे पैरों की नूपुर-ध्वन्नि

  1. * वर्तमान शाहाबाद (बिहार) ज़िले के बक्सर स्टेशन के पास चरित्रवन नामक स्थान।