आदर्श महिला/५ चिन्ता/३

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आदर्श महिला  (1925) 
द्वारा नयनचंद्र मुखोपाध्याय, अनुवादक जनार्दन झा

[ २५५ ]लेते-लेते चिन्ता ने नाव को छू दिया! नाव तुरन्त चल पड़ी। सौदागर का मन प्रसन्न हुआ। उसने सोचा कि ज्योतिषी की बात सच निकली। पल भर में उसके जी में कुबुद्धि समाई। उसने विचारा कि अगर फिर कहीं मेरी नाव अटक जायगी तो मुश्किल होगी। इसी ख़याल से उसने झट उस सती को हाथ पकड़कर नाव में खींच लिया।

शेरनी की तरह गरजकर रानी बालों—क्यों रे नरपिशाच! तू ने मुझे क़ैद कर लिया? तू मुझे माँ कहकर अपनी विपद दूर करने के लिए ले आया था न? अरे अभागी नर-पशु! तेरा यही धर्म-ज्ञान है? भगवान् ने मुझसे तेरा इतना उपकार कराया और तू नरक का कुत्ता नेकी को नहीं मानता? तू ऐसा व्यवहार करके अपनी कृतज्ञता दिखाता है? भगवान् सूर्यदेव! आप सब देख रहे हैं। इस पापी, धूर्तता की प्रत्यक्ष मूर्त्ति, सौदागर को भयङ्कर आग से भस्म कर दीजिए। पृथिवी में अन्याय का नाश हो और सत्य का प्रकाश फैले।

सौदागर का मन दया से किसी तरह नहीं पिघला। चिन्ता बहुत गिड़गिड़ाई, किन्तु पापी ने एक न सुनी। जब सती नदी में कूदकर डूब मरने को तैयार हुई तब सौदागर के हुक्म से रानी के हाथ-पैर बाँध दिवे गये।

चिन्ता ने देखा कि अब छूटने का कोई उपाय नहीं है, तब उन्होंने, नदी-किनारे की, लकड़हारों की रोती हुई स्त्रियों से चिल्लाकर कहा—"सखियों! मेरे स्वामी से कह देना कि दुष्ट सौदागर मुझे क़ैद करके हाथ-पैर बाँधे लिये जाता है। वे जल्दी आकर मेरा उद्धार करें।" नाव तेज़ी से जाने लगी। अब किनारे खड़ी स्त्रियों को न देखकर वे नाव पर सिर पटकने लगीं।

प्रकृति के मामूली ढाढ़स से हृदय जब कुछ शान्त हुआ तब [ २५६ ]चिन्ता ने सोचा कि रूप ही स्त्रियों के लिए काल है। इस रूप के मोह में अभागे पुरुष, दीपक पर मोहित होनेवाले पतङ्ग की तरह, जलकर प्राण दे देते हैं। यह अभागा बनिया भी उसी मोह में आत्महत्या करना चाहता है। संसार की व्यथा को हरनेवाले भगवान् सूर्यदेव! अगर मैं तन, मन से अपने पति-देवता के पवित्र चरणों का ध्यान करती होऊँ तो आप दया करके मुझे कुरूप कर दीजिए—मुझे कोढ़ी बना दीजिए। एक दिन रूप माँगा था, मनुष्यों में देवता-रूप अपने स्वामी का चित्त प्रसन्न करने के लिए; और आज रूप का विनाश चाहती हूँ, सतीत्व की लाज रखने के लिए। हे लज्जा की रक्षा करने वाले! नारी की मर्यादा रखिए—मुझे कोढ़ी बना दीजिए।

उसी दिन से चिन्ता का बदन फूट चला। उसकी देह गलने लगी। कोढ़िनी के शरीर की दुर्गन्ध से नाव के सब आदमी घबरा, उठे, लेकिन स्वार्थी सौदागर ने किसी की बात पर कान नहीं दिया। सती की नेत्राग्नि उसकी छाती को जलाने लगी।

[१३]

