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आदर्श हिंदू ३/५४ जनानी गाड़ी

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आदर्श हिंदू तीसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास बी.ए.

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग, पृष्ठ ७२ से – ८८ तक

 
जनानी गाड़ी

दूसरे कंपार्टमेंट में, जिनमें प्रियंवदा सवार हुई थी, आठ दस स्तरीय और थी। उनके कपड़े लते से, उनकी रहन-सहन से और उनके वर्ताव से विदित होता था कि वे किसी भले घर की बहू बेटियां है । यदि ऐसा न होता ऐसा तो पंडित जी कुछ है कुछ और उपाय करते क्योकि दूध का जला मळे को भी फूंक फूंक कर पिया करता हैं । प्रियानाथ प्रियंवदा के उन महिलाओं में हिलं मिलकर बैठ जाने से कुछ निश्चित अवश्य हुए किंतु प्रत्येक स्टेशन पर उतर उतरकर उसकी खबर लेते रहे और रात भर इसी खटके से उन्होंने निद्रा के नाम एक पलक तक न भारी । गाड़ी में सवार होने के अनंतर आपस में जा पहचान होकर इधर उधर की गप्पे होने लगीं । जहाँ चार औरतें इकट्ठी होती हैं वहाँ या तो आपस में कलह होती हैं, या औरों की निंदा होती है और जो ये दोनों बातें न हुई और सब की सब जवान उमर की हुई तो अपने अपने शौहर की, अपने अपने बाल बच्चों की अथवा अपने अपने धन दैलरी की, रूप लावण्य की बातें होती हैं।

प्रियंवदा को इस प्रकार के निरर्थक गपोड़े जैसे पसंद नहीं थे वैसे एक और ललना भी इन स्त्रियों की ऐसी ऐसी बातों से मन ही मन कुड़ती थी । उसकी सत्रह अठारह वर्ष की जवान उमर, अच्छा मनोहर गेंडुआ रंग, गोल और सुंदर चेहरा, खंजन की सी लंबी लंबी आँखें, सिर पर मेमों का सा जुड़ा, रेशमी फूलदार साड़ी और पैरों में काले मोजे के ऊपर काली गुन्छेकार जरा जरा सी एड़ी की बढ़िया गुर्गबियाँ थीं । उसके एक हाथ में छाता और दूसरे में एक अँगरेजी किताब के सिवाय आँखे पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा चढ़ा हुआ था । हाथों में विलायती सोने की मरोड़ोदार, पतली पतली सी दो दो चूड़ियाँ और दहने हाथ की अनामिका अँगुली में वैसे ही सोने की एक अँगूठी थी । प्रियंवदा को बहुत ही घूरकर देखने पर विदित हुआ कि उस पर लैटिन भाषा का एक शब्द ढुङ्गा हुआ था जिसका अर्थ है "भूल न जाइए ।" वह ललना बार बार उस अँगूठी को देख देखकर मुसकुराती जाती थी और कहीं अँगुली में से वह गिर न जावे इसलिए सँभालती और अँगुली ही में उसे घुमाती जाती थी। दोनों ही दोनों की ओर देख देखकर न मालुम क्या विचार करने लगीं । चाहे पुरूष हो या स्त्री हो किसी नवीन यक्ति को जब कोई देखता है तब उनके मन में कुछ न कुछ भाव अवश्य पैदा हो उठता है । पुरुष पुरुष को देखें तब भाव भिन्न, पुरुष स्त्री को देखे तब भाव अलग किंतु दूसरी स्त्री के देखने पर एक ललना के मन में जो भावनाएं उत्पन्न होती हैं वे विलक्षण हैं । उनको थाह नारी-हृदय के सिवाय किसी को नहीं मिल सकती है । और रमणी-हृदय जैसे गहन होता है वैसे ही दूसरे का मन पहचान लेने की शक्ति भी उसमें अतुलनीय होती है। सर्व साधारण यदि अटकल लगाना चाहे तो अधिक से अधिक यही परिणाम निकाल सकते हैं की जैसे एक युवा पुरुष किसी सुंदरी युवती को देखकर काम-पीड़ित हेता हैं वैसे ही जवान औरत सुंदर सुडौल पुरुष को देखकर होती होगी । अथवा एक युवती दूसरी युवती को देखकर डाल कर सकती है, घृणा कर सकती हैं और दया किंतु नहीं! यह फैसला बहुत ही भद्दा है। इस फैसले में ओछेपन की इतिश्री है। चाहे कोई स्त्री हो अथवा पुरुष हो, यदि उसने थोड़े प्रतिवाद के सिवाय उस व्यक्ति का चरित्र न लिख लिया तो किया ही क्या ? दोनों ने दोनों को नख से शिख तक देख भालकर एक दूसरे के लिये क्या फैसला दिया सो मैं नहीं बतला सकता अथवा यो कहो कि में पुरुष-हृदय दोनों के नारीह्रदय का पता पाने ही में असमर्थ है। अब पाठक पाठिका को अधिकार है कि दोनों के परस्पर संभापणा से यह पा लें ।

