आनन्द मठ/4.6
[ १६८ ]
एडवार्डिस पका अंगरेज था। नाके-नाकेपर उसने अपने आदमी मुकर्रर कर दिये थे। शीघ्र ही उसके पास खबर पहुंची कि उस वैष्णवीने लिण्डलेको घोड़ेसे नीचे गिरा दिया और आप घोड़ा दौड़ाये हुए न जाने किधर भाग गयी। सुनते ही वह बोल उठा-“अरे वह तो पूरी शैतानकी खाला निकली! अभी खीमे उठाओ।"
अब तो चारों तरफ डेरे तम्बुओंके लूटोंपर हथौड़ेकी चोट पड़ने लगी। मेघ-रचित अमरावतीकी तरह वह वस्त्र नगरी बातको बातमें आँखोंकी ओट हो गयी। सारा सामान गाड़ियों पर लादा गया। कुछ मनुष्य घोड़ोंपर और कुछ पैदल चल पड़े। [ १६९ ] हिन्दू, मुसलमान, मदरासो और गोरे सिपाही कन्धेपर बन्दूक रखे, जूते मचमचाते हुए कूच करने लगे। तोप खींचनेवाली गाड़ियाँ घरघरातो हुई जाने लगीं।
इधर महेन्द्र सन्तान-सेना लिये हुए धीरे-धीरे मेले की तरफ बढ़े आ रहे थे। उसी दिन तीसरे पहर उन्होंने दिन ढलते देख, एक जगह डेरा डालनेका विचार किया। उस समय उन्होंने डेरा डालना ही उचित समझा। वैष्णवींके पास डेरे-तम्बू तो होते नहीं। वे पेड़ोंके नीचे टाट या कथरी बिछाकर सो रहते हैं। कभी थोड़ासा हरिचरणामृत पीकर ही रात बिता देते हैं। यदि थोड़ी-बहुत क्षुधा बाकी रहती है तो वह स्वप्नमें वैष्णवीके अधरामृत पान करनेसे ही मिट जाती है? पास ही एक जगह ठहरने योग्य स्थान था। एक बड़ा भारी बागीचा था, जिसमें आम, कटहल, बबूल और इमलीके बहुतसे पेड़ लगे हुए थे। महेन्द्रने आज्ञा दी-“यहीं डेरा डालो।” उसके पास ही एक टीला था, जो बड़ा ऊबड़-खाबड़ था। महेन्द्रने एक बार सोचा कि उसी टीलेपर डेरा डाला जाय। इसीसे उन्होंने उस जगहको देख आनेका विचार किया।
यही विचारकर वे घोड़ेपर सवार हो, धीरे-धीरे उस टीले पर चढ़ने लगे। वे कुछ ही दूर गये होंगे कि एक युवा वैष्णव सेनाके बीचमें आकर बोला-"चलो, चलो, टीलेपर चढ़ चलो।" आसपासके लोग अचरज में आकर पूछ बैठे-"क्यों, क्यों, मामला क्या है?"
वह योद्धा एक मिट्टोके ढेरपर खड़ा होकर बोला-"चलो, इस चांदनी रातमें उस पर्वत-शिखरपर चढ़कर नूतन वसन्तके नूतन पुष्पोंकी सुगन्धका आनन्द देते हुए आज हम लोग शत्रुओंसे युद्ध करें।” सन्तानोंने देखा कि ये तो सेनापति जीवानन्द हैं, तब 'हरे मुरारे' का उच्च निनाद करते हुए सभी सन्तानगण भालेको जमीनमें टेककर उसीसे अड़कर खड़े हो रहे और [ १७० ] तदनन्तर जीवानन्दके पीछे-पीछे बड़ी तेजीके साथ उस टोलेपर चढ़ने लगे। एकने सजा-सजाया घोड़ा लाकर जीवानन्दको दिया। दूर-ही-से यह सब हाल देखकर महेन्द्र भौंचकसे हो रहे। उनकी समझमें न आया कि ये लोग बिना बुलाये क्यों चले आ रहे है?
यही सोच, महेन्द्रने घोड़े का रुख फेर दिया और चाबुककी मारसे घोड़ेकी पीठका खून निकालते पर्वतसे नीचे उतरने लगे। सन्तान-सेनाके आगे-आगे चलनेवाले जीवानन्दको देखकरन महेन्द्रने पूछा-"आज यह कैसा आनन्द है?"
