आदर्श हिंदू २/प्रकरण-४६ कर्म-फल का खाता

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आदर्श हिंदू दूसरा भाग  (1928) 
द्वारा मेहता लज्जाराम शर्मा

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प्रकरण--४६
कर्म-फल का खाता

गया के स्टेशन से ही पंडित, पंडितायिन और गोड़बोले ड्योढ़े दर्जे की गाड़ी में और और साब तीसरे दर्जे में सवार हुए। जब ये आस्तिक हिंदू थे तब ट्रेन में खाना पीना बंद और मार्ग कुँओं का अभाव होने से नलों का पानी पीना भी बंद। अस्तु यह तो इस पार्टी की साधारण बात भी। मार्ग में केवल एक के सिवाय कोई विशेष घटना नहीं हुई किंतु वह एक भी ऐसी हुई जिसने समस्त मुसाफिरों के कान खड़े कर दिए। गया से चार पाँच स्टेशन आगे बढ़ने पर तीसरे दर्जे की गाड़ी में एक मेहतर आ बैठा। वह वास्तव में मेहतर था अथवा जगह करके आराम से पैर फैलाकर सोने के लिये बनाया गया था, सो नहीं कहा जा सकता क्योंकि आज- कल ऐसी नीचता बहुधा देखी जाती है। मैं इसे नीचता इसलिये कहता हूँ कि येही हिंदुओं के गिराब के लक्षण हैं। संसार का नियम है कि समस्त जातियाँ नीचे से ऊपर की और जा रही हैं। भारतवर्ष में ही जब शूद्र और अति शूद्र तक द्विज बनने का प्रयत्न करते हैं तब द्विज स्वार्थवश थोड़े से आराम के लिये यदि भंगी बन जाय तो उसे क्या कहें?
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अस्तु जिस गाड़ी में वह चांडाल घुसा उसी में भगवान- दास, भोला आदि बैठे हुए थे। बूढ़े बुढ़िया और उनके डर से गोपीबल्लभ भले ही चुप रहा किंतु भोला से ऐसा अधर्म सहा न गया। उसने तुरंत ही उठकर मेहतर को लाल लाल आँखें दिखलाई और धक्के देकर गाड़ी से निकाल दिया। इस पर बहुत शोर गुल मचा, आपस में गाली गलौज का अवसर आया और अंत में हाथा पाई भी हो पड़ी। स्टेशन के नौकर चाकर अपना काम काज छोड़कर वहाँ आ खड़े हुए, मुसाफिरों का झुंड का झुंड वहाँ इकट्ठा हो गया और बीच बचाव करने के लिये पुलिस भी आ डटी। पुलिस जिस समय दोनों को गिरफ्तार करके चालान करने की तैयारी करने लगी तब पंडित जी भी इस संदेह से उतरकर उनके पास पहुँचे कि "कहीं छापने साथियों में से कोई न हो।" उनको विशेष संदेह भोला पर ही था क्योंकि जैसा वह गरीब था वैसा ही उजड्ड भी था। उसकी सूरत देखते ही उनका संदेह सचाई में बदल गया। उन्होंने क्रोध में आकर भोला को बहुत ही डाँट-डपट बतलाई। जिस समय वह भोला को फटकारते और बीच बीच में मामला न बढ़ाने के लिये पुलिस से चिरौरी कर रहे थे उनकी एकाएक नजर उस मेहतर पर पड़ी। देखते ही एकदम वह आग बबूला हो गए। क्रोध के मारे इनके होंठ थरथराने लगे, शरीर काँपने लगा और रोंगटे खड़े हो आए। उन्होंने अपने आप को तुरंत हो सँभाला। [ २२९ ]वह क्रोध का भूत सवार होने पर पछताए भी किंतु उनसे कहे बिना न रहा गया। वह उस मेहतर की ओर मुँह करके कहने लगे --

"क्या तुम वास्तव में भंगी हो? मेहतर हो तब गले में जनेऊ क्यों डाल रखा है? राम राम! तुम्हें लाज नहीं आती! जब तुमने अपनी जबान से स्वयं भंगी होना स्वीकार कर लिया तब हो चुके। तुम्हारी जातिवालों को चाहिए कि तुम्हें जाति से बाहर कर दें। जैसी मनशा वैसी दशा। इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में अवश्य भंगी होगे। तुम्हारे कर्म तुमसे लातें मार मार कर पायखाना उठवावेंगे। खैर, दूसरे जन्म की बात जाने दो परंतु पुलिस के चालान करने पर जब अदालत में तुम्हें खड़ा किया जायगा तब?"

