आदर्श हिंदू २/प्रकरण-४१ व्यापार पर प्रकाश
पंडित, पंडितायिन, गौड़बोले, बूढ़ा, बुढ़िया और लड़का
ये सब काशी से गया के लिये रेल द्वारा बिदा हो गए।
पंडितायिन चाहे महात्मा का प्रसाद पाकर आनंद के मारे
फूली अंग नहीं समाती थीं, चाहे प्रसव-वेदना के भय से कई
बार चिंता भी बहुत होती थी और चाहे "जिसने दिया है
वही रक्षा भी करेगा।" यों कहकर अपना मन भी समझा
लिया करती थीं किंतु पंडिल प्रियानाथ को न तो इस बात की
आशा होने का हर्ष ही था और न घुरहू से दारुण दुःख
उठाने का शोक। जब प्रियंवदा ने इशारे से आशा जतलाई
तब -- "होगा! दुनिया के धंधे हैं। अभी से क्या ठिकाना
है? न भी हो, तेरा भ्रम ही निकले। और हो भी तो जीवित
रहे। जीकर कुपूती करे। बड़ों का नाम डुबोबे! क्या
भरोसा?" कहकर उसके हर्ष को दबा दिया। जब उसने
प्रसव-वेदना का भय याद करके अपने मन की घबराहट बत-
लाई तब "सर्वत्र, सर्वदा रक्षा करनेवाला परमात्मा है। अभी
से घबड़ा घबड़ाकर कहीं अपना शरीर न सुखा डालना!"
कहते हुए उसको संतुष्ट किया और जब वह घुरहू के अत्याचारों
को याद करके रोने लगी तब -- "बावली अब क्यों घबराती
है? परमेश्वर सहायक है। उसने ही तुझे सुबुद्धि दी, उसने
ही पंडितजी को प्रेरणा कर तेरी रक्षा कर दी।" कहकर
उसे ढाढ़स दिला दिया। वह बोले --
"इन बातों को भूल जा। ऐसी ऐसी बातें याद रहने से, इनका बारबार स्मरण होने से गर्भ पर बुरा असर पड़ेगा, यहाँ तक कि बालक का रूप रंग ही धुरहू का सा हो सकता है। तब लोग नाहक तेरा नाम धरेंगे।"
"जाओ जी! ऐसा मत कहो। उस निपूते का मेरे सामने नाम मत लो! थू थू! वैसा बालक हो जाय? राम राम! मैं मर मिटूँ! परंतु क्या उसको याद करने ही से ऐसा हो सकता है? मेरी समझ में नहीं आता! क्योंकर हो सकता है?"
"हाँ हो सकता है! विद्वानों ने अनुभव करके देख लिया है। तुझे भी (हँसकर) तजुर्वा करना है तो कर देख। अवसर भी अच्छा है। फिर घुरहू के बेटे पनारू!......" बस इतना पति के मुख से निकलते ही -- "बस बस बहुत हो गया। क्षमा करो। आगे न कहो। नहीं तो मैं अपनी जान दे डालूँगी!" कहती हुई उनके गले लगकर रोने लगी। "अरी पगली रोती क्यों है? मैंने तो योंही हँसी में कह दिया था।" कहकर पंडितजी ने उसका समाधान किया। तब उसने फिर कहा --
"निगोड़ी ऐसी हँसी भी किस काम की? आपकी हँसी
और मेरी मौत! तुम्हारी एक हँसी से तो मैं पहले ही मरी
जाती हूँ! उसने तो मुझे पहले ही कहीं मुँह दिखलाने लायक
नहीं रखा! उस हँसी के लिये तो छोटे भैया को मेरी चाल-
चलन पर अब तक संदेह ही बना हुआ है। और जरा सोचो
तो सही। इन पंडितजी महाराज ने ही क्या समझा होगा?"
"नहीं! इनको मैंने समझा दिया। असली बात कह दी। जब घर पहुँचेंगे तब छोटे से भी कह देंगे। फिर?"
"फिर क्या? कुछ नहीं! परंतु यह तो बतलाओ कि उस दिन जब पंडितजी ने इस बात का प्रसंग छेड़ा सब टाल क्यों दिया? उसी समय स्पष्ट कर दिया होता?"
