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आदर्श हिंदू २/प्रकरण-३२ देवदर्शन का आनंद

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आदर्श हिंदू दूसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ८२ से – ९२ तक

 

प्रकरण--३२
देवदर्शन का आनंद

यों ये लोग काशी में कहीं न कहीं ठहरकर अटरम सट- रम अपना काम निकाल ही सकते थे क्योंकि जो यात्रा की घुड़दौड़ करते हैं उन्हें यदि अच्छा मकान न मिले ता न सही, किंतु पंडितजी को दौड़ करना पसंद नहीं था, वह चाहते थे कि "जहाँ जाना वहाँ मन भरकर रहना, जो कुछ करना वह शास्त्रीय रीति से करना और किसी काम में उतावला बनके उसको मिट्टी में न मिला देना।" वह प्राय: कहा करते थे कि "जल्दी का काम शैतान का होता है।" बस इसलिये उन्होंने जब गौड़बोले को पहले से काशी भेजा तब खूब ताकीद कर दी थी कि "किराया कुछ अधिक भी लग जाय तो कुछ चिंता नहीं किंतु मकान ऐसा मिलना चाहिए जिसमें भगवती भागीरथी के दर्शन हरदम होते रहें। जहाँ निवास करने में न तो गंगास्नान के लिये दूर जाना पड़े और न वहाँ से विश्वनाथ का मंदिर ही अधिक दूर हो।" गौड़बोले ने जब ऐसा ही मकान तलाश कर लिया तब उस पर धन्यवादों की भी खूब ही वर्षा हुई।

जब से ये लोग यहाँ आए हैं नित्य ही मकान पर शरीर- कृत्य से निवृत्त होकर गंगास्नान करते हैं। वहाँ ही संध्या-

चंदनादि नित्यकर्म होता है। जो इन बातों के अधिकारी नहीं हैं उनका भजन होता है, द्वादशाक्षरी अथवा अष्टाक्षरी मंत्र का जप होता है। सब ही मिलकर एक लय से एक राग में भगवती की स्तुति करते हैं और पद्माकर की "गंगा- लहरी" के चुने हुए पद गा गाकर मग्न हो जाते हैं। नित्य ही जाह्नवी का पूजन होता है और इस तरह गंगा की आरा- धना में इनके घंटों गुजर जाते हैं। महारानी की कृपा से इन्हें घाट भी अच्छा मिल गया है। घाट वही जहाँ से आचार्य महाप्रभु भगवान् बल्लभाचार्यजी ने संन्यास ग्रहण करने के अनंतर गोलोक को प्रमाण किया था। इस घाट के दर्शन करने से पंडितजी की विचार-शक्ति इनके धर्म-चक्षुओं के समक्ष वही दृश्य ला खड़ा करती है। इन आँखों को न हो तो न सही किन्तु हृदय के नेत्रों को दिखाई देता है कि महाप्रभु के इस लौकिक शरीर की अलौकिक ज्योति देखते देखते ऊपर को उठकर सूर्य किरणों का भेदन करती हुई भगवान् भुवनभास्कर में जा मिलती है। इस दृश्य को देखकर यह सचमुच विह्वल हो जाते हैं, गद्गद हो उठते हैं और उस समय इन्हें जो कोई देखे तो कह सकता है कि यह विक्षिप्त हैं। इनकी नित्यकर्म में ऐसी एकाग्रता, इनका उच्च भाव और इनकी कांति देखकर किसी को उस समय इन्हें सताने का साहस नहीं होता, और इसलिये इन्हें बहुत ही आनंद से अपने संध्योपासनादि कर्म करने का अच्छा अवसर मिल जाता है। गंगाजी की सीढ़ियाँ चढ़ने बतरने में चाहे इनके और साथी थकें चाहे न थकें के किंतु हनुमान घाट की सीढ़िया चढ़ना प्रियंवदा के लिये वास्तव में बदरीनारायण की चढ़ाई हैं। वह चाहे अपने मन की दृढ़ता प्रकाशित करने के लिये अपने मन का भाव छिपाने का प्रयत्न करे किंतु उसके मुख कमल की मुरझाहट, उस पर प्रस्वेद-विदु और उसके नेत्रों की सजलता दोड़ दौड़कर चुगली खा रही है कि वह थक गई है, घबड़ा उठी है। अपनी थकावट मेटने के लिये उसे दस दस बीस बीस सीढ़ियाँ चढ़कर बीच बीच में साँस लना पड़ता है। समय समय पर उसे साहस दिलाने के लिये प्राणनाथ मृदु मुसक्यान में प्रबोध भी देने हैं कितु कभी वाणी से और कभी नेत्रों से और कभी कभी दोनों से उत्तर यहां मिलता है कि स्वामी-चरणों के प्रताप से, भगवती के प्रसाद से अवश्य पार हो जाऊँगी और जो कही न हुई तो, "गंगाजी को पैरवो अरू विप्रन का व्यवहार, डूब गए तो पार है और पार गए ले पार।" हाँपते हाँपते थके मुँह से, कभी पैर फिसलते समय और कभी लड़खड़ाते लड़खड़ाते प्यारी की ओर से ऐसा उत्तर पाकर प्रियानाथ की कली कली खिल उठती है क्योंकि अपनी मनचाही गृहिणी पाकर वह अपने भाग्य को सराहत हैं।

