तुलसी चौरा/१३

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तुलसी चौरा  (1988) 
द्वारा ना॰ पार्थसारथी, अनुवादक डॉ॰ सुमित अय्यर

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ही नहीं रहती। न ही उन अफवाहों में कोई शालीनता होती है। अफवाह फैलाने वाले भी ऐसी शालीनता का ध्यान नहीं रखते। साधारण से साधारण घटनाओं को विकृत कर देखा जाता है।

रवि और कमली के बारे में कुछ खुसुर-पुसुर फैली हुई थी पर उसका आधार नहीं था। पर इरैमुडिमणि की गोष्ठी में भावी बहू के रूप में उसका परिचय करवाया जाना, फिर रवि के हाथ मालार्पण किया जाना, इन तमाम बातों ने अफवाहों को तूल दे डाला था।

शर्मा जी से ही खास लोगों ने इस बारे में सीधे पूछ लिया। शर्मा जानते थे कि बातों को छिपाने की भादत देशिकामणि में नहीं है। पर उन्होंने निश्चय किया कि इस सन्दर्भ में भी इरैमुडिमणि से बातें करेंगे।

कमली और रवि को मन्दिर भिजवाकर शर्मा नी इरैमुडिमणि से मिलने निकले।

पहले दुकान गए। वहाँ वह नहीं मिले। दामाद ही बैठा था। उसी ने बताया कि वे लकड़ी टाल में ही हैं।

दुकान में काफी भीड़ थी। साफ लग रहा था कि सीमावय्यर के प्रचार का कोई असर नहीं हुआ। अच्छी चीजें और सही दामों की वजह से दुकान चल निकली थी। ग्राहकों के प्रति विनम्र भाव से इरैमुडिमणि का दामाद पेश आता था―

शर्मा जी ने औपचारिकतावश पूछ लिया। 'कैसी चल रही है।'

'बढ़िया चल रही।' शर्मा जी वहाँ से रैमुडिमणि के पास पहुँचे। ट्रक से लकड़ियाँ उतर रही थीं।

'देशिकामणि, अकेले में बातें करनी है। यहाँ तो भीड़ है। घाट पर चलें।'

'बस दस मिनट बैठ जाओ। अभी निपटा देंगे।'

दस ही मिनट में इरैमुडिमणि लौट आए। दोनों बतियाते हुए घाट तक पहुँच गए। इरैमुडिमणि को एक जगह बिठाकर शर्मा ने [ १३० ]
संध्या बंदन समाप्त किया।

इरैमुडिमणि उनके लौटने की प्रतीक्षा करते रहे। आते ही शर्मा ने बात शुरू की, 'कमली को और मुझे वकील का नोटिस भिजवाया गया है। मैंने यह बात वेणुकाका और तुम्हें ही बतायी है।'

'कैसा नोटिस? किसने भिजवाया है?'

'किसका नाम लें। यहीं के लोग हैं। मेरे बारे में और कमली के मंदिर प्रवेश के बारे में उन्हें शिकायतें हैं।'

'एक बात कहूँ यार, तुम्हारी जात बाले जलने के सिवा कुछ नहीं करते। अब तो मंदिर में जाने वाले ही कम होते जा रहे हैं। जो लोग श्रद्धा के साथ जा रहे हैं, उन्हें तुम्हारे ही लोग रोकने लगे हैं। लगता है, मेरे संगठन का काम अब ये लोग करने लगेंगे।'

'सीमावय्यर ही फसाद की जड़ है। सामने मिलो, तो इतने प्यार से बातें करेंगे कि बस! पीठ पीछे ये सारी करतुतें, लोगों को भड़काना………।'

'बह तो मरेगा कुत्ते की मौत। संपोले की तरह घूम रहा है गाँव में। (इस उसको भड़काने के अलावा आता भी है कुछ! हमारी दुकान को बंद करवाना चाहा। नहीं बना। लोग तो माल देखते हैं)। आदमी को थोड़े न देखते हैं।'

'इस नोटिस में यह भी एक आरोप है।'

'अच्छा? यार, पहले मालूम होता तो मैं तुमसे माँगता ही नहीं। तुमने किराये पर उठाने की बात कही थी, सोचा हम ही क्यों न ले लें।'

'तुमने मांगा और मैंने दिलवाया गलती दोनों की नहीं है। सब नीति नियम के अनुसार ही हुआ है। अहमद अली को जगह दिलवायी जा सकती है तो तुम्हें क्यों नहीं।'

'मन्दिर और भगवान को न मानने वाले नास्तिक से मन्दिर की मूर्तियों को चुराकर बेचने वाले उन्हें बेहतर लगते होंगे। सीमावय्यर [ १३१ ]
को बोतल, सेंट, विदेशी समान भी देता है न।

'सो ठीक है। तुमने गोष्ठी में यह क्या कह दिया? मेरी भावी बहू के रूप में उसका परिचय करवाया था क्या?'

