ग़बन/भाग 12
साथ रहें, और जो सिर पर पड़े, उसे खुशी से झेलें। मैं यह कभी पन्सद न करती, कि वह दूसरों को दगा देकर मुखबिर बन जायें। लेकिन यह मामला तो बिल्कुल झूठा है। मैं यह किसी तरह नहीं बर्दाश्त कर सकती कि वह अपने स्वार्थ के लिए झूठी गवाही दें। अगर उन्होंने खुद अपना बयान न बदला, तो मैं अदालत में जाकर सारा कच्चा चिट्ठा खोल दूंगी, चाहे नतीजा कुछ भी हो। वह हमेशा के लिए मुझे त्याग दें, मेरी सूरत न देखें, यह मुझे मंजूर है, पर यह नहीं हो सकता कि वह इतना बड़ा कलंक माथे पर लगायें। मैंने अपने पत्र में सब लिख दिया है।
देवीदीन ने उसे आदर की दृष्टि से देखकर कहा-तुम सब कर लोगी बहू, अब मुझे विश्वान हो गया। जब तुमने कलेजा इतना मजबूत कर लिया है,तो तुम सब कुछ कर सकती हो।
'तो यहाँ से नौ बजे चलें।'
'हाँ, मैं तैयार हूँ।'
३८
वह रामनाथ जो पुलिस के भय से बाहर न निकलता था. जो देवीदीन के घर में चोरों की तरह पड़ा जिन्दगी के दिन पूरे कर रहा था, आंज दो महीने से राजसी भोग-विलास में डूबा हुआ है ! रहने को सुन्दर सजा हुआ बँगला है, सेवा-टहल के लिए चौकीदारों का एक दल, सबारी के लिए मोटर, भोजन पकाने के लिए एक कश्मीरी बावर्ची। बड़े-बड़े अफसर उसका मुँह ताका करते है। उसके मुँह से बात निकली नहीं, कि पूरी हुई। इतने ही दिनों में उसके मिज़ाज में इतनी नफालत आ गयी है, मानो वह खानदानी रईस हो। विलास ने उसकी विवेक-बुद्धि को सम्मोहन-सा कर दिया है। उसे कभी इसका खयाल भी नहीं आता, कि मैं क्या कर रहा हूँ और मेरे हाथों कितने बेगुनाहों का खून हो रहा है ! उसे एकान्त-विचार का अवसर ही नहीं दिया जाता। रात को सैर होती है। मनोरंजन के नित्य नये सामान होते हैं। जिस दिन अभियुक्तों को मैजिस्ट्रेट ने सेशन सुपुर्द किया, सबसे ज्यादा खुशी उसी को हुई। उसे अपना सौभाग्य सुर्य उदय हुआ मालूम होता था।
पुलिस को मालूम था, कि सेशन जज के इजलाम में यह बहार न होगी। संयोग से जज हिन्दुस्तानी थे और निष्पक्षता के लिए बदनाम। पुलिस हो या
ओर, उनकी निगाह में दोनों बराबर थे। वह किसी के साथ रू-रियायत न करते। इसलिए पुलिस ने रमा को एक बार उन स्थानों की सैर कराना जरूरी समझा जहाँ वारदात हुई थी। एक जमींदार की मजी-सजाई कोठी में डेरी पड़ा। दिन-भर लोग शिकार खेलते, रात को ग्रामोफोन सुनते, ताश खेलते और बजरों पर नदियों की सैर करते। ऐसा जान पड़ता था, कि कोई राजकुमार शिकार खेलने निकला है।
इस भोग-विलास में रमा को अपर कोई अभिलाषा थी, तो यह कि जालपा भी यहाँ होती। अब तक वह पराश्रित था, दरिद्र था, उसकी विलासेन्द्रियाँ मानो मूर्छित हो रही थीं। इन शीतल झोकों ने उन्हें फिर सचेत कर दिया। वह कल्पना में मग्न था, कि यह मुक़दमा खत्म होते ही उसे अच्छी जगह मिल जायेगी। तब वह जाकर जालपा को मना लायेगा और आनन्द से जीवन सुख भोगेगा। हाँ, वह नये प्रकार का जीवन होगा, उसकी मर्यादा कुछ और होगी, सिद्धान्त कुछ और होंगे; उसमें कठोर संयम होगा और पक्का नियंत्रण। अब उसके जीवन का कुछ उद्देश्य होगा, कुछ आदर्श होगा। केवल खाना, सोना, और रुपये के लिए हाय-हाय करना ही जीवन का व्यवहार न होगा। इसी मुकदमे के साथ इस मार्ग-हीन जीवन का अन्त हो जायगा। दुर्बल इच्छा ने उसे यह दिन दिखाया था और अब एक नये और सुसंस्कृत जीवन का स्वप्न दिखा रही थी। शराबियों की तरह ऐसे मनुष्य भी रोज ही संकल्प करते हैं; लेकिन उन संकल्पों का अस्त क्या होता है ? नये-नये प्रलोभन सामने आते रहते हैं और संकल्प की अवधि भी बढ़ती चली जाती है। नये प्रभात का उदय कभी नहीं होता।
एक महीने देहात की सैर करने के बाद रमा पुलिस के सहयोगियों के साथ अपने बँगले पर जा रहा था ! रास्ता देवीदीन के घर के सामने से था। कुछ दूर ही से उसे कमरा दिखायी दिया। अनायास ही उसकी निगाह ऊपर उठ गयी। खिड़की के सामने कोई खड़ा था। इस वक्त देवीदीन यहाँ क्या कर रहा है ? उसने जरा ध्यान से देखा। यह तो कोई औरत है ! मगर औरत कहाँ से आयी। क्या देवीदीन ने वह कमरा किराये पर तो नहीं उठा दिया ? ऐसा तो उसने कभी नहीं किया।
मोटर जरा और समीप आयी, तो उस औरत का चेहरा साफ नजर आने
लगा। रमा चौंक पड़ा। यह जालपा है! वेशक जालपा है! मगर, नहीं-नहीं जालपा यहाँ कैसे आयेगी? मेरा पता-ठिकाना उसे कहाँ मालूम! बुड्ढे मने उसे खत तो नहीं लिख दिया? जालपा ही है? नायव दारोगा मोटर चला रहा था। रमा ने बड़ी मिन्नत के साथ कहा-सरदार साहब,एक मिनट के लिए रुक जाइए! मैं जरा देवीदीन से एक बात कर लूं। नायब ने मोटर जरा धीमी कर दी लेकिन फिर कुछ सोचकर उसे आगे बढ़ा दिया।
रमा ने तेज होकर कहा-आप तो मुझे कैदी बनाये हुए हैं! नायब ने खिसियांकर कहा-आप तो जानते है, डिप्टी साहब कितने जल्द जामे से बाहर हो जाते हैं।
बंगले पर पहुँचकर रमा सोचने लगा,जालपा से कैसे मिलें। वहीं जालपा ही थी,इसमें अन उसे कोई शुबहा न था! आँखों को कैसे धोखा देता। हृदय में एक ज्वाला-सी उटी हुई थी,क्या करूँ? कैसे जाऊँ? उसे कपड़े उतारने की सुधि भी न रही। पन्द्रह मिनट तक वह कमरे के द्वार पर खड़ा रहा। कोई हिकमत न सूझी। लाचार पलंग पर लेट रहा।
जरा ही देर में वह फिर उठा और सामने सहन में निकल आया। सड़क पर उसी वक्त बिजली की रोशनी ही गयी। फाटक पर चौकीदार खड़ा था। रमा को उस पर इस समय इतना क्रोध आया कि गोली मार दे। अगर मुझे कोई अच्छी जगह मिल गयी, तो एक-एक से समझूगा। तुम्हें तो डिसमिस कराके छोडूँगा। कैसे शैतान की तरह सिर पर सवार है। मुंह तो देखो जरा! मालूम होता है,बकरी की दुम है! वाह रे आपकी पगड़ी। गोया योझ ढोनेवाला कुली है!अभी कुत्ता भूँक पड़े, तो आप दुम दबा कर भागेंगे;मगर यहाँ ऐसे डटे खड़े हैं,मानों किसी किले के द्वार की रक्षा कर रहे हैं!