अस्तु,जब यो ही दोनों को मौन व्रत साधे दो तीन स्टेशन निकल गए तय प्रियंवदा ने कहा--

“बहन, आप तो पढ़ी लिखी मालूम होती हैं । कदाचित आपने अँगरेजी की उच्च शिक्षा पाई है ? क्या बी० ए० ?

“हैं ? हाँ ! योही ! ( कुछ लजाकर ) इस बार बी० ए० की परीक्षा दूंगी ?" "बाल बच्चा क्या है ?

"अभी से ? अभी तो मेरी शादी में नहीं हुई ।"

"अच्छा मैं समझी ! क्षमा करना ! तब ही आप वार बार अपने प्यारे की यादगार निरख निरखकर मुसकुरा रही हैं। बहन, तुम भले ही बुरा मानो । मेरा स्वभाव मुंहफट है । इधर रेनाल्ड की प्रेम कहानियाँ पढ़ना, प्राणप्यारे की अँगूठी धारण करना, उसे बारंबार निरखना और उधर अब तक शादी न करना ! तुम ही सोचे । यह स्वतंत्रता कहाँ तक अच्छी है ? यही विवाह के पहले गौना है । आग और पास रहकर न पिघले यह हो नहीं सकता और एकांत में मिले बिना प्रेम परीक्षा काहे की ?"

“अच्छा तो (कुछ झेपकर) आपका प्रयेाजन यह है कि यह स्वतंत्रता ते बुरी और दिन रात घर के जेलखाने में जेवर की बेड़ियाँ डाले चक्की चूल्हे से माथा मारते रहदा अच्छा है । हमारे देश में वास्तव में स्त्री जाति पर बड़ा अत्याचार हो रहा है। वे या त केवल बच्चा देने के काम की हैं। अथवा अपने आदमी की गुलामी करने के । जिस देश में पति की जूठन खाना भी धर्म, उसकी लाते' खाना ही प्रेम, जहाँ पढ़ने लिखने का द्वार बंद और जहाँ अपने आदमी को पहचानने से पहले ही गुड़िया गड्ढे की तरह शादी हो जाती हैं, जहाँ विधवा विवाह घोर पाप माना जाता है वह देश कभी नहीं सँभलेगा, दिन दिन गिरता ही जायगा और इसके पाप का बोझ है हमारे शास्त्रकारों पर है, हमारे बूढ़े खुर्राटों पर है। और देश का अवश्य ही दुर्भाग्य समझना चाहिए कि हाल की पाई पोद में जो आदमी पैदा होते हैं वे उनसे भी गए बीते। खेद है! अफसोस है अफसोस है ! अनर्थ है! राम राम!"

“हाँ ! ठीक हैं ! आपके फर्माने का मतलब मैं अभी तक यही समझी हूं,मैंने यही परिणाम निकाला है कि आप स्त्रियों को पुरुषों के समान अंग्रेजी की उच्च शिक्षा दिलाना पसंद करती है, पर्दे का पर्दा तोड़कर उन्हें पुरुषों में संयुक्त कर देना, अपने लिए इच्छा वर तलाश कर लेने की छूट देना, स्त्री पुरुष का परस्पर सामान वर्ताव, नहीं नहीं (अपना कान पकड़कर) मैं भूल गई थी, पुरुषों से भी अधिक अधिकार देना, और एक पति मर जाए तब दूसरा और दूसरा मर जाए तो तीसरा कर लेने की स्वतंत्रता देना चाहती है। क्यों यही ना? तंतु एक बात कहना आप भूल गई। यदि पति नालायक निकले तो विवाह का ठेका तोड़कर दूसरा तीसरा कर लेना।"

"वेशक! वास्तव में! अवश्य! नि:संदेह!"

