ग़बन/भाग 11

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ग़बन  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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दरोगा——मेरी समझ में कोई बात नहीं आती। अगर कह दें कि तुम्हारे ऊपर कोई इल्जाम नहीं है, तो फिर उसको गन्ध भो न मिलेगी।

'अच्छा, म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर से पूछिए।'

दारोगा ने फिर नम्बर मिलाया। सवाल-जवाब होने लगा। दारोगा- आपके यहाँ रमानाथ नाम का कोई क्लर्क था ?

जवाब——जी हाँ, था।

दारोगा——वह कुछ रुपया ग़बन करके भागा है ?

जवाब नहीं। वह घर से भागा है, पर गबन नहीं किया। क्या यह आपके यहाँ है?

दरोगा——जी हो. हमने उसे गिरफ्तार किया है। वह स्खुद कहता है कि मैंने रुपये गबन किये। वात क्या है ?

जवाब——पुलिस तो लालबुझक्कड़ है ! जरा दिमाग लड़ाइये।

दारोगा—— यहाँ तो अक्ल काम नहीं करती।

जंबाव——यहीं क्या, कहीं भी नहीं करती। सुनिये, रमानाथ ने मीजान लगाने में गलती की, डरकर भागा। बाद को मालूम हुन्ना, कि तहसील में कोई कमी न थी ? पायी समझ में बात ?

डिप्टी——अब क्या करने होमा, खाँ साहब ! चिड़िया हाथ से निकल गया।

दारोगा——निकल कसे जायगी हज़र ? रमानाथ से यह बात कही हो क्यों जाय। बस, उसे किसी आदमी से मिलने न दिया जाय जो बाहर की खबरें पहुंचा सके। घरवालों को उसका पता अव लग जायेगा ही। कोई न कोई जरूर उसकी तलाश में प्रायेगा। किसी को न आने दें। तहरीर में कोई बात न लायोजाय। जबानी इतमोनान दिया जाम। कह दिया जाय, कमिश्नर साहब को माफीनामे के लिए रिपोर्ट की है। इन्स्पेक्टर साहब से भी राय ले ली जाय।

इधर तो वह लोग सुपरिटेंडेंट से परामर्श कर रहे थे, उधर एक घण्टे में देवीदीन लौटकर थाने आया तो कांसटेबल ने कहा——दारोगा जी तो साहब के पास गये।

देवीदीन ने घबड़ाकर कहा——तो बाबूजी को हिरासत में डाल दिया ?

कांसटेबल——नहीं, उन्हें भी साथ ले गये। [ २२७ ]
देवीदीन ने सिर पीटकर कहा——पुलिसवालों की बात का कोई भरोसा नहीं। कहा गया कि एक घंटे में रुपये लेकर आता हूँ, मगर इतना भी सबर न हुआ। सरकार से पाँच ही सौ तो मिलेंगे। मैं छ: सौ देने को तैयार हूँ। हाँ, सरकार में कारगुजारी हो जायगी और क्या। वहीं से उन्हें परागराज' भेज देंगे। मुझसे भेंट भी न होगी। बुढ़िया रो-रोकर मर जायगी। यह कहता हुआ देवीदीन वहीं जमीन पर बैठ गया।

कांसटेबल——तो यहाँ कब तक बैठे रहोगे ?

देवीदीन ने मानो कोड़े को चोट से आहत होकर कहा——अब दारोगाजी से दो-दो बातें करके ही जाऊँगा। चाहे जेहल हो जाना पड़े पर फटकारूंगा जरूर, बुरी तरह फटकारूँगा। आखिर उनके भी तो बाल-बच्चे होंगे। क्या भगवान को जरा भी नहीं डरते ? तुमने बाबूजी को जाती बार देखा था ? बहुत रंजीदा थे ?

कांसटेबल——रंजीद तो नहीं थे, खासी तरह से हंस रहे थे ! दोनों जने मोटर में बैठकर गये है।

देवीदीन ने अविश्वास के भाव कहा——हंस क्या रहे होंगे बेचारे ! मुँह से चाहे हँस लें, दिल तो रोता ही होगा।

देवोदीन को यहाँ बैठे एक घण्टा भी न हुआ था कि सहला जग्गी या खड़ी हुई। देवीदीन को द्वार पर बैठे देखकर बोली—— तुम यहाँ क्या करने लगे ? या कहाँ हैं ?

देवीदीन ने मर्माहत होकर कहा——भैया को ले गये सुपरिटेंडेंट के पास। न जाने भेंट होती है कि ऊपर-ही-ऊपर परागराज भेज दिये जाते हैं।

जग्गो——दारोगाजी भी बड़े वह हूँ ! कहाँ तो कहा कि इतना लेंगे, कहाँ लेकर चल दिये।

देवी——इसीलिए तो बेश हूँ कि आई तो दो-दो बातें कर लू।

जग्गो——हाँ, फटकारना जरूर। जो अपनी बात का नहीं, वह अपने बाप का क्या होगा ? मैं तो खरी कहूँ। मेरा क्या कर लेंगे ?

देवी——दुकान पर कौन है ?

जग्गो——बन्द कर आयी हूँ। अभी बेचारे ने कुछ खाया भी नहीं। सबेरे
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से वैसे ही है। माहे में जाय वह तमाशा ! उसी के लिए टिकट सेने जाते थे। न घर से निकलते न यह बला सिर पड़ती।

देवी——जो उधर ही से पराग भेज दिया तो?

जग्गो——तो चिट्ठी तो आवेगी ही चलकर वहीं देख पायेगे। दे

देयी——(आँखों में आँसू भरकर) सजा हो जायगी तो?

जग्गो——रुपया जमा कर देंगे तब काहे को सजा होगी। सरकार मरने रुपये ही तो लेगो ?

देवी०——नहीं पगली, ऐसा नहीं होता। दोर माल लौटा दे वो वह छोड़ थोड़े ही दिया जायगा !

जन्गो ने परिस्थिति की कठोरता का अनुभव करके बाहा-- बारोगाजो...

वह अभी बात भी पूरी न करने पायी थी कि दारोगाजी की मोटर सामने आ पहुँची। इन्स्पेक्टर साहब भी थे। रमा इन दोनों को देखते ही मोटर से उतरकर पाया और प्रसन्न मुख से बोला-नुस यहाँ देर से बैठे हो क्या यादा ? मानो कमरे में चलो। अम्मा, तुम कब प्रायौं ?

दारोगाजी ने विनोद करके कहा--कहो चौधरी लाये रुपये ? देवी-जब कह गया कि मैं थोड़ी देर में आता हूँ, तो श्रापको मेरी राह देख लेनी चाहिए थी। चलिए अपने स्पए लीजिए। दारोगा-खोदकर निकाले होंगे?