मथुरा और प्रयाग के अनुभव ने पंडितजी की सचमुच आँखें खोल दी। यदि इष्टदेव इन्हें ऐसी सुबुद्धि न देता तो काशी में आकर अवश्य ही इन्हें लेने के देने पड़ जाते।
प्रयाग में चाहे भिखारियों ने, गँठकटों ने और लफंगों ने इनकी नाक में दम ही क्यों न कर डाली थी किंतु काशी की दशा उससे दो कदम आगे थी। वहाँ इन लोगों से कितना भी कष्ट क्यों न रहा को परंतु त्रिवेणी-तट का विशाल मैदाल साँस लेने के लिये कम नहीं था और यहाँ की सँकरी सँकरी गलियाँ जिनमें सूर्य नारायण का दर्शन भी दुर्लभ था। वहाँ के भिखारी मुड़चिरे तो यहाँ के गुंडे। इनके मारे जब बड़े बड़े "तीसमारखाँ " की अकल हैरान है तब पंडितजी विचारे किस गिनती में हैं और तिस पर भी तुर्रा यह कि एक रूपवती अबला इनके साथ है। भारतवर्ष की महिलाओं के लिये यह सच कहा जाता है कि "आटे का दिया है घर में रहती हैं तो चूहे नोचते हैं और बाहर जाती हैं तो कौवे टाँचते हैं।" बस ऐसी दशा में जब काशी से कुशलपूर्वक बिदा हों तब ही समझना चाहिए कि यात्रा सफल हुई, क्योंकि जब से उस साधु ने शाप का भय दिखाकर "समझ लेंगें" की घुड़की दी है तब से प्रियंवदा थर थर कांपती हैं। बस ऐसे ही कारणों से इन्होंने सबकी सलाह से पक्का मनसूबा कर लिया है कि "मंदिरों और तीर्थों में जब जाना तब जहाँ तक बन सके के अधिक भीड़ के समय को टालकर जाना, भिखारियों को देकर कपड़े खिंचवाने के बदले जो कुछ (यथाशक्ति) देना वह गुप्त रूप से पात्र ब्राह्मण को, योग्य संन्यासियों को और अंधे अपाहिजों को तलाश करके देना। और न देने पर

जो गालियाँ दें उन्हें बकने देना। इस प्रकार के ठहराव के सिवाय दो तीन बातों को इन्होंने और भी ताकीद कर दी है "कभी पास जोखिम लेकर न फिरना, रात बिरात अकेले न फिरना और मकान, गली तथा मुहल्ले को अच्छी तरह याद रखना। अनजान आदमी का कभी भरोसा करना क्योंकि यहाँ के गुंडे धन के लोभ से रात बिरात अँधेरे उजेले छुरा चलाने तक नहीं हिचकते।"

