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आनन्द मठ/छठा परिच्छेद

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आनन्द मठ
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १९ से – २१ तक

 
छठा परिच्छेद

रात बहुत बीत गयी है। चन्द्रदेव मध्य आकाशमें आ गये हैं। आज पूर्णमासी नहीं है, इसले प्रकाश तेज नहीं है अत्यन्त विस्तीर्ण मैदानके ऊपर उस अन्धकारकी छायासे युक्त धुधली रोशनी पड़ रही है। उस रोशनीमें मैदानका आरपार नहीं दिखाई देता। मैदानमें क्या है, कौन है, नहीं मालूम पड़ता। सारामैदान अनन्त जन-शून्य और डरावना मालूम पड़ रहा रास्तेके किनारे एक छोटीसी पहाड़ी है, जिसपर आम आदिके बहुतसे पेड़ लगे हैं। पेड़ोंकी पत्तियां चांदनीमें चमकती हुई हिल रही हैं, उनकी छाया काले पत्थरपर पड़कर और भी काली हो गयी है और जगातार कांपती मालूम पड़ती है। ब्रह्मचारी उसी पहाड़ीके शिखरपर चढ़कर चुपचाप खड़े हो, न जाने क्या सुनने लगे-किस चीजकी आहट लेने लगे, नहीं कहा जा सकता। उस अनन्त प्रान्तमें कहीं कोई शब्द नहीं सुनाई पड़ता था केवल वृक्षोंके पत्तोंकी खड़खड़ाहट सुनाई पड़ती थी। पहाड़ीके नीचे ही घना जंगल था।

ऊपर पहाड़ी; नीचे राजपथ और बीचमें जंगल था। वहींपर न जाने कैसा शब्द हुआ, सो तो हमें नहीं मालूम; पर हां, ब्रह्मचारी उसीकी सीधपर चल पड़े। घने जंगलमें प्रवेश कर उन्होंने देखा, कि उस जंगलके पेड़ोंके नीचे अंधेरेमें ही बहुतसे आदमी कतार बांधे बैठे हुए हैं। वे सभी लम्बे तगड़े, काले काले और हथियार बन्द थे। पत्तोंके बीचसे छनकर आनेवाली रोशनी उनके पैने हथियारोंपर पड़ रही थी, जिससे वे खूब चमक रहे थे। इसी प्रकार दो सौ आदमी वहां जमा थे; पर किसीके मुंहसे बोली नहीं निकलती थी। धीरे धीरे उनके पास पहुंचकर ब्रह्मचारीने न जाने किस बातका इशारा किया; पर न तो कोई उठकर खड़ा हुआ, न कोई बोला, न कोई कुछ हिला डुला वे सबके सामने से, हरएकको देखते हुए निकल गये, अंधेरे में हर एकका चेहरा बड़े गौरसे देखते हुए चले, पर शायद वे जिसे खोज रहे थे, उसे न पा सके। खोजते खोजते, एकको पहचान कर उन्होंने उसका अङ्ग-स्पर्शकर कुछ इशारा किया। इशारा करते ही वह उठ खड़ा हुआ। ब्रह्मवारी उसे दूर ले जाकर खड़े हुए। वह आदमी नौजवान था। काली काली दाढ़ी मूछोंसे उसका चांदसा चेहरा छिपा हुआ था। वह बड़ा बलिष्ट और अति सुन्दर पुरुष मालूम पड़ता था। गेरुआ वस्त्र पहने था और सारी देहमें चन्दन लगाये हुए था। ब्रह्मचारीने उससे कहा,

"भवानन्द! क्या तुम महेन्द्रसिंहका कुछ पता ठिकाना जानते हो?" यह सुन, भवानन्दने कहा-"महेन्द्रसिंह आज सवेरे स्त्री कन्याके साथ घर छोड़कर जा रहे थे। रास्ते में एक चट्टोमें-"

इतना सुनते ही ब्रह्मचारी बीच हीमें बोल उठे,-"चट्टोमें जो हुआ, वह मुझे मालूम है, पर तह तो कहो, यह किसकी कार्रवाई थी?" भवानन्द,-"गांवके नीच जातियोंका काम है, और क्या? इस समय सभी गांवोंकी नीच जातियां पेटकी मारसे डाकू बन गयी हैं। आजकल कौन डाकू नहीं हो रहा है? आज हमलोगोंने ही लूटकर अन्न पाया है; कोतवाल साहबके लिये दो मन चावल जा रहे थे, हमलोगोंने उसे लूटकर वैष्णवोंको खिला दिया।"

ब्रह्मचारीने हंसकर कहा, "मैंने चोरोंके हाथसे उसकी स्त्री कन्याको तो बचा लिया है और इस समय उन्हें मठमें ही रख छोड़ा है। अव मैं तुम्हारे ऊपर इसको भार सौंपता हूं, कि महेन्द्रको ढूढ़ निकालो और उसकी स्त्री कन्याको उसके हवाले कर दो। यहां जीवानन्द ही रहें, तो यहांका सारा काम चला जा सकता है।"

भवानन्दने स्वीकार कर लिया। ब्रह्मचारी दूसरी तरफ चले गये।