आदर्श महिला/४ शैव्या/२

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आदर्श महिला  (1925) 
द्वारा नयनचंद्र मुखोपाध्याय, अनुवादक जनार्दन झा

[ १८२ ]आश्रम*[१] के पास चली आईं। उन्होंने देखा कि उस तपोवन में गुच्छे के गुच्छे फूल खिले हुए हैं और उनपर चारों ओर से भौंरें आ-आकर गूँज रहे हैं। वृक्षों पर चिड़ियाँ चहक रही हैं। तपोवन के तालाब में कमल, कुमुद आदि जल में उपजनेवाले फूल हवा के झोंके से हिलते हुए उस तालाब की ऐसी अनोखी शोभा बढ़ा रहे हैं मानो जल में और थल में फूलों का मेला है। अप्सराएँ विश्वामित्र के तपोवन के आगे स्वर्ग के सुख को भूल गईं।

विश्वामित्र हर घड़ी उस तपोवन में ही नहीं रहते थे। वे कभी हिमालय की चोटियों पर घूमते हुए प्रकृति की सुन्दरता देखते फिरते तो कभी तीर्थों की यात्रा कर हृदय को तृप्त करते; कभी एकान्त गुफा में समाधि लगाकर ब्रह्मानन्द का सुख लूटते और कभी तपोवन में आकर यज्ञ आदि किया करते।

अप्सराएँ उस तपोवन में निडर सरल मृगों को, तरह-तरह के जलचर पक्षियों से शोभायमान तालाब को, खिली हुई वनलताओं के सुहावने दृश्य को, फलदार हरे पेड़ों से लदी हुई वनभूमि की हरियाली को और सारसों से झलकते हुए नीले आकाश को देखकर स्वर्ग का सुख भूल गईं। पाँचों सखियाँ आनन्द से तपोवन में विचरा करतीं। भौंरों की गूँज और कोयलों की कुहुक में वे अपना स्वर मिलाकर गीत गातीं। नये बादल देखकर जब मोर पूँछ फैलाकर नाचने लगते तब वे भी घाँघरा फहराकर प्रेम से उन्हीं की तरह नाचने लगतीं। कभी-कभी जब फूलों का रस पीकर भौंरें, मतवाले होकर गूँजते फिरते तब वे उन्हें फूलों से उड़ाकर उनके पीछे-पीछे दौड़तीं। उस समय उनके गोरे-गोरे पैरों की नूपुर-ध्वन्नि [ १८३ ]ग़ज़ब करती थी। कभी वे चाँदनी रात में मदमात नयनों से तपोवन में फूलों की सम्पदा और तारों से जगमगाते हुए नीले आकाश की अलहदगी देखतीं। कभी उनकी हँसी की छटा से प्रकृति की उजली शोभा और भी बढ़ जाती। कभी बाँसों की रगड़ से निकली हुई सुरीली तान सुनकर उन्हें बड़ा मज़ा मालूम पड़ता। इस प्रकार वे पाँचों सखियाँ हृदय से वनदेवी के उस उम्दा संगीत को सुनते-सुनते सुध-बुध भूल जातीं।

[४]

शाप के फन्दे में फँसी अप्सराएँ विश्वामित्र के तपोवन के पास रहती थीं। उन्हें वैसा आनन्द लूटने की आदत थी जैसा कि स्वर्ग में रहनेवालों को प्रिय है। इसलिए वे मन की मौज से कभी गीत गातीं, कभी नदी-किनारे बैठकर ग़प-शप करतीं, कभी नदी के निर्मल जल में पैठकर जलक्रीड़ा करतीं और कभी तरह-तरह के फूलों की माला गूँथकर एक-दूसरे को पहनाकर हँसी-दिल्लगी में समय बिताती थीं; किन्तु इतने मज़े में रहकर भी बीच-बीच में उनकी उस स्वर्गीय जीवन के सुख की याद आ ही जाती थी।

इस प्रकार उन मदमाती पाँच सखियों के मनमाने घूमने-फिरने और फूल चुनने से आश्रम के फूलदार वृक्षों की शाखाएँ टूट गईं और उनकी ख़ूबसूरती मारी गई। अप्सराओं की क्रीड़ा-केलि से लताकुञ्जों में रौनक़ न रही।

एक दिन बड़े भारी तपस्वी विश्वामित्र हिमाचल की सैर कर तपोवन को लौटे। उन्होंने देखा कि मेरे तपोवन में घुसकर कोई फूल ले गया है और वृक्ष-लताएँ किसी के ऊधम से नष्ट-भ्रष्ट हो गई हैं।

संसार-त्यागी मुनि लोग आश्रम के वृक्षों और लताओं को बेटे-बेटी के समान मानते हैं। संसारी लोग गृहस्थी में रहकर जैसे पुत्र[ १८४ ]कन्याओं का लालन-पालन करते हैं वैसे ही मुनि लोग भी पुष्प-वृक्षों को फूल-फलों से सजे-धजे देखने के लिए, उन्हें चारों ओर से घेर देते हैं—लताओं को हिफ़ाज़त से वृक्ष की डालियों पर चढ़ा देते हैं। अपनी ग़ैरहाज़िरी में इसे किसी दुष्ट की मस्ती समझकर विश्वामित्र बहुत नाराज़ हुए। उन्होंने दूसरे दिन तपोवन में आकर देखा कि मेरे आने से पहले ही कोई सब फूल चुन ले गया है, और फूलों की लताएँ वृक्षों की डालियों से अलग नीचे गिरकर धूल में लोट रही हैं। कितनी ही मञ्जरियाँ छोटे-छोटे पत्तों के साथ भूमि में गिरकर मैली हो रही हैं। इससे विश्वामित्र को क्रोध हुआ। उन्होंने तपोवन के वृक्षों और लताओं से कहा—अब जो कोई यहाँ फूल चुनने आवे उसको तुम बाँध रखना; मैं उसको सज़ा दूँगा।

तपस्या में अजब शक्ति है! तप के बल से मनुष्य देवता के अश्विकार को ले लेता है। तपोवन के पेड़ और बेलें मुनि की आज्ञा पालने को तैयार हुईं।

