आदर्श हिंदू १/६ कर्कशा सुखदा

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आदर्श हिंदू-पहला भाग।  (1922) 
द्वारा मेहता लज्जाराम शर्मा
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प्रकरण―६

कर्कशा सुखदा।

गत प्रकरणों से पाठकों ने जान लिया होगा कि पंडित प्रियानाथ के माता पिता का देहांत हो चुका था। उनकी स्त्री उनका छोटा भाई और उसकी बहू यही कुटुब था। संतान जैसे उनके नहीं होती थी वैसे उनके भाई के हो हो कर मर जाया करती थी। संतान के विषय में जो विचार प्रियंवदा के थे लगभग वे ही छोटे मैया और उसके स्त्री के भी! ये तीनों ही मिलकर इसका दोष माता पर मढ़ा करते थे। यदि माता का भूत हो जाना सत्य ही निकले और प्रियानाथ को चाहे इस घटना पर संदेह ही क्यों न हो परंतु ये तीनों इस बात को सच्चा समझते थे। इसलिये यदि पति के भय से प्रियंवदा इस अत्याचार को और लोकलाज से छोटे भैया इस कष्ट को चुप चाप सह लेते थे तो कांतानाथ की बहू जब जी में आता अपनी सास को अपने पति की माता को सैकड़ों गालियाँ सुनाया करती थी। यदि किसी दिन उसका पति उसे समझाता कुछ धमकाता अथवा चिरौरी करता तो झाडू लेकर उसके सामने हो जाने में भी वह कभी नहीं चूकती थी। उसका भकूला था―"जो वह राँड मेरे बेटे बेटियों को खाने से न चूके तो क्या मैं गाली देने से भी जाऊँ? मैं गाली [ ४९ ]दूँगी, और हजार बार गाली दूँगी। जो ( अपने पति को सुना कर ) किसी को बुरा लगे तो कानों में ऊँगलियाँ देले-डट्ठे ठूँस ले।" इस बात पर पति यदि उसे मारता तो या तो लात के बदले लात और अपने प्राणनाथ की इतनी सेवा न बन सके तो गालियों में कसर ही क्यों चाहिए। यह स्पष्ट कहती ही थी कि―"मैं ऐसी कँजूस थोड़े ही हूँ जो गालियों में कसर करूं।"

कांतानाथ बिलकुल चुप था। यदि किसी दिन भाभी के आगे इस बात की चर्चा हो तो हो भी, किंतु भाई से पुकारने की उसने एक तरह सौगंद सी खा रखी थी। उसने कई बार कहना भी चाहा परंतु अपनी ही बहू की पिता समान भाई के सामने चुगली खाने में उसे लज्जा आती थी और यदि कहा भी जाय तो वह उसका क्या कर सकते थे? इसके सिवाय वह अच्छी तरह जानता था कि भाई पढ़े लिखे आदमी हैं, भूत प्रेतों की कहानियों पर उनका विश्वास नहीं इसलिये मन मार कर रह जाता था।

