आदर्श हिंदू ३/५५ संयोग का सौभाग्य

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संयेाग का सौभाग्य

हमारी पंडित पार्टी को आगरे में कुछ काम नहीं था । यदि थोड़ा बहुत कम भी निकल आवे तो जब ये घर पहुँचने की उतावल से अयोध्या ही न जा सके तब इससे बढ़कर आगरे में कौन कम हो सकता है ? खैर, यमुना स्नान करके कालिंदी कूल पर भोजन करने के अनंतर ये लोग गाड़ी के टाइम पर आ पहुँचे और वहां से सवार होकर अजमेर पहुँचे । मार्ग में कोई ऐसी घटना नहीं हुई जो उल्लेख करने योग्य हो। जब थोड़ा और बहुत, रेल का सफर करनेवाले के सामने स्टेशनों के गुण और दोष अनुभव में पक्का करने के लिये आ खड़े होते हैं तब उनके लिये भी कागज खराब करना अच्छा नहीं। हमारी पार्टी को घर छोड़े बहुत मास व्यतीत हो चुके,ज़र्रों ज्यो घर पास आता जाता हैं त्यों ही त्यों शीघ्र ही गृहप्रवेश के लिये चटपटी बढ़ने लगती है। ऐसी दशा में अब पंडित मंडली को इधर उधर के झगड़ों में उलझा रखना मानों उनके आतुर मनों को, संयोग की लालसा से मनमोदक बनाने का आनंद लूटते समय वियोग का पर्दा बीच में डालकर विषाद की झलक से उनके मुख कमल को मुरझा देता है। आइए, आइए, इसलिये अजमेर का स्टेशन आते ही बहुत काल के [ ९० ]बिछुड़े हुई । मिलाप डाकर भरत-मिलाय के चित्र की एक झाकी की परछाही देख लीजिए।

अच्छा तो यह लीजिए। अजमेर आ पहुँचा । बस "अजमेर! अजमेर !" की आवाज के साथ जब गाड़ी प्लेट फार्म पर खड़ी हो गई तब इस पार्टी के दूर से भीड़ को चीरकर आती हुई एक जोड़ी दिखाई दी । देखते ही पंडित, पंडितायिन का सूखा हुआ अन्य हरित हो गया, मुरझाई हुई लता लहलहा उठी, सारी चिंताओं में, चिता से भी बढ़कर, विना अग्नि को भस्म कर डालनेवाली चिंता में सम्मिलन के संयोग का अमृत सिंचन होकर वियोग का विषाद जाता रहा । अतिकाल में अपने प्रशिप्रिय बछड़े के देखकर गौमाता के स्तन में से जैसे दूध के झरने झरने लगते हैं, जैसे वह अपने पुत्र को चाटकर अपने अंत:करण की तपन बुझाने के लिये हुंकार करती हुई उसकी ओर दौड़ी जाती है उसी तरह आगत जोड़ी के दर्शन होते ही प्रेमाबु की अश्रुधारा से उनका संतप्त हृदय ठंढा करने के लिये, शुभाशिप की अमृतधारा से उनको गद्गगद करते हुए स्वयं प्रेमविह्वल हो जाने के लिये अपने असबाब को भूलकर, अपने साथियों को भूलकर, अपना देहाभिमान भूलकर, पंडित दंपती दौड़े हुए गए । यह सत्य है कि संयोग की मिठास उसी समय बोध होती है जब बियोगजनित विषाद का कडु,बापने चखते चखते वह एकाएक प्राप्त हो । यदि संसार में वियाग के विषाद की अग्नि से नर नारी न तपाए [ ९१ ]जाते हैं, उनका हृदय कमल न झुलसा दिया जाता हो तो सचमुच संयोग जैसा मधुर पदार्थ भी सीठा है ।

