आदर्श महिला/४ शैव्या/३

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आदर्श महिला  (1925) 
द्वारा नयनचंद्र मुखोपाध्याय, अनुवादक जनार्दन झा

[ २०४ ]टूटी लता की तरह शैव्या ऋषिवर के चरणों में गिरकर दया की प्रार्थना करने लगी। विश्वामित्र ने शैव्या की गिड़गिड़ाहट सुनकर कहा—तुम्हारी विनती का ढंग और दीनता, महाराज हरिश्चन्द्र की ढिठाई भुलाकर, मुझको प्रसन्न कर रही है। जो हो, अगर तुम हरिश्चन्द्र की सहधर्मिणी और अर्द्धाङ्गिनी हो तो स्वामी की विपत्ति में अपने धर्म और कर्त्तव्य का पालन करो।

शैव्या सब समझ गई। ऋषि की बात से उसको ज्ञान हुआ। उसने सोचा कि मैं महाराज की सहधर्मिणी हूँ—अर्द्धाङ्गिनी हूँ। इसलिए महाराज ने दक्षिणा देने की जो प्रतिज्ञा की है उसमें मेरी भी प्रतिज्ञा हो चुकी। अब राजा हरिश्चन्द्र से शैव्या बार-बार विनती करने लगी कि आप मुझे बेचकर ऋषि की दक्षिणा चुका दीजिए। शैव्या की उस मर्मभेदिनी बात को सुनकर और ऋषिवर के क्रोध को देखकर हरिश्चन्द्र मूर्च्छित हो गये। शैव्या ज़ोर से रो-रोकर कहने लगी—ऋषिवर! मेरे जीवन-देवता तो मुझे अनाथ करके चल बसे। अब मैं इस घृणित जीवन को रखकर क्या करूँगी? आपके पवित्र चरणों का दर्शन करते-करते मैं नदी में डूब मरूँगी। अपने प्यारे रोहिताश्व को आपके श्रीचरणों में सौंपे जाती हूँ। दया करके अनाथ बेटी की अन्तिम प्रार्थना पूरी कीजिए।

विश्वामित्र ने कहा—शैव्या! सब बातों में भाग्य ही बलवान् है। शोक छोड़ो। तुम्हारे स्वामी सिर्फ़ मूर्छित हैं। पल भरू में मूर्च्छा मिट जायगी। तुम्हें अपना कर्तव्य पालने के लिए यही अच्छा मौक़ा है।

स्वामी को मूर्च्छित जानकर शैव्या कुछ शान्त हुई। फिर वह महर्षि को प्रणाम करके पास ही एक स्थान पर बिकने के लिए जा बैठी।

वहाँ पर एक बूढ़ा ब्राह्मण घूमता-फिरता आ गया। शैव्या ने उसको देखकर कहा—"हे महाशय! क्या आप मुझे मोल ले [ २०५ ]सकते हैं? मैं बड़ी विपत्ति में हूँ।" बूढ़े ने कहा—"हाँ, मुझे एक दासी की ज़रूरत है।" शैव्या ने कहा—"तो कृपा करके मुझे ख़रीद लीजिए।" बूढ़े ने पूछा—"तुमको कौन बेचता है?" शैव्या ने कहा—"मेरे स्वामी पर हज़ार मोहरों का क़र्ज़ है। दया करके आप हज़ार मोहरों में मुझे ख़रीद लीजिए।" बूढ़े ने कहा—इतनी मोहरें मेरे पास नहीं हैं। मैं पाँच सौ मोहरें दे सकता हूँ। चाहो तो यह पाँच सौ मोहरें ले लो।

रानी शैव्या ने पाँच सौ मोहरें विश्वामित्र को देकर कहा—"ऋषिवर! मेरे दाम पाँच सौ मोहरें मिली हैं, इन्हें लीजिए।" विश्वामित्र ने वह रक़म ले ली। अब शैव्या ने कहा—"मुनिवर! दासी बनने के पहले मैं एक बार महाराज के चरणों का दर्शन करके उनसे अन्तिम बिदा माँगना चाहती हूँ।" विश्वामित्र ने कहा—हरिश्चन्द्र की मूर्च्छा अभी नहीं टूटी है। तुम ब्राह्मण के घर जाओ। उनकी मूर्च्छा टूटने पर ही मैं यहाँ से जाऊँगा।

