ग़बन/भाग 5
तो पेशगी रूपये इसलिए दे दिये कि सुनार खुश होकर जल्दी से बना देगा। अब आप रुपये माँग रही हैं, सराफ़ रुपये नहीं लौटा सकता।
रतन ने तीव्र नेत्रों से देखकर कहा——क्यों, रुपये क्यों न लौटायेगा?
रमा०——इसलिए कि जो चीज आपके लिए बनायी है, उसे वह कहाँ बेचता फिरेगा? सम्भव है, साल छ: महीने में बिक सके। सबकी पसन्द एक-सी तो नहीं होती।
रतन ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा——मैं कुछ नहीं जानती, उसने देर की है, उसका दण्ड भोगे। मुझे कल या तो कंगन ला दीजिए या रूपये। आपसे यदि सराफ़ से दोस्ती है, आप मुलाहिजा और मुरव्वत के सबव से कुछ न कह सकते हों, तो मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए। नहीं आपको शर्म आती हो, तो उसका नाम बता दीजिए, मैं पता लगा लूँगी। वाह, अच्छी दिल्लगी ! दुकान नीलाम करा लूँगी। जेल भिजवा दूँँगी। इन बदमाशों से लड़ाई के बगैर काम नहीं चलता।
रमा अप्रतिम होकर जमीन की ओर ताकने लगा। वह कितनी म हूस घड़ी थी, जब उसने रतन से रुपये लिये ! बैठे-बिठाये विपत्ति मोल ली।
जालपा——सच तो है, इन्हें क्यों नहीं सराफ़ की दुकान पर ले जाते? चीज आँखों से देख इन्हें सन्तोष हो जायेगा।
रतन——मैं अब चीज लेना ही नहीं चाहती।
रमा ने काँपते हुए कहा—— अच्छी बात है, आपको रुपये कल मिल जायेंगे।
रतन——कल किस वक्त ?
रमा०——दफ़्तर से लौटते वक्त लेता आऊँगा।
रतन——पूरे रुपये लूँगी। ऐसा न हो कि सौ-दो-सौ रुपये देकर टाल दे।
रमा०——कल आप अपने सब रुपये ले जाइएगा।
यह कहता हुआ रमा मर्दाने कमरे में आया, और रमेश बाबू के नाम एक रुक्का लिखकर गोपी से बोला——इसे रमेश बाबू के पास ले जाओ। जवाब लिखाते आना।
फिर उसने एक दूसरा रुक्का लिखकर विश्वंभर को दिया, कि माणिकदास को दिखाकर जवाब लाये। विश्वम्भर में कहा- पानी आ रहा है।
रमा॰- तो क्या सारी दुनिया बह जायेगी। दौड़ते हुए जाओ।
विश्वम्भर- और वह जो घर पर न मिलें ?
रमा॰- मिलेंगे। वह इस वक्त कहीं नहीं जाते। .
आज जीवन में पहला अवसर था, कि रमा ने दोस्तों से रुपये उधार माँगे। आग्रह और विनय के जितने शब्द उसे याद आये, उनका उपयोग किया। उसके लिए यह बिलकुल नया अनुभव था। जैसे पत्र आज उसने लिखे, वैसे ही पत्र उसके पास कितनी बार आ चुके थे। उन पत्रों को पड़कर उसका हृदय कितना द्रवित हो जाता था; पर विवश होकर उसे बहाने करने पड़ते थे। क्या रमेश बाबू भी बहाना कर जायेंगे? उनकी आमदनी ज्यदा है, खर्च कम। वह चाहें तो रुपये का इन्तजाम कर सकते हैं। क्या मेरे साथ इतना सलूक भी न करेंगे ? अब तक दोनों लड़के नहीं आये। वह द्वार पर टहलने लगा। रतन की मोटर अभी तक खड़ी थी। इतने में रतन बाहर आयी और उसे टहलते देखकर भी कुछ बोली नहीं। मोटर पर बैठी आर चल दी।
दोनों कहाँ रह गये अब तक ? कहीं खेलने लगे होंगे। शैतान तो है ही। जो कहीं रमेश रुपये दे दे, तो चॉदी है। मैंने दो सौ नाहक माँगे,शायद इतने रुपये उनके पास न हो। ससुरालवालों की नोच-खसोट से कुछ रहने भी तो नहीं पाता। माणिक चाहे तो हजार-पांच सौ दे सकता है। लेकिन देखना चाहिये, आज परीक्षा हो जायेगी। अगर आज इन लोगों ने हाये न दिये, तो फिर बात न पूछूँगा। किसी का नौकर नहीं हूँ कि जब शतरंज खेलने को बुलायें, तो दौड़ा चला जाऊँ। रमा किसी की आहट पाता, तो उसका दिल जोर से धड़कने लगता था। आखिर विश्वम्भर लौटा। माणिक ने लिखा था, आजकल बहुत तंग हूँ। मैं तो तुम्हीं से माँगने वाला था।
रमा ने पुर्जा फाड़कर फेंक दिया। मालवी कहीं का! अगर सबइंस्पेक्टर ने माँगा होता तो पुजी देखते ही रुपये लेकर दौड़े जाते। खैर, देखा जायेगा। चुंगी के लिए माल तो आयेगा ही। इसकी कसर तब निकल जायेगी।
इतने में गोपी भी लौटा। रमेश ने लिखा था- मैंने अपने जीवन में
दो-चार नियम बना लिये हैं, और बड़ी कठोरता से उनका पालन करता हूँ। उनमें से एक नियम यह भी है, कि मित्रों से लेन-देन का व्यवहार न करूँगा। अभी तुम्हें अनुभव नहीं हुआ है, लेकिन कुछ दिनों में हो जायेगा। मित्रों से जहाँ लेन-देन शुरू हुआ, वहाँ मनमुटाब होते देर नहीं लगती। तुम मेरे प्यारे दोस्त हो, मैं तुमसे दुश्मनी नहीं करना चाहता, इसलिये मुझे क्षमा करो।
रमा ने इस पत्र को भी फाड़कर फेंक दिया और कुर्सी पर बैठकर दीपक की ओर टकटकी बाँधकर देखने लगा। दीपक उसे दिखायी देता था, इसमें सन्देह है। इतनी ही एकाग्रता से यह कदाचित् आकाश की काली, अभेद्य मेघराशि की ओर ताकता।
मन की एक दशा वह भी होती है, जब आँखें खुली होती हैं, और कुछ नहीं सूझता; कान खुले रहते हैं, और कुछ सुनायी नहीं देता।
१८
संध्या हो गयी थी। म्युनिसिपैलिटी के अहाते में सन्नाटा छा गया था। कर्मचारी एक-एक करके जा रहे थे। मेहतर कमरों में झाड़ू लगा रहा था। चपरासियों ने जूते पहनना शुरू कर दिया। खोंचे वाले दिन भर की बिक्री के पैसे गिन रहे थे, पर रमानाथ अपनी कुर्सी पर बैठा रजिस्टर लिख रहा था।
आज भी वह प्रातःकाल आया था; पर आज भी कोई बड़ा शिकार न फँसा, वही दल रुपये मिलकर रह गये। अब अपनी आवरू बचाने का उसके पास और क्या उपाय था ? रमा ने रतन को झाँसा देने की ठान ली। वह खूब जानता था कि रतन की यह अधीरता केवल इसलिए है कि शायद उसके रुपये मैंने खर्च कर दिये। अगर उसे मालूम हो जाये कि उसको रुपये तत्काल मिल सकते हैं, तो वह शान्त हो जायेगी। रमा उसे रुपये से भरी हुई थैली दिखाकर उसका सन्देह मिटा देना चाहता था। वह खजांची साहब के चले जाने की राह देख रहा था। उसने आज जान-बूझकर देर की थी। आज की आमदनी के आठ सौ रूपये उसके पास थे। इसे वह अपने घर ले जाना चाहता था। खजांची ठीक चार बजे उठा। उसे क्या ग़रज थी कि रमा से आज की आमदनी माँगता ? रुपये गिनने से ही छुट्टी मिली। दिन भर वही लिखते-लिखते और रुपये गिनते-गिनते बेचारे की कमर दुख रही थी। रमा को
जब मालूम हो गया कि खजांचो साहब दूर निकल गये होंगे; तो उसने रजिस्टर बन्द किया और चपरासी से बोला- थैली उठाओ; चलकर जमा कर आयें।
चपरासी ने कहा- खजांची बाबू तो चले गये।
रमा ने आँख फाड़कर कहा- खजांची बाबू चले गये ? तुमने मुझसे कहा क्यों नहीं ? अभी कितनी दूर गये होंगे?
