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आदर्श महिला/५ चिन्ता

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आदर्श महिला
नयनचंद्र मुखोपाध्याय, अनुवादक जनार्दन झा

इलाहाबाद: इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ पाँचवाँ-आख्यान से – २३९ तक

 

पाँचवाँ आख्यान
चिन्ता

पाँचवाँ आख्यान
——:—◎—:——
चिन्ता
[१]

पुराने ज़माने में भारतवर्ष में चित्रसेन नामक बड़े प्रतापी राजा राज्य करते थे। वे जैसे दाता थे वैसे ही धर्मात्मा भी थे। वे हुकूमत करने में साक्षात् इन्द्र के तुल्य, न्याय करने में मूर्तिमान धर्म और शास्त्रों के ज्ञान में प्रत्यक्ष बृहस्पति के समान थे। राजाओं के योग्य इन गुणों के होने से राजा चित्रसेन की प्रजा के हृदय में देवता को तरह पूजा होती थी।

राजा के वैभव की हद नहीं थी। सतमंज़िला महल था। नाना प्रकार के रत्नों से भरा उनका वह राजभवन इन्द्रावती से भी बढ़कर जान पड़ता था। सैकड़ों दास-दासियाँ राजा की आज्ञा मानने को सदा मुस्तैद रहती थीं। मतलब यह कि राजधानी सुख, शान्ति और सिलसिले का काम होने से आनन्द का घर हो रही थी।

राजा चित्रसेन की इकलौती बेटी का नाम चिन्ता था। चिन्ता संसार को सतानेवाली चिन्ता नहीं थी, किन्तु यह संसार के मन को मोहित करनेवाली चिन्ता थी। जो कोई चिन्ता की सुन्दर देह में अनोखी लुनाई और शोभा देखता वह कहता—अहा! सुघराई क्या है मानो विधाता ने इस अनित्य पृथिवी पर सुन्दरता और पवित्रता की मूर्ति दिखाने के लिए ही चिन्ता को रचा है। चिन्ता के अङ्गों में ज्वाला नहीं है—केवल हृदय को प्रसन्न करनेवाली शान्ति है! चिन्ता को देखने से लालसा का क्लेश नहीं होता, होती है केवल तृप्ति। चिन्ता को देखने से निराशा की ताप से जले हुए अभागे के हृदय में भी आनन्द की हवा बहती है। विधाता की रची हुई सृष्टि में चिन्ता मानो एक ऐसी सुन्दर तसवीर है जिसमें कोई दोष नहीं।

चिन्ता की उस ममता-मयी मूर्त्ति में मानो विधाता की अपूर्व सृष्टि-कुशलता छिपी हुई है। यदि ऐसा न होता तो मनुष्य में क्या इतना रूप हो सकता है? सभी देखते हैं कि चिन्ता की बे-जोड़ कान्ति से चारों ओर उजेला-सा फैल जाता है। नारी का नारीत्व मानो चिन्ता के मुख और नेत्रों से निकला पड़ता है। चिन्ता मानो सुख के सरोवर में खिली हुई कमलिनी है जो मधुर वायु के झोकों से सदा सुख की लहरें ले रही है।

पिता के आदर और माता के प्रेम में चिन्ता का सुख से भरा बचपन बीत गया। चिन्ता ने अब माता की गोद छोड़कर कुछ स्वाधीनता से चलना सीखा है। उसको सखियाँ मिल गई हैं। वह उन्हीं के साथ खेलती है। महल की बग़ीची में सखियों के साथ जाकर वह फूल चुनती और माला गूँथती है। सहेलियों में कई हँसोड़ और दिल्लगीबाज़ थीं, किन्तु सखियों की तरह चिन्ता न तो ज़ोर से हँसती और न दिल्लगी-मज़ाक में रहती। वह हँसी और खेल के भीतर खोजती थी कि संसार में "और कुछ" क्या है। वाटिका में खिले हुए फूलों की मोहिनी शोभा को देखकर वह सोचती—अहा, फूल कैसा सुन्दर है! किन्तु जिनकी कृपा से यह फूल खिला है वे न जाने कितने सुन्दर हैं! पक्षियों के गीत से मग्न होने पर वह सोचती—मीठे स्वर से पक्षी जिनकी स्तुति कर रहे हैं वे न जाने कितने महान्, कितने बड़े हैं! नदी के किनारे बैठकर वह सोचती—जगत् को बनानेवाले की कितनी अपार करुणा है; सबेरे की बयार की शीतलता से पुलकित होकर सोचती—अहा! विधाता का दान अनन्त है! इस प्रकार सोचते-सोचते राजकुमारी सुध-बुध भूल जाती। विधाता के पवित्र आशीर्वाद को पाकर बालिका नया उत्साह पा जाती।