देवी——आपके अकबाल से हजार-पांच सौ अभी ऊपर हो निकल सकते हैं। जमीन खोदने की जरूरत नहीं पड़ी। चलो भैया, बुढ़िया कब से खड़ी है, मैं रुपये दुकाकर आता हूँ। यह तो इसपिट्टर साहब थे त ? पहले इसी थाने में थे।

दारोगा——तो भई, अपने रुपये ले जाकर उसी हाँड़ी में रख दो। अफसरों को सलाह हुई कि इन्हें छोड़ना न चाहिए ! मेरे बस की बात नहीं है।

इन्स्पेक्टर साहब तो पहले ही दफ्तर में चले गये थे। ये तीनों प्रादमी बातें करते उसके वगलवाले कमरे में गये।

देवीदीन ने दरोगा की बात सुनी, तो उसकी भौहें तिरछी हो गयीं। बोला——दारोगाजो मरदों की एक बात होती है, मैं तो यही जानता हूँ। मैं [ २२९ ]
रुपये आपके हुक्म से लाया हूँ। आपको अपना कौल पूरा करना पड़ेगा। कहके मुकर जाना नीचों का काम है।

इतने कठोर शब्द सुनकर दारोगाजी को भन्ना जाना चाहिए था; पर उन्होंने जरा भी बुरा न माना। हँसते हुए बोले——भई, अब चाहे नीच कहो चाहे दगाबाज; पर हम इन्हें छोड़ नहीं सकते। ऐसे शिकार रोज़ नहीं मिलते। कौल के पीछे अपनी तरक्की नहीं छोड़ सकता।

दारोगा के हँसने पर देवीदीन और भी तेज हुआ-तो आपने कहा किस मुंह से था?

दारोगा——कहा तो इसी मुँँह से था, लेकिन मुँह हमेशा एक-सा तो नहीं रहता। इसी मुँह से जिसे गाली देता हूँ, उसकी इसी मुंह से तारीफ भी करता हूँ।

देवी——(तिनककर) यह मूछे मुड़वा डालिए।

दारोगा——मुझे बड़ी खुशी से मंजूर है। नीयत तो मेरी पहले ही थी, पर शर्म के मारे न मुड़वाता था। अब तुमने दिल मजबूत कर दिया।

देवी——हँसिए मत दारोगाजी, आप हंसते हैं और मेरा खून जला जाता है। मुझे चाहे जेहल ही क्यों न हो जाय लेकिन मैं कप्तासाहब से जरूर कह दूँगा। हूँ तो टके का आदमी, पर आपके अकबाल से बड़े बड़े अफ़सरों तक पहुँच है !

दारोगा——अरे यार, तो क्या सचमुच कप्तान साहब से मेरी शिकायत कर दोगे?

देवीदीन ने समझा कि धमकी कारगर हुई। अकड़कर बोला——आप जब किसी की नहीं सुनते, बात कहकर मुकर जाते है, तो दूसरे भी अपनी-सी करेंगे ही। मेमसाहब तो रोज ही दुकान पर आती है।

दारोगा——अगर तुमने साहब या मेम साहब से मेरी कुछ भी शिकायत की, तो कसम खाकर कहता हूँ, घर खुदवाकर फेंक दूंगा।

देवी——जिस दिन मेरा घर खुदेगा, उस दिन यह पगड़ी और चपरास भी न रहेगी हुजूर।

दारोगा——अच्छा तो मारी हाथ पर हा—थ ! हमारी तुम्हारी दो-दो चोटें हो जायें, यही सही ! [ २३० ]देवी——पछताओगे सरकार, कहे देता है, पछताओगे।

रमा अब जब्त न कर सका। अब तक वह देवीदीन के बिगड़ने का तमाशा देखने के लिए भीगी ब्बिल्ली-सा बना पड़ा था। कहकहा मारकर बोला-दादा, दारोगाजी तुम्हें चिढ़ा रहे हैं ! हम लोगों में ऐसी सलाह हो गया है कि मैं बिना कुछ दिये-लिये ही छुट जाऊँगा, ऊपर से नौकरी भी मिल जायगी। साहब ने पक्का वायदा किया है। मुझे अब यहीं रहना होगा।

देवीदीन ने रास्ता भटके हुए आदमी की भांति कहा——कैसी बात है भैया, क्या कहते हो ? या पुलिसवालों के चकमे में आ गये ? इसमें कोई-न-कोई चाल ज़रूर छिपी होगी।

रमा ने इतमीनान के साथ कहा——और कोई बात नहीं, एक मुकदमे में शहादत देनी पड़ेगी।

देवीदीन ने संशय से सिर हिलाकर कहा——झूठा मुकदमा होगा।

रमा——नहीं दादा, बिल्कुल सच्चा मामला है। मैंने पहले ही पूर्ण लिया है।

देवोदीन को शंका न शान्त हुई। बोला——मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता भैया, जरा सोच-समझकर काम करना। अगर मेरे रुपयों को डरते हो तो यहीं समझ लो कि देवीदीन ने अगर रुपयों की परवाह की होती, तो आज लखपती होता। इन्हीं हाथों से सौ-सौ रुपये रोज कमाये और सब-के-सब, उड़ा दिये है। किस मुकदमे में शहादत देनी है ? कुछ मालूम हुआ?

दारोगाजी ने रमा को जवाब देने का अवसर न देकर कहा—— वही डकेतियोंवाला मामला है जिसमें कई गरीब आदमियो की जान गयी थी। इन डाकुओं ने सूबे-भर में हंगामा मचा रखा था। उनके डर के मारे कोई आदमी गवाही देने पर राजी नहीं होता।

देवीदीन ने उपेक्षा के भाव से कहा——अच्छा, तो यह कहो मुखबिर बन गये? यह बात है ! इसमें तो जो पुलिस सिखायेगी वही तुम्हें कहना पड़ेगा, भया। मैं छोटी समझ का आदमी हूँ, इन बातों का मरम क्या जान; पर मुखबिर बनने को कहा जाता, तो में न बनता, चाहे कोई लाख रुपये देता। बाहर के आदमी को क्या मालुम कौन अपराधी है, कौन बेकसूर है। दो चार अपराधियों के साथ दो-चार बेकसूर भी जरूर होंगे। [ २३१ ]
दारोगा——हर्गिज नहीं। जितने आदमी पकड़े गये हैं, सब पक्के डाकू है।

देवी——यह तो आप कहते है न, हमें क्या मालुम।

दारोगा——हम लोग बेगुनाहों को फंसायेंगे ही क्यों ? यह तो सोचो।

देवी०——यह सब भुगते बैठा हूँ, दारोगाजी। इससे तो यही अच्छा है कि आप इनका चालान कर दें। साल-दो-साल का जेहल ही तो होगा। एक अधरम के डण्ड से बचने के लिए गुनाहों का खुन तो सिर पर न चढ़ेगा।

रमा ने वीरता से कहा——मैंने खूब सोच लिया है दादा, सब कागज देख लिये हैं, इसमें कोई बेगुनाह नहीं है।

देवीदीन ने उदास होकर कहा——होगा भाई। जान भी तो प्यारी होती

यह कहकर वह पीछे घूम पड़ा। अपने मनोभावों को इससे स्पष्ट रूप में वह प्रकट न कर सकता था।

एकाएक उसे एक बात याद आ गयी। मुड़कर बोला——तुम्हें कुछ रुपयों देता जाऊँ?

रमा ने खिसियाकर कहा——क्या जरूरत है ?

दारोगा——आज से इन्हें यहीं रहना पड़ेगा।

देवीदीन ने कर्कश स्वर में कहा——हुजूर, इतना जानता हूँ। इनकी दाबत होगी, बँगला रहने को मिलेगा, नौकर मिलेंगे, मोटर मिलेगी। यह सव जानता है। कोई बाहर का आदमी इनसे न मिलने आयेगा, न यह अकेले कहीं आ-जा सकेंगे। यह सब देख चुका हूँ।

यह कहता हुआ देवीदीन तेजी से कदम उठाता हुआ चल दिया, मानो यहाँ उनका दम घुट रहा हो। दारोगा ने उसे पुकारा; पर उसने फिर कर न देखा ! उसके मुख पर पराभूत वेदना छायी हुई थी ! जग्गो से पूछा——भैया नहीं आ रहे हैं ?

