कबीर ग्रंथावली/(१५) सूषिम जनम कौ अंग
१५. सूषिम जनम कौ अङ्ग
कबीर सूषिम सुरति का, जीव न जाणैं जाल।
कहै कबीरा दूरि करिं, आतम अदिष्टि काल॥१॥
सन्दर्भ―माया के आवरण को हटा देने पर ही आत्मा को आत्म तत्व का ज्ञान हो सकता है।
भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि सूक्ष्म ब्रह्म के स्मरण के रहस्य को जीव कुछ नही जानता क्योकि माया के आवरण के कारण उसको उसका ज्ञान नहीं हो पाता है। कबीर कहते हैं कि उस माया के आवरण को हटा देने पर ही आत्मा की आत्म तत्व का ज्ञान होगा।
शब्दार्थ―सूषिम=सूक्ष्म। जाल=रहस्य।
प्राण पंड कौं तजि चलै, मूवा कहै सब कोइ।
जीव छतां जांमैं मरै, सूषिम लखै न कोइ॥२॥३४॥
सन्दर्भ―जीवन्मुक्त प्राणी जीवित व्यवस्था में ही ब्रह्म के दर्शन कर लेता है।
भावार्थ―जिस समय प्राण इस भौतिक शरीर को छोड़कर चल देते हैं उस समय संसार के सभी व्यक्ति उसको मरा हुआ कहते हैं। जीवात्मा जीवित रहते हुए भी अपने अस्तित्व को ब्रह्म मे लीन कर जीवन्मुक्त हो सकता है किन्तु उस ब्रह्म को कोई देख नहीं पाता है। शव्दार्थ―शरीर। छता=रहते हुए।