चन्द्रकान्ता सन्तति 6/22.14

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

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आज कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की खुशी का कोई ठिकाना नहीं है क्योंकि तरह-तरह की तकलीफें उठाकर एक मुद्दत के बाद इन दोनों को दिली मुरादें हासिल हुई हैं।

रात आधी से कुछ ज्यादा जा चुकी है और एक सुन्दर सजे हुए कमरे में ऊँची और मुलायम गद्दी पर किशोरी और कुँअर इन्द्रजीतसिंह बैठे हुए दिखाई देते हैं । यद्यपि कुँअर इन्द्रजीत सिंह की तरह किशोरी के दिल में भी तरह-तरह की उमंगें भरी हुई हैं और वह आज इस ढंग पर कुँअर इन्द्रजीतसिंह की पहली मुलाकात को सौभाग्य का कारण समझती है मगर उस अनोखी लज्जा के पाले में पड़ी हुई किशोरी का चेहरा चूंघट की ओट से बाहर नहीं होता जिसे प्रकृति अपने हाथों से औरत की बुद्धि में जन्म ही से दे देती है। यद्यपि आज से पहले कुँअर इन्द्र जीतसिंह को कई दफे किशोरी देख चुकी है और उनसे बातें भी कर चुकी है तथापि आज पूरी स्वतन्त्रता मिलने पर भी यकायक सूरत दिखाने की हिम्मत नहीं पड़ती। कुमार तरह-तरह की बातें कहकर और समझाकर उसकी लज्जा दूर किया चाहते हैं मगर कृतकार्य नहीं होते । बहुत-कुछ कहने- सुनने पर कभी-कभी किशोरी दो-एक शब्द बोल देती है मगर वह भी धड़कते हुए कलेजे के साथ । कुमार ने सोच लिया कि यह स्त्रियों की प्रकृति है अतएव उसके विरुद्ध जोर न देना चाहिए, यदि इस समय इसकी हिम्मत नहीं खुलती तो क्या हुआ, घण्टे-दो-घण्टे, पहरदो-पहर या एक-दो दिन में खुल ही जायगी ! आखिर ऐसा ही हुआ।

इसके बाद किस तरह की छेड़छाड़ शुरू हुई या क्या हुआ, सो हम नहीं लिख सकते, हाँ उस समय का हाल जरूर लिखेंगे, जब धीरे-धीरे सुबह की सफेदी आसमान पर फैाने लग गई थी और नियमानुसार प्रातःकाल बजाई जाने वाली नफीरी की आवाज ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह और किशोरी को नींद से जगा दिया था। किशोरी जो कुंअर इन्द्रजीतसिंह के बगल में सोई हुई थी, घबरा कर उठ बैठी और मुंह धोने तथा बिखरे बालों को सुधारने की नीयत से उस सुनहरी चौकी की तरफ बढ़ी, जिस पर सोने के बर्तन में गंगाजल भरा हुआ था और जिसके पास ही जल गिराने के लिए एक बड़ा सा चाँदी का आफताबा भी रखा हुआ था। हाथ में जल लेकर चेहरे पर लगाने और पुनः अपना हाथ देखने के साथ ही किशोरी चौंक पड़ी और घबरा कर बोली, "हैं ! यह क्या मामला है?"

इन शब्दों ने इन्द्रजीतसिंह को चौंका दिया। वे घबड़ा कर किशोरी के पास चले गए और पूछा, "क्यों, क्या हुआ?" [ १२२ ]किशोरी--मेरे साथ यह क्या दिल्लगी की गई है?"

इन्द्रजीतसिंह--कुछ कहो भी तो क्या हुआ?

किशोरी--(हाथ दिखा कर) देखिए यह रंग कैसा है, जो चेहरे पर से पानी लगने के साथ ही छूट रहा है।

इन्द्रजीतसिंह--(हाथ देख कर) हाँ है तो सही ! मगर मैंने तो कुछ भी नहीं किया, तुम खुद सोच सोच सकती हो कि मैं भला तुम्हारे चेहरे पर रंग क्यों लगाने लगा, मगर तुम्हारे चेहरे पर यह रंग आया ही कहाँ से?

किशोरी--(पुनः चेहरे पर जल लगाकर) यह देखिए, है या नहीं!

इन्द्रजीतसिंह–-सो तो मैं खुद कह रहा हूँ कि रंग जरूर है, मगर जरा मेरी तरफ देखो तो सही!

किशोरी ने जो अब समयानुकूल लज्जा के हाथों से छूट कर ढिठाई का पल्ला पकड़ चुकी थी और जो कई घण्टों की कशमकश और चाल-चलन की बदौलत बातचीत करने लायक समझी जाती थी, कुमार की तरफ देखा और फिर कहा, "देखिए और कहिए, यह किसकी सूरत है?"