दूसरे दिन शापग्रस्त अप्सराएँ मौज से गीत गाती उस तपोवन में घुसीं। तपोवन में उनके आते ही वृक्ष और लताएँ धीरे-धीरे काँपने लगीं। मद-माती अप्सराओं ने इस पर कुछ ध्यान नहीं दिया। पाँचों सखियों ने ज्योंही फूल चुनने को हाथ बढ़ाया त्योंही वे लताओं से बँध गईं। बन्धन खोलने की उन्होंने बहुत कोशिश की, पर वे किसी तरह नहीं खोल सकीं। ऋषि के शाप के सामने अप्सराओं का शारीरिक बल थक गया। तब वे लाचार होकर राजा हरिश्चन्द्र का नाम ले-लेकर रोने लगीं।

[५]

मंत्री, प्रधान सेनापति और बहुतसी सेना को साथ लेकर राजा हरिश्चन्द्र वन में शिकार खेलने आये हैं। चित्रित मृग की खोज [ १८५ ]में सेना चारों ओर शोर मचाती फिरती है किन्तु हज़ार उपाय करने पर भी कहीं वैसा मृग नहीं मिलता। राजा सोच रहे थे कि 'यहाँ बहुतसे हिरन रहते हैं किन्तु आज न जाने कैसा बुरा दिन है कि एक भी हिरन नहीं दिखाई देता।' इतने में एक सुन्दर चित्रित मृग राजा के पास से भागता हुआ देख पड़ा। राजा ने उस पर बाण छोड़ा, पर वह उसके लगा नहीं। अचूक निशाना लगानेवाले हरिश्चन्द्र सोचने लगे— हैं! यह क्या हुआ? आज मेरा निशाना क्यों चूक गया? न-जाने आज मेरे भाग्य में क्या बदा है!

अचानक उन्होंने सुना कि कोई उस वन में उनका नाम ले-लेकर दुःख-भरी आवाज़ से चिल्ला रहा है। इससे परोपकारी राजा का चित्त अकुला उठा। वे तुरन्त उधर को दौड़े जिधर से रोने का शब्द आ रहा था। राजा ने देखा कि बहुत ही सुन्दर पाँच स्त्रियाँ लताओं में बँधी हैं और छुड़ाने के लिए उनको पुकार रही हैं। उनके निराशा झलकानेवाले उदास मुखड़ों को देखकर हरिश्चन्द्र उनका बन्धन खोलने लगे। राजा के शरीर की कूवत मुनियों की मानसिक शक्ति के आगे आज पहले-पहल परास्त हुई। राजा जब भरसक उपाय करके भी बन्धन नहीं खोल सके तब उन्होंने तलवार से लता-बन्धन काटकर अप्सराओं का उद्धार किया। बन्धन से छूटी हुई अप्सराएँ एहसान से दब गईं। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा—महाराज हरिश्चन्द्र! आप भूल न जाइएगा। हम अप्सरा हैं। देवराज इन्द्र के शाप से इस पृथिवी पर आकर शाप का फल भोगती थीं। आज आपके दर्शन से हमारा छुटकारा हो गया। हम आशीर्वाद करती हैं, आपका मङ्गल हो। महाराज! धर्म ही सबका सहायक है। सुख-दुःख में धर्म और सत्य पर दृष्टि रखिएगा। अब बिदा होते समय इस शुभ मुहूर्त में हम लोगों की ईश्वर से प्रार्थना है कि आपके यश की ज्योति से [ १८६ ]धरती चमक जाय। महाराज! हम अब इन्द्रलोक का जायँगी। देखिए, आकाश से वह रथ उतर रहा है, इसे देवताओं की स्त्रियाँ हाँक रही हैं।

अचरज से चुप्पी साधे हुए राजा हरिश्चन्द्र ने देखा कि एकाएक वह देवताओं का रथ आ गया। शाप से छूटी हुई पाँचों सखियाँ राजा हरिश्चन्द्र के गले में खिले हुए पारिजात की माला डाल गई और कह गई कि इस पारिजात की सुगन्ध की तरह आपकी कीर्ति चारों ओर फैले।

यह देखकर राजा चकित रह गये। फिर वे सोचते-विचारते दल-बल-सहित अपनी राजधानी को लौट आये।

[६]

राजा हरिश्चन्द्र सिंहासन पर बैठकर राज-काज कर रहे हैं, इतने में देहधारी क्रोध के समान विश्वामित्र वहाँ आ धमके। राजा, मन्त्री और दूसरे अनुचरों ने महर्षि के सामने सिर झुकाया, पर महर्षि का क्रोध ठण्ढा न हुआ। विश्वामित्र ने भौहें चढ़ाकर क्रोध से कहा—हरिश्चन्द्र! तुमने ऐश्वर्य के घमण्ड में फूलकर मेरे शाप को व्यर्थ कर दिया है। तुम्हारा इतना हौसला?

राजा हरिश्चन्द्र ने नम्रता से कहा—हे महर्षि! मैंने बिना जाने अपराध किया है। मेरा अपराध क्षमा कीजिए।

महर्षि—तुम्हारा यह अपराध क्षमा करने योग्य नहीं। क्या राजा का यह काम है कि वह तपोवन में शिकार खेलने जाय? फिर, अपराध के कारण, लता से बँधकर जो अपने अपराध का दण्ड भोग रही थीं उनका विलाप सुनकर तुमने मेरे उस शाप को भी व्यर्थ कर दिया। यत्न से पाली हुई मेरी कुसुम-लताओं को तुमने काट दिया! तुम्हारा इतना बड़ा दिमाग़? [ १८७ ]

अब शाप देने के लिए महर्षि ने चुल्लू में पानी लिया। विश्वामित्र का क्रोध देखकर मानो धरती थर-थर काँपने लगी। दिशाओं में सन्नाटा छा गया। हरिश्चन्द्र संकट देखकर, महर्षि के चरणों में गिरकर, क्षमा माँगने लगे।

राजा की गिड़गिड़ाहट देखकर विश्वामित्र को कुछ दया आ गई। उनकी भ्रुकुटी जो ऊपर को तनी थी वह कुछ नीचे उतर आई।