इधर श्रीवत्स ने कुटी में आकर देखा कि चिन्ता नहीं है। वे चारों ओर चिन्ता को पुकारने लगे। उनके मुँह से चिन्ता के सिवा और कोई शब्द ही नहीं निकलता। उन्होंने एक बार सोचा कि चिन्ता कहीं पड़ासिनों के यहाँ गई होगी, अभी आ जायगी। वे हृदय को समझाने की बड़ी कोशिश करते हैं पर हृदय किसी तरह नहीं समझता। आँखों से आँसू निकल कर उनको कुछ देखने नहीं देते। चिन्ता के विरह में व्याकुल होकर राजा विलाप कर रहे हैं। इतने में लकड़हारों की कई स्त्रियों ने वहाँ आकर चिन्ता के सौदागर द्वारा हरे जाने का समाचार सुनाया। चिन्ता के हरे जाने की बात सुनकर श्रीवत्स अधीर हो उठे। लकड़हारे और उनकी स्त्रियाँ [ २५७ ]उन्हें समझाने लगीं, किन्तु किसी तरह उनको ढाढ़स नहीं हुआ। उन्होंने स्त्रियों से पूछा—"दुष्ट सौदागर चिन्ता को हरकर किधर ले गया?" स्त्रियों ने कहा कि सौदागर धारा के रुख पर गया है। नदी-तीर के रास्ते पर राजा तेज़ी से जाने लगे। वे आगे-पीछे कुछ नहीं देखते। केवल ज़ोर-ज़ोर से 'चिन्ता—चिन्ता' पुकारते थे। उस निर्जन देश में मनुष्य का कहीं पता नहीं। राजा पुकारते हैं, चिन्ता—चिन्ता। झांई बोलती है, चिन्ता—चिन्ता। राजा पागल की तरह नदी के किनारे-किनारे दूर तक दौड़े चले गये किन्तु कहीं सौदागर की नाव का पता नहीं लगा।

इस प्रकार श्रीवत्स कई दिन और कई रात चले। सौदागर की नावका कुछ पता न पाकर वे एक दिन एक पेड़ के नीचे बैठकर सोच रहे थे कि प्यारी के लिए इतना जी-तोड़ परिश्रम किया पर कुछ भी पता नहीं लग सका। प्यारी बिना यह पापी प्राण किस काम का? यह सोचते सोचते वे सुन्न हो गये। अचानक उन्हें लक्ष्मी की बात की याद आ गई। उन्होंने सोचा, लक्ष्मी देवी बता चुकी हैं कि बारह वर्ष तक मुझे शनि की दृष्टि से तरह-तरह के कष्ट भोगने पड़ेंगे। तो क्या सौदागर द्वारा मेरी चिन्ता का हरा जाना शनि की कुदृष्टि का ही फल है? यही बात है। तब जीवन से ऊबकर आत्म-हत्या नहीं करूँगा। वह एक मनोहर आश्रम दिखाई देता है, वहीं चलना चाहिए।

आश्रम में जाकर राजा श्रीवत्स उसके मनोहर दृश्य से प्रसन्न हुए। उन्होंने देखा कि आश्रम के चारों ओर तरह-तरह के जंगली वृक्ष लगे हैं। बीच-बीच में, भौंरों के गूँजने से शोभायमान पुष्पलताओं से लिपटे हुए देवदार के वृक्ष जंगल की शोभा बढ़ाकर सिर उठाये खड़े हैं। उस आश्रम में कमल, कुमुद आदि पानी में उपजनेवाले फूलों से तालाब शोभा पा रहा है। प्रकृति के इस मनोहर [ २५८ ]दृश्य को देखकर राजा श्रीवत्स सुध-बुध भूल गये। ऐसा जान पड़ता था, मानो छहों ऋतुऐं वहाँ एक साथ विराज रही हैं; अथवा विधाता ने अपनी सुन्दर कूँची से एक मनोहर चित्र खींचकर प्रकृति की गोद में रख दिया है। उस आश्रम में न रोग है, न शोक है, न ज्वाला है, न यंत्रणा है, न पाप है, न ताप है—है केवल शान्ति। ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं है। हिंसा नहीं है, द्वेष नहीं है—सब जगह खूब गहरी शान्ति विराजती है। शेर और हिरन, बाघ और बकरी, साँप और नेवला तथा दूसरे भक्ष्य-भक्षक भाववाले जानवर आपस में मिलकर खेल रहे हैं। महाराजा श्रीवत्स ने, इस पवित्र आश्रम में पहुँचकर क्लेश के हाथ से बहुत कुछ छुटकारा पाया। उनका तपा हुआ प्राण शीतल हुआ। खेद के कारण उदास मुख पर प्रसन्नता की झलक दीख पड़ी।