इस उपन्यास के दीन मतिहीन लेखक में सामथ्र्य कहाँ जो गोस्वामी तुलसीदास जी की तरह, हजारों लाखों वर्ष बीत जाने पर भी पाठकों के, हृदय चक्षुओ के सहारे, इन घर्म चक्षुओं के सामने राम-भरत के प्रेम-सम्मिलन का हूबहू चित्र खड़ा कर है । वैसा नहीं, उसका शतांश भी नहीं ! हाँ यदि उसकी परछाहीं भी दिखाई देने लगे तो इस लेखक का सौभाग्य । सौभाग्य इसलिये कि इसमें उसकी योग्यता कुछ नहीं । यहि वह बहुत ही कोशिश करे तो उनके भावों की चारी कर सकता है। ऐसी चोरी थोड़ी और बहुत सब ही करते आए हैं और जब उन्होंने अपने भावे सर्व साधारण के उपकार के लिये खोलकर रख दिया है तब ऐसी नकल चोरी नहीं कहलाती । लेखकों की चोरी, डकैती भिन्न प्रकार की होती हैं ।

अस्तु ! प्रियानाथ और प्रियंवदा के समीप पहुँचते ही कतांनाथ और सुखदा ने उनके चरणों में सिर रख दिए । गठजोड़े से नहीं, क्योंकि शास्त्रीय कामों का संपादन करने के लिये पति के उत्तरीय का एक कोना स्त्री की साड़ी से बाँध दिया जाता है। दोनों का संबंध अलौकिक होने पर भी, दंपती के एक प्राण दो तन होने पर भी हृदय के गठजोड़े के समक्ष कपड़े का गठजोड़ा कोई चीज नहीं। केवल उसका अनुकरण हैं । बेशक आज इन दोनों का दोनों प्रकार का गठजोड़ा नहीं [ ९२ ]हैं किंतु जब दोनों अलग होने पर दोनों के हृदय का भाव एक है, दोनों ही दोनों भक्ति पुष्पांजलि समर्पण करने के लिये एकाण हुए हैं और जिनकी आराधना करने के लिये इन्होंने खिर नवाए हैं वे एक प्राण दो तन हैं तब आज से ही कांतानाथ और सुखद के होश्य का गठजोड़ा समझ लो । “भैया उठी । लल्ला उठो ।" कलकर जब दोनों कह हारे तब पंडित जी ने बलपूर्वक उठाकर कातांनाथ को छाती से लगा लिया, छोटी के मस्तक पर हाथ फेरा और तब चारों एक दूसरे की ओर टकटकी बांधकर देखने लगे । हाँ ! यह इतना अवश्य कह देना चाहिए कि प्रियंवदा का अर्द्धस्ट घुंघट देवर के मुख्य कमल के पुत्रवत् निरस्व रहा था और देवर भौजाई जब नतभू, होकर अवाक थे तब सुखदा विचारी की आँखों के सामने गाड़े घूंघट की कनाड खड़ी थी।

कोई दस मिनट तक ये लोग यों ही खड़े रहे । किसी के मुख से कोई शब्द ही न निकल पाया । ऐसे आत्मीर के सम्मिलन के समय मुखरा वायी ही जब कर्तव्य-शुन्य होकर प्रेम प्रवाह में अपनी वाचालता के बहा देती है तब सबके सब गूंगे की तरह हैं, उनमें से कोई भी बोलता तो किस तरह ! अस्तु पंडित जी ने सब से पहले अपने अंतःकरण के सँभाला। वह कहने लगे---

“स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु चिरायुरस्तु,
गोवाजिहस्तिधनधान्यसमृद्धिरस्तु ।
 
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ऐश्वर्यं मरतु बलमस्तु रिपुच्चयोस्तु,
वंशे सदैव भदतां हरिभक्तिरस्तु ।।"

और साथ ही "अखंड सैभाग्यवती पतिपरायण पुत्रवती भव" कहकर उन्होंने एक बार फिर सुखदा के सिर पर हाथ फेरा । कांतानाथ की जब अभी तक प्रेम.विह्वलता बनी हुई थी तब उसके मन में ऐसा आशीर्वाद सुनकर कैसे भाव पैदा हुए सो मैं क्या हैं किंतु सुखदा के निश्चय हो गया कि "मुझे मनवांछित फल मिल गया ।" बस वह आनंद में मग्न होकर थाह पाने का प्रयत्न करती हुई सब के साथ गाड़ियां में चढ़कर पुष्कर पहुँची ।