एक चौकीदार ने आकर कहा--इसपिट्टर साहब ने बुलाया है। कुछ नये तवे मंगवाये हैं।
रमा ने झल्लाकर कहा-मुझे इस वक्त फूरसत नहीं है।
फिर सोचने लगा। जालपा यहाँ कैसे आयी? अकेले ही आयी है, या कोई साथ है? जालिम ने बुड्ढे से एक मिनट भी बात न करने दिया।जालपा पूछेगी तो जरूर,कि क्यों भागे थे? साफ़-साफ कह दूंगा,उस समय और कर ही क्या सकता था,पर इन थोड़े दिनों के कष्ट ने जीवन का प्रश्न तो
हल कर दिया। अब आनन्द से जिन्दगी कटेगी। कोशिश करके उसी तरफ अपना तबादला करवा लूंगा। यह सोचते-सोचते रमा को खयाल आया,कि जालपा भी यहाँ मेरे साथ रहे,तो क्या हरज है।बाहरवालों से मिलने की रोक-टोक है। जालपा के लिए क्या रुकावट हो सकती है? लेकिन इस वक्त इस प्रश्न का छेड़ना उचित नहीं। कल इसे तय करूँगा। देवीदीन भी विचित्र जीव है। पहले तो कई बार आया;पर आज उसने भी सन्नाटा खींच लिया। कम-से-कम इतना तो हो ही सकता था,कि आकर पहरेवाले कांसटेबल से जालपा के आने की खबर मुझे देता। फिर मैं देखता कि कौन जालपा को नहीं आने देता।पहले इस तरह की कैद जरूरी थी;पर अब तो मेरी परीक्षा पूरी हो चुकी। शायद सब लोग खुशी से राजी हो जायेंगे।
रसोइया थाली लाया। मांस एक तरह का था। रमा थाली देखते ही झल्ला गया। इन दिनों रुचिकर भोजन देखकर ही उसे भूख लगती थी। जब तक चार-पाँच प्रकार का मांस न हो,चटनी-अचार न हो,उसको तृप्ति न होती थी।
बिगड़कर बोला-क्या खाऊँ? तुम्हारा सिर? थाली उठा ले जाओ।
रसोइये ने डरते-डरते कहा-हुजूर,इतनी जल्द और चीजें कैसे बनाता! अभी कुल दो घण्टे आये हुए हैं 'दो घण्टे तुम्हारे लिए थोड़े होते हैं?' 'अब हुजूर से क्या कहूँ।' 'मत बको! डैंम! 'हुजूर..... 'मत बको! डैंम! रसोइये ने फिर कुछ न कहा। बोतल लाया,बर्फ तोड़कर ग्लास में डाली और पीछे हटकर खड़ा हो गया।
रमा को इतना क्रोध आ रहा था,कि रसोइये को नोच खाये। उसका मिजाज इन दिनों बहुत तेज हो गया था।
शराब का दौर शुरू हुआ,तो रमा का गुस्सा और भी तेज हुआ। लाल लाल आँखों से उसे देखकर बोला-चाहूँ तो अभु तुम्हारा कान पकड़कर निकाल दूँ।अभी,इसी दम। तुमने समझा क्या है!
उसका क्रोध चढ़ता देखकर रसोइया चुपके से सरक गया। रमा ने ग्लास लिया और दो चार लुकमे खाकर बाहर सहन में टहनने लगा। यही धुन सवार थी,कैसे यहाँ से निकल जाऊँ!
एकाएक उसे ऐसा जान पड़ा,कि तार के बाहर वृक्षों की आड़ में कोई है। हाँ,कोई खड़ा उसकी तरफ़ ताक रहा है! शायद इशारे से अपनी तरफ बुला रहा है। रमानाथ का दिल धड़कने लगा। कहीं षड्यंत्रकारियो ने उसके प्राण लेने की तो नहीं ठानी है। यह शंका उसे सदैव बनी रहती थी। इस ख्याल से वह रात को बँगले के बाहर बहुत कम निकलता था। आत्मरक्षा के भाव ने उसे अन्दर चले जाने की प्रेरणा की। उसी वक्त एक मोटर सड़क पर से निकली! उसके प्रकाश में रमा ने देखा,वह अँधेरी छाया स्त्री है। उसकी साड़ी साफ़ नजर आ रही थी। फिर उसे मालूम हुआ कि यह स्त्री उसकी ओर आ रही है। उसे फिर शंका हुई,कोई मर्द वह वेश बदल कर मेरे साथ छल तो नहीं कर रहा है? वह ज्यों-ज्यों पीछे हटता गया,वह छाया उसकी ओर बढ़ती गयी, यहाँ तक कि तार के पास आकर उसने कोई चीज़ रमा की तरफ फेकी! रमा चीख मारकार पीछे हट गया,मगर वह केवल एक लिफ़ाफ़ा था। उसे तस्कीन हुई। उसने फिर जो सामने देखा तो वह छाया अंधकार में विलीन हो गयी थी। रमा ने लपककर वह लिफ़ाफ़ा उठा लिया। भय भी था और कुतूहल भी। भय कम था, कुतूहल अधिक। लिफाफे को जेब में छिपाये वह कमरे में आया, दोनों ओर के द्वार बन्द कर लिये और लिफाफे को हाथ में लेकर देखने लगा। सिरनामा देखते ही उसके हृदय में फुरेरिया-सी उड़ने लगी। लिखावट जालपा की थी। उसने फ़ौरन लिफ़ाफ़ा खोला। जालपा की ही लिखावट थी। उसने एक ही साँस में पत्र पड़ डाला और लब एक लम्बी सांस ली। उसी सांस के साथ चिन्ता का यह भीषण भार जिसने आज छः महीने से उसकी आत्मा को दबा कर रखा था,वह सारी मनोव्यथा जो उसका जीवन-रक्त चूस रही थी,वह सारी दुर्बलता,लज्जा,ग्लानि मानो उड़ गयी। छूमन्तर हो गयी। इतनी स्फूर्ति, इतना गर्व,इतना आत्म-विश्वास उसे कभी न हुआ था। पहली सनक यह सवार हुई, अभी चलकर दारोगा से कह दूँ, मुझे इस मुकदमे से कोई सरोकार नहीं है,लेकिन फिर ख्याल आया बयान तो अब हो ही चुका,जितना अपयश मिलना था,
मिल ही चुका, अब उसके फल से क्यो हाथ धोऊँ ? मगर इन सबी ने मुझे कैसा चकमा दिया है ! और अभी तक मुबालते में डाले हुए हैं। सब-के-सव मेरी दोस्ती का दम भरते हैं, मगर अभी तक असली बात मुझसे छिपाये हुए हैं। अभी इन्हें मुझ पर विश्वास नहीं ! अभी इसी बात पर अपना बयान बदल हूँ, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो। यही न होगा, मुझे कोई जगह न मिलेंगी, बला से; इन लोगों के मनसूबे तो खाक में मिल जायेंगे। इस दगाबाजी को सजा तो मिल जायगी। और यह कुछ न सही, इतनी बड़ी वदनामी से तो बच जाऊँगा। यह सब शरारत जरूर करेंगे; लेकिन झूठा इलजाम लगाने के सिवा और कर ही नया सकते हैं। जब मेरा यहाँ रहना साबित ही नहीं, तो मुझ पर दोष ही क्या लग सकता है। सबों के मुंह में कालिख लग जायगी। मुंह तो दिखाया न जायगा, मुकदमा क्या चला देंगे।