शैव्या ने ऋषि को प्रणाम किया; फिर वह मूर्च्छित स्वामी को प्रणाम और प्रदक्षिणा करके ब्राह्मण के पीछे-पीछे चली। उस समय कुमार रोहिताश्व शैव्या का आँचल पकड़कर रोने लगा। यह देखकर विश्वामित्र ने ब्राह्मण से कहा—"ब्राह्मण देवता! तुम अपनी ख़रीदी हुई दासी के लड़के को भी अपने घर ले जाओ। इसके लिए तुमको कुछ देना नहीं होगा।" ब्राह्मण ने कुछ सोचकर इसे मंज़ूर कर लिया। रोहिताश्व को गोद में लेकर रानी ब्राह्मण के पीछे-पीछे जाने लगी।

विश्वामित्र ने ज्योंही हरिश्चन्द्र के सिर पर हाथ फेरकर कहा—"हरिश्चन्द्र! उठो" त्योंही वे उठ बैठे और सामने रानी तथा कुँवर रोहिताश्व को न देखकर घबराहट से बोले—भगवन्, मेरी शैव्या और कुमार रोहिताश्व कहाँ गये? उनको न देखकर तो मुझे चारों और सुना लगता है। जल्दी बताइए, वे कहाँ हैं। [ २०६ ]

विश्वामित्र ने कहा—तुम्हारी स्त्री अपने को बेचकर, तुम्हारे ऋण का आधा हिस्सा चुकाकर, कुमार रोहिताश्व-सहित खरीदार ब्राह्मण के घर चली गई।

हरिश्चन्द्र गला फाड़-फाड़कर रोने लगे। उनकी रुलाई से दिशाएँ रो उठीं।

विश्वामित्र ने कहा—"हरिश्चन्द्र! जो हो गया सो हो गया, उसके लिए अब क्या पछताते हो?" हरिश्चन्द्र ने कहा—ऋषिवर, मेरी शैव्या दासी हो गई! सैकड़ों दास-दासियाँ जिसकी आज्ञा पालने के लिए सदा हाथ जोड़े खड़ी रहती थीं, अयोध्या के राजमहल में जो बड़ी इज़्ज़त से विचरती थी, वह मेरी प्राण से प्यारी अयोध्या की रानी शैव्या आज दासी हुई! मुनिवर! मुझ अभागे की ऐसी हँसी मत उड़ाइए। सच बताइए, मेरी शैव्या और कुमार रोहिताश्व कहाँ हैं।

विश्वामित्र ने कहा—"हरिश्चन्द्र! मैं क्या झूठ कहता हूँ?" उन्होंने, चादर में बँधी शैव्या की दी पाँच सौ मोहरें दिखाकर कहा—"यह देखा हरिश्चन्द्र! तुम्हारी साध्वी पत्नी ने उस दक्षिणा की आधी रक़म चुका दी है जिसका देना तुम मंज़ूर कर चुके हो। अब बाकी पाँच सौ मोहरें तुम जल्दी चुका दो।" हरिश्चन्द्र कुछ भी स्थिर नहीं कर सके कि क्या कहें, और क्या करें। पागल की तरह वे न जाने क्या सोचने लगे। अन्त में उन्होंने कहा—"मुनिवरू, रानी शैव्या तो दासी हो गई! और मैं कर्मक्षेत्र के भयंकर भँवर में खड़ा हूँ! मैं अब इस प्रेतभूमि में रहना नहीं चाहता! अरे दुर्भाग्य! भयावने युद्ध में जिसका आश्रय करके मैं आगे बढ़ा था, जो दारुण विपत्ति के समुद्र में मुझ डूबते हुए के लिए नौका-समान सहारा थी, वह आज मुझ अभागे के लिए अपने को बेचकर दासी हो गई! जाय, सब जाय; सत्य तुम जाओ—धर्म तुम जाओ। इस पापी की [ २०७ ]देह पर अब तुम लोगों को रहने का अधिकार नहीं। मेरी इस देह पर अब प्रेत का अधिकार है। जैसे होगा वैसे मैं प्यारी का उद्धार करूँगा। मेरी ये विशाल भुजाएँ शत्रुओं के सामने यम के दण्ड की भाँति शोभा पाती रही हैं। आज मैं इन्हीं भुजाओं के बल से क्षत्रियधर्म को बचाकर दास बनूँगा और उसी दासत्व से मिले हुए धन के बदले में अपनी शैव्या को छुड़ा लाऊँगा। अगर ऐसा नहीं कर सकूँगा तो यहीं गंगाजी में जीवन को त्याग दूँगा।" अब हरिश्चन्द्र वहाँ से चलने के लिए तैयार हुए।

