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ग़बन/भाग 13

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ग़बन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ २७१ से – २९२ तक

 


घर से क्या सम्बन्ध है ? न जाने किस पापी ने यह कानून बनाया था। अगर ईश्वर कहीं है और उसके यहाँ कोई न्याय होता है तो एक दिन उसी के सामने उस पापी से पूछेगी, क्या तेरे घर में मां-बहने न थीं ? तुझे उनका अपमान करते लज्जा न आयी ? अगर मेरी जुबान में इतनी ताक़त होती कि सारे देश में उसकी आवाज पहुँचती, तो मैं सब स्त्रियों से कहती——बहनों, किसी सम्मिलित परिवार में विवाह मत करना और अगर करना, तो जब तक अपना घर अजन न बना लो, चैन की नींद मत सोना। यह मत समझो कि तुम्हारे पति के पीछे उस घर में तुम्हारा मान के साथ पालन होगा। अगर तुम्हारे पुरुष ने कोई तरीका नहीं छोड़ा, तो तुम अकेली रहो, चाहे परिवार में, एक ही बात है। तुम अपमान और मजूरी से नहीं बच सकतीं। अगर तुम्हारे पुरुष ने कुछ छोड़ा है, तो अकेली रहकर भोग सकती हो, परिवार में रहकर तुम्हें उससे हाथ धोना पड़ेगा। परिवार तुम्हारे लिए फूलों की सेज नहीं, काँटों की शय्या है; तुम्हारा पार लगाने वाली नौका नहीं, तुम्हें निगल जाने वाला जन्तु है।

संध्या हो गयी थी। गर्द भरी हुई फागुन को वायु चलनेवालों की आंखों में धूल झोंक रही थी। रतन चादर सँभालती सड़क पर चली जा रही थी। रास्ते में कई परिनित स्त्रियों ने उसे टोका, कई ने अपनी मोटर रोक ली और उसे बैठने को कहा; पर रतन को उनकी सहृदयता इस समय चारण-सी लग रही थी। वह तेजी से कदम उठाती हुई जालपा के घर चली आ रही थी। आज उसका वास्तविक जीवन प्रारम्भ हुआ।

४२

ठीक दस बजे जालपा और देवीदीन कचहरी पहुँच गये। दर्शकों की काफ़ी भीड़ थी। ऊपर गैलरी दर्शकों से भरी हुई थी। कितने ही आदमी बरामदों में और सामने के मैदान में खड़े थे। जालपा ऊपर गैलरी में जा बैठी। देवीदीन बरामदे में खड़ा हो गया।

इजलास पर जज साहब के एक तरफ़ अहलमद था और दूसरी तरफ़ पुलिस के कई कर्मचारी खड़े थे। सामने कठघरे के बाहर दोनों तरफ़ के बकौल खड़े मुकदमा पेश होने का इन्तजार कर रहे थे। मुलजिमों की संख्या पन्द्रह से कम न थी। सब कठघरे के बगल में जमीन पर बैठे हुए थे। सभी के

                                     
हाथों में हथकड़ियाँ थी, पैरों में बेड़ियां। कोई लेटा था, कोई बैठा, था, कोई आपस में बातें कर रहा था। दो पंजे लड़ा रहे थे। दो में किसी विषय पर बहस हो रही थी। सभी प्रसन्न-चित्त थे। घबराहट, निराशा, या शोक का किसी के चेहरे पर चिह्न न था।

ग्यारह बजते-बजते अभियोगी की पेशी हुई। पहले जाब्ते की कुछ बात हुई, फिर दो-एक पुलिस की शहादतें हुई। अन्त में तीन बजे रमानाथ गवाहों को कठघरे में लाया गया। दर्शकों में सनसनी-सी फैल गयी। कोई तन्वाली की दूकान से पान खाता हुआ भागा, किसी ने समाचार-पत्र को मरोड़कर जेब में रखा और सब इजलास के कमरे में जमा हो गये। जालपा भी संभलकर बार्जे में खड़ी हो गयी। वह चाहती थी कि एक बार रमा की आँखें उठ जाती और उसे देख लेती, लेकिन रमा सिर झुकाये खड़ा था, मानों वह इधर-उधर देखते डर रहा हो। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था ! कुछ सहमा हुआ, कुछ घबराया हुआ इस तरह खड़ा था, मानो उसे किसी ने बांध रखा है और भागने की कोई राह नहीं है। जालपा का कलेजा धक-धक् कर रहा था, मानों उसके भाग्य का निर्णय हो रहा हो।

रमा का बयान शुरू हुआ। पहला ही वाक्य सुनकर जालपा सिहर उठी', दूसरे वाक्य ने उसकी त्योरियों पर बल डाल दिये, तीसरे वाक्य ने उसके चेहरे का रंग फ़क कर दिया, और चौथा वाक्य सुनते ही वह एक लम्बी साँस खींचकर पीछे रखी हुई कुरसी पर टिक गयी; मगर दिल फिर न माना। जंगले पर झुककर फिर उधर कान लगा दिये। वही पुलिस को सिखायी हुई शहादत थी जिसका आशय वह देवीदीन के मुँह से सुन चुकी थी। अदालत में सन्नाटा छाया हुआ था। जालपा ने कई बार खाँसा, कि शायद अब भी रमा को आँखे ऊपर उठ जायें; लेकिन रमा का सिर और भी झुक गया। मालूम नहीं, उसने जालपा के खांसने की आवाज पहचान ली या आत्मग्लानि का भाव उदय हो गया। उसका स्वर भी कुछ धीमा हो गया।

एक महिला ने जो जालपा के साथ ही बैठी थीं, नाक सिकोड़कर कहा——जी चाहता है, इस दुष्ट को गोली मार दें। ऐसे-ऐसे स्वार्थी भी इस अभागे देश में पड़े हैं, जो नौकरी या थोडे-से धन के लोभ में निरपराधों के गले पर छुरी फेरने से भी नहीं हिचकते ! जालपा ने कोई जवाब न दिया !

एक दूसरी महिला ने जो आँखों पर ऐनक लगाये हुए थीं, निराशा के भाव से कहा——इस अभागे देश का ईश्वर ही मालिक है। गवर्नरी तो लाला को कहीं मिली नहीं जाती ! अधिक-से-अधिक कहीं क्लर्क हो जायेंगे। उसी के लिए अपनी आत्मा की हत्या कर रहे हैं। मालूम होता है, कोई मरभुखा नीच आदमी है, पल्ले सिरे से कमोना और छिछोरा।

तीसरी महिला ने ऐनकवाली देवी से मुसकराकर पूछा——आदमी फैशनेबुल हैं और पढ़ा-लिखा भी मालूम होता है। भला, तुम इसे पा जाओ तो क्या करो।

ऐनकबाज देवी ने उद्दण्डता से कहा——नाक काट लूं ! बस, नकटा बनाकर छोड़ दूँ !

'और जानती हो, मैं क्या करूँ ?'

'नहीं। शायद गोली मार दोगी?'

न ! गोली न मारूं। सरे बाजार खड़ा करके पांच सौ जूते लगवाऊँ!'

'चाँद गंजी हो जाय !'

उस पर तुम्हें जरा भी दया न आयेगी?'