मगर नहीं। इन्होंने मुझसे चाल चली हैं, तो मैं भी इनसे वही चाल चलूँगा। कह दूँगा, अगर मुझे आजज कोई अच्छी जगह मिल जायेगी, तो मैं शहादत दूँगा, वरना साफ कह दूँगा, इस मामले से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। नहीं तो पीछे से किसी छोटे-मोटे थाने में नायब दारोगा बनाकर भेज दें और यहाँ सड़ा करूं। लूँगा इंसपेक्टरी और कल दस बजे मेरे पास नियुक्ति का परवाना आ जाना चाहिए। वह चला कि इसी वक्त दारोगा से कह दूँ, लेकिन फिर रुक गया। एक बार जालपा से मिलने के लिए उसके प्राण तड़प रहे थे। उसके प्रति इतना अनुराग, इतनी श्रद्धा उसे न हुई थी, मानो वह कोई दैवी शक्ति हो जिसे देवताओं ने उसकी रक्षा के लिए भेजा हो।
दस बज गये थे। रमानाथ ने बिजली गुल कर दी और बरामदे में आकर जोर से किवाड़ बन्द कर दिये, जिसमें पहरेवाले सिपाही को मालूम हो अन्दर से किवाड़ बन्द करके सो रहे हैं। वह अँधेरे बरामदे में एक मिनट खड़ा रहा। तब आहिस्ता ने उतरा और काँटेदार फेंसिंग के पास आकर सोचने लगा,उस पार कैसे जाऊँ? शायद अभी जालपा बगीचे में हो। देवीदीन ज़रूर उसके साथ होगा। केवल यही तार उसकी राह रोके हुए था। उसे फाँद जाना असम्भव था। उसने तारों के बीच से होकर निकल जाने का निश्चय किया। अपने सब कपड़े समेट लिए और काँटे को बचाते हुए सिर और कंधे को तार के बीच में डाला; पर न जाने कैसे कपड़े फंस गये।
उसने हाथ से कपड़ों को छुड़ाना चाहा तो आस्तीन काँटों में फंस गयी। धोती भी उलझी हुई थी। बेचारा बड़े संकट में पड़ा। न इस पार जा सकता था; न उस पार। जरा भी असावधानी हुई और काँटे उसको देह में चुभ जायेंगे।
मगर इस वक्त उसे कपड़ों की परवा न थी। उसने गर्दन और आगे बढ़ाई और कपड़ों में लम्बा चीरा लगाता हुआ उस पार निकल गया। सारे कपड़े तार-तार हो गये, पीठ में कुछ खरोंचें लगी; इस समय कोई बन्दुक का निशाना बांधकर भी उसके सामने खड़ा हो जाता तो भी वह पीछे न हटता ! फटे हुए कुरते को उसने वहीं फेंक दिया। गले की चादर फट जाने पर भी काम दे सकती थी, उसे उसने मोढ़ लिया, धोती समेट ली और बगीचे में धूमने लगा। सन्नाटा था। शायद रखवाला खटिक खाना खाने गया हुआ था। उसने दो-तीन बार धीरे-धीरे जालपा का नाम लेकर पुकारा भी। किसी की आहट न मिली; पर एक निराशा होने पर भी मोह ने उसका गला न छोड़ा। उसने एक पेड़ के नीचे जाकर देखा। समझ गया, जालपा चली गयी। वह उन्हीं पैरों देवीदीन के घर की ओर चला। उसे जरा भी शोक न था। बला से किसी को मालूम हो जाय कि मैं बँगले से निकल आया हूँ। पुलिस मेरा कर ही क्या सकती हैं। मैं कैदी नहीं हूँ, गुलामी नहीं लिखायी है।
आधी रात हो गयी थी। देवीदीन भी आध घण्टे पहले लौटा था और खाना खाने जा रहा था, कि एक नंगे-बड़गे आदमी को देखकर चौंक पड़ा। रमा ने सिर पर चादर बांध ली थी और देवीदीन को डराना चाहता था।
देवीदीन ने सशंक होकर कहा-कौन है ?
मगर फिर सहसा पहचान गया और झपटकर उसका हाथ पकड़ता हुआ बोला——तुमने तो भैया, खूब भेस बनाया है। कपड़े क्या हुए?
रमा०——तार से निकल रहा था, सब उसके काँठे में उलझकर फट गये।
देवी०——राम-राम ! देह में तो काँटे नहीं चुभे ?
रमा०——कुछ नहीं, दो एक खरोंचें लग गयीं। मैं बहुत बचाकर निकला।
देवी०——बहू की चिट्ठी मिल गयी न ?
रमा०——हाँ, उसी वक्त मिल गयी। क्या तुम्हारे साथ थीं ? देवी०——वह मेरे साथ नहीं थी, मैं उनके साथ था। जब मैं तुम्हे मोटर पर आते देखा, तभी से जाने-जाने लगाये हुए थीं।
रमा——तुमने कोई खत लिखा था ?
देवी——हमने कोई खत-पत्तर नहीं लिखा भैया। जब वह आयी तो मुझे आप ही अचम्भा हुआ, कि बिना जाने-बूझे कैसे आ गयी। पीछे से उन्होंने बताया। वह सत्तरंजवाला नक्शा उन्होंने पराग से भेजा था और इनाम भी वहीं से आया था।
रमा की आँखें फैल गयीं। जालपा की चतुराई ने उसे विस्मय में डाल दिया। इसके साथ ही पराजय के भाव ने उसे कुछ खिन्न कर दिया, वहाँ भी इस बुरी तरह उसको हार हुई।
बुढ़िया ऊपर गयी हुई थी। देवीदीन ने जीने के पास जाकर कहा——अरे क्या करती है ? बहु से कह दे, एक आदमी उनसे मिलने आया है।
यह कहकर देवीदीन ने फिर रमा का हाथ पकड़ लिया और बोला—— चलो, अब सरकार में तुम्हारी पेसी होगी। बहुत भागे थे। बिना वारंट के पकड़ गये। इतनी आसानी से पुलिस भी न पकड़ सकती।
रमा का मनोल्लास द्रवित हो गया था। लज्जा से गड़ा जाता था। जालपा के प्रश्नों का उसके पास क्या जवाब था। जिससे वह भागा था, उसने अन्त में उसका पीछा करके परास्त हो कर दिया। वह जालपा के सामने सीधी आँखें भी तो न कर सकता था। उसने हाथ छुड़ा लिया और जीने के पास ठिठक गया। देवीदीन ने पूछा—— क्यों रुक गये ?
रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा——चलो, मैं आता हूँ।
बुढ़िया ने ऊपर ही से कहा——पूछो कौन इदमी है, कहाँ से आया है ?
देवीदीन ने बिनोद किया——कहता है, मैं जो कुछ कहूँगा बहू ले ही कहूँगा! 'कोई चिट्ठी लाया है ?
'नहीं!'
सन्नाटा हो गया। देवीदीन ने एक क्षण के बाद पूछा——कह दूँँ लौट जाय?
जालपा जीने पर आकर बोली——कौन इदमी है, पूछती तो हूँ ! 'कहता है, बड़ी दूर से आया हूँ।' 'हैं कहां?'