चपरासी- सड़क के नुक्कड़ तक पहुँचे होंगे ?
रमा०- यह आमदनी कैसे जमा होगी ?
चपरासी– हुकुम हो तो बुला लाऊँ?
रमा०- अजी जाओ भी, अब तक तो कहा नहीं, अब उन्हें रास्ते से बुलाने जाओगे। हो तुम भी, निरे बछिया के ताऊ। आज ज्यादा छान गये थे? खैर, रुपये इसी दराज में रहेंगे। तुम्हारी जिम्मेदारी रहेगी !
चपरासी- नहीं बाबू साहब, मैं यहाँ रुपये नहीं रखने दूँँगा। सब घड़ी बराबर नहीं जाती। कहीं रुपये उठ जायें, तो मैं बेगुनाह मारा जाऊँ। सुभीते का ताला भी तो नहीं है यहाँ।
रमा०- तो फिर ये रुपये कहाँ रखूँ?
चपरासी- हुज़ूर अपने साथ लेते जायें।
रमा तो यह चाहता ही था। एक एक्का मँगवाया, उस पर रुपयों की थैली रखी और घर चला। सोचता था, कि अगर रतन भभकी में आ गयी, तो क्या पूछना ? कह दूँगा, दो-ही चार दिन की कसर है। रुपये सामने देखकर उसे तसल्ली हो जायेगी।
जालपा ने थैली देखकर पूछा- क्या कागंन न मिला ?
रमा०-अभी तैयार नहीं था। मैंने समझा, रुपया लेता चलूँ जिससे उन्हें तस्कीन हो जाये।
जालपा- क्या कहा सराफ़ ने ? रमा०- कहा क्या, आज-कल करता है। अभी रतनदेवी आयीं नहीं?
जालपा- आती ही होगी, उसे चैन कहाँ ! जब चिराग जले तक रतन न आयी, तो रमा ने समझा, अब न आयेगी। दस मिनट भी न हुए होंगे कि रतन आ पहुँची और आते-ही-आते बोली- कंगन आ गये होंगे ?
जालपा- हाँ, आ गये हैं पहन लो ! बेचारे कई दफ़ा सराफ़ के पास गये । अभागा देता ही नहीं, होले हवाले करता है।
रतन- कैसा सराफ़ है कि इतने दिन से हीले-हवाले कर रहा है ! मैं जानती कि रुपये झमेले में पड़ जायेंगे, तो देती ही क्यों न रुपये मिलते है, न कंगन मिलता है।
रतन ने यह बात कुछ ऐसे अविश्वास के भाव से कही कि जालपा जल उठी । गर्व से बोली- आपके रुपये रखे हुए हैं, जब चाहिए ले जाइए। अपने बस की बात तो है नहीं । आखिर जब सराफ़ देगा, तभी तो आयेंगे ?
रतन- कुछ वादा करता है, कब तक देगा ?
जालपा- उसके वादो का क्या ठीक, सैकड़ों वादे तो कर चुका है।
रतन- तो इसके मानी यह है कि अब वह चीज न बनायेगा ?
जालपा– जो चाहे समझ लो ।
रतन- तो मेरे रुपय ही दे दो, बाज आयी ऐसे कंगन से ।
जालपा झमककर उठी, आलमारी से थैली निकाली और रतन के सामने पटककर बोली- ये आपके रुपये रखे है, ले जाइये ।
वास्तव में रतन की अधीरता का कारण वही था, जो रमा ने समझा था । उसे भ्रम हो रहा था कि इन लोगों ने मेरे रुपये खर्च कर डाले। इसलिए वह बार-बार कंगन का तक़ाज़ा करती थी। रुपये देखकर उसका भ्रम शान्त हो गया। कुछ लज्जित होकर बोली- अगर दो चार दिन में देने का वादा करता हो तो रुपये रहने दो।
जालपा- मुझे आशा नहीं है कि इतनी जल्द दे देगा । जब चीज़ तैयार हो जायेगी, तो रुपये माँग लिये जायेंगे।
रतन- क्या जाने उस वक्त मेरे पास रुपये रहें या न रहें । रुपये आते तो दिखायी देते हैं, जाते नहीं दिखायी देते। न जाने किस तरह उड़ जाते हैं । अपने ही पास रख लो तो क्या बुरा है ?
जालपा- तो यहाँ भी तो वही हाल है। फिर पराई रकम घर में रखना जोखिम की बात भी तो है। कोई गोलमाल हो जाये, तो व्यर्थ का
दण्ड देना पड़े। मैरे ब्याह के चौथे ही दिन मेरे गहने चोरी चले गये। हम लोग जागते ही रहे; पर न जाने कब आँख लग गयी, और चोरों ने अपना काम कर लिया। दस हजार की चपत पढ़ गयी। कहीं वही दुर्घटना फिर हो जाय, तो कहीं के न रहे।
रातन- अच्छी बात है, मैं रुपये लिये जाती हूँ, मगर देखना निश्चिन्त न हो जाना। बाबूजी से कह देना सराफ़ का पिण्ड न छोड़ें।
रतन चली गयी। जालपा खूश थी कि सिर से बोझ टला। बहुधा हमारे जीवन पर उन्हीं के हाथों कठोरतम आघात होता है, जो हमारे सच्चे हितैषी होते हैं।
रमा कोई नौ बजे घूमकर लौटा, जालपा रसोई बना रही थी। उसे देखते ही बोली- रतन आयी थी, मैंने सब रुपये दे दिये।
रमा के पैरों के नीचे से मिट्टी खिसक गयी। आँखें फैलकर माथे पर जा पहुँचीं। घबराकर बोला— क्या कहा, रतन को रुपये दे दिये ? तुमसे किसने कहा था कि उसे रुपये दे देना ?
जालापा- उसी के रुपये तो तुमने लाकर रखे थे। तुम खुद उसका इन्तजार करते रहे। तुम्हारे जाते ही वह आयी और कंगन माँगने लगी। मैंने झल्लाकर उसके रुपये फेंक दिये।
रमा ने सावधान होकर कहा- उसने रुपये माँगे तो न थे !
