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आदर्श हिंदू २/प्रकरण-४५ मातृस्नेह की महिमा

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आदर्श हिंदू दूसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ २१८ से – २२६ तक

 

प्रकरण--४५
मातृस्नेह की महिमा

गत प्रकारण के अंत में शास्रार्थ में सनातन धर्म के विजय होने से जन साधारण ने जयध्वनि के साथ जिस तरह आनंद प्रदर्शित किया सो लिखने की आवश्यकता नहीं और न यहाँ पर राह दिखलाने की आवश्यकता है कि यहां के गयावालों की घबड़ाहट मिट गई क्योंकि जब "यतों धर्मस्ततो जयः" का सिद्धांत अटल है तब इसमें आश्चर्य ही क्या? किंतु इस जगह एक बात के लिये विपक्षी भाइयों का अवश्य कृतज्ञ होना चाहिए। जो अश्रद्धा की, अधर्म की आग भीतर ही भीतर सुलगकर लोगों की पितृभक्ति का नष्ट कर रही थी, जिससे हजारों लाखो आस्तिकों में आस्तिक नाम धारण करनेवाले नास्तिकों का दल अपने धर्म के सिद्धांत न जानने से बढ़ रहा था वह एकदम बंद हो गया। शरीर में थोड़ा बहुत विकार जब तक विद्यमान रहे तब तक आदमी उसकी ओर से बेखबर रहता है किंतु जब वह इस तरह जोर पकड़ बैठता है तब उसे झख मारकर इलाज की सूझती है। इसलिये मानना चाहिए कि बीमारी भी ईश्वर की कृपा का फल है। दुःख अंत:करण का रेचन है।

अस्तु! फल यह हुआ कि गयावालों की आँखें खुल गई। अब उन्होंने समझ लिया कि हमारी काठ की हँडिया बार बार

न चढ़ेगी। अब वे लोग कमर बाँधकर अपनी संतानों को विद्या पढ़ाने पर, धर्मशिक्षा देने को और संस्कृत की उन्नति करने के लिये तैयार हुए। इसका यश वाचस्पति को मिला। ईश्वर करे यह लेखक की कल्पना ही न निकले। यदि सच- मुच इस तरह सुमार्ग में प्रवृत्ति हो जाय तो सौभाग्य!

अब इस पंडित पार्टी को गया से बिदा होने के सिवाय वहाँ कुछ काम न रहा। बस के लोग गाया गदाधर के दर्शन करके कृत्यकृत्य होते हुए विष्णुपद को साष्टांग प्रणाम करके अपने अपने पिता माता का स्मरण करते हुए वहाँ रहे रवाना हुए। पंडितजी के साथवालों में से किसी के मुख से यह निकल गया कि "अब पितृॠण से मुक्त हुए।" पंडितजी उस समय ध्यान में मग्न होकर अंतःकरण से शुद्ध, स्वस्थ और स्वच्छ पट पर याद की लेखनी से और विचार की स्याही से अपने माता पिता का भावपूर्ण चित्र लिख रहे थे। वह लिखते जाते थे, बीच बीच में मुसकुराते जाते थे और साथ ही प्रेमाश्रु बहाने तथा गद्गद होत जाते थे। अचानक उनके कानों पर यह भनक पड़ी। वह एकाएक चौंक पड़े। उन्होंने कहा --

"हैं किसने कहा कि पितृॠण से मुक्त हो गए। हाँ! शास्त्र की मर्यादा से अवश्य मुक्त हो गए, शास्त्रकार यदि ऐसी मर्यादा न बाँधते तो कोई श्राद्ध ही न करता। क्योंकि बोहरे का रुपया चुकाने की ओर ऋणी की जब ही प्रवृत्ति होती है जब उसे आशा हो कि किसी ना किसी दिन पाई पाई

चुककर मैं उऋण हो जाऊँगा। किंतु उनके निष्कपट, निश्चल और नि:स्वार्थ उपकारों को देखते हुए कहना पड़ता है कि मुक्त नहीं हुए। शास्त्रों में यह भी तो लिखा है कि एक बार के गया श्राद्ध से गाता से तीन दिन तक उऋण होते हैं।"

"क्यों जी माँ बाप में इतना अंतर क्यों?"