"पुत्रवती भव" का आशीर्वाद पाकर सुखा को यद्यपि निश्चय हो गया कि अब प्रति के मुझे अंगीकार कर लेने में संदेह नहीं है किंतु अभी तक उसके हृदय की धड़कन कम नहीं हुई थी, बस इसलिये पंडित जी के मुख से फैसला सुनने के लिये वह जिस समय आतुर थे। उसी समय पुष्कर के विमल सरीवर के तटवर्ती वृक्षों से, लता पल्लवों से और शुभ्र सुंदर भबने से आच्छादित कुंज में प्रवेश करते करते उन्होंने कहा---

“आज बहू के समस्त अपराध तीर्थगुरू के तट पर क्षमा कर दिए गए। परमेश्वर अपने अखंड अनुग्रह से इसे पतिपरायणता का आदर्श बनावे और इसके पुत्र हो और चिरंजीवी हो, यह मैंने आशीर्वाद भी हैं दिया परंतु शास्त्र की मर्यादा के लिये इसे पंचगव्य प्राशन और हेमाद्रिद स्नान [ ९४ ]और कर देना चाहिए । कृच्छ चांद्रायण ब्रत यह अनेक कर ही चुकी । बस इतना करने के अनंतर हमारे पूर्वजों के श्राद्ध के लिये पाक संपन्न करने की यह अधिकारिणी है। इसलिये हमारी इच्छा है कि पहले इससे यह कार्य कराकर तब इसके हाथ से बनाए हुए पाक से हम श्राद्व करें ।"

पितृ तुल्य पंडित जी की आज्ञा सुखदा में माथे चढ़ाई । यद्यपि उसने अपने मुख से न "हाँ" कही और न ‘ना और ज्येषृ श्रेष्ठों के समक्ष वह कहती थी क्योंकर ! यहि परदेश न होता तो उनके समक्ष आने से भी क्या मतलब था ? किंतु उसके मुख के भाव से प्रियंवदा ने जान लिया कि “जो कुछ अज्ञा हुई है उसे सिर के बल करने को वह तैयार है ।"

पंडितजी की इच्छा थी कि सुखदा के प्रायश्चित्त करने का कार्य और उन्हें श्राद्ध कराने का काम इस बार गौड़बोले जी करे” । जब वह साथ ही इसके लिये थे तब उन्हें उछ भी क्या हो ? किंतु पुष्कर की सीमा में पैर रखते ही अन्यान्य तीर्थों की तरह यहाँ भी भूतों ने घेर लिया था । और और तीर्थों में तीर्थगुरुओं के मारे, भिखारियों के कष्ट से यात्री तंग आ जाता है, चाहे जैसा दृढ़-संकल्पी हो उसकी श्रद्धालुता की जड़ यदि उखड़कर न गिर जाय तो हिल अवश्य उठती है फिर पुष्कर सब तीर्थों का गुरू है । शिष्यों से गुरू में यदि कुछ अधिकता न हो तो वह गुरू ही कैसा ? मूर्ख निरक्षर पंडों के ठट्ठ से, भिखारियां की नोच खसोट से और लाव लाव की चिल्ला [ ९५ ]हट से पूर्व प्रसंग सरशण करके यद्यपि पंडित जी का धैर्य छूट ही जाता किंतु सौभाग्य से पंडित प्रियानाथ जी का पंडा "साक्षरा"को "राक्षस"में बदल देनेवाला साक्षर नहीं सचमुच, साक्षर निकला । वह अच्छा कर्मकांडी, मामी वैयाकरण होने के साथ ही अच्छा ज्योतिपी और अच्छा वैद्य भी था । इन गुणों के अतिरिक्त पंडों भर में, बस्ती भर में उसकी धाक थी । बस पंडित धरणीधर मिश्र का नाम सुनते ही समस्त पंडे अपनी अपनी बहियाँ बगल में दबाकर अलग हो गए और भिखारियाँ की भीड़ भी छैट गई ।

शास्त्र की विधि के साथ, श्रद्धापूर्वक, लोभरहित होकर प्रत्येक कार्य में प्रियानाथ जी को संतुष्ट करते हुए दोनों कार्य इन्हीं महाशय ने कराए । जब कार्य की समाप्ति का समय आया तब कर पंडित जी बोले--