यों हिंदुओं के घर घर में, प्रत्येक घर में, देवस्थान है। जिस घर में देव-प्रतिमा नहीं, जिसमें तुलसी नहीं, जिसमें गाय नहीं वह हिंदू का घर नहीं। इस कारण छोटे छोटे गाँवों से लेकर बड़े बड़े नगर तक काशी है, वृंदावन है किंतु काशी और वृंदावन में देव-मंदिरों का बाहुल्य है, यहाँ घर थोड़े हैं और मंदिर अधिक। यदि तलाश किया जाय तो इन नगरियों में कदाचित् लाखों में एकाध मिले ऐसा मिल सकता है जिसने वहाँ के सब मंदिरों में, समस्त तीर्थों में जा सौभाग्य प्राप्त किया हो। इस कारण इन्होंने "काशी माहात्म्य" अवलोकन कर वहाँ के मुख्य मुख्य देव- स्थानों की, मुख्य मुख्य तीर्थों को, चुनकर अपनी यात्रा का प्रोग्राम तैयार किया।

इस प्रोग्राम में जो स्थान काशी की पंचकोशी यात्रा में आए उनके लिखने से तो कुछ प्रयोजन ही नहीं और उनमें जो विशेष विशेष थे वे भी समय समय पर आही जायँगे। किंतु इनके मुख्य इष्ट थे विश्वनाथ। बस भगवान् भूतभावन के दर्शन करने के लिये ये लोग दुपहरी में गए। प्रारब्ध वश इन्होंने जो मार्ग ग्रहण किया वह 'ज्ञानवापी' की ओर होकर था, इस कारण सबसे पहले इनकी दृष्टि औरंगजेबी मसजिद पर पड़ी। इतिहास में मंदिर और सो भी विश्वनाथ का मंदिर टूटकर मसजिद बनने की बात याद आते ही इनका हृदय हिल उठा। यह बोले --

"औरंगजेब के अत्याचार का नमूना है! मुसलमानों के साम्राज्य नष्ट होने के प्रारंभ का स्मारक है! उस समय के हिंदुओं की कायरता की बानगी है और अँगरेजों के सुराज्य की प्रशंसा करने के लिये दुंदुभी है। ओहो! कैसा भयानक समय था? किंतु काल बली ने उसे भी नष्ट कर डाला। जिस टुरात्मा ने पिता को कैद करके, भाइयों को मरवाकर, पुत्रों को सताकर हिंदुओं के धर्म को लातों से कुचल ढाला, वह शायद जानता होगा कि मैं अमर जड़ी खाकर आया हूँ। मैं कभी मरूँगा ही नहीं किंतु काल उसे भी खा गया, मुगलई बादशाहत को खा गया और मुसलमानी साम्राज्य का खा गया!"

यों पछताते, दुःख पाते जब यह भोलनाथ के सामने हुए तो एकदम इनके मन के समस्त विकार हवा की तरह उड़ गए। इन लोगों ने पहले साष्टांग प्रणाम किया फिर खड़े होकर, हाथ जोड़े हुए, पलक मारे बिना महादेव की मूर्ति में

लौ लगाए पंडितजी ने प्रार्थना की --

विलावल -- "शंकर महादेव देव भक्तन हितकारी। (टेक)
शीश गंग, भस्म अंग माल चंद्र घारी।
ओढ़े तन व्याघ्रखाल, लिपट रहे कंठ व्याल,
गौरी अर्द्धग बाल,पाप पुंज हारी।
राजत गल रुंडमाल, राजिव लोचन विशाल,
कर में डमरु रसाल, मार मान मारी।
दर्शन तें पाप जात, पूजन सुर पुर पठात,
गाल के बजात नाथ देत मुक्ति चारी।
गोपिनाथ* गिरिजापति गिरिधर प्रिय, गिरातीत,
गावत गुण वेद चार, पावस नहिं पारी।"