'यह कुछ कम दया है ? इसकी पूरी सज्ञा तो यह है, कि किसी ऊंची पहाड़ी से ढकेल दिया जाय ! अगर यह महाशय अमेरिका में होते, तो जिन्दा जला दिये जाते।

एक वृद्धा ने इन युवतियों का तिरस्कार करके कहा—— क्यों व्यर्थ में मुँँह खराब करती हो ? यह आदमी घृणा के योग्य नहीं, दया के योग्य है। देखती नहीं हो, उसका चेहरा कैसा पीला हो गया है, जैसे कोई उसका गला दबाये हुए हो। अपनी मां या बहन को देख ले. तो जरूर रो पड़े। आदमी दिल का बुरा नहीं है। पुलिस ने धमकाकर उसे सीधा किया है। मालूम होता है, एक-एक शब्द उसके हृदय को चीर-चीर कर निकल रहा हो।

ऐनकवाली महिला ने व्यंग्य किया—जब अपने पांव में काँटा चुभता है, तब आह निकलती है....

जालपा अब वहाँ न ठहर सकी। एक-एक बात चिनगारी की तरह उसके दिल पर फफोले डाल देती थी। ऐसा जी चाहता था कि इसी वक्त उठकर कह

                                          दे, यह महाशय बिल्कुल झूठ बोल रहे हैं, सरासर झूठ; और इसी वक्त इसका सबूत दे दे। वह इस आवेश को पूरे बल से दबाये हुए थी। उसका मन अपनी कायरता पर उसे धिक्कार रहा था। क्यों वह इसी वक्त सारा वृत्तान्त नहीं कह सुनाती ? पुलिस उसकी दुश्मन हो जायगी, हो जाय। कुछ तो अदालत को खयाल होगा। कौन जाने, इन गरीबों की जान बच जाय। जनता को तो मालूम हो जायगा कि यह झूठी शहादत है। उसके मुंह से एक बार आवाज निकलते-निकलते रह गयी। परिणाम के भय ने उसकी जु़बान पकड़ ली।

आखिर उसने वहाँ से उठकर चले जाने ही में कुशल समझी।

देवीदीन उसे उतरते देखकर बरामदे में चला आया और दया से सने हुए स्वर में बोला——क्या घर चलती हो बहूजी ?

जालपा ने आंसुओं के वेग को रोक कर कहा—— हाँ, यहाँ अब नहीं बैठा जाता।

हाते के बाहर निकलकर देवीदीन ने जालपा को सान्त्वना देने के इरादे से कहा——पुलिस ने जिसे एक बार बूटी सुंघा दी, उस पर किसी दूसरी चीज़ का असर नहीं हो सकता।

जालपा ने घृणा के भाव से कहा——यह सब कायरों के लिए है।

कुछ दूर दोनों चुपचाप चलते रहे। सहसा जालपा ने कहा——क्यों दादा, अब और तो कहीं अपील न होगी ! कैदियों का यहीं फैसला हो जायगा ?

देवीदीन इस प्रश्न का आशय समझ गया। बोला——नहीं, हाईकोर्ट में अपील हो सकती है।

फिर कुछ दूर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। जालपा एक वृक्ष की छाँह में खड़ी हो गयी और बोली——दादा, मेरा जी चाहता है, आज जज साहब से मिलकर सारा हाल कह दूँ! शुरू से जो कुछ हुआ सब कह सुनाऊँ। मैं सबूतः दे दूंगी, तब तो मानेंगे ?

देवीदीन ने आँख फाड़कर कहा——जज साहब से !

जालपा ने उसकी आँखों से आँखें मिलाकर कहा——हाँ !

देवीदीन ने दुविधे में पड़कर कहा——मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता बहूजी। हाकिम का वास्ता। न जाने चित पड़े या पट।                                   जालपा बोली——क्या वह पुलिसवालों से यह नहीं कह सकता कि तुम्हारा गवाह बनाया हुआ है, झूठा है ?

'कह तो सकता है।'

'तो आज मैं उनसे मिलूँ ? मिल को लेता है ? '

'चलो, दरिवाफ्त करेंगे, लेकिन मामला जोखिम है।'

'क्या जोखिम है बताओ !'

भैंया पर कहीं झूठी गवाही का इलज़ाम लगाकर सजा कर दे तो? 'तो कुछ नहीं। जो जैसा करे, वैसा भोगे।'

देवीदीन ने जालपा को इस निर्ममता पर चकित होकर कहा——एक दूसरा खटका है। सबसे बड़ा डर उसी का है।

जालपा ने उद्धत भाव से पूछा——वह क्या?

देवी——पुलिसवाले बड़े कायर होते हैं। किसी का अपमान कर डालना तो इनको दिल्लगी है। जज साहब पुलिस कमिसनर को बुलाकर यह सब कहेंगे जरूर। कमिसनर सोचेंगे कि यह औरत सारा खेल बिगाड़ रही है। इसी को गिरफ्तार कर लो। जज अँगरेज होता तो निडर होकर पुलिस को तंबीह करता। हमारे भाई तो ऐसे मुकदमों में यूँ करते डरते हैं, कि कहीं हमारे ही ऊपर न बगावत का इलजाम आ जाय। यही बात है। जज साहब पुलिस कमिसनर से जरूर कह सुनावेंगे। फिर यह तो न होगा कि मुकदमा उठा लिया जाय, यही होगा कि कलई न खुलने पाये। कौन जाने तुम्ही को गिरफ्तार कर लें ? कभी-कभी जब गवाह बदलने लगता है या कलई खोलने पर उतारू हो जाता है, पुलिसवाले उसके घरवालों को दबाते हैं। इनकी माया अपरम्पार है।

जालपा सहम उठी। अपनी गिरफ़्तारी का उसे भय न था, लेकिन कहीं पुलिसवाले रमा पर अत्याचार न करें। इस भय ने उसे कातर कर दिया। उसे इस समय ऐसी थकान मालूम हुई, मानों सैकड़ों कोस की मंजिल मार- कर आयी हो। उसका उत्साह बर्फ के समान पिघल गया।

कुछ दूर और आगे चलने के बाद उसने देवीदीन से पूछा——अब तो उनसे मुलाकात न हो सकेगी?

देवीदीन ने पूछा——भैया से ? हैं।'

'किसी तरह नहीं। पहरा और कड़ा कर दिया गया होगा। चाहे उस बंँगले को छोड़ दिया हो। और अब उनमें मुलाकात हो ही गयी तो क्या फायदा? अब किसी तरह अपना बयान नहीं बदल सकते। दरोग-हलफी में फँस जायँगें।

कुछ दूर और चलकर जालपा ने कहा——मैं सोचती हूँ, घर आऊँ। यहाँ रहकर अब क्या करूँगी ?

देवीदीन ने करुणा भरी हुई आँखों से उसे देखकर कहा——नहीं, अब अभी मैं न जाने दूँँगा। तुम्हारे बिना हमारा यहाँ पल——भर जी न लगेगा। बुढ़िया तो रो-रोकर परान ही दे देगी। अभी यहाँ रहो, देखो क्या फैसला होता है। भैया को मैं इतना कच्चे दिल का आदमी नहीं समझता था। तुम लोगों की बिरादरी में सभी सरकारी नौकरी पर जान देते हैं। मुझे तो कोई सौ रुपया भी तलब दे, तो नौकरी न करूंँ। अपने रोजगार की बात दूसरी ही है। इसमें आदमी कभी थकता नहीं। नौकरी में जहाँ पाँच छ: घण्टे हुए कि देह टूटने लगी, जम्हाइयाँ आने लगी।

रास्ते में और कोई बातचीत न हुई। जालपा का मन अपनी हार मानने के लिये किसी तरह राजी न होता था। वह परास्त होकर भी दर्शक की भाँति यह अभिनय देखने से संतुष्ट न हो सकती थी। वह उस अभिनय में सम्मिलित होने और अपना पार्ट खेलने के लिए विकल हो रही थी। क्या एक बार फिर रमा से मुलाकात न होगी ? उसके हृदय में उन जलते हुए शब्दों का एक सागर उमड़ रहा था, जो वह उससे कहना चाहती थी ! उसे रमा पर जरा भी दया न आती थी, उससे रत्ती भर सहानुभूति न होती थी। वह उससे कहना चाहती थी——तुम्हारा धन और वैभव तुम्हें मुबारक हो, जालपा उसे पैरों से ठुकराती है। तुम्हारे खून से रंगे हुए हाथों के स्पर्श से मेरी देह में छाले पड़े जायेंगे ! जिसने धन और पद के लिए अपनी आत्मा बेच दी, उसे मैं मनुष्य नहीं समझती। तुम मनुष्य नहीं हो, तुम पशु भी नहीं, तुम कायर हो ! कायर!