सुख की गृहस्थी में जन्म लेने से बालक कुछ आराम-तलब और खिलाड़ी होते हैं किन्तु राजकुमारी चिन्ता मा-बाप की इकलौती बेटी होने पर भी व्रत-नियम में अपने को भूल जानेवाली योगिनी की भाँति रहती थी। उसके बचपन का यह अनोखा जीवन उसको भविष्यत् के रास्ते में चलाने के लिए तैयार करता था। चिन्ता सोचती—सुख या दुःख दुनिया में कुछ नहीं है। भ्रम में पड़े हुए मनुष्य सुख में अपने को भूल जाते हैं और दुःख में विकल होकर कर्तव्य के रास्ते से हट जाते हैं। मैं राजकन्या हूँ, सैकड़ों दास-दासियाँ मेरी आज्ञा मानने को तैयार हैं; किन्तु मैं आप क्या कुछ नहीं कर सकता? काम करने में ही तो सञ्चा बड़प्पन है। आलसी रहकर कोई बड़ा नहीं बन सकता! मनुष्य को बड़ा बनने के लिए अपने ऊपर भरोसा करना सीखना चाहिए। दुःख या कष्ट पड़ने पर, उसे भगवान् की लीला समझनी चाहिए। आत्म-विश्वास की अथक शक्ति के सहारे दुःस्त्र के बन्धन से छूटना चाहिए। इसलिए मैं अपना काम अपने ही हाथ से करूँगी। सोच-विचारकर चिन्ता अपना सब काम आप ही किया करती। बालिका के इस ढंग को देखकर रानी कुछ कहती तो चिन्ता उत्तर देवी—मा! इस कर्मभूमि धरती में मनुष्य काम करके ही धन्य होता है। मुझे काम करना अच्छा लगता है।

लड़की के मुँह से ऐसी बातें सुनकर रानी को बहुत सन्तोष होता, किन्तु बालिका के माथे पर, काम की थकावट से, पसीने की बूँदें देखकर उनका जी आधा हो जाता।

काम-धाम को ही पसन्द करनेवाली चिन्ता सदा काम-काज में लगी रहती थी। दरिद्रों को दुःख से छुड़ाने और बीमारों की सेवाशुश्रूषा करने से वह सुखी होती थी। किसी के दुःख की बात सुनने पर उसकी आँखों से आँसू बहने लगते थे।

[२]

एक दिन वसन्त ऋतु में सबेरे राजकुमारी चिन्ता राजभवन की फुलवाड़ी में एक जगह बैठकर एक खिले हुए फूल की शोभा देख रही है। गहरी एकाग्रता से बालिका को वह फूल चित्र-सा मालूम हो रहा है। उसके काले-काले केश बिखरकर इधर-उधर लटक रहे हैं । बालिका की दृष्टि उसी फूल की ओर है, किन्तु गौर से देखने पर मालूम हो सकता है कि यद्यपि उसकी नज़र फूल की तरफ़ लगी हुई है तथापि उसका चित्त इस नाशवान जगत् के फूल को छोड़कर मानो अमरावती के खिले हुए भाव-पुष्प में मग्न है। चिन्ता का मुँह उजला, गम्भीर और प्रसन्न है। हृदय की पवित्रता ने मानो उसके मुँह को अपूर्व भाव से सजा रक्खा है। ऊपर से सबेरे के सूर्य की सुनहली किरणें पड़ने से वह कुञ्जों में बिचरनेवाली बालिका उषा की तरह शोभायमान हो रही है। चिन्ता का हृद्रय, चिन्ता देवी के न थकनेवाले पंख पर सवार होकर, दृष्टि और कल्प से बाहर किसी भाव-राज्य में चला गया है।

इतने में राजा चित्रसेन बग़ीची की सैर करने आये। उन्होंने देखा कि उनकी प्राण से प्यारी बेटी लता-मण्डप के पास भाव में डूबी हुई बैठी है। राजा ने चिन्ता के गम्भीर भाव को देखकर सोचा कि मेरी लड़की ही सुनहली किरणों से जगमगाती उषा देवी की तरह लगती है या यह कोई देवी है जो मेरी लड़की के रूप में जन्म लेकर पूर्वजन्म के सुख से सनी हुई बातों को सोच रही है।

धीरे-धीरे लड़की के पास आकर राजा खड़े हो गये, किन्तु बालिका को इसकी कुछ खबर ही नहीं। राजा ने प्रेम से कहा—बेटी चिन्ता! आज यहाँ अकेली बैठी क्या सोच रही हो?

बालिका ने सावधान होकर कहा—पिताजी! मैं एक नज़र इस खिले हुए फूल को देखती थी; वह मानो मुझसे कहता था कि स्त्री उसी दिन सार्थक है जिस दिन कर्तव्य का प्रकाश उसको बड़प्पन दे दे। पिताजी! फूल का यह मौन उपदेश मेरे जी में धँस गया है। वह कहता था कि जगत् में मनुष्य दूसरों की भलाई-बुराई में कभी न फँसे—सदा कर्तव्य साधने में जुटा रहे। जगत् की बाधाएँ कर्तव्य साधने के पक्के इरादे पर पहले तो ज़बर्दस्त हमले किया करती हैं, किन्तु अन्त में, सिद्धि का रास्ता दिखाकर वे ही हृदय को बलवान बनाती हैं। पिताजी! लोग भ्रम में अन्धे हो रहे हैं, इससे इस पृथिवी पर वे अपने कर्तव्य के रास्ते को छोड़ देते हैं। वे इस बात को भूल जाते हैं कि मनुष्यों की सृष्टि भगवान् ही की कृपा से हुई है।

बेटी के इस अद्भुत ज्ञान को देखकर राजा चित्रसेन बहुत प्रसन्न हुए। उनकी आँखों ने प्रेम के आँसू बरसाकर हृदय का आनन्द प्रकट किया। राजा ने सोचा—मैं धन्य हूँ; मेरी यह बालिका शास्त्रों के ज्ञान में मानो सरस्वती है।"