प्रियंवदा में यह सवैया पढ़ा --

"दानि जो चार पदारथ को त्रिपुरारि तिहूँ पुर में शिर टीको।
भोलो भोलो भाव को भूखो भलोई कियो सुमिरे तुलसी को॥
ता बिन आस को दास भयो, कबहूँ न मिट्यो बड़ लालच जी को।
साधो कहा कर, सायन तें जौ पै गधो नहीं पत्ति पारवती को॥"

गौड़बोले ने यह सवैया गाकर सुनाई --

जातें जरैं लोक विलोक त्रिलोचन सो विष लोक लियो है।
पान कियो धिप भूषन भो करुणा वरूणालय साई हियों है॥
मेरो ही फोरिबे जोग कपार किधों का काहू लखाय दियो है।
काहे न कान करो बिनती तुलसी कलिकाल विहाल कियो है॥

  • पंडित फतहसिंहजी रचित। इस प्रकार से स्तुति करने के अनंतर पंडितजी ने वेद-

विधि से विश्वभर विश्वनाथ का स्वयं अपने हाथों से रूद्रा- भिषेक किया, गौड़बोले समेत ग्यारह संस्कृतवेत्ता अच्छे कर्मष्टि ब्राह्मणों से लघुरूद्र याग करवाया और प्रियंवदा ने शिव-पार्वती का भक्तिपूर्वक पूजन करते समय गिरिराज- किशोरी से प्रार्थना की --

"जगज्जननी, पूजन करने के लिये आपने जिस महानुभाव के चरणों की, इस दासी को दासी बनाया है वह कम नहीं है। इस घोर कलिकाल में उसकी भी सधा बन जाय तो बहुत है, किंतु आज मैं, हे माता! हे शंभरप्रिया! तुम्हारी एक स्वार्थवश पूजा करती हूँ। जैसे तुम्हारा सौभाग्य चिर- स्थानी है वैसे ही मेरा अहिबान अमर रखियो। जैसे महादेव बाबा का तुम्हारे ऊपर अलौकिक प्रेम है वैसा ही इनका इस गँवारी दासी पर बना रहें और जिस जगह मैं कर्मवश जन्म लूँ वहाँ, जन्मजन्मांतरों में भी सदा ही इनकी दासी बनी रहूँ। बस माता मुझे और कुछ नहीं चाहिए।"

"अथवा यों कि युगयुगांतर तक मैं इसे अपना दास बनाए रक्खूँ! और बेटा क्यों न माँगा?" इस तरह अर्द्ध स्फुट शब्दों के साथ पंडितजी मुसकुराए और तिरछी चितवन से आँखों में हाँ और वाणी से ना करते हुए "देव मंदिर में भी दिल्लगी!" कहकर लज्जा के मारे प्रियंवदा ने सिर झुका लिया। जब "सावधान!" कहकर गौड़बोले ने

इन्हें चिताया तब कुछ अपनी लज्जा को छिपाते हुए सचेत होकर पंडितजी बोले --

"बाबा, मैं तेरी क्या स्तुति करूँ! तू मेरे इष्टदेव का भी इष्टदेव है। मुझ जैस मन के दरिद्री, धन के दरिद्री श्रीर तन दरिद्री में इतनी शक्ति कहाँ जो तुझे पूजा से, बंदना से, आराधना से प्रसन्न कर सकूँ। परंतु शास्त्र कहते हैं, वेदों ने कहा है और शिष्ट सज्जन कह गए हैं कि तू धन से प्रसन्न नहीं होता, तन से प्रसन्न नहीं होता, केवल मन से प्रसन्न होता है। जो मन से भक्तिपूर्वक केवल आक, धतूरा चढ़ा देता है बस इसी से तू राजी है, उसी की निहाल कर देता है। मैं धन का दरिद्री नहीं हूँ। निर्धन होने पर भी मुझे रुपया वैभव नहीं चाहिए। जो कुछ है वही बहुत है। जो है वह भी एक तरह की उपाधि है। किसी दिन उससे उदासीन होकर वानप्रस्थ आश्रम नसीब हो तव जीवन का सार्थक्य है। तू सचमुच भोलानाथ है। और और देवतायों को, मेरे आराध्य देव तक को प्रसन्न करने के लिये एक उमर का काम नही, एक युग का काम नहीं और एक कल्प का काम नहीं, जन्म- जन्मांतर तक, युगों तक, कल्पों तक नाक रगड़ते मर जाओ तब कहीं उसके प्रसन्न होने की पारी आए। सोना जितना तपाया जाता है उतना ही उसका मूल्य बढ़ता है। बस अनन्य भक्ति का दृढ़ करने के लिये वह भी अपने भक्त को पहले खूब तपा लेता है तब प्रसन्न होता है और फिर ऐसा

