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ग़बन/ भाग 3

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ग़बन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ ६३ से – ८२ तक

 

रमा---पसन्द तो मुझे भी यही है। लेकिन मेरे पास कुल तीन सौ रुपये हैं, यह समझ लीजिए।

शर्म से रमा के मुँह पर लाली छा गयी। वह धड़कते हुए हृदय से गंगू का मुँह देखने लगा।

गंगू ने निष्कपट भाव से कहा---बाबू साहब, रुपये की तो जिक्र ही न कीजिये। कहिये दस हजार का माल साथ भेज दूं। दूकान आपकी है, भला कोई बात है। हुक्म हो तो एक आध चीज और दिखाऊँ! एक शीशफूल अभी बनकर आया है; बस यही मालूम होता है गुलाब का फूल खिला हुआ हैं। देखकर जी खुश हो जायेगा। मुनीमजी, जरा वह शीशफूल दिखाना तो। और दाम का भी कुछ ऐसा भारी नहीं, आपको ढाई सौ में दे दूंगा।

रमा ने मुस्कुराकर कहा---महाराज, बहुत बातें बनाकर कहीं उलटे छुरे से न मूड़ लेना, गहनों के मामलों में बिलकुल अनाड़ी हूँ।

गंगू--ऐसा न कहो बाबूजी! आप चीज ले जाइये, बाजार में दिखा लीजिए, अगर कोई ढाई सौ से कौड़ी कम दे, तो मैं मुफ्त में दे दूँगा।

शीशफूल आया, सचमुच गुलाब का फूल था, जिस पर हीरे की कलियाँ ओस की बून्दो के समान चमक रही थीं। रमा की टकटकी बँध गयी, मानो कोई अलौकिक वस्तु सामने आ गयी हो।

गंगू---बाबूजी, ढाई सौ रुपये तो कारीगर की सफाई के इनाम हैं। यह एक चीज है।

रमा॰---हाँ, है तो बहुत सुन्दर, मगर भाई ऐसा न हो कि कल ही से दाम का तकाजा करने लगो। मैं खुद ही जहाँ तक हो सकेगा, जल्दी दे दूँगा।

गंगू ने दोनों चीजें दो सुन्दर मखमली केसों में रखकर रमा को दे दी। फिर मुनीमजी से नाम टंकवाया और पान खिलाकर बिदा किया।

रमा के मनोल्लास की इस समय सीमा न थी, किन्तु यह विशुद्ध उल्लास न था; इसमें एक शंका का भी समावेश था। यह उस बालक का आनंद न था जिसने माता से पैसे मांगकर मिठाई ली हो, बल्कि उस बालक का जिसने से चुराकर ली हो। उसे मिठाइयां मीठी तो लगती हैं; पर दिल काँपता रहता है कि कहीं घर चलने पर मार न पड़ने लगे। साढ़े छ: सौ रुपये चुका देने
की तो उसे विशेष चिन्ता न थी, घात लग जाये, तो वह छ:महीने में चुका देगा। भय यही था, कि बाबूजी सुनेगें तो जरूर नाराज होंगे। लेकिन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जाता था जालपा को इन आभूषणो से शोभित देखने की उत्कंठा इस शंका पर विजय पाती जाती थी। घर पहुँचने की जल्दी में उसने सड़क छोड़ दी, और एक गली में घुस गया। सधन अंधेरा छाया हुआ था। बादल तो उसी वक्त छाये हुए थे, जब घर से चला था 1 गली में घुसा ही था, कि पानी की बूंदें सिर पर छरें की तरह पड़ीं। जब तक छतरी खोले, वह लथ-पथ हो चुका था। उसे शंका हुई, इस अन्धकार में कोई आकर दोनों चीजें छीन न ले; पानी की झरझर में कोई आवाज भी न सुने। अंधेरी गलियों में खून तक हो जाते हैं। पछताने लगा, नाहक इधर से आया।दो-चार मिनट देर ही में पहुँचता, तो ऐसी कौन-सी आफत आ जाती। असामयिक दृष्टि ने उसकी आनन्द-कल्पनाओं में बाधा डाल दी। किसी तरह गली का अन्त हुआ और सड़क मिली। लालटेने दिखाई दी। प्रकाश में कितना विश्वार उत्पन्न करनेवाली शक्ति है, आज इसका उसे यथार्थ अनुभव हुआ।

वह घर पहुँचा तो दयानाथ बैठे हुक्का पी रहे थे। वह उस कमरे में न गया। उनकी आँख बचाकर अन्दर जाना चाहता था, कि उन्होंने टोका- इस वक्त कहाँ गये थे ?

रमा ने उन्हें जवाब न दिया। कहीं वह अखबार सुनाने लगे, तो घण्टो की खबर लेंगे। सीधा अन्दर जा पहुँचा। जालपा द्वार पर खड़ी उसकी राह देख रही थी, तुरन्त उसके हाथ से छतरी ले ली और बोली- तुम तो बिलकुल भीग गये। कहीं ठहर क्यों न गये?

रमा०- पानी का क्या ठिकाना, रात-भर बरसता रहे ?

यह कहता हुआ रमा ऊपर चला गया। उसने समझा था, जालपा भी पीछे-पीछे आती होगी;पर वह नीचे बैठी अपने देवरों से बातें कर रही थी, मानो उसे गहनों की याद ही नहीं है। जैसे वह बिलकुल भूल गई है, कि रमा सराफे से आया है।

रमा ने कपड़े बदले, और मन में झुंझलाता हुआ नीचे चला आया। उसी समय दयानाथ भोजन करने आ गये सब लोग भोजन करने बैठ गये। जालपा ने जब्त तो किया था, पर इस उत्कंठा की दशा में आज
उससे कुछ खाया न गया। जब वह उपर पहुँची, तो रमा चारपाई पर लेटा हुआ था। उसे देखते ही कौतुक से बोला-आज सराफ़े का जाना तो व्यर्थ हो गया। हार अभी तैयार न था। बनाने को कह आया हूंँ।

जालपा की उत्साह से चमकती हुई मुख छवि मलिन पड़ गयी, बोली-वह तो पहले ही जानती थी, बनते-बनते पाँच-छ: महीने तो लग ही जायेंगे ?

रमा- नहीं जी, बहुत जल्द बना देगा, कसम खा रहा था।

जालपा-उँह, जब चाहे दे!

उत्कंठा की चरम सीमा ही निराशा है। जालपा मुंह फेरकर लौटने जा रही थी कि रमा ने जोर से कहकहा मारा। जालपा चौंक पड़ी। समझ गई, रमा ने शरारत की थी। मुस्कुराती हुई बोली-तुम भी बड़े नटखट हो ! क्या लाये?

रमा०—कैसा चकमा दिया?

जालपा -यह तो मरदों की आदत ही है, तुमने नई बात क्या की?

