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कर्मभूमि/पाँचवाँ भाग ३

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हंस प्रकाशन, पृष्ठ ३४० से – ३४९ तक

 

पुलिस ने उस पहाड़ी इलाके का घेरा डाल रखा था। सिपाही और सवार चौबीसों घण्टे घूमते रहते थे। पाँच आदमियों से ज्यादा एक जगह जमा न हो सकते थे। शाम को आठ बजे के बाद कोई घर से न निकल सकता था। पुलिस को इत्तला दिये बगैर घर में मेहमान को ठहराने की भी मनाही थी। फौजी क़ानून जारी कर दिया गया था। कितने ही घर जला दिये गये थे। और उनके रहनेवाले हबूड़ों की भाँति वृक्षों के नीचे बाल-बच्चों को लिये पड़े हुए थे। पाठशाला में भी आग लगा दी गयी थी और उसकी आधी-आधी काली दीवारें मानो केश खोले मातम कर रहीं थी। स्वामी आत्मानन्द बाँस की छतरी लगाये अब भी वहाँ डटे हुए थे। जरा-सा मौक़ा पाते ही इधर उधर से दस-बीस आदमी आकर जमा हो जाते; पर सवारों को आते देखा और गायब।

सहसा लाला समरकान्त एक गट्ठर पीठ पर लादे मदरसे के सामने आकर खड़े हो गये। स्वामीजी ने दौड़कर उनका बिस्तर ले लिया और खाट की फ़िक में दौड़े। गाँव-भर में बिजली की तरह ख़बर दौड़ गयी---भैया के बाप आये हैं। हैं तो वृद्ध; मगर अभी टनमन हैं। सेठ-साहूकार-से लगते हैं। एक क्षण में बहुत-से आदमियों ने आकर घेर लिया। किसी के सिर में पट्टी बंधी थी, किसी के हाथ में। कई लँगड़ा रहे थे। शाम हो गयी और आज कोई विशेष खटका न देखकर और सारे इलाके में डण्डे के बल से शान्ति स्थापित करके पुलिस विश्राम कर रही थी। बेचारे रात-दिन दौड़ते-दौड़ते अधमरे हो गये थे।

गूदड़ ने लाठी टेकते हुए आकर समरकान्त के चरण छुए और बोले---अमर भैया का समाचार तो आपको मिला होगा। आजकल तो पुलिस का धावा है। हाकिम कहता है--बारह आने लेंगे, हम कहते हैं हमारे पास है ही नहीं, दें कहाँ से। बहुत-से लोग तो गाँव छोड़कर भाग गये। जो हैं, उनकी दशा आप देख ही रहे हैं। मुन्नी बहू को पकड़कर जेहल में डाल दिया। आप ऐसे समय में आये कि आपकी कुछ ख़ातिर भी नहीं कर सकते। समरकान्त मदरसे के चबूतरे पर बैठ गये और सिर पर हाथ रखकर सोचने लगे---इन गरीबों की क्या सहायता करें। क्रोध की एक ज्वाला सी उठकर रोम-रोम में व्याप्त हो गयी। पूछा---यहाँ कोई अफसर भी तो होगा?

गूदड़ ने कहा---हाँ, अपसर तो एक नहीं, पचीस हैं। सबसे बड़े अपसर तो वही मियाँजी हैं, जो अमर भैया के दोस्त है।

'तुम लोगों ने उस लफंगे से पूछा नहीं---मार-पीट क्यों करते हो, क्या यह भी क़ानून है?'

'गूदड़ ने सलाना का मड़ैया की ओर देखकर कहा---भैया कहते तो सब कुछ हैं, जब कोई सुने। सलीम साहब ने ख़ुद अपने हाथों से हंटर मारे। उनकी बेदर्दी देखकर पुलिसवाले भी दाँतों उँगली दबाते थे। सलोनी मेरी भावज लगती है। उसने उनके मुँह पर थूक दिया था। यह उसे न करना चाहिए था। पागलपन था और क्या। मियाँ साहब आग हो गये और बुढ़िया को इतने हंटर जमाये कि भगवान ही बचायें तो बचे। मुदा वह भी है अपनी धुन की पक्की, हरेक हंटर पर गाली देती थी। जब बेदम होकर गिर पड़ी, तब जाकर उसका मुँह बन्द हुआ। भैया उसे काकी-काकी करते रहते थे। कहीं से आवें, सबसे पहले काकी के पास जाते थे। उठने लायक होती तो ज़रूर से ज़रूर आती।