इन्द्रजीतसिंह--(और भी हैरान होकर) बड़े ताज्जुब की बात है! और इस रंग छूटने से तुम्हारा चेहरा भी कुछ बदला हुआ सा मालूम पड़ता है ! अच्छा, जरा अच्छी तरह से मुंह धो डालो! किशोरी ने 'अच्छा' कह मुंह धो डाला और रूमाल से पोंछने के बाद कुमार की तरफ देख कर बोली, "बताइए, अब कैसा मालूम पड़ता है ? रंग अब छूट गया या अभी नहीं?"

इन्द्रजीतसिंह--(घबराकर) हैं ! अब तो तुम साफ कमलिनी मालूम पड़ती हो ! यह क्या मामला है?

किशोरी–-मैं कमलिनी तो नहीं हुई हूँ। क्या पहले कोई दूसरी मालूम पड़ती थी?

इन्द्रजीतसिंह--बेशक ! पहले तुम किशोरी मालूम पड़ती थीं, कम रोशनी और कुछ लज्जा के कारण यद्यपि बहुत अच्छी तरह तुम्हारी सूरत रात को देखने में नहीं आई, तथापि मौके-मौके पर कई दफे निगाह पड़ ही गई थी। अतः किशोरी के सिवाय दूसरी औरत होने का गुमान भी नहीं हो सकता था ! मगर सच तो यह है कि तुमने मुझे बड़ा धोखा दिया!

कमलिनी--(जिसे अब इसी नाम से लिखना उचित है) मैंने धोखा नहीं दिया, बल्कि आप मुझे इस बात का जवाब तो दीजिए कि अगर आपने मुझे किशोरी समझा था तो इतनी ढिठाई करने की हिम्मत कैसे पड़ी? क्योंकि किशोरी आपकी स्त्री नहीं थी! इन्द्रजीतसिंह--क्या पागलपने की-सी बातें कर रही हो ! अगर किशोरी मेरी स्त्री नही थी तो क्या तुम मेरी स्त्री थीं?

कमलिनी--अगर आपने मुझे किशोरी समझा था तो आपको मेरे पास से उठ जाना चाहिए था। जब कि आप जानते हैं कि किशोरी कुमार के साथ ब्याही गई है तो [ १२३ ]आपको उसके पास बैठने या उससे बातचीत करने का क्या हक था?

इन्द्रजीतसिंह--तो क्या मैं इन्द्रजीत नहीं हूँ ? बल्कि उचित तो यह था कि तुम मेरे पास से उठ जातीं । जब तुम कमलिनी थीं तो तुम्हें पराये मर्द के पास बैठना भी न चाहिए था।

कमलिनी--(ताज्जुब और कुछ क्रोध का चेहरा बना कर) फिर आप वही बातें कहे जाते हैं ? आप अपने को समझ ही क्या रहे हैं ? पहले आप आईने में अपनी सूरत देखिए और तब कहिए कि आप किशोरी के पति हैं या कमलिनी के ! (आले पर से आईना उठा और कुमार को दिखाकर) अन बताइये, आप कौन हैं ? और मैं क्यों आपके पास से उठ जाती?

अब तो कुमार के ताज्जुब की कोई हद न रही, क्योंकि आईने में उन्होंने अपनी सूरत में फर्क पाया । यह तो नहीं कह सकते थे कि किस आदमी की सूरत मालूम पड़ती है। क्योंकि ऐसे आदमी को कभी देखा भी न था, मगर इतना जरूर कह सकते थे कि सूरत बदल गई और अब मैं इन्द्रजीतसिंह नहीं मालूम पड़ता। इन्द्रजीत सिंह समझ गए कि किसी ने मेरे और कमलिनी के साथ चालबाजी करके दोनों का धर्म नष्ट किया और इसमें बेचारी कमलिनी का कोई कसूर नहीं है। मगर फिर भी कमलिनी को आज का सामान देख कर चौंकना चाहिए था। हां, ताज्जुब की बात यह है कि इस घर में आने के पहले मुझे किसी ने टोका भी नहीं ! तो क्या इस घर में आने के बाद मेरी सूरत बदली गई ? मगर ऐसा भी क्योंकर हो सकता है ?—इत्यादि बातें सोचते हुए कुमार कमलिनी का मुंह देखने लगे। कमलिनी ने आईना हाथ से रख दिया और पूछा, "अब बताइये, आप कौन हैं ?" इसके जवाब में इन्द्रजीतसिंह ने कहा, "अब मैं भी अपना मुंह धो डालूं तो कहूँ।"

यह कहकर कुमार ने भी जल से अपना चेहरा साफ किया और रूमाल से पोंछने के बाद कमलिनी की तरफ देखकर कहा–'अब तुम ही बताओ कि मैं कौन हूँ?"

कमलिनी--अरे, यह क्या हुआ ! तुम तो बेशक बड़े कुमार हो? मगर तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? तुम्हें जरा भी धर्म का विचार न हुआ ? बताओ, अब मैं किस लायक रह गई और क्या कर सकती हूँ ? लोगों को कैसे अपना मुँह दिखाऊँगी और इस दुनिया में क्योंकर रहूँगी?

