आदर्श हिंदू २/प्रकरण-३१ काशी की छटा

विकिस्रोत से

[ ७० ]

प्रकरण--३१
काशी की छटा

प्रयाग के त्रिवेणी संगम पर प्रकृति देवी ने जो अलौकिक छटा दिखलाई है उसमें और काशी के दृश्य में धरती आकाश का सा अंतर है। वहाँ नैसर्गिक छटा अधिक और यहाँ प्राकृतिक और संसारी दोनों समान है। वहाँ गंगा और यमुना का जैसा संगम है, मिल जाने पर भी दोनों जैसे भिन्न भिन्न दर्शन दे रही हैं वैसे यहाँ इहलौकिक और पारलौकिक इन दोनों महानदी का संगम है। दोनों ही वास्तव में एक दूसरे से स्वतंत्र है किंतु दोनों ही से दोनों की शोभा है। एक अलौकिक सुंदरी ललना की शोभा जैसे वस्त्राभूषणों से बढ़ती है वैसे ही स्वाभाविक सुंदरी गंगा की शोभा तटों के सुंदर सुन्दर घाटों से, विशाल विशाल भवनों से है। गंगा हिमा- लय गिरि-शिखर से लेकर समुद्र-संगम तक है। समुद्र में प्रवेश कर जाने के अनंतर भी भगवती के कोसों तक दर्शन होते हैं। गंगातट के प्रत्येक तीर्थ में, एक से दूसरे में किसी न किसी प्रकार का अलग ही चमत्कार है किंतु वह शोभा काशी के समान नहीं। काशी से बढ़कर हो तो हो परंतु काशी के समान नहीं। ऐसे अवश्य ही यहाँ के घाटों ने, विशाल विशाल भवनों ने, काशी-तल-वाहिनी गंगा की शोभा बढ़ाई है। [ ७१ ]हाँ शोभा बढ़ाई सही परंतु यदि गंगा ही न हो तो ये घाट, ये भवन कि काम के? बिलकुल रद्दी! भूतावास! जिनके देखने से भी डर लगे। परंतु अहा! देखो! डफरिन पुल से अस्सी संभास तक भगवती ने इन किनारे के भवनों की साड़ी ओढ़कर कैसा अद्भुत स्वरूप धारणा किया है? ओढ़ना नहीं! यदि साड़ी ओड़ ली जाय तो फिर दर्शन ही क्यों होने लगे? ओढ़ो नहीं। वह साड़ी गंगा तट पर, तट तट पर फैली हुई मानों भगवती से प्रार्थना करती है कि कभी मुझे भी एक गोता लगाकर अपना जीवन सार्थक करने का सौभाग्य प्राप्त हो। एक शयन करनेवाली निद्रामग्न नखशिख सुंदरी रमणी के शरीर पर हवा के झोंके से उड़ उड़कर कहीं कहीं जैसे साड़ी गिर जाती है उसी तरह गंगा तीर के भग्नाविशेष गिर पड़ने पर भी कृत्यकृत्य हैं।

वरूणा और अस्सी संगम के बीच में धनुषाकार गंगा, भगवान् भूतभावन का पिनाक धनुष, तट के तीर्थों की प्रत्यंचा, "हर हर महादेव!" के अमोध वाण और विश्वनाथ, विश्व के संहार करनेवाले भगवान् भोलानाथ जैसा तीरंदाज जहाँ प्रत्यक्ष विद्यमान हैं वहाँ दैहिक, दैविक और भौतिक इन तीनों ही तापों का गुजारा कहाँ! सिंह के एक ही गर्जन से जैसे मेषों का वरूथ भागता है वैसे पापों के झुंड के झुंड काशी के यात्रियों के शरीर को छोड़ छोड़कर हिरन के शावकों की नाई भागे जा रहे हैं। [ ७२ ]और तो जो कुछ है सो है ही किंतु यहाँ की गंगा में दो बातें बहुत ही असाधारण, अलौकिक और अद्भुत दिखाई दीं। वास्तव में बड़ा चमत्कार है। जो वास्तविक भक्त है उनका हृदय मुक्त कंठ से स्वीकार करता है कि यह कंवल भगवती पतितपावनी गंगा की शक्ति है, जिनका मन कुछ कुछ डावाँ- डोल है उनका हृदय इस चमत्कार पर दृष्टि पड़ते ही विमल होता है और जो निरं नास्तिक हैं व हजार सिर मारने पर भी, साइंस की किताबों से माथा फोड़ने पर भी नहीं पा सकते, इसका कारण नहीं पा सकते। अस्तु! यदि उन्हें कुछ कारण नहीं मालूम पड़े तो रहने दीजिए। कवि जनों के हृदय के लोचन निराकार परमेश्वर के चरणारविदों तक पहुँच जाते हैं तब वे इसका कारण न बतलावें तो सचमुच इनकी जननी लाज जाय।

