ग़बन/ भाग 4

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ग़बन  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ८५ ]रुपये के मामले में पुरुष महिलाओं के सामने कुछ नहीं कह सकता। क्या वह कह सकता है, इस वक्त मेरे पास रुपये नहीं हैं ? वह भर जायेगा पर यह उज्ज़ न करेगा। यह कर्ज लेगा, दूसरों की खुशासद करेगा; पर स्त्री के सामने अपनी मजबूरी न दिखायेगा। रुपये की चर्चा को ही वह तुच्छ समझता है। जालपा पति की आर्थिक दशा अच्छी तरह जानती थी, पर यदि रमा ने इस समय कोई बहाना कर दिया होता, उसे बहुत बुरा मालूम होता। वह मन में डर रही थी कि कहीं यह महाशय यह न कह बैठे, सराफ़ से पूंछकर कहूँगा। उसका दिल धड़क रहा था। पर जब रमा ने वीरता के साथ कहा——हाँ-हाँ रुपये की कोई बात नहीं, जब चाहे दे दीजियेगा, सो वह खुश हो गयी।

रतन——तो कब तक आशा करू ?

रमा—— मैं आज ही सराफ़ से कह दूँगा, तब भी पन्द्रह दिन तो लग ही जायेंगे।

जालपा——अबकी रविवार को मेरे हो घर पर चाय पीजिएगा।

रतम ने निमन्त्रण सहर्ष स्वीकार किया और दोनों आदमी बिदा हुए। घर पहुँचे तो शाम हो गयी। रमेश बाबू बैठे हुए थे। जालपा तो तांगे से उतर कर अन्दर चली गयी, रमा रमेश बाबू के पास जाकर बोला——क्या आपको आये देर हुई ?

रमेश——नहीं, अभी तो चला आ रहा हूँ। क्या वकील साहब के यहाँ गये थे?

रमा०——जी हाँ, तीन रुपये की चपत पड़ गयी।

रमेश०——कोई हरज नहीं, यह रुपये वसूल हो जायेंगे। बड़े आदमियों से राह-रस्म हो जाये तो बुरा नहीं है, बड़े-बड़े काम निकलते है एक दिन उन लोगों को भी तो बुलाओ।

रमा०——अब की इतवार को चाय की दावत दे आया हूँ।

रमेश०——कहो तो मैं भी आऊँ ! जानते हो न वकील साहब के एक भाई इज्जीनियर है ? मेरे एक साले बहुत दिनों से बेकार बैठे हैं। अगर वकील साहब उनकी सिफारिश कर दें, तो गरीब को जगह मिल जाये। तुम जरा मेरा इन्द्रोडक्शन करा देना, बाकी और सब मैं कर लूँगा। पार्टी का इंतजाम [ ८६ ]

ईश्वर मे चाहा, तो ऐसा होगा कि मेम साहब खुश हो जायेंगी ! चाय की सेट, शीशे के रंगीन गुलदान और फानूस में ला दूँगा। कुर्सीया, मेजें सब मेरे ऊपर छोड़ दो। न कुली की जरूरत न मजूर की। उन्हीं मूझलचंद को रगेदूंगा।

रमा०——तब तो बड़ा मजा रहेगा। मैं तो बड़ी चिन्ता में पढ़ा हुआ था।

रमेश०——चिन्ता की कोई बात नहीं; उसी लौंडे को जोत दूँगा। कहूँगा, जगह चाहते हो, तो कारगुजारी दिखाओ। फिर देखना, कैसी दौड़-धूप करता है!

रमा०——अभी दो-तीन महीने हुए आप अपने साले को कहीं नौकर रखा चुके हैं न?

रमेश——अजी, अभी छ: और बाकी है। पूरे सात जीव है ! जरा बैठ जाओ, जरूरी चीजों की सूची बना ली जाये। आज ही से दौड़-धूप, होगी, तब सब चीजें जुटा सकूँगा। और कितने मेहमान होंगे?

रमा०—— मेम साहब होंगी, और शायद वकील साहब भी आयें।

रमेश——यह बहुत आच्छा किया। बहुत से आदमी हो जाता। तो भम्भड़ हो जाता। हमें तो मेम साहब से काम है। टलुओं की खुशामद करने से क्या फायदा?

दोनों आदमियों ने सुची तैयार की। रमेश बाबू ने दूसरे ही दिन से सामान जमा करना शुरू किया। उनको पहुँच अच्छे-अच्छे घरों में थी। सजावट की अच्छी अच्छी चीजें बटोर लाये। सारा घर जगमगा उठा। दयानाथ भी इन तैयारियों में शरीक थे। चीजों को करीने से सजाना उनका काम था। कौन गमला कहाँ रखा जाये, कौन तस्वीर कहाँ लटकाई जाये, कौन-सा गलीचा कहाँ बिछाया जाये, इन प्रश्नों पर तीनों मनुष्यों में घंटों वाद-विवाद होता था। दफ्तर जाने के पहले और दफ्तर से आने के बाद तीनों इन्हीं कामों में जुट जाते थे। एक दिन इस बात पर बहस छिड़ गई कि कमरे में माईना कहाँ रखा जाये। दयानाथ कहते थे, इस कमरे में पाईने की जरूरत नहीं। आईना पीछे वाले कमरे में रखना चाहिए।रमेश इसका विरोध कर रहे थे। रमा दुविधे में चुपचाप खड़ा था। न इनकी-सी कह सकता था, न उनकी-सी।

दया०——मैंने सैकड़ों अंगरेजों के ड्राइंग-रूम देखे हैं, कहीं आईना नहीं
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देखा। आईना श्रृङ्गार के कमरे में रहना चाहिए। यहाँ आईना रखना बेतुकी-सी बात है।