जालपा दोनों आभूषणों को देखकर निहाल हो गई। हृदय में आनन्द की लहरें-सी उठने लगीं। वह मनोभावों को छिपाना चाहती थी कि रमा उसे ओछी न समझे, लेकिन एक एक अंग खिला जाता था। मुस्कुराती हुई आँखें, दमकते हुए कपोल और खिले हुए अधर उसका भरम गवाए देते थे। उसने हार गले में पहिना, शीशफूल जूड़े में सजाया, और सर्प-सी उन्मत होकर बोली-तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ, ईश्वर तुम्हारी सारी कामनाएं पूरी करें !

आज जालपा की वह अभिलाषा पूरी हुई जो बचपन ही से उसकी कल्पनाओं का एक स्वप्न, उसकी आशाओं का क्रीडास्थल बनी हुई थी। आज उसकी वह साध पूरी हो गई। यदि मानकी यहाँ होती, तो सबसे पहले यह हार उसे दिखाती और कहती-तुम्हारा हार तुम्हें मुबारक हो !


रमा पर घड़ों का नशा चढ़ा हुआ था। आज उसे अपना जीवन सफल जान पड़ा। अपने जीवन में आज पहली बार उसे विजय का आनन्द प्राप्त हुआ।


जालपा ने पूछा-जाकर अम्माजी को दिखा आऊँ?

रमा ने नम्रता से कहा-अम्माजी को दिखाने जाओगी? ऐसी कौन-सी बड़ी चीजें हैं ? जालपा-अब मैं तुमसे साल-भर तक और किसी चीज के लिए न कहूँगी। इसके रुपये देकर ही मेरे दिल का बोझ हल्का होगा।

रमा गर्व से बोला-रुपए की क्या चिन्ता ? है ही कितने !

जालपा-जरा अम्माजी को दिखा आऊँ, देखें क्या कहती है ?

रमा०-मगर यह न कहना उधार लाये हैं।

जालपा इस तरह दौड़ी हुई नीचे गई,मानो उसे वहाँ कोई निधि मिल जायगी।

आधी रात बीत चुकी थी। रमा आनन्द की नींद सो रहा था। जालपा ने छत पर आकर एक बार आकाश की ओर देखा। निर्मल चांदनी छिटकी हुई थी-वह कार्तिक की चांदनी जिसमें संगीत की शान्ति है, शान्ति का माधुर्य और माधुर्य का उन्माद। जालपा ने कमरे में आकर अपनी सन्दूकची खोली और उसमें से वह कांच का चन्द्रहार निकाला जिसे एक दिन पहनकर उसने अपने को धन्य माना था। पर अब इस नये चन्द्रहार के सामने उसकी चमक उसी भाँति मन्द पड़ गयी थी, जैसे इस निर्मल चन्द्रज्योति के सामने तारों का आलोक। उसने उस नकली हार को तो तोड़ डाला और उसके दानों को नीचे गली में फेंक दिया, उसी भांति जैसे पूजन समाप्त हो जाने के बाद कोई उपासक मिट्टी की पार्थिवी को जल में विसर्जित कर देता है।

१४

                   

उस दिन से जालपा के पति-स्नेह में सेवा-भाव का उदय हुआ। वह स्नान करने जाता तो उसे अपनी धोती चुनी हुई मिलती। आले पर तेल और साबुन भी रखा हुआ पाता। जब दफ्तर जाने लगता तो जालपा उसके कपड़े लाकर सामने रख देती। पहले पान माँगने पर मिलते थे, अब जबरदस्ती खिलाये जाते थे। जालपा उसका रुख देखा करती। उसे कुछ कहने की जरूरत न थी। यहाँ तक कि जब वह भोजन करने बैठता तो वह पंखा झला करती। पहले वह अनिच्छा से भोजन बनाने जाती थी और उस पर भी बेगार-सी टालती थी। अब बड़े प्रेम से रसोई में जाती। चीजें अब भी वही बनती थीं, पर उनका स्वाद बढ़ गया था। रमा को इस मधुर स्नेह के सामने दो गहने बहुत तुच्छ जाँचते थे। उधर जिस दिन रमा ने गंगू की दुकान से गहने खरीदे, उसी दिन से दूसरे सराफों को भी उसके आभूषण-प्रेम की सूचना मिल गयी। रमा जब उधर से निकलता, तो दोनों तरफ से दुकानदार उठ-उठकर उसे सलाम करते-आइये बाबूजी, पान तो खाते जाइये। दो-एक चीजें हमारी दुकान से तो देखिये !

रमा के आत्म-संयम से उसकी साख और भी बढ़ती थी। यहाँ तक कि एक दिन एक दलाल रमा के घर पर आ पहुँचा, और उसके नहीं-नहीं करने पर भी अपनी सन्दूकची खोल ही दी।

रमा ने उससे पीछा छुड़ाने के लिए कहा-भाई इस वक्त मुझे कुछ नहीं लेना है। क्यों अपना और मेरा समय नष्ट करोगे। दलाल ने बड़े विनीत भाव से कहा-बाबूजी, देख तो लीजिए। पसन्द आये तो लीजिएगा, नहीं तो न लीजिएगा। देख लेने में कोई हर्ज नहीं है। आखिर रईसों के पास न जाय, तो किसके पास जायें : औरों ने आपसे गहरी रकमें मारी; हमारे भाग्य में भी बदा होगा, तो आपसे चार पैसा पा जायेंगे। बहूजी और माईजी को दिखा लीजिये। मेरा मन तो कहता है कि आज आप ही के हाथों बोहनी होगी।

रमा०- औरतों के पसन्द की न कहो, चीजें अच्छी होंगी ही। पसन्द आते क्या देर लगती है। लेकिन भाई इस वक्त हाथ खाली है।

दलाल हँसकर बोला- बाबूजी बस ऐसी बात कहते हैं कि वाह ! आपका हुक्म हो जाय तो हजार पाँच सौ आपके ऊपर निछावर कर दें। हम लोग आदमी का मिजाज देखते हैं बाबूजी। भगवान् ने चाहा तो आज मैं सौदा करके ही उठूंगा।

दलाल ने सन्दूकची से दो चीजें निकाली, एक तो नए फैशन का जड़ाऊ कंगन था और दूसरा कानों का रिंग। दोनों ही चीजें अपूर्व थीं। ऐसी चमक थी, मानो दीपक जल रहा हो। दस बजे थे। दयानाथ दफ्तर जा चुके थे, वह भी भोजन करने जा रहा था। समय बिल्कुल न था; लेकिन इन दोनों चीजों को देखकर उसे किसी बात की सुधि ही न रही। दोनों को लिये हुए घर में आया। उसके हाथ में केस देखते ही दोनों स्त्रियां टूट पडी़ं और उन चीजों को निकाल-निकालकर देखने लगी। उसकी चमक-दमक ने उन्हें
ऐसा मोहित कर लिया कि गुण-दोष की विवेचना करने की उनमें शक्ति ही न रही।

रमा- आजकल की चीजों के सामने तो पुरानी चीजें कुछ जचती ही नहीं।

जालपा- मुझे तो उन पुरानी चीजों को देखकर कै आने लगती है। न जाने उन दिनों औरतें कैसे पहनती थीं।

रमा ने मुस्कुराकर कहा तो दोनों चीजें पसन्द है न ?