आत्मानन्द ने चिढ़कर कहा---अरे तो अब रहने भी दो, क्या सब आज ही कह डालोगे। पानी मँगवाओ, आप हाथ-मुँह धोयें, ज़रा आराम करने दो, थके-माँदे आ रहे हैं---वह देखो, सलोनी को भी ख़बर मिल गयी, लाठी टेकती चली आ रही है।

सलोनी ने पास आकर कहा---कहाँ हो देवरजी! सावन में आते तो तुम्हारे साथ झूला झूलती, चले हो कार्तिक में! जिसका ऐसा सिर्दार और ऐसा बेटा उसे किसका डर और किसकी चिन्ता। तुम्हें देखकर सारा दुख भूल गयी देवरजी!

समरकान्त ने देखा---सलोनी की सारी देह सूज उठी है और साड़ी पर लहू के दाग़ सूखकर कत्थई हो गये हैं। मुँह सूजा हुआ है। इस मुरदे पर इतना क्रोध! उस पर विद्वान बनता है! उनकी आँखों में खून उतर आया। हिंसा-भावना मन में प्रचण्ड हो उठी। निर्बल क्रोध और चाहे कुछ न कर सके, भगवान् की खबर ज़रूर लेता है। तुम अन्तर्यामी हो, सर्वशक्तिमान् हो, दोनों के रक्षक हो और तुम्हारी आँखों के सामने यह अन्धेर! इस जगत् का नियन्ता कोई नहीं है। कोई दयामय भगवान् सृष्टि का कर्ता होता, तो यह अत्याचार न होता! अच्छे सर्वशक्तिमान् हो! क्यों नरपिशाचों के हृदय में नहीं पैठ जाते, या वहाँ तुम्हारी पहुँच नहीं है। यह सब भगवान की लीला है। अच्छी लीला है! अगर तुम्हें भी ऐसी लीला में आनन्द मिलता है, तो तुम पशुओं से भी गये बीते हो! अगर तुम्हें इस व्यापार की ख़बर नहीं है, तो सर्वव्यापी क्यों कहलाते हो?

समरकान्त धार्मिक प्रवृत्ति के आदमी थे। धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया था। भगवद्गीता का नित्य पाठ किया करते थे; पर इस समय वह सारा धर्मज्ञान उन्हें पाखण्ड-सा प्रतीत हुआ।

वह उसी तरह उठ खड़े हुए और पूछा--सलीम तो सदर में होगा?

आत्मानन्द ने कहा--आजकल तो यहीं पड़ाव है। डाकबँगले में ठहरे हुए हैं।

'मैं ज़रा उनसे मिलूँगा।'

'अभी वह क्रोध में हैं, आप मिलकर क्या कीजिएगा। आपको भी अपशब्द कह बैठेंगे।'

'यही देखने तो जाता हूँ कि मनुष्य की पशुता किस सीमा तक जा सकती है।

'तो चलिए, मैं भी आपके साथ चलता हूँ।'

गूदड़ बोल उठा---नहीं-नहीं, तुम न जइयो स्वामीजी! भैया, यह हैं तो संन्यासी और दया के अवतार, मुदा क्रोध में भी दुर्वासा मुनी से कम नहीं हैं। जब हाकिम साहब सलोनी को मार रहे थे तब चार आदमी इन्हें पकड़े हए थे, नहीं तो उस बखत मियाँ का खून चूस लेते, चाहे पीछे से फाँसी हो जाती। गाँव भर की मरहम-पट्टी इन्हीं के सुपुर्द है।

सलोनी ने समरकान्त का हाथ पकड़कर कहा--मैं चलूंगी तुम्हारे साथ देवरजी। उसे दिखा दूँगी कि बुढ़िया तेरी छाती पर मूंग दलने को बैठी हुई है! तू मारनहार है, तो कोई तुझसे बड़ा राखनहार भी है। जब तक उसका हुक्म न हींगा तू क्या मार सकेगा। भगवान् में उसकी यह अपार निष्ठा देखकर समरकान्त की आँखें जल हो गयीं। सोचा---मुझसे तो ये मूर्ख ही अच्छे, जो इतनी पीड़ा और दुःख सहकर भी तुम्हारा ही नाम रटते हैं। बोले--नहीं भाभी मझे अकेले जाने दो। मैं अभी उनसे दो-दो बातें करके लौट आता हूँ।

सलोनी लाठीं सँभाल रही थी कि समरकान्त चल पड़े। तेजा और दर्जन आगे-आगे डाकबँगले का रास्ता दिखाते हुए चले।

तेजा ने पूछा---दादा,जब अमर भैया छोटे-से थे, तो बड़े शैतान थे न?

