तुलसी चौरा/१८

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तुलसी चौरा  (1988) 
द्वारा ना॰ पार्थसारथी, अनुवादक डॉ॰ सुमित अय्यर

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मजाक बनाया, कुछ ने निंदा की।

जब बारात सीमावय्यर के घर के आगे से निकली, तो वहाँ पंचायत बैठी थी। पर सबके चेहरे बुझे थे।

सीमावय्यर ने जानबूझकर छेड़ा―क्यों हरिहरअय्यर....।

तुम बारात में नहीं गए। सुना जनता के लिये जबर्दस्त भोज का प्रबंध किया गया है। दुल्हन फ्रेंच है न, इसलिये बकरे का सूप, मछली का झोल जाने क्या क्या...।’

‘शंकरअय्यर की हलवायी है पूरी तथा शाकाहारी भोजन की व्यवस्था है। वैदिक रिवाज के अनुरूप ही विवाह हो रहा है। यह सब जानते हुए भी सीमावय्यर छेड़ रहे थे। विश्वेश्वर शर्मा को बद- नाम करने का मौका नहीं छोड़ना चाहते थे। पर हरिहरअय्यर कहाँ छोड़ने वाले थे।’

‘अरे, तो मुझे कौन बुलाता? आप तो श्रीमठ के भूतपूर्व एजेंट हैं आपके उत्तराधिकारी ही हैं न, शर्मा जी। जब आप को नहीं खबर दी गयी, तो मेरी क्या औकात?’

सीमावय्यर को उल्टे छेड़ दिया।

‘तुमसे किसने कह दिया कि हमें नहीं बुलवाया है। हमारे नाम निमंत्रण है। पर मैं नहीं गया। ऐसी शादी में भला किसे जाना है?’ सीमावय्यर ने हाँका। भीतर ही भीतर उबल रहे थे। वंश चलता तो शर्मा को कच्चा ही खा जाते। केस से हार जाने की बौखलाहट भी थी। किसी तरह शादी से अपमानित करना चाहते थे वे।

‘हम ही हैं! जो यहाँ जले भुने जा रहे हैं। पूरा गाँव वहाँ पहुँचा है। दस हजार का ठेका है शिवकाशी वालों का आतिशबाजी के लिए। नागस्वरम् को पाँच हजार। वेणुगोपाल पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं वह फिरंगिन भी अपने करोड़पति बाप से रुपये लायी है। सब शाही खर्च हो रहा है। तुम्हारे या मेरे न जाने से उनका क्या नुकसान हो जाएगा? बड़े-बड़े व्यापारी जो वेणुगोपालन के दोस्त हैं आए हैं। [ १८० ]
पहाड़ के एस्टेट मालिक सारे पहुँचे हैं। रोटरी क्लब के सारे सदस्य बारात के आगे चल रहे हैं। शर्मा को अब किस बात की कमी है।' हरिहर अय्यर ने सीमावय्यर को और भड़का दिया।

'देखते जाना। आखिर भगवान भी है न, वह इनसे निपट लेगा।' सीमावय्यर उँगलियाँ चटखाते बोले।

'अब हमें भला लगे या बुरा। अच्छा काम हो रहा है। तो हम उनका अनर्थ क्यों सोचें। चुप भी करो, अब।' हरिहर अय्यर ने जब उलट कर सीमावय्यर को डपट दिया, वे चौंक गए।

सीमावय्यर भाँप गए कि केस के हार जाने के बाद उनसे जुड़े तमाम लोग हताश हो गये। उन्हें और अधिक समय तक शर्मा के विरोध में खड़ा करना शायद संभव न हो। इरैमुडिमणि भी भड़के हुए हैं। इन लोगों की पोल पट्टी खोलने की धमकी दी है। सीमावय्यर के बुरे दिन शुरू हो गए। शर्मा जैसे आस्तिक का भी विरोध करते रहे और इरैमुडिमणि जैसे नास्तिक का भी। इसके विपरीत शर्मा को दोनों ही पक्षों का सहयोग और सहानुभूति मिल रही थी। मुकदमे के स्थ- गित होने के कारण लोमावय्यर की प्रतिष्ठा अब वह नहीं रही। पर उनकी करतूतें वैसी ही थीं।