रमेश०-मुझे सैकड़ों अंगरेजों के कमरों को देखने का अवसर तो नहीं मिला है; लेकिन दो-चार जरूर देखे हैं और उनमें आईना लगा हुआ देखा। फिर क्या यह जरूरी बात है कि इन ज़रा-ज़रा सी बातों में भी हम अंगरेज़ों की नकल करें? हम अंगरेज़ नहीं हिन्दुस्तानी है। हिन्दुस्तानी रईसों के कमरे में बड़े-बड़े आदमक़द आईने रखे जाते हैं। यह तो आपने हमारे बिगड़े हुए बाबुओं की-सी बात कही, जो पहनाने में, कमरे की सजावट में, बोली में, चाय और शराब में, चीनी की प्यालियों में-ग़रज़ दिखावे की सभी बातों में तो अंगरेज़ो को मुँह चिढ़ाते हैं; लेकिन जिन बातों ने अंगरेज़ों को अंगरेज़ बना दिया है। और जिनकी बदौलत वे दुनिया पर राज्य करते हैं, उनकी हवा तक नहीं छू जाती है। क्या आपको भी बुढ़ापे में अंगरेज़ बनने का शौक चर्राया है?

दयानाथ अगरेज़ों की नकल को बहुत बुरा समझते थे। वह चाय पार्टी भी उन्हें बुरी मालूम हो रही थी। अगर कुछ सन्तोष था, तो यही कि दो-चार बड़े आदमियों से परिचय हो जायेगा। उन्होंने अपनी जिन्दगी में कभी कोट नहीं पहना था। चाय पीते थे; मगर चीनी के सेट की कैद न थी। कटोरा-कटोरी, गिलास, लोटा, तसला, किसी से भी उन्हें आपत्ति न थी; लेकिन इस वक्त उन्हें अपना पक्ष निभाने को पड़ी थी। बोले-हिन्दुस्तानी रईसों के कमरे में मेज कुर्सियाँ नहीं होतीं। फर्श होता है। आपने कुर्सी-मेज लगाकर इसे अंगरेज़ी ढंग पर तो बना दिया; अब आईने के लिए हिन्दुस्तानियों को मिसाल दे रहे हैं। या तो हिन्दुस्तानी रखिए या अंगरेज़ी। यह क्या कि आधा तीतर आधा बटेर! कोट-पतलून पर चौग़ोतिया टोपी तो नहीं अच्छी मालूम होती!

रमेश बाबू ने समझा था कि दयानाथ की जबान बन्द हो जायेगी; लेकिन यह जवाब सुना तो चकराये। मैदान हाथ से जाता हुआ दिखाई दिया। बोले-तो आपने किसी अंगरेज़ के कमरे में आईना नहीं देखा? भला ऐसे दस-पाँच अंगरेजों के नाम तो बतलाइए? एक आपका वही किरंटा हेड क्लर्क है, उसके सिवा और किसी अंगरेज़ के कमरे में तो शायद
[ ८८ ]आपापने कदम भी न रखा हो। उसी किरंटे को मापने अंगरेजो रुचि का आदर्श समझ लिया ? मानता हूँ।

दया०——यह तो आपकी जबान है, उसे किरंटा, अमरेशियन, पिलपिली जो चाहे कहें, लेकिन रंग को छोड़कर वह किसी बात में अँगरेजों से कम नहीं। और उसके पहले तो योरोपियन था।

रमेश इसका कोई जवाब सोच हो रहे थे कि एक मोटरकार द्वार पर आकर रुको, और रतनबाई उतरकर बरामदे में आयीं। तीनों आदमी चटपट बाहर निकल आये। रमा को इस वक्त रतन का आना बुरा मालूम हुआ। डर रहा था, कि कहीं कमरे में भी न चली आयें, नहीं तो सारी कलई खुल जायेगी। भागे बढ़कर हाथ मिलाता हुआ बोला——माइए, यह मेरे पिता है, वह मेरे दोस्त रमेश बाबू है। लेकिन उन दोनों सज्जनों ने न हाथ बढ़ाया और न जगह से हिले। सकपकाये से खड़े रहे। रतन ने भी उनसे हाथ मिलाने की जरूरत न समझी। दूर हो से उनको नमस्कार करके रमा से बोलो——नहीं बढ़ंगो नहीं। इस वक्त फुरसत नहीं है। आपसे कुछ कहना था।

यह कहते हुए रमा के साथ मोटर तक आयो और आहिस्ता से बोली-आपने सराफ़ से कह लो दिया होगा?

रमा ने निःसंकोच होकर कहा——जी हाँ, बना रहा है।

रतन——उस दिन मैंने कहा था, अभी रुपये न दे सकूँगी; पर मैंने समझा शायद आपको कष्ट हो इसलिए रुपये मंगदा लिये। पाठ सौ चाहिए न?