महर्षि ने कहा—राजा! तुम अपने इस अन्याय के लिए मुझे कुछ दान दो।

राजा—महाभाग! आपकी कृपा से मैं कृतार्थ हुआ। आप जो कहें, मैं देने को तैयार हूँ।

महर्षि—देखना राजा! सत्य से पीछे पैर मत रखना। मैं जो चाहता हूँ सो सुनो। मैं एक यज्ञ करना चाहता हूँ। मुझे इतना धन दो जिससे वह यज्ञ पूरा हो सके।

राजा—देव! यज्ञ के लिए दान करना तो राजा का मुख्य काम ही है। इसलिए यह तो मेरे अपराध का दण्ड नहीं हुआ।

महर्षि—तब तुम अपनी समुद्रों-सहित धरती मुझे दान में दे दो।

यह बात सुनकर राजा का कलेजा काँप उठा। उन्होंने कुछ देर चुप रहकर कहा—महर्षि! मैंने आपकी बात मानकर समस्त पृथिवी का दान कर दिया।

विश्वामित्र ने प्रसन्न होकर कहा—राजा! तुमने दान तो किया, किन्तु दक्षिणा बिना दान पूरा नहीं होता—इस बात को तो जानते ही होंगे। इसलिए तुम इस दान की दक्षिणा में मुझे एक हज़ार मोहरें और दो।

हरिश्चन्द्र ने कहा—अच्छा, मैंने दक्षिणा में आपको एक हज़ार मोहरें भी दीं। [ १८८ ]

विश्वामित्र—महाराज! तुम अभी मुझे सारी पृथिवी दान में दे चुके हो। इसलिए तुम्हारा राज्य, तुम्हारी राजधानी, तुम्हारे महल और तुम्हारा ख़ज़ाना सब कुछ अब मेरा है।

राजा के कान खड़े हुए। वे सोचने लगे—तो क्या मैं अकेला रह गया! मेरी प्राणप्यारी शैव्या और प्राणाधिक रोहिताश्व क्या अब मेरे नहीं रहे?

महर्षि—महाराज! स्मरण रहे, आज से रानी और राजकुमार इन दोनों पर ही तुम्हारा अधिकार है। इसके सिवा जो और किसी चीज़ को तुम अपनी समझोगे तो दिये हुए दान को ले लेने का महापातक तुम्हें लगेगा।

राजा ने कहा—महर्षि! मैं आपको एक पखवारे में इस दक्षिणा की रक़म दूँगा। कृपा करके दास की प्रार्थना पूरी कीजिए।

"अच्छा, यही सही; किन्तु महाराज! एक बात और है। आज से सारी पृथिवी पर मेरा अधिकार है। दिये हुए धन पर अधिकार रखना ठीक नहीं। तुम आज रात बीतने से पहले ही इस पृथिवी पर से कहीं दूसरी जगह चले जाना। एक पखवारे के बाद मैं तुमसे भेंट करूँगा। उस समय तुमसे मेरी दक्षिणा मिलनी चाहिए।" यह कहकर महर्षि तुरन्त वहाँ से चले गये।

राजा सोचने लगे—यह क्या हुआ! मैं एक पखवारे में एक हज़ार मोहरें कहाँ से दूँगा?

यह सोचते-सोचते वे राजमहल में रानी के पास गये। रानी शैव्या देवी ने राजा का उदास मुँह देखकर घबराहट से पूछा—स्वामी! आज आप इतने विकल क्यों हैं? आपके सुन्दर मुख पर हँसी नहीं है, कमल-सी आँखें आँसुओं से छल-छल कर रही हैं, मानो किसी दुर्भाग्य ने आकर आपके सदैव खिले रहनेवाले मुख को [ १८९ ]मलिन कर डाला है। नाथ! आज आप ऐसे उदास क्यों हैं? आपके चेहरे पर खेद की छाया देखकर मुझे बड़ा डर लगता है। कृपा कर इसका कारण जल्दी बतलाइए।

पत्नी की प्रेम-भरी बातें सुनकर हरिश्चन्द्र ने कहा—रानी! आज मेरे जीवन का नया दिन है। कोशल का यह राजसिंहासन, कोशल का धन-भाण्डार और कोशल की प्रजा आज से मेरी नहीं; और तो क्या, धरती माता का भी आज मैं त्यागा हुआ पुत्र हूँ; जो बिना घर-द्वार का है उसका आसरा वृक्ष के नीचे है; किन्तु रानी! आज इस अभागे हरिश्चन्द्र का शोक से विकल शरीर वृक्ष के नीचे भी स्थान नहीं पावेगा।

रानी ने बड़ी घबराहट से पूछा—नाथ! आप यह क्या कह रहे हैं, कुछ समझ में नहीं आता। आप तो कोशल देश के चक्रवर्ती सम्राट हैं, आपके झण्डे के नीचे पृथिवी के सारे राजा हाथ जोड़े खड़े हैं। आज आपके मुँह से मैं यह कैसी बात सुन रही हूँ? आपके मन में कुछ उन्माद तो नहीं हो गया है! ज़रूर ऐसा ही कुछ हुआ है। नहीं तो आज आपके उदास मुँह से ऐसी बेमतलब की बातें क्यों निकलतीं? आप तो मेरे पास आकर कितनी ही प्रेम-पूर्ण बातों में संसार का हाल बताते, और कितनी ही अच्छी-अच्छी कहानियाँ कहकर जी की उमङ्ग दिखाते थे। महाराज! दासी को उलझन में मत डालिए। मेरा कलेजा होनहार विपत्ति के डर से धक-धक कर रहा है। जल्दी बताइए, क्या विपदा पड़ी है। आप सच जानिए, चाहे जितनी आफ़तें क्यों न आवें, हम लोगों का यह प्रेम से मिलना नहीं रुकेगा। प्रेम कुछ पृथिवी की वस्तु नहीं है। वह तो पृथिवी के बाहर किसी बड़े उत्तम स्थान की चीज़ है। एक-दूसरे पर प्रेम करनेवाले दम्पति के हृदय में ही उसका सिंहासन है। महाराज इस अपूर्व प्रेम-जगत् [ १९० ]के आप राजा हैं और मैं रानी हूँ। इसलिए दुनिया की हज़ारों आफ़तें भी हम लोगों के हृदय को सता नहीं सकेंगी। आप इतने उदास होकर मेरे पास क्यों आये हैं? मुझे आपके इस प्रेम-पवित्र मुख पर हँसी की झलक ही अच्छी लगती है। स्वामी! आज किस दुर्भाग्य से मुझे इस मुखड़े पर आँसू देखने पड़े? प्रभो! दया करो, जल्दी बताओ कि आप इतने उदास क्यों हैं।