अपूर्व सुन्दरी चिन्ता के रूप और लुनाई में हृदय की पवित्रता मिलकर बहुत ही, मनोहर हो गई है। बालिका चिन्ता गुड़िया का खेल भूलकर अब भगवान् के मधुर भाव में मस्त है। लड़की के इस भाव को देखकर राजा प्रसन्नता से बग़ीची में घूमे; फिर वे राजकुमारी के साथ राज-भवन को लौट आये।

[३]

चिन्ता अब लड़की नहीं है। उसके विवाह के लिए देश-देश में ब्राह्मण भेजे गये। राजा-रानी सोचने लगे कि चिन्ता जैसी सुशीला और भक्तिमती है वैसा उसके योग्य वर कहाँ मिलेगा।

चित्रसेन के भेजे हुए ब्राह्मण देश-देश में चिन्ता के योग्य राजकुमार को ढूँढ़ने लगे, किन्तु कहीं उसके लायक़ वर नहीं मिला। अन्त को एक दूत प्राग्‌देश में []*चित्ररथ राजा के यहाँ पहुँचा। उसने देखा कि राजधानी का ऊँचा फाटक राज्य के ऐश्वर्य को बतला रहा है। राजा के दबाव से प्राग्‌देश नियम और बन्दोबस्त का घर मालूम हुआ। दूत ने वहाँ के राजकुमार की शूरवीरता, विद्वत्ता आदि गुणों का वर्णन सुनकर सोचा कि चित्रसेन की बेटी चिन्ता का स्वामी होने के योग्य यही है।

दूत ने राज-सभा में जाकर विधि से अभिवादन करके राजा चित्ररथ से कहा—महाराज! राजा चित्रसेन अपनी परम सुन्दरी बेटी चिन्ता के योग्य वर ढूँढ़ रहे हैं। आपके पुत्र सुवराज श्रीवत्स बालिग़ हुए हैं। अतएव कृपा करके चित्रसेन की लड़की के साथ राजकुमार श्रीवत्स का विवाह सम्बन्ध पक्का कीजिए।

अपने योग्य पुत्र का विवाह करने के लिए राजा चित्ररथ रूप-गुणवाली कन्या की खोज में थे ही। आज दूत से राजकुमारी चिन्ता का समाचार पाकर बड़ी प्रसन्नता के साथ वे इस बात पर राज़ी हो गये। दूत ख़ुशी से राजा चित्रसेन के राज्य को लौट गया। दूत के मुँह से प्राग्‌देश के राजा के पुत्र श्रीवत्स की बात सुनकर चित्रसेन बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने विवाह की तैयारी करने के लिए मन्त्री को आज्ञा दे दी।

राजा की आज्ञा से नगर सजाया जाने लगा। सजावट के सम्बन्ध में यही कहना काफ़ी है—"बनै न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाय मन तहाँ लुभाई।" चारों ओर पताकाएँ फहराने लगीं। सदर सड़क के दोनों ओर आम के पत्तों के बन्दनवार टाँगे गये। जगह-जगह पर महराबें लगाई गईं। राजधानी में मङ्गल-गीत और बाजे-गाजे की ध्वनि सुनाई देने लगी।

धीरे-धीरे विवाह का दिन आ गया। राजा चित्ररथ बड़े ठाट-बाट से बरात लेकर राजा चित्रसेन के राज में आ पहुँचे। राजा चित्ररथ का ऐश्वर्य अपार है। बरात की शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। बरात के आगे-आगे बड़े-बड़े हाथी जड़ाऊ फूलों से सजकर मस्तानी चाल चल रहे हैं। उनके पीछे सजे-सजाये बेहिसाब घोड़ों पर चढ़े योद्धा जा रहे हैं। साथ में, तरह-तरह के बाजे बज रहे हैं। धीरे-धीरे यह बरात राजा चित्रसेन की राजधानी में पहुँची। चित्रसेन ने बरातियों को जनवासा दिया और उनके खाने-पीने का अच्छा प्रबन्ध कर दिया।

शुभ मुहूर्त्त में चित्रसेन ने श्रीवत्स के हाथ में अपनी परम रूपवती बेटी चिन्ता को सौंप दिया। नये दम्पति एक-दूसरे के हाथ के स्पर्श से खुश हुए।

राजा चित्रसेन के आदर-सत्कार से चित्ररथ बहुत प्रसन्न हुए। प्राग्‌देश के राजा ने अन्त में राजधानी को लौटने के लिए समधी से बिदा माँगी। चित्रसेन ने यथायोग्य विनती करके चित्ररथ से और कुछ दिन रहने के लिए प्रार्थना की, किन्तु राज-काज की अधिकता और अपने महत्त्व को सोचकर चित्ररथ ने वहाँ और अधिक दिन रहना मंज़ूर नहीं किया।

राजा चित्रसेन ने प्राण से अधिक प्यारी बेटी को दास-दासी। और क़ीमती कपड़े तथा गहने देकर आँसू पोंछते-पोंछते बिदा किया।

चिन्ता ने ससुराल में आकर भक्ति से सास के चरण छुए। श्रीवत्स की माता ने रूपवती और गुणवती बहू को प्रेम से अपनाया! चिन्ता की भक्ति और सेवा पर राजा-रानी दोनों प्रसन्न रहते, अच्छे बर्ताव और ममता से नौकर-चाकर खुश रहते, दया तथा आदर से अन्धे अपाहिज तृप्त होते और चिन्ता की प्रेम-पूजा से राजकुमार श्रीवत्स प्रसन्न रहते।