जालपा- पसन्द क्यों नहीं; अम्माजी, तुम ले लो!

रामेश्वरी ने अपनी मनोव्यथा छिपाने के लिए सिर झुका लिया। जिसका सारा जीवन गृहस्थी की चिन्ताओं में कट गया, वह आज क्या स्वप्न में भी इन गहनों को पहनने की आशा कर सकती थी ! आह ! उस दुखिया के जीवन की साध ही न पूरी हुई। पति की आय ही कभी इतनी न हुई, कि बाल बच्चों के पालन-पोषण के उपरान्त कुछ बचता। जब से घर की स्वामिनी हुई, तभी से मानो उसकी तपस्या का प्रारम्भ हुआ और सारी लालसाएँ एक-एक करके धूल में मिल गयीं। उसने उन आभूषणों की ओर से आँखें हटा ली। उनमें इतना आकर्षण था कि उनकी ओर ताकते हुए वह डरती थी ! कहीं उसकी विरक्ति का पर्दा न खुल जाय। बोली मैं लेकर क्या करूँगी बेटा, मेरे पहनने ओढ़ने के दिन तो निकल गये। कौन लाया है बेटा ? क्या दाम हैं इनके ? रमा०- एक सराफ़ दिखाने लाया है, अभी दाम-धाम नहीं पूछे; मगर ऊंचे दाम होंगे। लेना तो था ही नहीं, दाम पूछ कर क्या करता ?

जालपा- लेना नहीं था तो यहाँ लाये क्यों?

जालपा ने यह शब्द इतने आवेश में कहा कि रमा खिसिया गया। उनमें इतनी उत्तेजना, इतना तिरस्कार भरा हुआ था कि इन गहनों को लौटा ले जाने की उसकी हिम्मत न पड़ी। बोला-तो ले लूँ?

जालपा- अम्माँ लेने ही को नहीं कहतीं तो लेकर क्या करोगे। क्या मुफ्त में दे रहा है ?

रमा- समझ लो मुफ्त ही मिलते हैं। जालपा-सुनती हो अम्मा जी, इनकी बातें ? आप जाकर लौटा आइये। जब हाथ में रुपये होंगे, तो बहुत गहने मिलेंगे।

रामेश्वरी ने मोहासक्त होकर कहा- रुपये अभी तो नहीं माँगता ?

जालपा- उधार भी देगा तो सूद तो लेगा ही लेगा।

रमा०- तो लौटा दूँ ? एक बात चटपट तय कर डालो ! लेना हो ले लो, न लेना हो लोटा दो। मोह और दुविधे में न पड़ो।

जालपा को यह स्पष्ट बातचीत इस समय बहुत कठोर लगी। रमा के मुँह से उसे ऐसी आशा न थी। इनकार करना उसका काम था, रमा को लेने के लिए आग्रह करना चाहिये। रामेश्वरी की ओर लालायित नेत्रों से देखकर बोली-लौटा दो। रात-दिन के तकाजे कौन सहेगा?

वह केसों को बन्द करने वाली थी, कि रामेश्वरी ने कंगन उठाकर पहन लिया, मानो एक क्षण भर पहनने से ही उसकी साध पूरी हो जायगी। फिर मन में इस ओछेपन पर लज्जित होकर वह उसे उतारना ही चाहती थी कि रमा ने कहा- अब तुमने पहन लिया है अम्मा, तो पहने रहो। मैं तुम्हें भेंट करता हूँ। रामेश्वरी की आँखें सजल हो गयीं। जो लालसा प्राण तक पूरी न हो सकी वह आज रमा की मातृ भक्ति से पूरी हो रही थी, लेकिन क्या वह अपने प्रिय पुत्र पर ऋण का इतना भारी बोझ रख देगी ? अभी वह बेचारा बालक है, उसकी सामर्थ्य ही क्या है ? न जाने रुपये जल्द हाथ आयें या देर में। दाम भी तो नहीं मालूम। अगर ऊंचे दामों का हुआ तो बेचारा देगा कहाँ से ? उसे कितने तकाजे सहने पड़ेंगे और कितना लज्जित होना पड़ेगा। कातर स्वर में बोली-नहीं बेटा, मैंने यों ही पहन लिया था। ले जाओ, लौटा दो।

माता का उदास मुख देखकर रमा का हृदय मातृ-प्रेम से हिल उठा। क्या ऋण के भय से वह अपनी त्याग-मूर्ति माता की इतनी सेवा भी न कर सकेगा? माता के प्रति उनका कुछ कर्त्तव्य भी तो है ? बोला-रुपये बहुत मिल, जाएंगे अम्मां, तुम इसकी चिन्ता मत करो।

रामेश्वरी ने बहू की ओर देखा। मानो कह रही थी कि रमा मुझ पर कितना अत्याचार कर रहा है!

जालपा उदासीन भाव से बैठी थी। कदाचित् उसे भय हो रहा था कि


माताजी यह कंगन ले न लें। मेरा कंगन पहन लेना बहू को अच्छा नहीं लगा, इसमें रामेश्वरी को सन्देह नहीं रहा। उन्होंने तुरन्त कंगन उतार डाला, और जालपा की ओर बढ़ाकर बोलीं-मैं अपनी ओर से तुम्हें भेंट करती हूँ बहू, मुझे जो कुछ पहनना-ओढ़ना था, ओढ़-पहन चुकी। अब जरा तुम पहनो, देखूँ!

जालपा को इसमें जरा भी सन्देह न था कि माताजी के पास रुपये की कमी नहीं। वह समझी, शायद आज वह पसीज गयीं और कंगन के रुपये दे देंगी। एक क्षण पहले उसने समझा था कि रुपये रमा को देने पड़ेंगे, इसीलिए इच्छा रहने पर भी वह उसे लौटा देना चाहती थी। जब माताजी उसका दाम चुका रही थीं, तो वह क्यों इनकार करती; ऊपरी मन से बोली __

-रुपये न हों तो रहने दीजिए अम्माँजी, अभी कौन जल्दी है ?

 रमा ने कुछ चिढ़कर कहा-तो तुम वह कंगन ले रही हो ? 
 जालपा-अम्माँजी नहीं मानती, तो मैं क्या करूं? 
 रमा०-और ये रिंग, इन्हें भी क्यों नहीं रख लेतों ?
 जालपा-जाकर दाम तो पूछ आओ।
 रमा ने अधीर होकर कहा-तुम इन चीजों को ले जाओ, तुम्हें दाम से क्या मतलब !