जालपा का मुखमण्डल तेजमय हो गया। गर्व से उसकी गर्दन तन गयी। वह शायद समझते होंगे, जालपा जिस वक्त मुझे झब्बेदार पगड़ी बाँधे 
                                     
घोड़े पर सवार देखेगी, फूली न समायेगी। जालपा इतनी नीच नहीं है। तुम घोड़े पर नहीं, आसमान में उड़ो, मेरी आँखों में हत्यारे हो, पूरे हत्यारे, जिसने अपनी जान बचाने के लिए इतने आदमियों की गर्दन पर छुरी चलाई। मैंने चलते-चलते समझाया था, उसका कुछ असर न हुआ ? ओह ! इतने धन-लोलुप हो, इतने लोभी ! कोई हरज नहीं। जालपा अपने पालन और रक्षा के लिए तुम्हारी मुहताज नहीं। इन्हीं सन्तप्त भावनाओं में डूबी हुई जालपा घर पहुंची।

एक महीना गुज़र गया। जालपा कई दिन तक बहुत विकल रही। कई बार उन्माद-सा हुआ कि अभी सारी कथा किसी पत्र में छपवा दूँ, सारी कलई खोल दूंँ, सारे हवाई किले ढा दूँ। धीरे-धीरे यह सभी उद्वेग शान्त हो गये। आत्मा की गहराइयों में छिपी हुई शक्ति उसकी जुबान बन्द कर देती थी। रमा को उसने हृदय से निकाल दिया था। उसके प्रति अब उसे क्रोध न था, द्वेष न थी, दया भी न थी, केवल उदासीनता थी। उसके मर जाने की सूचना पाकर भी शायद वह न रोती। हाँ, इसे ईश्वरीय विधान की एक लीला, माया का एक निर्मम हास्य, एक क्रूर क्रीड़ा समझकर थोड़ी देर के लिए वह दुःखी हो जाती। प्रणय का वह बंधन जो उसके गले में ढाई साल पहले पड़ा था, टूट चुका था; पर उसका निशान बाकी था। रमा को इस बीच में उसने कई बार मोटर पर अपने घर के सामने से जाते देखा। उसकी आँखे किसी को खोजती हुई मालूम होती थीं। उन आँखों में कुछ लज्जा थी, कुछ क्षमा याचना; पर जालपा ने कभी उसकी तरफ आँख न उठायी। वह शायद इस वक्त आकर उसके पैरों पर गिर पड़ता, तो भी वह उसकी ओर न ताकती। रमा को इस घृणित कायरता और महान् स्वार्थपरता ने जालपा के हृदय को मानो चीर डाला था। फिर भी उस प्रणय-बन्धन का निशान अभी बना हुआ था। रमा की वह प्रेम-विह्वल मूर्ति, जिसे देखकर एक दिन वह गद्गद हो जाती थी, कभी-कभी उसके हृदय में छाये हुए अँधेरे में दोण, मलीन, निरानन्द ज्योत्स्ना की भांति प्रवेश करती और एक क्षण के लिए वह स्मृतियाँ विलाप कर उठतीं। फिर उसी अन्धकार और नीरवता का पर्दा पड़ जाता। उसके लिए भविष्य की मृदु स्मृतियाँ न थीं केवल कठोर नीरस वर्तमान विकराल रूप से खड़ा घूर रहा था।
वह जालपा, जो अपने घर बात-बात पर मना किया करती थी, अब सेवा, त्याग और सहिष्णुता की मूर्ति थी। जग्गो मना करती, पर वह मुंह अँधेरे सारे घर में झाड़ू लगा आती, चौका-बरतन कर डालती, आँटा गूँध कर रख देती', चूल्हा जला देती। तब बुढ़िया का काम केवल रोटियां सेंकना था। छूत-विचार को भी उसने ताक पर रख दिया था। बुढ़िया उसे ठेल-ठालकर रसोई में ले जाती और कुछ-न-कुछ खिला देती। दोनों में माँ-बेटी का-सा प्रेम हो गया था।

मुक़दमे की सब कार्रवाई समाप्त हो चुकी थी। दोनों पक्ष के वकीलों की बहस हो चुकी थी। केवल फैसला सुनाना बाकी था। आज उसकी तारीख थी। आज बड़े सवेरे घर के काम-धन्धों से फुर्सत पाकर जालपा दैनिक-पत्र वाले की आवाज़ पर कान लगाये बैठी थी, मानो आज उसी का भाग्य-निर्णय होने वाला है। इतने में देवीदीन ने पत्र लाकर उसके सामने रख दिया। जालपा पत्र पर टूट पड़ी और फैसला पढ़ने लगी। फैसला क्या था, एक खयाली कहानी थी, जिसका प्रधान नायक रमा था। जज ने बार-बार उसकी प्रशंसा की थी। सारा अभियोग उसके बयान पर अवलम्बित था।


देवीदीन ने पूछा -- फैसला छपा है?

जालपा ने पत्र पढ़ते हुए कहा -- हाँ, है तो।

'किसकी सजा हुई?'

'कोई नहीं छूटा। एक को फाँसी की सजा मिली, पांच को दस-दस साल और आठ को पाँच-पाँच साल की। उसी दिनेश को फाँसी हुई।'

यह कहकर उसने समाचार-पत्र रख दिया और एक लम्बी साँस लेकर बोली -- इन बेचारों के बाल-बच्चों का न जाने क्या हाल होगा?

देवीदीन ने तत्परता से कहा -- तुमने जिस दिन मुझसे कहा था, उसी दिन से मैं इन सबों का पता लगा रहा हूँ। आठ आदमियोंका तो अभी तक ब्याह ही नहीं हुआ, और उनके घरवाले मजे में हैं। किसी बात की तकलीफ नहीं है। पाँच आदमियों का विवाह तो हो गया है; पर घर के लोग खुश हैं। किसी के घर रोज़गार होता है, कोई जमींदार है, किसी के बाप-चाचा नौकर है। मैंने कई आदमियों से पूछा। यहाँ कुछ चन्दा भी किया गया है। अगर उनके घरवाले लेना चाहें तो दिया जायगा। खाली दिनेश तबाह है। दो

                                                                                   
छोटे-छोटे बच्चे हैं, बुढ़िया मां है, और औरत। यहाँ किसी स्कूल में मास्टर था। एक मकान किराये पर लेकर रहता था। उसी की खराबी है।

जालपा ने पूछा -- उसके घर का पता लगा सकते हो?

'हाँ, इसका पता लगाना कौन मुशकिल है।'

जालपा ने याचना-भाव से कहा -- तो कब चलोगे ? मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी। अभी तो वक्त है। चलो, जरा देखें।

देवीदीन ने आपत्ति करके कहा -- पहले मैं देख तो आऊँ। इस तरह उटक्करलैस मेरे साथ कहाँ-कहाँ दौड़ती फिरोगी ?