श्रीवत्स ने जाना कि यह सुरभि का आश्रम है। यहाँ देवताओं की देवियाँ घूमती-फिरती हैं और सफ़ेद कामधेनु विचरती है। प्रसन्न होकर राजा कामधेनु का दर्शन करने चले। सामने कामधेनु को देखकर राजा ने प्रणाम कर कहा—माँ, देवताओं की जननी! सन्तान का कष्ट दूर करो। तुम्हारा दूध पीकर देवता लोग धन्य हुए हैं। माँ! मैं एक मतिहीन अभागा हूँ—अशान्ति की ज्वाला से जल रहा हूँ।

राजा की कातरता देख सुरभि ने प्रसन्न होकर कहा—श्रीवत्स! चिन्ता छोड़ो। तुम अपनी प्राणप्यारी चिन्ता को जल्दी ही फिर पाओगे। बेटा, विलाप मत करो। तुम्हारा सुखरूपी सूर्य जल्दी उगेगा। इस आश्रम पर शनि का कुछ अधिकार नहीं है। तुम यहाँ बेफिक्र होकर रहो। ग्रह-दशा के वर्ष बीत जाने पर, तुम इस आश्रम से निकलकर, चिन्ता को ढूँढ़ने जाना। वह पतिव्रता कुलवधू [ २५९ ]अद्‌भुत उपाय से अपना बचाव किये हुए है। भगवान् सूर्यदेव की कृपा से सती का सती-धर्म और भी चमक उठा है। वत्स! सोच को छोड़ो। मैं तुम्हारी बुरी हालत को देख बहुत दुःखी हूँ। भूख या प्यास लगने पर मेरा दूध पी लेना।

राजा श्रीवत्स सुरभि के आश्रम में बेखटके दिन बिताने लगे। उन्होंने देखा कि कामधेनु के थन से निकली दूध की धार से आश्रम का एक अंश भीगकर अपूर्व सुन्दर हो गया है। राजा ने उस सोने के कणों से मिली और कामधेनु के दूध से भीगी मिट्टी को लेकर सोने की बहुतसी ईटें बनाई। फिर अपनी कारीगरो से उन ईटों को एक अजीब ढंग से जोड़कर रख छोड़ा।

[१४]

एक दिन राजा, आश्रम के पास, नदी किनारे बैठे हैं। इतने में देखा कि एक सौदागर की नाव किनारे आ लगी। राजा ने सौदागर के पास जाकर कहा—"देखा सौदागर! मैंने कुछ सोने की ईटें तैयार की हैं। मैं चाहता हूँ कि उन्हें तुम्हारी नाव पर रखकर बेच आऊँ।" सौदागर राज़ी हो गया।

राजा ने सब ईंटें सौदागर की नाव पर लाद दीं। फिर वे कामधेनु की आज्ञा लेकर, सौदागर की नाव पर चढ़कर, व्यापार करने निकले। रात होने पर लोभी सौदागर ने श्रीवत्स को हाथ-पैर बाँधकर नदी में गिरा दिया। राजा श्रीवत्स नदी में बहने और रोते-रोते कहने लगे—"चिन्ता! चिन्ता! मेरे जीवन-आकाश की पूर्ण चन्द्र-सी चिन्ता कहाँ हो? मेरी इस अन्तिम दशा को तुमने नहीं देखा, इस विलाप-वाणी को सुनकर चिन्ता ने पहचाना कि यह तो मेरे प्राणनाथ की बोली है। अचानक यह स्वर कहाँ से आया? उन्होंने देखा कि हाथ-पैर बँधा हुआ [ २६० ]एक आदमी पानी में डूब रहा है। तब रानी ने दुःखित होकर एक तकिया जल में फेंक दिया। उस तकिये के सहारे श्रीवत्स तैरन् लगे। सौदागर की नाव हवा का रुख पाकर धारा में, तीर की तरह, चली गई। सती के आँसुओं की धारा उस नाव का बोझ बढ़ाने लगी।

तकिये के सहारे तैरते तैरते श्रीवत्स एक उजाड़ बाग़ के पास आ लगे। उनके हाथ-पैर बँधे हुए थे, इस से वे उठ-बैठ नहीं सके। उसी दशा में, फुलवाड़ी के पास पड़े-पड़े, वे मृत्यु की राह देखने लगे। राजा ने देखा कि सूखा हुआ बाग़ एकाएक हरा-भरा हो गया; तरह-तरह के फूल खिल उठे, भौंरे गूँजने लगे और कोयल कुहकने लगी।