क्रोध से काँपते हुए विश्वामित्र ने कहा—हरिश्चन्द्र! यह तुम क्या कहते हो? मेरा ऋण चुकाये बिना ही तुम आत्म-हत्या करोगे? क्या तुम्हें यह मालूम नहीं कि आत्म-हत्या करना महापाप है? मेरा ऋण न चुकाकर तो पाप कर ही रहे हो, ऊपर से आत्म-हत्या करके पाप का बोझा और क्यों बढ़ाओगे? हरिश्चन्द्र! सुनो, आज यदि तुम मेरी दक्षिणा की रक़म नहीं दोग तो तमझ लो कि मेरा यह दवा हुआ क्रोध सत्यानाश करने की ज्वाला फैलावेगा। समुद्र में बड़वानल और वन में दावानल होने की बात तुमने सुनी होगी, आज तुम्हारे अपराध से मेरा रोषानल तुम्हारे वंश को भस्म कर देगा। हरिश्चन्द्र! तुम्हें अभी तक इतना अभिमान है! तुम इस समय दो रास्तों के मोड़ पर आ पहुँचे हो। एक रास्ते में तुम्हारी प्रतिज्ञा है, और दूसरे रास्ते में अनन्त नरक। सोच लो, तुम किस रास्ते जाओगे।

हरिश्चन्द्र ने दुखी होकर कहा—नरक के रास्ते। अब मुझे कुछ सोचना-विचारना नहीं है। पत्नी के विरह से मैं मौत का सा दुःख पा रहा हूँ। पृथिवी मुझे इस समय नरककुण्ड-सी जान पड़ती है। ऋषिवर! मेरी प्रतिज्ञा भले ही टूट जाय; मैं जब पत्नी और पुत्र की रक्षा करने के अयोग्य हूँ तब मेरे नरकवास में और क्या बाक़ी है? [ २०८ ]

विश्वामित्र ने कहा—"हरिश्चन्द्र! अपने पाप से वंश का सत्यानाश करना कौन-सी राजनीति है?" हरिश्चन्द्र ने उकताकर पूछा—"तो आपकी क्या राय है?" विश्वामित्र ने कहा—हरिश्चन्द्र! तुम अपनी साध्वी पत्नी के दृष्टान्त पर चलो। प्रतिज्ञा को तोड़कर महापाप मत करो; बंश में कलङ्क मत लगाओ। अयोध्या का राजबंश पवित्रता की किरणों से सदा से उजला है। भाग्य मनुष्य का दास नहीं है, मनुष्य ही भाग्य का दास है। मनुष्य इस पृथिवी पर कर्मों का फल भोगता है। तुम भी अपने पूर्वजन्म का कर्म-फल भोगने के लिए पृथिवी पर आये हो। तुम वंश का नाश करने नहीं आये हो—यह अधिकार तुम्हें नहीं है।

हरिश्चन्द्र ने ऋषि की इस बात को सुनकर व्याकुल हृदय से कहा—"मुनिवर! आप ज़रा ठहरिए। मैं भी पत्नी की तरह अपने को बेचकर आपको दक्षिणा देता हूँ।" फिर वे पास ही, दास बिकने के अड्डे पर जाकर बोले—"हे काशीवासी ब्राह्मणों! अगर आप लोगों में से किसी को दास की ज़रूरत हो तो पाँच सौ मोहरें देकर काम करने में होशियार इस हट्टे-कट्टे दास को मोल ले लीजिए।" किसी को आते न देखकर हरिश्चन्द्र ने फिर कहा—"हे काशीवासी क्षत्रियों! अगर आप लोगों में से किसी को दास की ज़रूरत हो तो पाँच सौ मोहरों के बदले युद्ध में चतुर इस दास को ख़रीद लीजिए।" इस बार भी किसी को न आते देखकर हरिश्चन्द्र सोचने लगे कि क्या मुझे किसी नीच जाति की सेवकाई करनी पड़ेगी। फिर उन्होंने सोचा कि जब सेवकाई ही करनी है तब फिर मान-अभिमान क्या! उन्होंने फिर एक बार ज़ोर से कहा—हे काशीवासी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चाण्डालगण! अगर आप लोगों में से किसी को दास की ज़रूरत हो तो सोने की पाँच सौ मुद्रा देकर मुझे ख़रीद लीजिए। [ २०९ ]