'हाँ' कहा था। गलत कहा क्या? काहे मरे जा रहे हो। वो तो रवि ने खुद मुझसे कहा था कि सूरज भले ही पश्चिम में उगने लगे, वह इसके अलावा किसी के साथ विवाह नहीं करेगा। वह लड़की भी रवि को ही नहीं, हमारे यहाँ की सांस्कृतिक आचार व्यवहार को प्यार करती है। अन्धविश्वासों को भी मानती हैं। हमारे यहाँ गोष्ठी में हम वन्दना वगैरह तो करते नहीं। उस दिन उस लड़की ने जानते हो क्या किया?

गणेश वन्दना के बाद ही गोष्ठी की शुरुआत की था। हमारे संगठन वालों को यह अच्छा नहीं लगा होगा। पर तमिल में इतना सुन्दर भाषण दिया कि वे लोग शिकायत भूल ही गये। एकाध सोगों ने टोका था। मैंने तो कह दिया, कि उसका अपना विश्वास है। तुम्हारे यहाँ ब्राह्मणों में इतनी पढ़ी लिखी ऐसी प्रतिभा- शाली लड़की नहीं मिलेगी। उसका रंग ही नहीं स्वभाव भी सोने सा है। मुझसे तो कुछ छिपाते नहीं बनता।'

'जब बातें समय के पहले सामने आ जाएँ तो अफवाहों को जन्म देती हैं। कुछ बातें भले ही सच हों, उन्हें घटित होने में कुछ वक्त लग सकता है। पहले घट जाएँ तो गर्भपात वाली स्थिति हो जाती है।'

'ठीक है, पर गर्भवती होने की बात छिपाये नहीं छिपती न।

शर्मा हँस पड़े। इरैमुडिमणि का तर्क कठोर था। आगे विवाद नहीं घसीटा। इरैमुडिमणि ने आगे कहा, 'यहीं नहीं, विश्वेश्वर! भैय्या जी ने एक बात और कही है। एक दिन हम दोनों यहीं बैठे बातें कर रहे थे। तब मन खोलकर कई बातें कही। वह लड़की अँगूठी बदलने वाला विवाह नहीं चाहती। यहाँ की तरह शास्त्र सम्मत विवाह करना चाहती है। मैंने कहा, यह तो पागलपन है। यहाँ हम लोग चार दिन [ १३२ ]
के विवाह को एक दिन में समेट रहे हैं। रजिस्टर्ड शादियाँ करवाने लगे हैं और यह पड़ी लिखी लड़की इतने पिछड़े विचार की है? मैंने भैय्या जी को छेड़ा था। तब बोले कि वह जिद कर रही अपने पिता से इसके लिये काफी पैसे मांग कर लायी है।'

'लोगों की बात जाने दो देशिकामणि। यह कामाक्षी ऐसा होने ही नहीं देगी।'

'उसका मन तो तुम्हें बदलना होगा। एक की जिद के लिये किसी की जिंदगी खराब करोगे?'

'वकील नोटिस का क्या करें?'

'धमका रहे हैं, साले। कचहरी में निपट लेंगे। तुम डरना मत।'

'वणुकाका के सुझाव की बात बताई।'

'अच्छा सुझाव है। तुम उत्तर मत देना। मामला अदालत में आने दो, देखते हैं।'

काफी देर तक बातें करते रहे। अंधेरा घिर आया था। इसलिये लौट आये। इरैमुडिमणि अपनी दुकान में रह गये। शर्मा जी का मन हल्का हो गया था। दोस्त से बातचीत के बाद तमाम चिताएं दूर होने लगी थीं। शर्मा जी घर लौटे तो पार्वती दीप जला रही थी। कामाक्षी शायद पड़ोस में गयी थी। पार्वती का श्लोक पाठ खत्म हो गया तो उसे बुलाया, 'पारू इधर बाना बिटिया।' एक जरूरी काम हैं। भगवान के आगे पर्ची डाल रहा हूँ। तुम ध्यान करके एक पर्ची निकालना।'

पार्वती ने वैसा ही किया। शर्मा जी ने पर्ची खोंली―उनका चेहरा खिल गया।

'बाऊ बात बनेगी या नहीं'