जीवानन्दने हंसकर कहा- आज तो बड़ा ही आनन्द है। टीलेके उसी पार एडवार्डिस साहब हैं। जो पहले ऊपर चढ़ जायगा, उसीकी जीत होगी।"
यह कह, जीवानन्दने सन्तान-सेनाकी ओर फिरकर कहा, "तुम लोग मुझे पहचानते हो या नहीं? मैं हूं जीवानन्द गोस्वामी। मैंने हजारोंके प्राण ले डाले हैं।"
घोर कोलाहलसे कानन और प्रान्तरको प्रतिध्वनित करते हुए सब-के-सब एक साथ कह उठे-“हाँ, हम लोग आपको पहचानते हैं, आप ही जीवानन्द गोस्वामी हैं।"
जीवा० -“बोलो, हरे मुरारे।"
वह कानन प्रान्तर एक बार सहस्र सहस्र कण्ठोंकी ध्वनिसे गूंज उठा। सब-के-सब एक साथ “हरे मुरारे!" कह उठे।
जीवा-"टीलेके उसी पार शत्रु मौजूद हैं। आज ही इस स्तूप-शिखरपर खड़े होकर हम लोग इस नीलाम्बरी यामिनीके रहते-रहते युद्ध करेंगे। जल्दी आओ; जो पहले शिखरपर चढ़ेगा, "वही जीतेगा। बोलो! वन्देमातरम् ।”
इसके बाद ही कानन प्रान्तर प्रतिध्वनित करता हुआ 'वन्देमातरम्' का गाना गूंज उठा। धीरे-धीरे सन्तान-सेना पर्वत शिखरपर चढ़ने लगी। पर उन लोगोंने एकाएक सभीत होकर [ १७१ ] देखा कि महेन्द्रसिंह बड़ी जल्दी-जल्दी नीचे उतरते हुए तुरही बजा रहे हैं। देखते-हो-देखते टोलेके शिखर-प्रदेशमें तोपें लिये हुई अंगरेजोंकी गोलन्दाज पलटन आ पहुंची। ऐसा मालूम होने लगा, मानों वह नीले आसमानपर चढ़ी जा रही है। वैष्णवी सेना ऊंचे स्वरसे गा उठी--
"तुम्ही विद्या, तुम्ही भक्ति,
तुमही हो मां, सारी शक्ति।
त्वं हि प्राणा शरीरे!"
पर अंगरेजोंकी तोपोंकी अरर धायंमें वह गीतध्वनि मानों डूब गयी। सैकड़ों सन्तान हताहत हो, हथियार-बन्दूक लिये जमीनपर ढेर हो गये। फिर अरर-धायंकी आवाज दधीचिकी हड्डियोंको मात करती, समुद्र की तरङ्गों को तुच्छ करती, इन्द्रके वत्रोंकी याद दिलाने लगी। जैसे किसानके हंसियेके सामने पके हुए धानके पौधोंके ढेर लग जाते हैं, वैसे ही सन्तान-सेना खण्ड-खण्ड होकर धराशायी होने लगी। जीवानन्द और महेन्द्रके सारे यत्न व्यर्थ होने लगे। पहाड़से नीचे गिरनेवाले पत्थरके ढोकोंकी तरह सन्तान-सेना टीलेसे नीचे उतरने लगी। कौन किधर भागा जा रहा है, कोई ठिकाना नहीं। इसी समय सबका एक ही साथ संहार करनेके लिये “हुरे, हुर" का हल्ला मचाती हुई गोरी पलटन नीचे उतर पड़ी। पर्वतसे निकली हुई विशाल नदीके झरनेकी तरह न रुकनेवाली अजेय बृटिश सेना बड़े झपाटेके साथ सङ्गीन ऊपर उठाये, उस भागती हुई सन्तान सेनाका पीछा करने लगी। जीवानन्द सिर्फ एक बार महेन्द्रसे मिल सके बोले “आओ, हम लोग यहीं प्राण दे दें।"
महेन्द्रने का-“मरनेसे ही यदि युद्ध में जय मिलती होती तो मैं जरूर प्राण दे देता; पर व्यर्थ प्राण गंवाना तो वीरोंका काम नहीं है।" [ १७२ ]जीवा०-"अच्छा; मैं वृथा ही प्राण दूंगा। लड़ाईमें ही मरूंगा।"
तब पीछे मुड़कर जीवानन्दने बड़े जोरसे ललकारकर कहा--"कौन हरिनाम लेते हुए मरना चाहता है? जो चाहता हो, वह मेरा साथ दे।"
बहुतेरे आगे बढ़ आये। जीवानन्दने कहा-"ऐसे नहीं, ईश्वरको साक्षी कर शपथ करो कि देहमें प्राण रहते पीछे पैर न देंगे।"
जो आगे बढ़े थे, वे पीछे हट गये। जीवानन्दने कहा "कोई नहीं आता अच्छा, तो मैं अकेला ही चलता हूं।"
जीवानन्दने घोड़ेपर सवार हो, बहुत दूरपर पीछे की ओर खड़े "महेन्द्रको पुकारकर कहा-“भाई! नवीनानन्दसे कहना कि मैं तो अब सदाके लिये संसारसे विदा होता हूं। उनसे परलोकमें ही मिलना होगा।"
यह कह, वह वीर पुरुष गोलियोंकी बौछारको कुछ भी परवा न कर घोड़ेको आगे बढ़ा और बायें हाथमें भाला, दाहिनेमें बन्दूक लिये, मुंहमें 'हरे मुरारे' कहते हुए आगे बढ़ा। युद्धकी कोई सम्भावना नहीं उतने बड़े साहसका कोई फल नहीं तो भी 'हरे मुरारे,' 'हरे मुरारे' कहते हुए जीवानन्द शत्रु ओंके व्यूहमें घुस पड़े!