हरिश्चन्द्र की बात सुनकर एक भद्दे रूपवाला मरघट का डोम वहाँ आकर बोला—"कौन है? मुझे चाहिए दास।" हरिश्चन्द्र ने मरघट के डोम को देखकर सोचा—इसके हाथ मुझे बिकना होगा; मेरे भाग्य में यह बात भी लिखी थी! जो हो, अब देरी करना ठीक नहीं। यहाँ कोई और ख़रीदार भी तो नहीं है इसलिए मुझे इसी के हाथ बिकना पड़ेगा। राजा ने डोम की ओर बढ़कर कहा—चाण्डाल! तुम मुझे ख़रीदोगे? अच्छा लाओ, पाँच सौ मोहरें दो।

चाण्डाल से पाँच सौ मोहरें लेकर हरिश्चन्द्र ने विश्वामित्र को दे दीं। विश्वामित्र ने मोहरें पाकर कहा—"हरिश्चन्द्र! मैंने तुम्हारी मंजूर की हुई दक्षिणा की रक़म पाई। अब मैं जाता हूँ। समय पर फिर मुझसे भेंट होगी।" हरिश्चन्द्र ने प्रणाम किया।

विश्वामित्र जब वहाँ से चले गये तब हरिश्चन्द्र ने डोम से पूछा कि मुझे क्या काम करना पड़ेगा। उसने कहा—"मैं मसान-घाट पर लाश जलाने का कर वसूल करता हूँ। तुमको भी यही करना होगा। फिर उसने हरिश्चन्द्र से पूछा—"क्यों जी, तुम्हारा नाम क्या है? मैंने जो काम बताया, उसको कर तो सकोगे?" हरिश्चन्द्र ने कहा—"मेरा नाम हरिश्चन्द्र है। मैं तुम्हारा काम करने की जी-जान से कोशिश करूँगा। धर्म को बचाने के लिए जब मैंने तुम्हारी सेवकाई करना मंजूर कर लिया है तब मुझसे तुम्हारा कुछ नुक़सान नहीं होगा।" चाण्डाल ने कहा—"देखो भाई! तुम्हारा नाम तो बड़ा टेढ़ा-मेढ़ा मालूम पड़ता है। मैं तो तुमको 'हरिया' कहकर ही पुकारूँगा।" हरिश्चन्द्र ने कहा—"क्या हर्ज है, यही कहकर पुकारना।" डोम के सेवक होकर हरिश्चन्द्र मसान-घाट पर मुर्दों का कर वसूल करने और सूअर, चराने आदि का काम करने लगे। [ २१० ]

[९]

राजकुमार रोहिताश्व को गोद में लिये हुए शैव्या ब्राह्मण के घर गई।

ब्राह्मण की स्त्री ने देखा कि बूढ़ेराम एक देवी को दासी बना लाये हैं। दासी के साथ एक राजकुँवर-सा बच्चा है। तो क्या यह दासी का पुत्र है? मनुष्य में इतना रूप भी कहीं हो सकता है? इस प्रकार सोचते-सोचते ब्राह्मणी ने उस दासी की ओर रोषभरी निगाह से देखकर अकेले में ब्राह्मण से कहा—"यही दासी है? तुम्हारे इस बुढ़ापे को क्या फिर जवानी की हवा लगी है?" ब्राह्मण ने पत्नी के मुँह से ऐसी कड़ी दिल्लगी सुनकर बड़े दुःख से कहा—ब्राह्मणी! तुम यह क्या कह रही हो? स्त्री में विश्व-नाथ की अपार दया का पूर्ण विकास होता है; स्त्री अन्नपूर्णा-रूप में विश्व के राजा की शुभ आज्ञा का पालन करती है; स्त्री ने माता के रूप से दोनों हाथों में प्रेम और अमृत लेकर इस जगत् को गोद में ले रक्खा है। बड़े शोक की बात है कि तुम स्त्री होकर भी स्त्री की मर्यादा को नहीं समझती।

