आदर्श हिंदू २/३० हिंदी और बलिदान

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आदर्श हिंदू दूसरा भाग  (1928) 
द्वारा मेहता लज्जाराम शर्मा

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प्रकरण--३०
हिंदी और बलिदान

"मुझे मर जाना मंजूर है परंतु जनानी गाड़ी में कदापि न बैठूँगी। एक बार बैठकर खूब फल पा लिया।" कहकर जब प्रियंवदा हठ पकड़ बैठी और जब उसे अलग बिठलाने में पहले का सा भय फिर भी तैयार था सब पंडित प्रियानाथ भगवान, भोला, गोपीवल्लभ और चमेली का तीसरे दर्जे में बिठलाकर आप अपनी प्यारी को लिये हुए ड्योड़े दर्जे में जा बैठे। यहाँ इस जोड़ो के सिवाय दो स्त्रियाँ और चार पुरूष पहले से बैठे हुए थे। बस इनके पहुँचते ही औरतों की पार्टी अलग हो गई और मर्दों की अलग। सब ही ने "आइए आइए! इधर बैठिए! यहाँ आ जाइए!" कहकर इनको आराम से जगह दी। प्रियंवदा वास्तव में प्रियंवदा, मृदु- भाषिणी थी और वे ललनाएँ भी किसी भले घर की जान पड़ती थीं। बस थोड़ी देर में यह उनसे ऐसी मिल गई जैसे दूध में मिश्री। तीनों में आज खूब घुट घुटकर बातें हो रही हैं। प्रियंवदा को आज डर नहीं है कि "निगूता फिर आ भरेगा।" और वे दोनों ललनाएँ अपने अपने आदमियों का साथ न होने से अभी तक मुरझाई हुई, डरती हुई बैठी
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थी। प्रियंबदा के आने से उसका भी भय निकल गया, क्योंकि दो से तीन हो गई और तीसरी भी ऐसी जिसका आदमी साथ है।

इधर पंडित प्रियानाथ के बैठते ही किसी ने सिगरेट का बक्स और दियासलाई की डिबिया दिखाकर "लीजिए साहब" की मनुहार की है, न कोई अपने पानदान में से पान निकाल- कर इन्हें देने लगा है। कोई सोडावाटर की एक बोतल निकालकर "लीजिए थोड़ी सी और अपने दिल को 'रिफ्रेश' कार लीजिए" कहता हुआ हाथ इनकी ओर बढ़ा रहा है तो किसी ने "आपका दौलतखाना कहाँ है? मालूम होता है कि आप कोई गवर्मेंट सरवेंट हैं! कौन से डिपार्टमेंट में? अगर मेरा खयाल गलत न हो तो पोस्टल में?" इस तरह के सवाल पर सवाल करने आरंभ कर दिए हैं। पंडितजी ने एक का सिगरेट, दूसरे का पान और तीसरे का सोडावाटर धन्यवाद सहित वापिस कर दिया और अपनी जेब में से छालियाँ, इलायवी, लौंग, जावित्रो की डिबिया निकालकर सब लोगों की नजर की और थोड़ी थोड़ी लेकर तीने अदब के साथ माथे से लगाने के अनंतर खा गए किंतु जब चौथे के सामने पहुँची तब "थैंक्स! मुआफ कीजिए। मैं ऐसे कस्टम को डिसलाइक करता हूँ। इंडियंस ने बस ऐसे तकल्लुफ ही तकल्लुफ में कंट्री को बरबाद कर डाला" कहकर वह अँग- रेजी नावेल पढ़ने लगा। वे तीनों आदमी उसके ऐसे बर्ताव
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से भौचक से रहकर उसके मुँह की ओर देखने लगे और इस अर्से में पंडितजी अपनी डिबिया बंदकर जेल में डालते हुए कहने लगे --