इसी तरह कुछ दिन बीते। राजा चित्ररथ ने योग्य पुत्र श्रीवत्स को राज्य देकर वानप्रस्थ ले लिया। रानी भी राजा के साथ चली गईं।

[४]

अब प्राग्‌देश के राजा श्रीवत्स हैं। वे साक्षात् धर्म की तरह प्रजा का पालन करने लगे। प्रजा भी राजा पर प्रेम से भक्ति रखने लगी। राज्य में न कहीं दंगा-फ़साद था और न किसी को कुछ खेद। सुख-शान्ति से राज्य भरा-पूरा था; उस सुख-शान्ति-पूर्ण राज्य में चिन्ता आदर्श रानी और आदर्श माता हो चली। वह अपने प्रेम से और दया के व्यवहार से प्रजा की आँखों में देवी-समान जँचने लगी।

एक दिन वसन्त की रात में श्रीवत्स चिन्ता के साथ महल के बग़ीचे में थे। आसपास और कोई नहीं था। प्यारे पति की देह पर अपनी देह का सहारा देकर चिन्ता बैठी हुई है। चिन्ता के हँस ले और लजीले मुखड़े को एकटक देखकर राजा तृप्त हो रहे हैं। नीले, आकाश से पूर्ण-चन्द्र राजा और रानी के मधुर मिलन के इस दृश्य को देखकर हँसी की किरणें पृथिवी पर फेंक रहा है। इतने में चिन्ता ने कहा—आर्यपुत्र! इस पृथिवी में सुख कहाँ है? मैं जिसको सुख समझती हूँ उसी से दूसरे को दुःख हो सकता है। मैं समझती हूँ कि इस कर्मभूमि पृथिवी में काम करके ही मनुष्य सुखी होते हैं। नाथ! दया करके मुझे समझा दो कि मनुष्य-जीवन का कर्तव्य और सुख-दुख क्या है?

श्रीवत्स ने चिन्ता की इस विचार-पूर्ण बात से बहुत प्रसन्न होकर कहा—"प्यारी! तुम जन्म से विलास की गोद में पली हो। ऐसा गम्भीर विचार तुम्हारे चित्त में कैसे आया?" चिन्ता चुप हो रही। श्रीवत्स ने कहा—प्यारी! तुम अपने नाम को सार्थ करती हो। तुमने पृथिवी पर दया से एक नया राज्य कायम कर दिया है। तुमने मतवाले स्वामी को सोचने-विचारने की शिक्षा दी है। तुम धन्य हो और तुमसे अधिक धन्य मैं हूँ कि तुम्हारी जैसी देवी-मूर्ति का स्वामी हुआ। प्रिये! इस जगत् में भगवान् की विचित्र सृष्टि है। प्रभु की एक अपार शक्ति सब जगह फैली हुई है। जगत् की सब वस्तुएँ उसकी अपार दया और अपूर्व महिमा को प्रकट कर रही हैं। संसार की चरखी में घूमते हुए हम लोग प्रकृति देवी के उस महासंगीत को नहीं सुनते। पक्षियों का कल-गान, वृक्षों के पत्तों का मर्मर-शब्द, वन-देवी की वन-वीणा की सुरीली तान इत्यादि सभी उस महासंगीत के सिर्फ़ झन्कार हैं। हम लोग उसकी माधुरी को नहीं समझ सकते। जिन्होंने भगवान् को पहचाना है उन्हें तुच्छ धूल से लेकर बड़ी से बड़ी वस्तु तक में उस प्रभु की अनन्त महिमा दिखाई देती है। आज इस वसन्त की सुन्दर चाँदनी रात में, तुम्हारे पास बैठकर, मैंने जो ज्ञान पाया है वह अपूर्व है—उसका अन्त नहीं है। रानी! जो लोग संसारी हैं वे समझते हैं कि पृथिवी में सुख नहीं है किन्तु भगवान् के इस सुख से भरे राज्य में सुख की ही बहार है। चारों ओर आनन्द और तृप्ति है, किन्तु मनुष्य अपने कर्मों के दोष से सुखी नहीं हो सकता और पृथिवी को भी दुःखों से भरी देखकर आँसू बहाता है। प्रिये! कर्मभूमि पृथिवी पर अपना कर्तव्य पालने में ही सुख है। जो अपना कर्तव्य पालते हैं उन्हीं भाग्यवानों के लिए पृथिवी का सारा आनन्द है; निराशा या दूसरी कोई बाधा उनके पास नहीं फटकने पाती। हम लोग इस मर्म को नहीं समझते, इसी से इतना कष्ट पाते हैं। भगवान् में प्रीति करना, आत्मज्ञान को पाने का उपाय करना और जीवों पर दया करना ही मनुष्य का मुख्य कर्त्तव्य है। इस शान्त, शीतल रात में तुमने मुझे जो सबक़ दिया है उससे मैं एक मधुर भाव में डूब गया हूँ। मेरी प्रार्थना है कि तुम भगवान् की अपार कृपा को पा जाओ और आर्य स्त्री का गौरव-पूर्ण आदर्श-स्थल हो जाओ।