ब्राह्मण ने दासी का सब हाल ब्राह्मणी को कह सुनाया। ब्राह्मणी ने सुनकर सोचा कि यह ऐसे सुन्दर रूपवाली स्त्री कौन है। स्वामी की बात रखने के लिए स्त्री का ऐसा अपूर्व आत्मदान तो पहले कभी नहीं सुना था। सब सोच-विचारकर ब्राह्मणी दासी के विषय में बुरा ख़याल नहीं रखना चाहती थी तो भी उसके जी में, न जाने क्यों, बुरी चिन्ता हो आती थी। राजकुमारों को लजानेवाले दासी के उस सुन्दर बच्चे को देखकर ब्राह्मणी के हृदय में जब-तब वात्सल्य-भाव उठता। ब्राह्मणी सोचती कि शक्ति-पुत्र कार्तिकेय को देखकर कृत्तिका के स्तनों से दूध निकला था; दासी के इस पुत्र को देखकर मुझ बिना पुत्रवाली के चित्त में भी वात्सल्य की धारा बहती है, तो दासी का यह पुत्र क्या किसी देवता का बालक है? इस प्रकार अस्थिर-चित्त से वह [ २११ ]ब्राह्मणी उस दासी और दासीपुत्र के साथ कभी अच्छा और कभी बुरा बर्ताव करने लगी। सारांश यह कि, अभाग्य की सताई हुई शैव्या और रोहिताश्व ब्राह्मण के घर-ब्राह्मणी का बहुत कुछ अत्याचार सहकर-बड़े कष्ट से दिन बिताने लगे।

महारानी शैव्या ब्राह्मण के घर दासी बनकर, बड़े कष्ट में पराधीनता के अन्न से, दिन बिताने लगी। उन्हें हर काम में पहले समय के सुख की बातें याद आ जातीं। इससे वे कभी-कभी बेहोश हो जातीं; फिर सोचतीं कि व्यर्थ चिन्ता करने से क्या होगा। विधाता की यही मर्जी है। इस प्रकार शैव्या हृदय के दुःख को दबाकर किसी तरह दिन काटतीं। माता के अपार दुःख में रोहिताश्व एकमात्र सहारा-सा था।

दासी के ऊँचे मन को, देवताओं के ऊपर उसकी भक्ति को और सदाचार को देखकर ब्राह्मण देवता बहुत प्रसन्न हुए। ब्राह्मणी के जी में भी कभी-कभी दासी के लिए सहानुभूति होती किन्तु स्वार्थ की ज़बर्दस्त चिन्ता उस सहानुभूति को प्रकट न होने देती थी। इस प्रकार कुछ दिन बीतने पर, ब्राह्मण और ब्राह्मणी ने विचार किया कि दासी के पुत्र को फूल चुन लाने का काम दिया जाय और इसके बदले में उसको खाना दिया जाय। शैव्या ने ब्राह्मणी की यह बात सुनकर पुत्र को ब्राह्मण की पूजा के निमित्त फूल चुन लाने की सलाह दी। रोहिताश्व पूजा के लिए फूल चुनने के काम पर तैनात हुआ।

एक दिन कुमार रोहिताश्व फूल चुनने वन में गया था कि वहाँ एक जहरीले साँप ने उसे डस लिया। बालक रोहिताश्व विष की ज्वाला से माता को पुकार-पुकारकर वहीं मर गया।

धीरे-धीरे यह भयानक समाचार शैव्या के कानों तक पहुँचा। वह एक-साँस वन में जाकर, मरे हुए पुत्र को छाती से लगा, रोने लगी। शैव्या का रोना सुनकर मानो वन के वृक्ष भी रोने लगे। पुत्र [ २१२ ]के शोक से विकल रानी की दुःखभरी गुहार सुनकर पशु-पक्षी टकटकी लगाकर सती के चारों ओर खड़े हो गये।

धीरे-धीरे सन्ध्या हो चली। दासी को अब तक न लौटते देखकर ब्राह्मण को फ़िक्र हुई। उसने वन में जाकर देखा कि लड़के की लाश को छाती से लगाये दासी रो रही है। हाय! इस निर्जन वन में उसको ढाढ़स देनेवाला कोई नहीं है। पुत्र-शोक से विह्वल रानी की पगली सूरत देखकर ब्राह्मण एकाएक ठिठक गया। वह बड़े कष्ट से दासी के पास जाकर उसे समझाने-बुझाने लगा। ढाढ़स की बातें सुनने से शैव्या का शोक और भी उमड़ आया।