देवीदीन ने सड़क की ओर ताकतें हुए कहा——भैया अब नहीं आयेंगे। जब अपने ही अपने न हुए तो वेगाने तो बेगाने है ही। वह चला गया। बुढ़िया भी पीछे-पीछे भुनभुनाती चली।

३५

रुदन में कितना उल्लास, कितनी शान्ति, कितना बल है ! जो कभी
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एकांत में बैठकर, किसी को स्मति, किसी के वियोग में सिसक -सिसक और बिलख-बिलख कर नहीं रोया, वह जीवन के ऐसे सुख से वंचित है, जिस पर सैकड़ों हंसियां न्योछावर हैं ! उस मीठी वेदना का आनन्द उन्ही से पूछो, जिन्होंने यह सौभाग्य प्राप्त किया है। हँसी के बाद मन खिन्न हो जाता है, आत्मा क्षुब्ध हो जाती है, मानो हम थक गये हों, पराभूत हो गये हों। रुदन के पश्चात् एक नवीन स्फूर्ति, एक नवीन जीवन, एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है। जालपा के पास 'प्रजा-मित्र कार्यालय का पत्र पहुँचा, तो उसे पड़कर वह रो पड़ी। पत्र एक हाथ में लिये, दूसरे हाथ से चौखट पकड़े, वह खूब रोयी। क्या सोचकर रोयी, यह कौन कह सकता है ? कदाचित् अपने उपाय की इस आशातीत सफलता ने उसकी आत्मा को विह्वल कर दिया, आनन्द की उस गहराई पर पहुंचा दिया, जहां पानी है या उस ऊँचाई पर जहाँ उषा हिम बन जाती है। आज छ: महीने के बाद यह सुख-संवाद मिला। इतने दिनों वह छलगयी आशा और कठोर दुराशा का खिलौना बनी रही। वाह ! कितनी बार उसके मन में तरंग उठी कि इस जीवन का क्यों न अंत कर दूँ ! कहीं मैंने सचमुच प्राण त्याग दिये होते, तो उनके दर्शन भी न पाती ! पर उनका हिया कितना कठोर हैं। छः महीने से वहाँ बैठे है, एक पत्र भी नहीं लिखा, खबर तक नहीं ली। आखिर यह न समझ लिया होगा, कि बहुत होगा रो-रोकर मर जायगी। उन्होंने मेरी परवा ही न की! दस-बीस रुपये तो आदमी यार-दोस्तों पर भी खर्च कर देता है। वह प्रेम नहीं है। प्रेम हृदय की वस्तु है, रुपये की नहीं। जब तक रमा का कुछ पता न था, जालपा सारा इलजाम अपने सिर पर रखती थी; पर आज उनका पता पाते ही उसका मन अकस्मात् कठोर हो गया। तरह-तरह के शिकवे पैदा होने लगे। वहाँ क्या समझकर बैठे हैं ? इसीलिए तो कि वह स्वाधीन है, आजाद है, किसी का दिया नहीं खाते। इसी तरह मैं कहीं बिना कहेसूने चली जाती, तो वह मेरे साथ किस तरह पेश आते ? शायद तलवार लेकर गर्दन पर सवार हो जाते या जिन्दगी भर मुँँह न देखते। बही-खड़ेखड़े जालपा ने मन-ही-मन शिकायतों का दफ्तर खोल दिया।

रमेश बाबू ने द्वार पर पुकारा——गोपी, गोपी, जरा इधर आना।

मुंशीजी ने अपने कमरे में पड़े-पड़े कराहकर कहा——कौन है भाई,
[ २३३ ]कमरे में आ जाओ। अरे! आप हैं रमेश बाबू ! बाबूजी, मैं तो मरकर जिया हूँ। बस, यही समझिये कि नयी जिन्दगी हुई। कोई आशा न थी। कोई आगे न कोई पीछे दोनों लौंडे आबारा है, मरूँ या जीऊँ, उनसे मतलब नहीं, उनकी माँ को मेरी सूरत देखते डर लगता है। बस, बेचारी बहू, ने मेरी जान बचायी। वह न होती, तो अब तक चल बसा होता !

रमेश बाबू ने कृत्रिम समवेदना दिखाते हुए कहा——आप इतने बीमार हो गये और मुझे खबर तक न हुई ! मेरे यहाँ रहते आपको इतना कष्ट हुआ ! बहू ने मुझे एक पुरजा न लिख दिया। छुट्टी लेनी पड़ी होगी ?

मुंशीजी——छट्टी के लिए दरख्वास्त तो भेज दी थी; मगर साहब, मैंने डाक्टरी सार्टीफिकेट नहीं भेजी। सोलह रुपये किसके घर से लाता। एक दिन सिविल सर्जन के पास गया; मगर उन्होंने चिट्ठी लिखने से इन्कार किया। आप तो जानते ही हैं, वह बिना फीस लिये बात नहीं करते। मैं चला आया और दरख्वास्त भेज दी। मालूम नहीं, मंजूर हुई या नहीं। यह तो डाक्टरों का हाल है। देख रहे हैं, कि आदमी मर रहा है; पर बिना भेंट लिये कदम न उठायेंगे !

रमेश बाबू ने चिन्तित होकर कहा——यह तो आपने बड़ी बुरी खबर सुनायी। अगर आपकी छुट्टी नामंजूर हुई तो क्या होगा ?

मंशीजी ने माथा ठोंककर कहा——होगा क्या, घर बैठ रहूँगा। साहब पूछेंगे तो साफ़ कह दूँगा, मैं सर्जन के पास गया था, उसने चिट्टी नहीं दी। आखिर इन्हें क्यों सरकार ने नौकर रखा है। महज कुरसी की शोभा बढ़ाने के लिए ? मुझे डिसमिस हो जाना मंजूर है; पर सार्टीफिकेट न दूंगा। लौंडे गायब हैं। आपके लिए पान तक लानेवाला कोई नहीं। क्या करूँ

रमेश ने मुसकराकर कहा——मेरे लिए आप तरद्दुद न करें। मैं आज पान खाने नहीं, भर-पेट मिठाई खाने आया हूँ। (जालपा को पुकारकर), बहुजी, तुम्हारे लिए खुशखबरी लाया हूँ। मिठाई मँगवा लो।

जालपा ने पान की तश्तरी उनके सामने रखकर कहा——पहले वह खबर सुनाइए। शायद आप जिस खबर को नयी समझ रहे हों, वह पुरानी हो गयी हो! [ २३४ ]
रमेश——जी, कहीं हो न! रमानाथ का पता चल गया। कलकत्ते में है।

जालपा——मुझे पहले ही मालूम हो चुका है। मुंशीजी झपटकर उठ बैठे। उनका ज्वर मानो भागकर उत्सुकता की आड़ में जा छिपा। रमेश का हाथ पकड़कर बोले-मालूम हो गया कलकत्ते में हैं ? कोई खत आया था ?

रमेश——खत नहीं था, एक पुलिस इंक्वायरी थी। मैंने कह दिया, उन पर किसी तरह का इल्जाम नहीं है। तुम्हें कैसे मालूम हुआ बहूजी?

जालपा ने अपनी स्कीम बयान की। 'प्रजा-मित्र' कार्यालय का पत्र भी दिखाया। पत्र के साथ रुपयों की एक रसीद थी जिस पर रमा का हस्ताक्षर था।

रमेश——दस्तखत तो 'रमा बाबू का है, बिल्कुल साफ ! धोखा हो ही नहीं सकता। मान गया बहूजो तुम्हें। वह, क्या हिकमत निकाली है ! हम सबके कान काट लिये। किसी को न सूझी। अब सोचते है, तो मालूम होता है, कितनी आसान बात थी। किसी को जाना चाहिये, जो बचा को पकड़कर घसीट लाये।

यही बातचीत हो रही थी कि रतन आ पहुंची——जालपा उसे देखते ही वहां से निकली और उसके गले से लिपटकर बोली-बहन, कलकत्ते से पत्र आ गया है। वहीं है।

रतन——मेरे सिर की कसम ?