जालपा ने कंगन का दाम आठ सौ बताया था। रमा चाहता तो इतने रुपये ले सकता था; पर रतन की सरलता और विश्वास ने उसके हाथ पकड़ लिये। ऐसी उदार निष्कपट रमणी के साथ वह विश्वासथात न कर सका। वह व्यापारियों से दो-दो, चार-चार आने लेते जरा भी न झिककता था। वह जानता था कि वे सब भी ग्राहकों को उलटे छूरे से मूड़ते हैं। ऐसों के साथ ऐसा व्यवहार करते हुए उसको प्रात्मा को लेशमात्र भी संकोच न होता था; लेकिन इस देवी के साथ यह कपट व्यवहार करने के लिये किसी पुराने पापी की जरूरत थी। कुछ सकुचाता हुआ बोला-क्या जालपा ने कंगन के दाम पाठ सौ बतलाये थे ? उन्हें शायद याद न रही। होगी। उसके कंगन छः सौ के हैं। आप चाहें, तो पाठ सौ का बनवा दूं
[ ८९ ] रतन——नहीं, मुझे तो बही पसन्द है। आप छ: सौ का बनवाइए।

उसने मोटर पर से अपनी शैली उठाकर सौ-सौ रुपये के छः नोट निकाले। रमा ने कहा——ऐसी जल्दी क्या थी, चीज तैयार हो जाती, तब हिसान हो जाता।

रतन——मेरे पास रुपये खर्च हो जाते। इसलिए मैंने सोचा, आपके सिर पर लाद पाऊँ। मेरी आदत है कि जो काम करती हुँ,जल्द-से-जल्द कर डालती है। बिलम्ब से मुझे उलझन होती है।

यह कहकर वह मोटर पर बैठ गयी मोटर हवा हो गयी। रमा संदूक में रुपये रखने के लिए अन्दर चला गया, तो दोनों वृद्धजनों में बातें होने लगीं।

रमेश०——देखा ?

दया०——जी हाँ, आँखें खुली हुई थीं। अब मेरे घर में भी हना प्रा रही है। ईश्वर ही बचाये।

रमेश——बात तो ऐसी ही है; पर आजकल ऐसी ही औरतों का काम है। जरूरत पड़े, तो कुछ मदद तो कर सकती है। बीमार पड़ जाओ तो डाक्टर को बुला सकती हैं, यहाँ तो चाहे हम मर जायें, तब भी क्या मजाल कि स्त्री घर से गहर पौर निकाले। दया०-हमसे तो भाई यह भ्रंगरेजियत नहीं देखी जाती। क्या करें सन्तान की ममता है, नहीं तो यही जो चाहता है कि रमा से साफ कह दूँ, भैया अपना घर अलग लेकर रहो। आँख फूटी, पीर गयी। मुझे तो उन मर्दो पर क्रोध आता है, जो स्त्रियों को सिर चढ़ाते हैं। देख लेना, एक दिन यह औरत वकील साहब को दना देगी।

रमेश०——महाशय, इस बात में मैं तुमसे सहमत नहीं। यह क्यों मान लेते हो कि जो पोरत बाहर पाती जाती है, वह जरूर बिगड़ी हुई है ? मगर वह रमा को मानती बहुत है। रुपये न जाने किस लिये दिये ?

दया०——मुझे तो इसमें कुछ गोल-माल मालूम होता है। रमा कहीं उससे कोई चाल न चल रहा हो ?

इसी समय रमा भीतर से निकला का रहा था। अन्तिम वाक्य उसके कान में पड़ गया | मौहें चढ़ाकर बोला—— जी हाँ, जरूर चाल चल रहा हूँ। उसे धोखा देकर रुपया ऐंठ रहा है। यही तो मेरा पेशा है ! [ ९० ] दयानाथ ने झेंपते हुए कहा-तो इतना बिगड़ते क्यों हो, मैंने तो कोई ऐसी बात नहीं कही?

रमा०——पक्का जालिया बना दिया, और क्या कहते ? आपके दिल में ऐसा शुबहा क्यों आया ? आपने मुझमें कौन-सी बात देखी जिससे आपको यह खयाल पैदा हुआ? मैं जरा साफ़-सुथरे कपड़े पहनता हूँ, जरा नयी प्रथा के अनुसार चलता है, इसके सिवा आपने मुझमें कौन-सी बुराई देखी ? मैं जो कुछ खर्च करता हूँ, ईमानदारी से कमाकर खर्च करता हूँ। जिस दिन धोखे और फरेब की नौरत आयेगी जहर खाकर प्रारण दे दूंगा। हाँ, यह बात है कि किसी को खर्च करने की तमीज होती है, किसी को नहीं होती। यह अपनी सुबुद्धि है। अगर इसे आप धोखेबाजी समझे, तो आपको अख्तियार है। जब आपकी तरफ से मेरे विषय में ऐसे संशय होने लगे, तो मेरे लिए यही अच्छा है कि मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊँ। रमेश बाबू यहाँ मौजूद हैं। आप इनसे मेरे विषय में जो कुछ चाहें, पूछ सकते है। यह मेरे खातिर झूठ न बोलेंगे।

सत्य के रंग में रंगी हुई बातों ने दयानाथ को आश्वस्त कर दिया। बोले——जिस दिन मुझे मालूम हो जायेगा कि तुमने यह ढंग अख्तियार किया है तुम्हारे पहले मैं मुंह में कालिख लगाकर निकल जाऊँगा। तुम्हारा बढ़ता हुमा खर्च देखकर मेरे मन में सन्देह हुआ था, मैं इसे छिपाता नहीं है लेकिन जब तुम कह रहे हो, तुम्हारी नीयत साफ़ है, तो मैं सन्तुष्ट हूँ। मैं केवल इतना ही चाहता हूँ, मेरा लड़का चाहे गरीब रहे पर नीयत न बिगड़े। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह तुम्हें सत्पथ पर रखे।

रमेश ने मुसकराकर कहा——अच्छा, यह किस्सा तो हो चुका; अब यह बत्ताओ उसने तुम्हें रुपए किस लिए दिये? मैं गिन रहा था, छः नोट थे, शायद सौ-सौ के थे।