"परंतु आपके और मेरे विचारों मैं धरती आकाश का अंतर है। स्त्री शिक्षा से मेरा विरोध नहीं है बल्कि मैं उसकी बहुत आवश्यकता समझती हूं! हां! उसके प्रकारों में भेद है और सो भी बहुत भारी। आप उनको अंग्रेजी कि उच्च शिक्षा दिलाकर पुरुषों के समान बनाना चाहती है किंतु पुरुषों को आजकल जो शिक्षा मिल रही है वह जब उन्हीं को पढ़ लिखकर बीस वर्ष खराब कर देने पर भी, हजारे रूपए नष्ट कर डालने पर भी और "नई जवानी झांका ढोला" की कहावई के अनुसार स्वास्थ्य का खुन हो जाने पर भी कौड़ी काम का नहीं रखती तब उस शिक्षा से स्त्रियों का सर्वनाश समझो । ऐसी ऊँची शिक्षा पा लेने पर भी तेज उन्हें धर्म का किचित ज्ञान होता है और न दुनियादारी का । भले ही वे एक कारीगर के बेटे पोते हो किंतु उन्हें पढ़ लिखकर वसूला पकड़ने में शर्म आती है और जो कहीं किसी के कहने सुनने से अथवा पेट की आग ने जोर मारकर उसे उठवाया भी तो दस मिनट में बे हाँप उठेगें । यदि वे दुकान खोलने का इरादा करते हैं तो रूपया चाहिए और उसका बाप उनकी पढ़ाई में अनाप शनाप खर्च करके कर्जदार बन गया है। इसलिये पढ़ने लिखने का फल यही होता है कि वे बीस पच्चीस रुपए की नौकरी के लिये दौड़ जाते हैं, अफसर की लाते खाते हैं, गालियाँ खाते हैं और जन्म भर कुएं के मेंढक की तरह "चलते हैं लेकिन ठौर के ठौर।"बस इसलिये वे अवश्य "पहाड़ खोदकर चूहा" निकालते हैं और इसलिये कि पास’ का परवाना लेकर जब वे किसी आफिस में उम्मेदवारी करते हैं तब दो वर्ष तक उन्हें फिर काम का ककहरा सीखना पड़ता है।"

"हाँ मैंने मान लिया कि पुरुषों की शिक्षा-प्रणाली अच्छी नहीं है परंतु स्त्रियों को कैसी शिक्षा मिलनी चाहिए !" "आप जिस तरह की शिक्षा पा रही हैं, क्षमा कीजिए,वह आपको बनाती नहीं बिगाड़ रही हैं । अच्छा बतलाइए आप क्या क्या खाना बनाना जानती हैं ? यदि आवश्यकता आ पड़े तो शाहद आपको बाजार से पूरी या बिस्कुट लेकर ही गुजारा करना पड़े। अलबता आप कर सकती है की एक अच्छा वावर्ची या रसोईया नौकर रख लेगी परंतु आपके पास इतना रुपया हीना हुआ तो फिर?"

"वेशक ! यह तो त्रुटि ही है । न मैंने कभी माता के कहने पर कान दिया और न अभी तक किताबें रखने के आगे उसे सीखने का समय मिला। मदरसे मैं तो इसका वास्ता क्या? किताबे देख देखकर शायद कुछ बना लेने की हिम्मत भी करूं तो चिल्ला फुगते फूंक दे धुए के मारे आंखें फूट जायं । पढ़ते-पढ़ते आंखें पहले ही कमजोर पड़ गई है। अच्छा अब सीखने का प्रयन करूंगी "

“अच्छी बात है परंतु कपड़ा सीना ? रंगना ? और कहाँ तक कहूँ, गृहस्थी के सैकड़ों काम हैं ! उन्हें लड़कियां घर में गुड़िया खेलते समय सीख लिया करती हैं। उन पर उस समय बोझा बिलकुल नहीं पढ़ता । अब आप जिस समय शादी करेंगी, बाल बच्चे होंगे तब अपके बड़ी मुशकिल पड़ेगी ।"

“हाँ मैंने यह भी बात मान ली कि पढ़ी लिखी स्त्रियाँ घर के धंधे से बिलकुल कोरी रहती हैं। उन्हें न तो इन बातों का अभ्यास होता है और न सामर्थ्य ! और इस कारण उन्हें ऐसी शिक्षा अवश्य मिलनी चाहिए जिससे वे पहले घर गृहस्थी के उपयोगी चीजें बनाने सुधारने में होशियार हो और सब सौज शौक की बोजें सिखाई जाय । परंतु पुस्तके ?पुस्तके किस भाषा में, किस तरह की, कान कीन सी ?

