आदर्श हिंदू २/प्रकरण-४२ चरित्र की दरिद्रता

विकिस्रोत से

[ १८२ ]

प्रकरण--४२
चरित्र की दरिद्रता

"जब देश ही दरिद्री है तब बारंबार प्रत्येक तीर्थ के भिखारियों की कथा या गाई जाय? "बुभुक्षितः किं न करोति पापम्" इस लोकोक्ति से यदि गया के भिखारी कच्चे पिंडे को गोमाता के मुँह से छीनकर खा जाते हुए देखे गए तो इसमें अचरज ही कौन सा हो गया? जिस देश में अकालपीड़ा से विकल होकर बिचारे अपने स्त्री बालकों को बेच दें, जिस देश के नर नारी भूखों मरते अपने प्यारे धर्म को छोड़कर ईसाई मुसलमान हो जाते हैं, जहाँ के दीन दुखिया मेहतरों में मिलकर जूठन खाते देखे गए हैं, जहाँ के स्त्री पुरुष अब बिना तरस तरसकर जरा सा अकाल पड़ते ही अपने प्यारे प्राणों को यमराज के हवाले कर देते हैं वहाँ यदि बत्तीस करोड़ प्रजा में छप्पन लाख पेशेवर भिखारी हुए तो क्या हुआ? इसलिये कहना पड़ेगा कि केवल छप्पन लाख ही भिखारी हों सो नहीं। जिन लोगों में "एक लज्जां परित्यज्य त्रैलोक्य विजयी भवेत्" का मंत्र ग्रहण कर लिया है उनकी संख्या, यदि ठीक गणना हुई हो तो छप्पन लाख हो सकती है किंतु मेरी समझ में इस देश के बत्तीस करोड़ निवासियों में से कम से कम बाईस करोड़, नहीं अट्ठाईस करोड़ भिखारी होंगे;
[ १८३ ]
यदि इनकी संख्या इतनी अधिक न होती तो छप्पन के दारूण दुर्भिक्ष में गवर्मेंट के कृपापूर्वक स्थापित किए हुए अकाल पीड़ा से प्रजा की रक्षा करने के कामों पर एक करोड़ आदमी न टूट पड़ते, छप्पन के अकाल में लाखों आदमी अपने प्यारे प्राणों को क्षुधा की आग में होमकर पृथ्वी का भार न उतार देते। भारत में ९० प्रति सैकड़ा किसान हैं और प्रायः इन सबकी यही दुर्दशा है। खैर इनका ती अकाल के समय गवर्मेंट की सहायता से पेट पालने का हियाव भी हो गया है परंतु मुशकिल तो औसत दर्जे के आदमियों का है। वे न तो भीख ही मॉग सकते हैं और न उनकी इनी गिनी कमाई से उनके कुटुंब का पालन होता है। बत्तीस करोड़ संख्या में एक करोड़ परदेशी और एक करोड़ खुशहाल भारतवासियों को छोड़कर जिधर नजर डालिए उधर इसी तरह के आदमी अधिक दिखाई देते हैं। इसी लिये कहना चाहिए कि यहाँ कोई पेशेवर भिखारी हैं, कोई जरा सी आफत आने से अथवा आते ही भिखारी बन गए हैं और कोई दरिद्रता की चक्की में दिन रात पिसे जाने पर भी मोछों में चावल लगाकर अपनी दुर्दशा को लोकलज्जा से छिपाते हैं।"

"आपने जो कुछ कहा वह धन की दरिद्रता का लेखा है। संख्या में चाहे कहीं न्यूनाधिक हो परंतु लेखा खासा तैयार हो गया। परंतु हाँ इतना अवश्य है कि केवल धन की दरिद्रता से देश कंगाल नहीं हो सकता। इस दरिद्रता को दूर करने के
[ १८४ ]
लिये वृटिश गवर्मेंट जैसी सरकार तैयार है और यहाँ के प्रजा- हितैषी सज्जन इस काम के लिये जब जी तोड़ परिश्रम कर रहे है तब परमेश्वर अवश्य किसी दिन कृपा करेगा। मार्ग अच्छा पकड़ लिया गया है और आशा अच्छी ही होती है।"