रमा०——ठग लाया हूँ।

रमेश——मुझसे शरारत करोगे, तो मार बैलूंगा ! अगर जट हो लाये हो, तो भी मैं तुम्हारी पीठ झोकूगा, जीते रहो। खूब जटो; लेकिन श्रावस पर पाँच न आने पाये। किसी को कानोंकान खबर न हो। ईश्वर से तो मैं डरता नहीं। वह जो कुछ पूछेगा, उसका जवाब, मैं दे लूंगा; मगर
[ ९१ ]

आदमी से डरता हूँ। बताओ, किस लिए रुपये दिये ? कुछ दलाली मिलने वाली हो तो मुझे भी शरीक कर लेना।

रमा०——जड़ाऊ कंगन बनवाने को कह गयी है।

रमेश०-तो चलो मैं एक अच्छे सराफ से बनवा दूँ। यह झंझट तुमने पुरा मोल लिया। औरत का स्वभाव तुम जानते नहीं। किसी पर विश्वास तो इन्हें होता ही नहीं। तुम चाहे दो-चार रुपये अपने पास ही से खर्च कर दो पर वह यही समझेगी कि मुझे लूट लिया। नेकनानी तो शायद ही मिले, हाँ, बदनामी तैयार खड़ी है।

जरा देर बाद रमा अन्दर जाकर जालपा से बोला——अभी तुम्हारी सहेली रतन आयी थीं।

जालपा——सच! तब तो बड़ा गड़बड़ हुआ होगा ? यहाँ कुछ तैयारी तो थी ही नहीं।

रमा०——कुशल यही हुई कि कमरे में नहीं आयी। कंगन के रुपये देने आयी थी। तुमने शायद आठ सौ रुपये बताये थे। मैंने छ: सौ ले लिये।

जालपा ने कंपते हुए कहा——मैने गलती की थी।

जालपा ने इस तरह अपनी सफाई तो दे दी, लेकिन बहुत देर तक उसके मन में उथल-पुथल होती रही। रमा ने अगर आठ सौ रुपये ले लिये होते, तो शायद यह उथल-पुथल न होती। वह अपनी सफलता पर खुश होती; पर रमा के विवेक ने उसकी धर्म-बुद्धि को जगा दिया था। वह पछता रही थी कि मैं व्यर्थ भूठ बोली ! यह मुझे अपने मन में कितना नीच समझ रहे होंगे। रतन भी मुझे कितनी बेईमान समझ रही होगी।

१६

चाय-पार्टी में कोई विशेष बात नहीं हुई। रतन के साथ उसकी एक नाते की बहन और थी। वकील साहब न आये थे। दयानाथ ने उतनी देर के लिए घर से चल जाना ही उचित समझा। हाँ, रमेश बाबू वरामदे में बराबर खड़े रहे। रमा ने कई बार चाहा कि उन्हें भी पार्टी में शरीक कर लें, पर रमेश में इतना साहस न था।

जालपा ने दोनों मेहमानों को अपनी सास से मिलाया। ये युवतियाँ उन्हें कुछ ऐसी जान पड़ीं। उनका सारा घर में दौड़ना, धम-धम् करके कोठे
[ ९२ ]पर जाना, छत पर इधर-उधर उचकना, खिलखिलाकर हंसना उन्हें हुड़दंगपन मालूम होता था। उनकी नीति में बहु-बेटियों को भारी और लज्जा-शील होना चाहिए। आश्चर्य यह था कि आज जालपा भी उन्हीं में मिल गयी थी। रतन ने आज कंगन की चर्चा तक न की।

अभी तक रमा को पार्टी की तैयारियों से इतनी फुर्सत नहीं मिली थी कि गंगू की दुकान तक जाता। उसने समझा था, गंगू को छ: सौ रुपये दे दूंगा तो पिछले हिसाब में जमा हो जायेंगे। केवल ढाई सौ रुपये और रह जायेंगे। इस नये हिसाब में छ: सौ और मिलाकर फिर साढ़े आठ सौ रुपये रह जायेंगे। इस तरह उसे अपनी साख जमाने का सुअवसर मिल जायेगा।

दूसरे दिन रमा खुश होता हुआ गंगू की दुकान पर पहुँचा और रोब से बोला——क्या रंग-ढंग है महाराज, कोई नयी चीज बनवायी है इधर ?

रमा के टालमटोल से गंगू इतना विरक्त हो रहा था कि आज कुछ रुपये मिलने की आशा भी उसे प्रसन्न न कर सकी। शिकायत के ढंग से बोला——बाबू साहब, चीजें कितनी बनी और कितनी बिकीं। आपने तो दुकान पर आना ही छोड़ दिया। इस तरह की दूकानदारी हम लोग नहीं करते। आठ महीने हुए, आपके यहाँ से एक पैसा भी नहीं मिला।

रमा——भाई, खाली हाथ दुकान पर आते शर्म आती है। हम उन लोगों में नहीं है, जिनसे तकाजा करना पड़े आज यह छः सौ रुपये जमा कर लो, और एक अच्छा कंगन तैयार कर दो। गंगू ने रुपये लेकर संदूक में रखे, और बोला-बन जायेंगे। बाकी रुपये कब तक मिलेंगे?