सबेरे मालिन जब अपनी फुलवाड़ी में आई तब सूखी-साखी बग़ीची को फल फूलों से हरी-भरी देखकर बहुत खुश हुई। वह सोचने लगी कि मैं हज़ार उपाय करके भी इसको सँभाल नहीं सकी थी, आज किस देवता की कृपा से इसकी यह शोभा हो गई। इसी खुशी में वह इधर-उधर घूम रही थी कि उसने फुलवाड़ी के नज़दीक एक बहुत ही सुकुमार जवान को पड़ा देखा। उसके हाथ-पैर बँधे थे। मालिन सोचने लगी—यह कौन भाग्यवान् है। यह साक्षात् वसन्त है या कामदेव! इन्हीं महापुरुष के आने से मेरी सूखी फुलवाड़ी हरी-भरी हो गई है।

सोचते-सोचते मालिन ने उस अपरिचित पुरुष के पास जाकर विनती से पूछा—"तुम कौन हो? यहाँ, इस तरह क्यों पड़े हो?" राजा ने कहा—मैं एक अभागी बनिया हूँ। डाकुओं ने मेरा सब धन लूटकर, हाथ-पाँव बाँधकर मुझे नदी में ढकेल दिया था। बहते-बहते मैं यहाँ आ पहुँचा हूँ। बन्धन के कष्ट से प्राण निकलना चाहता है। दया करके मेरा बन्धन खोल दो। [ २६१ ]मालिन तुरन्त बन्धन खोलकर राजा को अपने घर ले गई। राजा मालिन के घर रहने लगे।

मालिन की फुलवाड़ी में वसन्त की हवा लगी। इससे वाटिका की शोभा अपार हो गई है। मालिन तरह-तरह के फूल चुनकर राजकुमारी के यहाँ पहुँचाती है।

एक दिन श्रीवत्स ने मालिन से पूछा—इस राज्य का और यहाँ के राजा का नाम क्या है?

मालिन ने कहा—इस राज्य का नाम सौतिपुर है। बाहुदेव यहाँ के राजा हैं जो साक्षात् इन्द्र के समान हैं।

राजा ने पूछा—तुम प्रतिदिन इतने फूल लेकर क्या करती हो?

मालिन ने कहा—राजकुमारी भद्रा को शिवजी की पूजा करने को लिए मैं राजमहल में फूल और माला दे आती हूँ।

श्रीवत्स ने कहा—"आज मैं तुमको एक माला गूँथकर देता हूँ" मालिन ने ख़ुशी से उनके सामने फूलों की टोकरी और सुई-धागा आदि रख दिया। राजा ने नये ढंग की एक माला गूँथकर फूलों की डलिया में फूलों से ही एक पद्य लिख दिया—

"सरवर बसे सरोजिनी सूरज इसे अकास।
होत परस्पर मिलन सुख अद्भुत प्रेम-विकास॥"

राजकुमारी भद्रा ने आज माला की अनोखी सजावट देखकर अचरज से पूछा—"क्यों री मालिन! आज यह माला किसने गूँथी है, और किसने इस तरह फूलों को सजाया है? इसमें तो बड़ी कारीगरी की गई है।" मालिन ने मुसकुराकर कहा—क्यों राजकुमारी! क्या हुआ? मैं क्या ऐसी माला नहीं बना सकती? आज सबेरे चित्त ज़रा ठिकाने था, इससे बैठे-बैठे मन लगाकर यह माला गूँथ लाई हूँ। क्यों, क्या अच्छी नहीं बनी? [ २६२ ]

राजकुमारी ने कहा—नहीं मालिन, यह माला तुम्हारी गूँथी नहीं है। यह तो किसी अच्छे कारीगर के हाथ की कारीगरी है।

मालिन उस दिन राजकुमारी को बातों में बहलाकर वहाँ से चली आई। घर आकर उसने श्रीवत्स से राजकुमारी की बात कही।

[१५]

सौतिपुर की राजकुमारी का स्वयंवर है। देश-देश से राजकुमार आये हैं। एक ओर स्वयंवर की तैयारी ने, और दूसरी ओर भद्रा को ब्याहने की इच्छा रखनेवाले राजकुमारों के ठाट-बाट ने, राजा बाहुदेव की राजधानी की शोभा अपार कर दी। चारों ओर आनन्द की लहरें उठने लगीं।