इस पर वह व्यक्ति घबड़ाया। वह रोने लगा और पुलिस की खुशामद करके उसने जैसे तैसे अपना पिंड छुड़ाया। इस समय भीड़ में से आवाज आई -- "हम जानते हैं। यह न भंगी है और न ब्राह्मण। यह उन जातियों में से है जो समय के फेर से ब्राह्मण बनना चाहती हैं।" बस, इसी समय घंटी हुई और सब अपनी अपनी गाड़ियों में जब सवार हो गए तब रेल सीटी बजाकर धक धक करती हुई वहाँ से चल दी। ऐसे ट्रेन यद्यपि वहाँ से रवाना हो गई परंतु पंडितजी का क्षोभ न मिटा। हिंदुओं की अवनति पर दुःखित होते, ऐसे ही विचारों की तरंगों में मग्न होकर चिंता करते हुए जब वह
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जा रहे थे तब उस दर्जे के एक मुसाफिर ने इनका मौन तोड़ा। वह बोला --

"देखिए! इस अधोगति का कुछ ठिकाना है? देश एक बार अवश्य डूबेगा! काटो तो हमारे शरीर से जैसे लहू निकलता है वैसे ही भंगी के शरीर में से। फिर इतनी घृणा क्यों? हमारा शरीर भी तो मल-मूत्र से भरा हुआ है। वे बिचारे हमारा इतना उपकार करते हैं और हम लातें मार नारकर उन्हें गिरा रहे हैं? इस छुआछूत ने हिंदुओं का सर्वनाश कर दिया।"

"वास्तव में अधोगति का ठिकाना नहीं और ऐसे लोगों की बदौलत जब तक भगवान् कल्कि अवतार धारणा न करें, राजा कलि अवश्य इस देश डुबो देगा किंतु आपके विचार में और मेरे विचार में धरती आकाश का सा अंतर है। छुआछूत देश को चौपट करनेवाली नहीं। 'आचारः प्रथमो धर्मः।' इस सिद्धांत से राजाधिराज मनु की आज्ञा के अनु- सार यह भी हिंदुओं के दस धर्मों में से एक है और एक भी ऐसा जिस पर शेष नवों का दारमहार है। जब तक शरीर में पवित्रता नहीं होती, मान पवित्र नहीं हो सकता और मन पवित्र हुए बिना -- 'धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिंद्रिय- निग्रहः। धीर्विधा सत्यमक्रोधः दशक धर्मलक्षणम्।' का साधन नहीं हो सकता। अनेक जन्मों तक के घोर पापों का संचय होकर उसने भंगी का शरीर पाया है, अब भी वह वैसे
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ही कुकर्मों में प्रवृत्त है। यदि वह वाल्मीकि, नारद, शवरी, रैदास आदि भगवदीय सज्जनों का सा सुकर्म करे तो उसे कौन गिरा सकता है? परमेश्वर के लिये सब समान हैं। उसके यहाँ जाति-पाँति का कुछ भेद नहीं। 'जाति पाँति पूछै नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई'।"

"अच्छा , तब आप भी मेरी तरह कर्म से जाति मानते है। कर्म से वर्ण माननेवालों से कुछ वहस नहीं। वास्तव में कर्म से ही जाति है। अंतःकरण भी इसी को स्वीकार करता है।

"नहीं जनाब, केवल कर्म से ही जाति नहीं। अच्छी जाति में, कुल में जन्म लेकर मनुष्य को अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार कर्म करना चाहिए।"

"तब आपके बतलाए हुए भक्त जन केवल कर्म करने ही से क्योंकर परम पद के प्राप्त हुए? यहाँ से आपकी गोटी गिर गई?"