समरकान्त ने इस प्रश्न का आशय न समझकर कहा---नहीं तो, वह तो लड़कपन ही से बड़ा सुशील था।

दुर्जन ताली बजाकर बोला---अब कहो तेजू हारे कि नहीं? दादा, हमारा इनका वह झगड़ा है कि यह कहते हैं, जो लड़के बचपन में बड़े शैतान होते हैं, वही बड़े होकर सुशील हो जाते हैं; और मैं कहता हूँ, जो लड़कपन में सुशील होते हैं, वही बड़े होकर भी सुशील रहते हैं। जो बात आदमी में है नहीं, वह बीच में कहाँ से आ जायगी।

तेजा ने शंका की---लड़के में तो अक्कल भी नहीं होती, जबान होने पर कहाँ से आ जाती है? अँखुवे में तो खाली दो दल होते हैं, फिर उनमें डाल-पात कहाँ से आ जाते हैं? यह कोई बात नहीं। मैं ऐसे कितने ही नामी आदमियों के उदाहरन दे सकता हूँ, जो बचपन में बड़े पाजी थे मगर आगे चलकर महात्मा हो गये।

समरकान्त को बालकों के इस तर्क में बड़ा आनन्द आया। मध्यस्थ बनकर दोनों ओर कुछ सहारा देते जाते थे। रास्ते में एक जगह कीचड़ भरा हुला था। समरकान्त के जूते कीचड़ में फँसकर पाँव से निकल गये। इस पर बड़ी हँसी हुई।

सामने से पाँच सवार आते दिखायी दिये। तेजा ने एक पत्थर उठाकर एक सवार पर निशाना मारा। उसकी पगड़ी जमीन पर गिर पड़ी। वह तो घोड़े से उत्तरकर पगड़ी उठाने लगा, बाक़ी चारों घोड़े दौड़ाते हुए समरकान्त के पास आ पहुँचे।

तेजा दौड़कर एक पेड़ पर चढ़ गया। दो सवार उसके पीछे दौड़े और नीचे से गालियाँ देने लगे। बाकी तीन सवारों ने समरकान्त को घेर लिया और एक ने हंटर ऊपर उठाया ही था कि यकायक चौंक पड़ा और बोला--अरे! आप है सेठजी! आप यहाँ कहाँ?

सेठजी ने सलीम को पहचान कर कहा--हाँ-हाँ, चला दो हंटर, रुक क्यों गये? अपनी कारगुज़ारी दिखाने का ऐसा मौका फिर कहाँ मिलेगा। हाकिम होकर अगर ग़रीबों पर हंटर न चलाया, तो हाकिमी किस काम की!

सलीम लज्जित हो गया---आप इन लौंडों की शरारत देख रहे हैं, फिर भी मुझी को क़सूरवार ठहराते हैं। उसने ऐसा पत्थर मारा कि इन दारोगा़जी की पगड़ी गिर गयी। ख़ैरियत हुई कि आँख में न लगा।

समरकान्त आवेश में औचित्य को भूलकर बोले---ठीक तो है, जब उस लौंडे ने पत्थर चलाया, जो अभी नादान है, तो फिर हमारे हाकिम साहब जो विद्या के सागर हैं, क्या हंटर भी न चलायें! कह दो दोनों सवार पेड़ पर चढ़ जायँ, लौंडे को ढकेल दें, नीचे गिर पड़े। मर जायगा, तो क्या हुआ, हाकिम से बेअदबी करने की सजा तो पा जायगा!

सलीम ने सफाई दी---आप तो अभी आये हैं, आपको क्या खबर यहाँ के लोग कितने मुफ़सिद हैं। एक बुढ़िया ने मेरे मुँह पर थूक दिया, मैंने जब्त किया, वरना सारा गाँव जेल में होता।

समरकान्त यह बमगोला खाकर भी परास्त न हुए---तुम्हारे ज़ब्त की बानगी देखे आ रहा हूँ बेटा, अब मुँह न खुलवाओ। वह अगर जाहिल बेसमझ औरत थी, तो तुम्हीं ने आलिम-फ़ाजिल होकर कौन-सी शराफ़त की? उसकी सारी देह लहू-लुहान हो रही है, शायद बचेगी भी नहीं। कितने आदमियों के अंग-भंग हुए? सब तुम्हारे नाम को दुआएँ दे रहे हैं। अगर उनसे रुपये न वसूल होते थे, तो बेदखल कर सकते थे, उनकी फ़सल कुर्क कर सकते थे। मार-पीट का कानून कहाँ से निकला।

'बेदखली से क्या नतीजा, ज़मीन का यहाँ कौन खरीदार है? आख़िर सरकारी रक़म कैसे वसूल की जाय?'