पुरोहित और हलवाई को भड़काने की सारी कोशिश उन्होंने की थी। पर वह भी नहीं कर सके। वेणुकाका बुद्धि, धन और समा- जिक प्रतिष्ठा में सीमावय्यर से दस हाथ आगे थे।

उस दिन बारात के स्वागत के बाद रात ग्यारह बज गये। सभी गाँव वालों को खाना खिलाया और जात पाँत का कोई भेदभाव नहीं रखा गया।

X XX
 

सुबह मुहूर्त था। सबको काम निपटाकर सोते रात दो बज गए। ढाई बजे तक हलवाई भी अंगोछा बिछाकर लेट गए।

रात पौने तीन के लगभग पंडाल में आग लग गयी। लोगों के [ १८१ ]
समझते बूझते देर नहीं लगी। हड़प मच गया। आग पर काफी देर बाद काबू पाया गया सुबह साढ़े पाठ से नौ बजे तक मुहूर्त का वक्त था। वेदों के आस पास सब कुछ राख हो गया।

वेणूकाका घबराये नहीं। सारंगपाणि नायडू को बुलवा कर बोले, 'मैं नहीं जानता तुम कैसे करोगे। किसी गुंडे का काम है यह। सुबह छह बजे तक यह पंडाल बन जाना चाहिये। लाख रुपये भी लग जाए― पर काम हो जाना चाहिए। वे भावुक हो उठे।

नायडू ने कहा, 'हो जाएगा। फिक्र मत कीजिए।' और सचमुच हुआ भी। सुबह साढ़े पाँच तक फिर वैसा ही पंडाल तैयार हो गया।

XXX
 

कमली के माता-पिता और रिश्तेदारों को दिखाने के लिए मूबी कैमरे से एक एक अनुष्ठान को फिल्माया गया। बसंती ने अंतिम कोशिश की, कामाक्षी को किसी तरह बुला लाने की। पर कामाक्षी उठने बैठने की हालत में कतई नहीं थी।

'काकी, तुम आ जाओ न। यह तुम्हारे घर का विवाह है, पर कामाक्षी ने कोई उत्तर नहीं दिया पर विरोध भी नहीं किया। बसंती चुप बनी रही। खाक काम हो रहा है वहाँ। लड़के की अम्मा यहाँ मर रही है और तुम लोग वहाँ गाजे बाजे के साथ व्याह रचाओं।' मीनाक्षी दादी, और मौसी ने बसंती से कहा पर कामाक्षी ने उस वक्त कुछ खिलाफ नहीं कहा। पर उसकी बात मानी भी नहीं।

'मैं तो पड़ी हूँ बिस्तर पर। कहाँ जाऊँगी। काहे जाऊँगी।' बारीक सी आवाज में बोली।

'कल रात आग भी लग गयी कैसा अपशकुन हो गया। देखो तो…………।'

मीनाक्षी दादी ने खीझा तब का राग अलापा। बसंती ने कोई उत्तर नहीं दिया लोगों की चालों को इस तरह अपशकुन का नाम दे देने की प्रवृत्ति पर वह खीझ गयी। पहले जब पुवाल के ढेर में आग [ १८२ ]
लगी थी तब भी कमली को कोसा गया था। जैसे ही उसे लगा कामाक्षी आने की स्थिति में नहीं हैं, वह अधिक देर तक नहीं रुकी। गाँव की परंपरा के अनुसार घर-घर जाकर लोगों को बुलावा दिया।' वह समझ नहीं पायी कि कामाक्षी का रवि और कमली के प्रति क्रोध और बढ़ गया है, अथवा वह बीमारी के कारण शांत है। फिर भी वह सोचकर गयी थी कि कामाक्षी उसे गालियाँ देगी, पर उसके विपरीत कामाक्षी एकदम शांत रही। बसंती के लिए यह सुखद आश्चर्य था।

कमली की इच्छा थी कि कोई भी मन्त्र नहीं छूटे। पुरोहित को आश्चर्य हुआ कहाँ अपने यहाँ की लड़के-लड़कियाँ जल्दबाजी मचाते हैं। कहाँ एक विदेशी युवती एक-एक मन्त्र पर जोर दे रही है।