'बनी है, बिटिया।' उन्होंने पर्ची को आँखों से लगा लिया। किसी के सीढ़ियाँ चढ़ने की आवाज आयी। पार्वती ने बाहर झांक कर देखा। [ १३३ ]'बाऊ जी, भैय्या और कमली आ रहे हैं, मंदिर से।'

कमली के माथे पर भभुत और कुंकुम लगा था। शर्मा जी के पास आयी और उन्हें कागज को पुड़िया में बँधी भभूति, कुंकुम और बेल के पत्ते बढ़ा दिये। रवि को डर लग रहा था। कहीं बाऊजी कमली के हाथों से प्रसाद लेने से इन्कार न कर दें। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

शर्मा जी ने प्रसाद ले लिया। कमली के हाथों से थाली लेकर उसे आंखों से लगाया और प्रसाद ले लिया। रवि को जैसे विश्वास नहीं हुआ।

'चंदा दे दिया था। रसीद भी मिल गयी। ये लीजिये बाऊ जी।' रवि ने रसीद उनको दिखाया।

कमली ऊपर चली गयी। रवि उसके पीछे जाने लगा तो शर्मा ने रोक लिया 'तुम ठहो, तुम से कुछ बातें करनी हैं।' उसके कान में कहा, 'अभी आया बाऊ, बस एक मिनट।' रवि ने उनसे कहा और सीढ़ियाँ चढ़ गया। इस क्षण शर्मा का मन बिल्कुल साफ था। पूर्णज्ञानी की अवस्था में पहुँच गये थे वे। इसलिये उनकी निश्छल मुसकान लौट आयी थी। रवि की प्रतीक्षा में पेपर पेंसिल लिए बैठे रहे मन में जैसे कुछ निश्चय कर लिया था।

रवि के मन में एक नामालूम सी खुशी थी। बाऊ का उसे बुला- कर मन्दिर जाने को कहना, फिर कमली के हाथों से प्रसाद लेना, फिर उससे बातें करने की इच्छा जाहिर करना―उसे लगा, एक अच्छी शुरुआत है।

कमली के हाथ से प्रसाद लेने की इस उदारता से वह अभिभूत हो उठा था। कमली से बाऊ की इस उदारता की चर्चा करते हुये बोला, 'इसी जगह अगर माँ होती तो एक महाभारत हो जाता। पर बाऊ तो बाऊ ही हैं।' वह सीढ़ियाँ उतरने लगा, तो कमली ने कहा, 'देख लीजिये एक दिन आपकी माँ भी इसी तरह मेरे हाथ से प्रसाद [ १३४ ]
लेगी। और आप लोग भी उसे देखेंगे।'

'पिछवाड़े चलें!' रवि ने पूछा।

'न, यहाँ तीसरा कौन है? यहीं ओसारे पर बैठ जाते हैं।'

बाऊ के हाथों में पँचांग, एक कागज और कलम था।

बह बात उनके मुँह से ही सुनना चाहता था। बचपन में पाठ कंठस्थ करते वक्त जिस तरह बैठा करता था। उसी तरह हाथ बांध- कर बैठ गया।

'क्यों रे, क्या है, तेरे मन में? तुम्हें पहले मुझे बताना चाहिये न, गैर लोग आकर मुझे बताएँ, भला कैसा लगता है। एक छोटी सी बात में तुम इतने असभ्य कब से हो गये?'

रवि को समझ में कुछ नहीं आया। वह तो मन में उत्तर तैयार कर रहा था कि शर्मा जी और आगे बोले, 'बात तो मुझे तय करनी है। तुम देशिकामणिं से कहो या वेणूकाका से क्या फायदा?'

'ठीक कहते हैं, बाऊ। हमने तो आपका मित्र समझ कर ही पूछा था।'

'मैंने तो तय कर लिया। तुम्हारी अम्मा से लेकर गाँव वालों को, कमली के बारे में, उसके यहाँ रहने के बारे में, कुछ नहीं बता पा रहा हूँ। स्वामखाह अफवाहों को ही बल मिल रहा है। ऐसे में मुझे लगता है, कि लोगों का मुँह बन्द करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि तुम दोनों का शास्त्र सम्मत विवाह कर दिया जाय। तुमने आते ही मुझसे पूछा था। पर अब मैं खुद तैयार हूँ।'

रवि को विश्वास नहीं हुआ था क्या सचमुच बाऊ ही है, उसे शक हुआ।

'सच बाऊ?' वह उत्साह में चीखा।

'तो क्या? मैं क्या मजाक कर रहा हूँ? इस माह के अन्त में एक मुहूर्त निकल रहा है। पर उसके माता पिता यहां नहीं हैं , उसका [ १३५ ]
कन्यादान कौन करेगा।'

'केवल देंगे, तो उसके माँ बाप आ जायेंगे। पर इस मुहूर्त में तो उनका आ पाना असम्भव है। वेणुकाका से पूछ लें?'