जालपा- माँगे क्यों नहीं? हाँ जब मैंने दे दिये तो अलबत्ता कहने लगी, इसे क्यों लौटाती हो? अपने पास ही पड़ा रहने दो। मैंने कह दिया, ऐसे शक्की मिज़ाजवालों का रुपया मैं नहीं रखती।
रमा- ईश्वर के लिए तुम मुझसे बिना पूछे ऐसे काम मत किया करो।
जालपा-तो अभी क्या हुआ, उसके पास जाकर रुपये माँग लाओ, मगर अभी से रुपये घर में लाकर अपने जी का जंजाल क्यों मोल लोगे ?
रमा इतना निस्तेज हो गया कि जालपा पर बिगड़ने की भी शक्ति उसमें न रही। रुआँसा होकर नीचे चला गया और स्थिति पर विचार करने लगा। जालपा पर बिगड़ना अन्याय था। जब रमा ने साफ कह दिया कि ये रुपये रतन के हैं, और इसका संकेत तक न किया कि मुझसे पूछे बगैर रतन को रुपये मत देना, तो जालपा का कोई अपराध नहीं। उसने सोचा- इस समय झल्लाने और बिगड़ने से समस्या हल न होगी। शांतचित्त होकर विचार करने की आवश्यकता थी। रतन से रुपये वापस लेना अनिवार्य था। जिस समय वह यहाँ आयी थी, अगर मैं खुद मौजूद होता, तो कितनी खूबसूरती से सारी मुश्किल आसान हो जाती। मुझको क्या शामत सवार थी कि घूमने निकला ! एक दिन न घूमने जाता तो कौन मरा जाता था? कोई गुप्त शक्ति मेरा अनिष्ट करने पर उतारू हो गयी है। दस मिनट की अनुपस्थिति ने सारा खेल बिगाड़ दिया ? वह कह रही थी कि रुपये रख लीजिए। जालपा ने जरा समझ से काम लिया होता तो यह नौबत काहे को आती; लेकिन फिर मैं बीती हई बातें सोचने लगा। समस्या है, रतन से रुपये वापस कैसे लिये जायें ! क्यों न चलकर कहूँ, मैंने सुना है, रुपये लौटाने से आप नाराज हो गयी है। असल में में आपके लिए रुपये न लाया था। सराफ़ से इसीलिए माँग लाया था, जिसमें वह चीज बनवाकर दे दे। सम्भव है, वह खुद ही लज्जित होकर क्षमा माँगे और रूपये दे दे। बस, इसी वक्त वहां जाना चाहिए।
यह निश्चय करके उसनें घड़ी पर नजर डाली। साढ़े आठ बजे थे। अन्धकार छाया हुआ था। ऐसे समय रतन घर से बाहर नहीं जा सकती। रमा ने साइकिल उठायी और रतन से मिलने चला।
रतन के बँगले पर आज बड़ी वहार थी। यहाँ नित्य ही कोई-न-कोई उत्सव, दावत, पार्टी होती रहती थी। रतन का एकान्त नीरव जीवन इन विषयों की ओर उस भाँति लपकता था, जैसे प्यासा पानी की ओर लपकता है। इस वक्त वहाँ बच्चों का जमघट था!एक आम के वृक्ष में झूला पड़ा था, बिजली की बत्तियाँ जल रही थीं, बच्चे झूला झूल रहे थे। रतन खड़ी झुला रही थी। हू-हक मचा हुआ था। वकील साहब इस मौसम में भी ऊनी ओवरकोट पहने बरामदे में बैठे सिगार पी रहे थे। रमा की इच्छा हुई, कि झूले के पास जाकर रतन से बातें करे, पर वकील साहब को खड़े देखकर वह संकोच के मारे उधर न जा सका ! वकील साहब ने उसे देखते ही हाथ बढ़ा दिया और बोले- आओ रमा बाबू, कहो, तुम्हारे म्युनिसिपल बोर्ड की क्या खबरें हैं ?
रमा ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा- कोई नयी बात तो नहीं हुई। वकील- आपके बोर्ड में लड़कियों को अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव कब पास होगा ? और कई बोडों ने तो पास कर दिया। जब तक स्त्रियों की शिक्षा का काफी प्रचार न होगा,हमारा कभी उद्धार न होगा। आप तो योरोप न गये होंगे ! ओह ? क्या आजादी है, क्या दौलत है, क्या जीवन है, क्या उत्साह है ! बस, मालूम होता है, यही स्वर्ग हैं ! और स्त्रियां भी सचमुच देवियाँ हैं ! इतनी हँसमुख, इतनी स्वच्छन्द ! यह सब स्त्री शिक्षा का प्रसाद है !
रमा ने समाचार-पत्रों में इन देशों का जो थोड़ा बहुत हाल पढ़ा था, उसके आधार पर बोला- वहाँ स्त्रियों का आचरण तो बहुत अच्छा नहीं है।
वकील- नान्सेंस! अपने-अपने देश की प्रथा है। आप एक युवती को किसी युवक के साथ एकान्त में विचरते देखकर दाँतों उँगली दवाते हैं;आपका अन्तःकरण इतना मलिन हो गया है कि स्त्री-पुरुष को एक जगह देखकर आप सन्देह किये बिना रह ही नहीं सकते; पर जहाँ लड़के और लड़कियाँ एक साथ शिक्षा पाते हैं, वहाँ यह जाति-भेद बहुत महत्व की वस्तु नहीं रह जाता। आपस में स्नेह और सहानुभूति की इतनी बातें पैदा हो जाती हैं कि कामुकता का अंश बहुत थोड़ा रह जाता है। यह समझ लीजिए कि जिस देश में स्त्रियों को जितनी अधिक स्वाधीनता है, वह देश उतना ही सभ्य है। स्त्रियों को कैद में, परदे में, या पुरुष से कोसों दूर रखने का तात्पर्य यही निकलता है कि आपके यहाँ जनता इतनी आचार-भ्रष्ट है कि स्त्रियों का अपमान करने में जरा भी संकोच नहीं करती। युवकों के लिए राजनीति, धर्म, ललित कला, साहित्य, दर्शन, इतिहास, विज्ञान और हजारों ही ऐसे विषय है, जिनके आधार पर वे युवतियों से गहरी दोस्ती पैदा कर सकते हैं। कामलिप्सा उन देशों के लिये आकर्षण का प्रधान विषय है, जहाँ लोगों की मनोवृत्तियाँ संकुचित रहती हैं। मैं साल भर योरोप और अमेरिका में रह चुका हूँ। कितनी ही सुन्दरियों के साथ मेरी दोस्ती थी। उनके साथ खेला हूँ। नाचा भी हूँ, पर कभी मुँह से ऐसा शब्द न निकलता था, जिसे सुनकर किसी युवती को लज्जा से सिर झुकाना पड़े। और फिर अच्छे और बुरे कहाँ नहीं हैं ? रमा को इस समय इन बातों में कोई आनन्द न आया। वह तो इस समय दूसरी ही चिन्ता में मग्न था।
वकील साहब ने फिर कहा- जब तक हम स्त्री-पुरुषों को अबाध रूप से अपना-अपना मानसिक विकास न करने देंगे, हम अवनति की ओर खिसकते चले जायेंगे। बन्धनो से समाज का पैर न बाँधिए, उसके गले में कैद की जन्जीर न डालिए। विधवा विवाह का प्रचार कीजिए, खूब जोरों से कीजिए; लेकिन यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि जब कोई अधेड़ आदमी किसी युवती से व्याह कर लेता है, तो क्यों अखबारों में इतना कुहराम मच जाता है ? योरोप में ८० बरस के बूढ़े युवतियों से ब्याह करते है; सत्तर वर्ष की वृद्धाएं युवकों से व्याह करती है। कोई कुछ नहीं कहता। किसी को कानो-कान खबर भी नहीं होती। हम बूढ़ो को मरने के पहले ही मार डालना चाहते हैं। हालाँकि मनुष्य को कभी किसी सहगामिनी की ज़रूरत होती है तो वह बुढ़ापे में, जब उसे हरदम किसी अवलम्ब की इच्छा होती है, जब वह परमुखापेक्षी हो जाता है।
रमा का ध्यान झूले की ओर था। किसी तरह रतन से दो-दो बातें करने का अवसर मिले। इस समय उसकी सबसे बड़ी कामना यही थी। उसका वहाँ जाना शिष्टाचार के विरुद्ध था। आखिर उसने एक क्षण के बाद झूले की ओर देखकर कहा- ये इतने लड़के किधर से आ गये?