“अँगरेजी बढ़ने से मुझे शत्रुता नहीं है । मैं भी ससुराल में आकर अपने उनके पास थोड़ा बहुत सीख गई हूं किंतु ऐसा नहीं है कि अँगरेजी के बिना खाना हजम ही न हो । देश भाषा का अच्छा ज्ञान उन्हें अवश्य होना चाहिए । केवल इतना ही नहीं जिससे चिट्ठी पन्नी लिय पढ़ सके । स्त्रियों के उपयोगी संस्कृत के, अँगरेजी में और फारसी अरबी के जो जो अच्छे ग्रंथ मिल सके उनका हिंदी उल्था, अच्छी अच्छी पुस्तकों के आधार पर अपने ढंग के अनुसार तैयार किए हुए उपयेागी ग्रंथ हों और यदि अवकाश मिले तो अपना मन प्रसन्न करने अथवा पति के आमोद प्रमोद के लिये कुछ गायन कविता । किंतु आपके इस रेनाल्ड़ के नाबेल की तरह ऐसी कोई भी पोथी उनके हाथ में न पड़नी चाहिए जिससे उनकी व्यभिचार में प्रवृत्ति हो । संक्षेप यह कि उन्हें ऐसी ऐसी पुस्तकें पढ़ानी चाहिएँ जिनसे उनकी परमेश्वर में अधि. चलभक्ति बढ़े, वह माता पिता का सास ससुर और शिष्ट जनों का आदर करना सीखें, पति को अपना इष्टदेव जानकर उसकी सेवा करें, पति के सिवाय पर पुरूष को, बाप भाई और मामा चाचा तक को नीहारकर, आंखें मिलाकर न देखें और न कभी अपने लज्जा का बंधन तोड़कर पर पुरूष के सामने हो ।"

"अच्छा ! पुश्तक संबंधी शिक्षा तो ठीक ही है । अँगरेजी न पढ़ने से भी कुछ खाने नहीं। अंग्रेजी जब पराए देश की और किषृ भाषा है तब उसे पढ़ने से जो ज्ञान इस वर्ष में हो सकता है उसके लिए हिंदी में दो वर्ष बहुत है। परंतु क्या पति की वही गुलामी, पर्दे का वही जेलखाना? नहीं जीजी! ऐसा न कहो!"

“पर्दे से मेरा प्रयोजन यह नहीं है कि घर की चारदीवारी के भीतरिया कैद रक्खी जाए, बाहर की कमी उन्हें हवा तक ना लगे। जहां सब स्त्रियां ही स्त्रियां हो, जहाँ स्त्रियाँ भी नेक चलन इकट्ठो हुई हो और जहाँ पुरूषों की दृष्टि न पड़ती है। ऐसे स्त्री समाज में जाना में बुरा नहीं सभझती और अदब के साथ ढंकी गाड़ी में बैठकर बाहर की हवा खाने की विधि आवश्यकता होती है परंतु स्त्रियों खाना चाहिए प्रधान भूषण है और पर्दा ही उसकी रक्षा करने वाला इसलिए पर्दे को तोड़ना अच्छा नहीं। बल्कि मेरी राय तो यहां तक कि परदे के भीतर बचलन और तो तब को ना आने देना चाहिए। मेरी देवरानी हाल ही में इसे कष्ट उठा चुकी है।"

“खैर यह भी मान लिया परंतु पति की गुलामी अब हमसे नहीं हो सकती ! सैकड़ों वर्षों से गुलामी करते करते पेट भर गया। जब परमेश्वर ने आदमी और औरत को समान पैदा किया है तब पुरुषों के समान हमें स्वतंत्रता क्यों न मिले ?"

“नहीं ? समान पैदा नहीं किया । दोनों की बनावट में अंतर, दोनों के काम में अंतर और दोनों के विचार में अंतर है। यदि समान ही पैदा किया है तो शादी होने के बाद अपने शौहर के काम की बदली कर लेनी चाहिए। उनसे कह देना कि नारियों ने युगो तक गर्भ धारण करने की घोर यातना भोग ली अब नौ महीने तक पेट में बालक रखने की मेहनत तुम उठाओ । अब हम तुम्हारे, बदले बाहर जाकर कमाई का काम करेंगी ।"

"नहीं ! (लजाकर) ऐसा क्योंकर हो सकता है ? प्रकृति के विरुद्ध !"

