आनन्द मठ/4.5

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[ १६४ ] [ १६५ ] घर पदचिह्न गांवमें है।" इधर उसी दिन मेजर-साहब पदचिह्नका हालचाल इधर-उधरसे मालूम कर रहे थे। एक सिपाहीको यह बात मालूम थी। वह वैष्णवी को लिये हुये कप्तान-साहबके पास चला गया। साहब उसे मेहर साइबके पास ले गया। मेजर साहबके पास पहुंचकर वैष्णवीने मधुर मुस्कान छोड़ते हुए, एक तिरछी चितवनका वार साहबके कलेजेपर कर उन्हें पागल बनाते हुए, खंजरी बजाकर गाना शुरू किया,-

"म्लेच्छनिबह निधने कलयसि करवालम्।"

साहबने पूछा-"क्यों वीबी! टुमारा घार कहांपर हाय?"

वैष्णवीने कहा-"मैं बीवी नहीं, वैष्णवी हूं। मेरा घर पद-चिह्न ग्राममें है।"

साहब-"हुआं एक गार हाय?"

वैष्णवी-“घर? घर तो वहां बहुतसे हैं।"

साहब-“गर नहीं, गार, गार-"

वैष्णवी-"अच्छा साहब! मैं तुम्हारे मतलबकी बात समझ गयी । तुम गढ़ की बात पूछते हो?"

साहब-"हाँय, हाय, गार, गार, गार, हाय?"

शान्ति–“गढ़ क्यों नहीं है? बड़ा भारी किला है।"

साहब-"किटना आडमी हाय?"

शान्ति-"वहां कितने आदमी रहते हैं" यह पूछते हो?

चालीस-पचास हजार होंगे।"

साहब-"नोन्सेन्स, एक केल्लामें दो-चार हजार रहने सकटा है। हुआँपर आबी हाय, इया निकाल गिया?"

शान्ति--"अब वे कहां निकलकर जायेंगे?'

साहब-“मेलामें। टुम कब आया हुआंसे?"

शान्ति-"कल आयी हूँ, साहब!”

साहब-“वह लोग आज निकाल गिया होगा।"

शान्ति मन-ही-मन सोच रही थी- साहब! यदि मैंने तेरे [ १६६ ] बापका श्राद्ध नहीं कर डाला तो फिर मेरा वैष्णवी बनना ही व्यर्थ है। मैं देखूंगी कि तेरा सिर सियार कितनी देर में खाते हैं।"

ऊपरसे बोली-"हां, यह तो हो सकता है कि वे आज बाहर हुए हों। मैं क्या जानूं? मैं गरीब भिखमंगिन ठहरी, गीत गा-गाकर भीख मांगती-फिरती हूं, मुझे इन बातोंका क्या पता? बकते-बकते तो गला सूख गया। लाओ पैसा दो। ले-देकर चल दूं। और यदि अच्छी रकम इनाममें देना कुबूल करो तो तुम्हें परसों आकर वहांका राई-रत्तो हाल बतला जाऊंगी।"

साहबने झन्से एक रुपया निकाल शान्तिकी ओर फेंककर कहा-"परसों नहीं बीबी!"

शान्तिने कहा-“अरे जा बे मुए! बीबी क्यों कहता है?

वैष्णवी कह, वैष्णवी।"

एडवार्डिस,-"परसों नहीं, हमको आज रातको खबार मिलनी चाहिये।

शान्ति–“अबे जा अभागे! सिरके नीचे बन्दूक रख, शराब पी, कानमें तेल डाल, सो रह। आज मैं दस कोस जाऊ, दस कोस आऊ और इनको राततक खबर ला दूं। चल हट, हरामी कहींका।"

साहब-"हरामी किसको बोलटा है?"