जालपा ने मन को दबाकर लाचारी से सिर झुका लिया और कुछ न बोली।

देवीदीन चला गया। जालपा फिर समाचार-पत्र देखने लगी; पर उसका ध्यान दिनेश की ओर लगा हुआ था। बेचारा फाँसी पा जायगा। जिस वक्त उसने फाँसी का हुक्म सुना होगा, उसकी क्या दशा हुई होगी। उसकी बूढ़ी माँ और स्त्री यह खबर सुनकर छाती पीटने लगी होंगी। बेचारा स्कूल मास्टर ही तो था, मुश्किल से रोटियाँ चलती होंगी। और क्या सहारा होगा? उनकी विपत्ति की कल्पना करके उसे रमा के प्रति ऐसी उतेजनापूर्ण घृणा हुई कि वह उदासीन न रह सकी। उसके मन में ऐसा उद्वेग उठा कि इस वक्त वह आ जाये तो धिक्कारूँ; कि वह भी शायद याद करें। तुम मनुष्य हो ? कभी नहीं। तुम मनुष्य के रूप में राक्षस हो, राक्षस ! तुम इतने नीच हो, कि उसको प्रगट करने के लिए कोई शब्द नहीं है। तुम इतने नीच हो, कि आज कमीने-से-कमीना आदमी भी तुम्हारे ऊपर थूक रहा है। तुम्हें किसी ने पहले ही क्यों न मार डाला ? इन आदमियों की जान तो जाती ही; पर तुम्हारे मुंह में कालिख न लगती ! तुम्हारा इतना पतन हुआ कैसे ! जिसका पिता इतना सच्चा, इतना ईमानदार हो, वह इतना लोभी, इतना कायर !

शाम हो गयी पर देवीदीन न आया। जालपा बार-बार खिड़की पर खड़े हो-होकर इधर-उधर देखती थी; पर देवीदीन का पता न था। धीरे-धीरे आठ बज गये और देवी न लौटा। सहसा एक मोटर द्वार पर आकर रुकी और रमा ने उतरकर जग्गो से पूछा -- सब कुशल-मंगल है न, दादी! दादा कहाँ गये हैं ?
                                   
जग्गो ने एक बार उसकी ओर देखा और मुँह फेर लिया। केवल इतना बोली -- कहीं गये होंगे, मैं नहीं जानती।

रमा ने सोने की चार चूड़ियाँ जेब से निकालकर जग्गो के पैरों पर रख दीं और बोला -- यह तुम्हारे लिए लाया हूँ दादी। पहनों, ढीली तो नहीं है ?

जग्गो ने चूड़ियाँ उठाकर ज़मीन पर पटक दीं और आँखें निकालकर बोली -- जहाँ इतना पाप समा सकता है, वहाँ चार चूड़ियों की जगह नहीं है ? भगवान् की दया से बहुत चूड़ियाँ पहन चुकी और अब भी सेर-दो-सेर सोना पड़ा होगा; लेकिन जो खाया, पहना, अपनी मिहनत की कमाई से, किसी का गला नहीं दबाया, पाप की गठरी सिर पर नहीं लादी, नीयत नहीं बिगाड़ी। उस कोख में आग लगे जिसने तुम जैसे कपूत को जन्म दिया। यह पाप की कमाई लेकर तुम बहू को देने आये होगे। समझते होगे, तुम्हारे रुपयों की थैली देखकर वह लट्टू हो जायेगी। इतने दिन उसके साथ रहकर भी तुम्हारी लोभी आँखें उसे न पहचान सकीं। तुम जैसे राकस उस देवो के जोग न थे। अगर अपना कुशल चाहते हो, तो इन्हीं पैरों जहाँ से आये हो वहाँ लौट जाओ, उसके सामने जाकर क्यों अपना पानी उतरवाओगे। तुम आज पुलिस के हाथों जख्मी होकर, मार खाकर आये होते, तुम्हें सजा हो गयी होती, तुम जेहल में डाल दिये गये होते, तो बहू तुम्हारी पूजा करती, तुम्हारे चरण धो-धोकर पीती। वह उन औरतों में है चाहे मजूरी करे, उपास करे,, फटे चीथड़े पहनें, पर किसी की बुराई नहीं देख सकती। अगर तुम मेरे लड़के होते तो, तुम्हें ज़हर दे देती। क्यों खड़े मुझे जला रहे हो? चले क्यों नहीं जाते ? मैंने तुमसे कुछ ले तो नहीं लिया है?

रमा सिर झुकाये चुपचाप सुनता रहा। तब आहत स्वर में बोला -- दादी, मैंने बुराई की और इसके लिए मरते दम तक लज्जित रहूँँगा। लेकिन तुम मुझे जितना नीच समझ रही हो, उतना नीच नहीं हूँ। अगर तुम्हें मालूम होता, कि पुलिस ने मेरे साथ कैसी-कैसी सख्तियां की, मुझे कैसी-कैसी धमकियां दी, तो तुम मुझे राक्षस न कहतीं।

जालपा के कानों में इन आवाज़ों की भनक पड़ी। उसने जीने से झाँँककर देखा। रमानाथ खड़ा था। सिर पर बनारसी रेशमी साफा था, रेशम का बढ़िया कोट, आँँखों पर सुनहरी ऐनक। इस एक ही महीने में उसकी
                                   
देह निखर आयी थी, रंग भी कुछ अधिक गोरा हो गया था। ऐसी कांति उसके चेहरे पर कभी न दिखायी दी थी। उसके अंतिम शब्द जालपा के कानों में पड़ गये। बाज़ की तरह कूदकर धम्-धम् करती हुई नीचे आयी और जहर में बुझे हुए नेत्रवाणों का उस पर प्रहार करती हुई बोली -- अगर तुम सख्तियों और धमकियों से इतना दब सकते हो, तो तुम कायर, हो। तुम्हें अपने को मनुष्य कहने का कोई अधिकार नहीं ! क्या सख्तियां थीं ? जरा सुनूँ तो ? लोगों ने हँसते-हँसते सिर कटा लिये हैं, अपने बेटों को मरते देखा है, कोल्हू में पेले जाना मंजूर किया है, पर सचाई से जी भर भी न हटे। तुम भी तो आदमी हो, तुम क्यों धमकी में आ गये ? क्यों नहीं छाती खोलकर खड़े हो गये, कि इसे गोली का निशाना बना लो; पर मैं झूठ न बोलूंँगा। क्यों नहीं सिर झुका दिया ? देह के भीतर इसीलिये आत्मा रखी गयी है, कि देह उसकी रक्षा करे। इसलिए नहीं कि उसका सर्वनाश कर दे। इस पाप का क्या पुरस्कार मिला ? जरा मालूम तो हो?

रमा ने दबी आवाज़ से कहा -- अभी तो कुछ नहीं।

जालपा ने सर्पिणी की भांति फुकारकर कहा -- यह सुनकर मुझे खुशी हुई। ईश्वर करे, तुम्हें मुंह में कालिख लगाकर भी कुछ न मिले। मेरी यह सच्चे दिल से प्रार्थना है। लेकिन नहीं, तुम जैसे मोम के पुतले को पुलिसवाले कभी नाराज न करेंगे। तुम्हें कोई जगह मिलेगी और शायद अच्छी जगह मिले; मगर जिस जाल में तुम फंसे हो, उससे निकल नहीं सकते। झूठी गवाही, झूठे मुक़दमे बनाना और पाप का व्यापार करना तुम्हारे भाग्य में लिख गया। जाओ शौक से जिन्दगी के सुख लूटो। मैंने तुमसे पहले कह दिया था और आज फिर कहती हूँ, कि मेरा तुमसे कोई नाता नहीं। मैंने समझ लिया, कि तुम मर गये। तुम भी समझ लो, कि मैं मर गयी। बस, जाओ। मैं औरत हूँ। मगर कोई धमकाकर मुझसे पाप कराना चाहे, तो चाहे उसे न मार सकूँ, अपनी गर्दन पर छुरी चला दूंँगी। क्या तुममें औरत के बराबर भी हिम्मत नहीं है?

