कवि-रहस्य/13 चोरी
दूसरों के रचित शब्द और अर्थ का अपने प्रबन्ध में निवेश करना ‘हरण’ ‘चोरी’ ‘प्लैजियरिज्म’ कहलाता है ।
शब्द की ‘चोरी’ पाँच प्रकार की होती है--एक पद का, श्लोक के एक पाद का, श्लोक के दो पादों का, सम्पूर्ण श्लोक का, सम्पूर्ण प्रबन्ध का । परप्रयुक्त पदों का बचाना असंभव है । इसी तात्पर्य से कहा है--
नास्त्यचौरः कविजनो नास्त्यचौरो वणिग्जनः।
उत्पादकः कविः कश्चित् कश्चिच्च परिवर्तकः॥
आच्छादकस्तथा चान्यस्तथा संवर्गकोऽपरः।
अर्थात् कोई भी बनिया ऐसा नहीं जो चोर नहीं है, कोई भी कवि ऐसा नहीं जो चोर नहीं है । कोई कवि ‘उत्पादक’ होता है, नई रचना करता है, कोई ‘परिवर्तक’,अर्थात् दूसरों की रचना में फेर-बदल कर अपना बनाता है, कोई ‘आच्छादक’, अर्थात् दूसरों की रचना को छिपाकर तत्सदृश अपनी रचना का प्रचार करता है, कोई ‘संवर्गक’, अर्थात् डाकू, खुल्लम-खुल्ला दूसरे के काव्य को अपना कहकर प्रकाश करता है ।
इस विषय में पण्डितों में यह श्लोक प्रसिद्ध है——
कविनुहरतिच्छायामथं कुकविः पवादिकं चौरः।
सर्वप्रबन्धहर्ने साहसकर्त्रे नमस्तस्मै ॥
अर्थात् जो दूसरों के काव्य की छाया मात्र का अनुकरण करता है सो ‘कवि’ है । जो अर्थ या भाव का अनुकरण करता है सो ‘कुकवि’ है । जो पदवाक्यादि का अनुकरण करता है सो ‘चोर’ है । जो समस्त प्रबन्ध, पदवाक्य, अर्थ, भाव सभी का अनुकरण करता है ऐसे साहस करनेवाले को नमस्कार है ॥
इस संबंध में कविकण्ठाभरण में छः दर्जे के कवि कहे गये हैं——
छायोपजीवी, पदकोपजीवी, पादोपजीवी सकलोपजीवी।
भवेदथ प्राप्तकवित्वजीवी स्वोन्मेषतो वा भुवनोपजीव्यः॥
अर्थात--(१) दूसरे के काव्य की छाया-मात्र लेकर जो कविता करे । (२) एक आध पद लेकर (३) श्लोक का एक पाद लेकर (४) समग्र श्लोक लेकर (५) जो कवि शिक्षा प्राप्त कर ऐसी शिक्षा के बल से कविता करे (६) अपने स्वाभाविक प्रतिभा के बल कविता करे ।।
कुछ लोगों का कहना है कि प्राचीन कवियों के काव्यों का भलीभाँति परिशीलन करने की आवश्यकता है क्योंकि यही एक उपाय है कि परो-च्छिष्ट भावों को हम बचा सकें——या उन भावों को हम उलट फेर कर अपने काव्य में उपयोग कर सकें । पर असल में कवि की प्रतिभा अवाङ-मनसगोचर दृष्ट तथा अदृष्ट वस्तुओं को जान लेती है--और उनका उचित-अनुचित विभाग भी कर लेती है । कवियों के ऊपर सरस्वती जी की ऐसी कृपा है कि जो वस्तु और लोगों के लिए जाग्रत् अवस्था में अदृश्य है सो भी कवियों को स्वप्नावस्था में भासित हो जाता है । इसी कृपा के प्रसाद से दूसरों के शब्द और भाव के प्रसंग में कवि अंधा होता है--उनके अतिरिक्त में उनकी दिव्य दृष्टि होती है। कवियों के मतिदर्पण में समस्त संसार प्रति-बिम्बित होता है । शब्द और अर्थ सभी कवियों के सामने स्वयं उपस्थित होते रहते हैं । इस आशा से कि कवि जी मेरा ही ग्रहण करेंगे ।