वकील- रतन बाई को बाल-समाज से बड़ा स्नेह है। न जाने कहाँ से इतने लड़के जमा हो जाते हैं। अगर आपको बच्चों से प्यार हो, तो जाइए।
रमा तो यह चाहता ही था, झट झूले के पास जा पहुँचा। रतन उसे देखकर मुस्करायी और बोली- इन शैतानों ने मेरी नाक में दम कर रखा है। झूले से इन सबों का पेट नहीं भरता। आइए; ज़रा आप भी बेगार कीजिए, मैं तो थक गयी। यह कहकर वह पक्के चबूतरे पर बैठ गयी। रमा झोके देने लगा। बच्चों ने नया आदमी देखा, तो सब-के-सब अपनी बारी के लिए उतावले होने लगे। रतन के हाथों दो बारियाँ आ चुकी थीं; पर यह कैसे हो सकता था कि कुछ लड़के तो तीसरी बार झूलें, और बाकी बैठे मुँह ताकें। दो उतरते तो चार झूले पर बैठ जाते। रमा को बच्चों से नाममात्र को भी प्रेम न था, पर इस वक्त फँस गया था, क्या करता?
आखिर आध घण्टे की बेगार के बाद उसका जी ऊब गया। घड़ी में साढ़े नौ बज रहे थे। मतलब की बात कैसे छेड़े। रतन तो झूले में इतनी मगन थी मानो उसे रुपयों की सुध ही नहीं है।
सहसा रतन ने झूले के पास जाकर कहा-बाबूजी, मैं बैठती हूँ, मुझे झुलाइए; मगर नीचे से नहीं, झूले पर खड़े होकर पेंग मारिए!
रमा बचपन ही से झूले पर बैठते डरता था। एक बार मित्रों ने जबरदस्ती झूले पर बैठा दिया तो उसे चक्कर आने लगा। पर इस अनुरोध ने उसे झूले पर आने के लिये मजबूर कर दिया। अपनी अयोग्यता कैसे प्रकट करे। रतन दो बच्चों को लेकर बैठ गयी, और यह गीत गाने लगी-
कदम की डरियाँ झूला पड़ गयो री,
राधा रानी झूलन आई।
रमा झूले पर खड़ा होकर पेंग मारने लगा; लेकिन उसके पाँव काँप रहे थे, और दिल बैठा जाता था। जब झूला ऊपर से गिरता था, तो उसे ऐसा जान पड़ता था मानो कोई तरल वस्तु उसके वक्ष में चुभती चली जा रही है-और रतन लड़कियों के साथ गा रही थी-
कदम की डरियाँ झूला पड़ गयो री,
राधा रानी झूलन आई।
एक क्षण के बाद रतन ने कहा-जरा और बढ़ाइए साहब, आपसे तो झूला बढ़ता ही नहीं।
रमा ने लज्जित होकर जोर लगाया; पर झूला न बढ़ा। रमा के सिर में चक्कर आने लगे।
रतन-आपको पेंग मारना नहीं आता; कभी झूला नहीं झूले?
रमा ने झिझकते हुए कहा-हाँ, इधर तो वर्षों से नहीं बैठा।
रतन-तो आप इन बच्चों को सँभालकर बैठिए, मैं आपको झुलाऊँगी। अगर उस डाल से न छू ले तो कहिएगा। रमा के प्राण सूख गये। बोला, आज तो बहुत देर हो गयी है, फिर कभी आऊँगा।
रतन-अजी अभी क्या देर हो गयी है, दस भी नहीं बजे। घबराइए नहीं, अभी बहुत रात पड़ी है। खूब झूलकर जाइएगा। कल जालपा को लाइएगा, हम दोनों झूलेंगी। रमा झूले पर से उतर आया तो उसका चेहरा सहमा हुआ था। मालूम होता था, अब गिरा। वह लड़खड़ाता हुआ साइकिल की ओर चला और उस पर बैठ कर तुरन्त घर भागा।
कुछ दूर तक उसे कुछ होश न रहा। पाँव आप-ही-आप पैडल घुमाते जाते थे। आधी दूर जाने के बाद उसे होश आया। उसने साईकिल घुमा दी, कुछ दूर चला, फिर उतर कर सोचने लगा-आज संकोच में पड़कर कैसी वाली हाथ से खोयी। वहाँ से चुपचाप अपना-सा मुँह लिये लौट आया। क्यों उसके मुँह से आबाज़ नहीं निकली? रतन कुछ हौवा तो थी नहीं जो उसे खा जाती। सहसा उसे याद आया, थैली में आठ सौ रुपये थे, जालपा ने झुँझला कर थैली-भी-थैली उसके हवाले कर दी। शायद उसने गिना नहीं, नहीं जरूर कहती। कहीं ऐसा न हो, थैली किसी को दे दे, या और रुपयों में मिला दे। गजब ही हो जाय, कहीं का न रहूँ। क्यों न इसी वक्त चलकर बेशी रुपये माँग लाऊँ? लेकिन देर बहुत हो गयी है। सबेरे फिर आना पड़ेगा।
मगर यह दो सौ रुपये मिल भी गये, तब भी तो पाँच सौ रुपयों की कभी रहेगी। उसका क्या प्रबन्ध होगा? ईश्वर ही बेड़ा पार लगाये तो लग सकता है। सबेरे कुछ न प्रबन्ध हुआ तो क्या होगा? यह सोचकर वह काँप उठा।
जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं, जब निराशा में भी हमें आशा होती है। रमा ने सोचा, एक बार फिर गंगू के पास चलूँ: शायद दूकान पर मिल जाये, उसके हाथ पाँव जोडूं। सम्भव है, कुछ दया आ जाये। वह सराफ़े जा पहुँचा; मगर गंगू को दुकान बन्द थी! वह लौटा ही था कि चरनदास आता हुआ दिखाई दिया। रमा को देखते ही बोला -- बाबूजी, आपने तो इधर का रास्ता ही छोड़ दिया। कहिए, रुपये कब तक मिलेंगे?
रमा ने विनम्र भाव से कहा -- अब बहुत जल्द मिलेंगे भाई, देर नहीं है। देखो गंगू के रुपये चुकाये हैं, अब की तुम्हारी बारी है।
चरन ०-- वह सब किस्सा मालूम है। गंगू ने होशियारी से अपने रूपये न ले लिये होते, तो हमारी तरह टापा करता। साल भर हो रहा है। रूपये सैकड़े का सूद रखिये तो ८४) होते हैं। कल आकर हिसाब कर जाइए, सब नहीं तो आधा-तिहाई कुछ तो दीजिए। लेते-देते रहने से मालिक को ढाढ़स
रहता है। कान में तेल डालकर बैठे रहने से तो शंका होने लगती है कि इनकी नीयत बहुत खराब है। तो कल कब आइएगा ?