“हाँ ! एक बात कहनी और रह गई थी। बहू रानी, इस मध्य पिंड का भोजन आज तुम्हारे ही लिये है। खून भक्तिपूर्वक भोजन करना । इसके सिवाय और कुछ नहीं ।"

सुखदा ने चाहे इसका मतलब न समझा हो परंतु प्रियंबदा ने पति की आँखों में अपने नेत्र उलझाकर मुसकुराते हुए सुखदा के कान में कुछ कहा और लज्जित होकर उसने अपना सिर झुका लिया । पंडित जी की पहली आज्ञा की जिस तरह तामील हुई थी उसी तरह इस समय हुई और यो श्राद्ध अनुष्ठान सुखपूर्वक संपन्न होने पर जो सुखदा किसी [ ९६ ]समय दुः:खदा कही गई थी वह आज सच्ची सुखदा बनकर अपनी जेठानी के चरणों में लटकी हुई उससे क्षमा पर क्षमा माँगने और करने लगी कि "जब तक तुम" माफ कर दिया' न कहोगी तब तक इन चरणों को न छोडूगी ।” प्रियंवदा के उसे उठाकर अपनी छाती से लगा लिया और तबसे दोनों से सगी बहनों का स्वा प्रेम हो गया ।

पंडित जी ने, उनके साथियों ने धरणीधर महाराज को, वहाँ के अन्यान्य सुपात्र ब्राह्मणों को और दीन भिखारियों को यथाशक्ति दान देकर क्योंकर उन्हें अपने मधुर भाषण से संतुष्ट कर दिया और क्योंकर उनके आशीर्वाद से वे गदगद हो गए सो कहनेवाले सज्जनों को इसका थोड़ा बहुत अनुभव होता ही है । हाँ ! एक घटना से उनका हृदय एकदम दइल उठा । पंडित जी जैसे दयालु ब्राहाण' के आंखों देखने, उनके निकट से जगज्जननी, परम वंदनीया गैौ माता के पामर मगर किनारे से खैंचकर और सो भी जल-पान करते समय ले जावे, इनके नेत्रों के समक्ष, हजारों आदमियों के देखते देखते हिंदुओ की प्यारी गौ डुबक डुबक करती करती जल में डूब जावे, उसकी नन्हीं सी बछिया किनारे पर विलविलाती खड़ी रहे और किसी से कुछ करते धरते न बन्न पड़े, बस इससे बढ़कर संताप क्या हो सकता है ? वह अवश्य उसे छुड़ाने के लिये लॅगोट बाँधकर कूद पड़ते, वह तैराक भी [ ९७ ]कम नहीं थे परंतु पुष्कर जैसे पुण्ये सरोवर में मगर एक नहीं, सैंकड़ों, इससे भी अधिक हैं। जहाँ के मगर, घड़ियाल नर-शरीर से, सिंहव्यालादि जैसे नरघाती भीषण जीवों को डरा देनेवाले मनुष्य से न डरकर उन्हें किनारे से खैंच ले जाने का हैसिला रखते हैं, जिनके मारे किनारे पर बैठकर स्नान कर लेने के सिवाय जल में घुसने तक का साहस नहीं होता, जल में एक अदष्ट पदार्थ को छुड़ाने के लिये पंडित जी के प्रवेश करने देना किसी को स्वीकार नहीं होता । बस इनके तैयार होते ही-“खबरदार ! भीतर पैर रखा तो! गाय तो गई सो गई ही परंतु तुम्हारा भी कदापि पता नहीं लगेगा। अभी पांच मिनट में तुम्हारे टुकड़े टुकड़े करके खा जाय। अकेले तुम्हारे शरीर पर दस बीस टूट पड़ेगें की चिल्लाहट मची । बस हताश होकर इन्हें रुक जाना पड़ा और सच्च पूछा ते प्रियंवदा की चार चूड़ियों के बल से ये अचानक रुक गए । यो ये रुके सही परंतु इन्होंने रो दिया---