इन्द्रजीतसिंह--जिसने ऐसा किया वह बेशक मारे जाने लायक है । मैं उसे कभी न छोडूंगा क्योंकि ऐसा होने से मेरा भी धर्म नष्ट हुआ है। और इस बदमाशी को मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता, मगर यह तो बताओ कि आज का सामान देखकर तुम्हारे दिल में किसी प्रकार का शक पैदा न हुआ?

कमलिनी--क्योंकर शक पैदा हो सकता था, जब कि आप ही की तरह मेरे लिए भी 'सोहाग रात' आज ही तय गई थी ! मैं नहीं कह सकती थी कि दूसरी तरफ का क्या हाल है ! ताज्जुब नहीं कि जिस तरह मैं धोखे में डाली गई, उसी तरह किशोरी के साथ भी बेईमानी की गई हो और आपके बदले में किशोरी मेरे पति के पास पहुंचाई गई हो!

ओ हो ! कमलिनी की इस बात ने तो कुमार की रही-सही अक्ल भी खो दी ! [ १२४ ]जिस बात का अब तक कुमार के दिल में ध्यान भी न था, उसे समझा कर तो कमलिनी ने अनर्थ कर दिया । ब्याह हो जाने पर भी किशोरी किसी दूसरे मर्द के पास भेजी जाय, क्या इस बात को कुमार बर्दाश्त कर सकते थे ? कभी नहीं ! सुनने के साथ ही मारे क्रोध के उनका शरीर काँपने लगा और वे घबरा कर कमलिनी से बोले, "यह तो तुमने ठीक कहा ! ताज्जुब नहीं कि ऐसा हुआ हो। लेकिन अगर ऐसा हुआ होगा तो मैं उन दोनों को इस दुनिया से उठा दूंगा!"

इतना कहकर कुमार ने अपनी तलवार उठा ली जो गद्दी पर पड़ी हुई थी और कमरे के बाहर जाने लगे। उस समय कमलिनी ने कुमार का हाथ पकड़ लिया और कहा, "कृपानिधान, जरा मेरी एक बात का जवाब दे दीजिये तो यहाँ से जाइये !"

इन्द्रजीतसिंह--कहो।

कमलिनी--आपका धर्म नष्ट हुआ, खैर, कोई चिन्ता नहीं, क्योंकि धर्मशास्त्र में मर्दो के लिए कोई कड़ी पाबन्दी नहीं लगाई गई है, मगर औरतों को तो किसी लायक नहीं छोड़ा है। आपके लिए तो प्रायश्चित्त है, मगर मेरे लिए तो कोई प्रायश्चित्त भी नहीं जिसे करके मैं सुधार जाऊँगी, इतना जानकर भी मेरा धर्म नष्ट होने पर आपको उतना रंज या क्रोध नहीं हुआ, जितना यह सोच कर हुआ कि किशोरी की भी ऐसी ही दशा हुई होगी ! ऐसा क्यों? क्या मेरा पति कमजोर और नामर्द है ? क्या वह भी आपकी ही तरह क्रोध में न आया होगा? क्या इसी तरह वह भी तलवार लेकर मेरी और आपकी खोज में न निकला होगा? आप जल्दी क्यों करते हैं, वह खुद यहाँ आता होगा क्योंकि वह आपसे ज्यादा क्रोधी है, मैं तो खुद उसके सामने अपनी गर्दन झुका दूंगी!

कुमार को क्रोध-पर-क्रोध, रंज-पर-रंज और अफसोस-पर-अफसोस होता ही जाता था। कमलिनी की इस आखिरी बात ने कुमार के दिल में दूसरा ही रंग पैदा कर दिया। उन्होंने घबरा कर एक लम्बी सांस ली और ऊपर की तरफ मुंह करके कहा, "विधाता ! टूने यह क्या किया? मैंने कौन-सा ऐसा पाप किया था, जिसके बदले में इस खुशी को ऐसे रंज के साथ तूने बदल दिया ! अब मैं क्या करूँ ? क्या अपने हाथ से अपना गला काटकर निश्चिन्त हो जाऊँ ? मुझ पर आत्मघात का दोष तो नहीं लगाया जायगा!"

इन्द्रजीतसिंह ने इतना ही कहा था कि कमरे का वह दरवाजा, जिसे कुमार बन्द समझते थे, खुला और किशोरी तथा कमला अन्दर आती हुई दिखाई पड़ी। कुमार ने समझा कि बेशक किशोरी इसी ढंग का उलाहना लेकर आई होगी, मगर उन दोनों के चेहरों पर हँसी देख कर कुमार को ताज्जुब हुआ और यह देख कर उनका ताज्जुब और भी बढ़ गया कि किशोरी और कमला को देख कर कमलिनी खिलखिला कर हँस पड़ी और किशोरी से बोली- "लो बहिन, आज मैंने तुम्हारे पति को अपना बना लिया !" इसके जवाब में किशोरी बोली, "तुमने पहले ही अपना बना लिया था, आज की बात ही क्या है!"