"हाँ यह ठीक है परंतु महाराज अधिक भय चरित्र की दरिद्रता का है। सचमुच ही चरित्र की दरिद्रता हमारा सर्व- नाश कर रही है। उसी की बदौलत हम धन के दरिद्री हैं, मन के दरिद्री है और सर्वस्त्र के दरिद्री हैं। उस दिन वरूणा गुफा पर उन महात्मा जी ने यथार्थ कहा था कि एक साधु से जितना परोपकार हो सकता है उतना सौ गृहस्थों से नहीं हो सकता। इतना इसमें और बढ़ा देना चाहिए कि वह व्यक्ति चाहे फकीर हो, चाहे लखपती हो, चाहे गृहस्थय हो अथवा संन्यासी हो, चाहे राजाधिराज हो अथवा दीन किसान हो, उसे सच्चरित्र अवश्य होना चाहिए। उसमें आत्मविसर्जन की शक्ति होनी चाहिए, उसकी विचार शक्ति (विल पावर) उत्कृष्ट होनी चाहिए और सबसे बढ़कर यह कि वह सारा- सार का विचार रखता हो और उस पर ईश-कृपा भी होनी आवश्यक है।"

"परंतु साहब, आपने इस यात्रा में एक दीनबंधु पंडित को छोड़कर कितने प्रादमी ऐसे देखे? चरित्र को भ्रष्टता के उदाहरण पग पग पर मौजूद हैं। आप निरंतर जगह जगह देखते चले आए हैं। आप प्रति दिन देखते रहते हैं।" [ १८५ ]"वास्तव में सच्चरित्रता का दिवाला निकला जा रहा है। इसका लोप अँगरेजों पर नहीं, हम दंशियों पर है। और उपाय भी हमारे हाथ में है। धर्म-शिक्षा के नाम पर लोग कानों के पर्दे फाड़ रहे हैं किंतु यह शिक्षा स्कूलों में, पाठशालाओं में, कालेजों में नहीं मिल सकती। थोड़ा बहुत भला भले ही हो जाय किंतु इस काम के लिये ये सब रद्दी हैं, निरर्थक हैं। इसकी शिक्षा का आरंभ गर्भाधान से होना चाहिए। अच्छे रज वीर्य से शुभ दिन में सच्चरित्र माता पिता का संयोग हो, उस दिन दंपती दुःख, चिंता, भय, भ्रम, क्रोध, मोहादि से रहित हों और गर्भ में बालक की सुखाद्य तथा सुपेय पदार्थों के सेवन से रक्षा की जाय, माता को विकारों से बचाया जाय। बालक पैदा होने पर पलने ही से, माता की गोद में से ही उसकी शिक्षा का आरंभ किया जाय। उसे बाहर के समस्त कुसंस्कारों से बचाकर वर्णाश्रम के अनुकूल शिक्षा कर, शास्त्र विधि से पोडश संस्कारों का संस्कारी बनाया जाय। ठेठ से उसे सत्यवादी, दृढ़प्रतिज्ञ, सज्जन, पापभीरू और भगवद्भक्त बनाया जाय। यदि इन सब बातों पर माता पिता का पूरा ध्यान रहे तो अवश्य बालक सच्चरित्र होगा। वह आत्मविसर्जन का व्रती होगा । उससे अवश्य परोपकार, देशोपकार होगा। बस ऐसे ही लोगों की आवश्यकता है। फिर ऐसे बालक की रक्षा कुशिक्षा से, खोटी संगत से और बुरे संस्कारों से हो सके तो वह निःसंदेह
[ १८६ ]
नाम पावे। जन्म से सोलह वर्ष तक उसके लिये सीखने का जमाना है। पच्चीस वर्ष तक उसे 'गधा पचीसी' से बचाना चाहिए। फिर उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।"

"बेशक सत्य है। परमेश्वर ने आपको अवसर भी दिया है। बस आज से ही इस कार्य का अनुष्ठान आरंभ कर दीजिए। इस कार्य के उपयुक्त जो गुण दंपती में होने चाहिएँ वे सब आपकी जोड़ी में विद्यमान हैं। आप अवश्य कीजिए।"

इस तरह रात्रि के दस बजे, नापने अपने बिछौने पर बैठे हुए गोड़बोलें और प्रियानाथ के वार्तालाप के अंत में गौड़वाले के मुख से अंतिम वाक्य सुनकर पंडित जी ने "अच्छा महा- राज, खूब! आपने तो मुझ पर ही डिगरी कर दी। 'जो बोले सो घी को जाय' वाली कहावत चरितार्थ कर दी।" कहते हुए लज्जा से मुसकुराते मुसकुराते अपना मस्तक झुका लिया किंतु उस समय प्रियंवदा के मन में जो भाव पैदा हुए वे वास्तव में वर्णनातीत थे। हो सकता है कि उस समय की धुँधली रोशनी में अपने हृद्गत भावों को पति के हृदय में पहुँचा देने के लिये और प्राणोश्वर के भावों को ले आने के लिये प्यारी के मानसिक टेलीफोन की बिजली इधर से उधर और उधर से इधर चक्कर लगाने लगी हो किंतु सचमुच ही उसका हृदय आशा से उछल रहा था, उसकी आँखे लज्जा से मुँदी जाती थी और यदि कोई हदय के नेत्रों से देखने की शक्ति रखता
[ १८७ ]
होता तो वह उसी समय ताड़ सकता था कि उसके लाख छिपाने पर भी उसके रोम रोम उसके मन की चुगली खा रहे थे।