'यह क्या खड़ा है ? '
'अच्छा, बुला लो।'
रमा चादर ओढ़े कुछ झिझकता झपता, कुछ डरता, जीने पर बदा। जालपा में उसे देखते ही पहचान लिया ! तुरन्त दो कदम पीछे हट गयी।
देवीदीन बहाँ न होता तो वह दो कदम और आगे बढ़ी होती। जसकी आँखों में कभी इतना नशा न था, अंगों में कभी इतनी चपसता न थी, कपोल कभी इतने न दमके थे, हृदय में कभी इतना मृदुकम्पन न हुआ था। आज उसकी तपस्या सफल हुई।
३९
वियोगियों के मिलन की रात बटोहियों के पड़ाव की रात है, जो बातों में कट जाती है। रमा और जालपा दोनों ही को अपनी छः महीने की कथा कहानी थी। रमा ने अपना गौरव बढ़ाने के लिए अपने कष्टों को खुब बढ़ा-चढ़ाकर बयान किया। जालपा ने अपनी कथा में कष्टों की चर्चा तक न आने दी। वह डरती थो इन्हें दुःख होगा: लेकिन रमा को रुलाने में विशेष प्रानन्द आ रहा था। वह क्यों भागा, किस लिए भागा, कैसे भागा——वह सारी गाया उसने करुण शब्दों में कहीं और जालपा ने सिसक-सिसक कर सुनी। वह अपनी बातों से प्रभावित करना चाहता था। अब तक कभी बातों में उसे परास्त होना पड़ा था। जो बात जसे असह्य मालूम हुई, उसे जालपा ने चुटकियों में पूरा कर दिखाया। शतरंजवाली बाल को वह खुब नमक-मिर्च लगाकर बयान कर सकता था; लेकिन वहाँ भी जालपा ही ने नीचा दिखाया। फिर उसकी कीति-लालसा को इसके सिवा और क्या उपाय था कि अपने कष्टों को राई का पर्वत बनाकर दिखाये ?
जालपा ने सिसककर कहा——तुमने यह सारी आफ़तें भेली, पर हमें एक पत्र तक न लिखा। क्यों लिखते, हमसे नाता ही क्या था ! मुंह देखें की प्रीति थी ! आँख प्रोट पहाड भोट !
रमा ने हसरत से कहा——यह बात नहीं थी जालपा, दिल पर जो कुछ गुजरती थी, दिल ही जानता है; लेकिन लिखने का मुंह भी लो हो। जन्म मुंह
छिपाराकर घर से भागा, तो अपनी विपत्ति-कथा क्या लिखने बैठा। मैंने तो सोच लिया था, जब तक खूब रुपाये न कमा लूंगा, एक शब्द भी न लिखुगां।
जालपा ने आंसु-भरी आँखों में व्यंग भरकर कहा——ठोक हो था, रुपये आदमी से ज्यादा प्यारे होते हैं ! हम तो रुपये के यार है: तुम चाहें चोरी करो, डाका मारो, जाली नोट बनाओ, झूठी गवाही दो या भीख माँगा, किसी उपाय से रुपये लायो। तुमने हमारे स्वभाव को कितना ठीक समझा है, कि बाह ! गोसाई जी भी तो कह गये है——स्वारथ लाइ कहीं सब प्रोती !
रमा ने झेपते हुए कहा——नहीं प्रिये, यह बात न थी। मैं यही सोचता था कि इन फटे हाल जाऊँगा कैसे ! सच कहता हूँ. मुझे सबसे ज्यादा 'डर तुम्हीं से लगता था। सोचता था, तुम मुझे कितना कपटी, भूता, कायर समझ रही होगी। शायद मेरे मन में यह भाव था कि रुपये का थैलो देखकर तुम्हारा हृदय कुछ तो नम होगा।
जालपा ने कंठ से कहा——मैं शायद उस थैली को हाथ से छुती भी नहीं। प्राज मालूम हो गया, तुम मुझे कितनी नीच. कितनी स्वार्थिनी, कितनो लोभी समझते हो। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं सरासर मेरा दोष है। अगर मैं भली होती, तो आज यह दिन ही क्यों प्राता ? जो पुरुष तीस चालीस रुपये महीने का नौकर हो, उसकी स्त्री अगर दो-चार रुपये रोज खर्च करे, हजार-दो हजार के गहने पहनने की नीयत रखे, तो वह अपनी और उसकी तबाही का सामान कर रही है। अगर तुमने मुझे इतना धनलोलुप समझा, तो कोई अन्याय नहीं किया। मगर एक बार जिस प्राग में जल चुकी, उसमें फिर न कूदूंगी। इन महीनों में मैंने उन पापों का कुछ प्रायश्चित किया है, और शेष जीवन के अन्त समय तक करूँगी। यह मैं नहीं कहती कि भोग-विलास से मेरा जी भर गया, या गहने कपड़े से मैं' ऊब गयी या सैर-तमाशे से मुझे घृणा हो गयो। यह सब अभिलाषाएं ज्योंकी-त्यों हैं। पुरुषार्थ से, अपने परिश्रम से, अपने सदुद्योग से उन्हें पूरा कर सको, तो क्या कहना; लेकिन नीयत खोटो करके, परमातमा को कलुषित करके एक लाख भी लानी, तो मैं ठुकरा दूंगी। जिस वक्त मुझे मालूम हुया कि तुम पुलिस के गवाह बन गये हो, मुझे इतना दुःख हुआ कि मैं उसी वक्त' बादा को साथ लेकर तुम्हारे बंगले तक गयी; मगर उसी दिन तुम बाहर
चले गये थे और आज लौटे हो। मैं इतने आदमियों का खून अपनी गर्दन पर नहीं लेना चाहती। तुम अदालत में साफ़-साफ़ कह दो, कि मैंने पुलिस के चकमे में आकर गवाही दी थी, मेरा मुआमले से कोई सम्बन्ध नहीं है।
रमा मे चिन्तित होकर कहा——जब से तुम्हारा खत मिला तभी से मैं इस प्रश्न पर विचार कर रहा हूँ; लेकिन समझ में नहीं आता क्या करूं। एक बात कहकर मुकर जाने का साहस मुझमें नहीं है।
'बयान तो बदलना ही पड़ेगा।'
'आखिर कैसे?'
'मुश्किल क्या है? जब तुम्हें मालुम हो गया कि म्युनिसिपलिटी तुम्हारे ऊपर कोई मुकदमा नहीं चला सकती तो फिर किस बात का डर?'
'डर न हो, झेंप भी तो कोई चीज है। जिस' मुंह से एक बात कही, उसी मुँह से मुकर जाऊँ, यह तो मुझसे न होगा। फिर, मुझे कोई अच्छी जगह मिल आयगी। आराम से जिन्दगी बसर होगी। मुझमें गली-गली ठोकर खाने का बूता नहीं है।'
जालपा ने कोई जवाब न दिया। वह सोच रही थी, आदमी में स्वार्थ की मात्रा कितनी अधिक होती है।
रमा ने फिर धृष्टता से कहा——और कुछ मेरी हो गवाही पर तो सारा फैसला नहीं हुआ जाता ? मैं बदल भी जाऊँ तो पुलिस कोई दूसरा आदमी खड़ा कर देगी। अपराधियों की जान तो किसी तरह नहीं बच सकती। हाँ, मैं मुफ्त में मारा जाऊँगा।
जालपा ने त्योरी चढ़ाकर कहा——कैसी बेशर्मी की बातें करते हो जी ? क्या तुम इतने गये-बीते हो कि अपनी रोटियो के लिए दूसरों का गला काटो ? मैं इसे नहीं सह सकती। मुझे मजदूरी करना, भूखी मर जाना मंजूर है। बड़ी-से-बड़ी विपत्ति जो संसार में है, यह सिर पर ले सकती हैं; लेकिन किसी का अनमल करके स्वर्ग का राज भी नहीं ले सकती।
रमा इस प्रादर्शवाद' से चिढ़कर बोला——तो क्या तुम चाहती हो कि मैं यहाँ कुलीगीरी करूं?