रमा ने भिक्षकों की भांति गिड़गिड़ाकर कहा -- तुम मेरा कोई उज्र न सुनोगी?

जालपा ने अभिमान से कहा -- नहीं।                                  
'तो मैं मुंह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊँ ?'

'तुम्हारी खुशी !'

'तुम मुझे क्षमा न करोगी? 'कभी नहीं, किसी तरह नहीं ?

रमा एक क्षण सिर झुकाये खड़ा रहा, तब धीरे-धीरे बरामदे के नीचे जाकर जग्गो से बोला——दादी, दादा आयें तो कह देना, मुझसे जरा देर मिल लें। जहां कहें, आ जाऊँ।

जग्गो ने कुछ पिघलकर कहा——कल यहीं चले आना।

रमा ने मोटर पर बैठते हुए कहा——यहां अब न आऊँगा, दादी !

मोटर चली गयी, तो जालपा ने कुत्सित भाव से कहा-मोटर दिखाने आये थे, जैसे खरीद ही तो लाये हों !

जग्गो ने भर्त्सना की——तुम्हें इतना बे-लगाम न होना चाहिए था, बहू ! दिल पर चोट लगती है; तो आदमी को कुछ नहीं सूझता

जालपा ने निष्ठुरता से कहा——ऐसे हयादार नहीं है। दादी ! इसी सुख के लिए तो आत्मा बेची। उनसे यह सुख भला क्या छोड़ा जायेगा? पूछा नहीं; दादा से मिलकर क्या करोगे ? वह होते तो ऐसी फटकार सुनाते कि छठी का दूध याद आ जाता !

जग्गो ने तिरस्कार के भाव से कहा—— तुम्हारी जगह मैं होती बहू; तो मेरे मुंह से ऐसी बातें न निकलती। तुम्हारा हिया बड़ा कठोर है। दूसरा मर्द होता तो इस तरह चुपके-चुपके न सुनता ? मैं तो थर-थर काँप रही थी कि कहीं तुम्हारे ऊपर हाथ न चला दें। मगर है बड़ा गमखोर !

जालपा ने उसी निष्ठुरता से कहा——इसे गमखोरी नहीं कहते दादी; यह बेह्याई है।

देवीदीन ने आकर कहा-क्या यहां भैया आये थे ? मुझे मोटर पर रास्ते में दिखायी दिये थे।

जग्गो ने कहा——हाँ; आये थे; कह गये हैं। दादा मुझसे जरा मिल लें।

देवीदीन ने उदासीन होकर कहा--मिल लूंगा। यहां कोई बातचीत हुई?
जग्गो ने पछताते हुए कहा-बातचीत क्या हुई, पहले मैंने पूजा की और मैं चुप हुई तो बहू ने अच्छी तरह फूल-माला चढ़ाई।

जालपा ने सिर नीचा करके कहा——आदमी जैसा करेगा, वैसा भरेगा।

जग्गो——अपना ही समझकर तो मिलने आये थे।

जालपा——कोई बुलाने तो न गया था। कुछ दिनेश का पता लगा दादा ?।

देवी——हां, सब पूछ आया ! हबड़े में घर है, पता-ठिकाना सब मालूम हो गया।

जालपा——ने डरते-डरते कहा-इस वक्त चलोगे या कल किसी वक्त ?

देवी०——तुम्हारी जैसी मरजी। जी चाहे इसी वक्त चलो, मैं तैयार हूँ।

जालपा——थक गये होगे?

देवी०——इन कामों में थकान नहीं होती बेटी!

आठ बज गये थे। सड़क पर मोटरों का तांता बंधा हुआ था। सड़क की दोनों पटरियों पर हजारों स्त्री-पुरुष बने-ठने हँसते-बोलते चले जाते थे। जालपा ने सोचा, दुनिया कैसी अपने राग-रंग में मस्त है। जिसे उसके लिए मरना हो मरे, वह अपनी टेक न छोड़ेगी। हर एक अपना छोटा-सा मिट्ठी का घरौंदा बनाये बैठा है। देश बह जाय, उसे परवाह नहीं। उसका घरौंदा बचा रहे। उसके स्वार्ध में बाधा न पड़े। उसका भोला-भाला हृदय बाजार को बन्द देखकर खुश होता। काश ! सभी आदमी शोक से सिर झुकाये, त्योंरियां बदले, उन्मत्त-से नजर आते। सभी के चेहरे भीतर की जलन से लाल होते। वह न जानती थी, कि इस जन-सागर में ऐसी छोटी-छोटी कंकड़ियों के गिरने से एक हल्कोरा भी नहीं उठता, आवाज तक नहीं आती।

४३

रमा मोटर पर चला तो उसे कुछ सूझता न था। कुछ समझ में न आता था, कहाँ जा रहा है। जाने हुए रास्ते उसके लिए अनजान हो गये थे। उसे जालपा पर क्रोध न था, जरा भी नहीं। जग्गो पर भी क्रोध न था। क्रोध था अपनी दुर्बलता पर, अपनी स्वार्थ-लोलुपता पर, अपनी कायरता पर। पुलिस के वातावरण में उसका औचित्य-ज्ञान भ्रष्ट हो गया था। वह कितना बड़ा अन्याय कर रहा है, इसका उसे केवल उस दिन ख्याल आया था जब
जालपा ने समझाया था। फिर वह शंका मन में उठी नहीं। अफसरों ने बड़ी-बड़ी आशाएं बँधाकर उसे बहला रखा था। वह कहते, अजी, बीवी की कुछ फ़िक न करो। जिस वक्त तुम एक जड़ाऊ हार लेकर पहुँचोगे, और रुपयों की एक थैली नजर कर दोगे, बेगम साहब का सारा गुस्सा भाग . जायेगा। अपने सूबे में किसी अच्छी-सी जगह पर पहुँच जाओगे, आराम से जिन्दगी कटेगी। कैसा गुस्सा ! इसकी कितनी ही आंखों-देखी मिसालें दी गयीं। रमा चक्कर में आ गया। फिर उसे जालपा से मिलने का अवसर ही न मिला। पुलिस का रंग जमता गया। आज वह जड़ाऊ हार जेब में रखे जालपा को अपनी विजय की खुशखबरी देने गया था। वह जानता था कि यह हार देखकर वह जरूर खुश हो जायेगी। कल ही संयुक्त प्रांत के होम सेक्रेटरी के नाम कमिश्नर-पुलिस का पत्र उसे मिल जायेगा। दो-चार दिन यहां खूब सैर करके घर की राह लेगा। देवीदीन और जग्गो को भी बड़े अपने साथ ले जाना चाहता था। उनका एहसान वह कैसे भूल सकता था। यही मन्सूबे मन में बांधकर वह जालपा के पास आया था, जैसे कोई भक्त फूल और नैवेद्य लेकर देवता की उपासना करने जाय। पर देवता ने वरदान देने के बदले उसके थाल को ठुकरा दिया, उसके नैवेद्य को पैरों से कुचल डाला। उसे कुछ कहने का अवसर ही न मिला। आज पुलिस के विषैले वातावरण से निकलकर उसने स्वच्छ वायु पायी थी और उसकी सुबुद्धि सचेत हो गयी थी। अब उसे अपनी पशुता अपने यथार्थ रूप में दिखयी दी-कितनी विकराल, कितनी दानवी मूर्ति थी। वह स्वयं उसकी ओर ताकने का साहस न कर सकता था। उसने सोचा, इसी वक्त जज के पास चलूँ और सारी कथा कह सुनाऊँ। पुलिस मेरी दुश्मन हो जाय, मुझे जेल में सड़ा डाले, कोई परवाह नहीं। सारी कलई खोल दूंगा। क्या जज अपना फैसला नहीं बदल सकता ? अभी मुलाजिम हवालात में हैं। पुलिसवाले खूब दांत पीसेंगे, खूब नामें कूदेंगे; शायद मुझे कच्चा ही खा जाये। खा जायें ! इसी दुर्बलता ने तो मेरे मुख में कालिख लगा दी।

