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आदर्श हिंदू २/प्रकरण-३३ भक्तिरस की अमृत-वृष्टि

विकिस्रोत से
आदर्श हिंदू दूसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ९३ से – १०४ तक

 

प्रकरण--३३
भक्तिरस की अमृत-वृष्टि

पंचकोशो की यात्रा में देवदर्शनों का आनंद हुआ, तीर्थस्थान का जो सुख हुआ वह "सर्वेपदा हस्तिपदे निमग्दाः इस लोकोक्ति से भोलानाथ के दर्शन और गंगाजी के स्नान इन दोनों बातों के अलौकिक आनंद में समा गया। काशी- निवासियों को इस यात्रा में काशी की तंग गलियों से छुट- कारा होकर मैदान की हवा खाने का थोड़े दिनों के लिये मजा मिलता है, घर में चूल्हा फूँकते फूँकते उकताकर वहाँ की रमणियाँ यात्रा में दाल बाटी उड़ाती हैं, और जो लोग दिन रात घरों में बैठे रहते हैं उन्हें तो पाँच कोस पैदल चलने से अवश्य ही आनंद मिलता है किंतु इस यात्रापार्टी के लिये नगरवासियों का आनंद कुछ भी आनंद नहीं है इसलिये ऐसी साधारण बात को आनंद वा अनुभव की लिस्ट में दर्ज करना पंडितजी को पसंद नहीं और इसी कारण यह लेखक भी एक तरह लाचार है। हां! बूढ़े भगवानदास के प्यारे और भोले बेटे गोपीबल्लभ को इस यात्रा में एक बात नई मिल गई और उस पद्ध को उसने कंठ भी कर लिया। अब जब उसे छेड़ा जाता है तब ही वह तुरंत सुना देता है और जब उसे अवकाश मिलता है तब कभी कुछ जोर से, कभी आधे बाहर और

आधे भीतर शब्दों में और कभी मन ही मन इस तरह गुनगुनाया करता हैं --

"शिवपुर गइली झटपट खइली, कपिलधारा गइली रोय।

भिमचंडी गइली गठरि गुमौली, अब न जाब पचकोस॥"

काशीवालों के पंचकोशी के अनुभव का यह निचोड़ हैं। यह अनुभव वहाँ के पढ़े लिखे लोगों का अथवा उच्चवर्ण के आदमियों का नहीं, मजदूरी पेशा लेगों का है। समय और असमय जब कभी पंडितजी इसे सुनते हैं तब मुसकुरा उठते हैं और कभी कभी उसे छेड़कर सुनते भी हैं।

पंचकोशी की यात्रा में सामान्य रूप से और काशी के प्रधान प्रधान देवस्थान होने से विशेष कारके इन्हेांने वहां अन्न- पूर्णा, बिंदुमाधव, कालभैरव, ढुंढ़िराज, दुर्गा और ऐसे ऐसे नामी नामी मंदिरों के दर्शन करने में, मणिकर्णिका पर लान करने में, गया श्राद्ध के निमित्त पिशामोचनादि स्थलों पर श्राद्ध करने में जो आनंद लूटा उसका नमूना गत प्रकरणों में आ चुका। उसे किसी न किसी रूप में यहाँ प्रकाशित करके पोथी को पोथा बना देने में कुछ लाभ नहीं। हाँ एक दिन ये घाट घाट की यात्रा करते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी के आश्रम पर गए। जिस स्थान पर बैठकर एकाग्र चित्त बड़ी भक्ति के साथ महात्मा ने "रामायण मानस" की रचना की थी, जहाँ पर उनका देहावसान हुआ था उसी पुण्य स्थल पर यदि रामायण की