जालपा——नहीं, मैं यह नहीं चाहती; लेकिन कुलीगीरी भी करनी पड़ें, तो बह खुन से तर रोटियां खाने से कहीं बढ़कर है। रमा ने शान्त भाव से कहा——जालपा, तुम मुझे जितना नीच समझ रही हो मैं उतना नीच नहीं हूँ ! बुरी बात सभी को बुरी लगती है इसका दुख मुझे भी है कि मेरे हाथों इतने आदमियों का खून हो रहा है। लेकिन परिस्थिति ने मुझे भी लाचार कर दिया है। मुझमें अब ठोकरें खाने की शक्ति नहीं है। न मैं पुलिस से रार ले सकता है। दुनिया में सभी थोड़े ही आदर्श पर चलते हैं। मुझे क्यों ऊँचाई पर चढ़ाना चाहती हो, जहाँ पहुँचने की शक्ति मुझमें नहीं है ?
जालपा ने तीक्ष्ण स्वर में कहा——जिस आदमी में हत्या करने की शक्ति हो, उसमें हत्या न करने की शक्ति का न होना अचम्भे की बात है। जिसमें दौड़ने की शक्ति हो, उसमें खड़े रहने की शक्ति न हो, इसे कौन मानेगा ? जब हम कोई काम करने की इच्छा करते हैं, तो शक्ति आप-ही-आप जा जाती है ! तुम यह निश्चय कर लो कि तुम्हें बयान बदलना है, बस और सारी बातें आप-ही-आप आ जायंगी।
रमा सिर झुकाये हुए सुनता रहा।
जालपा ने और आवेश में आकर कहा——अगर तुम्हें यह पाप की खेती करनी है, तो मुझे आज ही यहाँ से विदा कर दो | मैं मुंह में कालिख लगाकर यहाँ से चली जाऊँगी और फिर तुम्हें दिक करने न पाऊँगी। तुम आनन्द से रहना। मैं अपना पेट मेहनत-मजदूरी करके भर लूंगी। अभी प्रायश्चित पूरा नहीं हुआ है, इसलिए यह दुर्बलता हमारे पीछे पड़ी हुई है। मैं देख रही हूँ, यह हमारा सर्वनाश करके छोड़ेगी।
रमा के दिल पर कुछ चोट लगी। सिर खुजलाकर बोला——चाहता तो मैं भी हूँ कि किसी तरह इस मुसीबत से जान बचे। 'तो बचाते क्यों नहीं ? अगर तुम्हें कहते शर्म आती हो, तो मैं चलूँ। यही अच्छा होगा। मैं भी चली चलूंगी और तुम्हारे सुपरिटेंडेंट साहब से सारा सुत्तान्त साफ-साफ़ कह दूँँगी।'
रमा का सारा पशीपेश गायब हो गया। अपनी इतनी दुर्गति यह न कराना चाहता था कि उसकी स्त्री जाकर उसकी वकालत करे। बोला——तुम्हारे चलने की जरूरत नहीं है जालपा, मैं उन लोगों को समझा दूंगा।
जालपा ने जोर देकर कहा—— साफ़ बतायो, अपना बयान बदलोगे, या नहीं ?
रमा ने मानो कोने में दबकर कहा——कहता तो हूँ, बदल दूंगा !
'मेरे कहने से या अपने दिल से ?'
'तुम्हारे कहने से नहीं, अपने दिल से ! मुझे खुद ही ऐसी बात से घृणा है। सिर्फ जरा हिचक थी। वह तुमने निकाल दी।
फिर और बाते होने लगी। कैसे पता चला कि रमा ने रुपये उड़ा दिये है? रुपये अदा कैसे हो गये ? और लोगों को गबन की खबर हुई या घर ही में दबकर रह गयी? रतन पर क्या गुजरी? गोपी क्यों इतनी जल्दी चाल गया ? दोनों कुछ पढ़ रहे हैं या उनी तरह आवारा फिरा करते है ? आखिर में अम्मा और दादा का जिक्र ग्रामा। फिर जीवन के मनसूबे बांधे जाले खगे। जालपा ने कहा——वर चलकर रान से थोड़ो-सी जमीन ले लें और प्रानन्द से खेती-बारी करें। रमा ने कहा——उससे कहीं अच्छा है, कि यहां चाय की दुकान खोलें। इस पर दोनों में मुवाहसा हुा। माखिर रमा को हार माननी पड़ी। यहां रहकर वह घर की देखभाल न कर सकता था.' भाइयों को शिक्षा न दे सकता था, और न माता-पिता का सेवा-सत्कार कर सकता था। आखिर घरवालों के प्रति भी तो उसका कुछ कर्तव्य था। रमा निरुत्तर हो गया।
४०
रमा मुंह अँधेरे अपने बैंगले पर पहुंचा। किसी को कानोकान खबर न
नाश्ता करके रमा ने खत साफ किया, कपड़े पहने और दारोगा के पास जा पहुँचा। त्योरियां बढ़ी हुई थी। दारोगा ने पुछा——रियल तो है, नौकरों ने कोई शरारत तो नहीं की ?
रमा ने खड़े-खड़े कहा——नौकरों ने नहीं मापने शरारत की है। प्राप मातहतों, अफसरों और सबने मिलकर मुझे उल्लू बनाया है।
दारोगा ने कुछ घबराकर कहा—— आखिर बात क्या है, कहिए सो
रमा०——बात यही है, कि मैं इस मुभामले में अब कोई शहादत न दूंगा। उससे मेरा ताल्लुक नहीं। आप लोगों ने मेरे साथ चाल चली और वारस्ट
की धमकी देकर मुझे शहादत देने पर मजबूर किया। अब मुझे मालूम हो गया, कि मेरे ऊपर कोई इल्जाम नहीं। आप लोगों का चकमा था। मैं अब पुलिस की तरफ़ से शहादत नहीं देना चाहता, मैं आज जज साहब से साफ़ कह दूंगा ! वेगुनाहों का खून अपनी गर्दन पर न लूँँगा !
दारोगा ने तेज होकर कहा——आपने खुद गवन तस्लीम किया था।
रमाo——मीजान की गलती थी, गबन न था | म्युनिसिपैलिटी ने मुझे पर मुकदमा नहीं चलाया।
'यह आपको मालूम कैसे हुआ?'
'इससे आपको कोई बहस नहीं ! मैं शहादत न दूंगा। साफ़-साफ़ कह दूंगा, पुलिस ने मुझे धोखा देकर शहादत दिलवायी है। जिन तारीखों का यह वाकया है, उन दारीखों में मैं इलाहाबाद में था। म्युनिसिपल आफिस की हाजिरी मौजूद है।'
दारोगा ने इस आपत्ति को हँसी में उड़ाने की चेष्टा करके कहा——अच्छा साहब, पुलिस ने घोखा ही दिया; लेकिन उसकी खातिर वह इनाम देने को भी तो हाजिर है, कोई अच्छी जगह मिल जायगी, मोटर पर बैठे हुए सैर करोगे। खुफ़िया पुलिस में कोई जगह मिल गयी, तो चैन-ही-चैन है। सरकार की नजरों में इज्जत और रमूख कितना बढ़ गया। यों मारे मारे फिरते। शायद किसी दफ्तर में क्लर्की मिल जाती, वह भी बड़ी मुश्किल से। यहाँ तो बैठे-बिठाये तरक्की का दरवाजा खुल गया। अच्छी कारगुजारी होगी, तो एक दिन राय बहादुर मुंशी रमानाथ डिप्टी सुपरिन्टेण्ट हो जाओगे। तुम्हें हमारा एहसान मानना चाहिए ! और आप उल्टे खफा होते हैं।
रमा पर इस प्रलोभन का कुछ भी असर न हुआ, बोला——मुझे क्लर्क बनना मंजूर है; इस तरह की तरक्की नहीं चाहता। यह आप ही को मुबारक रहे।
इतने में डिप्टी साहब और इंस्पेक्टर भी आ पहुंचे। रमा को देखकर इंस्पेक्टर साहब ने समझाया——हमारे बाबू साहब तो पहले से तैयार बैठे हैं। बस, इसी कारगुजारी पर वारा-न्यारा है।
रमा ने इस भाव से कहा, मानों में भी अपना नफा-नुकसान समझता
हूँ——जी हाँ, आज बारा-न्यारा कर दूंगा। इतने दिनों तक आप लोगों के इशारे पर चला। अब अपनी आँखों से देखकर चलूंगा !