जिस गंगा को सिंहव्यालादिवाहिनी कहा जाता है, जिनके प्रबल प्रवाह के आगे बड़े बड़े पैराक भी घबड़ा उठते हैं वह काशी के तले ऐसी निस्तब्ध, निश्चेष्ट क्यों है? भगवती में डाली हुई वस्तु जहाँ की तहाँ ही क्यों पड़ी रहती है? बहकर क्यों नहीं चली जाती? हम आस्तिक हिंदुओं की दृष्टि में परमेश्वर की लीला का, उस अलौकिक नट के विचित्र नाट्य का कारण बतलाना भी दोष है, किंतु हमारी समझ में हिमालय का शिखर त्यागकर महात्मा भगीरथ के रथ के पीछे पीछे चलती चलती थककर या तो यहाँ भगवती ने विश्राम लिया है अथवा इस पुण्यक्षेत्र को देखकर महारानी यहाँ की
[ ७३ ]
विशेष विशेष शोभा देखने के लिये खड़ी हो गई अथवा भगवान् शंकर की अद्धांगिनी हैं, यहाँ खड़ी खड़ी उनके चरणों का ध्यान करती हैं, उनसे प्रार्थना करती हैं, उनसे कहती हैं कि "हृदयेश, दासी को इन पुण्य चरणों का वियोग न दो। मेरी इच्छा नहीं होती कि मैं आपको छोड़कर एक पग भी आगे बढूँ.।"

अस्तु! यह बात नहीं है कि यहाँ मगर न हों , घड़ियाल न हों और गंगा में ऐसे जंतुओं का अभाव हो जो आदमी को खैंचकर ले जाते है, उसकी जान ले डालते हैं परंतु अभी तक, यहाँ के बूढ़ो बूढ़ो से पूछिए किसी ने कभी ऐसी घटना सुनी है? नहीं कदापि नहीं। भगवान दाशरथनंदन के राम- राज्य में जैसे प्यारी पत्नियों का प्रेम से पीड़ित करनेवाले उनके पतियों के सिवाय कोई किसी को नहीं सता सकता था, सिंह और बकरी एक घाट पानी पीते थे, जैसे हाथी और घोड़ों के बंधन के सिवाय बेड़ियों का बंधन नहीं था वैसे ही यहां के मगर मच्छ किसी के प्यारे प्राणों की पीड़ा पहुँचाना भूल गए हैं। केवल धर्मबंधन के अतिरिक्त इस ब्रह्मदव में यावत् सांसा- रिक बंधनों का अभाव है, स्नान-मात्र से सब बंधन छूट जाते हैं।

यह तो है सो है ही किंतु एक बात का यहाँ अपूर्व आनंद है, वैसा आनंद कहीं दुनिया भर में न होगा। जरा देखिए तो सही! गंगा तट की ओर निहारकर अपने कमल नयनों को जरा सुफल तो कर लीजिए। अहा! कैसी विचित्र छटा
[ ७४ ]
है! कैसा अद्भुत चमत्कार! घाटों पर खड़े हुए नर नारी स्नान कर रहे हैं, पनिहारियाँ ताम्र कलशों में भर भरकर गंगा- जल ले जा रही हैं, ब्राह्मण, संन्यासी और सब ही द्विजन्मा शांत चित्त से घाटों पर लगे हुए लंबे लंबे तख्तों पर आसन जमाए, जपस्थलो में हाथ डाले जप कर रहे हैं। कोई तिलक लगाता है, कोई गंगालहरी के पाठ से भगवती को रिझा रिकाकर गा रहा है, कोई पत्र पुष्प से महारानी का पूजन कर रहा है और कोई "हर हर महादेव" के प्र गगनभेदी नाद से श्रोताओं का, अपना हृदय आनंदित कर रहा है। जो स्नान करनेवाले अथवा करनेवालियाँ हैं वे भीतर और बाहर के मलों को धो रहे है। जो बरतन मलनेवाली हैं वे बरतनों के साथ ही अपने मन को मल मलकर साफ कर रही हैं और जो यहाँ से ताम्रकलशों को भरकर अपने घरों को ले जा रही है वे सानों कह रही हैं कि हमारा कोई कार्य गंगाजल के बिना नहीं सरता। हम गंगाजी की और गंगाजी हमारी।