हरिश्चन्द्र ने उदास मुँह से, विश्वामित्र के आश्रम की सारी घटना कह सुनाई।

रानी शैव्या ने सुनकर हर्ष से कहा—महाराज! इसके लिए इतनी चिन्ता और उदासी क्यों? आप राजा हैं। दान देना राजा का धर्म है। आपके इस अनोखे दान से कोशल के छत्र का दण्ड ऊँचा हुआ है। नाथ! संसार का सुख कितने दिन के लिए है? उसके लिए प्रतिज्ञा को न तोड़कर आपने जो सच्चे दान-वीर की तरह दान किया है, यह तो कोशलराज के ही योग्य काम है। नरनाथ! इसके लिए इतना खेद! हे कोशलेश! चिन्ता को छोड़िए। देव! इस धरती पर सत्य सबसे ऊँचा है। आपने सत्य की रक्षा करके रत्नों से जड़े हुए जिस किरीट को पाया है वह अनमोल है। इसकी चमक से कोशल का राज-सिंहासन सदा जगमगाता रहेगा। संसारी दरिद्रता में ही तो अनूठे आनन्द का विकास है। हे ज्ञानवीर! आज आप इस बात को क्यों भूलते हैं?

हरिश्चन्द्र ने आँसू पोंछकर कहा—शैव्या! तुम्हें इतना ज्ञान है! अँधेरे में पड़े हुए स्वामी की बग़ल में प्रकाश की बत्ती लिये रहने से एकाएक तुम्हारे सुन्दर मुख पर जो यह शोभा फैल रही है, देवी! उसे मैंने इतने दिन तक नहीं देखा था। मैं तो हृदय को केवल कामना की छोटीसी कोठरी बनाये बैठा था। आज तुमने उसकी [ १९१ ]रुकावट को दूर करके खुले हुए आकाश की विपुलता के साथ उसे मिला दिया है। देवी! आज मैंने पृथिवी के बाहर आकर जो नया सबक सीखा है उसकी मुझे ज़िन्दगी भर याद रहेगी। रानी! अब मैं राज्य का दान करके दुखी नहीं हूँ। मैं अब खूब समझ गया कि मैंने ज़रासी पृथिवी का दान करके अपार विश्वरूप के विशाल विश्व को पा लिया है। रानी! अब मैं दरिद्र नहीं हूँ। आज विश्वराज का अटूट रत्न-भाण्डार मेरे हाथ लगा है।

रानी—और क्या महाराज! आप तो दाता हैं, न कि दान लेनेवाले। भगवान् का दान अनन्त है, इसी से वे पूर्णरूप हैं। स्वामी! मैं कम-समझ स्त्री हूँ, तुमको में क्या समझाऊँगी? त्याग से ही मनुष्य धन्य होता है। इस माया की पृथिवी पर मनुष्य जिस दिन कर्त्तव्य के सामने अपनपौ को भूल जाता है उसी दिन वह सार्थक है। नाथ! आज आप इसी से धन्य हुए हैं! चिन्ता छोड़िए। एक बार देखिए, चिन्मयी जगज्जननी की प्रेमभरी गोद आपके ही लिए खाली पड़ी है।

राजा का उदास मुखड़ा सौभाग्य के गर्व से चमक उठा।

राजा ने कहा—शैव्या! मैंने महर्षि को पृथिवी दान कर दी है। इसलिए, इस पृथिवी पर रहने का अब मुझे कोई अधिकार नहीं। मैं इस पृथिवी के बाहर जाऊँगा। मैं चाहता हूँ कि तुम रोहिताश्व को लेकर नैहर जा रहो।

शैव्या ने हरिश्चन्द्र की बात से घबराकर कहा—नाथ! मुझे ऐसी अनुचित आज्ञा मत दीजिए। प्राचीन मुनियों ने स्त्री का दूसरा नाम सहधर्मिणी कहा है। पुरुष सुख या दुःख जिस दशा में रहे उसमें उसकी संगिनी स्त्री भी है। नाथ! स्वामी के साथ स्त्री का विधाता का बनाया हुआ यही पवित्र सम्बन्ध है। आप राजा हैं, [ १९२ ]और शास्त्रों के मर्म को जानते हैं, फिर स्त्री को ऐसी अनुचित आज्ञा क्यों देते हैं? आप मुझे नैहर जाने को कहते हैं किन्तु मैं ऐसा नहीं कर सकती। आपके साथ छाया की तरह जाना ही मेरा मुख्य काम है। इसलिए आप जहाँ जायँगे वहाँ मैं आपके साथ जाऊँगी। यह स्त्री का कर्त्तव्य है, इसलिए आपकी कोई बात मुझे इस कर्त्तव्य के रास्ते से नहीं हटा सकेगी।

तब हरिश्चन्द्र ने कहा—शैव्या! अब मैं तुम्हें नैहर जाने के लिए नहीं कहूँगा। मैंने पृथिवी दान करके तुमको पाया है। मैं इतने दिनों तक भोग-विलास में तुमको लालसा का खिलौना समझता था, किन्तु आज इस दीनता के बीच तुम्हारी गम्भीर पवित्र मूर्त्ति देखकर मुझे हिम्मत हुई है। देवी! मैं देखता हूँ कि अभागे बिना आश्रयवाले के पास तुम ममता की मूर्ति से अमङ्गल दूर करने के लिए स्नेह का हाथ फैला रही हो।

रानी—महाराज! आपने ठीक कहा है। स्त्री स्वामी के विलास ही के लिए नहीं है। स्त्री दुःख के समुद्र में स्वामी की जीवन-नौका के लिए दिशा बतलाने की कल है। स्त्री ही रास्ता भूले हुए पति को ध्रुव तारा है और विपत्ति में पड़े हुए पति के लिए स्त्री प्रत्यक्ष ढाढ़स है। आपकी विपद को गले से लगाने के लिए मैं आपके आगे चलती हूँ।