जालपा——हां, सच कहती हूँ। खत देखो न !

रतन——तो तुम आज ही चली जाओ।

जालपा——यही तो मैं भी सोच रही हूँ। तुम चलोगी?

रतन——चलने को तो में तैयार है। लेकिन अकेला घर किस पर छोड़। बहन. मुझे मणिभूषरण पर कुछ शुबहा होने लगा है। उसकी नियत अच्छी नहीं मालूम होती। बैंक में बीस हजार रुपये से कम न थे। सब न जाने कहाँ उड़ा दिये। कहता है, क्रिया कर्म में खर्च हो गये। हिसाब मांगती हूँ, तो आँखे दिखाता है। दफ्तर की कुंजी अपने पास रखे हुए है। मांगती हूँ, तो टाल जाता है। मेरे साथ कोई कानूनी चाल चल रहा है। डरती हूँ, मैं
[ २३५ ]उधर जाऊँ इधर यह सब-कुछ ले-देकर चलता बने। बँगले के ग्राहक आ रहे हैं। मैं भी सोचती हूँ, गाँव में जाकर शांति से पड़ी रहूँ। बँगला बिक जायेगा तो नकद रुपये हाथ आ जायँगे ! मैं न रहूँगी, तो शायद ये रुपये मुझे देखने को भी न मिलें। गोपी को साथ लेकर आज ही चली जाओ। रुपये का इन्तजाम मैं कर दूँँगी।

जालपा——गोपीनाथ तो शायद न जा सकें। दादा की दवा-दारू के लिए भी तो कोई चाहिये।

रतन——वह मैं कर दूंगी। मैं रोज़ सबेरे या जाऊँगी और दवा देकर चली जाऊँगी। शाम को भी एक बार देख जाया करूँगी !

जालपा ने मुस्कुराकर कहा——और दिन भर उनके पास बैठा कौन रहेगा?

रतन——मैं थोड़ी देर बैठी भी रहा करूँगी; मगर तुम आज ही जाओ। बेचारे वहाँ न जाने किस दशा में होंगे। तो यही तय रही न ?

रतन मुंशीजी के कमरे में गयी, तो रमेश बाबू उठकर खड़े हो गये और बोले——आइए देवीजी, रमा बाबू का पता चल गया।

रतन——इसमें आधा श्रेय मेरा है।

रमेश——आपकी सलाह से तो हुआ ही होगा। अब उन्हें यहाँ लाने की फ़िक्र करनी है।

रतन——जालपा चली जायें और पकड़ लायें। गोपी को साथ लेती जायें। आपको इसमें कोई आपत्ति तो नहीं है, दादाजी ?

मुंशीजी को आपत्ति तो थी, उनका बस चलता तो इस अवसर पर दस-पांच आदमियों को और जमा कर लेते; फिर घर के आदमियों के चले जाने पर क्यों आपत्ति न होती। मगर समस्या ऐसी आ पड़ी थी, कि कुछ बोल न सके।

गोपी कलकत्ते. की सैर का ऐसा अच्छा अवसर पाकर क्यों न खुश होता। विश्वम्भर दिल में ऐंठकर रह गया। विधाता ने उसे छोटा में बनाया होता, तो आज उसकी यह हक तलफ़ी न होती। गोपी ऐसे कहाँ के बड़े होशियार हैं, जहाँ जाते हैं कोई-न-कोई चीज खो आते हैं। हाँ, मुझसे बड़े हैं। इस दैवी विधान ने उसे मजबूर कर दिया। [ २३६ ]रात को सात बजे जालपा चलने को तैयार हुई। सास-ससुर के चरणो पर सिर झुकाकर आशीर्वाद लिया, विश्वम्भर रो रहा था, उसे गले लगाकर प्यार किया और मोटर पर बैठी। रतन स्टेशन तक पहुँचाने आयी थी।

मोटर चली तो जालपा ने कहा——बहन, कलकत्ता तो बहुत बड़ा शहर होगा। वहां कैसे पता चलेगा?

रतन——पहले 'प्रजा-मित्र' के कार्यालय में जाना! वहां पता चल जायगा। गोपी बाबू तो है ही।

जालपा——ठहरूंगी कहाँ ?

रतन——धर्मशाले हैं। नहीं तो होटल में ठहर जाना। देखो, रुपये की जरूरत पड़े, तो मुझे तार देना; कोई-न-कोई इन्तजाम करके भेजूंगी। बाबूजी आ जायें, तो मेरा बड़ा उपकार हो। मणिभूषण मुझे तबाह कर देगा।

जालपा——होटल वाले बदमाश तो न होंगे?

रतन——कोई जरा भी शरारत करे, तो ठोकर मारना। बस, कुछ पूछना मत। ठोकर जमाकर तब बात करना। (कमर से एक छुरी निकालकर) इसे अपने पास रख लो। कमर में छिपाये रखना। मैं जब कभी बाहर निकलती हूं, तो इसे अपने पास रख लेती हूँ, इससे दिल बड़ा मजबूत रहता है। जो मर्द किसी स्त्री को छेड़ता है, उसे समझ लो पल्ले सिरे का कायर, नीच और लम्पट है। तुम्हारी छुरी की चमक और तुम्हारे तेवर देखकर ही उसकी रूह फ़ना हो जायेगी। सीधा दुम दबाकर भागेगा; लेकिन अगर ऐसा मौका आ ही पड़े जब तुम्हें छुरी से काम लेने के लिए मजबूर हो जाना पड़े, तोजरा भी मत झिझकना। छुरी लेकर पिल पड़ना। इसकी बिलकुल फ़िक्र मत करना, कि क्या होगा, क्या न होगा। जो कुछ होना होगा, हो जायगा।

जालपा ने छुरी ले ली; पर कुछ बोली नहीं। उसका दिल भारी हो रहा था। इतनी बातें सोचने और पूछने की थीं, कि उनके विचार से ही उसका दिल बैठा जाता था।

स्टेशन आ गया। कुलियों ने असबाब उतारा। गोपी टिकट लाया। जालपा पत्थर की मूर्ति की भांति प्लेटफार्म पर खड़ी रही, मानो चेतना-
[ २३७ ] शून्य हो गयी हो। किसी बड़ी परीक्षा के पहले हम मौन हो जाते हैं, हमारी सारी शक्तियाँँ उस संग्राम की तैयारी में लग जाती हैं।

रतन ने गोपी से कहा——होशियार रहना।

गोपी इधर कई महीनों से कसरत करता था। चलता तो मोढे और छाती को देखा करता। देखनेवालों को तो वह ज्यों-का-त्यों मालूम होता है. पर अपनी नजर में वह कुछ और हो गया था। शायद उसे आश्चर्य होता था, कि उसे आते देखकर क्यों लोग रास्ते से नहीं हट जाते, क्यों उसके डील-डौल से भयभीत नहीं हो जाते। अकड़कर बोला——किसी ने जरा भी ची-चपड़ की तो हड्डी तोड़ दूँँगा।

रतन मुसकराई और बोली——यह तो मुझे मालूम है। सो मत जाना।

गोपी——पलक तक तो झपकेगी नहीं। मजाल है, नींद आ जाय !