कांतानाथ यदि लोक लाज के भय से, भाई से डर कर अपना इस तरह मन मसोसा कर तो कर सकता है क्योंकि यह "सेर सूत की पगड़ी" बाँधता है परंतु जो स्त्री अपने जीवनसर्वस्व को झाडू मार देने में न चूके वह जेठ को सुना देने में कब कसर कर सकती है। यों जिस समय जेठ जी साहब घर में आवें उनके आगे वह कभी नहीं निकलती थी। निक[ ५० ]लना क्या सदा इस बात का प्रयत्न करती रहती थी कि कहीं जसका बोल भी उनके कानों तक न पहुँच जाय। भले घर की स्त्रियाँ इस बात में अपनी शोभा समझती हैं और शोभा है भी सही। केवल इतना ही क्यों? वह देवर से बातचीत करने और देवर देवरानी के समक्ष पति से संभाषण करने पर अपनी जेठानी की भी निंदा किया करती थी। और हिंदू समाज का नियम ही ऐसा है। जब हिंदु ललनाओं की हज़ारों वर्षों से ऐसी आदत पड़ रही है तब ऐसी निंदा पर मैं सुखदा को दोषी नहीं ठहरा सकता, किंतु जिस समय गालियाँ देने अथवा गालियाँ गाने का अवसर आता तब ऐसे विचारों को वह भूल जाती थी, लज्जा उसके पास से काफूर हो जाती थी। दिन भर उसके मुँह के आगे से यदि घूँघट टल जाय तो बात ही क्या, उसके सिर की साड़ी भी डर के मारे नीचे गिर जाय तो क्या चिंता। उसका सिर खुला, उसका मुँह खुला और उसकी अंगियाँ तक खुली, यहाँ तक कि वह अपनी कमर को बार बार यदि न सँभाला करे, यदि उसे हाथ से पकड़ना भूल जाय, तो शायद उसकी धोती भी धरती का चुंबन करके वह नये ढंग की "तिलोत्तमा" बनने में कसर न करे।

गालियाँ गाने में यह उस्ताद थी। जैसे सुशीला ने प्रियंवदा को पति को प्रसन्न करने के लिये अथवा जी बहलाने के लिये भक्तिरस और श्रृँगाररस की कविता करने का थोड़ा बहुत [ ५१ ]अभ्यास करा दिया था वैसे ही सुखदा ने अपने मौके में रह कर खोटी निर्लज़ स्त्रियों की चटसाल में मानों गाली गाना सीखा था। सीखा क्या था बढ़िया से बढ़िया डिगरी प्राप्त की थी। वह केवल गाती ही नहीं थी बरन नई नई गालियाँ बनाया भी करती थी। इस बात के लिये जाति बिरादरी की औरतों में गली मोहल्ले की लुगाइयों में उसका बड़ा नाम था।

आज भी एक घटना हो गई। यदि यह बात न होती तो पंडित जी न जानते कि बहू इन गुणों में निपुण है, परीक्षा पास कर चुकी है। उनके सौभाग्य से, नहीं नहीं दुर्भाग्य से आज पंडित जी के प्रारब्ध ने ऐसा ही एक अवसर उनके सामने ला खड़ा किया जिससे बहू के दोनों गुणों की उन्हें बानगी मालूम हो जाय। घटना यों हुई कि सुखदा के पीहर से तार द्वारा ख़बर मिली कि उसके चचेरे भाई के लड़का हुआ है। ऐसा सुसंवाद पाकर यदि उसने नातेदारों को, अड़ोस पड़ोस वालों को और आने जाने वालों को न्योता दिया, लड़के के लिये बढ़िया से बढ़िया कपड़े और जेवर तैयार कराए तो कुछ अनुचित नहीं किया क्योंकि प्रथम तो ऐसा करना एक तरह दस्तूर सा समझ लेना चाहिए उसने इस काम के लिये पत्ति ले एक पैसा न माँगा जो कुछ इस तरह की, तैयारी में लगाया वह अपनी गिरह से अपने पिता के दिए हुए द्रव्य में से। इस कारण अधिक खर्च करना एकाध बार फिजूल बत[ ५२ ]लाने पर भी कांतानाथ ने कुछ जोर न दिया। और प्रियंवदा को तो गरज ही क्या जो अपनी देवरानी को उपदेश देकर अपने ही कपड़े फाड़बावे।