रमा——बहुत जल्द।

गंगू——हाँ बाबूजी, अब पिछला हिसाब साफ कर दीजिए।

गंगू ने बहुन जल्द कंगन बनवाने का वचन दिया, लेकिन एक बार सौदा करके उसे मालूम हो गया था कि यहाँ से जल्दी रुपये वसूल होने वाले नहीं। नतीजा यह हुआ कि रमा रोज तकाजा करता और गंगू रोज हीले करके टालता। कभी कारीगर बीमार पड़ जाता, कभी अपनी स्त्री की दवा कराने ससुराल चला जाता, कभी उसके लड़के बीमार हो जाते। एक महीना गुजर गय'।और कंगन न बने। रतन के तकाजों के डर से रमा ने पार्क जाना छोड़
[ ९३ ]दिया; मगर उसने घर तो देख ही रखा था। इस एक महीने में कई बार तकाजा करने आयी। आखिर जब सावन का महीना आ गया तो एक दिन उसने रमा से कहा-यह तूमर नहीं बनाकर देता, तो तुम किसी और कारीगर को क्यों नहीं देते।

रमा०——उस पाजी ने ऐसा धोखा दिया कि कुछ न पूछो। बस, रोज आज कल किया करता है। मैंने बड़ी भूल की जो उसे पेशगी रुपये दे दिये। अब उस रुपये निकालना मुश्किल है।

रतन——आप मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए, मैं उसके बाप से वसूल कर लूँगी ! तावान अलग ! ऐसे बेईमान' आदमी को पुलिस में देना चाहिए।

जालपा ने कहा—— हाँ, और क्या, सभी सुनार देर करते हैं। मगर ऐसा नहीं कि रुपये डकार जायें और चीज के लिए महीनों दौड़ायें।

रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा——आप दस दिन और सब्र करें, मैं आज ही उससे रुपये लेकर किसी दूसरे सराफ़ को दे दूंगा।

रतन——आप मुझे उस बदमाश की दुकान क्यों नहीं दिखा देते ? मैं हंटर से बात करूं।

रमा——कहता तो हूँ। दस दिन के अन्दर आपको कंगन मिल जायेंगे।

रतन——आप खुद ही ढील डाले हुए हैं। आप उसकी लल्लो-चप्पो की बातों में आ जाते होंगे। एक बार कड़े पड़ जाते, तो मजाल थी कि वो होले-हवाले करता!

आखिर रतन बड़ी मुश्किल से बिदा हुई। उसी दिन शाम को गंगू ने साफ जवाब दे दिया——बिना आधे रुपये लिये कंगन न बन सकेंगे। पिछला हिसाब भी बेबाक हो जाना चाहिए।

रमा को मानो गोली लग गयी। बोला——महाराज, यह तो भलमंसी नहीं है। एक महिला की चीज है, उन्होंने पेशगी रुपये दिये थे। सोचो, मैं उन्हें क्या मुंह दिखाऊँगा। मुझसे अपने रुपये के लिये पुरनोट लिखा लो, स्टाम्प लिखा लो, और क्या करोगे?

गंगू——पुरनोद को शहद लगाकर चाटूंगा क्या ? आठ-आठ महीने का उधार नहीं होता। महीना, दो महीना बहुत है। आप तो बड़े आदमी है। आपके लिये पाँच-छ: सौ रुपये कौन बड़ी बात है।कंगन तैयार है। [ ९४ ]रमा ने दाँत पीसकर कहा- अगर यही बात थी वो तुमने एक महीना पहले क्यों न कह दिया ? अब तक मैंने रूपये की कोई फिक्र की होती न !

गंगू- मैं क्या जानता था, आप इतना भी नहीं समझ रहे हैं।

रमा निराश होकर घर लौट आया। अगर इस समय भी उसने जालपा से सारा वृतान्त साफ़-साफ़ कह दिया होता तो उसे चाहे कितना ही दुःख होता, पर वह अपना कंगन उतारकर दे देती, लेकिन रमा में इतना साहस न था। वह अपनी आर्थिक कठिनाइयों की दशा कहकर उसके कोमल हृदय पर आघात न कर सकता था।

इसमें सन्देह नहीं कि रमा को सौ रुपये के करीब ऊपर से मिल जाते थे, और वह किफायत करना जानता, तो इन आठ महीनों में दोनों सराफ़ों के कम-से-कम आधे रुपये अवश्य दे देता; लेकिन ऊपर की आमदनी थी, तो ऊपर का खर्च भी था। जो कुछ मिलता था, सैर सपाटे में खर्च हो जाता था और सराफ़े का देना किसी एकमुश्त रकम की आशा में रूका हुमा था। कौड़ियों से रुपये बनाना वाणिकों का ही काम है। बाबू लोग तो रुपये की कौड़ियाँ ही बनाते हैं।

कुछ रात जाने पर रमा ने एक बार फिर सराफ़े का चक्कर लगाया। बहुत चाहा, किसी सराफ़ को झाँसा दूँ, पर कहीं दाल न गली। बाजार में बेतार की खबरें चला करती हैं।

रमा को रात भर नींद नहीं आयी। यदि आज उसे एक हजार का रुक्का लिखकर कोई पाँच सौ रुपये भी दे देता तो वह निहाल हो जाता, पर अपनी जान-पहचान वालों में उसे ऐसा कोई नज़र न आता था। अपने मिलनेवालों में उसने सभी से अपनी हवा बाँध रखी थी। खिलाने-पिलाने में खुले हाथ रुपया खर्च करता था। अब किस मुँह से अपनी विपत्ति कहे ? वह पछता रहा था कि नाहक गंगू को रुपये दिये। गंगू नालिश करने तो जाता न था। इस समय यदि रमा को कोई भयंकर रोग हो जाता तो वह उसका स्वागत करता। कम-से-कम दस-पाँच दिन की मुहलत तो मिल जाती; मगर बुलाने से तो मौत भी नहीं आती। वह तो उसी समय आती है जब हम उसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं होते। ईश्वर कहीं से कोई तार ही भिजवा दे। कोई ऐसा मित्र भी नज़र नहीं आता था,जो उसके नाम पर फ़र्जी तार भेज
[ ९५ ]देता। वह इन्हीं चिन्ताओ में करवट बदल रहा था, कि जलपा की आँख खुल गयी। रमा ने तुरन्त चादर से मुँह छिपा लिया, मानो बेखबर सो रहा है। जालपा ने धीरे से चादर हटाकर उसका मुँँह देखा, और उसे सोता पाकर ध्यान से उसका मुँँह देखने लगी। जागरण और निंंद्रा का अन्तर उससे छिपा न रहा। उसे धीरे से हिलाकर बोली——क्या अभी तक जाग रहे हो?