गाड़ी आ गयी। गोपी ने एक डिब्बे में घुसकर कब्जा जमाया ! जालपा की आँखों में आँसू भरे हुए थे। बोली——बहन, आशीर्वाद दो कि उन्हें लेकर कुशल से लौट आऊँ।

इस समय उसका दुर्बल मन कोई आश्रय, कोई सहारा, कोई बल ढूँढ़ रहा था और आशीर्वाद और प्रार्थना के सिवा यह बल उसे और कौन प्रदान करता। यही बल और शान्ति का वह अक्षय भण्डार है जो किसी को निराश नहीं करता, जो सबकी बांह पकड़ता है, सबका बड़ा पार लगाता है।

इंजिन ने सीटो दी। दोनों सहेलियाँ गले मिली। जालपा गाड़ी में बैठी।

रतन ने कहा——जाते-ही-जाते खत भेजना।

जालपा ने सिर हिलाया !

'अगर मेरी जरूरत मालूम हो, तो तुरन्त लिखना। मैं सब-कुछ छोड़कर चली आऊँगी।

जालपा ने सिर हिला दिया। 'रास्ते में रोना मत।'

जालपा हँस पड़ी। गाड़ी चल दी।

३६

देवीदीन ने चाय की दुकान उसी दिन से बन्द कर दी थी; और दिन-भर उस अदालत की खाक छानता फिरता था जिसमें डकैती का मुकदमा पेश
[ २३८ ]
था और रमानाथ को शहादत हो रही थी। तीन दिन,रमा की शहादत बराबर होती रही और तीनों दिन देवीदीन ने न कुछ खाया और न सोया। आज भी उसने घर आते-ही-आते कुरता उतार दिया और एक पंखिया लेकर झलने लगा। फागुन लग गया था और कुछ कुछ गर्मी शुरू हो गई थी; पर इतनी गर्मी न थी कि पसीना बहे या पंखे की जरूरत हो। अफ़सर लोग तो जाड़ों के कपड़े पहने हुए थे; लेकिन देवीदीन पसीने में तर था। उसका चेहरा, जिस पर निष्कपट बुढ़ापा हँसता रहता था, खिसियाया हुआ था, मानो बेगार से लौटा हो!

जग्गो ने लोटे में पानी लाकर रख दिया और बोली-चिलम रख दूं? देवीदीन की आज तीन दिन से यह खातिर हो रही थी। इसके पहले बुढ़िया कभी चिलम रखने को न पूछती थी। देवीदीन इसका मतलब समझता था। बुढ़िया को सदय नेत्रों से देखकर बोला-नहीं, रहने दो, चिलम न पीऊँगा।

'तो मुंह-हाथ तो धो लो, गर्द पड़ी हुई है।' 'धो लूँगा, जल्दी क्या है !' बुढ़िया आज का हाल जानने को उत्सुक थी; पर डर रही थी, कहीं देवीदीन झुंझला न पड़े। वह उसकी थकान मिटा देना चाहती थी, जिससे देवीदीन प्रसन्न होकर आप-ही-आप सारा वृत्तान्त कह चले।

'तो कुछ जलपान कर लो। दोपहर को भी तो कुछ नहीं खाया था। मिठाई लाऊँ ? लाओ, पंखी मुझे दे दो।'

देवीदीन ने पंखिया दे दी। बुढ़िया झलने लगी। दो-तीन मिनट आँखे बन्द करके बैठे रहने के बाद देवीदीन ने कहा—आज भैया की गवाही खतम हो गयी।

बुढ़िया का हाथ रुक गया। बोली-तो कल से घर आ जायँगे? देवी०-अभी नहीं छुट्टी मिली जाती। यही बयान दिवानी में देना पड़ेगा। और अब वह यहाँ आने ही क्यों लगे। कोई अच्छी जगह मिल जायगी, घोड़े पर चढ़े-चढ़े घूमेंगे ! मगर है बड़ा पक्का मतलबी। पन्द्रह बेगुनाहों को फंसा दिया। पाँच-छ: को तो फांसी हो जायगी, औरों को दस-दस बारह-बारह साल की सजा मिली रखी है। इसी के बयान से मुकदमा साबित हो गया। कोई कितनी ही जिरह करे, क्या मतलब, जो जरा भी
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हिचकिचाये ! अब एक भी न बचेगा! किसने कर्म किया किस ने नहीं किया, इसका हाल देव जाने; पर मारे सब जायेंगे। घर से भी सरकारी रुपया खाकर भागा था। हमें धोखा हुआ।

जग्गो ने मीठे तिरस्कार से देखकर कहा-अपनी नेकी-बदी अपने साथ है। मतलबी तो संसार है, फिर कौन किसके लिए मरता है।

देवीदीन ने तीव्र स्वर में कहा-अपने मतलब के लिए जो दूसरों का गला काटे उसको जहर दे देना भी पाप नहीं है।

सहसा दो प्राणी आकर खड़े हो गये। एक गोरा, खूबसूरत लड़का था, जिसकी उम्र पन्द्रह-सोलह से ज्यादा न थी। दूसरा अधेड़ था और सूरत से चपरासी मालूम होता था।

देवीदीन ने पूछा- किसे खोजते हो? चपरासी ने कहा-तुम्हारा ही नाम देवीदीन है न ? मैं 'प्रजा-मित्र' के दफ्तर से आया हूँ। यह बाबू , उन्हीं रमानाथ के भाई हैं, जिन्हें शतरंज का इनाम मिला था। यह उन्हीं की खोज में दफ्तर गये थे। सम्पादकजी ने तुम्हारे पास भेज दिया। तो मैं जाऊँ न ?

यह कहता हुआ वह चला गया। देवीदीन ने गोपी को सिर से पाँव तक देखा। आकृति रमा से मिलती थी। बोला-आओ बेटा, बैठो। कब आये घर से?

गोपी ने एक खटिक की दूकान पर बैठना शान के खिलाफ समझा। खड़ा सड़ा बोला-आज ही तो आया हूँ। भाभी साथ हैं। धर्मशाले में ठहरा हुआ हूँ।

देवीदीन ने खड़े होकर कहा-जाकर बहू को यहीं लाओ न ! ऊपर तो रमा बाबू का कमरा है ही, आराम से रहो। धर्मशाले में क्यों रहोगे ? नहीं, चलो, मैं भी चलता हूँ। यहाँ सब तरह का आराम है।

उसने जग्गों को यह खबर सुनायी और ऊपर झाड़ू लगाने को कहकर गोपी के साथ धर्मशाले चल दिया। बुढ़िया ने तुरन्त ऊपर झाडू लगायी, हलवाई की दुकान से मिठाई और दही लायी। सुराही में पानी भरकर रख दिया। फिर अपना हाथ-मुंह धोया, एक रंगीन साड़ी निकाली, गहने पहने और बन-ठनकर बहू की राह देने लगी। [ २४० ]

इतने में फिटन भी आ पहुँची। बुढ़िया ने जाकर जालपा को उतरा। जालपा पहले तो साग-भाजी की दुकान देखकर कुछ झिझकी, पर बुढ़िया का स्नेह-स्वागत देख कर उसकी झिझक दूर हो गयी। उसके साथ ऊपर गयी, तो हर एक चीज इस तरह अपनी जगह पर पामी मानो अपना ही घर हो।

जग्गो ने लोटे में पानी रखकर कहा-इसी घर में भैया रहते थे, बेटी। आज पन्द्रह रोज से घर सूना पड़ा हुआ है। मुंह-हाथ धोकर दही-चीनी खा ली न, बेटी ! भैया का हाल तो अभी तुम्हें न मालूम हुआ होगा?