'तो मार डालो सारे गाँव को, देखो कितने रुपये वसूल होते हैं! तुमसे मुझे ऐसी आशा न थी; मगर शायद हुकूमत में कुछ नशा होता है।'

'आपने अभी इन लोगों की बदमाशी नहीं देखी। मेरे साथ आइए, तो मैं सारी दास्तानं सुनाऊँ। आप इस वक्त आ कहाँ से रहे हैं?' समरकान्त ने अपने लखनऊ आने और सुखदा से मिलने का हाल कहा। फिर मतलब की बात छेड़ी--अमर तो यहीं होगा! सुना, तीसरे दरजे में रखा गया है।

अँधेरा ज्यादा हो गया था। कुछ ठंड भी पड़ने लगी थी। चार सवार तो गाँव की तरफ़ चले गये, सलीम घोड़े की रास थामे हुए पाँव-पाँव समरकान्त के साथ डाकबँगले चला।

कुछ दूर चलने के बाद समरकान्त बोले--तुमने दोस्त के साथ खूब दोस्ती निभायी। जेल भेज दिया अच्छा किया; मगर कम-से-कम उसे कोई अच्छा दरजा तो दिला देते। मगर हाकिम ठहरे, अपने दोस्त की सिफ़ारिश कैसे करते।

सलीम ने व्यथित कंठ से कहा--आप तो लालाजी मुझी पर सारा गुस्सा उतार रहे हैं। मैंने तो दूसरा दरजा दिला दिया था; मगर अमर खुद मामूली क़ैदियों के साथ रहने पर ज़िद करने लगे, तो मैं क्या करता। मेरी बदनसीबी है कि यहाँ आते ही मुझे वह सब कुछ करना पड़ा, जिससे मुझे नफ़रत थी।

डाकबँगले पहुँचकर सेठजी एक आराम कुरसी पर लेट गये और बोले--तो मेरा यहाँ आना व्यर्थ हुआ। जब वह अपनी खुशी से तीसरे दरजे में है, तो लाचारी है। मुलाकात तो हो जायगी?

सलीम ने उत्तर दिया--मैं आपके साथ चलूँँगा। मुलाकात की तारीख तो अभी नहीं आयी है, मगर जेलवाले शायद मान जायँ। हाँ, अंदेशा अमरकान्त की तरफ़ से है। वह किसी क़िस्म की रिआयत नहीं चाहते।

उसने जरा मुसकराकर कहा---अब तो आप भी इन कामों में शरीक होने लगे!

सेठजी ने नम्रता से कहा---अब मैं इस उम्र में क्या काम करूँगा। बूढ़े दिल में जवानी का जोश कहाँ से आये। बहू जेल में है, लड़का जेल में है, शायद लड़की भी जेल की तैयारी कर रही है। और मैं चैन से खाता पीता हूँ, आराम से सोता हूँ! मेरी औलाद मेरे पापों का प्रायश्चित कर रही है। मैंने ग़रीबों का कितना खून चूसा है, कितने घर तबाह किये हैं, उसकी याद करके खुद शर्मिन्दा हो जाता हूँ। अगर जवानी में समझ आ गयी होती तो कुछ अपना सुधार करता। अब क्या करूँगा। बाप सन्तान का गुरु होता है। उसी के पीछे लड़के चलते हैं। मुझे अपने लड़कों के पीछे चलना पड़ा। मैं धर्म की असलियत को न समझकर धर्म के स्वाँग को धर्म समझे हुए था। यही मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी भूल थी। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि दुनिया का कैंडा ही बिगड़ा हुआ है। जब तक हमें जायदाद पैदा करने की धुन रहेगी, हम धर्म से कोसों दूर रहेंगे। ईश्वर ने संसार को क्यों इस ढंग पर लगाया, यह मेरी समझ में नहीं आता। दुनिया को जायदाद के मोह-बन्धन से छुड़ाना पड़ेगा, तभी आदमी आदमी होगा, तभी दुनिया से पाप का नाश होगा।