जालपा की क्रोधोन्मत्त मति उसको आंखों के सामने फिर गयी। ओह ! कितने गुस्से में थी! मैं जानता कि वह इतना बिगड़ेगी, तो चाहे दुनिया इधर-से-उधर हो जाती अपना बयान बदल देता। बड़ा चकमा दिया इन
पुलिसवालों ने। अगर कहीं जज ने कुछ नहीं सुना और मुलजिमों को बरी न किया, तो जालपा मेरा मुंह न देखेंगी। मैं उसके पास कौन मुंह लेकर जाऊँगा। जिन्दा रहकर ही क्या करूँगा ? किसके लिए?

उसने मोटर रोकी और इधर-उधर देखने लगा। कुछ समझ में न आया, कहाँ आ गया। सहसा एक चौकीदार नजर आया। उससे जज साहब के बँगले का पता पूछा। चौकीदार हँसकर बोला -- हुजूर तो बहुत दूर निकल आये। यहां से तो छ:-सात मील से कम न होगा, वह उधर चौरंगी की ओर रहते हैं।

रमा चौरंगी का रास्ता पूछकर फिर चला। नौ बज गये थे। उसने सोचा, जज साहब से मुलाकात न हुई, तो सारा खेल बिगड़ जायगा। बिना मिले हटूँगा ही नहीं। अगर उन्होंने सुन लिया तो ठीक ही है, नहीं कल हाईकोर्ट के जजों से कहूँगा। कोई तो सुनेगा ? सारा वृत्तान्त समाचारपत्रों में छपवा दूंँगा, तब तो सबकी आँखें खुलेंगी?

मोटर तीस मील की चाल से चल रही थी। दस मिनट ही में चौरंगी आ पहुँची। यहां अभी तक वही चहल-पहल थी; मगर रमा उसी सन्नाटे से मोटर लिये जाता था। सहसा एक पुलिसमैन ने लालबत्ती दिखायी। वह रुक गया और सिर बाहर निकालकर देखा तो वही दारोगाजी!

दारोगा ने पूछा -- क्या अभी तक बँगले पर नहीं गये ? इतनी तेज़ मोटर न चलाया कीजिए। कोई वारदात हो जायगी। कहिए, बेगम साहब से मुलाकात हुई ! मैंने तो समझा था, वह भी आपके साथ होंगी। खुश तो खूब हुई होंगी।

रमा को ऐसा क्रोध आया कि इसकी मूंँछें उखाड़ ले, पर बात बनाकर बोला -- जी हां, बहुत खुश हुई ! बेहद !

'मैंने कहा था न ? औरतों की नाराज़ी की यही दवा है। आप काँपे जाते थे।'

'मेरी हिमाकत थी।'

'चलिए, मैं भी आपके साथ चलता हूँ। एक बाजी ताश उड़े और ज़रा सरूर जमे। डिप्टी साहब और इंसपेक्टर साहब आयेंगे। जोहरा को

                                                                 
बुलवा लेंगे। दो घड़ी की बहार होगी। अब आप मिसेज रमानाथ को बँगले ही पर क्यों नहीं बुला लेते ? वहां उस खटिक के घर पड़ी हुई हैं।'

रमा ने कहा——अभी तो मुझे एक जरूरत से दूसरी तरफ जाना है। आप मोटर ले जायें। मैं पांव पांव चला जाऊँगा।।

दारोगा ने मोटर के अन्दर जाकर कहा——नहीं साहब, मुझे कोई जल्दी नहीं है। आप जहां चलना चाहें, चलिए। मैं जरा भी मुखिल न हूँगा।

रमा ने कुछ चिढ़कर कहा——लेकिन मैं अभी बंगले पर नहीं जा रहा हूँ।

दारोगा ने मुसकुराकर कहा——मैं समझ रहा हूँ; लेकिन जरा भी मुखिल न हूँगा। वहां बेगम साहब ...

रमा ने बात काटकर कहा——जी नहीं, वहीं मुझे नहीं जाना है।

दारोगा——तो क्या कोई दूसरा शिकार है ? बंगले पर भी आज कुछ कम बहार न रहेगी। वहीं आपके दिल-बहलाव का कुछ सामान हाजिर हो जायगा।

रमा ने एकबारगी आंखें लाल कर कहा——क्या आप मुझे शोहदा समझते हैं ? मैं इतना जलील नहीं हूँ।

दारोगा ने कुछ लज्जित होकर कहा——अच्छा साहब, गुनाह हुआ, माफ कीजिए। अब कभी ऐसी गुस्ताखी न होगी; लेकिन अभी आप अपने को खतरे से बाहर न समझे। मैं आपको किसी ऐसी जगह न जाने दूंगा जहां मुझे पूरा इतमीनान न होगा। खबर नहीं, आपके कितने दुश्मन है। मैं आप ही के फायदे के खयाल से कह रहा हूँ।

• रमा ने होंठ चबाकर कहा——बेहतर हो, कि आप मेरे फायदे का खयाल न करें। आप लोगों ने मुझे मटियामेट कर दिया, और अब भी मेरा गला नहीं छोड़ते। मुझे अब अपने हाल पर मरने दीजिए। मैं इस गुलामी से तंग आ गया हूँ। मैं मां के पीछे-पीछे चलनेवाला बच्चा नहीं बनना चाहता। आप अपनी मोटर चाहते हैं, शौक से ले जाइये। मोटर की सवारी और बंगले में रहने के लिए पन्द्रह आदमियों को कुर्बान करना पड़ा है। कोई जगह पा जाऊँ, तो शायद पन्द्रह सौ आदमियों को कुर्बान करना पड़े। मेरी छाती इतनी मजबूत नहीं है। आप अपनी मोटर ले जाइए।

यह कहता हुआ वह मोटर से उतर पड़ा और जल्दी से आगे बढ़ गया।

                                          दारोगा ने कई बार पुकारा, जरा सुनिए, बात तो सुनिए, लेकिन उसने पीछे फिरकर देखा तक नहीं। जरा और आगे चलकर वह एक मोड़ से घूम गया। इसी सड़क पर जज का बंगला था। सड़क पर कोई आदमी न मिला। रमा कभी इस पटरी पर, और कभी उस पटरी पर जा जाकर बंगलों के नम्बर पढ़ता चला जाता था। सहसा एक नम्बर देखकर वह रूक गया। एक मिनट तक खड़ा देखता रहा कि कोई आदमी निकले, तो उससे पूछूँ , साहब है या नहीं। अन्दर जाने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। खयाल आया, जज ने पूछा, तुमने क्यों झूठी गवाही दी, तो क्या जवाब दूंगा। यह कहना, कि पुलिस ने मुझसे जबरदस्ती गवाही दिलवायी, प्रलोभन दिया, मारने की धमकी दी, लज्जास्पद बात है। अगर वह पूछे कि तुमने केवल दो-तीन साल की सजा से बचने के लिए इतना बड़ा कलंक सिर पर ले लिया, इतने आदमियों की जान लेने पर उतारू हो गये, उस वक्त तुम्हारी बुद्धि कहां गयी थी, तो उसका मेरे पास क्या जबाव है ? ख्वाहमख्वाह लज्जित होना पड़ेगा। बेवकूफ बनाया जाऊँगा। वह लौट पड़ा। इस लज्जा का सामना करने की उसमें सामर्थ्य न थी। लज्जा ने सदैव वीरों को परास्त किया है। जो काल से भी नहीं डरते, वे भी लज्जा के सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं करते। आग में कूद जाना, तलवार के सामने खड़ा हो जाना, इसकी अपेक्षा कहीं सहज है। लाज की रक्षा ही के लिए बड़े-बड़े राज्य मिट गये हैं, रक्त की नदियाँ बह गयी हैं, प्राणों की होली खेल डाली गयी है ! उसी लाज ने आज रमा के पग भी पीछे हटा दिये। शायद जेल की सजा से वह इतना भयभीत न होता।