"निःसंदेह दोनों के उपकार निःस्वार्थ ही होते हैं किंतु पिता से माता में निःस्वार्थता की मात्रा अधिक होती है। पिता पुत्र को पढ़ा लिखाकर कुछ बदला भी चाहता है। वह चाहता है कि लड़का विद्वान, बुद्धिमान होकर धन कमावे, यश कमावे और नाम कमावे किंतु मातृस्नेह अलौकिक है। उसमें स्वार्थ का लेश नहीं। यह बदला बिलकुल नहीं चाहती। यदि उसके प्रेम में किंचित भी बदले का अंश होता तो पशु पक्षी अपनी संतान का लालन पालन क्यों करते? बेटा कपूत होने पर बाप उसे फटकारता है, मारता पीटता है किंतु माता! अहा! माता का स्नेह! वह अलौकिक स्नेह है! बेटा चाहे जैसा कपूत हो, माता को कैसा भी क्यों न सतावे किंतु माता कभी उससे क्रुद्ध नहीं होती, कभी उसका जी नहीं दुखने देती, कभी उसे मारना पीटना सहन नहीं कर सकती और यहाँ तक कि पिता यदि अपराध करने पर उसे मारे तो उसके बदले स्वयं पिटने को तैयार होती है।"

सबने कहा -- "अवश्य ठीक है। बेशक सत्य है।" किन्तु प्रियंवदा कुछ न बोली। चुपचाप सुनती रही। शायद इस-

लिये कि सबके सामने पति से बातें करने में उसे लज्जा आती थी। परंतु हाँ! मन ही मन मुसकुराती रही। मन ही मन कहती रही कि "तब तो इस अंश में प्राणनाथ से भी मेरा दर्जा बढ़कर है।" उसके हृदय ने पति परमेश्वर को यह बात जतला भी देनी चाही किंतु आँखों की झेंप के सिवाय ओठों के कपाट वाक्य निकाल देने के लिये खुले नहीं। उनमें लाज का ताला पड़ गया और उसने फिर समय पाने पर विनोद के लिये पति को एक हलका सा ताना देने का ठहराव कर लिया।

ये उस समय की बातें हैं जब ये लोग जगदीशपुरी जाने के लिये गया स्टेशन पर बैठे हुए ट्रेन की राह देख रहे थे। वहां भी पुरी जाने के दो मार्ग हैं। एक कलकत्ता होकर और दुसरा बाला बाल । इनके साथियों में से कितनों ही की राय कलकत्ते होकर जाने की थी। उन्होंने कलकत्ते जैसे एक विशाल नगर की सैर और काली माई के दर्शन, बस ये दो लाभ बतलाए। एक गौड़बोले के छोड़कर सबकी राय इस ओर झुक गई। थेाड़े से खर्च के लिये पंडितजी किसी का मन मारनेवाले नहीं थे। वह यह भी अच्छी तरह जानते थे कि कलकत्ते जाने से जो अनुभव हो सकता है वह असाधारण है किंतु दो बातें उनके अंतःकरण में खटकीं। काली माई के दर्शन करते समय वही बलिदान का वीभत्स दृश्य आँखों के सामने आ जायगा। याद आते ही उनका हृदय दया से भर गया। उन्होंने कह दिया --"तंत्र शास्त्रों के मत

से चाहे पशु-बलि विहित भी हो तो हो किंतु मैं ऐसा दृश्य देखने में असमर्थ हूँ। एक बार की घटना याद करके मेरा हृदय टुकड़े टुकड़े हो रहा है। इसी लिए मैं भगवती विंध्यवासिनी के दर्शनों का आनंद लेने से वंचित रहा,रहा,इसी कारण कलकत्ते जाने को भी जी नहीं चाहता है। हे माता, क्षमा करो। हे जगजननी रक्षा करो। मैं आपका अयोग्य भक्त हूँ। मैं मूढ़ हूँ। आपकी महिमा को आपकी, लीला को नहीं जानता। आप सचमुच ही गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में -- 'भव भव विभव पराभव कारिणि। विश्वविधा हनि स्वबस बिहारिणि हो'। माया और ब्रह्म का जोड़ा हैं। जैसे ब्रह्म से माया की रचना है वैसे ही माया बिना ब्रह्म नहीं। माता! मुझे क्षमा करो। मुझ पर दया करो।" कहते हुए पंडितजी चुप होकर थोड़ी देर तक विचार में पड़ गए। उनमें हे एक ने फिर पूछा --

"परंतु अनुभव?"