"क्यों साहब! यह चाल बुरी क्यों है? हम लोग अकेले अकेले खाकर केवल अपना हो पेट पाल लेना बुरा समझते हैं। जो कुछ पास हुआ उसे यदि बाँटकर खा लिया, साथियों को देकर खाया तो इसमें बुराई कया हुई? यह तो परस्पर का मेल मिलाप है। ऐसे ही हिल मिलकर बैठना है। ऐसे ही हेल मेल से मित्रता हो जाती है और वह मित्रता समय पर काम दे जाती है।"

"यस, यह मुमकिन है लेकिन फिजूल टाइम को डेस्ट्राय क्यों करना? आप लोग अंगरेजी पढ़कर भी अभी तक टाइम की वेल्यू नहीं जानते।"

"समय का मूल्य तो जितना हम जानते हैं उतना आप भी नहीं जानते होंगे। ऐसे मेल मिलाप में जो समय लगता है वह खोया नहीं जाता, कमाया जाता है। अच्छा हम भारत- वासी गँवार इस प्रकार से समय को नष्ट ही करते हैं तो आप यह रेनल्ड का उपन्यास पढ़कर अपना विचार क्यों नष्ट कर रहे हैं, ऐसी अंगरेजी उर्दू की खिचड़ी बोलकर अपनी मातृ- भाषा क्यों नष्ट करते हैं और कोट पतलून के साथ ऐसा दोष लगाकर देश का रिवाज क्यों नष्ट करते हैं, हमारी जातीयता क्यों नष्ट करते हैं?"
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"नहीं, हम नेशनेलिटी कायम करते हैं। हम चाहते हैं कि ये सब पुराने कस्टम दूर होकर होल् इंडिया की एक ही लैंग्वेज हो जाय, एक ही ड्रेस हो जाय और एक ही डाएट!"

"और सो भी अँगरेजों की नकल! क्यों, यही आपका मतलब है ना? परंतु उनकी उदारता में, उनकी उद्योग- शीलता में, उनकी सहानुभूति में और उनके स्वदेशप्रेम में नहीं।"

'बस, बस! हम ज्यादह कन्वरसेशन नहीं चाहते, काइं- डली इस सबजेक्ट को यहीं ड्राप कर दीजिए।"

"अच्छा!" कहकर पंडितजी ने जिन साहब की ओर से मुँह मोड़ लिया वह खासे काले रंग के, काले ही कपड़े पहने, काले साहब थे। आँखों का चश्मा और गले का सफेद कालर यदि बीच बीच में न चमकता होता तो कसम खाने के लिये काले के सिवाय दूसरा रंग ही उनके पास न मिलता। इस तरह पंडितजी को एक साहब का परिचय तो मिल हो गया। शेष तीनों में एक हिंदू, दूसरे मुसलमान और तीसरे पारसी साहब थे। पंडितजी की तरह इन तीनों की भी अँगरेजी में योग्यता ऊँचे दर्जे की थी। एक कहीं का प्रोफेसर था, एक कहीं का वकील था और एक कहीं का व्यापारी। चारों ही अँगरेजी पढ़कर उसके सद्गुणों का अनुकरण करने और अपना धर्म, अपनी रीति-भाँति और अपनी भाषा, भेष तथा भाव न छोड़ने के पक्षपाती थे। बस चार के चारों ही काले साहब को देखकर, आपस में इशारे करते हुए एक दूसरे की
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ओर देख देखकर मुसकुराए। किसी ने कहा -- "एक रंग ही की कसर है।" कोई बोला -- "शायद खड़िया पोतले से बदल जाय।" तीसरा बोल उठा -- "सो भण साबू थी पण बदलवानूं ग थी।" और तब पंडितजी इन लोगों को रोकते हुए कहने लगें -- "जाने दीजिए साहब! इन बातों को। किसी का जी दुखाने से हमारा लाभ ही क्या है?" यों इस विषय की बातचीत बंद हुई तब एक ने पूछा --