"गिरी नहीं! जरा समझकर सुनिए। कभी गिर नहीं सकती। भगवान् के यहाँ साहूकारों की तरह हमारा खाता खुला है। जो हम शुभ कर्म करते हैं वे उसमें जमा होते है और अशुभ कर्म हमारे नाम लिखें जाते हैं। यह हिसाब एक जन्म का नहीं, अनेक जन्मों का इकट्ठा है। केवल एक ही, वर्तमान जन्म के कर्मों से हिसाब न लगाइए। यदि एक ही जन्म का हिसाब लगाकर आप किसी को
[ २३२ ]उच्च अथवा नीच मान बैंठेंगे तो भगवान् का खाता मिट्टी हो जायगा। मुसलमान और ईसाइयों की तरह भगवान् को प्रलय के बिन सब के पोथे खोलने पड़ेंगे। मेरे बतलाए हुए भक्तों की पूर्व संचित पापराशि पूर्व जन्म में ही अधिकांश नष्ट हो चुकी थी। उधर उनके पापों का थोड़ा हिसा शेष था और इधर उन्होंने इस जन्म में उत्कृष्ट पुण्य संचय किया, परमात्मा की असाधारण भक्ति की, जो कुछ किया चित्त की एकाग्रता से, अनन्य भक्ति के साथ किया। अब भी ऐसे उत्कृष्ट कर्म करनेवाले पूजे जा सकते हैं। उन्हें आवश्यकता ही नहीं होती कि कोई उन्हें नीचे से ऊँचा उठाने के लिये प्रयत्न करे, सिफारिश करे किंतु आप लोग नई टकसाल खेलकर शूद्रों को द्विजत्व का सार्टिफिकेट देना चाहते हैं उनमें कोई वाल्मीकि और नारद के समान है भी? हो तो बतलाइए!"

"तब क्या आपका मतलब यही है कि जो जैसा है वह वैसा ही पड़ा रहे। किसी की उन्नति की चेष्टा ही न की जाय? तब अवश्य चौपट होगा!"

"नहीं इसमें भी आप भूल करते हैं। मेरी मनसा ऐसी कदापि नहीं हो सकती। मैं मानता हूँ और शास्त्रों के सिद्धांत पर मानता हूँ। गीता में भगवान् श्रीकृष्णचंद्र ने आज्ञा दी है कि --
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥१॥
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शमो दमत्तपः शौचं क्षांतिरार्जवमेव च।
ज्ञानविज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वमावजम् ॥२॥
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥३॥
शौर्यं तेजो वृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
कृपिगांरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ॥४॥
स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नरः॥

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बस, इन महावाक्यों के अनुसार मानता हूँ कि जो जिस कर्म में अभिरत है उसी में उसे सिद्धि प्राप्त होती है। केवल वर्णाश्रम धर्म का पालन होना चाहिए।"

"इसमें आपका हमारा मतभेद नहीं किंतु इससे जन्म से वर्ण सिद्ध नहीं होता।"

"सिद्ध क्यों नहीं होता? जब आप पुनर्जन्म मानते हैं, पूर्वजन्म के शुभाशुभ फलों से उच्च और नीच जाति में जन्म ग्रहण करना मानते हैं तब आप कैसे इसे नहीं मान सकते?"

"अच्छा, तब नीचों की उन्नति क्योंकर हो? १ ठेड़, चमार, मंगी और ऐसे ही अंत्यज केवल हमारी छुआछूत से अधिक अधिक गहरे गढ़े में गिर रहे हैं।"