कथा होती हो और सो भी तबला सारंगी पर, हार्मोनियम के साथ अनेक लयों को गा गाकर होती हो तो वह आनंद वास्तव में अपूर्व है। अगवान विष्णु ने देवर्षि नारदजी से कहा है और यथार्थ कहा है कि "मैं न ते कभी वैकुंठ में रहता हूँ और न योगियों को हृदय में। मेरा निवास, मेरा पता उसी जगह समझो अथवा मैं उसी स्थान पर मिलूँगा जहाँ मेरे भक्त भेग यश गा रहे हैं।" बस यही हाल यहाँ का था। गानेवाले कोई भड़ैली गायक नहीं थे। सब ही जो इस काम में लगे हुए थे वे सचमुच देहाभिमान भूल हुए थे। श्रोतागण भी टकटकी लगाए चित्त को, अंतःकरण को रामकथा में लगाए सुन सुनकर मुग्ध हो रहे थे। प्रसंग भी ऐसा वैसा नहीं, रक्षों के भंडार में से निकला हुआ, अपने प्रकाश से भक्तों के हृदय मंदिर को प्रकाशित करनेवाला कोह- नूर हीरा था। जिस समय ये लोग पहुँचे भक्तवत्सल भगवान् रामचंद्रजी के शब्दों में --

"सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुशुंडि शंभु गिरिजाऊ॥
जो नर होइ चराचर द्रोही।
आवइ सभय शरण तकि मोही॥
तजि मद मोह कपट छल नाना।
करौं सद्य तिहिं साधु समाना॥

जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धन भवन साधु परिवारा॥
सब के ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहिं बाँध बाटि डोरी॥
समदर्शी इच्छा कछु नाहीं।
हर्ष शांक भय नहिं मन माहीं॥
अस सज्जन मम उर वस कैसे।
लोभी हृदय बसै धन जैसे॥
तुम सारिखे संत प्रिय मोरे।
धरौं देह नहिं आन निहारे॥"

गाया जा रहा था। अवश्य मर्यादापुषोत्तम का यह उप- देश राक्षसराज विभीषण के लिये था किंतु यह प्रत्येक मनुष्य के लिये भक्ति-मार्ग का पथदर्शक है, हिये का हार बनाने योग्य है, मन की पट्टी पर प्रेम की मसि और भक्ति की लेखनी से लिख रखने योग्य है और स्वर्णाक्षरों में लिखकर ऐसी जगह लटका रखने योग्य है जहाँ सोते, बैठते, खाते, पीते हर दम दृष्टि पड़ती रहे। क्योंकि इन वाक्यों में से, इनके प्रत्येक शब्द में से अमृत टपक रहा है और यह वह अमृत नहीं है जिसके लिये देवता और असुर कट मरे थे। उस अमृत का एक बार पान करने से मनुष्य तृप्त हो जाता है, उसे दूसरी बार पीने की आवश्यकता नहीं रहती किंतु इससे कभी मनुष्य अघाता नहीं। वह अमृत घोर तप करने से, अनेक जन्मों की

आराधना से यदि किसी किसी को प्राप्त हो तो हो सकता है। और हुआ भी तो उसका फल क्या? केवल यही न कि "कभी न मरना!" परंतु क्या कभी न मरनेवाले की मुक्ति हो सकती है? नहीं। पाप पुण्य का प्रपंच सदा ही, स्वर्ग में जाने पर भी उनके पोछे लट्ठ बाँधे तैयार रहता है और इस प्रपंच की बदौलत प्राणी फिर गिरता है और फिर सँभलता है। बड़े बड़े देवता, बड़े बड़े ऋषि मुनि ऐसे प्रपंचों से गिरते हुए पुराणों में देखें गए हैं किंतु इस अमृत में प्रपंच का लेश नहीं, चढ़ने के अनंतर गिरने का स्वप्न नहीं, और जो कभी दैत्यराज हिरण्यकशिपु का सा घोर शत्रु गिराने का प्रयत्न करे तो प्रह्लाद भक्त की तरह उसे हाथों हाथ ले लेनेवाला तैयार। इसका प्रमाण इसी से है -- "घरौं देह नहिं आन निहारे।" यही भगवान् की वेदविहित आज्ञा है केवल उसके पादपद्मों में डोरी बाँध देनवाला चाहिए। पंडित प्रियानाथ के हद्गत भावों का यहा निष्कर्ष है। शास्त्रकारों ने मुक्ति चार प्रकार की बललाई है -- सामीप्य, सारूप्य, सालोक्य और सायुज्य। भगवान् के भक्त जब मोक्ष नहीं चाहते, मोक्ष से, सायुज्य मुक्ति से जब उनका अस्तित्व ही जाता रहता है और इसलिये उन्हें घड़ी घड़ी, पल पल, विपल विपल ईश्वर की भक्ति करने का अलौकिक आनंद मिलना बंद हो जाता है तब उन्हें यदि चाहिए तो केवल सामीप्य मुक्ति। बस इसके द्वारा वे सदा भगवान् के चरणारविंदों में लोटते रहें और भक्तिरस के