इतना होते हुए भी कवियों को तीन प्रकार के अर्थ जानने का प्रयत्न करना होगा। ये तीन हैं--अन्ययोनि, निहतयोनि और अयोनि । इनमें ‘अन्ययोनि’; जिसकी उत्पत्ति दूसरों से है, दो प्रकार के होते हैं, ‘प्रतिबिम्ब-कल्प’ (अर्थात् प्रतिबिम्ब के सदृश) और ‘आलेख्यप्रख्य’ (अर्थात् चित्र के सदृश) । ‘निहृतयोनि’ भी दो प्रकार का है, तुल्यदेहितुल्य और परपुर-प्रवेशसदृश । ‘अयोनि’ के ग्यारह भेद हैं ।
जिसमें अर्थ बिलकुल वही है केवल शब्द-रचना का भेद है उसे ‘प्रति-बिम्बकल्प’ कहते हैं । जिसमें थोड़ा सा हेर-फेर इस चतुराई के साथ किया गया है कि वही भाव नवीन सा मालूम होता है--उसे ‘आलेख्यकल्प’कहेंगे । दृष्टांत--
ते पान्तु वः पशुपतेरलिनीलभासः
कण्ठप्रदेशघटिताः फणिनः स्फुरन्तः।
चन्द्रामृताम्बुकणसेकसुखप्ररूढै-
र्यैरङ्कररिव विराजति कालकूटः ॥
इसका ‘प्रतिबिम्बकल्प’ अनुकरण होगा--
जयन्ति नीलकण्ठस्य नीलाः कण्ठे महाहयः।
गलद्गंगाम्बुसंसिक्तकालकूटांकुरा इव ॥
और 'आलेख्यप्रख्य' अनुकरण होगा--
जयन्ति धवलव्यालाः शम्भोजूंटावलम्बिनः।
गलद्गंगाम्बुसंसिक्तचन्द्रकन्दांकुरा इव ॥
जहाँ पर दोनों उक्तियों में इतना सादृश्य हो कि भेद रहते हुए अभेद ही भासित हो, उसे ‘तुल्यदेहितुल्य’ कहते हैं ।
जहाँ दो उक्तियों का मूल एक हो पर और बातें सब भिन्न हों——उसे ‘परपुरप्रवेशसदृश’ कहते हैं ।
परोक्तिहरण के नाना प्रभेद के आधार पर कवि के ये चार प्रभेद माने गये हैं । पाँचवाँ वह है जिसे ‘अदृष्टचरार्थदर्शी’ कहते हैं, अर्थात
कहे सो ‘चुम्बक’ है । (३) दूसरे की उक्ति को खींच कर जो अपने प्रबन्ध में किसी लेख के द्वारा घुसेड़े सो ‘कर्षक’ है । (४) जो दूसरी की उक्ति के मूलार्थ का सार लेक अपनी उक्ति में इस प्रकार कहे कि प्राचीन रूप उसका जाना न जाय सो ‘द्रावक’ है । (५) जिसके भाव रस उत्पन्न करनेवाले हैं और जिस भाव का ज्ञान किसी भी प्राचीन कवि को नहीं हुआ--उसे ‘चिन्तामणि कवि’ कहते हैं ।
जिसके भाव ‘अयोनि’ हैं अर्थात् बिलकुल नये ऐसे कवि के तीन प्रभेद हैं--लौकिक, अलौकिक, लौकिक-अलौकिक--मिश्रित ।
भ्रामक, चुम्बक, कर्षक, द्रावक इन चारों के प्रत्येक आठ आठ अवा-न्तर भेद हैं । इससे कुल संख्या ३२ होती है। ये आठ अवान्तर भेद ये हैं ।
(१) पुरानी उक्ति के दो अंशों के पौर्वापर्य को बदल देना--इसे ‘व्यस्तक’ कहते हैं ।
(२) पुरानी उक्ति लम्बी चौड़ी है--उसमें से कुछ अंश ले लेना-- इसे ‘खण्ड’ कहते हैं ।