'क्यों, उनसे भी पहले ही बातें कर ली। सभी तैयारी हो गयी है क्या?'

'न सोचा पूछ लें, शायद वे मान जाएँ।'

'चलो उनसे पूछ लो।'

'मैं कहाँ जाऊँगा, बाऊ जी, आपकी बात वे काटेंगे नहीं। पर अगर मेरा आना जरूरी है तो आऊँगा।'

'अरे यूँ ही आ जाओ। तुम्हें कुछ बोलना नहीं है। मैं खुद ही उनसे पूछ लूँगा।'

उन्हें लगा, रवि साथ आते शरमा रहा है। पर उनकी बात टाल नहीं सका। इस मामले में बात की रुचि और जल्दबाजी ने उसे हक्का- बक्का कर दिया था।

इसकी सुखद अनुभूति से वह उभर नहीं पाया। रास्ते भर बाऊ से वह कुछ बोल भी नहीं पाया। घर की सीढ़ियाँ उत्तरे तो एक सुहागन पानी का कलशा लिये सामने से आती दिख गयी। 'शगुन तो बहुत अच्छा है।' शर्मा ने कहा―

वे लोग पहुँचे तो वेणुकाका ओसारे पर ही बैठे थे। उनके पास वे एक थाल में फल-फूल, पान-सुपारी कच्ची इलायची के गुच्छे रखे थे। वेणुकाका उत्साह में थे।

'आइये, हमारे एस्टेट के मैनेजर अपने नये घर का गृह प्रवेश कर रहे हैं। अभी आये थे बुलौवा दे गये। क्या हुआ? बाप-बेटे एक साथ कैसे आ गये? इसे भी कोई नोटिस मिल गया है क्या?'

'नहीं! मन्दिर के लिये, अपने कहे के अनुसार बन्दा दिलवा दिया हैं। रसीद भी ले ली है?'

'शाबाश, फिर?' [ १३६ ]'कहते हैं' 'शुभस्य शीघ्रम्।' यहाँ फैलती अफवाहों को देख सुन- कर अब मैंने भी जिद पकड़ ली है। बस आपको एक मदद करनी होगी। इस गाँव में आपकी तरह मदद करने वाला और कोई नहीं है।'

'क्या बात है, इतनी लम्बी भूमिका क्यों बांधी जा रही हैं?'

बात क्या है, पहले बताओ तो!

शर्मा जी ने किसी तरह हकलाते हुये बात पूरी की।

यह सुनते ही वेणुकाका भागे-भागे भीतर गये और मुट्ठी भर चीनी ले आये, शर्मा जी के मुँह में चीनी डाल दी। उनकी खुशी जैसे फूटी पड़ रही थी।

'बसंती को तार अभी किये देता हूँ। तुम फिक्र मत करना। जब कमली का कन्यादान मुझे करना है, तो उसका मायका यही हुआ न।' शादी इसी घर में होगी। 'लग्न पत्र' मण्डप की तैयारियाँ शुरू करता हूँ।'

'अपनी घरवाली से और पूछ लेते....।'

'क्या पूछूँ उसे कह दूँगा कि बसंती की तरह यह भी अपनी बिटिया है। इसका कन्यादान हमें ही करना है। मेरे पास वेदी पर आकर बैठ जाओ। वह कोई ना-नुकुर नहीं करेगी, जानता हूँ। यह दिक्कत तो तुम्हारे घर पर है तुम्हारी पत्नी मण्डप में आयेगी भी या नहीं?'

'उसके बारे में क्या कहूँ, पर हाँ मुझे तो नहीं लगता की वह आयेगी।'

'कोई बात नहीं। जो जिंद में अड़े रहते हैं, दुनिया उनके लिये नहीं रुकती। बीस-तीस साल पहले जब अपनी शादी हुई थी तो जितने भी अनुष्ठान उसमें हुये थे, सब करेंगे। मेरे ऊपर छोड़ दो। सब कुछ मैं देख लूँगा। तुम तो समधी हो। मैं तो लड़की वाला हूँ न। तुम बस विवाह पर आ जाना। बाकी मैं देख लूँगा।'

'तो क्या मैं फिक्र करना छोड़ दूँ। यह आम शादियों की तरह तो है नहीं। चार दिनों के अनुष्ठान के लिये पण्डित कहाँ से मिलें। [ १३७ ]
सीमावय्यर उन्हें भी धमका कर रखेंगे। कहेंये यह शास्त्र सम्मत विवाह नहीं है। तो क्या कर लेंगे? खैर दिक्कतें आये भी तो कोई बात नहीं सम्हाल लूँगा।'