आ० हिं०--७
अद्भुद अमृत का पान करते हुए पड़े रहें। से भक्तों के लिये जन्म मृत्यु कोई चीज नहीं, सुख दुःख कोई पदार्थ नहीं। बल्कि सुख से दुःख अच्छा है। सुख उनके उद्देश्य का पालन करने में बाधा डालनेवाला है और दुःख भगवान् के चरणकमलों की ओर खैंच ले जाने का मुख्य साधन है। गौड़- बोले के शब्दों का यही निचोड़ है। किंतु प्रियंवदा, भगवान- दास और चमेली की तो बात न पूछो! उनके लोचनों में से इस समय प्रेमाश्रु की धाराएँ बह रही हैं। जैसे जन्म का दरिद्री एकदम कहीं का खजाना पाकर दोनों हाथों से, चार आठ सोलह अथवा हजार हाथ न हो जाने पर पछताता हुआ उसे लूटता हो उसी तरह उस स्वर्गीय सुख को ये लूट रहे हैं। चोर को ऐसी लूट के समय अवश्य ही पकड़े जाने का भय रहता है, इसके कारण वह चौकन्ना होकर बार बार इधर उधर देखता जाता है। किंतु इन्हें तो आनंद एकाग्र चित्त से निर्भय होकर लूटने में है, क्योंकि इस लुट में न तो यमराज का भय है और न किसी राजा या बादशाह का।

ऐसी दशा में पंडितजी जैसा कोमलहृदय, गौड़बोले जैसा सरलहृदय विह्वल न हो जाय, यह हो ही नहीं सकता। जब मिथिलाधिपलि राजा जनक जैसे वेदांताचार्य को कहना पड़ा था कि --

"कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक।
मुनिकुलतिलक कि नृपकुलपालक॥

ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा।
उभय धेप धरि सोइ कि आवा॥
सहज विराग रूप मन मोरा।
थकित होत, जिमि चंद चकोरा॥
तातें प्रभु पृछउँ सति भाऊ।
कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥
इनाहिं बिलोकत अति अनुरागा।
बरबस ब्रह्मसुखहिं सन त्यागा॥

जहाँ राजा जनक जैसे ब्रह्मज्ञानी को भी भगवान् के दर्शन करके 'बरबस' ब्रह्म का सुख त्यागना पड़ा था तब बिचारे ये किस गिनती में हैं। कथा विसर्जन होने तक ये लोग वहाँ बैठे हुए अवश्य ही भक्तिरस की खूब लूट मचाते रहे परंतु समाप्त होने पर इन्हें वहाँ से लौटना पड़ा। पंडितजी चलते चलते बोले --

"सबसे अधिक धन्य तो रामभक्तों के शिरोभूषण हनु- मानजी है जो जहाँ कहीं भगवतचर्चा होती हो, रामायण पढ़ी जाती हो वहाँ बुलाए और बिना बुलाए दोनों तरह आ विराजते हैं। ब्रह्मर्षि वाल्मीकि ने भी संसार का बड़ा उपकार किया है किंतु मेरी लघु मति से गोस्वामी तुलसीदासजी का उपकार उनसे कम नहीं, उनसे भी बढ़कर है -- अप्रतिम है, अलौकिक है, स्वर्गीय है, मानुषी नहीं, वह मनुष्य नहीं देवता थे, देवताओं से भी बढ़कर थे!"