इंस्पेक्टर ने दारोगा का मुंह देखा, दारोगा ने डिप्टी का मुंह देखा, डिप्टी ने इंस्पेक्टर का मुँह देखा। यह क्या कहता है? इंस्पेक्टर साहब विस्मित होकर बोले—— क्या बात है। हलफ़ से कहता हूँ, आप कुछ नाराज मालूम होते है।
रमा——मैंने फैसला किया है, कि आज अपना बयान बदल दूंगा। बेगुनाहों का खून नहीं कर सकता।
इंस्पेक्टर ने दया-भाव से उसकी तरफ़ देखकर कहा——आप बेगुनाहों का खून नहीं कर रहे हैं, अपनी तकदीर को इमारत खड़ी कर रहे है। हलफ़ से कहता हूँ, ऐसे मौके बहुत कम आदनियों को मिलते। आज क्या बात हुई, कि आप इतने खफा हो गये ? आपको कुछ मालूम है दारोगा साहब ? आदमियो ने तो कोई शोखी नहीं की ? अगर किसी ने आपके मिजाज के खिलाफ कोई काम किया हो, तो उसे गोली मार दीजिए, हलफ से कहता हूँ।
दारोगा——मैं अभी जाकर पता लगाता हूँ।
रमा०——आप तकलीफ न करें। मुझे किसी से शिकायत नहीं है। मैं थोड़े से फायदे के लिए अपने ईमान का खून नहीं कर सकता।
एक मिनट सन्नाटा रहा। किसी को कोई बात न सूझी। दारोगा कोई दूसरा चकमा सोच रहे थे, इंस्पेकटर कोई दूसरा प्रलोभन। डिप्टी एक दूसरी ही फिक्र में था। रूखेपन से बोला——रमा बावु यह अच्छा बात न होगा।
रमा ने भी गर्म होकर कहा——आपके लिए न होगी, मेरे लिए तो सबसे अच्छी यही बात है।
डिप्टी——नहीं ! आपका वास्ते इससे बुरा दूसरा वारा नहीं है। हम तुमको छोड़ेगा नहीं। हमारा मुकदमा चाहे बिगड़ जाय; लेकिन हम तुमको ऐसा 'लेसन' दे देगा कि उमिर भर न भूलेगा। आपको वही गवाही देना होगा जो आप दिया। अगर तुम कुछ गड़बड़ करेगा, कुछ भी गोलमाल किया, तो हम तोमारे साथ दोसरा बर्ताव करेगा। एक रिपोर्ट में तुम यों (कलाइयों को ऊपर नीचे रखकर) चला जायगा।
यह कहते हुए उसने आँखे निकालकर रमा को देखा, मानो कच्चा ही
खा जायगा। रमा सहम उठा। इन आतंक से भरे शब्दों ने उसे विचलित कर दिया। यह सब कोई झूठा मुकदमा चलाकर उसे फँसा दें, तो उसकी कौन रक्षा करेगा। उसे यह आशा न थी, कि डिप्टी साहब जो शील और विनय के पुतले बने हुए थे, एक बारगी यह रुद्र रूप धारण कर लेंगे; मगर वह इतनी आसानी से दबनेबाला न था। तेज होकर बोला--आप मुझसे जबरदस्ती शहादत दिलायेंगे ?
डिप्टी ने पैर पटकते हुए कहा—— हां, जबरदस्ती दिलायेगा।
रमा०——यह अच्छी दिल्लगी है !
डिप्टी——तोम पुलिस को धोखा देना दिल्लगी समझता है। अभी दो गवाह देकर साबित कर सकता है, कि तुम राजद्रोह का बात कर रहा था। अस चला जायगा सात साल के लिए। चक्की पीसते-पीसते हाथ में घटटा पड़ जायगा। यह चिकना-चिकता माल नहीं रहेगा।
रमा जेल से डरता था। जेल-जीवन की कल्पना ही से उसके रोएँ खड़े होते थे। जेल ही के भय से उसने वह गवाही देनी स्वीकार की थी। वही भय इस वक्त भी उसे कातर करने लगा। डिप्टी भाव-विज्ञान का ज्ञाता था। यासन का पता आ गया, बोला——वहां हलवा पूरी नहीं पायगा। धूल मिला हुआ आटा का रोटी, गोमो के सड़े हुए पत्तों का रसा, और अरहर की दाल का पानी खाने को पावेगा। काल कोठरी का चार महीना भी हो गया, तो तुम बच भी नहीं सकता, वहीं भर जायगा। बात-बात पर वार्टर गाली देगा, जूतों से पीटेगा, तुम समझता क्या है।
रमा का चेहरा फीका पड़ने लगा। मालूम होता था, प्रतिक्षरा उसका खून सूखता चला जाता है। अपनी दुर्बलता पर उसे इतनी ग्लानि हुई कि वह रो पड़ा। कांपती हुई आवाज से बोला-आप लोगों की यह इच्छा है, तो यही सही ! भेज दीजिए जेल! मर ही जाऊँगा न ? फिर तो आप लोगों से मेरा गला छूट जायगा। जब आप यहां तक मुझे तबाह करने पर आमादा हैं, तो मैं भी मरने को तैयार हूँ। जो कुछ होना होगा, होगा।
उसका मन दुर्बलता की उस दशा को पहुँच गया था, जब जरा-सी सहानुभूति, जरा-सी सहृदयता सैकड़ों धमकियों से कहीं कारगर हो जाती है। इंस्पेक्टर साहब ने मौका ताड़ लिया ! उसका पक्ष लेकर डिप्टी से बोले—— br>हलफ़ से कहता हूँ, आप लोग आदमी को पहचानते तो है नहीं, लगते है रोब जमाने। इस तरह गवाही देना हर एक समझदार आदमी को बुरा मासूस होगा। कुदरती बात है। जिसे जरा भी इज्जत का खयाल है, वह पुलिस के हाथों की कठपुतलो बनना पसंद न करेगा। बाबू साहब की जगह मैं होता, तो मैं भी ऐसा करता, लेकिन इनका मतलब यह नहीं कि वह हमारे खिलाफ़ शहादत देंगे। आप लोग अपना काम कीजिए, बाबू साहब की तरफ से बेफिक रहिए, हलफ़ से कहता हूँ।
उसने रमा का हाथ पकड़ लिया और बोला——आप मेरे साथ चलिए वाबूजी, आपको अच्छे रिकार्ड सुनाऊँ।
रमा ने रूठे हुए बालक की तरह हाथ छुड़ाकर कहा——मुझे दिक न कीजिए, इंस्पेक्टर साहब। मब तो मुझे जेलखाने में मरना है।
इंस्पेक्टर ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा—— आप क्यों ऐसी बातें मुँह से निकालते हैं साहब ! जेलखाने में मरें आपके दुश्मन !