धन्य! करोड़ बार धन्ध!! जैसा संध्या-स्नान का आनंद, जैसी शांति यहाँ है वैसी प्रयाग में भी नहीं! वहाँ प्रथम तो शांतिपूर्वक प्रभु की आराधना करने के लिये घाट ही नहीं, फिर पंडों, भिखारी और उठाईगीरों के मारे कल नहीं। गुंडों की कमी काशी में भी नहीं है। भगवान् उनसे बचावे। वहाँ "लाओ! लाओ" से नाक में दम कर देनेवाले हैं तब यहाँ जान तक ले डालनेवाले हैं। यहां मगर और घड़ियाल
[ ७५ ]
चाहे बालक बालिका की टाँग खैंचकर न ले जायँ किंतु वहाँ के गुंडे युवतियों को केवल जेवर के लालच से घसीटकर ले जाते हैं। उनकी लाशों को गंगाजी में पड़नेवाले पनालों में जा ठूँसते हैं। किंतु जरा किनारे की ओर तो दृष्टि डालकर देखो। साक्षात शांति किस तरह विराज रही है। यदि भगवान काशी के प्रपंच से बचावे जैसा आनंद, जैसी चित्त की एकाग्रता और जैसा सुख स्नान-संध्या करने में यहाँ है वैसा और कहीं न होगा! विरली जगह होगा।

ऊपर जो कुछ वर्णन किया गया है हमारी यात्रापार्टी के भक्ति-संमापण का सारांश है। और यह उस समय की बात- चीत का खाका है जब वे लोग काशी के स्टेशन से नाव में विराजकर अपने टिकने के स्थान की आर आ रहे थे। उस नौका में इन सात आदमियों के सिवाय एक अपरिचित मनुष्य और भी आ बैठा था, वह कौन था और कहाँ का रहने- वाला था सो बिना प्रयोजन बतलाने की आवश्यकता नहीं। जब तक पंडितजी का गौड़बोले से इस तरह संवाद हुआ, जब तक प्रियंवदा और बूढ़ा बुढ़िया ध्यानपूर्वक सुनते रहे, वह चुप- चाप बैठा हुआ इनकी ओर निहारता रहा। अपने अपने ध्यान में मग्न होकर किसी ने उसे अच्छी तरह से देखा भी नहीं। एक प्रियंवदा ने कनखियों से उसे देखा और देखते ही एक हलकी सी चीख मारकर वह अचेत हो गई। थोड़ा सा उपचार करने से थोड़ी देर में उसे जब होश आई तब वह
[ ७६ ]
अवश्य ही पति के निकट खसककर आ बैठी। परंतु बातों में मग्न होकर पंडित जी कदाचित् इस समय अपने आपको भूल गए थे, इसलिये न तो उनका ही प्रियंवदा के भय का कारण जानने की ओर मन गया और न वही कह सकी कि "मेरे डर का कारण यही आदमी है जो मेरी ओर भूखे बाघ की तरह घूर रहा है।"

अस्तु! वह मनुष्य, जो इस समय लंबी लंबी जटा को अपने सिर पर लपेटे, बड़ी बड़ी दाढ़ी और मूछों से अपने मन का भाव छिपाए गेरूआ रंग के कपड़े से छिपा हुआ बैठा था, बोला --

"बाबा! दो बातें कहना भूल गए। मालूम होता है कि आज से पहले काशी में कभी नहीं आए! आए हाते तो अवश्य कहते!"