'उसकी कोई जरूरत नहीं है यार। आज तो अधिकांश पंडित और वैदिक ब्राह्मम शास्त्र और सन्त्रों को अच्छी कीमत पर बेच ही रहे हैं। दस रुपये की अतिरिक्त दक्षिणा दे देना तो देखना, सीमावय्यर के घर के पण्डित ही भागे चले आयेंगे।'

'ये यूरोपीय बड़े मजेदार लोग हैं। अपने पिताजी से कहकर इन अनुण्ठानों के लिये स्पये माँग कर लायी है। तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं। कमली से ही ले लेंगे।'

'बको मत यार। मुझे कौन सी परेशानी होनी है। इस तरह के तो दासियों विवाह मैं कर डालूँ। भगवान का दिया इतना कुछ है। मेरी एक और बिटिया होती तो क्या उसके लिये खर्च नहीं करता?'

'बात वह नहीं है, मुझे गलत मत समझना। कमली इसे कहीं बुरे अर्थों में न ले ले। इसलिये उसके ट्रैवलर्स चेक को मैं कैश करबा लेता हूँ।' रवि ने बीच में टोका।

'वाह! पहली बार तो ऐसा दामाद मिला है, जो लड़की के बाप से खर्च नहीं करवाना चाहता।' वेणुकाका रवि को देखकर हँस पड़े।

शर्मा या रवि ने उस वक्त देणुकाका को बातों का विरोध नहीं किया। बसंती के लिए रवि के माध्यम से ही तार दिलवा दिया।

'यह मत सोचना शादी के पहले ही दामाद से काम लेने लगा हूँ। जब विवाह शास्त्र सम्मत ढंग से हो रहा है, तो कायदा यही कहता है कि कमली यहाँ आकर रहे। उसके लिए साथ की भी तो जरूरत है। इसलिए बसंती को तो बुलवाना पड़ेगा। वह यहाँ रहेगी तो अच्छा लगेगा। उसे तो इस विवाह में बहुत रुचि है।'

रवि निकल गया।

'शर्मा, सच यार, मैं बेहद खुश हूँ। इतनी खुशी कभी नहीं रही। [ १३८ ]
तिलक के लिए तुम शुभ मुहूर्त निकलवा लेना।

‘खुशा तो मैं भी हूँ यार। पर हिचक भी है एक ओर यह काम आवश्यक भी है दूसरी ओर लोगों का मुँह बन्द करने के लिए यही एक तरीका मेरी समझ में आया था। पर इसमें भी कई दिक्कतें आयेंगी.....।’

‘दिक्कत क्या आयेगी। मैं तो हूँ न, देख लूँगा।’

‘तुम तो क्या तुम्हारा निर्माता ब्रह्मा ही चले आएँ तब भी मेरी पत्नी का मन नहीं बदल सकतें। बात उसे मालूम हो जाए, तो खा जाएगी मुझे।’

‘उसे समझा बुझाकर देखो शर्मा। तुम्हारी घर वाली क्या तुमसे भी अधिक कर्मकांडी है।’

‘हो न हो, पर जिद्दी बहुत है। अक्ल हो तो कार्य और कारण पर विचार करें। पर जिद्दी और अड़ियल लोग किसी पर भी विचार नहीं करते।’

‘रवि से ही कहीं न, बात कर ले।’

‘वह तो किसी के कहे नहीं मानेगी। वह उसकी सोच है। उसे अपनी ही तरह, परदेवाली बहू चाहिए। जो कम पढ़ी लिखी हो और उसके वश में बनी रहे।’

‘शादी तो बेटे को करनी है, उसे नहीं। बेटा जहाँ नौकरी कर रहा है, वहाँ का माहौल जैसा है, वैसी ही तो बीबी उसे चाहिए। हमारे यहाँ के यह ढोंग किसे चाहिए। यह तो भाग्य की बात है कि उसे लड़कों की अच्छी मिल गयी। हम बीच में क्यों पड़े।’

किमली तो विनम्र भी हैं, पढ़ी लिखी भी। हमारे यहाँ की पढ़ी लिखी लड़कियों भी शायद ही इतनी विनम्र हों।’

शर्मा, तुम दो दिन सब कर लो। बसंत को आने दो। वह बात करके देख लेगी। हो सकता है वह प्लेन में ही चली आवे। इतनी जल्दबाजी कर रही थी, वह तो।’