खैर उसने लड्डू, कचौड़ी मोहनभोग, जलेबी आदि भाँति भाँति की सामग्री कर सबको पेट भर जिमाया और बालक के लिये जो जो बनवाया गया था वह सब लोगों को दिखलाया भी। यहाँ तक सब प्रकार की खैर रही परंतु जब इतना हो चुका तो 'गीत गान बिना कार्य की शोभा ही क्या?' बस इसी विचार से रात्रि के समय गौनहारियाँ बुलाई गई, जाति विरादरी की और अड़ोस पड़ोस की स्त्रियों को याद किदा गया और उनमें वाटने के लिये बताशे भी मँगवाए गए। पहले पहले खूब ही अच्छे अच्छे इस उत्सव के निमित्त लड़का होने की खुशी में गीत गाए गए किंतु जब ऐसा गाना बजाना समाप्त हो चुका तो प्रियंवदा के हज़ार नाहीं करने पर भी औरतों ने गाली गाना आरंभ कर दिया। वह घबड़ा कर , शर्मा कर और सिर दर्द करने का बहाना करके उठी भी परंतु किसी में उठने न दिया। उसने स्पष्ट कह दिया।

"मैं ऐसी वेषर्दगी की जगह एक मिनट भी नहीं ठहर सकती। तुम्हें शर्म नहीं आती तो तुम जी खोल कर बको। मैं ऐसी बातें सुनने से लाज के मारे मरी जाती हूँ।"

वह घर में बड़ी बूढ़ी थी, जाते जाते जो रहे वही बड़ा। [ ५३ ]उसके मुँह से ऐसा वाक्य निकलते ही सब की सब स्त्रियाँ गालियाँ गाने के बदले गालियाँ देती हुई प्रियंवदा पर नाना प्रकार के इलजाम लगाती हुई ढोलक को फोड़कर खड़ी हो गई। किस ने कहा―"राँड खुद बुरी है और हमें बेपर्द बताती है।" कोई बोली―"और बातों शर्म नहीं केवल लुगाइयों में बैठ कर गीत गाने में लाज?" कोई कहने लगी―"बड़ो बूढ़ों की चाल है। इसके कहने से हम कैसे छोड़ दें?" और किसी ने कहा―"अरी बहन, बड़ी दिलजली है, अपने पेट में कुछ नहीं और औरों का भी नहीं सुहाता।" तब एक ने कहा―"हाँ! हाँ! सच है। बिचारी सुखदा पहले ही अपने पेट के दुःख से मरी जाती है। अब इस को इसके भाई का होना भी नहीं सुहाया।" फिर दूसरी बोली― "हजार छाती कूटो जो भगवान ने लंबे हाथों दिया हैतो उसका बाल भी बाँका न होगा।"

इतनी देर तक सुखदा चुपचाप खड़ी खड़ी नुन रही थी। वह देखती थी कि देखें क्या होता है किंतु जाती वार उसे जोश दिलाने के लिये सबने एक स्वर से कहा―

"ले बहन हम जाती हैं। अब हमने तेरे यहाँ आने की सौगंध खाई। ऐसी क्या हम बजारू औरतें हैं जो तेरे यहाँ अपनी इज़्जत बिगड़वाने आवें। तुम लाजवंती हो तो अपने घर की! हम बेपर्द ही सही।" इतना कह कर ज्यों हीं वे चलने लगीं सुखदा ने―"नहीं नहीं! बहन मत जाओ। तुम [ ५४ ]इस के यहाँ थोड़ी ही आई हो जो रूठ कर जाती हो। खुद बेहया है, और औरों को बेशर्म बतलाती है। टुकड़ैल कहीं की?" इस तरह बक झक कर जब वह सब स्त्रियों को रोक चुकी तब सच मुच ही झाडू लेकर अपनी जेठानी के सामने हुई। उसे मारा, उसकी धोती पकड़ खैंचने लगी और तब बोली―