"नहीं किया। हमारी मौज! उसका कुछ कारण था।"
"अच्छा कारण था तो तुम्हारी इच्छा। न कहो। बद- नामी तो तुम्हारी भी है। 'है इन लाल कपोत व्रत कठिन नेह की चाल, मुख सो आह न भाखिये निज सुख करो हलाल।' अच्छा न कहिए।" इन पर -- "अरी बावली इतनी घबड़ा उठी! अच्छा तू आग्रह करती है तो घर पहुँचते ही छोटे से कह देंगे, पाँच पंचों में कह देंगे, सभा सोसाइटी में कह देंगे और अखबारों में छपवा देंगे। बस हुआ!"
"अच्छा जाने दो इस बात को। और प्रसंग छेड़ो। नहीं कहना चाहते हो तो ऐसा जिक्र छेड़ दो जिससे मेरा जी बहल जाय!"
"खैर! तैंने तो काशी आकर फायदा उठा ही लिया।
तेरी वर्षों की हाय हाय मिट गई परंतु क्या मैं यहाँ से रीते
हाथों जाऊँ? मैंने तुझसे भी अधिक लाभ उठाया है। तेरे
लाभ में तो, भगवान् न करे, विघ्न भी पड़ सकता है किंतु मेरा
लाभ चिरस्थायी है, अमिट है। उसे न कोई चुरा सकता है
और न छीन सकता"
"सो क्या? कहो तो? आज तो बड़ी पहेली बुझा रहे हो।"
"भगवान् शंकर के दर्शनों का, भगवती भागीरथो के स्नान का और पंडितजी के, महात्मा के आशीर्वाद का अहा! काशी में आकर भी बड़ा ही आनंद रहा। यह आनंद अलौ- किक है, स्वर्गीय है, वर्णनातीत है। यदि भक्ति का साधन हो सके तो स्वर्ग भी इसके आगे तुच्छ है। आँखों के सामने चित्र मात्र खड़ा हो जाना चाहिए। अपने आपको भूल जाना चाहिए। बस आत्म-विस्मृति में ही लक्ष्य की प्राप्ति है।"
"अच्छा, गयाजी आ पहँचे। चलिए। उतरिए।" कहकर प्रेम-विह्वल भक्ति-मग्न पति को प्रियंवदा ने चिताया और कुलियों के माथे बोझा रखवाकर गाड़ियों में सवार हो टिकने की जगह हमारी यात्रा-पार्टी जा पहुँची। काशी और गया के बीच में केवल एक बात के सिवाय कोई उल्लेख करने योग्य घटना नहीं हुई। वह भी कोई विशेष आवश्यक नहीं किंतु संभव है कि यदि उसे न प्रकाशित किया जाय तो लोग कह उठें कि पंडितजी एक तीर्थ छोड़ गए।
खैर! ये लोग बीच में उतरकर पुनःपुना गए। गया
श्राद्ध के लिये जानेवालों को जब पुनःपुना में उतरकर अवश्य
श्राद्ध करना पड़ता है तब ये भी उतरे तो आश्चर्य क्या?