"मजहबी ख्याल से खाना तो एक नहीं हो सकता लेकिन जबान और पोशाक बेशक एकसा हो जाने की जरूरत है और सख्त जरुरत है। एक पोशिश हो जाना कौमियत की निशानी है और वगैर जबान एक होने के एक सूबे का आदमी दूसरे पर आपने दिली ख्याल जाहिर नहीं कर सकता और जब तक दिल न मिल जाय, हमदर्दी पैदा नहीं हो सकती।"

"हाँ! आपका कहना ठीक है। भाषा एक हो जाने की बहुत ही आवश्यकता है, परंतु यदि वस्त्र एक न हों तो मैं कुछ विशेष हानि नहीं समझता। भारतवर्ष एक ऐसा देश है जिसकी उपमा पंसारी की दूकान से दी जा सकती है। इसका जलवायु कई प्रकार का, यहाँवालों की रहन सहन बीसों तरह की, इनकी रीति भाँति सैकड़ों ढंग की और यहाँवालों का धर्म भी सबका एक नहीं। इसलिये एक प्रकार के वस्त्रों से सुविधा भी नहीं हो सकती और इसकी विशेष आवश्यकता भी नहीं है। क्योंकि युरोप और अमेरिका के एक प्रकार के

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वस्त्र होने ही से उनमें मेल हो गया हो सो नहीं। अब भी वे लोग आपस में कटे मरते हैं।"

"खैर! मगर तब जबान एक कैसी? अँगरेजी तो हो नहीं सकती। बहुत जोर मारा जाय वे इसे यहाँ की मुल्की जबान बनाने के वास्ते कई सदियाँ चाहिएँ। बेशक उर्दू एक ऐसी जबान है जो कारआमद हो सकती है, क्योंकि अब तक भी यह मुल्क के एक गोशे से दूसरे गोशे तक बोली और समझी जाती है। मगर साहब, आप हा शंशकीरत के ऐसे ऐसे मुशकिल लफ्जों को ठूँस रहे हैं कि अच्छी तरह मैं समझने में भी मजबूर हूँ! आपकी जबान आम-फहम नहीं हो सकती और इस तरह की जबान कायम कर गोया आप लोग हमारे और अपने दर्मियान एक खाई खोद रहे हैं।"

"अभी नहीं साहब! कदापि नहीं! बेशक यह सवाल बड़ा टेढ़ा है। यदि हम संस्कृत के शब्दों की सहायता लेते हैं तो आप लोगों को उन्हें बोलने और सीखने में कष्ट होता है, और फारसी शब्दों को काम में लाते हैं तो हमारी भाषा बंगाली, गुजराती, मरहटे, मदरासी लोगों के लिये फ्रेंच या जर्मन हो जाती है। दुनिया की सब ही अथवा भारतवर्ष की सब भाषाएँ संस्कृत से निकली हैं और संस्कृत ही उन्हें जोड़ देनेवाली है। उन प्रांतों के आदमियों को हमारी तरह संस्कृत के शब्द अधिक काम में लाने से भाषा का समझना सीधा पड़ता है। मैंने केवल संस्कृत की सहायता से जैसे
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बँगला, गुजराती और मराठी बिना प्रयास के सीख ली है उसी तरह वे यदि पढ़ने का परिश्रम न करें तब भी यों ही गाते गाते कलावंत बन सकते हैं। क्योंकि उर्दू को छोड़कर भारतवर्ष की समस्त भाषाओं में कम से कम चालीस प्रति सैकड़ा वे ही शब्द मिलते हैं जो सबमें एक तरह से अथवा थोड़ा बहुत रूप बदलकर बोले जाते हैं। इस तरह हिंदी के प्रचार से यदि दस बीस वर्ष में भारत को एक भापा हो सकती है तो उर्दू को कम से कम सौ वर्ष चाहिएँ क्योंकि वह बिना पढ़े आ नहीं सकती और उसकी लिपि से तो भग वान् नचावे।"

"मगर खत के बाबत तो मेरा सवाल ही नहीं है। जबान का मसला किसी आसान तरीके से हल होना चाहिए। अच्छा आप ही बतलाइए कैसे हम आए, कुल हिंदोशतत्व मुत्तफिक हो सकते है?"