जालपा ने सिर हिलाकर कहा-कुछ ठीक-ठीक नहीं मालूम हुआ। वह जो पत्र छपता है, कहाँ मालूम हुआ था कि पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है।

देवीदीन भी ऊपर आ गया था। बोला-गिरफ्तार तो किया था; पर अब तो वह एक मुकदमे में सरकारी गवाह हो गये हैं। परागराज में अब उन पर कोई मुकदमा न चलेगा और सायद नौकरी-चाकरी भी मिल जाय।

जालपा ने गर्व से कहा-क्या इसी डर से वह सरकारी गवाह हो गये हैं ? वहाँ तो उन पर कोई मामला ही नहीं है। मुकदमा क्यों चलेगा ?

देवीदीन ने डरते डरते कहा-कुछ रुपये-पैसे का मुआमला था न ?

जालपा ने मानो आहत होकर कहा-वह कोई बात न थी। ज्योंही हम लोगों को मालुम हुआ कि कुछ सरकारी रकम इनसे खर्च हो गयी है, उसी वक्त पहुँचा दी। यह व्यर्थ घबराकर चले आये, और फिर ऐसी चुप्पी साधी कि अपनी खबर तक न दी।

देवीदीन का चेहरा जगमगा उठा, मानो किसी व्यथा से आराम मिल गया हो, बोला-तो यह हम लोगों को क्या मालुम ! बार-बार समझाया कि घर खत-पत्तर भेज दो, लोग घबराते होंगे; पर मारे शरम के लिखते ही न थे। धोखे में पड़े रहे कि परागराज में मुकदमा चला गया होगा। जानते तो सरकारी गवाह क्यों बनते ?

'सरकारी गवाह' का आशय जालपा से छिपा न था। समाज में उसकी जो निन्दा और अपकीर्ति होती है, यह भी उससे छिपी न थी। सरकारी गवाह क्यों बनाये जाते हैं, किस तरह उन्हें प्रलोभन दिया जाता है, किस भाँति वह पुलिस के पुतले बनकर अपने ही मित्रों का गला घोंटते हैं, यह उसे मालूम
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था। अगर कोई आदमी अपने बुरे आचरण पर लज्जित होकर सत्य का उद्घाटन करे, छल और कपट का आवरण हटा दे, तो वह सज्जन है, उसके साहस की जितनी प्रशंसा की जाय, कम है। मगर शर्त यही है कि वह अपनी गोष्ठी के साथ किये का फल भोगने को तैयार रहे, हँसता-खेलता फांसी पर चढ़ जाय। वही सच्चा वीर है। लेकिन अपने प्राणों की रक्षा के लिए स्वार्थ के नीच विचार से दण्ड की कठोरता से भयभीत होकर अपने साथियों से दगा करे, आस्तीन का सांप बन जाय, तो वह कायर है, पतित है, बेहया है। विश्वासपात डाकुओं और समाज के शत्रों में भी उतना ही हेय है जितना किसी अन्य क्षेत्र में। ऐसे प्राणी को समाज कभी क्षमा नहीं करता, कभी नहीं। जालपा इसे खूब समझती थी। यहां तो समस्या और भी जटिल हो गयी थी। रमा ने दण्ड के भय से अपने किये हुए पापों का पर्दा नहीं खोला था। उसमें कम-से-कम सच्चाई तो होती, निन्दा होने पर भी आंशिक सच्चाई का एक गुण तो होता। यहाँ तो उन पापों का पर्दा खोला गया था, जिनकी हवा तक उसे न लगी थी। जालपा को सहसा इसका विश्वास न आया ! अवश्य कोई न-कोई बात और हुई होगी जिसने रमा को सरकारी गवाह बनने पर मजबूर कर दिया होगा। सकुचाती हुई बोली- या यहां भी कोई....कोई बात हो गयी थी ?

देवीदीन उसकी मनोव्यथा का अनुभव करता हुआ बोला-कोई बात नहीं। यहां वह मेरे साथ ही परागराज से आये। जब से आये, यहां से कहीं गये नहीं। बाहर निकलते ही न थे। बस, एक दिन निकले भी उसी दिन पुलिस ने पकड़ लिया। एक सिपाही को आते देखकर डरे कि मुझी को पकड़ने आ रहा है, भाग खड़े हुए। उस सिपाही को खटका हुाआ। उसने शुबहा से गिरफ्तार कर लिया। मैं भी उनके पीछे थाने में पहुँचा। दारोगा पहले रिसवत मांगते थे; मगर जब मैं घर से रुपये लेकर गया, तो वहाँ और ही गुल खिल चुका था। अफसरों में न जाने क्या बातचीत हुई। उन्हें सरकारी गवाह बना लिया। मुझसे तो भैया ने यही कहा कि इस मामले में बिल्कुल झूठ न बोलना पड़ेगा। पुलिस का मुकदमा सच्चा है। सच्ची बात कह देने में क्या हरज है। मैं चुप ही रहा। क्या करता।

जग्गो-न जाने सबों ने कौन-सी बूटी सुंधा दी। भैया तो ऐसे न थे। [ २४२ ]दिन भर अम्मा-अम्मा करते रहते थे। दूकान पर सभी तरह के लोग आते थे, मर्द भी औरत भी। क्या मजाल, कि किसी की ओर आंख उठाकर देखा हो।

देवी॰--कोई बुराई न थी। मैंने तो ऐसा लड़का ही नहीं देखा। उसी धोखे में आ गये।

जालपा ने एक मिनट सोचने के बाद कहा-क्या उनका बयान हो गया?

'हां, तीन दिन बराबर होता रहा। आज ख़त्म हो गया।'

जालपा ने उद्विग्न होकर कहा--तो अब कुछ नहीं हो सकता? मैं उनसे मिल सकती हूँ?

देवीदीन जालपा के इस प्रश्न पर मुस्कुरा पड़ा। बोला--हां और क्या! जिसमें जाकर भण्डाफोड़ कर दो। सारा खेल बिगाड़ दो! पुलिस ऐसी गधी नहीं है। आजकल कोई भी उनसे मिलने नहीं पाता। कड़ा पहरा रहता है।

इस प्रश्न पर इस समय और कोई बातचीत न हो सकती थी। इस गुत्थी को सुलझाना आसान न था। जालपा ने गोपी को बुलाया। वह छज्जे पर खड़ा सड़क का तमाशा देख रहा था। ऐसा शरमा रहा था, मानों ससुराल आया हो, धीरे-धीरे आकर खड़ा हो गया।

जालपा ने कहा--मुंह-हाथ धोकर कुछ खा तो लो। दही तो तुम्हें बहुत अच्छा लगता है।

गोपी लजाकर फिर बाहर चला गया।

देवीदीन ने मुसकराकर कहा--हमारे सामने न खायेंगे। हम दोनों चल जाते हैं। तुम्हें जिस चीज की जरूरत हो, हमसे कह देना, बहूजी। तुम्हारा ही घर है। भैया को तो हम अपना ही समझते थे। और हमारे कौन बैठा हुआ है!

जग्गो ने गर्व से कहा--वह तो मेरे हाथ का बनाया खा लेते थे जरूर। छू तो नहीं गया था!