अस्तु। उस दिन इस पार्टी में एक गोपीबल्लभ को छोड़- कर सब ही ले तीर्थोपवास किया था। दूसरे दिन प्रात:काल से श्राद्धारंम समझना चाहिए। श्राद्ध के लिये सामग्री ये लोग साथ ले ही आए थे। श्राद्ध करानेवाले गौड़बोले महा- शय छाया की भाँति जहाँ ये जाते थे वहाँ साथ थे ही, यदि पंडित जी ने उनको साथमा लिया होता तो वास्तव में यहाँ पर भी इनकी वही दुर्दशा होती जो इन्होंने प्रयाग में यात्रियों की देखी थी। वही लंठाधिराज ब्राह्मण, वही पचास चालीस आदमियों के जमघट में मिलकर एक तंत्र से ब्राह्मण, बनियो, नाई, जाटों को एक साथ श्राद्ध कराना और वही "तेरे बाप के, उसके बाप के, उसके दादा के" गगनभेदी उच्चारण के साथ साथ तालियों की फटकार। गया के गुरुजी महाराज ने भी इलको पढ़ा लिखा विद्वान, धनवान् और प्रतिभाशाली समझकर एक अच्छा ब्राह्मण साथ कर दिया था। गौड़- बोले के निरीक्षण में उसी ने श्राद्ध करवाने का काम किया। जहाँ जहाँ वह देवता भूलता गया वहाँ वहाँ गौड़बोले ने सँभाला। उन्होंने आप भी श्राद्ध किया और पंडित जी के कार्य में भी सहायता की। इस तरह ये लोग मूर्ख देवता के अड़गे से बच गए और उनके काम में किसी प्रकार का विघ्न भी न पड़ने पाया। [ १८८ ]
पंडित जी उन लोगों में से नहीं थे जो श्राद्ध करने में भी घुड़दौड़ खेलें अथवा डाक गाड़ी दौड़ा है। हजारों आदमी सैकड़ों ही रुपया रेलवालों को देकर यहाँ आते हैं और कुछ किया कुछ न किया करके श्राद्ध को सरपट दौड़ा- कर भागे हुए आगे चले जाते हैं। एक दिन में गया श्राद्ध समाप्त, जोर मारा तो तीन दिवस और जो यहाँ सात दिन ठहर गए तो मानों कमाल कर दिया। अपने पूर्व पुरुषों का अहसान के बोझे से लाद दिया। किंतु नहीं। पंडित जी ने ठीक त्रिपक्षी, सत्रह दिनों में शास्त्रविधि से सांगोपांग गया श्राद्ध किया। यहाँ श्राद्ध करने के लिये जो स्थान नियत है उन्हें वेदियाँ कहते हैं। फल्गू नदी में, विष्णुपद में, उसके निकटवर्ती विशाल भवन में, प्रेतशिला पर, बोध गया में और अक्षयवट पर श्राद्ध करना होता है। गुरु जी के सुफल बोलने का यही स्थान है। पंडित जो ने सब ही वेदियों पर पृथक् पृथक् भक्तिपूर्वक श्राद्ध किया। और किया तो आश्चर्य भी क्या? उनके जैसा धार्मिक भी न करे तो करे कौन!

हाँ! भीड़ की धक्कामुक्का में, यात्रियों की ठसाठस के मारे जब श्राद्ध-स्थल पर तिल रखने की भी जगह न मिले और जब गया तीर्थ नरमुंडों से भर जाय तब श्राद्ध करने में श्रद्धा न रहे तो आश्चर्य नहीं। श्रद्धा ही से जब श्राद्ध है तब जो कुछ करना उसे श्रद्धापूर्वक करना। इस सिद्धांत से पंडित जी ने आश्विन कृष्णपक्ष में महालय का अवसर अवश्य बचा लिया। [ १८९ ]वह गया गए तब इस महापर्व को बचाकर गए। उन्होंने ठान लिया कि "महालय के महापर्व का माहात्म्य अधिक है सही परंतु श्रद्धा भक्ति से करने का फल उससे भी अधिक है।" और इसका फल भी उनके लिये अच्छा ही हुआ। जिन दिनों ये लोग गए, गया में इने गिने सौ दो सौ यात्रियों के अतिरिक्त भीड़ भाड़ का लेश नहीं था। बस इस कारण किसी जगह इन्हें श्राद्ध करने में कितनी ही देरी क्यों न लग जाय इनसे तकाजा करको इनके काम में विघ्न डालनेवाला कोई नहीं, यदि सामान उठाने में ये ढिलाई दिखलावें तो इनका बँधना बोरिया के फेंकनेवाला कोई नहीं और जगह खाली करने के लिये इन्हें रूखी सूखी सुनानेवाला कोई नहीं।