रमा ने बाहर माकर दलाल से दाम पूछा, तो सन्नाटे में आ गया। कंगन सात सौ के थे और रिंग डेढ़ सौ के। उनका अनुमान था कि कंगन अधिक-से-अधिक तीन सौ के होंगे और रिंग चालिस-पचास रुपये के। पछताये कि पहले ही दाम क्यों न पूछ लिये, नहीं तो इन चीजों को घर में ले जाने की नौबत ही क्यों आती ? फेरते हुए शर्म पाती थी; मगर कुछ भी हो, फेरना तो पड़ेगा ही। इतना बड़ा बोझ यह सिर पर नहीं ले सकता। दलाल से बोला-बड़े दाम है भाई, मैंने तो तीन-चार सौ के भीतर ही श्रांका था। दयाल का नाम चरनदास था : बोला-दाम में एक कौड़ी फरक पड़ जाये सरकार, तो मुंह न दिखाऊँ। धनीराम की कोठी माल है, आप चलकर पूछ लें। दमड़ी रुपये की दलाली अलबत्ता मेरी है, आपकी मरजी हो दीजिए, या न दीजिए।

रमा०-तो भाई,इन दामों की चीजें तो इस वक्त हमें नहीं लेनी है।चरन०-ऐसी बात न कहिए बाबूजी। आपके लिए इतने रुपये कौन
बड़ी बात है। दो महीने भी माल चल जाय, तो इसके दूमे हाथ आ जायेंगे। आपसे बढ़कर कौन शौकीन होगा ? यह सब रईसों के ही पसन्द की चीजें हैं। गँवार लोग इनकी क़द्र क्या जानें।

रमा०- साढ़े आठ सौ बहुत होते हैं भई।

चरन०- रूपये का मुँह न देखिए बाबूजी, जब बहूजी पहनकर बैठेंगी, तो एक निगाह में सारे रुपये तर जायेंगे !

रमा को विश्वास था कि जालपा गहनों का मूल्य सुनकर आप ही हिचक जायेगी। दलाल से और ज्यादा बातचीत न की। अन्दर जाकर बड़े जोर से हँसा, और बोला- आपने इस कंगन का क्या दाम समझा था माँजी?

रामेश्वरी कोई जबाब देकर बेवकूफ न बनना चाहती थी-इन जड़ाऊ चीजों में नाप-तौल का तो कुछ हिसाब रहता नहीं, जितने में तै हो जाये वही ठीक है।

रमा०- अच्छा, तुम बताओ जालपा, इस कंगन का कितना दाम आँकती हो?

जालपा- छ: सौ से कम का नहीं है।

रमा का सारा खेल बिगड़ गया। दाम का भय दिखाकर रमा ने जालपा को डरा देना चाहा था; मगर छः और सात में बहुत थोड़ा ही अन्तर था। और सम्भव है चरनदास इतने ही पर राजी हो जाये। कुछ झेपकर बोला- कच्चे नगीने नहीं हैं ?

जालपा- कुछ भी हो, छ: सौ से ज्यादा का नहीं।

रमा०- और रिंग का? जालपा- अधिक-से-अधिक सौ रुपये।

रमा०- यहाँ भी चूकी, डेढ़ सौ मांगता है।

जालपा- लट्ठू है कोई, हमें इन दामों लेना ही नहीं।

रमा की चाल उलटी पड़ी। जालपा को इन चीजों के मूल्य के विषय में बहुत धोखा न हुआ था। आखिर रमा की आर्थिक दशा तो उससे छिपी न थी, फिर भी वह सात सौ रुपये की चीजों के लिए मुँह खोले बैठी थी। रमा को क्या मालूम था कि जालपा कुछ और ही समझकर कंगन पर लहराई


थी। अब तो मेला छूटने का एक ही उपाय था और वह यह कि दलाल छः सौ पर राजी न हो। बोला—वह साढ़े आठ सौ से कौड़ी कम न लेगा।

जालपा-तो लौटा दो।

रमा०-मुझे तो लौटाते शर्म आती है। अम्मा, जरा आप ही दालान में चलकर कर दें, हमें सात सौ से ज्यादा नहीं देना है। देना हो तो दे दो, नही चले जाओ।

रमे०-हाँ रे, क्यों नहीं, उस दलाल से मैं बातें करने जाऊँ ?

जालपा तुम्ही क्यों नहीं कह देते, इसमें तो कोई शर्म की बात नहीं।

रमा०–मुझसे साफ जवाब न देते बनेगा। दुनिया भर की खुशामद करेगा, चलो चलो—आप बड़े आदमी है, रईस हैं, राजा है। आपके लिए डेढ़ सौ क्या चीज है, मैं उसकी बातों में ना जाऊँगा।

जालपा-अच्छा चलो मैं ही कहे देती है।

रमा-वाह, फिर तो सब काम ही बन गया।

रमा पीछे दबक गया। जालपा दालान में आकर बोली-जरां यहाँ आना जी, प्रो सराफ !लूटने आये हो, या माल बेचने आये हो?

चरणदास बरामदे से उठकर द्वार पर आया और बोला-क्या हुक्म है सरकार?

जालपा-माल बेचने आते हो, या जने माते हो ! सात सौ रुपये कंगन के मांगते हो?

चरन०-सात सौ तो उसकी कारीगरी के दाम है हुज़ूर !

जालपा-अच्छा, जो उस पर सात सौ निछावर कर दे, उसके पास ले जाओ। रिंग के डेढ़ सौ कहते हो, लूट है क्या? कंगन के छ: सौ और रिंग के सौ, इतने ही हम देने को तैयार हैं। इससे ज्यादा एक कौड़ी नहीं।

चरन०-बहूजी, आप तो अन्धेर करती है। कहाँ साढ़े आठ और कहाँ सात सौ।

जालपा-तुम्हारी खुशी; अपनी चीज ले जाओ।

चरन०-इतने बड़े दरबार में आकर चोजें लौटा ले जाऊँ ? आप यों ही पहनें। दस-पांच रुपये की बात होती, तो आपकी जबान न फेरता। आपसे झूठ नहीं कहता बहूजी, इन चीजों पर पैसा रुपया नफा है। उसी एक


पैसे में दुकान का भाड़ा, बट्टा-खाता, दस्तूरी-दलाली सब समझिए। बात ऐसी समझकर कहिए कि हमें भी चार पैसे मिल जायें। सवेरे-सबेरे लौटना न पड़े।

जालपा-कह दिये, वही सात सौ।

चरन ने ऐसा मुँह बनाया, मानो वह किसी धर्म-संकट में पड़ गया है। फिर बोला-सरकार, है तो घाटा हो पर आपकी बात नहीं टालते बनती। रुपये कब मिलेंगे?