अब शैव्या ने हरिश्चन्द्र का हाथ थाम लिया। राजा ने कहा—मैं आज ही राजधानी छोड़ दूँगा। इसके लिए तुम तैयार हो रहो। रानी! मैंने तुमसे एक और बात नहीं कही। महर्षि को मैंने एक हज़ार मोहरें दक्षिणा में देने की प्रतिज्ञा की है, किन्तु इसके पहले ही मैं अपना सर्वस्व और समुद्रों-सहित धरती उनको दान कर चुका हूँ। इससे, राज्य के ख़ज़ाने से उनको वह दक्षिणा देने का अधिकार मुझे नहीं रहा। दक्षिणा देने के लिए मैंने महर्षि से एक पख[ १९३ ]वारे की मुहलत ली है। रानी! समझ में नहीं आता कि मैं एक पखवारे में उनको दक्षिणा कैसे दे सकूँगा।

रानी—महाराज! अब यह सोचने का समय नहीं है। चलिए, हम लोग आज ही राजधानी से निकल चलें।

राजा—देवी! आज हम लोग काशी को रवाना होंगे। काशी शिव के त्रिशूल पर बसी हुई है, इसलिए वह पृथिवी के भीतर नहीं। चलो रानी! हम लोग वहाँ जाकर बाबा विश्वनाथ और देवी अन्नपूर्णा के चरणों में भक्ति से फूल और जल चढ़ाकर कृतार्थ होंगे।

इधर अयोध्या की प्रजा राजा के इस पृथिवी-दान का समाचार पाकर बहुत ही दुःखित हुई। मंत्री और सेनापति आदि सरकारी ओहदेदारों के सामने, क्रोध की प्रत्यक्ष मूर्ति के समान, विश्वामित्र ऋषि ने राजा को जैसी कड़ी-कड़ी बातें सुनाई थीं और समुद्रों-समेत धरती के चक्रवर्ती राजा ने जिस कोमल वाणी से महर्षि की कृपा के लिए प्रार्थना की थी, उसी की चर्चा अब अयोध्या भर में घर-घर होने लगी। सब लोगों ने तय कर लिया कि राजा के साथ हमलोग भी अयोध्या से निकल चलेंगे।

धीरे-धीरे सन्ध्या हुई। सूर्य देवता, मानो कुल-दीपक हरिश्चन्द्र को मुनि से सताये जाते देख, क्रोध से लाल हो पश्चिम समुद्र में डूबने चले गये; चिड़ियाँ मानो राजा के दुःख से व्याकुल हो कोलाहल करने लगीं। मन्दिर में सन्ध्या-समय की आरती का श्रेष्ठ बाजा मानो खेद की ध्वनि ज़ाहिर करने लगा। राजा और रानी दोनों दुखे हुए हृदय से आज देवता के चरणों में प्रणाम कर बिदा माँग आये।

[७]

रात में सन्नाटा छा रहा है। जीव-जन्तु चुपचाप सोये हुए हैं। आकाश में धीरे-धीरे बादलों के उमड़ आने से रात का अँधेरा [ १९४ ]गाढ़ा होता जाता है। ऐसा जान पड़ता है कि रात्रिदेवी ने राजा और रानी के दुःख से चुप होकर काले कपड़े से अपना मुँह ढक लिया है। पृथिवी सुनसान है। बादलों के टुकड़ों से ढक रहे रात्रि के आकाश में दो-एक तारों की चमक दिखाई देती है। इसी समय रानी और कुँवर रोहिताश्व को लेकर राजा राजमहल से निकल पड़े। मंत्री, अन्यान्य राज-कर्मचारी और अयोध्या की बहुतसी प्रजा राजा के पीछे-पीछे जाने लगी।

धीरे-धीरे सब लोग राजधानी से निकलकर मैदान में आ गये। राजा ने हृदय के शोक की तरङ्ग को रोककर रोती हुई प्रजा से कहा—तुम लोग अब घर लौट जाओ; मेरे साथ मत चलो। शोक से रँगे हुए इस पवित्र दृश्य को शायद महर्षि न सह सकें। मैं तुम लोगों के भविष्य, और अयोध्या के राजसिंहासन की हालत को सोचकर चिन्ता कर रहा हूँ। मंत्री, शान्त होओ। मेरे साथ आने का अब तुम लोगों को अधिकार नहीं। तुम कोशलदेश के राजसिंहासन के दाहिने हाथ हो। आशा है, इस बात को याद रखकर काम करोगे।

मंत्री और अयोध्या के लोग रोने लगे। सबने कहा—जिस राज्य में महाराज हरिश्चन्द्र नहीं वह राज्य मरघट के समान है। महाराज! आपके ऐसे राजा को छोड़कर हम लोग यहाँ कैसे रहेंगे? कोशल का राजसिंहासन आपके सदृश आदर्श राजा के पवित्र चरणों की रज पड़ने से पवित्र हुआ है।

राजा ने समझा-बुझाकर मंत्री और प्रजा को बिदा किया। इतने में आकाश बादलों से ढक गया। मूसलधार वर्षा क्या होने लगी मानो प्रकृति सुन्दरी राजा के दुःख से आँसू बहाने लगी। अनन्त आकाश मानो कड़ककर निठुर विश्वामित्र की निर्दयता को बार-बार धिक्कारने लगा। [ १९५ ] कुमार रोहिताश्व को छाती से लगाकर रानी के साथ हरिश्चन्द्र उस मूसलधार वृष्टि में एक पेड़ के नीचे खड़े हो गये। हाय! जो महाराज हरिश्चन्द्र सैकड़ों राजाओं के थामे हुए राज-छत्र सिर पर धारणकर शोभा पाते थे, वे आज प्रतिज्ञा पालने के लिए बिना ही छत्र के पेड़ के नीचे नंगे पैर वर्षा के पानी में भीग रहे हैं। जो रानी राजमहल में सैकड़ों दास-दासियों से घिरी रहकर ऐश्वर्य और विलास में, तुरन्त खिली हुई कमलिनी की तरह, शोभा पाती थी वह आज खुली जगह में, वृक्ष के नीचे भीगे कपड़े पहने काँप रही है। जो राजकुमार राजा-रानी की आँखों की पुतली है, और जो सूर्यवंश की कीर्त्ति का पाया है, वह आज माता-पिता के पहने हुए कपड़ों के भीतर वर्षा से देह को बचा रहा है! सदा से पवित्र अयोध्या का राजसिंहासन इसी विख्यात कीर्त्ति से सजा हुआ है।