महाराज श्रीवत्स भी स्वयंवर-सभा का ठाट-बाट और भीड़ देखने के लिए चले, किन्तु अपने दीन वेष का खयाल कर वे बहुत आगे नहीं बढ़ सके। स्वयंवर-सभा के बाहर एक कदम्ब के पेड़ के नीचे बैठ गये।

राजकुमारी भद्रा ने स्वयंवर-सभा में जाकर देखा कि राजकुमार लोग कीमती पोशाक पहने हुए बैठे हैं। राजकुमारी ने उन राजाओं को यथायोग्य प्रणाम करने के बाद, विनती कर कहा—"आप लोग आशीर्वाद दीजिए जिससे मैं अपने मनभावने देवता के गले में जयमाल डालूँ।" इतने में आकाशवाणी हुई—

"जाके हित तप कर दिये बारह वर्ष बिताय।
सो कदम्बतरु के तले बैठे हैं प्रिय आय॥"

यह आकाशवाणी राजकुमारी के सिवा और किसी को नहीं सुन पड़ी। आकाशवाणी सुनकर राजकुमारी बड़ी प्रसन्नता से, स्वयंवरसभा के बाहर, कदम्ब के पेड़ की तरफ़ गई। राजकुमार उत्सुक होकर उधर देखने लगे। राजकुमारी ने पेड़ के नीचे जाकर देखा, [ २६३ ]बादलों से ढके हुए चन्द्रमा की तरह, एक नौजवान दीन वेष में बैठा है। राजकुमारी ने हाथ जोड़े और उसी के गले में जयमाल डाल दी।

स्वयंवर-सभा में आये हुए राजकुमार लोग, राजकुमारी के इस काम की निन्दा करते-करते अपने-अपने घर गये। लड़की को ऐसा पति चुनते देखकर राजा बाहुदेव बहुत नाराज़ हुए। उन्होंने वर और कन्या को राजधानी से निकाल दिया। बाहुदेव की रानी की दया से वे दोनों राजधानी के बाहर एक झोपड़ी में रहने लगे।

[१६]

एक दिन श्रीवत्स ने हिसाब लगाकर देखा कि शनि की दृष्टि के बारह वर्ष बीत गये। तब उन्होंने शनि को प्रणाम करके कहा—भगवान् शनैश्चर! कृपा कीजिए। कष्ट तो बेहद भोगा। अब मेरी चिन्ता को लैटा दीजिए।

राजा की इस प्रार्थना पर शनि को दया आई।

राजकुमारी भद्रा की सेवा से भी श्रीवत्स के चित्त को सुख नहीं मिलता। भद्रा की वह बढ़िया सुघराई, बसन्ती बेल का वह मनोहर दिखावा—उस नवयौवना के अङ्गों की वह शोभा राजा को तृप्त नहीं कर पाती थी। राजकुमारी भद्रा ने एक दिन राजा श्रीवत्स से कहा—नाथ! आप इतने उदास क्यों रहते हैं? क्या मैं आपकी प्रेम-पूजा के योग्य नहीं? आप सदा चिन्ता में रहकर इस अधीन बालिका का जी क्यों दुखाते हैं?

भद्रा के इन वचनों से सन्तुष्ट होकर राजा ने कहा—देखो भद्रा, दरिद्रता के दोष से सब गुण फीके पड़ जाते हैं। मेरा भी यही हाल है। अब तुम एक काम करो। देखती तो हो कि धन बिना मैं कितना [ २६४ ]कष्ट पा रहा हूँ। सो तुम एक बार राजधानी में जाओ, और अपने पिता से कहकर मेरी जीविका का कोई इन्तज़ाम कराओ।

भद्रा राजधानी में गई। उसने अपनी माता से सब हाल कहा। रानी के कहने से राजा ने श्रीवत्स को चुङ्गी वसूल करने के काम पर मुकर्रर कर दिया।

राजा श्रीवत्स नदी किनारे बैठे रहते हैं। जितनी नावें वहाँ से निकलती हैं, उनको कर वसूल करके जाने देते हैं।

एक दिन उसी सौदागर की नाव वहाँ आई, जिसने श्रीवत्स को नदी में पटक दिया था। राजा श्रीवत्स ने, अपनी सोने की ईटों को नाव में उसी तरह रक्खी देखकर, अपने मातहतों को हुक्म दिवाये सोने की ईंटें नाव से उतार लो।

अफ़सर का हुक्म पाकर नौकरों ने सोने की ईंटें झटपट उतार खीं। सौदागर ने राज-दरबार में नालिश की।