४४

रमा आधी रात गए सोया, तो नौ बजे दिन तक नींद न खुली। वह स्वप्न देख रहा था——दिनेश को फांसी हो रही है। सहसा एक स्त्री तलवार लिये हुए फांसी की ओर दौड़ी और फांसी की रस्सी काट दी। चारों ओर हलचल मच गयी। वह औरत जालपा थी। कोई उसके सामने जाने का साहस न कर सकता था। तब उसने एक छलांग मारकर रमा के ऊपर तलवार चलायी। रमा घबराकर उठ बैठा। देखा तो दारोगा और इंसपेक्टर कमरे में खड़े हैं, और डिप्टी साहब आराम कुर्सी पर लेटे हुए सिगार पी रहे हैं।

                                         
दारोगा ने कहा——आज तो आप खूब सोये बाबू साहब ! कब लौटे थे?

रमा ने एक कुसी पर बैठकर कहा——जरा देर बाद लौट आया था। इस मुकदमे की अपील तो हाईकोर्ट में होगी न ?

इंसपेक्टर——अपील क्या होगी, जाने की पाबन्दी होगी। आपने मुकादमे को इतना मजबूत कर दिया है कि वह अब किसी के हिलाये हिल नहीं सकता। हलफ़ से कहता हूँ, आपने कमाल कर दिया। अब उधर से बेफिक्र हो जाइए। हाँ, अभी जब तक फैसला न हो जाय; यह मुनासिब होगा कि आपकी हिफाजत का खयाल रखा जाय। इसलिए फिर पहरे का इन्तजाम कर दिया गया है। इधर हाईकोर्ट से फैसला हुआ, उधर आपको जगह मिली।

डिप्टी ने सिगार का धुआँ फेंककर कहा——यह डी० ओ॰ कमिश्नर साहब ने आपको दिया है, जिसमें आपको किसी तरह का शक न हो। देखिये, यू०पी० के होम सेक्रेटरी के नाम हैं। आप वहां ज्योंही यह डी० ओ० दिखावेंगे, वह आपको कोई बहुत अच्छी जगह दे देगा।

इंसपेक्टर—— कमिश्नर साहब आपसे बहुत खुश हैं, हलफ़ से कहता हूँ।

डिप्टी——बहुत खुश हैं। वह यू० पी० को अलग डायरेक्ट चिट्टी भी लिखेगा। तुम्हारा भाग्य खुल गया।

यह कहते हुए उसने डी.ओ. रमा की तरफ बढ़ा दिया। रमा ने लिफ़ाफ़ा खोलकर देखा और एकाएक उसको फाड़कर पुरजे-पुरजे कर डाला। तीनों आदमी विस्मय से उसका मुंह ताकने लगे। दारोगा ने कहा——रात बहुत पी गये थे क्या ? आपके हक में अच्छा न होगा।

इंसपेक्टर——हलफ़ से कहता हूँ, कमिश्नर साहब को मालूम हो जाएगा तो बहुत नाराज होंगे।

डिप्टी—— इसका कुछ मतलब हमारे समझ में नहीं आया। इसका क्या मतलब है?

रमा०——इसका यह मतलब है कि मुझे इस' डी.ओ.की जरूरत नहीं और न मैं नौकरी चाहता हूँ, मैं आज ही यहां से चला जाऊँगा।

डिप्टी——जब तक हाईकोर्ट का फैसला न हो जाय, तब तक आप कहीं नही जा सकते। रमा——क्यों?

डिप्टी——कमिश्नर साहब का यह हुक्म है।

रमा——मैं किसी का गुलाम नहीं हूँ।

इंसपेक्टर——बाबू रमानाथ, आप क्यों बना-बनाया खेल बिगाड़ रहे हैं? जो कुछ होना था वह हो गया। दस-पाँच दिन में हाईकोर्ट से फैसले की तसदीक हो जायगी। आपकी बेहतरी इसी में है कि जो सिला मिल रहा है, उसे खुशी से लीजिए और आराम से जिन्दगी के दिन बसर काजिए। खुदा ने चाहा तो एक दिन आप भी किसी ऊंचे ओहदे पर पहुँच जायेंगे। इससे क्या फायदा, कि अफसरों को नाराज कीजिए और कैद की मुसीबत झेलिए। हलफ़ से कहता हूँ, कि जरा-सी निगाह बदल जाय तो आपका कहीं पता न लगे। हलफ़ से कहता हूँ, एक इशारे में आपको दस साल की सजा हो जाय आप हैं किस ख्याल में। हम आपके साथ शरारत नहीं करना चाहते। हां, अगर आप हमें सख्ती करने पर मजबूर करेंगे, तो हमें सख्ती करनी पड़ेगी। जेल को आसान न समझियेगा। खुदा दोजख में ले जाये, पर जेल की सजा न दे। मार-धाड़, गाली-गुफ्ता, यह तो वहाँ की मामूली सजा है। चक्की में जोत दिया तो मौत आ गयी। हलफ़ से कहता हूँ, दोजख से बदतर है जेल।

दारोगा——यह बेचारे अपनी बेगम साहब से मजबूर हैं। वह शायद इनके जान की गाहक हो रही हैं। उनसे इनकी कोर दबती है।

इंसपेक्टर——क्या हुआ, कल तो वह हार दिया था न ? फिर भी राजी नहीं हुई ?

रमा ने कोट की जेब से हार निकालकर मेज पर रख दिया और बोला——वह हार यह रखा हुआ है।

इंसपेक्टर——अच्छा, इसे उन्होंने नहीं कबूल किया।

डिप्टी——कोई 'प्राउड लेडी' है।

इंसपेक्टर——कुछ उनको भी मिजाज पुरसी करने की जरूरत होगी!

दारोगा——यह तो बाबू साहब के रंग-ढंग और सलीके पर मुनहसर है। अगर आप ख्वाहमख्वाह हमें मजबूर न करेंगे, तो हम आपके पीछे न पड़ेंगे।

डिप्टी——उस खटिक से भी मुचलका लेना चाहिये।

रमानाथ के सामने एक नई समस्या आ खड़ी हुई, पहले से कहीं जटिल
कहीं भीषण। संभव था, वह अपने को कर्तव्य की वेदी पर बलिदान कर देता, दो-चार साल की सजा के लिए अपने को तैयार कर लेता। शायद इस समय उसने अपने आत्म-समर्पण का निश्चय कर लिया था; पर अपने साथ जालपा को भी संकट में डालने का साहस वह किसी तरह न कर सकता था। वह पुलिस के पंजे में कुछ इस तरह दब गया था कि अब उसे बेदाग़ निकल जाने का कोई मार्ग न दिखाई देता था। उसने देखा कि इस लड़ाई में मैं पेश नहीं पा सकता। उसके मिजाज की तेजी गायब हो गयी। विवश होकर बोला——आखिर आप लोग मुझसे क्या चाहते हैं !