ब्राह्मण से दासी का यह शोक देखा नहीं गया। उसकी आँखें भी आँसुओं से भीग गईं। उसने कहा—बेटी! ढाढ़स बाँधो, शोक छोड़ो। इस पृथिवी पर सबको उसी रास्ते जाना होगा। हम लोगों की समझ में यह बात नहीं आती, इसी से इतना दुःख भोगते हैं। बेटी! शोक छोड़कर मरे हुए लड़के की दाह-क्रिया करो।

दाह-क्रिया का नाम सुनकर सती का शोक चौगुना बढ़ गया। उसने व्याकुल होकर कहा—"महाराज! माता होकर मैं बेटे की दाह-क्रिया करूँगी? हाय विधाता! तुम्हारे जी में यह भी था! इतना दुःख देने पर भी तुझे कुछ दया न आई! हा नाथ! अब तो नहीं सहा जाता।" शैव्या इस प्रकार विलाप करती बालक की लाश को गोद में लेकर धीरे-धीरे मरघट की ओर चली। तारा से भरे नीले आकाश ने शैव्या के दारुण खेद को देखकर मानो तारे-रूपी अपने नेत्रों को बादलों से ढक लिया।

[१०]

वरुणा के तट पर काशी के मसान-घाट में कई चिताएँ जल रही हैं। पास ही, एक डोम एक पेड़ के नीचे खड़ा होकर पहले [ २१३ ]की बातें सोच रहा है। वह सोचता है—क्या मैं सचमुच किसी समय। राजा था? क्या मेरे एक रानी और एक लड़का भी था? क्या सैकड़ों दास-दासियों ने मेरी सेवा की है? क्या मेरे पास अपार धन था? क्या मैं समुद्रों-समेत पृथिवी का कभी स्वामी था? क्या यह सब सच है? मालूम तो नहीं होता। किसी दिन खुर्राटे की नींद में सपना देखा होगा! नहीं तो कहाँ राजपाट और कहाँ यह काशी का मरघट! ऐसा भी हो सकता है? वह क्या है? आकाश की गोद में अँधेरे के बीच किसी ऋषि की मूर्ति तो नहीं है? अरे! यह मूर्ति तो पहचानी हुई सी जान पड़ती है! हाँ, ये तो विश्वामित्र ऋषि हैं। मैंने इन्हीं को पृथिवी दान की है न? हाय रे! मरघट के डोम ने पृथिवी दान की है, यह कभी हो सकता है? यह सब बिगड़े हुए दिमाग़ की बकवाद है। हृदय! क्यों अशान्त होते हो? तुम तो मरघट के डोम हो, तुम तो—डोमों के सरदार कल्लू के दास—हरिया डोम हो।

पहले से ही आकाश में मेघ छा रहे थे। अब बड़े ज़ोर से वर्षा होने लगी। बिजली के बार-बार चमकने और कड़कने से ऐसा मालूम होता था मानो आज प्रलय होनेवाला है!

इतने में एक स्त्री एक लड़के की लाश को छाती से लगाये उस मरघट में आई। विकट अँधेरा है, कुछ भी दिखाई नहीं देता। बीच-बीच में बिजली की चमक से अँधेरा और भी गहरा होता जाता है। मरघट के डोम ने सोचा—जान पड़ता है किसी के घर का दीपक बुझ गया है! किसी की तकदीर फूट गई है! इस काल-रात्रि में यह कौन अकेला आ रहा है? उसकी छाती से सटा हुआ वह क्या है? क्या किसी लड़के की लाश है?

वह स्त्री एकाएक ठहर गई। अँधेरे में रास्ता नहीं दिखाई देता। इस भयानक आँधी-पानी में यहाँ कोई आदमी भी है? कौन मुझे [ २१४ ]रास्ता दिखायेगा? यह सोचते-सोचते स्त्री व्याकुल हो गई। अचानक बिजली चमकी। उसके ज़रा देर के उजेले में स्त्री ने देखा कि सामने कोई खड़ा है। स्त्री ने घबराकर पूछा—इस अँधेरे में तुम कौन हो?