"देखूँ तू कैसी पर्देदार है? आज दस लुगाइयों में तेरी इज्ज्त ही न विगड़ जाय तो मैं सुखदा काहे की? लुच्ची कहीं की! औरों से आँखें लड़ाने में, अपने (अपने पत्ती की ओर इशारा करके) खसम से हँस हँस कर बोलने में लाज नहीं और लुगाइयों की गालियाँ सुनने में इसकी इज्जत बिगड़ती है। लाज आती है तो कानों में कपड़ा ठूँस ले। राँड! टुकड़ैल! भिखारी माँ बाप की बेटी है ना? न जैसी आप बाँझ वैसी ही औरों को निपूती करना चाहती है। बाँझ के मुँह देखे का धर्म नहीं। वह राँड हत्यारी क्या खा गई मेरे बेटों को तू खाती जाती है रे मेरे कलेजे को! हाय मेरा पूत। जब तक यह डायन इस घर में रहेगी एक भी लाल हाय! लाल! न जियेगा।" इस तरह एक दो नहीं सैकड़ों गालियों के गोले बरसाने लगी। उसकी गालियाँ में जो निर्ल- ज्जता थी उसे निकाल कर सीधी सीधी गालियाँ ही यहाँ लिखी गई है। इसकी गालियाँ सुनकर प्रियंवदा चुप। इसका कपड़ा सिर को, सींने को, और मुँह को छोड़कर जब कमर [ ५५ ]छोड़ने की तैयारी कर रहा है, जब इसके बाल बिखर कर, होंठ फड़फड़ा रहे हैं तब प्रियंवदा अपनी धोती खुल जाने के डर से उसे जोर से थामें हुए आँखों से आँसू ढरकाती हुई खड़ी खड़ी रोने के सिवाय चुप।

मकान के भीतर यों हल्ला गुल्ला जिस समय हो रहा था कांतानाथ बाहर खड़ा खड़ा एक एक बात सुनकर अपने नसीब पर अपनी छाती ठोंकता था, कभी क्रोध में आकर अपनी जोरू की नाक काटने पर उतारू होता था तो कभी आपने बड़े बूढ़ों की बात में बट्टा लग जाने के भय से योंही मन मसोस कर रह जाता था। वह अपने मन में भली भाँति जानता था कि उसकी जोरू नहीं सांप का पिटारा है। उसे निश्चय था कि यदि मैंने थोड़ा सा भी छेड़ा तो मेरी झाडू से खबर ली जायगी। पिटते पिटते मेरी चाँद गंजी हो जायगी। परंतु उससे अब रहा न गया। "हैं! क्या है? क्या है? मामला क्या है?" करता हुआ वह घसमसा कर भीतर आया। वहाँ आकर―

"बस बस! बहुत हो गया। भागवान अब तो चुप हो! मेरी माँँ के बराबर भौजाई से ऐसा बर्ताव! हरामजादी, तुझे शर्म नहीं आती। निकल मेरे घर में से राँड! बच्चों को आप खा गई और औरों पर कलंक लगाती है। बच्चों को खा गया तेरा कलह। और जब मुझे भी खा जायगा, इस घर को चौपट कर देगा तब तेरे पितर पानी पियेंगे। राँड निकल घर में से। तुम राँड से तो मैं रँडुआ ही भला।" [ ५६ ]"रँडुआ भला है तो मुझे जहर देकर मार डाल। नहीं निकलूँगी इस घर में से। मैं क्या तेरे बाप का खाती हूँ जो निकलूँ। लाई हूँ गट्ठड और रहती हूँ।" इस तरह सुखदा अनेक भद्दी से भद्दी और अश्लील गालियाँ सुनाती जाती थी और जेठानी को छोड़कर पति पर झाडू भी फटकारती जाती थी। इस मार कूट को देखकर सब लुगाइयाँ एक एक करके खसक गई। प्रियंवदा अवसर देखकर अपनी जान लिए वहाँ से भागी। उसने पति के पास जाकर रो रो कर सारा किस्सा सुनाया। "हाँ मैंने सब सुन लिया है। औरत नहीं एक बला है। अब तू उसके पास हरगिज न जाना।" कहते हुए प्रियंवदा के आँसू पोंछ कर प्रियानाथ ने उसे अपनी छाती से लगाया और सुखदा अपना सारा सामान गाड़ी पर लदवा कर भोर होते ही अपने मैके चल दी। अब देखना चाहिए कि कांता- नाथ की और सुखदा की लड़ाई का क्या परिणाम हो। समय सब बतला देगा।

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