कर्मभूमि/तीसरा भाग 1
१
लाला समरकान्त की जिन्दगी के सारे मंसूबे धूल में मिल गये। उन्होंने कल्पना की थी कि जीवन-संध्या में अपना सर्वस्व बेटे को सौंपकर और बेटी का विवाह करके किसी एकान्त में बैठकर भगवत्-भजन में विश्राम लेंगे, लेकिन मन की मन में ही रह गई। यह मानी हुई बात थी, कि वह अन्तिम साँस तक विश्राम लेने वाले प्राणी न थे। लड़के को बढ़ते देखकर उनका हौसला और बढ़ता, लेकिन कहने को हो गया। बीच में अमर कुछ ढरें पर आता हुआ जान पड़ता था, लेकिन जब उसकी बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई, तो अब उससे क्या आशा की जा सकती थी। अमर में और चाहे जितनी बुराइयां हों उसके चरित्र के विषय में कोई सन्देह न था, पर कुसंगति में पड़कर उसने धर्म भी खोया, चरित्र भी खोया, और कुल मर्यादा भी खोई। लाला जी कुत्सित सम्बन्ध को बहुत बुरा न समझते थे। रईसों में यह प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। वह रईस ही क्या, जो इस तरह का खेल न खेले, लेकिन धर्म छोड़ने को तैयार हो जाना, खुले खजाने समाज की मर्यादाओ को तोड़ डालना यह तो पागलपन है, बल्कि गधापन।
समरकान्त का व्यावहारिक जीवन उनके धार्मिक जीवन से बिल्कुल अलग था। व्यवहार और व्यापार में वह धोखा-धड़ी, छल-प्रपंच, सब कुछ क्षम्य समझते थे। व्यापार-नीति में सन या कपास में कचरा भर देना, घी में आलू या घुइयाँ गबड़ देना, औचित्य से बाहर न था, पर बिना स्नान किये वह मुंह में पानी न डालते थे। इन चालीस वर्षों में ऐसा शायद ही कोई दिन हुआ हो, कि उन्होंने सन्ध्या-समय की आरती न ली हो और तुलसी-दल माथे पर न चढ़ाया हो। एकादशी को बराबर निर्जल व्रत रखते थे। सारांश यह कि उनका धर्म आडम्बर-मात्र था, जिसका उनके जीवन से कोई प्रयोजन न था।
सलीम के घर से लौटकर पहला काम जो लाला ने किया, वह सुखदा को
फटकारना था। इसके बाद नैना की बारी आयो। दोनों को रुलाकर वह अपने कमरे में गये और खुद रोने लगे।
रातोरात यह खबर सारे शहर में फैल गयी। तरह-तरह की मिस्कौट होने लगी। समरकान्त दिन भर घर से नहीं निकले। यहाँ तक कि आज गंगा-स्नान करने भी न गये। कई असामी रुपये लेकर आये। मुनीम तिजोरी की कुंजी माँगने गया। लालाजी ने ऐसा डाँटा कि वह चुपके से बाहर निकल आया। असामी रुपये लेकर लौट गये।
खिदमतगार ने चाँदी का गड़गड़ा लाकर सामने रख दिया। तंबाकू जल गया, लालाजी ने निगाली भी मुँह में न ली।
दस बजे सुखदा ने आकर कहा--आप क्या भोजन कीजिएगा?
लालाजी ने उसे कठोर आँखों से देखकर कहा--मुझे भूख नहीं हैं।
सुखदा चली गयी। दिन भर किसी ने कुछ न खाया।
नौ बजे रात को नैना ने आकर कहा--दादा, आरती में न जाइएगा?
लालाजी चौंके--हाँ हाँ, जाऊँगा क्यों नहीं। तुम लोगों ने कुछ खाया कि नहीं?
नैना बोली--किसी की इच्छा ही न थी। कौन खाता?
'तो क्या उसके पीछे सारा घर प्राण देगा?'
सुखदा इसी समय तैयार होकर आ गयी। बोली--जब आप ही प्राण दे रहे हैं, तो दूसरों पर बिगड़ने का आपको क्या अधिकार है?
लालाजी चादर ओढ़कर जाते हुए बोले--मेरा क्या बिगड़ा है कि में प्राण दूँ। यहाँ था, तो मुझे कौन-सा सुख देता था। मैंने तो बेटे का सुख ही नहीं जाना। तब भी जलाता था, अब भी जला रहा है। चलो भोजन बनाओ मैं आकर खाऊँगा, जो गया उसे जाने दो। जो हैं उन्हीं को उस जानेवाले की कसर पूरी करनी है। मैं क्यो प्राण देने लगा। मैंने पुत्र को जन्म दिया। उसका विवाह भी मैने किया। सारी गृहस्थी मैंने बनायी। इसके चलाने का भार मुझ पर है। मुझे अब बहुत दिन जीना है। मगर मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि इस लौंडे को यह सूझी क्या? पठानिन की पोती अप्सरा नहीं हो सकती। फिर उसके पीछे वह क्यों इतना लट्टू हो गया? उसका तो ऐसा स्वभाव न था। इसी को भगवान् की लीला कहते हैं। ठाकुर-द्वारे में लोग जमा हो गये। लाला समरकान्त को देखते ही कई सज्जनों ने पूछा--अमर कहीं चले गये क्या सेठजी! क्या बात हुई?