बेजान-पहचानवाले ने कहा—मैं डोम हूँ। इस मरघट में मुर्दा जलाना मेरा काम है। आओ, जल्द तुम अपना काम करो। क्यों व्यर्थ शोक करती हो? संसार की रीति ही ऐसी है। एक जाता है और एक आता है। काल-चक्र में जीव का यह आना-जाना पेचीदा बातों से भरा हुआ है। विश्व-नाथ के इस उद्देश को माया से बँधे हुए मनुष्य बिलकुल नहीं समझ सकते। मैं इस मरघट में इसको अपनी आँखों देख रहा हूँ। इसी से कहता हूँ कि तुम इतनी क्यों घबराती हो—क्यों इस प्रकार रोती-कलपती हो? धीरज धरो।

एक बे-पहचाने हुए की इन बातों को सुनकर स्त्री ज़रा होश में आई, उसे कुछ ढाढ़स हुआ। कठिन विपत्ति में समझाने से सिर्फ़ आँसू ही बढ़ते हैं। रानी की आँखों में आँसुओं की धारा उमड़ आई। उन्होंने गिड़गिड़ाकर कहा—डोम! तुम आदमी नहीं, कोई देवता हो। ऐसा न होता तो तुम्हारा हृदय इतना कोमल कैसे होता। तुममें इतनी सहानुभूति और इतना ऊँचा ज्ञान कैसे होता। हे देवता! तुम मेरी आँखों की पुतली को ढूँढ़ दो—अभागिनी के एकमात्र आश्रय को अमृत छिड़ककर फिर से जिला दो।

डोम ने कहा—देवी! मैं झूठ नहीं कहता। मैं तुम्हारे ही समान मनुष्य हूँ; नहीं नहीं, मनुष्य से भी अधम मुर्दा जलानेवाला मरघट का डोम हूँ। तुम सन्देह क्यों करती हो? अब देर मत करो। अपने लड़के की लाश जलाने के लिए पाँच गण्डा कौड़ी दो। मैं जलाने के लिए आग देता हूँ।

पाँच गण्डे कौड़ियों की बात सुनकर शैव्या का प्राण सूख [ २१५ ]गया। वह इतनी कौड़ियाँ कहाँ पावे? गहरे दुःख के समय मनुष्य को जीवन के बीते हुए सुखों की याद आती है। इससे उसका चित्त व्याकुल हो जाता है। शैव्या को पुरानी बातों की याद हो आई। कौड़ियों का कुछ उपाय न देखकर उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह चली।

डोम ने कहा—क्यों नाहक शोक करती हो? पाँच गण्डा कौड़ियाँ जल्दी दो। देखती नहीं हो, आकाश कुछ साफ़ हो गया है, और वर्षा भी रुक गई है। फिर आँधी या पानी के आने से यह मरघट और भी विकट हो जायगा। इसलिए अब देर मत करो।

स्त्री ने कहा—"डोम! मैं कौड़ियाँ कहाँ पाऊँ? मैं तो खरीदी हुई दासी हूँ। तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, चाण्डाल! मेरी विपद में तुम सहायता करो।" कुछ देर बाद, हृदय के वेग को दबाकर उसने कहा—हाय नाथ! तुम कहाँ हो? देखते नहीं कि पाँच गण्डे कौड़ियों के लिए तुम्हारे पुत्र की क्रिया रुकी हुई है।

डोम ने पूछा—भद्रे! क्या तुम्हारा निठुर पति अभी ज़िन्दा है?

स्त्री ने घबराकर कहा—चाण्डाल! तुम किसकी निन्दा करते हो? तुम मेरे स्वामी को निठुर कहते हो? ख़बरदार! ऐसा मत कहना मेरे स्वामी महाराजाधिराज हैं, मेरे स्वामी बड़े भारी दानी हैं, मेरे स्वामी दीनों को शरण देते हैं, वे प्रजा को हृदय से चाहते हैं, वे बड़े प्रेमी हैं, मनुष्य के चोले में साक्षात् देवता हैं। डोम! बिना जाने, तुम उनको निठुर क्यों कहते हो?

डोम ने चौंककर पूछा—तब तुम्हारी यह हालत क्यों है? तुम ऐसी असहाय अवस्था में, मरघट में, अकेली क्यों आई?

स्त्री ने दुःखभरे स्वर में कहा—वह बहुत बड़ी कहानी है। [ २१६ ]हाय हाय, भाग्य में यह भी बदा था! मा होकर बेटे को मरघट में लाना पड़ा। हाय नाथ! कहाँ हो? देखते नहीं कि तुम्हारा प्यारा रोहिताश्व आज सदा के लिए मरघट में सोया हुआ है।

अयँ! यह क्या? डोम का यह भाव क्यों? वह सोचने लगा—"मेरे बेटे का नाम भी तो रोहिताश्व था। यह स्त्री रोहिताश्व का नाम लेती है। तो क्या यह स्त्री मेरी शैव्या है?" यह सोचते हुए उसने रानी के पास जाकर घबराहट से पूछा—बताओ तो, बताओ तो, क्या तुम अयोध्या के राजा हरिश्चन्द्र की रानी शैव्या हो? यह मरा हुआ बालक क्या कुमार रोहिताश्व है?