"अच्छा हम भूल गए तो आप ही याद दिला दीजिए। इतना उपकार आपकी ओर से ही सही!"

"बाबा! यहां की शोभा उस समय और भी दर्शनीय हो जाती है जब बुढ़वा मंगल के मेले पर गंगाजी नावों से ढ़क जाती हैं!"

"हाँ! उस समय जब काशी के कुपुत माता की छाती पर चढ़कर वेश्याओं का नाच कराने में कुकर्म करते हैं। नहीं चाहिए महाराज! हमें ऐसी शोभा नहीं चाहिए।" [ ७७ ]"अच्छा नहीं चाहिए तो (क्रुद्ध होकर) किनारे के पनालों की बदबू चाहिए, जिसमें लाखों आदमियों का पाय- खाना पेशाब गिरता है, जिस पानी को पीने से आदमी बीमार होकर मर जाना है और जो बदबू के मारे अभी हमारा दिमाग फाड़े डाल रहा है, उसकी इतनी प्रशंसा? चौथे आस्मान पर बढ़ा दिया। "

"महिमा घटी समुद्र की रावण बस्यो पड़ोस। ( अपने क्रोध को रोककर) तुम्हारे जैसे कुकर्मियों के कुसंग से। तुम्हारे जैसे पापियों ने (मन ही मन -- गुस्सा तो ऐसा आता है कि अभी लात मारकर इसकी ऐंठ निकाल डालूँ! साला माता की निंदा करता है) ही इस काशी क्षेत्र को बदनाम किया है? तुम जैसे दुष्टों से दुःख पाकर ही भले आदमियों ने " गँड़ साँड़ संन्यासी, हमसे बचे तो सेवे काशी" की चितौनी दी है। तुम जैसे पामरों के कारण ही "प्रेम- योगिनी" में भारतेंदु हरिश्चंद्र को काशी के लिये इस तरह लिखना पड़ा है --

"आधी काशी भांड भँडरिया बाभन औ संन्यासी।
आधी काशी रंडी मुंडी राँड खानगी खासी॥
लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे वे विश्वासी।
महा आलासी झूठे शुहदे बेफिकरे बदमासी॥
मैली गली भरी कतवारन सँडो चमारिन पासी।
नीचे नल से बदबू उबलै मनो नरक चौरासी॥

[ ७८ ]

फिरें उचका दै दै बछा लुटैं माल मवासी।
कंद भए की लाज तनिक नहिं बेशर्मी नंगा सी॥
साहब के घर दौरे जावैं चंदा देइ निकासी।
चढ़ै बुखार नाम मंदिर का सुनतै होइ उदासी॥
घर की जोरू लड़के भूखे बने दास औ दासी।
दाल कि मंडी मंडी पूजैं मानों इनकी मासी॥
आप माल कचरैं छानैं उठि भोरै कामावासी।
कारि व्यवहार साख बाँधें मानु पूरी दौलत दासी॥
बाप कि तिथि दिन बाँभन आगे परैं सरा औ बासी।
घालि रूपैया काढि दिवाला माल डकारैं ठाँसी॥
काम कथा अमृत सी पीवैं समझैं ताहि बिलासी।
राम नाम मुँह से नहिं निकतै सुनतै या खाँसी॥"

"जरा संभालकर बोल! दुष्ट! हमारे जैसे महात्मा साधुओं को क्रोध आ जाय तो एक ही फटकार में भस्म हो जाय।"

बस भस्म का नाम सुनते ही प्रियवदा कांप उठी। उसका सारा शरीर पसीने में सराबोर हा गया। घबड़ाहट में आकर वह लोक-लाज भूल गई। उसे उस समय यह भी सुधि न रही कि मैं इतने आदमियों के समक्ष पति से कैसे बात करती हूँ। यदि सुधि होती तो शायद आँखों ही आँखों से पति को मना करने की चेष्टा करती, किंतु भयभीत होकर उसके मुख से निकला --
[ ७९ ]
"नाथ, हाथ जोड़ती हूँ! अजी पैरों पड़ती हूँ! ऐसे लोगों से न उलझो! कहीं कुछ शाप दे डालै तो मैं घर की रहूँ न घाट की!"