धीरे-धीरे वर्षा बन्द हुई। आकाश में दो-एक तारों के साथ-साथ शुक्र तारा दिखाई दिया। राजा-रानी ने पूर्व आकाश की ओर आँखें फेरीं तो देखा कि उषा की सुनहरी किरणें पृथिवी के अँधेरे को दूर करने के लिए आ रही हैं, किन्तु इनके सामने तो भयावने अँधेरे का राज्य है! राजा और रानी ने प्यारे रोहिताश्व को गोद में ले लिया। वे वृक्ष के नीचे से चलकर मैदान के बीचवाले रास्ते से चलने लगे।

लगातार तीन दिन चलकर वे काशी पहुँचे। वरणा और असी नामक दो नदियों के संगम पर, गङ्गा के किनारे, हिन्दुओं का प्रधान तीर्थ काशी है। हरिश्चन्द्र ने वरणा के किनारे खड़े होकर देखा कि किनारे के मन्दिरों और ऊँचे महलों की परछाईं वरणा के नीले जल में पड़कर तरङ्गों के ताल पर नाच रही है। मोक्ष पाने की इच्छावाले कितने ही योगी, ऋषि और गृहस्थ पत्थर की सीढ़ियों पर बैठकर वरणा की बहार देख रहे हैं। वरणा-तट की सुन्दरता और घास से [ १९६ ]ढके हर मैदान की शोभा देखकर हरिश्चन्द्र पुलकित हुए। वरणा से लिपटकर जो हवा ठण्डी हो गई थी वह उनकी थकावट को दूर करने लगी।

रानी शैव्या के साथ हरिश्चन्द्र काशी की अपूर्व शोभा, सड़कों की भीड़ और भक्त नर-नारियों की भक्तिपूर्ण पवित्र मूर्त्ति देखकर प्रसन्न हुए। राजकुमार रोहिताश्व माता-पिता की गोद में लेटे-लेटे नये देश के नये दृश्य अकचकाकर देखने लगा।

धीरे-धीरे वे लोग मणिकर्णिका-घाट पर पहुँचे। वह स्थान उन्हें बड़ा मनोहर लगा। राजा हरिश्चन्द्र ने कहा—"शैव्या! देखो, वरणा की लहरें कैसी सुन्दर नाच रही हैं! मणिकर्णिका पर कितने लोगों की भीड़ है! पत्थर का कैसा सुन्दर घाट है। मेरी तो यह इच्छा होती है कि अब जितने दिन पृथिवी पर रहना हो उतने दिन इसी मणिकर्णिका-घाट के एक कोने में पड़ा रहूँ। देखो शैव्या, इस घाट पर कितने संन्यासी रहते हैं। चलो, हम लोग भी एक तरफ़ टिक रहें।

संन्यासियों से भरे मणिकर्णिका-घाट के एक कोने की धूल को रानी ने अपने कपड़े से झाड़कर राजा और पुत्र को बिठाया। वह आप भी पास ही बैठकर लोगों के शोर-गुल के बीच अपने भविष्य को सोचने लगी। बिना संगी-साथी के उस नये स्थान में जीवन की बीती हुई बातें याद आने लगीं। वह सोचने लगी—कहाँ अयोध्या का राजसिंहासन और कहाँ आज मणिकर्णिका की भूमि पर लेटना! हाय रे दुर्दैव! क्या तेरे मन में यही था?—रानी शोक से सुध-बुध भूल गई। आज उसे जगत् सूना-सा दिखाई देता है। आँखों के आगे दुर्भाग्य का अँधेरा इतना गाढ़ा हो गया है कि नहानेवाले हज़ारों स्त्री-पुरुष उसे नहीं सूझते। हाय! चिन्ता में पड़ी योगिनी उस भीड़-भरे मणिकर्णिका-घाट पर ऐसे सोच रही [ १९७ ]है मानो पृथिवी में और कोई मनुष्य ही नहीं है। इस प्रकार सोचते-सोचते शैव्या की आँखों में आँसू भर आये।

शैव्या की आँखों में आँसू देखकर हरिश्चन्द्र सब समझ गये। उन्होंने कहा—"क्यों शैव्या, तुम रोती हो?" शैव्या ने कहा—नहीं, रोती तो नहीं हूँ किन्तु नाथ! आँसू ही तो इस समय हम लोगों का एक मात्र सहाय हैं। महाराज! अयोध्या के राजसिंहासन पर बैठने में आपको कितना कष्ट होता था और आज वही आप धूल में सोये है! जिस राजकुमार को महलों में फूलों की शय्या पर नींद नहीं आती थी वह राजकुमार शोर-गुल में खुले मैदान में पत्थर के घाट पर सोया हुआ है! महाराज! मेरी छाती फट रही है। यह दृश्य मुझसे नहीं देखा जाता।

तब हरिश्चन्द्र ने कहा—रानी! रञ्ज मत करो। इस जगत् में सुख या दुःख कुछ भी नहीं है। जिसको हम लोग सुख का सामान समझते हैं शायद वह सुख न हो और हम लोग दुःख समझकर जिससे डरते हैं शायद वही सुख हो। लीलामय भगवान् के राज्य में यह बात पहले से सबकी समझ में नहीं आती। रानी! सुख-दुःख दोनों में ही भगवान की सत्य शुभ आज्ञा मौजूद है। पृथिवी पर जिस दिन मनुष्य इस बात को अच्छी तरह समझ जायगा कि—

सभी कर्म सुख-दुःख-मय तापर करो न ध्यान।
फल ईश्वर के हाथ है यह निश्चय जिय जान॥
एहि असार संसार में कारज करि निष्काम।
आत्मज्ञान उपजै जबहिं जीव होहिं सुखधाम॥