जालपा-जल्दी ही मिल जायेंगे।

जालपा अन्दर जाकर बोली-आखिर दिया कि नहीं सात सो में ? डेड़ को साफ उड़ाये लिये जाता था। मुझे पछतावा हो रहा है कि कुछ और कम क्यों न कहा। ये लोग इस तरह ग्राहकों को लूटते हैं।

रमा इतना भारी बोझ लेते घबरा रहा था, लेकिन परिस्थिति ने कुछ ऐसा रंग पकड़ा, कि बोझ उस पर लद ही गया।

जालपा तो खुशी की उमंगों में दोनों चीजें लिये ऊपर चली गयी, पर रमा सिर झुकाये चिन्ता में डूबा खड़ा था। जालपा ने उसकी दशा जानकर भी इन चीजों को क्यों ठुकरा नहीं दिया, क्यों जोर देकर नहीं कहा-मैं न लूंगी, क्यों दुविधे में पड़ी रही ? साढ़े पाँच सौ भी चुकाना मुश्किल था, इतने और कहाँ से आयेंगे। असल में गलती मेरी ही है। मुझे दलाल को दरवाजे से ही दुत्कार देना चाहिए था।

लेकिन उसने मन को समझाया। यह अपने ही पापों का तो प्रायश्चित है। फिर आदमी इसीलिए तो कमाता है। रोटियों के लाले थोड़े ही थे।

भोजन करके जब ऊपर कपड़े पहनने गया, तो जालपा आईने के सामने खड़ी कानों में रिंग पहन रही थी। उसे देखते ही बोली-आज किस अच्छे का मुँह देखकर उठी थी। दो चीजें मुफ्त हाथ आ गयीं।

रमा ने विस्मय से पूछा-मुफ्त क्यों ? रुपये न देने पड़ेंगे?

जालपा-रुपये तो अम्माजी देंगी ?

रमा०-क्या कुछ कहती थी ?

जालपा-उन्होंने मुझे भेंट दिये हैं, तो रुपये कौन देगा?

रमा ने उसके भोलेपन पर मुस्कराकर कहा-यही समझकर तुमने यह

चीज ली? अम्मां को देना होता, तो उसी वक्त दे देती जब गहने चोरी हो गये थे। क्या उनके पास रुपये न थे ?

जालपा असमंजस में पड़कर बोली-तो मुझे क्या मालूम था! अब भी तो लौटा सकते हो। कह देना, जिसके लिए लिया था, उसे पसंद नहीं पाया।

यह कहकर उसने तुरन्त कानों से रिंग निकाल लिये। कंगन भी उतार डाले और दोनों चीजें केस में रखकर उसकी तरफ इस तरह बढ़ायों, जैसे कोई बिल्ली चूहे को अपनी पकड़कर से बाहर नहीं होने देती। उसे छोड़कर भी नहीं छोड़ती। हाथों को फैलाने का साहस नहीं होता था। क्या उसके हृदय की भी यही दशा न थी? उसके मुख पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। क्यों वह रमा की पोर न देखकर भूमि की ओर देख रही थी ? क्यों सिर ऊपर न उठाती थी? किसी संकट से बच जाने में जो हार्दिक प्रानन्द होता है, वह कहाँ था ? उसको दशा ठोक उस माता की-सी थी, जो बालक को विदेश जाने की अनुमति दे रही हो। वही विवशता, वही कातरता, वही ममता इस समय जालपा के मुख पर उदय हो रही थी।

रमा उसके हाथ से किसों को ले सके, इतना कड़ा संयम उसमें न था। उसे तक़ाजे सहना, लज्जित होना, मुंह छिपाये फिरना, चिन्ता की आग में जलना, सब कुछ सहना मंजूर था। ऐसा काम करना नामंजूर था, जिससे जालपा का दिल टूट जाये, वह अपने को प्रभागिन समझने लगे। उसका सारा शान, सारी चेष्टा, सारा विवेक इस आघात का विरोध करने लगा। प्रेम और परिस्थितियों के संघर्ष में प्रेम ने विजय पायी।

उसने मुस्कराकर कहा-रहने दो, अब ले लिया है, तो क्या लौटायें। अम्माजी भी हंसेंगी।

जालपा ने बनावटी काँपते हुए कण्ड से कहा-अपनी चादर देखकर ही पांव फैलाने पाहिए। एक नयो विपत्ति मोल लेने को क्या जरूरत है?

रमा ने मानो जल में डूबते हुए कहा-ईश्वर मालिक है !

और तुरन्त नीचे चला गया।

हम चणिक मोह और संकोच में पड़कर अपने जीवन के सुख और शांति का कैसे होम कर देते है !अगर जालपा मोह के इस झोंके में अपने



को स्थिर रख सकती, अगर रमा संकोच के आगे सिर न झुका देता, दोनों के हृदय में प्रेम का सच्चा प्रकाश होता, तो वे पथ भ्रष्ट होकर सर्वनाश की ओर न जाते।

ग्यारह बज गये थे, दफ्तर के लिए देर हो रही थी; पर रमा इस तरह जा रहा था, जैसे कोई अपने प्रिय बन्यु की दाह-क्रिया करके लौट रहा हो

१५

जालपा अब वह एकान्तवासिनी रमणी न थी, जो दिन-भर मुहँ लपेटे उदास खड़ी रहती थी। उसे अब घर में बैठना अच्छा न लगता था। अब तक तो वह मजबुर थी, कहीं आ-जान सकती थी। अब ईश्वर की दया से उसके पास गहने हो गये थे। फिर वह क्यों न मारे घर में पड़ी रहती ? वस्त्राभूषण कोई मिठाई तो नहीं, जिसका स्वाद एकान्त में लिया जा सके। आभूषणों को सन्दूकची में बन्द करके रखने से या फ़ायदा ! मुहल्ले य बिरादरी में कहीं से बुलावा आता तो वह सास के साथ अवश्य जाती। कुछ दिनों के बाद सास की जरूरत भी न रही। वह अकेली ही पाने-जाने लगी। फिर कार्य-प्रयोजन की भी कैद नहीं रही। उसके रूप-लावण्य, वस्त्राभूषण और शील-विनय ने मुहल्ले की स्त्रियों में उसे जल्दी ही सम्मान के पद पर पहुँचा दिया। उसके बिना मण्डली सूनी रहती थी। उसका कण्ठस्वर इतना कोपल था, भाषण इतना मधुर, छवि इतनी अनुपम, कि वह मण्डली की रानी मालूम होती थी। उसके आने से मुहल्ले के नारी-जीवन में जान-सी पड़ गयी। नित्य ही कहीं-न-कहीं जमाव हो जाता। घरटे दो घण्टे गा-बजाकर या गप-शप करके रमणियों दिल बहला लिया करती। कभी किसी के घर कभी किसी के। फागुन में पंद्रह दिन बराबर माना होता रहा। जालपा ने जैसा रूप पाया था, वैसा ही उदार हृदय भी पाया था। पान-पत्ते का खर्च प्रायः उसी के मत्थे पड़ता। कभी-कभी गायने बुलायी जाती, उनके सेवा-सत्कार का भार उसी पर था। कभी-कभी बह स्त्रियों के साथ गंगा स्नान करने जाती, तांगे का किराया और गंगा-तट पर जलपान का खर्च भी उसी के मत्ये जाता। इस तरह उसके दो-तीन रुपये रोज जाते थे। रमा आदर्श पति था, जालपा अगर मांगती तो प्राण तक उसके चरणों पर रख देता, रुपये की हकीकत ही क्या थी? उसका मुंह जोहता रहता