इंसपेक्टर ने दारोगा की ओर देखकर आंख मारी, मानो कह रहे हों, आ गया पंजे में ! और बोले——बस इतना ही कि आप हमारे मेहमान बने रहें, और मुकदमें के हाईकोर्ट से तय हो जाने के बाद यहाँ से रुखसत हो जायें, क्योंकि उसके बाद हम आपकी हिफाजत के जिम्मेदार न होंगे। अगर कोई सार्टिफिकेट लेना चाहेंगे, तो वह दे दी जायगी; लेकिन उसे लेने या न लेने का आपको पूरा अख्तियार है। अगर आप होशियार हैं तो उसे लेकर फायदा उठायेंगे, नहीं इधर-उधर के धक्के खायेंगे। आपके ऊपर गुनाह बे-लज्जत की मसल साबिक आयेगी। इसके सिवा हम आपसे और कुछ नहीं चाहते। हलफ़ से कहता हूँ, हर एक चीज जिसकी आपको ख्वाहिश हो, यहाँ हाजिर कर दी जायगी; लेकिन जब तक मुकदमा खत्म न हो जाय, आप आजाद नहीं हो सकते।

रमानाथ ने दीनता से पूछा——सैर करने तो आ सकूँगा, या वह भी नहीं ?

इंस्पेक्टर ने सूत्ररूप से कहा——जी नहीं !

दारोगा ने उस सूत्र की व्याख्या की—आपको वह आजादी दी गयी थी; पर आपने उसका बेजा इस्तेमाल किया ! जब तक इसका इत्मीनान न हो जाय कि आप उसका जायज इस्तेमाल कर सकते हैं या नहीं, आप उस हक से महरूम रहेंगे।

दारोगा ने इंसपेक्टर की तरफ देखकर मानो इस व्याख्या की दाद चाही, जो उन्हें सहर्ष मिल गयी।

तीनों अफसर रुखसत हो गये और रमा एक सिगार जलाकर इस विकट परिस्थिति पर विचार करने लगा।

४५


एक महीना और निकल गया। मुकदमे के हाइकोर्ट में पेश होने की तिथि नियत हो गयी है। रमा के स्वभाव में फिर वही पहले की-सी भीरुता और खुशामद आ गयी है, अफसरों के इशारे पर नाचता है। शराब की मात्रा पहले से बढ़ गयी है, बिलासिता ने मानो पंजे में दबा लिया है। कभी-कभी उसके कमरे में एक वेश्या जोहरा भी आ जाती है, जिसका गाना वह बड़े शौक से सुनता है।

एक दिन उसने बड़ी हसरत के साथ जोहरा से कहा-मैं डरता हूँ, कहीं तुमसे प्रेम न बढ़ जाय। उसका नतीजा इसके सिवा और क्या होगा कि रो-रोकर जिन्दगी काटूं। तुमसे वफ़ा की उम्मीद क्या हो सकती है !

जोहरा दिल में खुश होकर अपनी बड़ी-बड़ी रतनारी आँखों से उसकी ओर ताकती हुई बोली-हाँ साहब, हम वफ़ा क्या जानें, आखिर वेश्या ही तो ठहरीं! बेवफ़ा भी कहीं वफादार हो सकती है ?

रमा ने आपत्ति करके पूछा-क्या इसमें कोई शक है ?

जोहरा-नहीं, जरा भी नहीं ! आप लोग हमारे पास मुहब्बत से लबालब भरे दिल लेकर आते हैं, पर हम उसकी जरा भी कद्र नहीं करतीं। यही बात है न ?

रमा०–बेशक।

जोहरा-मुआफ कीजिएगा, आप मर्दों की तरफ़दारी कर रहे हैं। हक यह है कि वहाँ आप लोग दिल-बहलाव के लिए जाते हैं, महज गम गलत करने के लिए, महज आनंद उठाने के लिए। जब आपको वफा की तलाश ही नहीं होती, तो यह मिले क्योंकर ? लेकिन इतना मैं जानती हूँ, कि हममें जितनी बेचारियाँ मर्दों की बेवफ़ाई से निराश होकर अपना आराम-चैन खो बैठती है, उनका पता अगर दुनिया को चले, तो आँखें खुल जाय। यह हमारी भूल है कि तमाशबीनों से वफा चाहते हैं, चोल के घोंसले में मांस ढूंढते हैं ! पर प्यासा आदमी अन्धे कुएँ की तरफ दौड़े, तो मेरे ख़याल में उसका कोई कसूर नहीं।

उस दिन रात को चलते वक्त जोहरा ने दारोगा को खुशखबरी दी, आज तो हजरत खूब मजे में आये। खुदा ने चाहा, तो दो चार दिन के बाद बीबी का नाम भी न लें।

दारोगा ने खुश होकर कहा--इसीलिए तो तुम्हें बुलाया था। मजा तो तब है कि बीवी यहाँ से चली जाय। फिर हमें कोई गम न रहेगा। मालूम होता है, स्वराज्यदालों ने उस औरत को मिला लिया है। यह सब एक ही शंतान हैं।

जोहरा की आमदोरफ्त बढ़ने लगी; यहाँ तक कि रमा खुद अपने चकमे में आ गया। उसने जोहरा से प्रेम जताकर अफसरों की नजर में अपनी साख जमानी चाही थी; पर जैसे बच्चे खेल में रो पड़ते हैं, वैसे ही उसका प्रेमाभिनय भी प्रेमोन्माद बन बैठा। जोहरा उसे अब वफ़ा और गुहब्बत की देवी-सी मालूम होती थी। वह जालपा की सी सुन्दरी न सही, पर बातों में उससे कहीं चतुर, हाव-भाव में कहीं कुशल, सम्मोहन कला में कहीं पटु थी। रमा के हृदय में नये-नये मनसूबे पैदा होने लगे।

एक दिन उसने जोहरा से कहा-जोहरा, जुदाई का समय आ रहा है। दो-चार दिन में मुझे यहां से चला जाना पड़ेगा। फिर तुम्हें क्यों मेरी याद आने लगी ?

जोहरा ने कहा- मैं तुम्हें न जाने दूंगी। यहीं कोई अच्छी सी नौकरी कर लेना। फिर हम तुम आराम से रहेंगे। .

रमा ने अनुरक्त होकर कहा--दिल से कहती हो जोहरा ? देखो तुम्हें मेरे सर की कसम, दगा मत देना। 
जोहरा --अगर यह खौफ़ हो तो निकाह पढ़ा लो। निकाह के नाम से चिढ़ हो तो ब्याह कर लो। पण्डितों को बुलाओ। अब इसके सिवा मैं अपनी मुहब्बत का और क्या सबूत दूं। 
रमा निष्कपट प्रेम का वह परिचय पाकर विह्वल हो उठा। जोहरा के मुंह से निकलकर इन शब्दों की सम्मोहक-शक्ति कितनी बढ़ गई थी। यह कामिनी, जिस पर बड़े-बड़े रईस फिदा हैं, मेरे लिए इतना बड़ा त्याग करने को तैयार है ! जिस खान में औरों को बालू ही मिलता है, उसमें जिसे सोने के डले मिल जायें, क्या वह परम भाग्यशाली नहीं है ? रमा के मन में कई दिनों तक संग्राम होता रहा। जालपा के साथ उसका जीवन कितना नीरस,