प्यारी! भ्रम के अँधेरे में हम लोगों को यह दिखाई नहीं देता, इसी से हम अन्धकार को भयानक मानते हैं। जिस दिन हृदय में आत्मज्ञान जाग उठेगा, जिस दिन आत्मज्ञान जगत् के ज्ञान में मिल [ १९८ ]जायगा उस दिन देखोगी कि अब कुछ कष्ट नहीं है। इस संसार में चारों ओर केवल सुख और शान्ति का राज्य है—चारों ओर आनन्द और ख़ुशी की बहार है। रानी! शोक को छोड़ो। सभी हालतों में कर्त्तव्य को याद रखना चाहिए। हालत को—अवस्था को—मनुष्य नहीं बनाता। अच्छी तरह समझे रहो यह काम भगवान के ही हाथ में है। हम लोगों की जो यह रक्त-माँस से बनी देह है, उसकी खुशामद करते रहने से आत्मा की तृप्ति नहीं होती; आत्मा की तृप्ति तो कर्त्तव्य-मार्ग के पालन से होती है। जो भाग्यवान् उस मार्ग से चलते हैं वे ही इस संसार में सच्चे मार्ग के पहचाननेवाले हैं—उनको कुमार्ग से चलकर कष्ट भोगना नहीं पड़ेगा। चलो रानी, तुमको यह बात अच्छी तरह समझा दूँ।"

अब राजा मणिकर्णिका की दाहिनी तरफ़, मसान घाट की ओर बढ़े। सोये हुए रोहिताश्व को गोद में लेकर शैव्या राजा के पीछंपीछे जाने लगी।

धीरे-धीरे वे मसान घाट के पास पहुँचकर शिव के मन्दिर के चबूतरे पर बैठ गये। राजा ने जलती हुई चिता की ओर उँगली दिखाकर कहा—"रानी! संसारी देह का नतीजा देखती हो न? इस जलती चिता के भीतर की देह संसारी माया में मामूली कष्ट से व्याकुल हो जाती थी, किन्तु आज चिता की आग में भी वह शान्ति पा रही है।" रानी ने सोचा, अहा! मरघट कैसा पवित्र स्थान है! यह तो पृथिवी के कोलाहल से आकर शान्ति के मन्दिर में जाने का रास्ता है। मरघट में पड़े हुए और चिता में जलते हुए मुर्दों को देखकर रानी शैव्या समझ गईं कि संसार अनित्य है। वे माया के बन्धन को और मनुष्य के वृथा अहंकार के भेद को समझ गईं। राजा ने कहा—"रानी! ये जो लाशें देखती हो, [ २०० ]लिये रहती हैं। स्वामी, आप तो सब समझते हैं, फिर क्यों इतने व्याकुल होते हैं। शोक न कीजिए। कौन कहेगा कि आपके सुयश की ढेरी में कल्याण का बोज अंकुरित नहीं है?

राजा ने टूटे स्वर से कहा—"देवी! मैं सब जानता हूँ, किन्तु आज होनहार की बात सोचकर मुझसे रहा नहीं जाता। कहाँ अयोध्या का राजसिंहासन और कहाँ मणिकर्णिका की धूल में लोटना! कहाँ राजसी ठाट और कहाँ आज भूख का कष्ट; कहाँ सैकड़ों दासदासियाँ सेवा किया करती थीं और कहाँ भाई-बन्धुओं से अलग अशान्त पड़े रहना; कहाँ दुखिया प्रजा का दुःख दूर करने के लिए राजभाण्डार का खुला रहना और कहाँ इस अभागे के सिर पर ऋण का बोझा! शैव्या! इस संसार में क़र्ज़दार होना बड़े दुःख की बात है। ऋण बड़ी बुरी तकलीफ़ों की जड़ है। जो क़र्ज़दार है उसके जी में तो डरावनी अशान्ति रहती है और उसे बाहर से लोगों की फटकार अलग सहनी पड़ती है। आज, सड़क के किनारे सोये हुए, इस बेफ़िक्र मज़दूर को देखकर मालूम होता है कि यह मुझसे बहुत श्रेष्ठ है। रानी! आज सबेरा होने के साथ-साथ ऋषि के भयङ्कर कोप की याद आ रही है। जब भौंहें चढ़ाये हुए ऋषि की आग-सी शकल की याद आती है तब मेरा धीरज छूट जाता है।" हरिश्चन्द्र विकल हो गये। शैव्या ने स्वामी के आँसुओं में अपने आँसुओं को मिला दिया; पत्थर की सीढ़ी पर आँसुओं की धारा बह चली। धीरे-धीरे सबेरा हुआ। वृक्षों पर बैठकर चिड़ियाँ चहचहाने लगीं। सबेरे की शीतल मन्द बयार ने सोये हुए जीवों के शरीर में नया बल भर दिया। पूर्वीय आकाश लाल रूप धारण करके हँसते-हँसते पृथिवी पर कर्म के गीत सुनाने लगा। शैव्या सबेरे की ठण्ढ में ज़रासा सो गई। [ २०१ ]राजा हरिश्चन्द्र न जाने क्या-क्या सोच रहे हैं। पूर्व आकाश में अचानक सूर्य को देखकर वे व्याकुल— हृदय से बोल उठे—"भगवन् सूर्यदेव! अभागी सन्तान का प्रणाम लीजिए। आज आपकी आँखें लाल-लाल क्यों हैं? आप पृथिवी पर आनन्द की किरणें बरसाते हैं; आपकी पवित्र सुन्दर मोहिनी मूर्त्ति देखकर जीवधारी लोग हाथ जोड़ आपका स्तोत्र पढ़ते हैं; किन्तु देव! आज आपकी ऐसी रौद्र मूर्त्ति क्यों देखता हूँ? क्या आपने भी अभागे पर क्रोधित होकर आँखें लाल कर ली हैं? क्यों न कीजिएगा? 'कुसमय मीत काको कौन?'" इस प्रकार चिन्ता से बेसुध होकर हरिश्चन्द्र पत्थर पर गिर पड़े। रात भर जागते बीती, सबेरे की ठण्ढी हवा ने हरिश्चन्द्र के शोक से तपे हुए प्राण को और भी व्याकुल कर दिया। हरिश्चन्द्र ने देखा कि ऋषि के क्रोध की अग्नि में सारा संसार जल गया है। चारों ओर धायँ-धाँयकर आग जल रही है! कहीं भागने का उपाय नहीं। प्राणप्यारा रोहिताश्व और प्राण से प्यारी शैव्या—सभी भस्म हो गये। आज अकेले हरिश्चन्द्र अपना कर्मफल भोगने के लिए जगत् को लीलनेवाली उस अग्नि में जल रहे हैं। इस प्रकार कष्ट से विकल होकर उन्होंने आँख खोली। देखा कि विश्वामित्र ऋषि दाहिना हाथ फैलाकर कह रहे हैं—लाओ महाराज, मेरी दक्षिणा। रात बीतने के साथ-साथ तुम्हारी ली हुई मुहलत का भी एक पक्ष बीत गया, आज सोलहवाँ दिन है।

