चन्द्रकान्ता सन्तति 6/23.8

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

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नानक इस बात को सोच रहा था कि मैं पहले किस पर वार करूं ? अगर पहले शान्ता पर वार करूं तो आहट पाकर भूतनाथ जाग जायगा और मुझे गिरफ्तार कर लेगा क्योंकि मैं अकेला किसी तरह उसका मुकाबला नहीं कर सकता अतएव पहले भूतनाथ ही का काम तमाम करना चाहिए। अगर इसकी आहट पाकर शान्ता जाग भी जायगी तो कोई चिन्ता नहीं, मैं उसे साँस लेने की भी मोहलत न दूंगा, वह औरत की जात मेरे मुकाबले में क्या कर सकती है। मगर ऐसा करने के लिए यह जानने की जरूरत है कि इन दोनों में शान्ता कौन है और भूतनाथ कौन ।

थोड़ी ही देर के अन्दर ऐसी बहुत-सी बातें नानक के दिमाग में दौड़ गई और उन दोनों में भूतनाथ कौन है इसका पता न लगा सकने के कारण लाचार होकर उसने यह निश्चय किया कि इन दोनों ही को बेहोश करके यहाँ से घर ले चलना चाहिए । ऐसा करने से मेरी मां बहुत ही प्रसन्न होगी।

नानक ने अपने बटुए में से बहुत ही तेज बेहोशी की दवा निकाली और उन दोनों के मुंह पर चादर के ऊपर ही छिड़ककर उनके बेहोश होने का इन्तजार करने लगा।

थोड़ी ही देर में उन दोनों ने हाथ-पैर हिलाये जिससे नानक समझ गया कि अब इन पर बेहोशी का असर हो गया, अतः उसने दोनों के ऊपर से चादर हटा दी और तभी देखा कि इन दोनों में भूतनाथ नहीं है बल्कि ये दोनों औरतें ही हैं जिनमें एक भूतनाथ की स्त्री शान्ता है । उस दूसरी औरत को नानक पहचानता न था।

नानक ने फिर एक दफे बेहोशी की दवा सुंघा कर शान्ता को अच्छी तरह बेहोश किया और चारपाई पर से उठाकर बहुत हिफाजत और होशियारी के साथ खेमे के बाहर निकाल लाया जहाँ उसने अपने एक साथी को मौजूद पाया। दो ने मिलकर उसकी गठरी बांधी और फुर्ती से लश्कर के बाहर निकाल ले गये। [ १५२ ]शान्ता को पा जाने से नानक बहुत ही खुश था और सोचता जाता था कि इसे पाकर मां बहुत ही प्रसन्न होगी और हद से ज्यादा मेरी तारीफ करेगी, मैं इसे सीधे अपने घर ले जाऊँगा और जब दूसरी दफे लौटूंगा तो भूतनाथ पर कब्जा करूँगा। इसी तरह धीरे-धीरे अपने सब दुश्मनों को जहन्नुम भेज दूंगा।

कोस-भर निकल जाने के बाद जब नानक एक संकेत पर पहुँचा तो उसके और साथियों से भी मुलाकात हुई जो कसे-कसाये कई घोड़ों के साथ उसका इन्तजार कर रहे थे।

एक घोड़े पर सवार होने के बाद नानक ने शान्ता को अपने आगे रख लिया, उसके साथी लोग भी घोड़ों पर सवार हुए, और सभी ने पूरब का रास्ता लिया।

दूसरे दिन संध्या के समय नानक अपने घर पहुंचा। रास्ते में उसने और उसके साथियों ने कई दफे भोजन किया मगर शान्ता की कुछ खबर न ली, बल्कि जब इस बात का खयाल हुआ कि अब उसकी बेहोशी उतारना चाहती है तब पुनः दवा सुंघाकर उसकी बेहोशी मजबूत कर दी गई।

नानक को देखकर उसकी माँ बहुत प्रसन्न हुई और जब उसे यह मालूम हुआ कि उसका सपूत शान्ता को गिरफ्तार कर लाया है तब तो उसकी खुशी का कोई ठिकाना ही न रहा । उसने नानक की बहुत ही आवभगत की और बहुत तारीफ करने के बाद बोली, "इससे बदला लेने में अब क्षण-भर की भी देर न करनी चाहिए, इसे तुरन्त खम्भे के साथ बाँधकर होश में ले आओ और पहले जूतियों से खूब अच्छी तरह खबर लो, फिर जो कुछ होगा देखा जायगा। मगर इसके मुंह में खूब अच्छी तरह कपड़ा ढूंस दो जिससे कुछ बोल न सके और हम लोगों को गालियाँ न दे।"