डिप्टी ने तसमा भी बाक़ी न छोड़ना चाहा। बड़े कठोर स्वर में बोला, मानो रमा से कभी का परिचय नहीं हैं—— साहब, यों हम बाबू साहब के साथ सब तरह का सलूक करने को तैयार है। लेकिन जब वह हमारे खिलाफ गवाही देगा, हमारा जड़ खोदेगा, तो हम भी अपनी कार्रवाई करेगा। जरूर से करेगा। कभी छोड़ नहीं सकता।
इसी वक्त सरकारी एडवोकेट और बैरिस्टर मोटर से उतरे।
४१
रतन पत्रों में जालपा को तो ढाडस देती रहती थी; पर अपने विषय में कुछ न लिखती थी। जो आफ ही ब्यथित हो रही हो, उसे अपनी व्यथानों की कथा क्या सुनाती ! वही रतन जिसने रुपयों की कभी कोई हकीकतन समझी, इस एक ही महीने में रोटियों की भी मुहताज हो गयी थी। उसका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी न हो, पर उसे किसी बात का प्रभाव न था। , मरियल घोड़े पर सवार होकर भी यात्रा पुरी हो सकती है अगर सड़क अच्छी हो, नौकर-चाकर, रुपये-पैसे और भोजन आदि की सामग्री साथ हो। घोड़ा भी तेज हो, तो पूछना ही क्या। रतन की दशा उसी सवार की सी थी, उसी सवार की भांति वह मन्दगति से अपनी जीवन-यात्रा कर रही थी। कभी–
कभी वह घोड़े पर झुंझलाती होगी, दूसरे सवारों को उड़े जाते देखकर उसकी भी इच्छा होती होगी कि मैं भी इसी तरह उड़ती; लेकिन यह दुःखी न थी, अपने नसीबों को रोती न थी। वह उस गाय की तरह थी, जो एक पतली सी पगहिया के बंधन में पड़कर, अपनी नांद के भूसे-खली में मग्न रहती है। सामने हरे-हरे मैदान है, उसमें सुगन्धमय घासें लहरा रही हैं। पर वह पगहिया तुड़ाकर कभी उधर नहीं जाती। उसके लिए उस पगहिया और लोहे की जंजीर में कोई अन्तर नहीं। यौवन को प्रेम की इसनी क्षुधा नहीं होती, जितनी आत्मप्रदर्शन की। प्रेम की क्षुधा पीछे आती है। रतन को आत्मप्रदर्शन के सभी साधन मिले हुए थे। उसकी युवती-आत्मा अपने शृङ्गार और प्रदर्शन में मग्न थी। हंसी-बिनोद, सैर-सपाटा. खाना-पीना यही उसका जीवन था, प्रायः जो सभी मनुष्यों का होता है। इससे गहरे जल में जाने की उसे न इच्छा थी न प्रयोजन। सम्पन्नता बहुत कुछ मानसिक व्यथाओं को शांत करती है। उसके पास अपने दुःखों को भुलाने के कितने ही ढंग हैं ...-सिनेमा है, थिएटर हैं, देश-भ्रमण है, ताश हैं, पालतू जानवर हैं, संगीत है। लेकिन बिपन्नता को भुलाने का मनुष्य के पास कोई साधन नहीं, इसके सिवा कि वह रोये, अपने तकदीर को कोने या संसार से विरक्त होकर आत्महत्या कर ले। रतन की तक़दीर ने पलटा खाया था। सुख का स्वप्न भङ्ग हो गया था और विपन्नता का कंकाल अब उसे खड़ा घूर रहा था।
और यह सब हुआ अपने ही हाथों। पंडितजी उन प्राणियों में थे, जिन्हें मौत की फ़िक नहीं होती। उन्हें किसी तरह यह भ्रम हो गया था, कि दुर्बल स्वास्थ्य के मनुष्य अगर पथ्य और विचार से रहें तो बहुत दिनों तक जी सकते हैं। वह पथ्य और विचार की सीमा के बाहर कभी न जाते। फिर मौत की उनसे क्या दुश्मनी थी, जो खुद उनके पीछे पड़ती। अपनी वसीयत लिख डालने का ख्याल उन्हें उस वक्त आया, जब वह मरणासन्न हुए, लेकिन रतन वसीयत का नाम सुनते ही इतनी शोकातुर, इतनी भयभीत हुई, कि पंडितजी ने उस वक्त टाल जाना ही उचित समझा। तब से फिर उन्हें इतना होश न आया, कि वसीयत लिखवाते।
पंडितजी के देहावसान के बाद रतन का मन इतना विरक्त हो गया कि
उसे किसी बात की भी सुध-बुध न रही। उसे इस भांति सतक रहना चाहिए था, मानो दुश्मनों ने उसे घेर रखा हो; पर उसने सब मणिभूषण पर छोड़ दिया। और उसी मणिभूषण ने धीरे-धीरे उसकी सारी सम्पत्ति अपहरण कर ली, ऐसे-ऐसे षड्यन्त्र रचे कि सरला रतन को उसके कपट व्यवहार का आभास तक न हुआ ! फन्दा अब खूब कस गया, तो उसने एक दिन आकर कहा-आज बँगला खाली करना होगा। मैंने इसे बेच दिया है।
रतन ने जरा तेज होकर कहा——मैंने तो तुमसे कहा था, कि मैं अभी बंगला न बेचूगीं।
मणिभूषण ने विनय का आवरण उतार फेंका और त्योरी चढ़ाकर बोला——आपमें बातें भूल जाने की बुरी आदत है। इसी कमरे में मैंने आपसे जिक्र किया था और आपने हामी भरी थी। जब मैंने बेच दिया तो आप यह स्वांग खड़ा करती हैं। बँगला आज खाली करना होगा और आपको मेरे साथ चलना होगा।
'मैं अभी यहीं रहना चाहती हूँ।'
'मैं आपको यहाँ न रहने दूंगा।'
'मैं तुम्हारी लौंडी नहीं हूँ।'
'आपकी रक्षा का भार मेरे ऊपर है। अपने कुल की मर्यादा-रक्षा के लिए मैं आपको अपने साथ ले जाऊंगा।'
रतन ने ओठ चबाकर कहा——मैं अपने मर्यादा की रक्षा आप कर सकती हूँ। तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं। मेरी मर्जी के बगैर तुम यहाँ की कोई चीज़ नहीं बेच सकते।
'मणिभूषण ने वज्र-सा मारा——आपका इस घर पर और चाचाजी की सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं। वह मेरी सम्पत्ति है। आप मुझसे केवल गुजारे का सवाल कर सकती हैं।
रतन ने विस्मित होकर कहा——तुम कुछ भंग तो नहीं खा गये हो ?