रमा -- भई, कल मैं रुपये लेकर तो न आ सकूँगा, यों जब कहो तब चला जाऊँ। क्या, इस वक्त अपने सेठ जी से चार-पाँच सौ रुपयों का वन्दोबस्त न करा दोगे ? तुम्हारी मुट्ठी भी गर्म कर दूँगा।
चरन ०-- कहाँ की बात लिए फिरते हो बाबूजी, सेठजी एक कौड़ी तो देंगे नहीं। उन्होंने यही बहुत सलूक किया कि नालिश नहीं कर दी। आपके पीछे मुझे बातें सुननी पड़ती हैं। क्या बड़े मुंशीजी से कहना पड़ेगा ?
रमा ने झल्लाकर कहा -- तुम्हारा देनदार मैं हूँ, बड़े मुंशी नहीं हैं। मैं मर नहीं गया हूँ, घर छोड़कर भागा नहीं जाता हूँ। इतने अधीर क्यों हुए जाते हो?
चरन ०-- साल भर हुआ एक कौड़ी नहीं मिली। अधीर न हों तो क्या हों। कल कम-से-कम दो सौ को फिकर कर रखिएगा।
रमा ०-- मैने कह दिया, मेरे पास अभी नहीं हैं।
चरन ०-- रोज गठरी काट-काटकर रखते हो, उस पर कहते हो रुपये नहीं हैं ! कल रुपये जुटा रखना। कल आदमी जायेगा ज़रूर।
रमा ने उसका कोई जवाब न दिया, आगे बढ़ा। इधर आया था कि कुछ काम निकलेगा, उलटे तकाज़ा सहना पड़ा। कहीं दुष्ट सचमुच बाबूजी के पास तकाजा न भेज दे। आग ही हो जायेंगे। जालपा भी समझेगी, कैसा लबाड़िया आदमी है।
इस समय रमा की आँखों से आँसू तो न निकलते थे; पर उसका एकएक रोआँँ रो रहा था। जालपा से अपनी असली हालत छिपाकर उसने कितनी भारी भूल की ! वह समझदार औरत है, अगर उसे मालूम हो जाता कि मेरे घर भूँजी भांंग नहीं है, तो वह मुझे कभी उधार गहनें न लेने देती। उसने तो कभी अपने मुँह से कुछ नहीं कहा। मैं ही अपनी शमा जानने के लिए मरा
जा रहा था। इतना बड़ा बोझ सिर पर लेकर भी मैंने क्यों किफायत से काम नहीं लिया। मुझे एक-एक पैसा दाँतों से पकड़ना चाहिए था। साल भर में मेरी आमदनी सब मिलाकर एक हजार से कम न हुई होगी। अगर किफायत से चलता तो इन दोनों महाजनों के आधे-आधे रुपये जरूर अदा हो
जाते; मगर यहाँ तो सिर पर शामत सवार थी। इसकी क्या जरूरत थी कि जालपा मुहल्ले भर की औरतों को जमा कर के रोज सैर को जाती? सैकड़ों रुपये तो ताँगावाला ले गया होगा; मगर यहाँ तो उस पर रोब जमाने की पड़ी हुई थी! सारा बाजार जान जाये, कि लाला निरे लफंगे हैं पर अपनी स्त्री न जानने पाये! वाह री बुद्धि! दरवाजे के लिये परदों की क्या जरूरत थी? दो लैम्प क्यों लाया, नयी निवाड़ लेकर चारपाइयाँ क्यों बुनवायीं? उसने रास्ते ही में उन सारे खर्चों का हिसाब तैयार कर लिया जिन्हें उसको हैसियत के आदमी को टालना चाहिए। आदमी जब तक स्वस्थ रहता है, उसे इसकी चिन्ता नहीं रहती कि वह क्या खाता है, कितना ख़ाता है, लेकिन जब कोई विकार उत्पन्न हो जाता है तब उसे याद आती है कि कल मैंने पकोड़ियां खायी थीं। विजय बहिर्मुखी होती है, पराजय अन्तर्मुखी।
जालपा ने पूछा-कहाँ चले गये थे, बड़ी देर लगा दी?
रमा॰-तुम्हारे कारण रतन के बँगले पर जाना पड़ा। तुमने सब रुपये उठाकर देदिए; उसमें दो सौ मेरे भी थे।
जालपा-तो मुझे क्या मालूम था। तुमने कहा भी तो न था। मगर उनके पास से रुपये कहीं जा नहीं सकते, वह आप ही भेज देंगी।
रमा॰-माना; पर सरकारी रक़म तो कल दाखिल करनी पड़ेगी।
जालपा-कल मुझसे दो सौ रुपये ले लेना, मेरे पास हैं.
रमा को विश्वास न आया। बोला-कहीं हों न तुम्हारे पास! इतने रुपये कहाँ से आये?
जालपा-तुम्हें इससे क्या मतलब, मैं तो दो सौ रुपये देने को कहती हूँ।
रमा का चेहरा खिल उठा। कुछ-कुछ आशा बँधी। दो सौ रुपये यह दे दे, दो सौ रतन से ले लूँगा, सौ रुपये मेरे पास हैं ही, तो कुल तीन सौ की कमी रह जायगी; मगर यह तीन सौ। रुपये कहाँ से आयेंगे? ऐसा कोई नज़र न आता था, जिससे इतने रुपये मिलने की आशा की जा सके। हाँ, अगर रतन सब रुपये दे दे तो बिगड़ी बात बन जाये। आशा का यही एक आधार रह गया था।
जब वह खाना खाकर लेटा, तो जालपा ने कहा-आज किस सोच में पड़े हो? रमा——सोच किस बात का? क्या मैं उदास हूँ ?
जालपा——हाँ, किसी चिन्ता में पड़े हुए हो, मगर मुझसे बताते नहीं हो।
रमा——ऐसी कोई बात होती तो तुमसे छिपाता?
जालपा——वाह, तुम अपने दिल की बात मुझसे क्यों कहोगे? ऋषियो की आज्ञा नहीं है।
रमा——मैं उन ऋषियों के भक्तों में नहीं हूँ।
जालपा——यह तो तब मालूम होता, जब मैं तुम्हारे हृदय में बैठकर देखती।
रमा——वहाँ तुम अपनघ ही प्रतिमा देखती।
रात को जालपा ने एक भयकार स्वप्न देखा, वह चिल्ला पड़ी। रमा ने चौंककर पूछा——क्या है जालपा, क्या स्वप्न देख रही हो ?
जालपा ने इधर-उधर घबड़ाई हुई आँखों से देखकर कहा——बड़े संकट में जान पड़ी थी ! न जाने कैसा सपना देख रही थी।
रमा——क्या देखा?
जालपा——क्या बताऊं, कुछ कहा नहीं जाता। देखती थी, कि तुम्हें कई सिपाही पकड़े लिये जा रहे हैं। कितना भयंकर रूप था उनका !
रमा का खून सूख गया। दो-चार दिन पहले, इस स्वप्न को उसने हंसी में उड़ा दिया होता, इस समय वह अपने को सशंकित होने से न रोक सका, पर बाहर से हँसकर बोला——तुमने सिपाहियों से पूछा नहीं, इन्हें क्यों पकड़े लिये जाते हो ?