जालपा ने मुसकराकर कहा--अब तुम्हें भोजन न बनाना पड़ेगा माजी, मैं बना दिया करूंगी।

जग्गो ने आपत्ति की--हमारी बिरादरी में दूसरों के हाथ का खाना मना है बहू। अब चार दिन के लिए बिरादरी में नक्कू क्यों बनूँ। [ २४३ ]


जालपा हमारी बिरादरी में भी तो दूसरों का खाना मना है। जग्गो-तुम्हें यहाँ कौन देखने आता है। फिर पढ़े-लिखे आदमी इन बातों का विचार भी तो नहीं करते। हमारी बिरादरी तो मूरख लोगों की है।

जालपा-यह तो अच्छा नहीं लगता कि तुम बनाओ और मैं खाऊँ। जिसे बहू बनाया, उसके हाथ का खाना पड़ेगा। नहीं खाना था;तो बहू क्यों बनाया ?

देवीदीन ने जग्गो की ओर प्रशंसा-सूचक नेत्रों से देखकर कहा- बहू ने बात तो पते की कह दी। इसका जवाब सोचकर देना। अभी इन लोगों को जरा आराम करने दो।

दोनों नीचे चले गये तो गोपी ने आकर कहा- भैया इसी खटिक के यहां रहते थे क्या? खटिक ही तो मालूम होते हैं।

जालपा ने फटकारकर कहा - खटिक हों या चमार हों, लेकिन हमने और तुमसे सौ-गुने अच्छे है। एक परदेशी को छः महीने तक अपने घर में ठहराया, खिलाया-पिलाया। हममें है इतनी हिम्मत ? यहां तो कोई मेहमान आ जाता है, तो वह भारी हो जाता है। अगर यह नीच है, तो हम इनसे कहीं नीच है।

गोपी मुंह हाथ धो चुका था | मिठाई खाता हुआ बोला—किसी को ठहरा लेने से कोई ऊँचा नहीं हो जाता। चमार कितना ही दान-पुण्य करे पर रहेगा तो चमार हो !

जालपा-मैं उस चमार को उस पण्डित से अच्छा समझूँगी जो हमेशा दूसरों का धन खाया करता हैं।

जलपान करके गोपी नीचे चला गया। शहर धूमने की उसकी बड़ी इच्छा थी। जालपा की इच्छा कुछ खाने की न हुई। उसके सामने एक जटिल समस्या खड़ी थी-रमा को कैसे इस दलदल से निकाले। उस निन्दा और उपहास की कल्पना ही से उसका अभिमान आहत हो उठता था। हमेशा के लिए वह सबकी आँखों से गिर जायँगे, किसी को मुंह न दिखा सकेंगे।

फिर, बेगुनाहों का खून किसकी गर्दन पर होगा। अभियुक्तों में न जाने कौन अपराधी है, कौन निरपराधी हैं। कितने द्वेष के शिकार हैं, कितने लोभ
[ २४४ ]के सभी सजा पा जायंगे। शायद दो- चार को फांसी भी हो जाय। किस पर यह हत्या पडे़गी?

उसने फिर सोचा; मानो किसी पर हत्या न पड़ेंगी। कौन जानता है, हत्या पड़ती है या नहीं। लेकिन अपने स्वार्थ के लिए—— ओह! कितनी बड़ी नीचता है ! यह कैसे इस बात पर राजी हुए? अगर म्युनिसिपैलिटी के मुकदमा चलाने का भय भी था, तो दो-चार साल की कैद के सिवा और क्या होता। उससे बचने के लिए इतनी घोर नीचता पर उतर आये !

अब अगर मालूम भी हो जाय, कि म्युनिसिपैलिटी कुछ नहीं कर सकती, तो अब हो ही क्या सकता है। इनकी शहादत तो हो ही गयी।

सहसा एक बात किसी भारी कील की तरह उसके हृदय में चुभ गयी !   क्यों न यह अपना बयान बदल दें ? उन्हें मालूम हो जाय कि म्युनिसिपैलिटी उनका कुछ नहीं कर सकती, तो शायद खुद ही अपना बयान बदल दें। यह बात उन्हें कैसे बतायी जाय ? किस तरह सम्भव है ?

वह अधीर होकर नीचे उतर आयी और देवीदीन को इशारे से बुलाकर बोली——क्यों दादा, उनके पास कोई खत भी नहीं पहुंच सकता ? पहरेबाली को दस-पाँच रुपये देने से तो शायद खत पहुँच जाय।

देवीदीन ने गर्दन हिलाकर कहा——मुश्किल है। पहरे पर बड़े अंचे हुए आदमी रखे गये हैं। मैं दो बार गया था। सबी ने फाटक के सामने खड़ा भी न होने दिया।

'उस बँगले के आस-पास क्या है?'

'एक ओर तो दूसरा बँगला है, एक ओर एक कलमी आम का बाग है, और सामने सड़क है।'

'वह शाम को घूमने-घामने तो निकलते ही होंगे ?'

हाँ, बाहर कुरसी डालकर बैठते हैं। पुलिस के दो-एक अफ़सर भी साथ रहते हैं।'

'अगर कोई उस बाग में छिपकर बैठे, तो कैसा हो। जब उन्हें अकेले देखे, खत फेंक दे। वह जरूर उठा लेंगे।'

देवीदीन ने चकित होकर कहा—— हाँ, हो तो सकता है। लेकिन अकेले मिलें तब तो। [ २४५ ]


जरा और सँवेरा हुआ, तो जालपा ने देवीदीन को साथ लिया और रमानाथ का बंगला देखने चली। एक पत्र लिखकर जेब में रख लिया था। बार-बार देवीदीन से पूछती, अब कितनी दूर है ? अच्छा ! अभी इतनी ही दूर और! वहाँ हाते में रोशनी तो होगी हो। उसके दिल में लहरे-सी उठने लगीं। रमा अकेले टहलते हुए मिल जायें, तो क्या पूछना। रूमाल में बांधकर खत उनके सामने फेंक दूॅ। उनकी सूरत बदल गयी होगी।

सहसा उसे एक शंका हो गयी——कहीं वह पत्र पढ़कर भी अपना बयान न बदलें, तब क्या होगा?कौन जाने अब मेरी याद भी उन्हें है या नहीं। कहीं मुझे देखकर वह मुंह फेर लें तो इस शंका से वह सहम उठी। देवीदीन से बोली—क्यों दादा, वह कभी घर की चर्चा करते थे?

देवीदीन ने सिर हिलाकर कहा——कभी नहीं। मुझसे तो कभी नहीं की। उदास बहुत रहते थे।

इन शब्दों ने जालपा की शंका को और भी सजीव कर दिया। शहर की धनी बस्ती से ये लोग दूर निकल आये थे। चारों ओर सन्नाटा था। दिन भर वेग से चलने के बाद इस समय पवन भी विश्राम कर रहा था। सड़क के किनारे के वृक्ष और मैदान चन्द्रमा के मन्द प्रकाश में हतोत्साह, निर्जीव से मालूम होते थे। जालपा को ऐसा आभास होने लगा कि उसके प्रयास का कोई फल नहीं है, उसकी यात्रा का कोई लक्ष्य नहीं है। इस अनन्त मार्ग में उसकी दशा उस अनाथ की-सी है, जो मुट्ठी भर अन्न के लिए द्वार-द्वार फिरता है। वह जानता है, अगले द्वार पर उसे अन्न न मिलेगी, गालियाँ ही मिलेंगी, फिर भी वह हाथ फैलाता है, बढ़ती मनाता है। उसे आशा का अवलम्ब नहीं, निराशा ही का अवलम्ब है।

एकाएक सड़क के दाहिनी तरफ बिजली का प्रकाश दिखाई दिया।

देवीदीन ने एक बँगले की ओर उंगली उठाकर कहा——यही उनका बँगला है।

जालपा ने डरते-डरते उधर देखा, मगर बिल्कुल सन्नाटा छाया हुआ था। कोई आदमी न था। फाटक पर ताला पड़ा हुआ था। जालपा बोली——यहाँ तो कोई नहीं है। [ २४६ ]देवीदीन ने फाटक के अन्दर झांककर कहा——हां, शायद यह बँगला छोड़ दिया।

'कहीं घूमने गये होंगे।'

धूमने जाते; तो द्वार पर पहरा होता। यह बँगला छोड़ दिया।' 'तो लौट चलें।

'नहीं, जरा पता लगाना चाहिए, गये कहाँँ।'

बँगले की दाहिनी तरफ आमों के बाग में प्रकाश दिखायी दिया। शायद खटिक बागों की रखवाली कर रहा था। देवीदीन ने बाग में आकर पुकारा——कौन है यहाँ ? किसने यह बाग लिया है ?