मणिभूषण ने कठोर स्वर में कहा——मैं इतनी भंग नहीं खाता कि बे-सिर-पैर की बातें करने लगूँ। आप तो पढ़ी-लिखी हैं, एक बड़े वकील की धर्मपत्नी थीं। कानून की बहुत सी बातें जानती होंगी। सम्मिलित परिवार में विधवा को अपने पुरुष की सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता। चाचाजी
और मेरे पिताजी में कभी अलगौझा नहीं हुआ। चाचाजी यहाँ थे, हम लोग इन्दौर में थे; पर इससे यह नहीं सिद्ध होता, कि हममें अलगौझा था। अगर चाचा अपनी संपत्ति आपको देना चाहते, तो कोई वसीयत अवश्य लिख जाते, और यघपि वह वसीयत कानून के अनुसार कोई चीज़ न होती, पर हम उसका सम्मान करते। उनका कोई वसीयत न करना साबित कर रहा है कि वह कानून के साधारण व्यवहार में कोई बाधा न डालना चाहते थे। आज आप को बंगला खाली करना होगा। मोटर और अन्य वस्तुएँ भी नीलाम कर दी जायेंगी। आपकी इच्छा हो, मेरे साथ चलें या यहाँ रहें। यहाँ रहने के लिए आपको दस-ग्यारह रुपये का मकान काफ़ी होगा। गुजारे के लिए पचास रुपये महीने का प्रबन्ध मैंने कर दिया है। लेना-देना चुका लेने के बाद इससे ज्यादा की गुंजाइश ही नहीं।
रतन ने कोई जवाब न दिया। कुछ देर वह हतबुद्धि-सी बैठी रही, फिर मोटर मंगवायी और सारे दिन वकीलों के पास दौड़ती फिरी। पंडितजी के कितने ही वकील मित्र थे। सभी ने उसका वृत्तान्त सुनकर खेद प्रकट किया। और वकील साहब के वसीयत न लिख जाने पर हैरत करते रहे। अब उसके लिए एक ही उपाय था। वह यह सिद्ध करने की चेष्टा करे, कि वकील साहब और उनके भाई में अलहदगी हो गयी थी। अगर यह सिद्ध हो गया, और यह सिद्ध हो जाना बिल्कुल आसान था, तो रतन उस सम्पत्ति की स्वामिनी हो जायेगी। अगर वह यह सिद्ध न कर सकी, तो उसके लिए कोई चारा न था।
अभागिनी रतन लौट आयी ! उसने निश्चय किया, जो कुछ मेरा नहीं है, उसे लेने के लिए मैं झूठ का आश्रय न लूंगी। किसी तरह नहीं। मगर ऐसा कानून बनाया किसने ? क्या स्त्री इतनी नीच, इतनी तुच्छ, इतनी नगण्य है ? क्यों ?
दिन भर रतन चिन्ता में डूबी, मौन बैठी रही। इतने दिनों वह अपने को इस घर की स्वामिनी समझती रही। कितनी बड़ी भूल थी। पति के जीवन में जो लोग उसका मुंह ताकते थे, वे आज उसके भाग्य के विधाता हो गये। यह घोर अपमान रतन-जैसी मामिनी स्त्री के लिए असह्य था। माना, कमाई पंडितजी की थी, पर यह गाँव तो उसी ने खरीदा था, इनमें कई मकान तो उसके सामने ही बने। उसने यह एक क्षण के लिए भी न
खयाल किया था, कि एक दिन यह जायदाद मेरी जीविका का आधार होगी। इतनी भविष्यचिन्ता वह कर ही न सकती थी। उसे इस जायदाद के खरीदने में, उसके सँवारने और सजाने में वही आनन्द आता था, जो माता अपनी सन्तान को फलते-फूलते देखकर पाती है। उसमें स्वार्थ का भाव न था, केवल अपनेपन का गर्व था, वही ममता थी। पर पति की आँखें बन्द होते ही उसके पाले और गोद के खेलाये बालक भी उसकी गोद से छीन लिये गये। उसका उन पर कोई अधिकार ही नहीं। अगर वह जानती कि एक दिन यह कठिन समस्या आयेगी, तो वह चाहे रुपये लुटा देती या दान कर देती, पर सम्पत्ति की कील अपनी छाती पर न गाड़ती। पंडितजी की ऐसी कौन बहुत बड़ी आमदनी थी ! क्या गर्मियों में वह शिमले न जा सकती थी ? दो चार नौकर न रखे जा सकते थे? अगर वह गहने ही बनवाती, तो एक-एक मकान के मूल्य का एक-एक गहना बनवा सकती थी; पर उसने इन बातों को कभी उचित सीमा से आगे न बढ़ने दिया। केवल यही स्वप्न देखने के लिए? यही स्वप्न ? इसके सिवा और था ही क्या ? जो कल उसका था, उसकी ओर आज आँखें उठाकर वह अब देख भी नहीं सकती ? कितना महँगा था। वह स्वप्न ! हाँ, वह, अब अनाथिनी थी। कल तक दूसरों को भीख देती थी। आज उसे खुद भीख मांगनी पड़ेगी। और कोई आश्रय नहीं ! पहले भी वह अनाथिनी थी, केवल भ्रम-वश अपने को स्वामिनी समझ रही थी। अब उस भ्रम का सहारा भी नहीं रहा।
सहसा उसके विचारों ने पलटा खाया। मैं क्यों अपने को अनाथिनी समझ रही हूँ ? क्यों दूसरे के द्वार भीख माँगूं। संसार में लाखों ही स्त्रियाँ मेहनत-मजूरी करके जीवन-निर्वाह करती हैं। क्या मैं कोई काम नहीं कर सकती ? क्या मैं कपड़ा नहीं सी सकती, किसी चीज़ की छोटी-मोटी दूकान नहीं रख सकती ? लड़के भी पढ़ा सकती हूँ। यही न होगा, लोग हँसेंगे, मगर मुझे उस हँसी की क्या परवाह। वह मेरी हँसी नहीं है, अपने समाज की हँसी है।
शाम को द्वार पर कई ठेलेवाले आ गये। मणिभूषण ने आकर कहा——चाचीजी आप जो-जो चीजें कहें लदवाकर भेजवा हूँ। मैंने एक मकान ठीक कर लिया है।
रतन ने कहा——मुझे किसी चीज की ज़रूरत नहीं। न तुम मेरे लिए मकान लो। जिस चीज पर मेरा कोई अधिकार नहीं, मैं हाथ से भी नहीं छू सकती। मैं अपने घर से कुछ लेकर नहीं आयी थी। उसी तरह लौट जाऊँगी।
मणिभूषण ने लज्जित होकर कहा——आपका सब कुछ है। यह आप कैसे कहती हैं, कि आपका कोई अधिकार नहीं। आप वह मकान देख लें। पन्द्रह रुपया किराया है। मैं तो समझता हूँ आपको कोई कष्ट न होगा। जो-जो चीजें आप कहें यहाँ से पहुंचा दूँ।
रतन ने व्यंगमय आँखों से देखकर कहा——'तुमने पन्द्रह रुपये का मकान मेरे लिए व्यर्थ लिया। इतना बड़ा मकान लेकर मैं क्या करूँगी। मेरे लिए एक कोठरी काफ़ी है, जो दो रुपये में मिल जायगी। सोने के लिये ज़मीन है ही। दया का बोझ सिर पर जितना कम हो उतना ही अच्छा।
मणिभूषण ने बड़े विनम्र भाव से कहा—— आखिर आप चाहती क्या हैं ? कहिए तो!
रतन उत्तेजित होकर बोली—— मैं कुछ नहीं चाहती। मैं इस घर का एक तिनका भी अपने साथ न ले जाऊँगी। जिस चीज पर मेरा कोई अधिकार नहीं, वह मेरे लिए वैसे ही है जैसे किसी गैर आदमी की चीज। मैं दया की भिखारिनी न बनूंगी। तुम इन चीजों के अधिकारी हो, ले जाओ। मैं ज़रा भी बुरा नहीं मानती। दया की चीज न जबरदस्ती ली जा सकती है, न जबरदस्ती दी जा सकती है। संसार में हजारों विधवाएं हैं, जो मेहनत मजदूरी करके अपना निर्वाह कर रही हैं। मैं भी वैसी ही हूँ। मैं भी उसी तरह, मजूरी करूँगी और अगर न कर सकूँगी, तो किसी गड्ढे में डूब मरूँगी। जो अपना पेट भी न पाल सके उसे जीते रहने का, दूसरों का बोझ बनने का कोई हक नहीं है।
यह कहती हुई रतन घर से निकली और द्वार की ओर चली। मणिभूषण ने उसका रास्ता रोक कर कहा——अगर आपकी इच्छा न हो तो मैं बँगला अभी न बेचूं।
रतन ने जलती हुई आँखों से उसकी ओर देखा ! उसका चेहरा तमतमाया हुआ था, आँसुओं के उमड़ते हुए वेग को रोककर बोली——मैंने कह दिया, इस घर की चीज से मेरा नाता नहीं है। मैं किराये की लौंडी थी। लौंडी का