रमा०——क्या जाने क्यों नींद नहीं आ रही है। पड़े-पड़े सोचता था,कुछ दिनों के लिये बाहर चला जाऊँ। कुछ रुपये कमा लाऊँ।

जलपा——मुझे तो लेते चलोगे न ?

रमा०——तुम्हें परदेश में कहाँ लिये फिरूंगा?

जलपा——तो मैं यहाँ अकेली रह चुकी। एक मिनट तो रहूँगी नहीं। मगर जाओगे कहाँ ?

रमा०——अभी कुछ निश्चय नहीं कर सका हूँ।

जलपा——तो क्या सचमुच तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे ? मुझसे तो एक दिन भी न रहा जाय। मैं समझ गयी, तुम मुझसे मुहब्बत नहीं करते। केवल मुँँह देखे की प्रीति करते हो।

रमा०——तुम्हारे प्रेम-पाश ही ने मुझे यहांँ बाँध रखा है। नहीं तो अब तक कभी चला गया होता।

जलपा——बातें बना रहे हो। अगर तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम होता तो तुम कोई पर्दा न रखते। तुम्हारे मन में कोई ऐसी जरूरी बात है, जो तुम मुझसे छिपा रहे हो। कई दिनों से देख रही हूँ, तुम चिन्ता में डूबे रहते हो। मुझसे क्यों नहीं कहते ? जहाँ विश्वास नहीं हैं, वहाँ प्रेम कैसे रह सकता है ?

रमा०——यह तुम्हारा भ्रम है,जालपा। मैंने तो तुमसे कभी पर्दा नहीं रखा।

जलपा——तो तुम मुझे सचमुच दिल से चाहते हो ?

रमा——यह क्या मुँँह से कहूँगा अभी ?

जलपा——अच्छा, अब मैं एक प्रश्न करती हूँ। संभले रहना। तुम मुझसे क्यों प्रेम करते हो? तुम्हें मेरी कसम है, सच बताना।

रमा०—— यह तो तुमने बेढब प्रश्न किया ! अगर मैं तुमसे यही प्रश्न पूछूँ तो तुम क्या जवाब दोगी? [ ९६ ]जालापा——मैं तो जानती हूँ।

रमा——बताओ।

जालपा—— तुम बतला दो, मैं भी बतला दूँगा।

रमा——मैं तो जानता ही नहीं। केवल इतना ही जानता हूँ कि तुम मेरे रोम-रोम में रम रही हो।

जालपा——सोचकर बतलाओ। मैं आदर्श पत्नी नहीं हूँ, इसे मैं खूब जानती हूँ। पति सेवा अब तक मैंने नाम की भी नहीं की। ईश्वर की दया से तुम्हारे लिए अब तक कष्ट सहने की जरूरत नहीं पड़ी। घर-गृहस्थी का कोई काम मुझे नहीं आता। जो कुछ सीखा, यहीं सीखा। फिर तुम्हें मुझसे क्यों प्रेम है ? बातचीत में निपुण नहीं। रूप-रंग भी ऐसा आकर्षक नहीं। जानते हो, मैं तुमसे क्यों प्रश्न कर रही हूँ ?

रमा०——क्या जाने भाई, मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा है।

जालपा——मैं इसलिए पूछ रही हूँ कि तुम्हारे प्रेम को स्थाई बना सकूँ।

रमा०——मैं कुछ नहीं जानता जालपा, ईमानदारी से कहता हूँ, तुम में कोई कमी है, कोई दोष है, यह बात आज तक मेरे ध्यान में नहीं आयी। लेकिन तुमने मुझमें कौन-सी बात देखी ? न मेरे पास धन है, न विद्या है, न रूप है। बताओ।

जालपा——बता दूं ? मैं तुम्हारी सज्जनता पर मोहित हूँ। अब तुमसे क्या छिपाऊँ, जब मैं यहाँ आयी तो यद्यपि तुम्हें अपना पति समझती थी, लेकिन कोई बात कहते या करते समय मुझे चिन्ता होती थी कि तुम उसे पसन्द करोगे या नहीं। यदि तुम्हारे बदले मेरा विवाह किसी दूसरे पुरुष से हुआ होता तो उसके साथ भी मेरा यही व्यवहार होता। यह पत्नी और पुरुष का रिवाजी नाता है। पर अब मैं तुम्हें गोपियों के कृष्ण से भी न बदलूँगी। लेकिन तुम्हारे दिल में अब भी चोर है। तुम अब भी मुझसे किसी-किसी बात में पर्दा रखते हो।

रमा——यह तुम्हारी केवल शंका है जालपा। मैं दोस्तों से भी कोई दुर्भावना नहीं करता। फिर तुम तो मेरो हुदेश्वरी हो।

जालपा——मेरी तरफ़ देखकर बोलो, आँखें नीची करना मर्दो का काम नहीं है। [ ९७ ]रमा के जी में एक बार फिर आया, कि अपनी कठिनाइयों की कथा कह सुनाऊँ, लेकिन मिथ्या-गौरव ने फिर उसकी जबान बन्द कर दी।

जालपा जब उससे पूछती, सराफों के रूपये देने जाते हो या नहीं, तो वह बराबर कहता, कुछ-न-कुछ हर महीने देता रहता हूँ। पर आज रमा की दुर्बलता ने जालपा के मन में एक सन्देह पैदा कर दिया था। वह उसी सन्देह को मिटाना चाहती थी। जरा देर के बाद उसने पूछा-सराफ़ों के तो अभी सब रुपये अदा न हुए होंगे?