महेन्द्रने भागते हुए सन्तानोंको पुकारकर कहा-“देखो, एक बार तुम लोगोंको लौटकर जीवानन्द गुसाई को देखना चाहिये। तुम लोगोंके पहुंच जानेसे वह प्राण न देंगे।" लौटकर कितने ही सन्तानोंने जीवानन्दकी अमानुषी कीर्ति देखी। पहले तो वे बड़ेही विस्मित हुए। इसके बाद कह उठे,-"क्या जीवा- नन्दही मरना जानता है? हम लोग नहीं जानते? चलो, हम सब ही जीवानन्दके साथ-साथ बैकुण्ठको चले चलें।"
यह बात सुन, कितने ही सन्तान आगे बढ़े। उनकी देखा [ १७३ ] देखी और भी कुछ लोग आगे आये। उन्हें आगे बढ़ते देख, कुछ और लोग आगे बढ़ते नजर आये। बड़ा शोर-गुल मच गया, उस समयतक जीवानन्द शत्रु के व्यूहमें घुस चुके थे। सन्तान सेना फिर उन्हें न देख सकी।
इधर समस्त रणक्षेत्रके सन्तानोंने देखा कि फिर बहुतसे लौटे आ रहे हैं। सबने सोचा कि शायद सन्तानोंकी जीत हो गयी। उन्होंने शत्रु को मार भगाया। यह देख, सारी सन्तान-सेना 'मार-मार' की आवाज करती हुई अंगरेजी फौजका पीछा करने लगी।
इधर अंगरेजी सेनामें भी बड़ा भारी गोलमाल मचा हुआ था। सिपाहियोंने युद्धकी चिन्ता छोड़, भागना शुरू कर दिया था और गोरे संगीन उठाये अपने अपने डरोंकी ओर दौड़े चले जा रहे थे। इधर-उधर नजर दौड़ाकर महेन्द्रने देखा कि टीलेके ऊपर बहुत सो सन्तान-सेना दिखाई दे रही है। उन्होंने और भी देखा कि वे नीचे उतरकर अंगरेजो फौजपर बड़ी बहादुरीके साथ हमला कर रहे हैं। उस समय उन्होंने सन्तानों को पुकार कर कहा- “सन्तानगण! देखो, शिखरपर प्रभु सत्यानन्द गोस्वामीकी ध्वजा फहराती हुई दिखाई दे रही है। आज स्वयं मुरारि, मधुकैटभारि, कंस के शिनाशकारी, रणमें अवतीर्ण हुए हैं आज लाखों सन्तान उस टीलेपर जमा हैं। बोलो-हरे मुरारे! हरे मुरारे! मुसलमानोंको जहां पाओ, मार गिराओ। आज एक लाख सन्तान टीलेपर आकर जमा हैं।"
उस समय 'हरे मुरारे' की भीषण ध्वनिसे सारा कानन प्रान्तर मथित होने लगा। सभी सन्तान 'मा भैः, मा भैः' का रव करते, ललित तालपर अस्त्रोंको झनकारते हुए सब जीवोंको विमोहित करने लगे। शाही पलटन पत्थरसे टकराई हुई निर्भरिणोकी तरह ठोकर खाकर भौंचकली हो रही, डर गयी और तितर बितर होने लगी। इसी समय पच्चीस सन्तानोंको सेना [ १७४ ]लिये हुए सत्यानन्द ब्रह्मचारी शिखरसे समुद्रपातकी तरह उनके ऊपर आ पड़े। बड़ी घनघोर लड़ाई हुई।
जैसे दो बड़े-बड़े पत्थरों के बीच पड़कर छोटी-सी मक्खी पिस जाती है, वैसे ही दोनों सन्तान-सेनाओं के बीच पड़कर राजकीय सेना मसल डाली गयी।
एक भी प्राणो जीता न बचा, जो वारन हेस्टिंग्जके पास संवाद लेकर जाय।