"हे भगवान्, आप तो एक बार गज की देर सुनार उसे ग्राह से बचाने के लिये, नंगे पैरों गरुड़ को छोड़कर दौड़े आए थे आज कहाँ हो ? राम राम ! बड़ा ही अधर्म है । इस' भीषण दृश्य से हृदय विदीर्ण हो जाता है। ऐसी पुण्यभूमि में ऐसा घोर अनर्थ ! हाँ ! अब मैं समझा ! अब इसका कारण मेरे ध्यान में आया। इस ब्रह्मद्रव में निरंतर

अ० हिं०----१७ [ ९८ ]निवास करके इन पात्रों की ऐसे घोर पापे में प्रवृत्ति क्यों है ? क्या पुष्कर में रहकर भी इनके पाप नहीं छूटते हैं ? हाँ नहीं छूटते हैं । इसलिये नहीं छूटते कि ये मलयगिरि निवासिनी भिल्लिनियों के समान चंदनतरूशाखा के जलाने पर भी उसकी सुगंधि के रसास्वादन को नहीं जानतें । वही स्तन के दूध को त्यागकर रक्त पान करनेवाली जलौका का सा मसला है। यदि हजार वर्ष तीर्थ सेवन करने पर भी किसी ने अपना मन न लगाया तो उसके सिर मारने से क्या लाभ ? परंतु क्यों जी गौड़बोले महाशय ! इन तीर्थगुरु पुष्कर महाराज को भी ऐसा घोर कर्म स्वीकृत है ? बस हद हो गई। हां इसलिये मंजूर हो सकता है कि यह गुरू हैं। लोगों को प्रत्यक्ष उदाहरण से दिखा रहे हैं कि पाप का यहीं प्रायश्चित है । पुण्य संचव का फल स्वर्ग और स्वर्ग में पहुँच जाने पर भी जिनके मनेाविकार शमन न हो उनकी यह गति है। अच्छा ! होगा ! परंतु जब हजारों लाखों यात्री यहाँ आते हैं, हजारों नर नारी यहाँ निवास करते हैं और सैकड़ों ही पशु पक्षियों को इसमें जल पान करना होता है तब सबकी रक्षा का से कुछ उपाय होना चाहिए ।"

"हाँ यजमान, अजमेर के धार्मिक सज्जनों ने एक उपाय सोचा है। वे चाहते हैं कि इन समस्त घाटों के सामने लोहे की जालियाँ लगा दी जायें ताकि मगर और घड़ियाल उनमें प्रवेश न कर सकें और सब लेग सुखपूर्वक स्नान कर सकें।" [ ९९ ]“बेशक उपाय तो उत्तम है परंतु फिर “शुभस्य शीव्रम् इतनी देरी क्यों है ? यह कार्य तो ऐसा है कि जितना शीघ्र हो सके उतना ही अच्छा है। इसके लिये रुपयों का भी भार अधिक नहीं पड़ सकता क्योंकि साल भर में कम से कम लाख डेढ़ लाख यात्री आते होगे। यदि से सुखपूर्वक इस कार्य के लिये चार चार आना भी डालें तो सहज में हजारों रुपये इकट्टे हो सकते हैं और इस शुभ अनुष्ठान के लिये देश के और भी सुपूत, साई के लाल मुख नहों मोड़ेगे ।”

"वास्तव में उद्योग का अभाव है । आपस की फूट से विलंब हो रहा है। अब आपके कहने से उन्हें फिर उकखाऊँगा । खूब परिश्रम करूंगा । सफलता परमेश्वर के हाथ है परंतु कार्य यदि सबे अंत:करण से किया जायगा तो अवश्य सफलता हमारी चेरी है ।"

“निःसंदेह ! सचे अंत:करण की प्रत्येक कार्य में अवश्यकता है। अंत:करण लगाकर तीर्थ-सेवन न करने की जे फल ग्राह रूप से मिल रहा है वह आपने देख ही लिया ।"

इस प्रकार बातें करते करते धरणीधर महाराज इन सब को लेकर देव-दर्शन के लिये वहाँ से रवाना हुए किंतु कोई सौ डेढ़ सौ कदम चलकर इन्होंने जब दो बालक संन्यासियों के दर्शन किए तब पंडित जी एकदम रुक गए ।