अचानक बिजली चमकी। बिजली की रोशनी में दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया। हरिश्चन्द्र चिल्लाकर बोले—"महारानी शैव्या! प्यारे रोहिताश्व! तुम लोगों की यह दशा!!" फिर मरे हुए पुत्र की छाती पर लोटकर हरिश्चन्द्र हाहाकार करने लगे।

शैव्या ने दूने दुःख से व्याकुल होकर कहा—"महाराज! आपका यह वेष!" राजा-रानी के व्याकुल रोदन से काशी का मरघट मानो रोने लगा। देर तक विलाप के बाद हरिश्चन्द्र ने कहा—"रानी! अब क्या रक्खा है? जीवन की सब साध तो पूरी हो गई। चलो, पुत्र की लाश को गोद में लेकर इस जलती हुई चिता में जल मरें। हम लोगों को अब जीने की ज़रूरत ही क्या है?" यह कहकर वे धधकती हुई चिता में घुसने को तैयार हुए।

"हैं हरिश्चन्द्र! तुम्हारे जैसे आदर्श-दम्पति को अपनी छाती पर बिठला करके धरती आज धन्य हुई है।" यह कहते हुए महर्षि विश्वामित्र ने आकर हरिश्चन्द्र का हाथ पकड़ लिया।

राजा और रानी ऋषि के चरणों में गिर पड़े। उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे। विश्वामित्र ने बड़े प्रेम से उनको उठाकर [ चित्र ]
 

श्मशान में मृत पुत्र को गोद में लिये शैब्या और चाण्डालवेषी हरिश्चन्द्र—पृष्ठ २१७

[ २१७ ]कहा—वत्स हरिश्चन्द्र! बेटी शैव्या! शोक छोड़ो। देखो, रात के अन्त के साथ-साथ तुम लागों की दुःख की रात भी बोत गई।

फिर विश्वामित्र ने रोहिताश्व के मुर्दा शरीर पर अपने कमण्डलु का जल छिड़का। इससे कुँवर जी उठा। वह बोला—"मा! तुम कहाँ हो?" शैव्या ने रोहिताश्व को गोद में लेकर मुनिवर के चरणों की रज उसके शरीर में लगा दी।

हरिश्चन्द्र ने कहा—"महर्षि! दुःख की परीक्षा में आपने मुझे अनन्त सुख का मालिक बनाया। आपके इस ऋण से मैं उऋण नहीं हो सकता।" हरिश्चन्द्र की इस बात को सुनकर विश्वामित्र ने कहा—हरिश्चन्द्र! जगत् में कर्मी कोई नहीं है, सब का मूल विधाता है। महाराज! धर्म ही सबसे ऊँचा है और धर्मात्मा को धर्म ही बचाता है—"धर्मो रक्षति धार्मिकम्।" कर्म से ही जगत् के कारोबार हो रहे हैं। तुम लोगों ने कर्म की लड़ाई में जय पाई है। धर्म तुम लोगों का सदा सहायक है। यद्यपि तुम तरह-तरह की दुर्दशाओं में अपने को भूल गये थे, फिर भी देखते तो हो कि इस संग्राम में जीत किसकी हुई? जीते तुम्हीं। राज्य छोड़ देने ही से आज तुम्हारी यह कीर्ति भुवनों में भर गई है; और मैंने, राज्य पाकर अपना सर्वनाश कर डाला है—ब्राह्मण के ब्राह्मणत्व को त्यागकर मैं बहुत गिर गया हूँ। हरिश्चन्द्र! तुम एक दिन राज्य दान करके भिखारी हुए थे—आज उस राज्य को लेकर फिर महिमा के मुकुट से सज जाओ। मुझे राज्य से या धन से कुछ सरोकार नहीं। मेरी ब्रह्म-साधना का मार्ग ही खुला रहे।

विश्वामित्र ने अयोध्या के राज-सिंहासन पर हरिश्चन्द्र को फिर बिठाया। राज्य में आनन्द की धारा बहने लगी।