तब राजा श्रीवत्स बाहुदेव के दरबार में गये। उन्होंने यथायोग्य प्रणाम कर कहा—महाराज! ये सब मेरी हैं। मैं इस सौदागर की नाव पर, इनको लादकर वाणिज्य करने निकला था। पर इस दुष्ट ने, कीमती ईंटों के लोभ से, हाथ-पैर बाँधकर मुझे नदी में डाल दिया। किसी तरह बचकर मैं आपकी राजधानी तक पहुँच सका। महाराज, ईटों के बनाने में अजीब कारीगरी है और किसी भी सबूत की ज़रूरत नहीं। अगर ईटें सौदागर की हैं तो वह इनको खोलकर अलग-अलग कर दे।

सौदागर खोल नहीं सका। राजा श्रीवत्स ने राज-सभा में सबके सामने उन ईंटों को अलग-अलग कर दिया। तब राजा ने अचरज के साथ सौदागर को डाँटकर खदेड़ दिया।

राजा के अचम्भे को देख श्रीवत्स ने विनती कर कहा— [ २६५ ]महाराज! 'अयोग्य कभी योग्य से नहीं मिल सकता', यही विधाता की आज्ञा है। मैं प्राग्‌देश का राजा श्रीवत्स हूँ, ग्रह-दशा के फेर में पड़कर यह दुर्गति भोग रहा हूँ।

अब राजा के अचरज की सीमा नहीं रही। वे गिड़गिड़ाकर अपने बुरे व्यवहार के लिए उनसे क्षमा माँगने लगे। फिर बोले—"महाराज! मैं आपका सब हाल सुन चुका हूँ। दूत की ज़बानी मैंने सुना था कि आप ग्रह के फेर में पड़ने से राज्य छोड़कर चले गये। मेरा बड़ा भाग्य है कि मेरी सौभाग्यवती बेटी ने आपको जयमाल पहनाई।" श्रीवत्स ने कहा—राजन्! दया करके अब एक काम और कीजिए। मेरी रानी चिन्ता इस दुष्ट सौदागर की नाव पर कैद है। कृपा करके उसका उद्धार कर उसे राजमहल में लाने का जल्दी उपाय कीजिए।

सैकड़ों नौकर-चाकरों के साथ राजा तुरन्त नदी-किनारे पहुँचे और बँधी हुई नाव के ऊपर चढ़ गये। उन्होंने देखा कि एक कोढ़ की रोगिनी उस नाव के एक कोने में बैठी है। उसकी आँखों से आँसू जारी हैं। उसका शरीर रह-रहकर काँप उठता है।

राजा ने कहा—बेटी! उठो। तुम्हारी दुःख की रात बीत गई। महाराज श्रीवत्स से तुम बहुत जल्द मिलोगी।

रानी चिन्ता ने श्रीवत्स का नाम सुन, मारे खुशी के पुलकित होकर पूछा-—महाराज कहाँ हैं? अगर इतने दुःख भोगकर भी महाराज के चरणों का दर्शन पाऊँ तो अपने को धन्य मानूँगी।

राजा बाहुदेव ने पहले ही से पालकी का प्रबन्ध कर रक्खा था, किन्तु रानी चिन्ता ने कहा—नहीं पिताजी! मैं पालकी पर नहीं चढ़ूँगी। स्वामी परम गुरु हैं, उनके पास पैदल ही जाना ठीक है।

उस स्त्री के पतिव्रत-धर्म की यह बात सुनकर राजा बाहुदेव को [ २६६ ]अचरज हुआ। वे सोचने लगे-इस पवित्र देव-तरु के पुष्प में यह रोग क्यों?

चिन्ता देवी ने राजा श्रीवत्स के पास जाकर उनके चरणों में प्रणाम किया। श्रीवत्स ने उनको पहचाना नहीं। वे सोचते थे कि मेरी चिन्ता का वह मनोहर रूप कहाँ गया। बहुत देर तक सोचने-विचारने के बाद उन्होंने पूछा—चिन्ता, तुम्हारी ऐसी दशा क्यों हुई?