"अरे रह रे रह! चुप रह!!" कहकर पंडितजी ने उस साधु की गर्दन पकड़ते हुए दो घूँसे पीठ पर मारकर "जो पर- नारियों की ओर कुदृष्टि से देखे और गंगा माई की छाती पर देखे वह महात्मा! उसकी फटकार से एक ब्राह्माण भस्म हो जायगा! छुई मुई है?" कहते हुए फिर अपनी जगह पर बैठ- कर कहा --

"अच्छा महात्मा जी, मैं आपको सुनाऊँ गंगाजी के माहा- त्मय! शास्त्र के प्रमाण सुनने के तुम अधिकारी नहीं हो। भक्ति का तत्व समझाने की तुममें बुद्धि नहीं। बुद्धि होती तो आज इस (अपनी गृहिणी की ओर अंगुली दिखाकर) विचारी को बुरी नजर से न देखते, इसको और बुरे बुरे इशारे न करते। अच्छा सुनो यह उसी पतितपावनी गंगा का वरण- तारण ब्रह्मस्वरूप जल है जिसकी प्रशंसा में पश्चिमी वैज्ञानिक भी मुग्ध होते हैं। बड़े बड़े डाक्टरों ने निश्चय कर लिया है कि इसके समान संसार की किसी भी नदी का जल नहीं। ऐसा हलका नहीं, ऐसा सुपच लही और इतने वर्षों तक निर्वि- कार ठहरने की किसी जल में शक्ति नहीं। और नदियों के, कुओं के बढ़िया से बढ़िया जल को रख छोड़िए। दो चार दस दिन में कीड़े कुलबुलाने लगेंगे। जल सूखकर उड़
[ ८० ]
जायगा। किंतु भगवती के ब्रह्माद्रव में कभी कीड़े पड़ने का नाम नहीं। सूखने के वयले, आज का दस बीस वर्ष के बाद उम- गेगा। भक्ति मात्र चाहिए। आप जैसे कुकर्मियों के पड़ोस बसकर इस विमलसलिला गंगा पर पनाने की बदबू का कलंक अवश्य लगा है, किंतु पनालों के निकट का ही गंगा जल लेकर थोड़े दिन रख छोड़िए। पहले उसमें कीड़े पड़ेंगे। राम राम उसमें नहीं! पनाले के जल का जो हिस्सा उसमें मिल गया है उसमें। किंतु उन कीड़ों का केवल छः दिन में नाश होकर फिर वही बिमल जल। यदि इस पर भी आप लोग न समझें तो आपका नसीब! आप माता को हजार गालियां दें परंतु माता तो माता ही है! संसार में माता के समान कोई नहीं! लात मारनेवाले बालक को भी माता दूध पिलाती है। पत्थर मारनेवाले पापी को भी आम्र फल देता है। हाँ, इतना भेद अवश्य है कि माता के स्तनों को मुख्य में लेकर बालक दूध पीता है और जोंक दूध की जगह उसका रक्त पीती है। बस अधिकारी का भेद है। क्षमा करना महा- राज, "हरि हर निंदा सुनै जो काना, होहि पाप गो घात समाना।" बस इसी विचार से मैंने माता की निंदा करने का सजा बताया है। नहीं तो में आपका दास हूँ। हम गृहस्थ अब तक भी काषाय वस्त्रधारी को महात्मा समझते हैं। फिर इन वस्त्रों को लज्जित न कीजिए। अपने कुकर्मों से और साधुओं को गालियाँ न दिलवाइए। उनके सत्कार का खुन
, [ ८१ ]
न कराइए! अब भी आप लोगों में अच्छे अच्छे महात्मा हैं परंतु वे आपकी तरह कहते नहीं फिरते कि "हम भस्म कर दंगे।" उनके लिए "पर तिय मात समान है।"

घाट आते ही साधुजी लपककर नाव से उतरते उतरते "अच्छा बच्चा समझ लेंगे।" कहते हुए नौ दो ग्यारह हुए और हमारी यात्रापार्टी कुलियों के सिर पर बोझा रखवाकर अपने टिकने के स्थान पर पहुँची किंतु बाबाजी के "शाप" और "समझ लेंगे" के भय से प्रियंवदा पर जैसी इस समय बीत रही है उसका मन ही जानता है।


---------





आ० हिं० -- ६