था। जालपा उससे इन जमघटों को रोज चर्चा करती। उसका स्त्री-समाज में कितना आदर-सम्मान है, यह देखकर वह फूला न समाता था।

एक दिन इस भण्डली को सिनेमा देखने की धुन सबार हुई। वहाँ की वहार देखकर सब-की-सब मुग्ध हो गया। फिर तो आये दिन सिनेमा की सैर होने लगी। रमा को अब तक सिनेमा का शौक न था। शौक होता भी तो क्या करता? अब हाथ में पैसे आने लगे थे; उस पर जालग का आग्रह, फिर भला वह क्यों न जाता ? सिनेमा-गृह में ऐसी कितनी ही रमरिणयां मिलतीं, जो मुंह खोले निःसंकोच हंसती-बोलती रहती थीं। उनकी आजादी गुप्तरूप से जालपा पर भी जादू डालती जाती थी। वह घर से बाहर निकलते ही मुँह खोल लेती; मगर संकोचवश परदे वाली स्त्रियों के ही स्थान पर बैठती।उसको कितनी इच्छा होती कि रमा भी उसके साथ बैठता। आखिर वह उन फैशनेबुल औरतों से किस बात में कम है ? रूप-रंग में वह हेठी नहीं। सजधज में किसी से कम नहीं। बातचीत करने में कुशल, फिर वह क्यों परदेवालियों के साथ बैठे? रमा बहुत शिक्षित न होने पर भी देश और काल के प्रभाव से उदार था। पहले तो वह परदे का ऐसा अनन्य भक्त था, कि माता को कभी गंगा स्नान कराने लिया जाता तो पण्डों तक से न बोलने देता। कभी माता को हँसो मर्दाने में सुनाई देती; तो पाकर बिगड़ता-तुमको जरा भी शर्म नहीं है, अम्मा! बाहर लोग बैठे हुए हैं,और तुम हँस रही हो। मां लज्जित हो जाती थी। किन्तु अवस्था के साथ रमा का यह लिहाज गायब होता जाता था। उस पर जालपा की रूपछटा उसके साहस को और भी उत्तेजित करती थी। जालपा रूपहोन, कालीकलूटी, फूहड़ होती तो वह जबरदस्ती उसको परदे में बैठाता। उसके साथ 'धूमने या बैठने में उसे शर्म आती। जालपा जैसी अनन्य सुन्दरी के साथ सैर करने में मानन्द के साथ गौरव भी तो था। वहाँ के सभ्य समाज की कोई महिला रूप, गठन और शृङ्गार में जालपा की बराबरी न कर सकती थी। देहात की लड़की होने पर भी शहर के रंग में वह इस तरह रंग गयी थी, मानो जन्म से शहर ही में रहती आयी है। थोड़ी-सी कमी अंगरेजी शिक्षा की थी। उसे भी रमा पूरी किये देता था।

मगर पर्दे का यह बन्धन टूटे कैसे ? भवन में रमा के कितने ही मित्र,

कितने ही जान-पहचान के लोग बैठे नजर आते थे। वे उसे जालपा के साथ बैठे देखकर कितना हँसेंगे। आखिर एक दिन उसने समाज के सामने ताल टोंककर खड़े हो जाने का निश्चय कर ही लिया। जालपा से बोला-आज हम तुम सिनेमा-घर में साथ बैठेंगे।

जालपा के हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी। हार्दिक आनन्द की आभा चेहरे पर झलक उठी। बोली-साथ ! नहीं भाई, साथवालियाँ जीने न देंगी!

रमा० – इस तरह डरने से तो फिर कभी कुछ न होगा। यह क्या स्वांग है कि स्त्रयाँ मुँह छिपाते चिक की आड़ में बैठी रहें !

इस तरह यह मामला भी तय हो गया। पहले दिन दोनों झेंपते रहे; लेकिन दूसरे दिन से हिम्मत खुल गयी। कई दिनों के बाद वह समय भी आया, कि रमा और जालपा सन्ध्या समय पार्क में साथ-साथ टहलते दिखाई दिये।


जालपा ने मुसकराकर कहा- कहीं बाबूजी देख लें तो?

रमा०-तो क्या, कुछ नहीं।

जालपा-मैं तो मारे शर्म के गड़ जाऊँ!

रमा०-तभी तो मुझे भी शर्म आयेगी, मगर बाबूजी खुद ही इधर न आयेंगे!

जालपा-और जो कहीं अम्माजी देख लें ?

रमा०-अम्मा से कौन डरता है, दो दलीलों में ठीक कर दुँगा।


दस ही पाँच दिन में जालपा ने नये महिला समाज में अपना रंग जमा लिया। उसने इस समाज में इस तरह प्रवेश किया, जैसे कोई कुशल वक्ता पहली बार परिषद् के मंच पर आता है। विद्वान् लोग उसकी उपेक्षा करने की इच्छा होने पर भी उसकी प्रतिभा के सामने सिर झुका देते हैं। जालपा भी 'आयी, देखा, और विजय कर लिया।' उसके सौन्दर्य में वह गरिमा, वह कठोरता, वह शान, वह तेजस्विता थी जो कुलीन महिलाओं के लक्षण हैं। पहले ही दिन महिला ने जालपा को चाय का निमन्त्रण दे दिया और जालपा इच्छा न रहने पर भी उसे अस्वीकार न कर सकी।


जब दोनों प्रारसी वहाँ से लौटे, तो रमा ने चिन्तित स्वर में कहा-तो कल इसकी चाय-पार्टी में जाना पड़ेगा ?

जालपा-क्या करती ? इंकार करते भी तो न बनता था।

रमा०—तो सबेरे तुम्हारे लिए अच्छी-सी साड़ी ला दूँ ?

जालपा-क्या मेरे पास साड़ी नहीं है ? जरा देर के लिए पचास-साठ रुपये खर्च करने से फायदा!