"उन्हें निकालना चाहिए, उनको सदुपदेश देकर उनके मद्यपानादि दोष छुड़ाने चाहिएँ। उनके जो पेशे हैं उनकी उन्नति करने के लिये उन्हें आर्थिक सहायता देनी चाहिए। [ २३४ ]
बाँस का सामान बनाने और चमड़े का काम कराने के लिये उनकी कारीगरी का सुधार करना चाहिए। उनकी भगवान् में भक्ति बढ़े ऐसा उपदेश देना चाहिए। बस हुआ। अब यदि इतनी मदद देकर आपने उनके हाथ का छुआ पानी न पिया सो क्या हानि हुई ? यदि छुआछूत ही विनाश का हेतु होती तो संक्रामक रोगों में इसकी व्यवस्था क्यों की जाती? एक ओर डाक्टर लोग छुआछूत बढ़ा रहे हैं और दूसरी ओर धर्म के तत्त्वों को न समझकर, वैद्दक के सिद्धांतों पर पानी छोड़कर चिर प्रथा मेटने का प्रसन्न! घृणित कर्म करनेवालों के स्पर्श का अवश्य असर होगा। इसी लिये हमारे यहाँ केवल अंत्यजों के साथ ही नहीं वरन् हम रजस्वला स्त्री का स्पर्श नहीं करते, अशौच में किसी का स्पर्श नहीं करते, पाय- खाने जाने के बाद स्नान करते हैं। हम अपवित्र माता पिता तक को जब नहीं छूते हैं तब अंत्यज क्या चीज? जाने रहिए, यदि आपने उनका पेशा छुड़ाकर उन्हें उच्च वर्णों में संयुक्त कर लिया तो किसी दिन आपको नाई, धोबी, भंगी, चमार नहीं मिलेंगे। उस समय आपको उन लोगों की जगह लेनी पड़ेगी। इस कारण उन्नत्ति के बहाने से हिंदू समाज में अधर्म का गदर न मचाइए। परंपरा से, पीढ़ियों से जो खानदान जिस काम को करता आया है उसी को वह अच्छी तरह कर सकता है। उस पेशे को सीखने में उसे जितनी सुविधा है उतनी नए खिलाड़ी को नहीं। इसलिय ब्राह्मणों को ब्राह्मण
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ही रहने दीजिए। उनसे जूता सिलवाने का काम न लीजिए। यदि उनमें कोई गिर गया हो तो उस पर लातें न मारिए।"

"बेशक आपका कथन यथार्थ है। आज बहुत वर्षों की भ्रांति दूर हो गई।" कहता हुआ वह मुसाफिर भुवनेश्वर के स्टेशन पर उतर गया। इच्छा इनकी भी हुई थी किंतु विचार करते करते ही गाड़ी चल दी। तब इन्होंने श्री जगदीश के चरणों में लौ लगाई। इस विचार में मग्न होते होते ही वह भक्तशिरोमणि सूरदासजी के पद गाने लगे --

बिलावल -- "आज वह चरन देखिहों जाय। टेक।
जे पद कमल रमा निज कर तें सकै न नेक भुलाय॥
जे पद कमल सुरसरी परसे भुवन तिहूँ जस छाय।
जे पद कमल पितामह ध्यावत गावर नारद चाय॥
जे पद कमल सकल मुनि दुर्लभ हौं देखों सात माय।
सूरदास पद का परसिद्दों मान अति भ्रमर उड़ाय॥
चकई री चल चरन सरोवर जहँ नहिं प्रेम वियोग।
जेहिं निस दिवस रहत इकबासर सो सागर सुख जोग॥
जेहिं किंजल्क भक्ति जब लक्षण काम ज्ञान रस एक।
निगम, सनक, शुक, शारद, नारद मुनि जन भृंग अनेक॥
शिव विरंचि खंजन मन रंजन छिन छिन करत प्रवेश।
अखिल कोश तहँ बसत सुकृत जल प्रकटल श्याम दिनेश॥
सुनु मधुकर भ्रम तजि कुमुदिनि को राजिव बट की आस।
सूरज प्रेम सिंधु में प्रफुलित तहँ चल करहिं निवास॥"

[ २३६ ]ऐसे गाते गाते ही उन्हें राक्षसराज विभीषण के मनोरथ स्मरण

हो आए। "अहा! कैसा मनोहर दृश्य है। कथा का स्मरण होते ही अंत:करण में कैसे भाव उत्पन्न हो उठे। वास्तव में विभी- षण धन्य था जिसने भगवान् रामचंद्र के दर्शन जाकर किए। तबसे उसने रावण-सभा का त्याग किया उसे एक एक पद पर, एक एक कदम पर, अश्वमेघ यज्ञ का फल होना चाहिए। इससे भी बढ़कर। इसके आग वह कोई वस्तु नहीं। सूरदासजी के मनोरथ और विभीषण ले मनोरथ्य समान ही समझो किंतु विभी- षण से सूरदासजी को और सूरदासजी से विभीषण को फल अधिक मिला। दोनों में से नहीं कहा जा सकता कि किसे विशेष मिला। एक श्रीगोलोकबिहारी के कारणों की युग युगांतर तक सेवा और दूसरे को अखंड ऐश्वर्ययुक्त राज्य। प्रभु चरण कमलों में पहुँचने पर भी प्रवृत्ति। गोस्वामी तुलसी- दासजी के शब्दों में विभीषण का मनोरथ था --