चिन्ता ने स्वामी के मुँह से यह बात सुनकर सिर नीचा कर लिया। उसने कुछ देर में कहा—"नाथ! मैं अशिक्षित हूँ। मैंने कुछ नहीं सीखा है। पिता के अटूट धन-दौलत और लाड़-चाव में पलकर मैं उचित शिक्षा नहीं पा सकी। आप देवता हैं, मेरी अज्ञानता को दूर कर दें; हृदय में ऐसा बल दें कि जिससे दुःख या कष्ट आकर कभी मुझे कातर न बना सकें—मैं स्त्री होकर स्त्रीत्व के बनाये रख सकूँ। नाथ! बालपन में पिता के घर सीता, सावित्री, दमयन्ती आदि कितनी ही पवित्र स्त्रियों का जीवन-चरित्र मैंने सुना था। मैं खूब जानती हूँ कि कठिन दुःख में पड़ने पर भी उन्होंने हृदय की दृढ़ शक्ति से किस प्रकार दुःख के ग्रास से छुटकारा पाया और उन्होंने शान्ति की गोद में किस प्रकार आसरा लिया था; मैं यह भी जानती हूँ कि पातिव्रत के बल से वे किस प्रकार आदर्श सती हो गई हैं; किन्तु यह नहीं जानती कि इस पृथिवी पर मैं आगे कैसे बढूँगी। शास्त्र में कहा है—'स्वामी ही स्त्री-जाति के सर्वस्व हैं, स्वामी ही प्रेम के पत्यक्ष देवता हैं, स्वामी ही शिक्षा-दीक्षा में उसके गुरु हैं। हे जीवन के सर्वस्व! दया करके आर्य-स्त्री के बड़प्पन के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए मुझे योग्य शिक्षा दीजिए।

चिन्ता के मुँह से यह बात सुनकर राजा श्रीवत्स बहुत सुखी हुए। उनका हृदय आनन्द से उछल पड़ा। उन्होंने सोचा, इन्द्र के इन्द्रत्व में जो सुख नहीं है वह सुख मेरे राज-परिवार में है। नारी ही साक्षात् देवी है। मेरा राज्य पवित्र स्त्री के प्रेम और कोमल मधुर भाव से पूर्ण है। मैं धन्य हूँ जो मुझे ऐसी पतिप्राण-पत्नी मिली है। इस प्रकार सोचकर राजा ने चिन्ता से कहा—रानी! तुम अशिक्षिता कैसे हो? पुस्तकें पढ़ने से ही कुछ शिक्षा नहीं होती। असल में हृदय की उन्नति ही शिक्षा है। तुमने बचपन में अपने माता-पिता से जो शिक्षा पाई है वह बहुत ऊँची है। तुम्हारे हृदय में अनन्त ज्ञान है। तुमको और कुछ शिक्षा देने की ताक़त मुझमें नहीं है। न्याय के कठिन विचार में भी मैं तुम्हारी ही सलाह लेता हूँ।

इस प्रकार बातचीत करते-करते सबेरा होने का लक्षण दिखाई दिया। पूर्व दिशा में ललाई छा गई। चिड़ियाँ घोंसलों से निकलकर पेड़ों पर चहचहाने लगीं। दूर मन्दिर से तड़के की आरती का शब्द सुनाई देने लगा। राजा और रानी दोनों, भजन-पूजन आदि करने के लिए पूजाघर को चले।

[५]

एक दिन स्वर्ग में शनि के साथ लक्ष्मी का झगड़ा हुआ। झगड़े की बात यह थी कि 'दोनों में बड़ा कौन है'। शनि कहते 'मैं बड़ा हूँ, और लक्ष्मी कहती 'मैं बड़ी हूँ'। देवताओं की सभा में इसका फ़ैसला न होते देखकर शनि ने कहा—"चलो, प्राग्‌देश में श्रीवत्स नाम के एक बड़े धर्मात्मा राजा हैं, उनसे हम इसका फैसला करा लावें।" लक्ष्मी ने सोचा कि 'जो राजा न्याय की प्रत्यक्ष मूर्ति हैं, जो धर्म के एक आधार हैं उनको भी शनि का मुँह देखना पड़ेगा!' किन्तु अपनी मर्यादा के मोह से उन्होंने उस पवित्र हृदयवाले राजा के भविष्य का ख़याल नहीं किया। सोचा—भाल लिखी लिपि को सक टार?

राजा श्रीवत्स राज-दरबार में न्याय के काम में लगे हैं। सभासद लोग राजा के गहरे शास्त्र-ज्ञान और न्याय के विषय में चर्चा कर रहे हैं। इतने में लक्ष्मी और शनि राज-दरबार में हाज़िर हुए।

राजा ने स्वर्ग-लोक-वासिनी लक्ष्मी को और सूर्य के पुत्र शनैश्चर को अचानक राज-दरबार में आते देखकर उनका यथायोग्य आदर किया। फिर अचरज से पूछा—"आप लोग स्वर्गधाम छोड़कर किस मतलब से धरती पर आये हैं?" शनि ने कहा—हम दोनों में इस बात पर झगड़ा छिड़ गया है कि 'कौन बड़ा है,' तुमसे इसका फैसला होने की आशा करके हम लोग तुम्हारे पास आये हैं । तुम इसका वाजिब फ़ैसला कर दो।

श्रीवत्स—देव! देवताओं का फैसला और मनुष्य करे! यह तो अनहोनी बात है।

शनि—राजा! शक्तिमान मनुष्य देवता से कम कैसे हैं? तुममें यह शक्ति है इसलिए हम लोगों का विश्वास है कि तुम्ही हम लोगों का फैसला कर सकोगे।

श्रीवत्स–देव! यह पहेली मेरी समझ में नहीं आती। देवताओं का फ़ैसला मनुष्य कैसे करेगा? क्षुद्र-ज्ञानवाला मनुष्य देवता के देवत्व को कैसे जानेगा?