रमा०- तुम्हारे पास अच्छी साड़ी कहाँ है इसकी साड़ी तुमने देखी? ऐसी ही तुम्हारे लिए भी लाऊँगा।

जालपा ने विवशता के भाव से कहा-मुझे साफ़ कह देना चाहिए था कि फुरसत नहीं है।

रमा०-फिर इनकी दावत भी तो करनी पड़ेगी।

जालपा-यह तो बुरी विपत्ति गले पड़ी।

रमा०-विपत्ति कुछ नहीं है, सिर्फ यही खयाल है कि मेरा मकान इस काम के लायक नहीं। मेज, कुर्सियां, चाय के सेट रमेश के यहाँ से माँग लाऊँगा, लेकिन घर के लिए क्या करूं?

जालपा-क्या यह जरूरी है कि हम लोग भी दावत करें ?

रमा ने ऐसी नही बात का कुछ उत्तर न दिया। उसे जालना के लिए एक जूते की जोड़ी और सुन्दर कलाई की घड़ी की फिक्र पैदा हो गयी। उसके पास कौड़ी भी न थी। उसका खर्च रोज बढ़ता जाता था। अभी तक गहनेवालों को एक पैसा भी देने को नौवत न पायी थी। एक बार गंगू महाराज ने इशारे से तकाजा भी किया था। लेकिन यह भी तो नहीं हो सकता कि जालपा फर्ट हालों चाय पार्टी में जाये। नहीं, जालपा पर इतना अन्याय नहीं कर सकता। इस अवसर पर जालपा की रूप-शोभा का सिक्का बैठ जायेगा। सभी तो आज चमाचम साड़ियाँ पहने हुए थीं। जड़ाऊ कंगन और मोतियों के हारों की भी तो कमी न थो; पर जालपा अपने सादे पावरण में उनसे कोसों आगे थी। उसके सामने एक भी नहीं जँचती थीं। यह मेरे पूर्व कर्मों का का फल है कि मुझे ऐसी सुन्दरी मिलो। आखिर यही तो खाने-पहनने और जीवन का आनन्द उठाने के दिन हैं। जब जवानी ही में सुख न उठाया, तो बुढ़ापे में क्या कर लेंगे। बुढ़ापे में मान लिया, धन हुआ


ही तो क्या ! यौवन बीत जाने पर विवाह किस काम का?साड़ी और घड़ी लाने की उसे धुन सवार हो गयी। रात भर तो उसने सन्न किया। दूसरे दिन दोनों चीजें लाकर ही दम लिया।

जालपा ने झुंझलाकर कहा- मैंने तो तुमसे कहा था, कि इन चीजों का काम नहीं है। डेढ़ सौ से कम की न होंगी।

रमा०-डेढ़ सौ ! इतना फजूल-खर्च में नहीं है।

जालपा-डेढ़ सौ से कम की यह चीजें नहीं है।

जालपा ने बड़ी कलाई में बांध ली और साड़ी को खोलकर मंत्र-मुग्ध नेत्रों से देखा।

रमा०-तुम्हारी कलाई पर यह घड़ी कैसी खिल रही है ! मेरे रुपये वसूल हो गये।

जालपा-सच बताओ, कितने रुपये खर्च हए?

रमा०- सच बता दूँ? एक सौ पैंतीस रुपये। पचहत्तर रुपये की साड़ी दस के जूते और पच्चीस की।

जालपा-यह डेढ़ सौ हो हुए, मैंने कुछ बढ़ाकर थोड़े कहा था मगर यह सब रुपये अदा कैसे होंगे ? उस चुडैल ने व्यर्थ ही मुझे निमंत्रण दे दिया ! अब मैं बाहर जाना ही छोड़ दूंगी।

रमा भी इसी चिन्ता में मग्न था; पर उसने अपने भाव को प्रकट करके जालपा के हर्ष में बाधा न डाली। बोला-सब पैदा हो जायेगा।

जालपा ने तिरस्कार के भाव से कहा- कहाँ से अदा हो जायेगा,जरा सुनूं ? कौड़ो तो बचती नहीं, अदा कहाँ से हो जायेगा? यह तो बाबूजी घर का खर्च संभाले हुए हैं, नहीं तो मालूम होता। क्या तुम समझते हो कि मैं गहना और साड़ियों पर मरती हूँ ? इन चीजों को लौटा आओ।

रमा ने प्रेमपूर्ण नेत्रों से कहा- इन चीजों को रख लो। फिर तुमसे बिना पूछे कुछ न लाऊँगा।

सन्ध्या समय जब जालपा ने नयी साड़ी और नये जूते पहने, घड़ी कलाई पर बांधी और आईने में अपनी सूरत देखी, तो मारे गर्व और उल्लास के उसका मुख-मण्डल प्रज्ज्वलित हो उठा। उसने उन चीजों को लौटाने के लिए सच्चे दिल से कहा, पर इस समय वह इतना त्याग करने को तैयार

न थी। सन्ध्या समय जालपा और रमा छावनी की ओर चले। महिला ने केवल बँगले का नम्बर बतला दिया था। बँगला आसानी से मिल गया। फाटक पर साइनबोर्ड था-'इन्दुभूषणा, ऐडवोकेट, हाइकोर्ट।' अब रमा को मालूम हुआ कि वह महिला पं० इन्द्रभूषण की पत्नी थीं। पण्डितजी काशी के नामी वकील थे। रमा ने उन्हें कितनी ही बार देखा था; पर इतने बड़े आदमी से परिचय का सौभाग्य उसे कैसे होता। छ: महीने पहिले वह कल्पना भी न कर सकता था, कि किसी दिन उसे उनके धर निमन्त्रित होने का गौरव प्राप्त होगा; पर जालपा की बदौलत आज वह अनहोनी बात हो गयी। वह काशी के सबसे बड़े वकील का मेहमान था।

रमा ने सोचा था कि बहुत से स्त्री-पुरुष निमंत्रित होंगे; पर यहाँ वकील साहब और उनकी पत्नी रतन के सिवा और कोई न था। रतन इन दोनों को देखते ही बरामदे में निकल आयी और उनसे हाथ मिलाकर अन्दर ले गयी, और अपने पति से उनका परिचय कराया। पंडितजो ने 'आराम कुर्सी पर लेटे-ही-लेटे दोनों मेहमानों से हाथ मिलाया और मुसकराकर कहा- क्षमा कीजिएगा बाबू साहब, मेरा स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। आप यहाँ किसी आफिस में हैं ?