"क्यों, बढ़कर कैसे? वाल्मीकिजी से भी बढ़कर?"

"हाँ! एक अंश में बढ़कर!"

"आजकल की हिंदू दुनिया का जितना उपकार तुलसी- कृत रामायण से हो रहा है उतना और किसी से नहीं। अँग- रेज इसकी दिन दिन बिक्री बढ़ती देखकर ठीक कहते हैं कि यह हिंदुओं की बाइबिल है। केवल अक्षरों का अभ्यास करके "टेंपे टेंपे" खाँच लेनेवाले को भी इसमें आनंद है और धुरंधर विद्वानों को भी। वास्तव में बादशाह अकबर का जमाना हिंदुओं के लिये इस अंश में सतयुगी शताब्दि था जिसमें महात्मा तुलसीदासजी जैसे अनन्य भक्त पैदा हुए।"

"हाँ! यह आपका कहना ठीक है। गासाई जी कवि भी अच्छे थे और भक्त भी थे, परंतु वाल्मीकिजी से कैसे बढ़ निकले?"

"गौड़बोले महाशय, आप दाक्षिणात्य हैं। आप इसके मर्म को नहीं समझ सकते, क्योकि हिंदी आपकी मातृभाषा नहीं। सुनिए, यद्यपि वाल्मीकि रामायण में यह अच्छी तरह निरूपण किया गया है कि रामचंद्रजी भगवान् का अवतार थे किंतु उसमें भक्ति नहीं है। वह एक इतिहास है और इसके अक्षर अक्षर से भक्तिरस टपका पड़ता है, उसका प्रवाह होता है। वह संस्कृत में है, और संस्कृत का पढ़ना लोहे के चने चबाना है। सर्व साधारण को तो पेट के धंधे के मारे संस्कृत पढ़ने की फुरसत ही नहीं और जो पढ़े लिखे कहलाते भी है

उनके लिये वह लैटिन वा ग्रीक है। हमारी दुर्दशा आप क्या पूछते हैं? वेद भगवान् के वाक्य हैं। हम लोग वेद को ही परमेश्वर मानते हैं किंतु वह वेद जर्मनी में छपे और उसे किसानों का गान बतलाने का विदेशियों को अवसर मिले और हम उसका एक भी अक्षर न जानकर उनकी हाँ में हाँ मिला दें! फिर तुलसीदासजी अकेले वाल्मीकिजी के ही भरोसे तो नहीं रहे। भगवान् व्यास, महर्षि वाल्मीकि वा और अन्यान्य लेखक महात्मा जो उनसे पहले हो गए हैं उन सबके अनुभव का मक्खन उनका ग्रंथ है।"

"हाँ ठीक!"

'हाँ ठीक ही नहीं! इससे भी बढ़कर यह कि आज- कल के लेखक जब अपने जरा से काम के लिये घमंड में चूर हैं, जरा सी पोथी बनाते ही जब लोकोपकार का डंका पीटते हैं तब उन्होंने लिखा है और ऐसे लोकोपकारी ग्रंथ के लिये लिखा है कि "मैंने केवल अपने मन का संतोष करने के लिये जो कुछ मन में आया कह डाला है। ग्रंथ निर्माण की मुझरें योग्यता नहीं।" बोलिए, इससे बढ़कर नम्रता क्या होगी? आत्म- विसर्जन क्या होगा? वह जमाना कविता का था। तुलसीदासजी यदि चाहते तो किसी राजा की खुशामद करके लाख दो लाख पा सकते थे किंतु उन्होंने रुपयों के बदले तुंबी ली और अपना सर्वस्व छोड़कर भगवान् की शरण ली। वाल्मीकिजी ने भीलों के कर्म छोड़कर यश पाया और इन्होंने धन दारा छोड़कर। "बेशक यथार्थ है! वास्तव में सत्य है।"

