सामग्री पर जाएँ

कर्मभूमि/दूसरा भाग २

विकिस्रोत से

हंस प्रकाशन, पृष्ठ १५० से – १५४ तक

 

अमरकान्त सबेरे उठा, मुँह-हाथ धोकर गंगा-स्नान किया और चौधरी से मिलने चला। चौधरी का नाम गूदड़ था। इस गांव में कोई जमींदार न रहता था। गूदड़ का द्वार ही चौपाल का काम देता था। अमर ने देखा, नीम के पेड़ के नीचे एक तख्त पड़ा हुआ है, दो तीन पुआल के गद्दे। गूदड़ की उम्र साठ के लगभग थी; मगर अभी टाँठा था। उसके सामने उसका बड़ा लड़का पयाग बैठा जूता सी रहा था। दूसरा लड़का काशी बैलों को सानी-पानी कर रहा था। मुन्नी गोबर निकाल रही थी। तेजा और दुरजन दोनों दौड़ दौड़ कुएँ से पानी ला रहे थे। ज़रा पूरब की ओर हट कर दो औरतें बरतन माँज रही थीं। यह दोनों गूदड़ की बहुएँ थीं।

अमर ने चौधरी को राम-राम किया और एक पुआल की गद्दी पर बैठ गया। चौधरी ने पितृभाव से उसका स्वागत किया--मज़े में खाट पर बैठो भैया! मुन्नी ने रात ही कहा था। अभी आज तो नहीं जा रहे हो? दो-चार दिन रहो, फिर चले जाना। मुन्नी तो कहती थी, तूमको कोई काम मिल जाय तो यहीं टिक जाओगे।

अमर ने सकुचाते हुए कहा--हाँ, कुछ विचार तो ऐसा मन में आया था। गूदड़ ने नारियल से धुआं निकाल कर कहा--काम की कौन कमी है। घास भी कर लो, तो रुपये रोज़ की मज़ूरी हो जाय। नहीं जूते का काम है। तल्लियां बनाओ, चरसे बनाओ, मेहनत करनेवाला आदमी भूखों नहीं मरता। धेली की मजूरी कहीं नहीं गयी।

यह देखकर कि अमर को इन दोनों में कोई तजवीज़ पसन्द नहीं आई;

उसने एक तीसरी तजवीज़ पेश की--खेती-बारी की इच्छा हो तो खेती कर लो। सलोनी भाभी के खेत हैं। तब तक वही जोतो।

पयाग ने सूजा चलाते हुए कहा--खेती की झंझट में न पड़ना भैया। चाहे खेत में कुछ हो या न हो, लगान जरूर दो। कभी ओला-पाला, कभी सूखा-बूड़ा। एक-न-एक बला सिर पर सवार रहती है। उस पर कहीं बैल मर गया या खलिहान में आग लग गयी, तो सब कुछ स्वाहा। घास सबसे अच्छी। न किसी के नौकर न चाकर, न किसी का लेना न देना, सबेरे उठाई और दोपहर तक लौट आये।

काशी बोला--मजूरी, मजूरी है; किसानी, किसानी है। मजूर लाख हो, तो मजूर ही कहलाएगा। सिर पर घास लिये जा रहे हैं। कोई इधर से पुकारता है--ओ घासवाले ! कोई उधर से। किसी की मेड़ पर घास कर लो, तो गालियाँ मिलें। किसानी में मरजाद है।

पयाग का सूजा चलना बन्द हो गया--मरजाद लेके चाटो। इधर-उधर से कमा के लाओ, वह भी खेती में झोंक दो।

चौधरी ने फ़ैसला किया--घाटा-नफ़ा तो हरेक रोज़गार में है भैया! बड़े-बड़े सेठों का दिवाला निकल जाता है। खेती के बराबर कोई रोजगार नहीं, जो कमाई और तकदीर अच्छी हो। तुम्हारे यहाँ भी नजर-नजराने का यही हाल है भैया?