सलीम ऐसी ऊँची बातों में न पड़ना चाहता था। उसने सोचा---जब मैं भी इनकी तरह ज़िन्दगी के सुख भोग लूँगा, तो मरते समय फ़िलासफर बन जाऊँगा। दोनों कई मिनट तक चुपचाप बैठे रहे। फिर लालाजी स्नेह से भरे स्वर में बोले--नौकर हो जाने पर आदमी को मालिक का हुक्म मानना ही पड़ता है। इसकी मैं बुराई नहीं करता। हाँ, एक बात कहूँगा! जिन पर तुमने जुल्म किया है, चलकर उनके आँसू पोंछ दो। यह गरीब आदमी थोड़ी-सी भलमनसी से काबू में आ जाते हैं। सरकार की नीति तो तुम नहीं बदल सकते; लेकिन इतना तो कर सकते हो कि किसी पर बेजा सख्ती न करो।

सुलीम ने शर्माते हुए कहा---लोगों की गुस्ताखी पर गुस्सा आ जाता है; वरना में तो खुद नहीं चाहता कि किसी पर सख़्ती करूँ। फिर सिर पर कितनी बड़ी जिम्मेदारी है। लगान न वसूल हुआ, तो मैं कितना नालायक समझा जाऊँगा।

समरकान्त ने तेज होकर कहा--तो बेटा, लगान तो न वसूल होगा, हाँ, आदमियों के खून से हाथ रंग सकते हो।

'यही तो देखना है।'

'देख लेना। मैंने भी इसी दुनिया में बाल सफेद किये हैं। हमारे किसान अफसरों की सूरत से काँपते थे; लेकिन जमाना बदल रहा है। अब उन्हें भी मान-अपमान का ख़याल होता है। तुम मुफ्त में बदनामी उठा रहे हो।'

'अपना फ़र्ज अदा करना बदनामी है, तो मुझे उसकी परवा नहीं।' समरकान्त ने अफसरी के इस अभिमान पर हँसकर कहा--फ़र्ज में थोड़ी-सी मिठास मिला देने से किसी का कुछ नहीं बिगड़ता, हाँ, बन बहुत कुछ जाता है। यह बेचारे किसान ऐसे गरीब हैं कि थोड़ी-सी हमदर्दी करके उन्हें अपना गुलाम बना सकते हो। हुकूमत तो बहुत झेल चुके। अब भलमनसी का बरताव चाहते हैं। जिस औरत को तुमने हंटरों से मारा, उसे एक बार माता कहकर उसकी गर्दन काट सकते थे। यह मत समझ लो कि तुम उन पर हुकमत करने आये हो। यह समझो कि उनकी सेवा करने आये हो। मान लिया, तुम्हें तलब सरकार से मिलती है; लेकिन आती तो इन्हीं की गाँठ से है! कोई मूर्ख हो, तो उसे समझाऊँ। तुम भगवान् की कृपा से आप ही विद्वान हो। तुम्हें क्या समझाऊँ। तुम पुलिसवालों की बातों में आ गये। यही बात है न?

सलीम भला यह कैसे स्वीकार करता।

लेकिन समरकान्त अड़े रहे---मैं इसे नहीं मान सकता। तुम तो किसी से नज़र नहीं लेना चाहते; लेकिन जिन लोगों की रोटियाँ नोच-खसोट पर चलती हैं, उन्होंने जरूर तुम्हें भरा होगा। तुम्हारा चेहरा कहे देता है कि तुम्हें ग़रीबों पर जुल्म करने का अफ़सोस है। मैं यह तो नहीं चाहता कि आठ आने से एक पाई भी ज्यादा वसूल करो; लेकिन दिलजोई के साथ तुम बेशी भी वसूल कर सकते हो। जो भूखों मरते हैं, चीथड़े और पुआल में सोकर दिन काटते हैं उनसे एक पैसा भी दबाकर लेना अन्याय है। जब हम और तुम दो-चार घण्टे आराम से काम करके आराम से रहना चाहते हैं, जायदादें बनाना चाहते हैं, शौक की चीज़ें जमा करते हैं: तो क्या यह अन्याय नहीं है कि जो लोग स्त्री-बच्चों समेत अठारह घण्टे रोज़ काम करें, वह रोटी-कपड़े को तरसें? बेचारे ग़रीब हैं, बेज़बान हैं, अपने को संगठित नहीं कर सकते; इसलिए सभी छोटे-बड़े उन पर रोब जमाते हैं। मगर तुम जैसे सहृदय और विद्वान लोग भी वही करने लगें, जो मामूली अमले करते है, तो अफ़सोस होता है। अपने साथ किसी को मत लो, मेरे साथ चलो। मेैं जिम्मा लेता हूँ कि कोई तुमसे गुस्ताखी न करेगा। उनके जख्म पर मरहम रख दो, मैं इतना ही चाहता हूँ। जब तक जियेंगे, बेचारे तुम्हें याद करेंगे। सदभाव में सम्मोहन का-सा असर होता है। सलीम का हृदय अभी इतना काला न हुआ था कि उस पर कोई रंग ही न चढ़ता। सकुचाता हुआ बोला---लेकिन मेरी तरफ़ से आप ही को कहना पड़ेगा।