"हाँ! वास्तव में वहाँ जाने से अनुभव का लाभ विशेष है। कलकत्ता व्यापार का, दिशा का, सभ्यता का और कमाई का केंद्र है किंतु इन लाइ के अमृत में हलाहल विष मिला हुआ है। बलिदान के अधर्म में तो धर्म की आड़ भी है किंतु उसमें में घोर अधर्म है। याद करते ही रोमांच हेते हैं, कहते हुए जिह्वा टूटी पड़ती है और हृदय विदोर्ण हुआ जाता है। धर्म की बात जाने दीजिए। जो लोग देशरक्षा के लिये, खेती का सर्वनाश होता देखकर, घी और दूध के आग के मोल बिकने पर भी, शुद्ध में मिलने से भी यदि नहीं चेतते तो उनकी बात जाने दीजिए किंतु वहाँ फूँका का अनर्थ बड़ा भारी हैं।"

"हैं फूँका क्या?"

फूँका की नली लगाकर गौओं से बलपूर्वक दूध दुह लिया जाता है। बात इस तरह है कि हरियाणो और कोशी जिले में जो अच्छी अच्छी गाएँ गर्भवती होती हैं उन्हें कलकत्ते के हिंदू ग्वालें खूब दाम देकर खरीद ले जाते हैं। ऐसे समय में खरीदते हैं जब उनके बच्चा पैदा होने में अधिक दिन बाकी न रहें। कलकत्ते पहुँचने पर जब वे व्याती हैं तब बच्चे तुरंत ही कसाई के हाथ बेंच दिए जाते हैं। यदि भैसों की तरह गायें भी बच्चे बिना दूध दे दिया करती हों तो उन्हें फूँके का कष्ट न उठाना पड़े परंतु उनमें संतान-प्रेम का जो महद् गुण है उसी से कलकत्ते जाकर उन पर कष्ट के पहाड़ टूट पड़ते हैं। कलकत्ते से जमीन महँगी, दुर्मिल और किराया अनाप सनाप। फिर उन बिचारियों को ग्वालों के यहाँ सुख से बैठने के लिये जगह कहाँ? जब चरने के लिये बाहर जाने को वहाँ कोई गोचारण की भूमि नहीं तब यदि दिन रात वे थान में बँधी रहें तो इसमें कुछ अचरज नहीं, परंतु उन्हें बैठने के लिये भी पूरी जगह नहीं मिलती। थोड़ी थेाड़ी नपी हुई जगह में वे बाँधी जाती हैं और सो इस तरह

से कि पारी पारी से एक एक को बैठकर विश्राम लेने का अवसर मिल जाय। प्रयोजन यह कि एक थोड़ी देर बैठकर जब सुस्ता चुकती है तब खड़ी होकर दूसरी के बैठने के लिये जगह दे दिया करती है। दिन रात उनका यही हाल रहता है।"

"वास्तव में बड़ा अनर्थ हैं परंतु फकूँ क्या? शायद फूँका इससे भी भयानक होगा। तब ही अपने अब तक नहीं बतलाया।"

"हाँ बेशक! खैर कहना ही पड़ेगा। कहने को जी तो नहीं चाहता परंतु खैर! सुनो। यह निश्चय है कि गाएँ बच्चा मर जाने पर दूध नहीं देतीं, यहाँ तक कि यदि अधिक दूधवाली गाय का बच्चा मर जाय तो उसके स्तन दूध के मारे फटने लगते हैं। उनमें विकार हो जाता है। स्त्रियों को भी ऐसा होते हुए देखा गया हैं। बस इसी लिये वहाँ के ग्वाले किसी बाँस की अथवा नरसल की पतली पोलो नलियाँ उनके पीछेवाले स्थान में डालकर फूँक देते हैं। परिणाम इसका यह होता हैं कि उनके स्तनों में जितना दूध होता हैं वह अपने आप जगह छोड़ देता है। एक बात इससे और भी भयानक है कि जब उनका दूध बंद हो जाता है तब वे कसाइयों के बेंच दी जाती हैं क्योंकि दूसरी बार उन्हें गर्भ नहीं रह सकता।"

"निःसंदेह बड़ा हृदय-द्रावक व्यापार है। अवश्य ही देखने योग्य नहीं। बेशक वहाँ जाना ही न चाहिए परंतु इसका उपाय?