जालपा——तुम्हें हंसी सूझ रही है, मेरा हृदय काँप रहा है।
थोड़ी देर बाद रमा ने नींद में बकना शुरू किया——अम्मा, कहे देता हूँ, फिर मेरा मुँह न देखोगी, मैं डूब मरूंगा।
जालपा को अभी तक नींद न आयी थी। भयभीत होकर उसने रमा को जोर से हिलाया और बोली—— मुझे तो हँसते थे, और खुद बकने लगे। सुनकर रोएँ खड़े हो गये। स्वप्न देखते थे क्या ?
रमा ने लज्जित होकर कहा——हाँ जी, न जाने क्या देख रहा था। कुछ याद नहीं। जालपा ने पूछा-अम्माजी को क्यों धमका रहे थे? सच बताओ, क्या देखते थे?
रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा-कुछ याद नहीं आता, यों ही बकने लगा हूँगा।
जालपा अच्छा तो करवट सोना। चित सोने से आदमी बकने लगता है।
रमा करवट लेट गया, पर ऐसा जान पड़ता था मानो चिन्ता और शंका दोनों आँखों में बैठीं निद्रा के आक्रमण से उनकी रक्षा कर रही हैं। जागते हुए दो बज गये। सहसा जालपा उठ बैठी, और सुराही से पानी उड़ेलती हुई बोली-बड़ी प्यास लगी थी, क्या तुम अभी तक जाग रही हो?
रमा-हाँ जी, नींद उचट गयी है। मैं सोच रहा था, तुम्हारे पास दो सौ रुपये कहाँ से आ गये? मुझे इसका आश्चर्य है।
जालपा-ये रुपये मैं मायके से लायी थी, कुछ विदाई में मिले थे, कुछ पहले से रखे थे।
रमा०- तब तो तुम रुपये जमा करने में बड़ी कुशल हो। यहाँ क्यों नहीं कुछ जमा किया?
जालपा ने मुसकराकर कहा-तुम्हें पाकर अब रुपये की परवा नहीं रही।
रमा०-अपने भाग्य को कोसती होगी?
जालपा-भाग्य को क्यों कोसूँ? भाग्य को वह औरतें रोएँ जिनका पति निखट्टू हो, शराबी हो, दुराचारी हो, रोगी हो, तानों से स्री को छेदता रहे, बात-बात पर बिगड़े। पुरुष मन का हो तो स्त्री उसके साथ उपवास करके भी प्रसन्न रहेगी।
रमा ने विनोद के भाव से कहा-तो मैं तुम्हारे मन का हूँ?
जालपा ने प्रेम-पूर्ण भाव से कहा-मेरी जो आशा थी, उससे तुम कहीं बढ़कर निकले। मेरी तीन सहेलियाँ हैं। एक का भी पति ऐसा नहीं। एक एम० ए० है, पर सदा रोगी! दूसरा विद्वान् भी है और धनी भी, पर वेश्यागामी। तीसरा घरघुस्सू है और बिलकुल निखट्टू।
रमा का हृदय गदगद हो उठा। ऐसी प्रेम की मूर्ति और दया की देवी
के साथ उसने कितना बड़ा विश्वासघात किया। इतना दुराव रम्न ने पर भी जब इसे मुझसे इतना प्रेम है,तो मैं अगर निष्कपट होकर रहता तो सेरा जीवन कितना आनन्दमय होता !
१८
प्रातःकाल रमा ने रतन के पास अपना आदमी भेजा। खत में लिखा, मुझे बड़ा खेद है कि कल जालपा ने आपके साथ ऐसा व्यवहार किया, जो उसे न करना चाहिए था। मेरा विचार यह कदापि न था कि रुपये आपको लौटा हूँ, मैने सराफ की ताकीद करने के लिए उससे रुपये ले लिये थे। कंगन दो-चार रोज में अवश्य मिल जायेंगे। नाप रुपये भेज दें। उस थैली में दो सौ रुपये मेरे भा थे। वह भी भेजिएगा। अपने सम्मान की रक्षा करते हुए जितनी विनम्रता जरासे हो सकती थी, उसमें कोई कसर नहीं रखी। जब तक आदमी लौटकर न पाया, वह बड़ी व्यग्नता से उसकी राह देखता रहा। कभी सोचता कहीं बहाना कर दे, या घर पर मिले ही नहीं, या दो-चार दिन के वाद देने का वादा करे। सारा दारोमदार रतन के रूपये पर था। अगर रतन ने साफ जवान दे दिया, तो फिर सर्वनाश ! उसकी कल्पना से ही रमा के प्राण सूखे जा रहे थे। आखिर नौ बजे आदमी लौटा। रतन ने दो सौ रुपये तो दिये थे, मगर खत का कोई जवाब न दिया था।
रमा ने निराश आँखों से आकाश की ओर देखा। सोचने लगा, रतन ने खत का जबाव क्यों नहीं दिया ? क्या मामूली शिष्टाचार भी नहीं जानती ? कितनी मनकार औरत है ! रात को ऐसा मालूम होता था कि साधता और सज्जनता की प्रतिमा ही है, पर दिल में यह गुबार भरा हुमा था! शेप रुपयों को चिन्ता में रमा को नहाने-खाने की सुध न रही।
कहार अन्दर गया तो जालपा ने पूछा- तुम्हें कुछ काम-धन्धे की भी खबर है, कि मटरगश्ती ही वारते रहोगे ? इस इज रहे हैं, और अभी तक तरकारी-भाजी का नहीं पता नहीं।
कहार ने त्योरिया बदल कर कहा-तो का चार हाथ-गोड़ कर लेई, कामे से तो गया महिन! बाबु मेम साहब के तीन रुपया लेव का भेजिन रहा।
जालपा- कौन मेम साहब?
कहार- जौन मोटर पर चढ़कर आवत हैं। जालपा -- तो लाये रुपये? कहार -- लाये काहे नहीं। पिरयी के छोर पर तो रहत है, दौरत-दौरत गोड़ पिराय लाग! जालपा -- अच्छा, चटपट जाकर तरकारी लाओ।
कहार तो उधर गया। रमा रुपये लिये हुए अन्दर पहुँचा तो जालपा ने कहा -- तुमने अपने रूपये रतन के पास से मँगवा लिये न? अब तो मुझसे न लोगे।
रमा ने उदासीन भाव से कहा -- मत दो।
जालपा -- मैंने तो कह दिया था, रुपये दे दूँगी। तुम्हें इतनी जल्दी माँगने की क्यों सूझी? समझी होगी, इन्हें मेरा इतना विश्वास भी नहीं।
रमा ने हताश होकर कहा -- मैंने रुपये नहीं माँगे थे। केवल इतना लिख दिया था कि थैला में दो सौ रूपये ज्यादा है। उसने आप ही आप भेज दिये।
जलपा ने हँसकर कहा -- मेरे रुपये बड़े भाग्यवान है, दिखाऊँ? चुन-चुनकर नये रुपये रखे हैं। सब इसी साल के हैं,चमाचम! देखो तो आँखें ठण्डा हो जायें!
इतने में किसी ने नीचे से आवाज दी -- बाबूजी, सेठ ने रुपये के लिए भेजा है।
दयानाथ स्नान करके अन्दर आ रहे थे, सेठ के प्यादे को देखकर पूछा -- कौन सेठ, कैसे रुपये? मेरे यहाँ किसी के रुपये नहीं आते ?