आश्चर्य न सही किंतु लोग कहते हैं कि विज्ञान के बल से
अँगरेजों ने जल, वायु, अग्नि और इंद्र को वश में कर लिया
है। मैं कहता हूँ केवल इनको ही क्यों? हमारे तीर्थ भी
उनके हुक्मीबंदे बन जाते हैं। इसका उदाहरण यही पुनः-
पुना है। ज्यों ज्यों रेलवे लाइनें बनती जाती हैं त्योंही त्यों
मदारी के साथ बंदर के समान पुनःपुना भी रेल के साथ
खिंचा चला जाता है। बाँकीपुर से गया जानेवालों के लिये
पुन:पुना अलग और काशी से जानेवालों के लिये अलग।
अस्तु गयाजी में पहुँचकर श्राद्ध का कार्य आरंभ करने से पूर्व पंडित प्रियानाथ के पुरोहित और पंडित दीनबंधु के सगे मा-जाए भाई पंडित जगद्बंधु की भी अवश्य प्रशंसा कर देनी चाहिए। वह भाई के समान ही सज्जन थे, पंडित थे, अच्छे कर्मकांडी थे, यात्रियों को, यजमानों को सतानेवाले नहीं थे और बड़े ही अल्पसंतोषी थे। अपने बड़े भाई को पिता के समान मानकर उनकी सेवा करते थे। पंडित प्रिया- नाथ ने उनको अच्छा ही दिया और जो कुछ इन्होंने दिया उन्होंने अतीव संतोष के साथ ले लिया। उन्होंने जाने से एक दिन पहले इस यात्रा-पार्टी को चिता दिया था कि --
"श्राद्ध में जिस सामग्री की अपेक्षा होती है उसे काशी से ले जाना। गयाजी में अच्छी नहीं मिलती।"
इसी परामर्श के अनुसार पार्टी ने सारा सामान साथ
बाँध लिया और बाँध लेने में अच्छा ही किया क्योंकि जब
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इन्होंने गया में जाकर उस सामग्री की दुर्दशा देखी तब घृणा
से, क्रोध से इनका हृदय तप उठा। इन्होंने देखा कि श्राद्ध में
प्रदान किए हुए जौ के आटे के पिंडों को लोग सुखाकर फिर
आटा तैयार कर लेते हैं। वह आटा भी अच्छे के साथ फिर
पिंड बनाकर श्राद्ध करने के लिये बेचा जाता है। केवल
इतना ही क्यों किंतु पिंड फल्गू में नहीं डालने दिये जाते,
गौओं के मुख में से छीन लिये जाते हैं और कितने ही भूखे
भिखारी कच्चे पिंडों को छीनकर भी खा जाते देखे गए हैं।
इस घटना को देखकर इनका मन बिलकुल खिन्न हो गया।
बेशक सत्परामर्श देने पर जगद्बंधु को धन्यवाद दिया गया।
इसके अतिरिक्त एक और बात वहाँ देखने में आई।
देखने में ही क्यों इन्हें उनका निशाना भी बनना पड़ा। जिस
जगह ये लोग टिके थे वहाँ पर इनके डील डौल से, रहन सहन
से मालदार समझकर सौदा बेचनेवालों का इनके पास ताँता
लग गया। ऐले फेरीवाले आगरे में बहुत आते हैं, काशी में भी
आते हैं किंतु इन लोगों में इन्हें सचमुच ही दिक कर डाला।
प्रयाग में जैसे ये भिखारियों से सताए गए थे वैसे ही यहाँ उन
लोगों से खरीदारों की हजार इच्छा न हो, वे चाहे जितना
मना करते जायँ, वे चाहे इन फेरीवालों को झिड़कें, फटकारें
भी परंतु उन्हें अपनी गठरी फैलाकर सामान दिखाने से
एक आया, दो आए, दस आए और वात की बात में
मकान भर गया। अब यदि यात्रियों की कोई गठरी ले गया
तो क्या और चौका छू गया तो क्या! झूठे भी परले सिरे के।
एक चीज का मूल्य १० रूपया बतलाया। ग्राहक से एक
बार दो बार दस बार खरीदने का आग्रह किया, उसने यदि
नाहीं की तो उसकी कुछ न सुनी। उसने मदि वहाँ से उठा
देना चाहा तो उठे कौन? अंत में उसने झुँझलाकर उस
चीज का डेढ़ रुपया कह दिया क्योंकि बेचनेवाला कुछ न कुछ
कीमत सुने बिना टलनेवाला नहीं। लाचार यात्री को अपना
पिंड छुड़ाने के लिये कुछ कहना पड़ा और बेचनेवाला थोड़ी सी,
भूठमूठ आना कानी दिखाकर डेढ़ में दे गया, किंतु सँभाला तो
उसमें बारह आने का माल। बस एक बार ठगाकर पंडितजी