शनि—श्रीवत्स! चिन्ता मत करो। तुम बड़े भाग्यवान् हो। ज्ञानवती शक्तिवाली नारी तुम्हारे हृदय की अधिष्ठात्री देवी है। तुम इस पति-परायणा के स्वामी होकर एक नये जगत् के राजा हुए हो। तुममें देवत्व आ गया है। शक्तिमयी नारी के सतीत्व के प्रभाव से तुम देवता-से हो गये हो।

शनि की बात सुनकर राजा श्रीवत्स ने बड़े अचरज से कहा—देव! इस चक्करदार मामले का फैसला मैं अभी चटपट नहीं कर सकता। आज मुझे अच्छी तरह सोचने-विचारने के लिए मुहलत दीजिए। दया करके आज आप लोग इस दीन की कुटी में ठहरिए। कल मैं इसका उत्तर देने की कोशिश करूँगा।

शनि—यही सही, किन्तु आज तो हम लोग स्वर्ग को जाते हैं। तुम्हारे मेहमान नहीं हो सकते।

श्रीवत्स—हे छाया के पुत्र! हे समुद्र की बेटी! यह मैं जानता हूँ कि दुःखों से लदी इस पृथिवी पर देवता नहीं रहते, किन्तु देवताओं के लिए सत्-असत् और ऊँच-नीच का भेद-भाव नहीं होना चाहिए। भक्तों से ही उनकी मर्यादा बढ़ती है। भक्त के चढ़ाये मामूली फूल, स्वर्ग के खिले हुए पुष्प की बराबरी से, देवता के चरणों में स्थान पाते हैं।

शनि—श्रीवत्स! तुम्हारी इस दीनता और सज्जनता को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ किन्तु न्याय करनेवाले के घर फै़सला करानेवाले का पहुनई करना बेजा है; क्योंकि साथ रहने और पहचान हो जाने से पक्षपात आ जाता है। इसलिए मेहमानदारी को मंज़ूर न करने से मन में बुरा न मानना।

तब लक्ष्मी ने कहा—श्रीवत्स! पहुनई को स्वीकार न करने से दुःख मत मानना। सूर्य के पुत्र शनि ने जो कुछ कहा है वह सत्य है। हमें इस समय अपने-अपने लोकों को जाने दो कल सबेरे फिर तुम्हारे यहाँ आना है।

राजा श्रीवत्स बड़े संकट में पड़े। देवता-देवता में झगड़ा है और मनुष्य बनाया गया है उस झगड़े का फैसला करनेवाला! बड़ी झंझट है! यही सोचते-सोचते, दरबार को बरख़ास्त कर, राजा महल में गये।

[६]

चिन्ता ने राजा के मुख पर किसी गहरी चिन्ता की छाया देख कर आतुरता भरे स्वर में पूछा—नाथ! आज आपको इतना उदास क्यों देखती हूँ? आप महल में आकर प्रसन्न मन से कुछ बोलते नहीं हैं। माथे पर गहरी चिन्ता की रेखा पड़ी हुई है; कामदेव के धनुष को मात करनेवाली ये भौंहें तनी हुई हैं; नीले कमल से नेत्रों की दृष्टि बेठिकाने है। नाथ! यह अनर्थ की सूचना क्यों देख पड़ती है? आपकी प्रजा किसी आधि-व्याधि से पीड़ित तो नहीं है? राज्य पर किसी शत्रु ने चढ़ाई तो नहीं की है?

श्रीवत्स—देवि! यद्यपि इस समय कोई अनिष्ट नहीं हुआ है तो भी ऐसा जान पड़ता है कि भयावना अभाग्य मुँह फैलाकर हमारे राज्य को और उसके साथ-साथ हमें-तुम्हें दोनों को निगल जाने के लिए तैयार है। देवी! मुझे भविष्य नहीं सूझता।

श्रीवत्स ने चिन्ता देवी से सब हाल कह सुनाया। सब सुनकर चिन्ता ने राजा से कहा—स्वामी! इस मामूली सी बात के फैसले के लिए आप इतना क्यों घबरा गये? फ़िक्र छोड़िए, मैं इसका समाधान कर दूँगी।

राजा ने अचरज कर कहा—रानी! तुम कहती क्या हो? मेरे बड़े-बड़े मंत्री जिस नाज़ुक मामले के फैसले का रास्ता नहीं निकाल सके, सैकड़ों मुसाहब जिस उलझन में सिर पर हाथ धरकर सोचते रह गये—यहाँ तक कि मैं भी इतनी देर सोच करके जिस मसले को हल नहीं कर सका—उसका फैसला महल में रहनेवाली तुम कैसे कर सकोगी?