परंतु उन दिनों पंडित जी को, उनके साथियों की छटा भी देखने योग्य थी। प्रियंवदा के मन ही मन मुसकुराने के लिये, मन ही मन दाढ़ी मोंछ बिना प्राणनाथ का अपना सा चेहरा पाकर हँसने को पंडित जी का चेहरा बिलकुल सफा- चट है। पंडित जी के शुभ्र और सुदीर्घ ललाट पर श्वेत चंदन का विशाल तिलक झलक रहा है। कमर में स्वच्छ धोती और कंधे पर स्वच्छ उत्तरीय के सिवाय वस्त्र का नाम नहीं। अँगुलियों में दर्भ की पवित्रो और एक हाथ में ताम्र पात्र और दूसरे में ताम्र कलश। पैरों में आज न बूट है, न जूता है, यहाँ लों कि खड़ाऊँ तक नहीं। आठ पहर में एक बार भोजन और भूमि शयन। प्रियंवदा भी रेशमी मुकटा पहने
[ १९० ]
जहाँ वह जाते है छाया की नाई साथ रहती है। श्राद्ध संपादन करने में दोनो का काम बँटा हुआ है। दोनों ही अपने अपने कार्य पर डटे हुए हैं। शास्त्रीय कार्य से निवृत्त होकर केवल आत्मा को भाड़ा देने के लिये पंडित जी बाजार से भुन्यन्न, हविष्याल, खोजकर लाते हैं और ऐसे मोटे झोटे पदार्थों से बढ़िया बढ़िया सामग्री तैयार करके प्रियंवदा दिखला देती है कि "सैव साध्वी सुभक्तश्त्र सुस्नेह:, सरसोज्ज्वलः; पाक:संजायते यस्याः करादव्युदरादपि" -- इस लोकोक्ति के अनु-सार हाथ के बनाए पाक की बानगी तो आप देख ही रहे हैं और उदर के पाक की बानगी देखने के लिये अभी नौ महीने तक राह देखते रहिए। इस तरह पंडित जी जब अपनी गृहिणी को साथ लिए हुए विधि संपादन में दत्तचित्त हैं तब विचारा गौड़बोले लाचार है। उसके स्री नहीं, पुत्र नहीं और आशा तक नहीं। शास्त्रीय कार्य संपादन करने में जहाँ अर्धांगिनी की अपेक्षा होती है वहाँ अभाव में कुश की गृहिणी बनाकर काम निकाल लेने की आज्ञा है किंतु यह केवल दस्तूर पूरा करना ही है। यदि चित्र लिखित लड्डू जलेबी पूरी कचौड़ी और हलुवा मोहनभोग दर्शक का पेट भर सकते हों, यदि उन्हें देखते हो डकारें आने लगें तो खैर कुश की गृहिणी ही सही। परंतु गौड़बोले इस बात से असंतुष्ट नहीं है। पंडित पंडितायिन की जोड़ी देखकर उसका मन कुढ़ता हो सो नहीं। वह अंत:- करण से आशीर्वाद देता है कि "भगवान करे यह जोड़ी चिरं-
[ १९१ ]
जीविनी हो।" वह अपनी जैसी कुछ दशा है उसमें मस्त रहने- वाला आदमी है बूढ़े बुढ़िया आजकल अपना कर्तव्य पालन होता देखकर, पितृ-ऋण चुकता देखकर धीरे धीरे शास्त्रीय कार्य संपादन होने से हड़बड़ी न पड़ती देखकर आनंद में हैं। वे पंडित जी का साथ पाकर बारंबार उन्हें धन्यवाद देते हैं। किंतु गोपीलाल को इस झगड़ों सं कुछ मतलब नहीं। श्राद्ध के काम में भूखों मरते मरते चाहे औरों को साँझ ही क्यों न पड़ जाय परंतु वह दोनों बार डटकर खा लेता है और मा बाप की बंदगी में भोला कहार से बदाबदी करने को तैयार रहता है।


-------