नानक को भी यह बात पसन्द आई और उसने ऐसा ही किया। शान्ता के मुंह में कपड़ा लूंस दिया गया और वह दालान में एक खम्भे के साथ बांधकर होश में लाई गई। होश में आते ही अपने को ऐसी अवस्था में देखकर वह बहुत ही घबराई और जब उद्योग करने पर भी कुछ बोल न सकी तो आँखों से आंसू की धारा बहाने लगी।

नानक ने उसकी दशा पर कुछ भी ध्यान न दिया। अपनी मां की आज्ञा पाकर उसने शान्ता को जूते से मारना शुरू किया और यहाँ तक मारा कि अन्त में वह बेहोश होकर झुक गई। उस समय नानक की मां कागज का एक लपेटा हुआ पुर्जा नानक के आगे फेंककर यह कहती हुई घर के बाहर निकल गई कि इसे अच्छी तरह पढ़ ले, तब तक मैं लौटकर आती हूँ।"

उसकी कार्रवाई ने नानक को ताज्जुब में डाल दिया। उसने जमीन पर से पुर्जा वह उठा लिया और चिराग के सामने ले जाकर पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

"भूतनाथ के साथ ऐयारी करना या उसका मुकाबला करना नानक ऐसे नौसिखे लौंडों का काम नहीं है । तू समझता होगा कि मैंने शान्ता को गिरफ्तार कर लिया, मगर खूब समझ रख कि वह कभी तेरे पंजे में नहीं आ सकती। जिस औरत को तू जूतियों से मार रहा है, वह शान्ता नहीं। पानी से इसका चेहरा धो डाल और भूतनाथ की कारीगरी का तमाशा देख ! अब अगर अपनी जान तुझे प्यारी हो तो खबरदार ! भूतनाथ का पीछा [ १५३ ]कभी न करना।"

पुर्जा पढ़ने ही नानक के होश उड़ गये। झटपट पानी का लोटा उठा लिया और मुंह में लूंसा हुआ कपड़ा निकालकर शान्ता का चेहरा धोने लगा, तब तक वह भी होश में आ गई। चेहरा साफ होने पर नानक ने देखा कि यह तो उसकी असली मां 'रामदेई' है। उसने होश में आते ही नानक से कहा, "क्यों बेटा, तुमने मेरे ही साथ ऐसा सलूक किया !"

नानक के ताज्जुब की कोई हद न रही। वह घबराहट के साथ अपनी माँ का मुंह देखने लगा और ऐसा परेशान हुआ कि आधी घड़ी तक उसमें कुछ बोलने की शक्ति न रही। इस बीच में रामदेई ने उसे तरह-तरह की बातें सुनाई जिन्हें वह सिर नीचा कि हुए चुपचाप सुनता रहा । जब उसकी तबीयत कुछ ठिकाने हुई तब उसने सोचा कि पहले उस रामदेई को पकड़ना चाहिए जो मेरे सामने चिट्ठी फेंककर मकान के बाहर निकल गई है, परन्तु यह उसकी सामर्थ्य के बाहर था, क्योंकि उसे घर से बाहर गए हुए देर हो चुकी थी, अतः उसने सोचा कि अब वह किसी तरह नहीं पकड़ी जा सकती।

नानक ने अपनी माँ के हाथ-पैर खोल डाले और कहा, "मेरी समझ में कुछ नहीं आता कि यह क्या हुआ, तुम वहाँ कैसे जा पहुँची, और तुम्हारी शक्ल में यहां रहने वाली कोन थी या क्योंकर आई!"

रामदेई--मैं इसका जवाब कुछ भी नहीं दे सकती और न मुझे कुछ मालूम ही है। मैं तुम्हारे चले जाने के बाद इसी घर में थी, इसी घर में बेहोश हुई और होश आने पर अपने को इसी घर में देखती हूँ, अब तुम्हीं बयान करो कि क्या हुआ और तुमने मेरे साथ ऐसा सलूक क्यों किया?

नानक ने ताज्जुब के साथ अपना किस्सा पूरा-पूरा बयान किया और अन्त में कहा, "अब तुम ही बताओ कि मैंने इसमें क्या भूल की ?"