अमर बोला--हाँ, दादा, सभी जगह यह हाल है; कहीं ज्यादा, कहीं कम। सभी गरीबों का लहू चूसते हैं।

चौधरी ने सन्देह का सहारा लिया--भगवान् ने छोटे-बड़े का भेद क्यों लगा दिया, इसका मरम समझ में नहीं आता। उसके तो सभी लड़के हैं। फिर सबको एक आँख से क्यों नहीं देखता।

पयाग ने शंका-समाधान की--पूरब जनम का संस्कार है। जिसने जैसे कर्म किये, वैसे फल पा रहा है।

चौधरी ने खंडन किया--यह सब मन को समझाने की बातें हैं बेटा, जिसमें गरीबों को अपनी दशा पर सन्तोष रहे और अमीरों के राग-रंग में किसी तरह की बाधा न पड़े। लोग समझते रहें, कि भगवान् ने हमको गरीब बना दिया आदमी का क्या दोष; पर यह कोई न्याय नहीं है कि हमारे बाल-

कर्मभूमि
१५१
 

बच्चे तक काम में लगे रहें और भर पेट भोजन न मिले और एक-एक अफ़सर को दस-दस हजार की तलब मिले। दस तोड़े रुपये हुए। गधे से भी न उठें।

अमर ने मुसकरा कर कहा--तुम तो दादा नास्तिक हो।

चौधरी ने दीनता से कहा--बेटा, चाहे, नास्तिक कहो, चाहे मूरख कहो; पर दिल पर चोट लगती है, तो मुँह से आह निकलती ही है। तुम तो पढ़े-लिखे हो जी?

'हाँ, कुछ पढ़ा तो है।'

'अंग्रेज़ी तो न पढ़ी होगी?'

'नहीं, कुछ अँग्रेजी भी पढ़ी है।'

चौधरी प्रसन्न होकर बोले--तब तो भैया, हम तुम्हें न जाने देंगे। बाल-बच्चों को बुला लो और यहीं रहो। हमारे बाल-बच्चे भी कुछ पढ़ जायेंगे। फिर शहर भेज देंगे। वहाँ जात-बिरादरी कौन पूछता है। लिखा दिया--हम छत्तरी हैं।

अमर मुसकराया--और जो पीछे से खुल गया ?

चौधरी का जवाब तैयार था--तो हम कह देंगे, हमारे पुरबज छत्तरी थे, हालाँ कि अपने को छत्तरी-वैश कहते लाज आती है। सुनते हैं, छत्तरी लोगो ने मुसलमान बादशाहों को अपनी बेटियाँ ब्याही थीं। अभी कुछ जलपान तो न किया होगा भैया? कहाँ गया तेजा! बहू से कुछ जलपान करने को ले आ। भैया, भगवान् का नाम लेकर यहीं टिक जाओ। तीन-चार बीघे सलोनी के पास हैं। दो बीघे हमारे साझे में कर लेना। इतना बहुत है। भगवान् दें तो खाये न चुके।

लेकिन जब सलोनी बुलायी गयी और उससे चौधरी ने प्रस्ताव किया, तो वह बिचक उठी। कठोर मुद्रा से बोली--तुम्हारी मंशा है, अपनी ज़मीन इनके नाम करा दूं और मैं हवा खाऊँ, यही तो?

चौधरी ने हँसकर कहा--नहीं-नहीं जमीन तेरे ही नाम रहेगी पगली। यह तो खाली जोतेंगे। यही समझ ले कि तू इन्हें बटाई पर दे रही है।

सलोनी ने कानों पर हाथ रखकर कहा--भैया, अपनी जगह-जमीन मैं किसी के नाम नहीं लिखती। यों हमारे पाहुने हैं, दो-चार-दस दिन रहें।

१५२
कर्मभूमि
 

मुझसे जो कुछ होगा, सेवा-सत्कार करूँगी। तुम बटाई पर लेते हो, तो ले लो। जिसको कभी देखा न सुना, न जान न पहचान, उसे कैसे बटाई पर दे दूँ?