चिन्ता—नाथ! यह तो मामूली बात है। इसका फैसला करना कुछ मुश्किल नहीं। समय बहुत बीत गया। आप नहाकर भोजन करें। आप विश्वास रक्खें, मैं इसका फै़सला कर दूँगी।

राजा की छाती से एक भारी बोझ-सा उतर गया।

खान-पान से छुट्टी पाकर राजा पलँग पर लेटे हुए हैं। चिन्ता रानी पैरों की ओर बैठकर पङ्खा झल रही हैं। इतने में राजा ने कहा—प्यारी! तुम इस नाजुक मामले का फै़सला कैसे करोगी? कुछ मेरी समझ में नहीं आता। मुझे हर घड़ी इसी का ध्यान है। तुम अब बताकर मेरे चित्त को शान्त करो।

चिन्ता ने कहा—स्वामी! आप इतनी फ़िक्र क्यों करते हैं? आपको कुछ भी कहना नहीं पड़ेगा। देवता लोग अपना निर्णय आप ही कर लेंगे। कल, शनि और लक्ष्मी के आने से पहले ही आप अपने सिंहासन के दाहिनी ओर एक सोने का और बाईं ओर एक चाँदी का सिंहासन रखवा दीजिएगा। शनि और लक्ष्मी के हाथ से ही फैसला हो जावेगा। उनमें जो बड़ा होगा वही बड़प्पन के कीमती आसन पर बैठेगा। आपको कुछ बोलना भी नहीं पड़ेगा; क्योंकि इज्ज़त आप सबको अपना आसन दिखा देती है। फिर वे तो देवता हैं।

राजा ने चिन्ता की यह चतुराई की बात सुनकर प्रसन्नता से कहा—देवी! मेरे हृदय-राज्य की रानी! तुम साक्षात् मीमांसा हो या मेरे पूर्वजन्म के पुण्य तुम्हारी सुरत में मेरी सहायता कर रहे हैं! आज तुमने मानवी रूप से, प्रेम-पूर्ण हाथ से मेरे संकट को दूर कर दिया और तुमने मुझे प्रेम-पूर्ण नये राज्य का राजा बना दिया।

चिन्ता ने मुसकुराकर कहा—अभी यह पण्डिताई रहने दीजिए। इसमें बहुत कुछ सोचने-समझने की बात है। आप सहज में इसमें छुटकारा नहीं पावेंगे। अपनी इज्ज़त के भूखे देवता इस झगड़े का फैपला अपने आप कर तो लेंगे परन्तु उनमें से जो लोगों के सामने लज्जित होगा—जिसे नीचा देखना पड़ेगा—उसका भयङ्कर कोप आपके ऊपर अवश्य होगा। सर्वनाश मानो आज देवी-देवता का रूप धरकर तुम्हारे सामने खेल रहा है! किन्तु इस समय उसके सोचने की ज़रूरत नहीं।

राजा को यह सुनकर बहुत फ़िक्र हुई। वह मुलायम सफे़द शय्या उनको काँटे-सी गड़ने लगी। दयारूपिणी चिन्ता देवी के झले हुए पंखे की मधुर बयार गरम लू के समान मालूम होने लगी। हारे हुए देवता के रोष की कल्पना करके वे घबरा उठे।

प्रेम में चतुर चिन्ता देवी ने राजा की कातरता को समझकर कहा—राजन्! खेद छोड़िए। आफ़त में अधीर होना आपके ऐसे स्थिर-बुद्धिवाले पुरुष के लिए कभी उचित नहीं है। आफ़त में घबरा जाने से वह मनुष्य को और भी जकड़ लेती है। दुःखों से जलती हुई इस धरती पर धीरज का हथियार लेकर मनुष्य को आफ़त का सामना करना पड़ेगा। आप राजा हैं, प्रजा के प्रत्यक्ष देवता हैं, देश के मङ्गल हैं और साधु के आदर्श हैं। होनहार के ख़याल से अधीर होना आपको लाज़िम नहीं। विधाता ने जो लिख दिया है वह तो होगी ही। होतव्यता के साथ लड़ने की शक्ति मनुष्य में नहीं है; क्योंकि मनुष्य तो कर्म के फल का दास है। प्रत्येक काम मनुष्य के पूर्व जन्म के कर्मफल की सिर्फ सूचना है।

राजा ने चिन्ता देवी की मङ्गलभरी बातें सुनकर बड़ी प्रसन्नता से कहा—चिन्ता! तुम मनुष्य नहीं, तुम तो साक्षात् देवी हो। तुम माया से अशुद्ध इस पृथिवी में तत्त्वज्ञान की अपूर्ण माधुरी लिये हुए शोभी पा रही हो। मेरा बहुत पुण्य था। उसी पुण्य के फल से तुम्हारे समान ज्ञानमयी सौभाग्य-लक्ष्मी को पाकर धन्य हुआ हूँ।

धीरे-धीरे सन्ध्या हो गई। जगत् के पति ने प्रकृति के माथे में सेंदुर लगा दिया। फूलों ने सुगन्ध का झरना खोल दिया। पखेरू सन्ध्या समय का भजन करने लगे। मन्दिरों में भारती के घण्टे बजने लगे।

[७]

राजा ने सबेरे उठकर प्रातःकाल की प्रकृति की बाँकी शोभा में भी कुछ कमी सी पाई। प्रकृति की इस नई रङ्ग-भूमि पर मानो सब कुछ उनको बेसुरा मालूम होने लगा।

धीरे-धीरे दिन चढ़ा। राजसी पोशाक पहनकर श्रीवत्स राजदरबार में आये। राजा के सिंहासन की दाहिनी ओर एक सोने का और बाई ओर चाँदी का सिंहासन रक्खा गया। बीच में अपने सिंहासन पर, राजा श्रीवत्स रानी के साथ बैठकर राज-कार्य देखने लगे।