लालाजी ने जैसे इस बात को काटते हुए कहा--कुछ नहीं, उसकी बहुत दिनों से घूमने-धामने की इच्छा थी, पूर्वजन्म का तपस्वी है कोई, उसका बस चले, तो मेरी सारी गृहस्थी एक दिन में लुटा दे। मझसे यह नहीं देखा जाता। बस, यही झगड़ा है। मैंने गरीबी का मजा भी चखा है। अमीरी का मजा भी चखा है। उसने अभी गारीबी का मज़ा नहीं चखा। साल छ: महीने उसका मजा चख लेगा, तो आँख खुल जायँगी। तब उसे मालूम होगा कि जनता की सेवा भी वही लोग कर सकते हैं, जिनके पास धन है। घर में भोजन का आधार न होता, तो मेम्बरी भी न मिलती।
किसी को और कुछ पूछने का साहस न हुआ। मगर मूर्ख पुजारी पूछ ही बैठा--सुना, किसी जुलाहे की लड़की से फंस गये थे?
यह अक्खड़ प्रश्न सुनकर लोगों ने जीभ काटकर मुँह फेर लिये। लालाजी ने पुजारी को रक्त भरी आँखों से देखा और ऊँचे स्वर में बोले--हाँ, फँस गये थे, तो फिर ? कृष्ण भगवान् ने एक हजार रानियों के साथ नहीं भोग किया था? राजा शान्तनु ने मछुए की कन्या से नहीं भोग किया था? कौन राजा है, जिसके महल में दो सौ रानियाँ न हों? अगर उसने किया, तो कोई नयी बात नहीं की। तुम-जैसों के लिए यही जवाब हैं। समझदारों के लिए यह जवाब है कि जिसके घर में अप्सरा-सी स्त्री हो, वह क्यों जूठी पत्तल चाटने लगा। मोहन-भोग खानेवाले आदमी चबैने पर नहीं गिरते।
यह कहते हुए लालाजी प्रतिमा के संमुख गये; पर आज उनके मन में वह श्रद्धा न थी। दुःखी आशा से ईश्वर में भक्ति रखता है, सुखी भय से। दुःखी पर जितना ही अधिक दुःख पड़े, उसकी भक्ति बढ़ती जाती है। सुखी पर दुःख पड़ता है, तो वह विद्रोह करने लगता है। वह ईश्वर को भी अपने धन के आगे झुकाना चाहता है। लालाजी का व्यथित हृदय आज सोने और रेशम से जगमगाती हुई प्रतिमा में धैर्य और सन्तोष का सन्देश न पा सका। कल तक यही प्रतिमा उन्हें बल और उत्साह प्रदान करती थी। उसी प्रतिमा से आज उनका विपद्ग्रस्त मन विद्रोह कर रहा था। उनकी भक्ति का यही पुरस्कार है? उनके स्नान, व्रत और निष्ठा का यही फल है? वह चलने लगे, तो ब्रह्मचारी जी बोले--लालाजी, अबकी यहाँ श्री वाल्मीकीय कथा का विचार है।
लालाजी ने पीछे फिरकर कहा--हाँ हाँ, होने दो।
एक बाबू साहब ने कहा--यहाँ तो किसी में इतना सामर्थ्य नहीं है।
समरकान्त ने उत्साह से कहा--हाँ हाँ, मैं उसका सारा भार लेने को तैयार हूँ। भगवद् भजन से बढ़कर धन का सदुपयोग और क्या होगा?
उनका यह उत्साह देखकर लोग चकित हो गये। वह कृपण थे और किसी धर्मकार्य में अग्रसर न होते थे। लोगों ने समझा था, इससे दस-बीस रुपये ही मिल जायँ तो बहुत है ! उन्हें यों बाजी मारते देखकर और लोग भी गरमाये।
सेठ धनीराम ने कहा--आपसे सारा भार लेने को नहीं कहा जाता लालाजी ! आप लक्ष्मीपात्र हैं सही; पर औरों को भी तो श्रद्धा है। चन्दे से होने दीजिए।
समरकान्त बोले--तो और लोग आपस में चन्दा कर लें। जितनी कमी रह जायगी, वह मैं पूरी कर दूँगा।
धनीराम को भय हुआ, कहीं, यह महाशय सस्ते न छूट जायँ। बोले--यह नहीं, आपको जितना लिखना हो लिख दें।
समरकान्त ने होड़ के भाव से कहा--पहले आप लिखिए।
काग़ज़, क़लम, दावात लाया गया। धनीराम ने लिखा १०१)
समरकान्त ने ब्रह्मचारी जी से पूछा--आपके अनुमान से कुल कितना खर्च होगा?
ब्रह्मचारी जी का तख़मीना एक हजार का था।
समरकान्त ने ८९९) लिख दिये, और वहाँ से चल दिये। सच्ची श्रद्धा की कमी को वह धन से पूरा करना चाहते थे। धर्म की क्षति जिस अनुपात से होती है, उसी अनुपात से आडम्बर की वृद्धि होती है।
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