एक आदमी आमों की झुरमुट से निकल आया। देवीदीन ने उसे पहचानकर कहा——अरे, तुम हो जंगली। तुमने यह बाग लिया है।

जंगली ठिगना-सा गठीला आदमी था. बोला——हाँ दादा, ले लिया; पर कुछ है नहीं। दण्ड ही भरना पड़ेगा। तुम यहां कैसे आ गये ?

'कुछ नहीं, यों ही चला आया था। इस बँगलेवाले आदमी क्या हुए?'

जंगली ने इधर-उधर देखकर कनवतियों में कहा-इसमें वही मुखबिर टिका हुआ था। आज सब चले गये। सुनते हैं, पन्द्रह-बीस दिन में आयेंगे, जब फिर हाईकोर्ट में मुकदमा पेश होगी। पढ़े-लिखे आदमी भी ऐसे दगाबाज होते हैं दादा ! सरासर झूठी गवाही दी। न जाने इसके बाल बच्चे हैं या नहीं; भगवान को भी नहीं डरा !

जालपा वहीं खड़ी थी। देवीदीन ने जंगली को और जहर उगलने का अवसर न दिया। बोला——तो पन्द्रह-बीस दिन में आयेंगे, खुब मालूम है ?

जंगली——हां, पहरेवाले कह रहे थे।

'कुछ मालूम हुआ कहां गये हैं ? '

वहीं मौका देखने गये हैं जहाँ। वारदात हुई थी।'

देवीदीन चिलम पीने लगा और जालपा सड़क पर आकर टहलने लगी। रमा की यह निन्दा सुनकर उसका हृदय टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता था। उसे रमा पर क्रोध न आया, ग्लानि न आयी; उसे हाथों का सहारा देकर इस दलदल से निकालने के लिए उसका मन विकल हो उठा। रमा चाहे
[ २४७ ] उसे दुत्कार ही क्यों न दे, उसे ठुकरा ही क्यों न दे, वह उसे अपयश के अँधेरे खड्डे में न गिरने देगी।

जब दोनों यहां से चले तो जालपा ने पूछा——इस आदमी से कह दिया न कि जब वह आ जायें तो खबर दे दे? 'हां, कह दिया है।'

३७

एक महीना गुजर गया। गोपीनाथ पहले तो कई दिन कलकत्ते की सैर करता रहा, मगर चार-पाँच दिन में ही यहाँ से उसका जो ऐसा उचाट' हुआ कि घर की रट लगानी शुरू की। आखिर जालपा ने उसे लौटा देना ही अच्छा समझा। यहाँ तो वह छिप-छिपकर रोया करता था।

जालपा कई बार रमा के बँगले तक हो आयी। वह जानती थी कि अभी रमा नहीं आये हैं फिर भी वहाँ का एक चक्कर लगा आने में उसको एक विचित्र सन्तोष होता।

जालपा कुछ पढ़ते-पढ़ते या लेटे-लेटे थक जाती, तो एक क्षण के लिए खिड़की के सामने आ खड़ी होती थी। एक दिन शाम को वह खिड़की के सामने आयी, तो सड़क पर मोटरों की एक कतार नजर आयी। कुतूहल हुआ, इतनी मोटरें कहाँ जा रही हैं। गौर से देखने लगी, छ: मोटरें थी। उसमें पुलिस के अफसर बैठे हुए थे। एक में सब सिपाही थे। आखिरी मोटर पर जब उसकी निगाह पड़ी तो मानो उसके सारे शरीर में बिजली की लहर दौड़ गयी। वह ऐसी तन्मय हुई, कि खिड़की से जीने तक दौड़ आयी, मानो मोटर को रोक लेना चाहती हो, पर इसी एक पल में उसे मालूम हो गया कि मेरे नीचे उतरते-उतरते मोटर निकल जायेगी। वह फिर खिड़की के सामने आयी। रमा अब बिलकुल सामने आ गया था। उसकी आँखें खिड़की की ओर लगी हुई थीं। जालपा ने इशारे से कुछ , कहना चाहा, पर संकोच ने रोक दिया। ऐसा मालूम हुआ, कि रमा की मोटर कुछ धीमी हो गयी है। देवीदीन की आवाज़ भी सुनायी दी। मगर मोटर रुकी नहीं। एक ही क्षण में वह आगे बढ़ गयी, पर रमा अब भी रह रहकर खिड़की की ओर ताकता जाता था।

जालपा ने जीने पर आकर कहा——दादा ! [ २४८ ]
देवीदीन के सामने आकर कहा-भैया आ गये ! यह क्या मोटर जा रही है।

वह कहता हुआ वह ऊपर आ गया। जालपा ने उत्सुकला को संकोच से दबाते हुए कहा-तुमसे कुछ कहा?

देवी०- और क्या कहते, खाली राम-राम की। मैंने कुशल पूछी। हाथ से दिलासा देते चले गये। तुमने देखा कि नहीं ?

जालपा ने सिर झुकाकर कहा-देखा क्यों नहीं। खिड़की पर जरा खड़ी थी।

'उन्होंने भी तुम्हें देखा होगा?' 'खिड़की की ओर ताकते तो थे।' 'बहुत चकराये होंगे, कि यह कौन है !' 'कुछ मालूम हुआ मुकदमा कब पेश होगा ?' 'कल ही तो।' 'कल ही ! इतनी जल्द ? तब तो जो कुछ करना हैं, आज ही करना होगा। किसी तरह मेरा खत उन्हें मिल जाता, तो काम बन जाता।'

देवीदीन ने इस तरह ताका मानो कह रहा है, तुम इस काम को जितना आसान समझती हो उतना आसान नहीं।

जालपा ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा-क्या तुम्हें सन्देह है कि वह अपना बयान बदलने पर राजी न होंगे ?

देवीदीन को अब इसे स्वीकार करने के सिवा और कोई उपाय न सूझा। बोला-हाँ बहूजी, मुझे इसका बहुत अन्देशा है और सच पूछो तो है भी जोखिम। अगर वह बयान बदल भी दें, तो पुलिस के पंजे से नहीं छूट सकते। वह कोई दूसरा इल्जाम लगाकर उन्हें पकड़ लेगी और फिर नया मुकदमा चलायेगी।

जालपा ने ऐसो नज़रों से देखा,मानो वह इस बात से जरा भी नहीं डरती। फिर बोली-दादा, मैं उन्हें पुलिस के पंजे से बचाने का बीड़ा नहीं लेती। मैं केवल यह चाहती हूँ कि अपयश से उन्हें बचा लूं। उनके हाथों इतने घरों की बरबादी होते नहीं देख सकती। अगर वह सचमुच में डकैतियों में शरीक होते, तब भी मैं यही चाहती कि वह अन्त तक अपने साथियों के