'हाँ-हाँ यह सब मैं कर दूँँगा; लेकिन ऐसा न हो, मैं उधर चलूँ, इधर तुम हंटरबाजी शुरू करो।'

'अब ज्यादा शर्मिन्दा न कीजिये।'

'तुम यह तजवीज़ क्यों नहीं करते कि असामियों की हालत की जाँच की जाय? आँखें बन्द करके हुक्म मानना तुम्हारा काम नहीं। पहले अपना इतमीनान कर लो कि तुम बेइंसाफ़ी तो नहीं कर रहे हो। तुम खुद ऐसी रिपोर्ट क्यों नहीं लिखते। मुमकिन है हुक्काम इसे पसन्द न करें; लेकिन हक़ के लिए नुकसान उठाना पड़े, तो क्या चिन्ता।'

सलीम को यह बातें न्याय-संगत जान पड़ीं। खूंटे की पतली नोक जमीन के अन्दर पहुँच चुकी थी। बोला--इस बुजुर्गाना सलाह के लिए आपका एहसानमन्द हूँ और इस पर अमल करने की कोशिश करूँगा।

भोजन का समय आ गया था। सलीम ने पूछा--आपके लिए क्या खाना बनवाऊँ?

'जो चाहे बनवाओ; पर इतना याद रक्खों कि मैं हिन्दू हूँ और पुराने जमाने का आदमी हूँ। अभी तक छूत-छात को मानता हूँ।'

'आप छूत-छात को अच्छा समझते हैं?'

'अच्छा तो नहीं समझता; पर मानता हूँ।'

'तब मानते ही क्यों हैं?'

'इसलिए कि संस्कारों को मिटाना मुश्किल है। अगर जरूरत पड़े, तो मैं तुम्हारा मल उठाकर फेंक दूँँगा; लेकिन तुम्हारी थाली में मुझसे न खाया जायगा।'

'मैं तो आज आपको अपने साथ बैठाकर खिलाऊँगा।'

'तुम प्याज, मांस, अण्डे खाते हो; मुझसे उन बरतनों में खाया ही न जायगा।'

'आप यह सब कुछ न खाइयेगा। मगर मेरे साथ बैठना पड़ेगा। मैं रोज़ साबुन लगा कर नहाता हूँ।' 'बरतनों को खूब साफ़ करा लेना।'

'आपका खाना हिन्दू बनायेगा, बस एक मेज पर बैठकर खा लेना होगा।'

'अच्छा, खा लूँगा भाई! मैं दूध और घी ख़ूब खाता हूँ।'

सेठजी तो संध्योपासना करने बैठे, फिर पाठ करने लगे। इधर सलीम के साथ के एक हिंदु कांस्टेबल ने पूरी, कचौरी, हलवा, खीर पकाई। दही पहले ही से रखा हुआ था। सलीम खुद आज यही भोजन करेगा। सेठजी सन्ध्या करके लौटे, तो देखा, दो कम्बल बिछे हुए हैं और दो थालियाँ रखी हुई हैं।

सेठजी ने खुश होकर कहा---यह तुमने बहुत अच्छा इन्तज़ाम किया।

सलीम ने हँसकर कहा--मैंने सोचा, आपका धर्म क्यों लूँ; नहीं, एक ही कम्बल रखता।

'अगर यह खयाल है तो तुम मेरे कम्बल पर आ जाओ। नहीं मैं ही आता हूँ।'

वह थाली उठाकर सलीम के कम्बल पर आ बैठे। अपने विचार में आज उन्होंने अपने जीवन का सबसे महान त्याग किया। सारी संपत्ति दान देकर भी उनका हृदय इतना गौरवान्वित न होता।

सलीम ने चुटकी ली---अब तो आप मुसलमान हो गये।

सेठजी बोले--मैं मुसलमान नहीं हुआ, तुम हिन्दू हो गये।