प्यादा -- छोटे बाबू ने कुछ माल लिया था। साल भर हो गये, अभी तक एक पैसा नहीं दिया। सेठजी ने कहा है, बात बिगड़ने पर रुपये दिये तो क्या दिये। आज कुछ जरूर दिलवा दीजिए।
दयानाथ ने रमा को पुकारा और बोले -- देखो, किसी सेठ का आदमी आया है? उसका कुछ हिसाब बाकी है, पैसे क्यों नहीं कर देते? कितना बाकी है इसका?
रमा कुछ जवाब न देने पाया था, कि प्यादा बोल उठा -- पूरे सात सौ हैं बाबू जी!
दयानाथ को आँखे फैलकर मस्तक तक पहुँच गयीं -- सात सौ! क्यों जी, यह तो सात सौ कहता है! रमा ने टालने के इरादे से कहा -- मुझे ठीक मालूम नहीं।
प्यादा -- मालूम क्यों नहीं, पुरजा मेरे पास है। तब से कुछ दिया ही नहीं, कम कहाँ से हो गये?
रमा ने प्यादे को पुकार कर कहा -- चलो तुम दूकान पर, मैं खुद आता हूँ।
प्यादा -- हम बिना कुछ लिये न जायेंगे साहब। आप यों ही टाल दिया करते हैं, और बातें हमको सुननी पड़ती है।
रमा सारी दुनिया के सामने ज़लील बन सकता था, किन्तु पिता के सामने ज़लील बनना उसके लिए मौत से कम न था। जिस आदमी ने अपने जीवन में कभी हराम का एक पैसा न छुआ हो, जिसे किसी से उधार लेकर भोजन करने के बदले भूखों रहना मंजूर हो, उसका लड़का इतना बेशर्म और बेग़ैरत हो! रमा, पिता की आत्मा का यह घोर अपमान न कर सकता था। वह उन पर यह बात प्रकट न होने देना चाहता था कि उनका पुत्र उनके नाम को बट्टा लगा रहा है। कर्कश स्वर में प्यादे से बोला -- तुम अभी यहीं खड़े हो? हट जाओ, नहीं धक्के देकर निकाल दिये जाओगे।
प्यादा -- हमारे रुपये दिलाइए, हम चले जायें। हमें क्या आपके द्वार पर मिठाई मिलती है?
रमा ०-- तुम न जाओगे? जाओ लाला से कह देना नालिश कर दें।
दयानाथ ने डाँटकर कहा -- क्यों बेशर्मी की बात करते हो जी। जब गिरह में रुपये न थे, तो चीज़ लाये ही क्यों? और जब लाये, तो जैसे बने वैसे रुपये अदा करो। कह दिया, नालिश कर दो। नालिश कर देगा तो कितनी आबरू रह जायेगी? इसका भी कुछ ख्याल है? सारे शहर में उँगलियाँ उठेगी; मगर तुम्हें इसकी क्या परवा! तुमको यह सूझी क्या, कि एकबारगी इतनी बड़ी गठरी सिर पर लाद ली ? कोई शादी व्याह का अवसर होता, तो एक बात भी थी और वह औरत कैसी है जो पति को बेहूदगी करते देखती है और मना नहीं करती। आखिर तुमने क्या सोचकर कर्ज लिया? तुम्हारी ऐसी कुछ बड़ी आमदनी नहीं है।
रमा को पिता की यह डाँट बहुत बुरी लग रही थी। उसके विचार में पिता को इस विषय में कुछ बोलने का अधिकार ही न था। निःसंकोच होकर
बोला——आप नाहक इतना बिगड़ रहे हैं, आपसे रुपये माँगने जाऊँ तो कहिएगा। मैं अपने वेतन से थोड़ा-थोड़ा करके सब चुका दूँगा!
अपने मन में उसने कहा——यह तो आपकी ही करनी का फल है! आप ही के पाप का प्रायश्चित कर रहा हूँ।
प्यादे ने पिता और पुत्र में वाद-विवाद होते देखा तो चुपके से अपनी राह ली। मुंशीजी भुनभुनाते हुए स्नान करने चले गये। रमा ऊपर गया तो उसके मुख पर लज्जा-ग्लानि की फटकार बरस रही थी। जिस अपमान से बचने के लिये डाल-डाल; पात-पात भागता फिरता था, वह हो ही गया। इस अपमान के सामने सरकारी रुपयो की फ़िक्र भी गायब हो गयी। कर्ज लेने बाले बला के हिम्मती होते हैं। साधारण बुद्धिवाला ऐसी परिस्थितियों में पड़कर घबड़ा उठता है; पर बैठकबाजों के माथे पर बल नहीं पड़ता। रमा अभी इस कला में दक्ष नहीं हुआ था। इस समय यदि यमदूत उसके प्राण हरने आता तो वह आँखों से दौड़ कर उनका स्वागत करता है कैसे क्या होगा, यह शब्द उसके एक-एक रोम से निकल रहा था! कैसे क्या होगा? इससे अधिक वह इस समस्या की और व्याख्या न कर सकता था। यही प्रश्न एक सर्वव्यापी पिशाच की भांति उसे घूरता दिखायी देता था, कैसे क्या होगा! ये ही शब्द अगणित बगूलों की भाँति चारों ओर उठते नजर आते थे। वह इस पर विचार न कर सकता था। केवल उसकी ओर से आँखें न बन्द कर सकता था। उसका चित्त इतना खिन्न हुआ, कि आँखें सजल हो गयीं।
जालपा ने पूछा-तुमने तो कहा था, इसके अब थोड़े ही रुपये बाकी हैं।
रमा ने सिर झुकाकर कहा- वह दुष्ट झूठ बोल रहा था. मैंने रुपये दिये हैं।
जालपा——दिये होते, तो कोई रुपये का तकाजा. क्यों करता? जब तुम्हारी आमदनी इतनी कम थी तो गहने लिये ही क्यों? मैंने तो कभी जिद न की थी और मान लो, मैं दो-चार बार कहती भी, तो तुम्हें समझ बूझकर काम करना चाहिए था। अपने साथ मुझे भी चार बातें सुनवा दीं। आदमी सारी दुनिया से परदा रखता है लेकिन अपनी स्त्री से परदा नहीं रखता। तुम मुझसे परदा रखते हो। अगर मैं जानती, तुम्हारी आमदनी इतनी थोड़ी
है, तो मुझे क्या ऐसा शौक चर्राया था कि मुहल्ले भर की स्त्रियों को ताँगे पर बैठा-बैठा कर सैर कराने ले जाती। अधिक-से-अधिक यही तो होता कि कभी-कभी चित्त दुखी हो जाता; पर यह तक़ाज़े तो न सहने पड़ते। कहीं नालिश कर दे तो सात सौ का एक हजार हो जाये। मैं क्या जानती थी कि तुम मुझसे यह छल कर रहे हो; कोई वेश्या तो थी नहीं, कि तुम्हें नोच-खसोटकर अपना घर भरना मेरा काम होता। मैं तो भले-बुरे दोनों ही की साथिन हूँ। भूले में तुम चाहे मेरी बात मत पूछो, लेकिन बुरे में तो मैं तुम्हारे गले पड़ूँगी ही।
रमा के मुख से एक शब्द न निकाला। दस्तर का समय आ गया था। भोजन करने का अवकाश न था। रमा ने कपड़े पहने, और दफ़्तर चला।
रामेश्वरी ने कहा-क्या बिना भोजन किये ही चले जाओगे?