रमा०——अब थोड़े ही बाकी है।

जालपा——कितने बाकी होंगे, कुछ हिसाब-किताब लिखते हो ?

रमा०——हाँ, लिखता क्यों नहीं। सात सौ से कुछ कम ही होंगे।

जालपा——तब तो पूरी गठरी है तुमने कहीं रतन के रुपये तो नहीं दे दिये?

रमा दिल में काँप रहा था, कहीं जालपा यह प्रश्न न कर बैठे। आखिर उसने यह प्रश्न पूछ ही लिया। उस वक्त भी यदि रमा ने साहस करके सच्ची बात स्वीकार कर ली होती तो शायद उसके संकटों का अन्त हो जाता। जालपा एक मिनट तक अवश्य सन्नाटे में आ जाती। सम्भव है, क्रोध और निराशा के आवेश में दो-चार कटु शब्द मुँँह से निकालती; लेकिन फिर शान्त हो जाती।दोनों मिलकर कोई न कोई युक्ति सोच निकालते। जालपा यदि रतन से यह रहस्य कह सुनाती, तो रतन अवश्य मान जाती। पर हाय रे आत्मगौरव ! रमा ने यह बात सुनकर ऐसा मुँँह बना लिया मानो जालपा ने उस पर कोई निष्ठुर प्रहार किया हो। बोला——रतन के रुपये क्यों देता। आज' चाहूँ, तो दो-चार हजार का माल ला सकता हूँ। कारीगरों की आदत देर करने की होती है ! सुनार की खटाई मशहूर है। "बस, और कोई बात नहीं। दस दिन में या तो तैयार ही लाऊँगा या रूपये वापस कर दूंगा, मगर यह शंका तुम्हें क्योंकर हुई ? रकर भला में अपने 'खर्च में कैसे लाता?

जालपा——कुछ नहीं, मैंने योंही पूछा था।

जालपा को थोड़ी देर में नींद आ गयी, पर रमा फिर उसी उवेड़बुन में पड़ा। कहाँ से रुपये लाये ? अगर वह रमेश बाबू से साफ़-साफ कह
[ ९८ ] है, तो वह किसी महान से दिला देंगे, लेकिन नहीं। वह उनसे किसी तरह न कह सकेगा। उसमें इतना साहस न था।

उसने प्रातःकाल नाश्ता करके दफ्तर की राह ली। शायद वहाँ कुछ प्रबंध हो जाय। कौन प्रबंध करेगा, इसका उसे ध्यान न था। जैसे रोगी वैद्य के पास जाकर सन्तुष्ट हो जाता है; पर यह नहीं जानता, मैं अच्छा हूँगा या नहीं ! यही दशा इस समय रमा की थी। दफ्तर में चपरासी के सिवा और कोई न था। रमा रजिस्टर खोलकर अंकों की जांच करने लगा। कई दिनों से मीजान नहीं किया गया था; पर बड़े बाबू के हस्ताक्षर मौजूद थे। अब भीजान किया, तो ढाई हजार निकले। एकाएक उसे एक नयी बात सूझी। क्यों न ढाई हजार की जगह मौजान में दो हजार लिख दूँ ? रसीद बही की जांच कौन करता है ? अगर चोरी पकड़ भी गई, तो कह दूंगा, मीजान लगाने में गलती हो गई। मगर इस विचार को उसने मन में टिकने न दिया। इस भय से कि कहीं चित्त चंचल न हो जाय, उसने रसिल से अंकों पर रोशनाई फेर दी, और रजिस्टर को दराज में बन्द करके इधर-उघर धूमने लगा।

इक्की-दुक्की गाड़ियां आने लगीं। गाड़ीवानों ने देखा, बाबू साहब आज यहीं है, तो सोचा जल्दी चुंगी देकर छुट्टी पा जायें। रमा ने इस कुपा के लिये दस्तूरी की दूनी रकम वसूल की और गाड़ीवानों ने शौक से दो, क्योंकि यही मंडी का समय था और बारह-एक बजे तक चुंगीचर से फुरसत पाने की दशा में चौबीस घंटे का हर्ज होता था। मंडी दस-ग्यारह बजे के बाद बन्द हो जाती थी। दूसरे दिन का इंतजार करना पड़ता था। अगर भाव रुपये में प्राधपाव भी गिर गया, तो सैकड़ों के मत्थे गयी। दस-पांच रुपये का बल खा जाने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी। रमा को आज यह नयी बात मालूम हुई। सोचा, आखिर सुबह को मैं घर ही पर तो बैठा रहता हूँ। अगर यहाँ आकर बैठ जाऊँ तो रोज दस पांच-रुपये हाथ आ जायें ! फिर तो छः महीने में यह सारा झगड़ा साफ हो जाय। मान लो रोज यह चाँदी न होगी, पन्द्रह न सही, दस मिलेंगे, पांच मिलेंगे। अगर सुबह को रोज पाँच रुपये मिल जायें और इतने ही दिन भर में और मिल जायें; तो पाँच छः महीने में मैं ऋण से मुक्त हो जाऊँ। उसने दराज खोलकर
[ ९९ ] फिर रजिस्टर निकाला। यह रजिस्टर निकाल लेने के बाद अब रजिस्टर में हेर-फेर कर देना उसे इतना भयंकर न जान पड़ा। नया रंगरूट जो पहले बन्दुक की आवाज से चौंक पड़ता है, आगे चल कर गोलियों की वर्षा में नहीं घबड़ाता।