रमा ने झेंपते हुए कहा -जी हाँ, म्युनिसिपल आफिस में हूँ। अभी हाल ही में आया हूँ। कानून को तरफ़ जाने का इरादा था, पर नये वकीलों की यहाँ जो हालत हो रही है, उसे देखकर हिम्मत न पड़ी।।

रमा ने अपना महत्व बढ़ाने के लिए जरा-सा झूठ बोलना अनुचित न समझा।इसका असर बहुत अच्छा हुआ। अगर वह साफ कह देता, मैं पच्चीस रुपये का क्लर्क हूँ, तो शायद वकील साहब उससे बातें करने में अपना अपमान समझते। बोले—आपने बहुत अच्छा किया जो इधर नहीं 'आये। वहाँ दो-चार साल के बाद आप अच्छी जगह पहुँच जायेंगे। यहाँ सम्भव है दस साल तक आपको कोई मुकदमा ही न मिलता।

जालपा को अभी तक सन्देह हो रहा था कि रतन वकील साहब की बेटी है या पत्नी। वकील साहब की उम्र साठ से नीचे न थी। चिकनी चाँद आसपास सुफेद बालों के बीच में वारनिश को हुई लकड़ी की भाँति चमक रही थी। मूछें साफ थीं, पर माथे की शिकन और गालों की झुरिया बतला रही थी कि

यात्री संसार-यात्रा से थक गया है। आरामकुर्सी पर लेटे हुए वह ऐसे मालूम होते थे, जैसे बरसों के मरीज हो। 'हाँ, रंग गोरा था, जो साठ माल की गर्मी-सर्दी खाने पर भी उड़ न सका था। ऊँची नाक थी, ऊँचा माथा और बड़ी-बड़ी आँखें, जिनमें अभिमान भरा हुआ था ! उनके मुख से ऐसा भासित होता था कि उन्हें किसी से बोलना या किसी बात का जवाब देना भी अच्छा नहीं लगता। इसके प्रतिकूल रतन सांवली, सुगठित युवती थी, बड़ी मिलनसार जिसे गर्व ने छुआ तक न था। सौन्दर्य का उसके रूप में कोई लक्षण न था नाक चिपटी थी, मुख गोल, आँखें छोटी, फिर भी वह रानी-सी लगती थी। जालपा उसके सामने ऐसी लगती थी, जैसे सूर्यमुखी के सामने जूही का फूल।

चाय आयी। मेवे, फल, मिठाई, बर्फ की कुल्फी, सब मेज़ पर सजा दिये गये। रतन मोर जालपा एक मेज पर बैठौं। दूसरी मेज़ रमा' और वकोल साहब की थी। रमा तो मेज के सामने जा बैठा, मगर वकील साहब अभी आराम कुर्सी पर लेटे हुए थे।

रमा ने मुसकराकर वकील साहब से कहा-आप भी आयें।

वकील साहब ने लेटे-लेटे मुसकराकर कहा-शुरू कीजिए, मैं भी आया जाता हूँ।

लोगों ने चाय पी, फल खाये; पर वकील साहब के सामने हँसते-बोलते रमा और जालपा दोनों ही झिझकते थे। जिन्दादिल बूढ़ों के साथ तो सोहबत का आनन्द उठाया जा सकता है, लेकिन ऐसे रूखे निर्जीव मनुष्य जबान भी हों तो दूसरों को मुर्दा बना देते हैं। वकील साहब ने बहुत आग्रह करने पर दो घूँट चाय पी। दूर से बैठे तमाशा देखते रहे। इसलिए जब रतन ने जालपा से कहा-चलो, हम लोग जरा बगीचे की सैर करें, इन दोनों महाशयों को समाज और नीति की विवेचना करने दें, तो मानो जालपा के गले का फन्दा छूट गया। रमा ने पिंजड़े में बन्द पक्षो की भाँति उन दोनों को कमरे से निकलते देखा और एक लम्बी साँस ली। वह जानता कि यहाँ यह विपत्ति उसके सिर पर पड़ जायेगी, तो आने का नाम न लेता।

वकील साहब ने मुंह सिकोड़कर पहलू बदला और बोले-मालूम नहीं, पेट में क्या हो गया है, कि कोई चीज हजम नहीं होती। दूध भी हजम नहीं होता। चाय को न जाने लोग इतने शौक से क्यों पीते है, मुझे तो इसकी सूरत से डर लगता है 1 पीते ही बदन में ऐठन होने लगती है और आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगती हैं।

रमा ने कहा—— आपने हाजमे की कोई दवा नहीं की?

वकील साहब ने अरचि के भाव से कहा——दवाओं पर मुझे रत्ती भर भी विश्वास नहीं। इन वैद्यों और डाक्टरों से ज्यादा बेसमझ आदमी संसार में न 'मिलेंगे ! किसी में निदान को शक्ति नहीं। दो वैद्यों, दो डाक्टरों के निदान कभी न मिलेंगे। लक्षय वही हैं, पर एक दैव रक्तदोष बतलाता है, दुसरा पित्तदोष। एक डाक्टर फेफड़े की सुजन बतलाता है, दूसरा आमाशय का विकार। बस, अनुमान से दवा की जाती है और निर्दयता से रोगियों की गर्दन पर छुरी फेरी जाती है। इन डाक्टरों ने मुझे तो अब तक जहनुम पहुंचा दिया होता; पर मैं उनके पंजे से निकल भागा। योगाभ्यास की बड़ी प्रशंसासुनता हूँ, पर कोई ऐसे महात्मा नहीं मिलते जिनसे कुछ सौख सकू। किताबों के आधार पर कोई क्रिया करने से लाभ के बदले हानिहोने का डर रहता है ?

यहाँ तो प्रारोग्य-शास्त्र का खंडन हो रहा था, उपर दोनों महिलाओं में प्रगाढ़ स्नेह की बात हो रही थीं।

रतन ने मुसकराकर कहा—— मेरे पतिदेव को देखकर तुम्हें बड़ा आश्चर्य हुआ होगा ?

जालपा को प्राश्चर्य ही नहीं, भ्रम भी हुआ था। बोली—— वकील साहब का दूसरा विवाह होगा ?

रतन——हाँ, अभी पाँच ही बरस तो हुए हैं। इनकी पहली स्त्री को मरे पैतीस वर्ष हो गये। उस समय उनको अवस्था कुल पच्चीस साल की थी। लोगों में समझाया, दूसरा विवाह कर लो; पर इनके एक लड़का हो चुका था, विवाह करने से इन्कार कर दिया और तीस साल तक अकेले रहे। मगर आज पाँच वर्ष हुए जवान बेटे का देहान्त हो गया; तब विवाह करना प्रावश्यक हो गया। मेरे मां-बाप न थे। मामाजी ने मेरा पालन किया था। कह नहीं सकती, इनसे कुछ ले लिया या इनको सज्जनता पर मुग्ध हो गये। मैं तो समझती हूँ, ईश्वर को यही इच्छा थी, लेकिन मैं जब से आई हूँ, मोटी होती चली जाती हूँ। डाक्टरों का कहना है कि तुम्हें सन्तान नहीं हो सकती। बहन, मुझे तो संतान की लालसा नहीं है; लेकिन