प्रसन्न हो जाता है कि उस भक्त को अपने से भी बड़ा बना लेता है। किंतु तू प्रसन्न भी जल्दी होता है और नाराज भी तुरंत ही। धन्य बाबा, तेरी गति अपरंपार है। हे नाथ, रक्षा कर! रक्षा कर! मैं तेरी दया का भिखारी हूँ और तू अवघड़ दानी है। मैं भक्ति का ग्राहक हूँ और तू, भोला भंडारी है। गोस्वामी तुलसीदासजी के समान मुझ अकिंचन में सामर्थ्य नहीं है जिन्होंने अपनी भक्ति के बल से मुरलीधर को धनुर्धर बना दिया था, किंतु जहाँ तू है वहाँ वह है। तुझमें वह और उसमें तू है। तू और वह एक ही है। हे नाथ! मेरा उद्धार कर! मुझे संसार की उपाधियों से, दुनिया के दु:खों से बचा! विश्व का नाथ होकर उसको पैदा करने- वाला तू, तूही उसकी स्थिति का हेतु और तूही संहारकर्ता है।" ऐसे कहते हुए पंडितजी प्रेमाश्रु बहाने लगे, गौड़बोले भक्तिरस में अपनी देह को भूलकर नाचने लगा और थोड़ी देर तक ऐसा समा जमा रहा कि दर्शक अवाक होकर टक- टकी लगाए देखते के देखते रह गए।

पंडितजी को थोड़ी देर में जब चेत हुआ तब वह गौड़- बोले से बोले --

"वास्तव में दोनों एक ही हैं। इसमें वह और उसमें यह हैं। चाहिए मन की एकाग्रता, अनन्य भक्ति, नि:स्वार्थ प्रेम। बस इससे बढ़कर दुनिया में कोई नहीं। ज्ञान नहीं, वैराग्य नहीं और झुछ नहीं। सब इसके चाकर हैं।"
"यथार्थ है! बेशक सही है!" कहकर गौड़बोले ने अनुमोदन किया और तब फिर पंडितजी बोले --

"आज मुझसे एक भूल हो गई। भूल का प्रयोजन तो आपने समझ ही लिया। इसी लिये समय को देखते हुए, लोगों के कलुषित मनों की थाह पाकर कहना पड़ता है कि देवस्थानों में, तीर्थों पर स्त्री पुरुषों का साथ होना बुरा है। इसी लिये युवतियों का पिता भाई के साथ एकांत में रहना वर्जित है। मुझसे भूल हुई, पाप नहीं हुआ और जो भूल हुई उसके लिये क्षमा करनेवाला भी भोला भंडारी है, किंतु देवदर्शनों में, यात्राओं में, भीड़ में, अनेक दुष्ट लोग स्त्रियों को सताकर कुकर्म करते हैं। पुण्य करने के बदले लोग पाप- बटोरते हैं। अनेक कुलटाओं को ऐसे पुण्यस्थलों पर अपने जारों से मिलने का अवसर मिलता है। अनेक नर राक्षस ऐसी जगहों में परमारियों की लाज लुटते हैं और उस समय कामांध होकर नहीं जानते कि नरक में हमें कैसी यातनाएँ भोगनी पड़ेगी। कामदेव के विनाश करनेवाले के समक्ष यदि ऐसा अनर्थ हो तो बहुत खेद की बात है। इसका कुछ प्रतीकार होना चाहिए।"

इस तरह कहते हुए ये लोग घर पहुँचे और बूढ़ा बुढ़िया भक्तिरमामृत का पान करके कृतकृत्य हुए।

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