चौपाई -- चलेउ हरखि रघुनायक पाहीं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं॥
देखिहौं जाय चरन जलजाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद परसि तरी ऋषिनारी।
दंडक कानन पावनकारी॥
जे पद जनकसुता उर लाये।
कपट कुरंग संग धर धाये॥

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हर उर सर सरोज पद जेई।
अहो भाग्य में देखब तेई॥

दोहा -- जिन पायन के पादुका, भरत रहे मन लाय।

ते पद आज बिलोकिहौं, इन नयनन अब जाय॥

यों उसका मनोरथ निःसंदेह केवल अव्याभिचारिणी भक्ति पाने का था और उसे मिल भी गई किंतु साथ ही लंका का राज्य भी उसके गले मढ़ दिया गया। फल यही हुआ कि जो कुछ भगवान् को कर्तव्य था। उसने प्रार्थना की थी कि --

उर कछु प्रथम वासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो रही॥
अब कृपालु मोहि भक्ति सुपावनि।
देहु कृपा करि शिव मान भावनि॥

इससे स्पष्ट है कि दर्शन करने से पूर्व उसे जो राज्य पाने की वासना थी वह एकदम नष्ट हो गई। अब उसे बिलकुल इच्छा न रही कि राज्य कोई वस्तु है। उसने परमेश्वर की अविचल भक्ति के आगे संसार को तुच्छ समझा और भगवान् ने "एवमस्तु" कहकर उसे वह बी भी परंतु साथ ही --

चौपाई -- एवमस्तु कहि प्रभु रणधीरा।
माँगा तुरत सिंधु कर नीरा॥
जदपि सखा तोहि इच्छा नाहीं।
मम दर्शन अमोघ जग माहीं॥

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दोहा -- रावन क्रोध अनल निज, श्वास समीर प्रचंड।
जरत विभीषण राखेउ, दीन्हउ राज अखंड॥
जो संपद शिव रावणाहि, दोन्ह दिये दस माथ।
सो संपदा विभीषणहि, सकुचि दोन्ह रघुनाथ॥

पितामह भीष्म जैसे और भी भक्त अनेक होंगे जिनको अपनी हार दिखलाकर भगवान् ने जिताया है। परंतु याहाँ उससे कान पकड़कर राज्य करा लिया और सो भी उस समय राज्य दे दिया जब लंका का एका काँगूग भी नहीं टूटा था। वानरी सेना समुद्र ने इस पर पड़ी हुई टक्करें खा रही थी। धन्य! आपकी लीला अपार है। भला वे बाधाएँ बड़े बड़े भत्तों की हैं। उनके आगे मैं किस गिनती में! धरती में पड़ना और महलों का स्वप्न! छोटे मुँह बड़ी बात! खैर! महाराज जैसी आपकी इच्छा! मुझे राज्य नहीं चाहिए, स्वर्ग नहीं चाहिए, मोक्ष नहीं चाहिए और संसार का सुख नहीं चाहिए। जब जिस स्थिति में आपको मुझे रखना हो रखिए। केवल आपके चरणारविंदों में अव्यभिचारिणी भक्ति की अपेक्षा है और कृपासागर को अमोघ अमृत के एक बिंदु की।"

बस, इस प्रकार से जब पंडितजी मन ही विचार करते जाते थे "जगदीश महाराज की जय!" का स्वर इनके कानों में पड़ा और नील चक्र के दर्शन करते हुए यह अपने साथियों को लेकर पंडा महाराज के गुमाश्ते के साथ उनके मकान पर, ठहरने की जगह, जा पहुँचे।

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