रमा ने इसका कोई जबाव न दिया, और घर से निकला ही चाहता था कि जालपा भपटकर आई और उसे पुकारकर बोली-मेरे पास जो दो सौ रुपये हैं, उन्हें क्यों नहीं सराफ को दे देते?
रमा ने चलते वक्त जान-बूझकर जालपा से रुपये न मांगे थे। वह जानता था, जालपा माँगते ही दे देगी; लेकिन इतनी बातें सुनने के बाद अब रुपये के लिये उसके सामने हाथ फैलाते उसे संकोच ही नहीं, भय होता था। कहीं वह फिर न उपदेश देने बैठ जाये-इसकी अपेक्षा आनेवाली विपत्तियाँ कहीं हलकी थी; मगर जालपा ने पुकारा तो कुछ आशा बँधी। ठिठक गया और बोला-अच्छी बात है, लाओ दे दो।
वह बाहर के कमरे में बैठ गया। जालपा दौड़कर ऊपर से रुपये लायी और गिन-गिनकर उनको थैली में डाल दिये। उसने समझा था, रमा रुपये पाकर फूला न समायेगा; पर उसकी आशा पूरी न हुई। अभी तीन सौ रुपये को फ़िक्र करनी थी। वह कहाँ से आयेंगे? भूखा आदमी इच्छा पूर्ण भोजन चाहता है, दो चार फुलकों से उसको तुष्टि नहीं होती।
सड़क पर आकर रमा ने एक ताँगा किया और उससे जार्ज-टाउन चलने को कहा-शायद रतन से भेंट हो जाये। वह चाहे वो तीन सौ रुपये का बड़ी आसानी से प्रबन्ध कर सकती है। रास्ते में वह सोचता जाता था, आज बिलकुल संकोच न करूँगा। जरा देर में जार्ज-टाउन आ गया।
रतन का बँगला भी आया। वह बरामदे में बैठी थी। रमा ने उसे देखकर हाथ उठाया। उसने भी हाथ उठाया। पर वहाँ उसका सारा संयम टूट गया। वह बंगले में न जा सका, ताँगा सामने से निकल गया। रतन बुलाती तो वह चला जाता। वह बरामदे में न बैठी होती तब भी शायद वह अन्दर जाता; पर उसे सामने बैठे देखकर वह संकोच में डूब गया।
जब ताँगा गवर्नमेंट हाउस के पास पहुंचा, तो रमा ने चौंककर कहा-चलो चुंगी के दफ्त़र। टाँगे वाले ने घोड़ा फेर दिया।
ग्यारह बजते-बजते रमा दफ्तर पहुँचा। उसका चेहरा उतरा हुआ था। छाती धड़क रही थी। बड़े बाबू ने जरूर पूछा होगा। जाते ही बुलायेंगे। दफ़्तर में जरा भी रियायत नहीं करते। टाँगे से उतरते ही उसने पहले अपने कमरे की तरफ निगाह डाली। देखा, कई आदमी खड़े उसकी राह देख रहे हैं। वह उधर न जाकर रमेश बाबू की ओर गया।
रमेश बाबू ने पूछा——तुम अब तक कहाँ थे जो, खजांची साहब तुम्हें खोजते फिरते हैं। चपरासी मिला था? रमा ने अटकते हुए कहा——मैं घर पर न था। जरा वकील साहब की तरफ चला गया था। एक बड़ी मुसीबत में फँस गया हूँ।
रमेश——कैसी मुसीबत, घर पर तो कुशल है? रमा——जी हाँ, घर पर तो कुशल है। कल शाम को यहाँ का काम बहुत था, मैं उसमें ऐसा फँसा कि वक्त की कुछ खबर ही नहीं। जब काम खत्म करके उठा तो खजांची साहब चले गये थे। मेरे पास आमदनी के आठ सौ रुपये थे। सोचने लगा कहाँ रखूँ। मेरे कमरे में तो कोई सन्दूक है नहीं। यही निश्चय किया साथ लेता जाऊँ। पाँच सौ रुपये नकद थे, वह तो मैंने थैली में रखे, तीन सौ रुपये के नोट जेब में रख लिये और घर चला। चौक में दो एक चीजें लेनी थी। उधर से होता गया घर पहुंचा तो नोट गायब थे।
रमेश बाबू ने आँखें फाड़कर कहा——तीन सौ के नोट गायब हो गये?
रमा——जी हाँ, कोट के ऊपर की जेब में थे। किसी ने निकाल लिये।
रमेश——और तुमको मार कर थैली नहीं छीन ली?
रमा——क्या बताऊँ बाबूजी, तब से चित्त की जो दशा हो रही है, वह
बयान नहीं कर सकता। तब से अब तक यानी इसी फ़िक्र में दौड़ रहा हूँ। कोई बन्दोबस्त न हो सका।
रमेश——अपने पिता से तो तुमने कहा ही न होगा? रमा०——उनका स्वभाव तो आप जानते हैं। रुपये तो न देते, उलटी डाँट सुनाते।
रमेश-तो फिर क्या फ्रिक करोगे? रमा०-आज शाम तक कोई-न-कोई फिक्र करूँगा ही।
रमेश ने कठोर भाव धारण कर कहा-तो फिर करो न ! इतनी लापरवाही तुमसे कैसे हुई, यह मेरी समझ में नहीं आता। मेरी जेब से तो आज तक एक पैसा न गिरा। आँखें बन्द करके रास्ते में चलते हो या नशे में थे ! मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं आता। सच-सच बतला दो, कहीं अनापशनाप तो नहीं खर्च कर डाले? उस दिन तुमने मुझसे क्यों रुपये मांगे थे?
रमा का चेहरा पीला पड़ गया। कहीं कलई न खुल जाये। बात बनाकर बोला——क्या सरकारी रुपये खर्च कर डालूंगा। उस दिन तो आपसे रुपये इसलिए मांगे थे, कि बाबूजी को एक जरूरत आ पड़ी थी। घर में रुपये न थे। आपका खत मैंने उन्हें सुना दिया था। बहुत हँसे, दूसरा इन्तजाम कर लिया। इन नोटों के गायब होने का तो मझे खुद ही आश्चर्य है।
रमेश——तुम्हें अपने पिता जी से मांगते संकोच होता हो तो मैं खत लिखकर मंगवा लूँ?
रमा ने कानों पर हाथ रखकर कहा—— नहीं बाबूजी, ईश्वर के लिए ऐसा न कीजिएगा। ऐसी ही इच्छा हो, तो मुझे गोली मार दीजिए।
रमेश ने एक क्षण तक कुछ सोचकर कहा——तुम्हें विश्वास है, शाम तक रुपये मिल जायेंगे?
रमा——हाँ, आशा तो है !
रमेश——तो इस थैली के रुपये जमा कर दो, मगर देखो भाई, साफ साफ कहे देता हूँ, अगर कल दस बजे रुपये न लाये तो मेरा दोष नहीं। कायदा तो यही कहता है कि मैं इसी वक्त तुम्हें पुलिस के हवाले करूँ मगर तुम अभी लड़के हो, इसलिये क्षमा करता हूँ! वरना तुम्हें मालूम है, मैं सरकारी काम में किसी प्रकार को मुखेवत नहीं करता। अगर तुम्हारी जगह