शान्ति-"जो बड़ा वीर, भारी जर्नेल होता है।"

एड०--"ओह! हाम क्लाइवका माफिक पारी जर्नेल होने सकटा है। लेकिन आज हमको खबर मिलना चाहिये। हम टुमको एक साव रुपिया बकसीस देगा।"

शान्ति–“सौ दो, चाहे हजार दो, इन टांगोंसे तो बीस कोस चलना दुश्वार है।"

एड०-"घोरा पर चार कर जाओ।"

शान्ति- “यदि घोड़ेपर ही चढ़ना आता, तो मैं तुम्हारे खोमेमें भीख मांगने आती?" [ १६७ ]साहब-“एक आदमी तुमको गोदमें ले जायगा।"

शान्ति-"तू मुझे गोदमें बैठाकर ले जायगा, क्या मुझे लजा नहीं लगती?"

साहब-"किया मुसकिल? हम टुमको पांच साव रुपिया डेगा।"

शान्ति–“अच्छा, कौन जायगा? क्या तू हो जायगा?"

यह सुन, साहबने खड़े हुए लिण्डले नामक एक सिपाहीकी ओर अंगुलीसे इशारा कर कहा-"क्यों लिण्डले! नौजवान तुम जाओगे?"

लिण्डलेने शान्तिका रूप-यौवन देखकर कहा-“बड़ी खुशीसे।"

एक खूब बढ़िया अरबी घोड़ा कसकर तैयार किया गया। लिण्डले तैयार होकर चला गया। जब वह शान्तिका हाथ पकड़कर उसे घोड़ेपर चढ़ाने गया, तब शान्तिने कहा, "छिः छिः इतने आदमियोंके सामने? क्या मेरे लाज-शर्म नहीं? चलो, आगे बढ़ो; इस छावनीके बाहर चलो।"

लिण्डले घोड़ेपर सवार हो, धीरे-धारे घोड़ेको बढ़ा ले चला। शान्ति पीछे चलो। इसी तरह आगे पीछे चलते हुए वे लोग पड़ावके बाहर हो गये।

शिविरके बाहर आ, सुनसान मदान देखकर शान्ति लिण्डले के पैरपर पैर रखकर एक ही उछालमें घोड़ेपर चढ़ गयी। लिण्डलेने मुस्कराते हुए कहा, “टुम टो पक्का घोरसवार हाय।" शान्तिने कहा-"हम लोग ऐसे पक्के घुड़सवार हैं कि तुम लोगोंके साथ घोड़ा चढ़ते हमलोगोंको शर्म मालूम होती है। छिः! रिकाबपर पांव रखकर घोड़ा चढ़ना भी कोई घुड़सवारी है?"

यह सुन, लिण्डलेने अपनी हैकड़ी भरने के लिये झटपट रिकाब से पांव निकाल लिये। यह देखते ही शान्तिने उस बेवकूक अंगरेजके बच्चे के गलेमें हाथ डालकर उसे घोड़ेसे नीचे गिरा [ १६८ ] दिया। शान्ति अच्छी तरह घोड़ेपर आसन जमा, उसे एंड़ लगाती हुई, तीरकी तरह दौड़ा ले चली। चार वर्षतक सन्तानोंके साथ रहकर शान्तिने घुड़सवारी करना अच्छी तरह सीख लिया था। अगर घुड़सवारी नहीं जानती होती तो जीवानन्दके साथ थोड़े ही रह सकती थी! लिण्डलेका पैर टूट गया। वह जहांका-तहां पड़ा रह गया। शान्ति हवासे बातें करती हुई घोड़ेको दौड़ाती चली गयी।

जिस वनमें जीवानन्द छिपे हुए थे, वहीं पहुंचकर शान्तिने जीवानन्दको सबसमाचार सुनाया। जीवानन्दने कहा-“अच्छा, तो मैं अभी जाकर महेन्द्रको होशियार किये देता हूँ। तुम मेलेमें जाकर सत्यानन्दको खबर दो। बस, घोड़ा दौड़ाये चली जाओ, जिसमें प्रभुको तुरन्त समाचार मिल जाय।"

अब तो दोनों व्यक्ति दो तरफको रवाना हो गये। कहना व्यर्थ है कि शान्तिने फिर नवीनानन्दका रूप बना लिया।