"दोनों के झुकने से। दोनों ही के हठ छोड़ने से। आप फारसी को कठिन कठिन शब्दों का लाना छोड़ दें और हम लोग भी सरल करने का प्रयत्न करें।"

"बेशक सही है! वाकई सच है!" कहकर वकील साहब ने अपनी बहस पूरी की। और दोनों मान जो वहाँ बैठे हुए थे "हाँ हाँ!" करने लगे और रेनाल्ड का नावेल पटड़ा पर डालते हुए काले साहब ने भी यस "यश आलराइट" कहकर इन लोगों की बात का अनुमोदन किया। ऐसे इनके एक बाद-
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विवाद की समाप्ति होकर ज्योंही दूसरे के छिढ़ने का अवसर आया ट्रेन धीरी पड़ते पड़ते रूककर "विंध्याचल! विंध्या- चल!!" की आबाज ने सब मुसाफिरों के कान खड़े कर दिए। तीसरे दर्जे की गाड़ी में से बूढ़ा, बुढ़िया और भोला अपना अपना असबाब लेकार उसर पड़े और पंडितायिन ने भी खड़ी होकर पति राम से उतरने का संकेत किया किंतु इन्होंने बूढे को ससमझकर जब लोगों को जब सदार करा दिया तब उस हिंदु मुसाफिर ने इनसे पूछा --

"क्यों पंडितजी! उतरते उतरते कैसे रह गए? मन सूबा क्यों बदल दिया?"

"हाँ! विचार अवश्य बदल दिया! मुझे एक बात का ध्यान आ गया (कुछ ध्यान करके हाथ जोड़ते और आँखें मुँदते हुए) भगवनी विंध्यवासिनी, माता जगज्जननी! दास का अपराध क्षमा करियो! माई रक्षा करो! मैं वैष्णव हूँ! बलिदान की प्रथा चाहे तंत्र शास्त्रों की अनुमोदित हो किंतु मेरा कोमल हृदय तुम्हारी लीला देखकर स्थिर नहीं रह सकता। तुम साक्षात माया हो। इस संसार की स्थिति ही तुझसे है। तुम्हारी लीला को तुमही जानो। मैं दुर्बल ब्राह्मण बलिदान के समय बकरों का करूणा क्रंदन, उनके पैरों की छटपटाहट, उनके रक्त का प्रवाह और उनका अंत समय का कष्ट देखकर मन को दृड़ रखने में असमर्थ हूँ। एक बार एक जगह भगवती की ऐसी लीला का विकट दृश्य देख चुका हूँ। [ ६९ ]
इसलिये हे माई! क्षमा मांगता हूँ। मरी इस धृष्टता का, मेरी इस दुर्वलता का, मेरी इस मूर्खता का अपराध क्षमा करो। माता, मैं तुम्हारा अपराधी हूँ। तुम्हारं चारणारविदों के निकट आकर भी दर्शन से वंचित रहता हूँ।" बस ऐसे स्तुति करते करते, भगवती दुर्गा का रतवन करते करते पंडितजी की आखों में से आँसू बहने लगे, और उनका इसी तरह ध्यान तब तक लगा रहा जब तक "मोगलसराय!" की तीन आवाजों ने इनको न जगाया।

और और मुसाफिर उसी गाड़ी में बैठे आगे निकल गए, इस यात्रापार्टी ने अवध रोहेलखंड की गाड़ी में सवार होकर कूच किया और जिस समय यह काशी स्टेशन पर पहुँचे गौड़- वोले इन्हें लेने के लिये पहले ही से स्टेशन पर मौजूद पाए गए। उनके कहने से अच्छा मकान मिलने की खबर पाकर इन्हें संतोष हुआ।


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