इस तरह बातें करते करते जिस समय ये लोग गंगा के किनारे किनारे माधवराव के धरहरा के निकट पहुँचे तब इनकी इच्छा हुई कि "एक झलक इनमें से किसी पर चढ़कर काशी की भी देख लेनी चाहिए क्योंकि काशी भारतवर्ष की संसार प्रसिद्ध सप्तपुरियों में से है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है कि --

"सेहय सहित सनेह दह भर कामधनु कलि कासी।
समन सोक संताप पाप कज सकल सुमंगल रासी॥
मर्यादा चहुँ ओर चरण वर सेवत सुरपुर बासी।
तीरथ सब सुभ अंग रोम सिव लिंग अमित अविनासी॥
अंतर अयन अयन भल थल फल बच्छ वेद विश्वासी।
गलकंबल बरूना बिभ्राति जनु लूम लसत सरिता सी॥
दंडपानि भैरव बिसाल मल रुचि खलगन भयदा सी।
लोल दिनेस त्रिलोचन लोचन कर्नघंट घंटा सी॥
मनिकर्निका वदन ससि सुंदर सूर मरिम सुखमा सी।
स्वारथ परमारथ परिपूरन पंचकोस महिमा सुखमा सी॥
विश्वनाथ पालक कृपालु चित लालति नित गिरिजा सी।
सिद्धि सची सारद पूजहि मन जुगवत रहत रमा सी।
पंचाक्षरी प्रान भुद माधव गध्य सुपंच नदा सी।
ब्रह्मजीव सम राम नाम दोउ आखर बिख बिकासी॥
चारित चरित कुकर्म कर्म कर भरत जीव गन कासी।

लहत परम पदपय पावन जिहि चहत प्रपंच उदासी॥
कहत पुरान रची केसव निज कर करतूति कला सी।
तुलसी बस हरपुरी का राम जप जो भयो चाहै सुपासी॥"

बूढ़े बुढ़िया चढ़ाई का नाम सुनते ही डर गए। उन्होंने पंडितजी से पूछकर टिकने के स्थान का रास्ता लिया। प्रियं- वदा चाहती तो पहले ही उनके साथ घर को जा सकती थी किंतु इधर बढ़ने की इच्छा और इधर थकावट का भय। इसे देखकर गोपीबल्लभ का भी जी ललचाया। पंडितजी और गौड़बोले के पीछे पीछे पचास चालीस सीढ़ियाँ ये दोनों चढ़े भी किंतु वे दोनों ऊपर जा पहुँचे और ये दोनों अधबिच से लौट आए। लौट आकार धरहरे के पास सायंकाल की कुछ झुरमुट सी में दोनों खड़े खड़े ऊपरवालों की राह देखने लगे। होनहार बड़ी बलवती है। यदि ऐसा न होता तो जगज्जननी जानकी को मायामृग मरवाले के लिये पहले पति को भेजने की और फिर देवर को ताना देने की क्यों सूझती! जब से उस नौकारूढ़ संन्यासी ने "समझ लेंगे।" कहा था तब से डर के मारे कमी प्रियंवदा पति का एक पल के लिये भी साथ नहीं छोड़ती थी। किंतु पतित्रता स्त्री के लिये जब पति चरणों का सबसे बढ़कर सहारा है तब यदि वह चढ़ जाने में ही थक जाती तो क्या होता? खैर हुआ वही जिसका भय था। राम जाने ले जानेवाले कौन थे और आए किधर से थे, किंतु चार लठैतों ने आकर पहले गोपीबल्लभ पर कंबल डाला।
फिर दुसरे कंबल से प्रियंवदा की गठरी बाँधकर सिर पर लादें हुए यह गए! वह गए! और पंडितजी के ऊपर से देखते देखते गायब हो गए। इन दोनों की इच्छा हुई कि ऊपर से कूद पड़ें, परंतु कूद पड़ना हँसी खेल नहीं। जान झोंककर गिरते तो उसी समय चकनाचूर हो जाते। इन्होंने नीचे आकर देखा तो गोपीबल्लभ बेहोश। बस ये दोनों के दोनों हाथ मलते पछताते रह गाए।


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