(३) पुरानी उक्ति संक्षिप्त है उसी को विस्तृत रूप में कहना- इसे ‘तैलबिन्दु’ कहते हैं । इसका उदाहरण है--
(प्राचीन)--
यस्य तन्त्रभराकान्त्या पातालतलगामिनी।
महावराहदंष्ट्राया भूयः सस्मार मेदिनी॥
(नवीन)--
यत्तन्त्राक्रान्तिमन्जत्पृथुलमणिशिलाशल्यवेल्लत्फणान्ते
क्लान्ते पत्यावहीनां चलवचलमहास्तम्भसम्भारभीमा।
सस्मार स्फारचन्द्रघुतिपुनरवनिस्तद्धिरण्याक्षवक्ष:-
स्थूलास्थिश्रेणिशाणानिकषणसितमप्याशु दंष्ट्राग्रमुग्रम् ॥
(४) पुरानी उक्ति जिस भाषा में है उसी को दूसरी भाषा में कहना-इसे ‘नटनेपथ्य’ कहते हैं ।
(५) केवल छन्द बदल देना——इसे ‘छन्दोविनिमय’ कहते हैं ।
(६) पुरानी उक्ति में जो किसी वृत्तांत का कारण कहा गया है उस वृत्तांत का दूसरा कारण कहना——इसे-‘हेतुव्यत्यय’ कहते हैं ।
(७) देखी हुई वस्तु को अन्यत्र ले जाना——यह ‘संक्रान्तक’ है ।
(८) दोनों वाक्यार्थों का उपादान है ‘सम्पुट’। इस तरह के परोक्ति का अपहरण कवि को ‘अकवि’ बना देता है । इससे यह सर्वथा त्याज्य है । ये सब प्रभेद ‘प्रतिबिम्बकल्प’ के हैं । ‘आलेख्यप्रख्य’ रूप अपहरण के निम्नलिखित भेद हैं——
(१) ‘समक्रम’——प्राचीन उक्ति के सदृश रचना करना ।
(२) ‘विभूषणमोश’——प्राचीन उक्ति में जो अलंकार समेत है उसे अलंकार-रहित बनाकर कहना ।
(३) ‘व्युत्क्रम’——प्राचीन उक्ति में जिस क्रम से बातें कहीं हैं उनको क्रम बदल कर कहना ।
(४) ‘विशेषोक्ति’--प्राचीन उक्ति में जो सामान्य रूप से कहा है उसे विशेष रूप से कहना ।
(५) ‘उत्तंस’——जो उपसर्जनभाव से कहा है उसे प्रधानभाव से कहना ।
(६) ‘नटनेपथ्य’——बात वही कहना पर थोड़ा बदलकर ।
(७) ‘एकपरिकार्य’——जो प्राचीन उक्ति में कारण-सामग्री कहा है सो ही सामग्री कहना पर काय दूसरा बदल देना ।
(८) ‘प्रत्यापत्ति’——जो विकृतिरूप से कहा है उसे प्रकृतिरूप में कहना ।
ये मार्ग ऐसे हैं जिनका अवलम्बन अनुचित नहीं है ।
‘तुल्यदेहितुल्य’ अर्थहरण के भेद यों हैं ।
(१) ‘विषयपरिवर्त’——पहले कहे विषय में विषयान्तर मिलाकर उसका स्वरूपान्तर कर देना ।
(२) ‘द्वन्द्वविच्छित्ति’——जिस विषय का दो रूप वर्णित पहले का है उसका एक ही रूप लेकर वर्णन करना ।
(३) ‘रत्नमाला’ प्राचीन अर्थों का अर्थांतर करना ।
(४) ‘संख्योल्लेख’——एक ही विषय की पूर्वोक्त संख्या को बदल देना ।
(५) ‘चूलिका’——पहले जो सम कहा गया-उसे विषम कहना । या पहले जो विषम कहा गया उसे सम कहना।
(६) 'विधानापहार'-निषेध को विधि रूप में कहना।
(७) ‘माणिक्यपुंज’——बहुत अर्थों का एकत्र उपसंहार ।
(८) ‘कन्द’——कन्द (समष्टि) रूप अर्थ को कन्दल (व्यष्टि) रूप म कहना । इस मार्ग का भी अवलम्बन उचित है ।
‘परपुरप्रवेश’ रूप अर्थापहरण के भेद यों हैं ।