पयाग ने चौधरी की और तिरस्कार भाव से देखकर कहा--भर गया मन या अभी नहीं। कहते हो औरतें मूरख होती हैं। यह चाहें हमको तुमको खड़े-खड़े बेच लायें। सलोनी काकी मुँह की मीठी है।

सलोनी तिनक उठी--हाँ जी, तुम्हारे कहने से अपने पुरुखों की ज़मीन छोड़ दूं। मेरे ही पेट का लड़का, मुझी को चराने चला है !

काशी ने सलोनी का पक्ष लिया--ठीक तो कहती है, बे जाने-सुने आदमी को अपनी ज़मीन कैसे सौंप दे।

अमरकान्त को इस विवाद में दार्शनिक आनन्द आ रहा था। मुस्कराकर बोला--हाँ, दादी तुम ठीक कहती हो। परदेशी आदमी का क्या भरोसा ?

मुन्नी भी द्वार पर खड़ी यह बातें सुन रही थी। बोली--पगला गई हो क्या काकी? तुम्हारे खेत कोई सिर पर उठा ले जायगा ? फिर हम लोग तो हैं ही। जब तुम्हारे साथ कोई कपट करेगा, तो हम पूछेंगे नहीं ?

किसी भड़के हुए जानवर को बहुत से आदमी घेरने लगते हैं, तो वह और भी भड़क जाता है। सलोनी समझ रही थी, यह सब-के-सब मिलकर मुझे लुटवाना चाहते हैं। एक बार नहीं करके, फिर हाँ न की। वेग से चल खड़ी हुई।

पयाग बोला--चुड़ैल है चुड़ैल !

अमर ने खिसियाकर कहा--तुमने नाहक उससे कहा दादा ! मुझे क्या, यह गाँव न सही और गाँव सही।

मुन्नी का चेहरा फ़क हो गया।

गूदड़ बोले--नहीं भैया, कैसी बातें करते हो तुम! मेरे साझीदार बन कर रहो। महन्तजी से कहकर दो चार बीघे का और बन्दोबस्त करा दूँगा। तुम्हारी झोंपड़ी अलग बन जायगी। खाने-पीने की कोई बात नहीं। एक भला आदमी तो गाँव में हो जायगा ! नहीं कभी एक चपरासी गाँव में आ गया, तो सब की साँस तले-ऊपर होने लगती है।

आध घण्टे में सलोनी फिर लौटी और चौधरी से बोली--तुम्हीं मेरे खेत क्यों बटाई पर नहीं ले लेते।

कर्मभूमि
१५३
 

चौधरी ने घुड़ककर कहा--मुझे नहीं चाहिए। धरे रह अपने खेत।

सलोनी ने अमर से अपील की--भैया, तुम्हीं सोचो, मैंने कुछ बेजा कहा? बे जाने-सुने किसी को कोई अपनी चीज़ दे देता है।

अमर ने सांत्वना दी--नहीं काकी, तुमने बहुत ठीक किया। इस तरह विश्वास कर लेने से धोखा हो जाता है।

सलोनी को कुछ ढाढ़स हुआ--तुमसे तो बेटा मेरी रात ही भर की जान-पहचान है न। जिसके पास मेरे खेत आजकल हैं, वह तो मेरा ही भाई-बन्द है। उससे छीनकर तुम्हें दे दूँ, तो वह अपने मन में क्या कहेगा। सोचो, अगर मैं अनुचित कहती हूँ, तो मेरे मुंह पर थप्पड़ मारो। वह मेरे साथ बेईमानी करता है, यह जानती हूँ; पर है तो अपना ही हाड़-माँस। उसके मुँह की रोटी छीनकर तुम्हें दे दूँ, तो तुम मुझे भला कहोगे बोलो ?

सलोनी ने यह दलील खुद सोच निकाली थी, या किसी और ने सुझा दी थी; पर इसने गूदड़ को लाजवाब कर दिया।