को शिक्षा मिली तब से इन्होंने वहाँ चीज खरीदने की कसम
खाई और जोश में आकर कह भी दिया कि "ऐसे ऐसे बेईमान
देशशत्रुओं की बदौलत भारतवासी अन्न बिना तरसते हैं, यहाँ
का व्यापार धूल में मिल रहा है।" वह फिर कहने लगे --
"बेईमानी का भी कहीं ठिकाना है? विचारे गया को ही
क्या दोष दें? देश भर बेईमानी से भर गया है। ठगों ने,
मुर्खों ने और स्वार्थियों ने प्रसिद्ध कर दिया है कि झूठ बोले
बिना व्यापार हो ही नहीं सकता। ऐसे पुराने घाघों को ही
क्या कहा जाय, स्वदेशी के नाम से क्या कम बेईमानी होती
है। देश के दुर्भाग्य से ऐसे अनेक नर-पिशाच विद्यमान हैं
जो स्वदेशी की दुहाई देकर विदेशी चीजों से प्रजा को ठगते हैं।
विलायती घृणित, अपवित्र और अशुद्ध चीनी देशी के नाम से
बेची जाती है, विलायती सामान का ट्रडेमार्क बदलकर देशी
बना लिया जाता है अथवा देशी नामधारण कराकर विलायत
से ही बनवा मँगवाया जाता है। जिन लोगों का सिद्धांत ही
यह है कि झूठ के बिना व्यापार चल नहीं सकता उनके यहाँ
यदि दूने, चौगुने, अठगुने दामों पर ग्राहक ठगे जावें तो
अचरज क्या? माल में बेईमानी, तोल में बेईमानी, मोल में
बेईमानी। जहाँ देखो वहाँ बस केवल -- "बेईमानी, तेरा
आसरा!" जब देश की ऐसी खोटी दशा है फिर उन्नति का
वास्ता क्या? कर्म तो हमारे रौरव नरक में जाने योग्य और
स्वप्न देखे स्वर्ग जान का! यह एकदम असंभव है। तिस
पर अपने ही पैरों से देशी व्यापार का इस तरह कुचलते हुए
हम दोष युरोपियन लेागों पर डालते हैं। परंतु कहाँ है हममें
उन जैसा स्वदेशप्रेम, कहाँ है हममें वैसी सत्यनिष्ठा और
कहाँ है हमारी परस्पर की सहानुभूति? यदि हो तो हम
उनसे कौन बात में कम हैं? भला हमें एक बार करके तो
देखना चाहिए कि केवल सत्य के आधार पर व्यापार चल
सकता है या नहीं? मेरी समझ में अवश्य चल सकता है।
जो लोग सत्यप्रिय हैं उनका धंधा अब भी डंके की चोट चल रहा है।
कोई करके देख ले। जरूर चलेगा। "बस एक
भाव और नकद दाम" के सिद्धांत पर चाहे आरंभ में कुछ
अड़चन पड़े क्योंकि जहाँ सब ही व्यापारी झूठे हैं वहाँ ग्राहकों
को एकाएक विश्वास नहीं हो सकता परंतु जब थोड़े दिनों में
पैठ जम जायगी तब सत्यवत्ता को छोड़कर ग्राहक कभी, हर-
गिज भी और जगह नहीं जायँगे। यों ही खरबूजे को देखकर
खरबूजा रंग पकड़ सकता है। अब की बार घर चलकर कांता-
नाथ को इसी धंधे में प्रवृत्त करना है, यदि परमेश्वर न चाहा तो
केवल सत्यनिष्ठा से अवश्य सफदता होगी। ईश्वर मालिक है।"
पंडित जी के इस तरह लेकचर को चाहे मालदार का मांस नोचकर खा जानेवाले उन गीधों ने न सुना हो -- सुनने से ही क्या, उन स्वार्थांधों पर कुछ असर न पड़े तो न भी पड़े परंतु वह जो कुछ मन में आया जोश के मारे सुना गए। उन्होंने अपनी डायरी में भी कितनी बातें लिखीं। केवल यही क्यों वह जो कुछ नई बात पाते थे अपने पास लिखते जाते थे। अस्तु अब देखना है कि वह घर पहुँचकर क्या क्या करते हैं।
जो कुछ होगा देखा जायगा। अभी सब होनहार के अँधेरे में है। भूतकाल की रात्रि और होनहार को रात्रि के मध्य में वर्तमान का दिन हुआ करता है। अतीत काल का अनुभव और वर्तमान का प्रकाश दोनों ही मिलकर होनहार पर रोशनी डाला करते हैं। यही संसार का नियम है। परंतु सर्वोपरि परमेश्वर की इच्छा है; वही मुख्य है। उसके बिना मनुष्य किसी काम का नहीं। बिकुल रद्दी। निकम्मा।
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