इतने में वहाँ शनि और लक्ष्मी का आगमन हुआ। उनको देखकर राजी और राजा सिंहासन छोड़कर खड़े हो गये। नम्रता से दोनों को प्रणाम कर उन्होंने उनसे बैठने के लिए कहा। शनि अपनी "इच्छा से राजसिंहासन के बायें भाग में चाँदी के सिंहासन पर, और लक्ष्मी दाहिने भाग में सोने के सिंहासन पर बैठ गईं। राजा और रानी क्रम से शनि और लक्ष्मी के पास खड़े होकर उनकी सेवा करने लगे।

बहुतसी बातचीत हो चुकने पर शनि ने कहा-महाराज! तुम्हारी आव-भगत से हम बहुत प्रसन्न हुए। आशा है, अब हम लोगों के झगड़े का तुम फैसला कर दोगे।

श्रीवत्स का मुँह सूख गया। भयानक विपद् की शङ्का से उनके मुँह से बात न निकली। तब शनि ने फिर कहा—क्यों महाराज, इस बात का कुछ उत्तर क्यों नहीं देते? कल तुमने आज फै़सला कर देने का वादा किया था, अब अपनी वह प्रतिज्ञा पूरी करो।

राजा ने समझा कि सत्यानाश सिर पर आ गया, सुख की गृहस्थी में आग लग गई, अब सोचने विचारने का मौक़ा नहीं है। उन्होंने कहा—देव! भला देवता का विचार मनुष्य क्या करेगा! मनुष्य में इतनी शक्ति कहाँ? जो हो, जब आप लोगों ने मुझे वह अधिकार दिया ही है, तब मेरी राय में यह आता है—आप लोग, ही विचार कीजिए कि आप लोगों में कौन बड़ा है।

शनि—महाराज! चतुराई से काम नहीं होगा। तुम्हारी वचन-चातुरी को परखने के लिए हम लोग यहाँ नहीं आये हैं। जो तुम इसका समाधान नहीं कर सकते थे तो तुमने पहले ही से साफ़-साफ़ क्यों न कह दिया। कल से इतनी बातें क्यों बना रहे हो?

शनि की बात सुनकर श्रीवत्स चौंक पड़े। वे समझ गये कि मेरी इस दीनता से अपनी इज्ज़त चाहनेवाले शनैश्चर प्रसन्न होने के नहीं। अब राजा ने विनती कर कहा—हे सूर्य के पुत्र! यह विशाल जगत् प्रीति के एक गुप्त आकर्षण से चल रहा है। यहाँ प्रीति का आकर्षण शासन की त्यौरी से कहीं बढ़कर ताक़त रखता है। इस संसार में जो प्रीति-दान दे सकता है वही बड़ा है। दबाव से मनुष्य वश में नहीं होता, प्रेम की छाया से ही मनुष्य धन्य होता है। अब आप ही विचार कीजिए कि आप लोगों में कौन बड़ा है।

श्रीवत्स की इस बात से शनि का क्रोध और भी बढ़ गया। उन्होंने और भी रुखाई से कहा—महाराज! हम लोग तुमसे इन्साफ़ कराने आये हैं। साफ़ बताओ कि शनि बड़े या लक्ष्मी।

श्रीवत्स—देव! इस विषय का फैसला आप लोगों ने स्वयं कर लिया है। आप लोग अगर अपने-अपने आसन की ओर ध्यान दें तो समझ जायँगे कि आप लोगों में कौन बड़ा है।

शनि—महाराज! हम लोग तुम्हारे राज-दरबार में मेहमान के माफ़िक़ आये हैं। तुम्हारे दिये आसन पर हम लोग अपनी इच्छा से बैठ गये हैं इससे इस बात का फैसला नहीं हो सकता कि कौन बड़ा है और कौन छोटा। तुम खोलकर साफ़-साफ़ बताओ।

श्रीवत्स-देव! मामूली ढँग पर रहन-सहन, और आसन-भेद से बड़े-छोटे का विचार होता है। जो बड़ा होता है उसका आसन भी कीमती और दाहिनी ओर होता है। आपने लक्ष्मी को सुनहले आसन पर अपनी दाहिनी ओर स्थान दिया है। इसलिए, अब इसका विचार मैं क्या करूँगा? जगत् का धर्म ही यह है कि अपने से ऊँचे के आगे सब लोग सिर नवाते हैं। बर्फ़ का मुकुट पहननेवाला हिमाचल भी अनन्त महिमावाले भगवान् के सामने प्रणाम के बहाने सिर झुकाये हुए है। ऊँचा पेड़ भी भारी पहाड़ के सामने झुका हुआ है। वनस्पतियाँ भी विकट पर्वत के आगे सिर झुकाये हैं।

श्रीवत्स की इस विनती से भी शनि सन्तुष्ट नहीं हो सके। उन्होंने सिंह की तरह गरजकर कहा—महाराज! मैं तुम्हारी चालाकी के फ़ैसले को समझ गया। घुमा-फिराकर मेरा अपमान करना ही तुम्हारी इस चालाकी का असल मतलब है। अच्छा, देखा जायगा। तुम अपनी रक्षा कैसे करते हो। जानते हो महाराज! मेरी इच्छा से सुख के मन्दिर में हाहाकार मच जाता है; विलास की फुलवाड़ी मरघट

  1. * ब्रह्मपुत्र और भागीरथी नदी के बीच का स्थान।