चिन्ता—महाराज! रूप ही स्त्रियों का सत्यानाश करता है। इसी से, मैंने इस दुष्ट की पाप-दृष्टि से बचने के लिए सूर्यदेव से गलित कुष्ठ रोग माँग लिया। महाराज! मेरी साधना पूरी हो गई। मैं अभागिनी आपके पवित्र चरणों को छूकर धन्य हुई।

तब चिन्ता ने स्वामी के चरणों की रज को अपने शरीर भर में लपेटकर हाथ जोड़कर सूर्यदेव से कहा—"हे भगवन्! इस डरी हुई के डर का दिन बीत गया। अब मेरा पहला रूप लौटा दीजिए।" देखते ही देखते चिन्ता का रूप पहले ही का ऐसा सुन्दर हो गया। सब लोगों को बड़ा अचरज हुआ।

इतने में शनि देवता हँसते हँसते वहाँ आ पहुँचे। आज उनकी वह भयंकर मूर्त्ति नहीं है। उन्होंने वर देनेवाली शुभमूर्ति के रूप में वहाँ आकर कहा—"महाराज श्रीवत्स और रानी चिन्ता देवी!" तुम लोग धन्य हो। इतने दुःख और आफ़तों को सहकर भी तुम कर्त्तव्य को नहीं भूले। तुम लोगों की यह पवित्र कीर्त्ति अभी होने वाले लोगों को आदर्श स्वरूप होगी। महाराज! आशीर्वाद देता हूँ कि लक्ष्मी तुम्हारे घर में सदा वास करे। धर्म में तुम्हारी अचले श्रद्धा हो। महाराज! और एक बात है। कर्मों के फल से ही भाग्य बनता है। तुम लोगों ने बारह वर्ष तक जो दुःख भोगा है उस दुःख का देनेवाला देवता मैं हूँ। कर्म-फल से मैं भी निन्दित काम करने [ २६७ ]पर नियत हुआ हूँ। आशा करता हूँ कि तुम लोग मुझ पर नाराज़, न होगे। बेटी चिन्ता देवी! तुमने ग्रह के फेर में पड़कर बहुत कष्ट पाया है, इसका कुछ ख़याल मत करना।" चिन्ता देवी ने नम्रता से कहा—देव! आग में तपाकर ही सोना परखा जाता है। तो क्या इसे सोने के ऊपर अन्याय कह सकते हैं?

यह अनहोनी अपूर्व घटना देखकर सब लोग चित्र की तरह अचल होकर सोच रहे हैं। इतने में राजा और रानी ने एक—स्वर से नीचे लिखा श्लोक पढ़कर शनि देवता को प्रणाम किया—

नीलाञ्जनचयप्रख्यं सूर्यपुत्रं महाग्रहम्।
छायाया गर्भसम्भूतं स्वां नमामि शनैश्चरम्॥

राजा-रानी को आशीर्वाद देकर शनैश्चर चले गये।

राजा बाहुदेव ने अनजाने में अनुचित व्यवहार हो जाने के लिए श्रीवत्स से बारम्बार क्षमा माँगी। श्रीवत्स ने कहा—राजन्! इसमें आपका कुछ अपराध नहीं। वह व्यवहार भी मेरे ग्रह के फेर के कारण ही हुआ। उसके लिए मैंने मन में कुछ बुरा नहीं माना है।

राजा ने प्रेम से चिन्ता का शृङ्गार कराया, फिर भद्रा को बुला खाने के लिए दासी भेजी।

भद्रा वहाँ आकर सब समाचार सुनते ही हक्का-बक्का हो गई। फिर चिन्ता के पास जाकर उसने हाथ जोड़कर कहा—"बहन! दासी का प्रणाम लीजिए।" चिन्ता ने बड़े आदर से भद्रा को छाती से लगाया। राजा श्रीवत्स के सौभाग्यरूपी आकाश में दो चन्द्रमा उग आये।

इतने में लक्ष्मी ने वहाँ प्रकट होकर कहा—श्रीवत्स! तुम जल्द अपने राज्य को जाओ। तुम्हारा राज्य फिर जैसे का तैसा हो गया है। प्रजा तुम्हारे विरह से व्याकुल है, देर मत करो। [ २६८ ]बाहुदेव से बिदा होकर, चिन्ता और भद्रा को साथ ले, श्रीवत्स अपने राज्य में लौट आये। प्रजा के उदास चेहरे पर हर्ष छा गया। एक दिन प्रजा ने आँसू ढालकर राजा को बिदा किया था, और फिर प्रेम के आँसू बहाकर उसने राजा-रानी का स्वागत किया। राजधानी में जहाँ-तहाँ आनन्द-मङ्गल होने लगा।




॥इति॥