"जब यह नहीं हो सकता तब बराबरी भी नहीं हो। सकती ! भेरी समझ में संसार में स्वतंत्र कोई नहीं है। प्रजा राजा की परतंत्र है, राजा परमेश्वर का परतंत्र है, स्त्रियाँ पुरुषों की परतंत्र हैं और पुरुष स्त्रियों के परतंत्र हैं, यहाँ तक कि एक व्यक्ति महाराजाधिराज होने पर भी खिदमतगारों का, नाई का, धोबी का और मेहतरों का परतंत्र है। और जो आपके से विचारवाली स्त्रियाँ परतंत्रता की वेड़ी तोड़कर स्वतंत्र बनना चाहती हैं वे पति का, घरवालो का, समाज का और राजा का दबाव न मानने से कामदेव की परतंत्र बनकर व्यभिचार करती हैं, क्रोध की परतंत्र होकर पाप करती हैं

आं हिं०---६ और बस इसी तरह समझ लीजिए । विलायत को देखे । समान स्वत्व मांगने मैं वहाँ की स्त्रियों ने कितना ऊधम मचा रखा है। वे मकान जला देती हैं, पत्थर फेंकती हैं, हमले करती हैं और न मालूम क्या क्या कर डालती हैं ।"

“वास्तव में ऐसी स्वतंत्रता किसी काम की नहीं परंतु पति की उगुलामी भी अच्छी नहीं है ।"

“हाँ ! ठीक है परंतु हमारे देश में भले घर की नारियाँ पति की गुलाम नहीं होती, उनकी अद्धागिनी होती हैं। जिन जाती में ठहरौंनी के लालच से, रुपया कम पाकर अथवा पति के दुराचार से गाय भैंस का सा बर्ताव स्त्रियों के साथ किया जाता है वह अवश्य निंदनीय है क्योंकि हमारे धर्म-शास्त्रों का ही यह सिद्धति है कि स्त्री पति को और पति स्त्री को प्रसन्न रखें। जिस घर में स्त्रियों का आदर है वहाँ देवता रमण करते हैं, वहाँ कल्याण का अवश्य निवास है। परंतु इससे स्त्रियों की स्वतंत्रता मत समझ बैठना । शरीर में दहना और बाँया हाथ समान है किंतु अनादि काल से जे काम जिसके सिपुई है उसे वही करना चाहिए । जरा एक दिन बायें हाथ से खाना और दहना हाथ पानी लेने के काम में लगा देना, कैसा होगा ? अाप पति के "ब्राइड शूम"साईस न बनाइए और न उसे ‘‘हस्वैड खेतिहर । अपि उसकी अद्धागिनी बनकर उसे जन्म जन्मांतर के लिये साथी बना लीजिए। आप जब उसके नाम से पुकारी जायेंगी तब आप उसकी बेटर हाफ-उतमार्द्ध"हो चुकीं । "राम राम! आपने तो बड़ी गंदी बात कह डाली।"

बस दंपती के एक शरीर का मर्द दहना अंग और औरत बाँया अंग हैं । दोनों अपना अपना काम आप आप करते हैं। किंतु दूसरे को जब मदद की आवश्यकता हो तब एक तैयार !"

"अच्छा ! यह भी समझ लिया । आपके विचार ठीक ही हैं। और यह तब ही हो सकता है जब कि पति में अगाध भक्ति हो, अनन्यता हो । पति भी पत्नी के अपना शरीर समझे । जिनमें स्वतंत्रता का भूत सवार हो गया है की अवश्य पति का आदर नहीं करती हैं । परंतु विवाह के विषय में आपकी क्या राय है?"

"इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले मैं आपको एक बार और सुझा देती हैं। यदि आपको सचमुच ऐसी गृहिणी बनना हो तो भारतवर्ष के इतिहास पुराणों का अवलोचन कीजिए । ऐसी रमणीयों के चरित्रों का संग्रह "सतीचरित्र संग्रह में देखिए । “आदर्श दंपती" "हिंदू गृहस्थ" "बिगड़े का सुधार" "विपत्ति की कसौटी" और स्वंतत्र रमा और परतंत्र लक्ष्मी" आदि अनेक ग्रंथ आपको मिलेंगे । रेनाल्ड के नावेले को फेंक दीजिए। ये आपके चरित्र के बिगाड़नेवाले हैं।

"बेशक ! अच्छा विवाह ?" "हाँ ! इस विषय में मेरी राय यह है कि स्त्री जाति कभी कुँवारी रहकर अपने सतीत्व का पालन नहीं कर सकती । थेाड़े प्रतिवाद चाहे निकल भी आये परंतु पुरुष बिना उनका एक दिन भी गुजारा नहीं और जो इस बात का दम भरती हैं उन्हीं में बहुतेरी ऐंसी निकलेंगी जिनके लिये मैं क्या कहूँ ?हां जुदी बात हैं कि दूसरे की जोरू बनकर प्रसव वेदना के भय से विवाह न किया किंतु मान लीजिए कि जो एक ही जोरू नहीं बनना चाहतीं वो बहुत्तो की बन सकती हैं। इनमें प्रतिवाद भी हैं किंतु साधारण यही । ऐसा न करनेवाली कितनी ही आपके भ्रूणहत्या करनेवाली मिलेगी और उन्हें गर्भ न रहने की दवा भी टटोलनी पड़े तो आश्चर्य नहीं। संभव है कि किसी दिन यहाँ भी ऐसा अनाथालय खोलना पडे जिसमें व्यभिचारिणी स्त्री जाकर चुपचाप बच्चा जन आवें । ऐसी स्वतंत्रता को सष्टांग प्रणाम । ब्रह्मचर्य का पालन कर आजीवन अथवा अधिक वय तक कुमारिकाएं रहनेवाली वास्तव में पूजनीय हैं किंतु इस कलिकाल में यह एकदम असंभव, महा कठिन है ।"

"अच्छा ! परंतु सच्चा सुखी तो इसी में है कि अपनी इच्छा के अनुसार अपने लिये अनुकूल, सुदृढ़, नीरोग, विद्वान् और सज्जन पति तलाश करने का भार स्त्रियों पर रहे ओर यह तब ही हो सकता है जब पकी उम्र में उनकी शादी की जाय ।"

"वास्तव में सच्चा सुख ऐर गुणवान् पति मिलने ही में है परंतु अनुभवशून्य युवतियों पर पति ढूंढ़ने का भार डालना नितांत भूल है । सरासर पाप है। स्त्रियाँ पढ़ते पढ़ते यदि पचीस वर्ष भी कुँवारेपन में क्यों न निकाल डालें किंतु उनके माता पिता को जितना अनुभव है उतना क्या इससे आधा चैथाई भी उनके नहीं हो सकता है वे जैसे अच्छे घराने का, अच्छा विद्वान और अच्छे शील स्वभाववाला घर, तलाश कर उसकी जैसी जांच कर सकते हैं वैसी जाँच युवती कुमारिका से नहीं हो सकती और इसी लिये छठे महीने तलाक देने के लिये अदालत में दौड़े जाना पड़ता है ।"

"खैर ! यह भी मान लिया किंतु दक्षिण देश में मुरलियों के नाम से कितनी स्त्रियाँ आजन्म कुँवारी रहती हैं। वे मंदिरों को भेड़ बकरियां की तरह भेंट की जाती हैं। उनक क्या यह धर्म है ?"

“नहीं ! कदापि नहीं! यह धर्म के नाम से पाप है। केवल दक्षिण में ही नहीं । ऐसे ऐसे अनर्थ उत्तर में, अलमोड़ा की और भी होते हैं। यह पाय शीघ्र बंद होना चाहिए ।"

“अच्छा तो विवाह के लिये उमर कौन अच्छी है ?"

“मैं युवती विवाह को बहुत बुरा समझती हैं। जिन लोगों में अनाप शनाप दहेज देने की चाल है उनमें रुपए के अभाव से चालीस पचास वर्ष की उमर तक बहन बेटी के कुँवारी रखकर घोर अन्याय किया जाता है। जैसे प्राणी मात्र को किसी न किसी प्रकार की खुराक आवश्यक है वैसे स्त्री के लिए पुरुष के लिए स्त्री का संबंध एक प्रकार की खुराक ही समझो और जब ऐसा है तो भूख लगते ही खाने को मिल जाना चाहिए । जो भूख लगते ही भोजन नहीं पा सकता है की निपल अखाद्य वस्तु पर दौड़ती है। नीचों के यहां तक का खा लेने की प्रवृत्ति होती है। संसार के अनुभव से और शास्त्र की मर्यादा से कन्या के विवाह का काल रजोदर्शन से पूर्व और समागम का समय रजोदर्शन होते ही है। बल्कि गर्भधान संस्कार भी तब ही होता है ।"

“शास्त्रों में तो कपड़ों से होने के तीन वर्ष बाद तक का लेख बतलाते हैं ?"