हरिश्चन्द्र ने दुखे हुए हृदय से महर्षि के चरणों में प्रणाम किया। रानी शैव्या ने उठकर महर्षि को प्रणाम करने के बाद उनके चरणों की रज सोये हुए कुमार के सिर पर चढ़ाई।

विश्वामित्र ने राजा को चुप देखकर कहा—"हरिश्चन्द्र! मेरी दक्षिणा दो। अब देर क्यों लगा रहे हो?" हरिश्चन्द्र फिर भी चुप [ २०२ ]हैं। तब विश्वामित्र ने डाँटकर कहा—"राजा! क्या तुम्हारा यही कर्त्तव्य है? हमारे साथ चाल चलना चाहते हो! यदि दक्षिणा नहीं देना चाहते तो यह बात तुम्हें पहले ही कह देनी थी! तुम इतने दिन से मुझे क्यों नाहक़ हैरान कर रहे हो? जो हो, अब मैं जानना चाहता हूँ कि आज तुम मुझे दक्षिणा की रक़म दोगे या नहीं?" राजा ने घबराकर कहा—"भगवन्! मैं दक्षिणा की रक़म का अभी तक कुछ भी बन्दोबस्त नहीं कर सका। कृपा करके एक पखवारे तक और ठहरिए।" यह बात सुनकर विश्वामित्र ने कहा—नहीं, अब एक दिन भी नहीं ठहरूँगा। आज ही मुझे दक्षिणा मिलनी चाहिए। अगर आज दक्षिणा मुझे मिल न गई तो जान लेना कि आज दिन डूबने के साथ-साथ मेरे क्रोध की आग से सूर्यवंश का नाम तक नहीं रहने पावेगा। राजा! फिर भी कहता हूँ कि मुझे आज ही दक्षिणा मिलनी चाहिए।

हरिश्चन्द्र ने ऋषिवर की ओर आँख उठाकर देखा कि क्रोध से भरी उनकी देह काँप रही है और आँखें आग बरसा रही हैं। राजा ने विकल होकर कहा—"ऋषिवर! मैं तो निराधार हूँ—मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। मैं दक्षिणा कहाँ से हूँ? भीख माँगना क्षत्रिय का धर्म नहीं। कहीं नौकरी मिल जाय तो कर लूँ, किन्तु इस काशी में तो कहीं उसका भी ठिकाना नहीं।" यह सुनकर विश्वामित्र बोले—"मालूम होता है, दक्षिणा देना तुम्हारी शक्ति से बाहर है। भला तुमने मुझे इतने दिन रास्ता क्यों तकाया? तुमने आशा देकर इतने दिन मेरी तपस्या में बाधा क्यों दी? लो, मैं जाता हूँ।" विश्वामित्र वहाँ से दो ही चार पग चले होंगे कि रानी शैव्या ने क्रोधित ऋऋषि के दोनों पैर पकड़कर कहा—देव! पास में कुछ भी न रहने पर मति ठिकाने [ २०३ ]नहीं रहती। यह जीव का धर्म है। संसार में यह धर्म मनुष्य के चित्त के साथ मिल-सा गया है। आप लोग अन्तर्यामी हैं। महाराज के हृदय की अवस्था को समझकर आप शान्त हो जायँ। उपाय न देखकर ये दक्षिणा नहीं दे सके। दया करके दक्षिणा की रकम देने का उपाय आप ही बता दीजिए।

रानी शैव्या की इस विनती को सुनकर विश्वामित्र ने कहा—करूँ क्या? दक्षिणा की रक़म मिले बिना मेरी इच्छा पूरी नहीं होगी। इसी से इतने दिन तक बाट देखता रहा। देखो, मनुष्य इस पृथिवी पर बिलकुल निराधार कभी नहीं होता। सदाचार, परोपकार आदि मनुष्य की आत्मा के आधार हैं और इस संसारी जीवन का आधार उसकी देह है। अब तुम समझीं कि दक्षिणा की रक़म देने का उपाय क्या है?

बात तो ठीक है, इतने दिन हम लोग इसको नहीं समझ सके।—यह सोचकर शैव्या ने स्वामी के मुँह की ओर देखकर कहा—महाराज! आपने दक्षिणा देने के उपाय को समझा? तुम मुझे बेचकर महर्षि की दक्षिणा दे दी।

पत्नी के मुँह से यह बात सुनकर हरिश्चन्द्र ने व्याकुल होकर कहा—"रानी, तुम यह क्या कहती हो? अगर ऋषि के कोप से जल भी जाना पड़े तो मुझे मंज़ूर है परन्तु मुझसे ऐसा बुरा काम नहीं होगा।" यह सुनकर विश्वामित्र का क्रोध और भी भड़क उठा। उन्होंने शेर की तरह गरजकर कहा—"राजा! क्या यही तुम्हारी भलमनसी है? दक्षिणा देना मंज़ूर करके अब चालबाज़ी से उसे हज़म किया चाहते हो? अच्छा, अब मैं तुमसे दक्षिणा नहीं माँगूँगा।" अब शाप देने के लिए ऋषि ने हाथ में जल लिया।

विश्वामित्र के क्रोध को और उन्हें चुल्लू में जल लेते देखकर

  1. * वर्तमान शाहाबाद (बिहार) ज़िले के बक्सर स्टेशन के पास चरित्रवन नामक स्थान।