'हाँ उपाय हो रहा है। गवर्मेंट के कानून से फूँका लगानेवाले के दंड मिलता है। जे पकड़े जाते हैं उन पर जुर्माना अथवा सजा होती हैं। वहाँ के सज्जन भी इस प्रयत्न में हैं कि ये दोष दूर होकर शुद्ध घी और दूध मिलने लगे। कुछ कुछ काम हुआ भी है। घी में चर्बी मिलाना तो पहले था ही किंतु आज नारियल का तेल देश भर में कसरत से मिलाया जाने लगा हैं।"

"खैर! घी की बात से तो घी से रही किंतु महाराज, गौरक्षा का तो कुछ उपाय होना चाहिए। वास्तव में इसके बिना हमारी धर्म-हानि, स्वास्थ्य-हानि और धन-हानि है।"

"जो उपाय देश भर के हिंदू अपनी शक्ति भर कर रहे हैं वे अच्छे ही हैं। गोरक्षा के लिये धर्माग्रह होना ही चाहिए क्योंकि वह हमारी पूजनीया माता है। उसके उपकार रक्षक और भक्षक पर समान हैं। इससे चढ़कर उपकार क्या होगा कि वह घास खाती है और बदले में दूध देती है किंतु मेरी समझ में उसके लिये जो उपाय किए जा रहे हैं उनमें बड़ी भारी त्रुटि है। प्रायः ऐसे काम किए जा रहे हैं जिनसे एक जाति का दूसरी जाति से द्वेष बढ़े, हाकिमों को चिढ़ हो और काम का काम न हो। इनमें कभी कभी को छोड़कर विशेष दोष हिंदुओं का चाहे न हो परंतु मेरी समझ में इस प्रश्न के आग्रह के ढाँचे पर ढालने के बदले व्यापार के तलों पर लेना अधिक समयानुसार है, अधिक लाभदायक है। समय को

आ० हिं० -- १५
देखते हुए कर्तव्य यही मालूम होता है कि जो काम किया जाता है उसमें तीन चार बातों की वृद्धि की जाय। एक जहाँ तक बन सके प्रत्येक गृहस्थ अपना धर्म समझ कर शक्ति के अनुसार एक दो गाएँ अवश्य आपने घर में रक्खे। दूसरे देशी रजवाड़ों में जैसे गाँव पीछे थोड़ी बहुत भूमि गोचारणा के लिये अवश्य छोड़ी जाती है उसी तरह सरकारी राज्य की प्रजा खरीद कर इस काम के लिए जमीन छोड़ दे और उसका जो सरकारी कर हो वह संयुक्त पूँजी के व्याज में से हर साल अदा कर दिया जाय। ऐसा करने से गवर्मेंट भी कुछ रिआयत कर सकती है। तीसरे जो हिंदू कमाई को गाय वेच उसकी जातिवाले उसझा हुक्का पानी बंद कर दें। और चौथी और सबसे बढ़ कर यह कि अच्छा दूध तथा घी मिलने के लिये, गोवंश की वृद्धि के लिये, गायों की नसल सुधार कर खेती को लाभ पहुँचाने के लिये और ऐसे ऐसे अनेक लाभों के लिये कंपनियां खड़ी की जाँय। इस उधोग से गवर्मेंट भी प्रसन्न होगी और धर्म वृद्धि के साथ देश का उपकार भी होगा। कांता भैया का इरादा इस उद्योग का नमूना दिखला देने का है। उसने आरंम्भ भी कर दिया है। सफलता परमेश्वर के हाथ है।"

इस तरह बातें समाप्त होते होते रेल की घंटी हुई और ये लोग टिकट लेकर कलकत्ते का मार्ग छोड़कर सीधे जग- दीशपुरी जा पहुँचे।

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