रमा दफ्तर बन्द करके भोजन करने घर जाने ही वाला था कि एक बिसाती का ठेला आ पहुँचा। रमा ने कहा——लौटकर चुंगो लूंगा। बिसाती ने मिन्नत करनी शुरू की। उसे कोई बड़ा जरूरी काम था। आखिर दस रुपये पर मामला ठीक हुआ। रमा ने चुंगी ली, रुपये जेब में रखे और घर चला। पच्चीस रुपये केवल दो-ढाई घंटों में आ गये। अगर एक महीने भी यह औसत रहे तो पल्ला पार है। उसे इतनी खुशी हुई कि वह भोजन करने घर न गया। बाजार से भी कुछ नहीं मंगवाया। रुपया भुनवाते हुए उसे एक रुपया कम हो जाने का ख्याल हुआ। वह शाम तक बैठा काम करता रहा, चार रुपये और वसूल हुए। चिराग जले वह घर चला, तो उसके मन पर से चिन्ता और निराशा का बहुत कुछ बोझ उतर चुका था। अगर दस दिन यही तेजी रही, तो रतन से मुँँह चुराने की नौबत न आयेगी।

१७

नौ दिन गुजर गये। रमा रोज प्रातः दफ्तर जाता और चिराग जले लौटता। वह रोज यही आशा लेकर जाता कि आज कोई बड़ा शिकार फँस जायेगा, पर वह आशा न पूरी होती। इतना ही नहीं। पहले दिन की तरह फिर कभी भाग्य का सूर्य न चमका। फिर भी उसके लिए कुछ कम श्रेय की बात नहीं थी कि इन नौ दिनों में ही उसने सौ रुपये जमा कर लिये थे। उसने एक पैसे का पान भी न खाया था। जालपा ने कई बार कहा, चलो कहीं घूम आयें, तो उसे भो उसने बातों ही में टाला। बस, कल का दिन और था। कल आकर रतन कंगन माँँगेगी, तो उसे वह क्या जवाब देगा? दफ्तर से आकर वह इसी सोच में बैठा हुआ था ! क्या वह एक महीने भर के लिए और न मान जायेगी ? इतने दिन वह और न बोलती तो शायद उससे उऋण हो जाता। उसे विश्वास था कि मैं उससे चिकनीचुपड़ी बातें करके राजी कर लूंगा। अगर उसने जिद की तो मैं उससे कह दूँगा, सराफ़ रुपये नहीं लौटाता। [ १०० ]सावन के दिन थे। अंधेरा हो चला था। रमा सोच रहा था, रमेश बाबू के पास चलकर दो-चार बाजियाँ खेल पाऊँ मगर बादलों को देख-देख रुक जाता था। इतने में रतन आ पहुँची। वह प्रसन्न न थी। उसकी मुद्रा कठोर हो रही थी। आज वह लड़ने के लिए घर से तैयार होकर आयी है और मुरब्बत और मुलाहिजे की कल्पना को भी कोसों दूर रखना चाहती है।

जालपा ने कहा——तुम खूब आयी। आज मैं भी जरा तुम्हारे साथ घूम आऊँगी। इन्हें काम के बोझ से आजकल सिर उठाने की भी फुर्सत नहीं है।

रतन ने निष्ठुरता से कहा——मुझे आज बहुत जल्द घर लौट जाना है। बाबूजी को कल की याद दिलाने आयी हूँ।

रमा उसका लटका हुआ मुँँह देखकर ही मन में सहम रहा था। किसी तरह उसे प्रसन्न करना चाहता था। बड़ी तत्परता से बोला——जी हाँ, खूब याद है। अभी सराफ की दुकान से चला आ रहा हूँ। रोज सुबह-शाम घंटे भर हाजिरी देता हूँ; मगर इन चीजों में समय बहुत लगता है। दाम तो कारीगरी के हैं। मालियत देखिए तो कुछ नहीं। दो आदमी लगे हुए है। पर शायद अभी एक महीने से कम में चीज तैयार न हो; पर होगी लाजवाब। जी खुश हो जायेगा।

पर रतन जरा भी न पिघली। तिनक कर बोली——अच्छा। अभी महीना भर और लगेगा? ऐसी कारीगरी है कि तीन महीने मे भी पूरी नही हुई। आप उससे कह दीजिएगा, मेरे रुपये वापस कर दे। आशा के कंगन देवियाँ पहनती होंगी, मेरे लिए जरूरत नहीं।

रमा०——एक महीना न लगेगा, मैं जल्दी ही बनवा दूंगा। एक महीना तो मैने अन्दाजन कह दिया था। अब थोड़ी ही कसर रह गयी है। कई दिन तो नगीने तलाश करने में लग गये।

रतन——मुझे कंगन पहनना ही नहीं है भाई। आप मेरे रुपये लौटा दीजिए, बस। सुनार मैंने बहुत देखे हैं। आपकी दया से इस वक्त भी तीन जोड़े कंगन' मेरे पास होंगे, पर ऐसी धांधली कहीं नहीं देखी।

धाँधली के शब्द पर रमा तिलमिला उठा——धांधली नहीं, मेरी हिमाकत कहिये। मुझे क्या जरूरत थी कि अपनी जान संकट में डालता ? मैंने