(१) ‘हुडयुद्ध’——एक प्रकार से उपनिबद्ध वस्तु को युक्ति-पूर्वक बदल देना । उदाहरण——
(प्राचीन)——
कथमसौ न भजत्यशरीरतां हतविवेकपदो हतमन्मथः।
प्रहरतः कदलीदलकोमले भवति यस्य दया न वधूजने ॥
कोमल स्त्री शरीर पर प्रहार करने के कारण यहाँ मन्मथ की निर्वि- वेकता-मूलक निन्दा है ।
(नवीन)——
कथमसौ मदनो न नमस्यातां स्थितविवेकपदो मकरध्वजः ।
मृगवृशां कदलीललितं वपुर्यवभिहन्ति शरैः कुसुमोद्भवः ।
स्त्रियों के कोमल शरीर पर कोमल फूलरूपी ही शर के प्रहार करने में मन्मथ अपनी विवेकिता सूचित करता है——यह उसकी प्रशंसा ।
और उदाहरण--कुमारसम्भव में हिमालय के वर्णन में श्लोक--
अनन्तरत्नप्रभवस्य तस्य हिमं न सौभाग्यविलोपि जातम् ।
एकोऽपि दोषोगुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवांकः ॥
अर्थात् हिमालय से अनन्त रत्न उत्पन्न होते हैं--इसलिए हिमं रूप दोष होते हुए भी उनके सौभाग्य में कोई हानि नहीं पहुँचाता । जैसे चन्द्रमा में यद्यपि कालिमा है तथापि यह दोष और गुणों के समूह में दब जाता है ।
इसके विपरीत नवीन कवि की उक्ति है--
एकोपि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोरिति यो बभाषे।
तेनैव मूनं कविना न दृष्टं दारिद्यदोषो गुणराशिनाशी॥
‘एक दोष गुण समूह में दब जाता है यह कहनेवाले ने यह नहीं देखा कि दरिद्रता एक ऐसा दोष है जो अनेक गुण समूह को नष्ट कर देता है ।’
तीसरा उदाहरण--पत्नी अपने विदेशस्थ पति को लिखती है--
प्राणेश विज्ञप्तिरियं मदीया तत्रैव नेया दिवसाः कियन्तः ।
सम्प्रत्ययोग्यस्थितिरेष देशः करा हिमांशोरपि तापयन्ति ।
‘हे प्राणेश मेरी विज्ञप्ति यह है कि अभी आप वहीं ठहरें--यह देश अभी रहने योग्य नहीं है--क्योंकि चन्द्रमा के भी किरण सन्तापक लगते हैं ।’
इस पर पति उत्तर देता है--
करा हिमांशोरपि तापयन्ति नैतत् प्रिये सम्प्रति शंकनीयम्।
वियोगतप्तं हृदयं मदीयंतत्र स्थिता त्वं परितापिताऽसि ॥
'हे प्रिये यह शंका मत करो कि चन्द्रमा के किरण सन्तापक हैं-- बात यह है कि तेरे वियोग से मेरा हृदय संन्तप्त हो रहा है-- और उसी हृदय में तुम बैठी हो-इसी से तुम मेरे हृदय के ताप से तपाई जा रही हो’ ।]
(२) ‘प्रतिकञ्चुक’--एक तरह के वस्तु को दूसरी तरह का बनाकर वर्णन करना ।
(३) ‘वस्तुसञ्चार’--एक उपमान को दूसरे उपमान में बदल देना ।
(४) ‘धातुवाद’--शब्दालंकार को अर्थालंकार बना देना ।
(५) ‘सत्कार’--एक ही वस्तु को उत्कृष्ट रूप में बदल देना ।
(६) ‘जीवञ्जीवक’--पहले जो सदृश था उसे असदृश कर देना ।
(७) ‘भावमुद्रा’--प्राचीन उक्ति का आशय लेकर प्रबन्ध लिखना ।
(८) ‘तद्विरोधी’--प्राचीन उक्ति के विरुद्ध उक्ति । ये ३४ अर्थहरण के प्रकार हैं ।