"नहीं ! उसका मतलब यह है कि यदि योग्य वर ने मिले तो इतने समय तक पिता राह देख सकता है । यह मतलब न होता तो ऐसा क्यों लिखा जाता कि रजस्वला होने पर भी जो पिता अपनी लड़की का विवाह नहीं करता, वह प्रति मास उसके रज का पान करता हैं । रजोदर्शन से पूर्व विवाह करने के सैकड़ों प्रमाण हैं।"

“हां ! तो बारह वर्ष की उम्र तक विवाह करके पहले, तीसरे, पाँचवें वर्ष में शरीर का ढंग देखकर गौना कर देने से आपका प्रयोजन सिद्ध हो गया परंतु तलाक ? मर्द खराब निकल आवे तो उसका त्याग करके दुसरा विवाह अवश्य होना चाहिए ।"

“और दूसरा खराब निकल आवे तो तीसरा, चैथा, पाँचवाँ इत्यादि ? क्यों यही ना ? यह विवाह नहीं ठेका है । जिन लोगों में ऐसी रिवाज है उनमें दंपती का प्रेम नहीं होता, ईश्वर पर भी आदमी की भक्ति इसी लिये है कि उसकी बदली नहीं होती । नहीं तो लेग नित्य नया बनाकर उसे बदला करें। प्रथम तो पति में ऐसी खराबो ही क्या, जो हो भी वह उसकी इच्छा के अनुसार चलने में भलाई में बदल जायगी । और यदि उसमें चारी, अन्याय, व्यभिचारादि देाष आ पड़े। तो उन्हें सुधारना चाहिए। स्त्री का सुधारा पति अवश्य सुधर सकता है। पातिव्रत मात्र उसमें चाहिए । “हिन्दू गृहस्थ' और "बिगड़े का सुधार" देखिए।"

“मान लिया कि अच्छी स्त्रियाँ पति के ठिकाने ला सकती हैं परंतु विधवा की हमारे यहाँ नि:संदेह दुर्दशा है । उन पर घोर अत्याचार होता है। उनका विवाह अवश्य होना चाहिए |"

“विवाह उन विधवाओं का होता है जो शूद्र अथवा प्रति शुद्र हैं । उच्च वर्ग में बिलकुल अयोग्य है । जिनमें ऐसी चाल है उनमें से भी जो ऊँचे खयाल के हैं वे इस चाल से घृणा करते हैं । "तिरिया तेल हमीर हठ का सिद्धांत हिंदू नारियों के मन पर अंकित है। यदि विधवा विवाह का प्रचार किया जाय तो फल यह होगा कि दांपत्य प्रेम नष्ट हो जायगा । किसी न किसी कारण से आपस में कलह होते ही एक दूसरे को जहर देने पर उतारू होगा। ऐसा करके हत्या की संख्या न बढ़ाइए । शास्त्रों में भी इसी लिये इसका निषेध है। अपको यहि अवकाश हो तो "सुशीला विधवा" में मेरी फूफी का चरित्र पढ़ लेना ।"

“हां पढ़ा है। अच्छा है । वह यदि आपकी फ़ूफी हैं तो आए भी चरण छूने योग्य हो परंतु इस जमाने में विधवाओं का पेट भरना भी कठिन हो गया है।"

“हिंदू समाज अभी इतना नहीं डूबा है कि उनका पेट भरना कठिन हो जाय । भले घरों में वे अब भी पूजी जाती हैं। यदि उनका उपकार करना हो तो उनके पालन पोषण और चरित्र-रक्षा के लिये विधवाश्रम खोलिए। खुले भी हैं ।"

इस तरह बातें करते करते “अगरा फोर्ट की पुकार पड़ते ही इस रसशी में प्रियंवदा के चरण छूकर प्रणाम किया और अपने संदेह की निवृत्ति पर धन्यवाद देती हुई वह विदा हो गई ।