कुछ जिद्दी और ईर्ष्यालु लोगों को छोड़कर पूरा गाँव उमड़ पड़ा था। भीड़ काफी थी। इरैमुडिमणि भी आए थे। कई व्यापारी, उद्योगपति भी आए थे।

'तुम तो साक्षात् हनुमान हो गए नायडू। हनुमान रातोंरात संजीवनी पर्वत उठा लाए और तुमने रातोंरात में सारा पंडाल फिर बनवा डाला।' नायडू की तारीफ करते हुए वेणुकाका ने कहा। जहाँ तक महिलाओं का सवाल नहीं गाँव के ब्राह्मण घरों की महिलाएँ तो नहीं दिखीं पर कुछ प्रगतिशील―महिलाएँ वेणुकाका के कुछ दूर की रिश्तेदार महिलाएँ सहज भाव से आयी थीं।

पाणिग्रहण, सप्तपदी, अरुन्धती दर्श आदि अनुष्ठानों के बारे में कमली ने पढ़ रखा था या सुन रखा था। पर यहाँ एक-एक निजी अनुष्ठान को उसने मन ही मन सराहा।

'सात पग मेरे साथ चलने के बाद तुम मेरी सखि बन गयी हो। हम दोनों अब अंतरंग सखा हो गये हैं। तुम्हारे साथ के इस बन्धन से अब मैं कभी भी मुक्त नहीं होऊँगा मेरे स्नेह बन्धन से मुक्त नहीं होगी। हम दोनों एक हो जाएँगे।

अब हम दोनों संकल्प लेकर कार्य करेंगे। एकमत होकर एक दूसरे [ १८३ ]
को प्रकाश देते हुए, अच्छी भावनाएँ रखते हुए, सोच और बल का एक साथ उपयोग करें। हमारे विचार एक हों―व्रत आदि अनुष्ठान एक साथ कर हमारी इच्छाएँ एक हो।

तुम ऋग्वेद और मैं सामवेद की भाँति रहूँ। मैं गगन की तरह रहूँ, तुम भूमि की भाँति रहो। मैं बीज और तुम खेत हो। मैं चिंतन हूँ, तुम शब्द। तुम मेरी और मेरी अनुचरी बनो। गर्भधारण के लिए, अखंड सम्पत्ति के लिए हे मधुर भाषिणी मेरे साथ चलो………।'

सप्तपदी की शपथ को सुनकर कमली रवि को देखकर मुस्करा दी एक-एक अनुष्ठान कमली को पुलकित कर रहे थे। छोटी-छोटी खुशियाँ, छेड़-छाड़ उत्साह, हँसी-सब कुछ तो था उस विवाह में। बसंती ने आँखों में काजल, परों में आलता और बालों में लम्बा चुटीला लगा दिया। केवल रंग से वह विदेशी लग रही थी बस। विवाह के दिन और उसके बाद के कुछ दिन कुमार और पार्वती वेणु- काका के घर ही रह गए थे, इसलिए कामाक्षी, मीनाक्षी दादी और मौसी के पास अकेली छूट गयी। चूँकि यह घर भी विवाह से संबंधित था। इसलिए द्वार पर केले का पेड़, आम के पत्तों का तोरण, दीवारों पर चूने और गेरू की पट्टी और द्वार पर एक छोटी सी―रंगोली बनी थी। पर घर में सन्नाटा था।

बीच-बीच में कामाक्षी की खांसी या हल्की सी कराह सुनाई पड़ती। बुढ़ियों का स्वर सुनाई देता। एकदम सन्नाटा पसरा था।

'वहाँ कलेवा हो रहा है, तू तो अच्छा गाती है, पर तेरे बेटे का व्याह तेरे बिना ही हो रहा हैं।' मीनाक्षी दादी ने कुछ बोलना चाहा। पहले तो कामाक्षी चुप रही लाख मतभेद हो, घर की बात इस तरह अफवाह की शक्ल ले यह बह कतई नहीं चाहती थी,। थोड़ी देर बाद कामाक्षी अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पायी, खुद विवाह के बारे में कुछ पूछने लगी।

'काम, बिल्कुल नहीं लगता कि यह वहीं फिरंगिन है। इस तरह [ १८४ ]
सजा कर उसे बिठाया है। कि बस......।'

कामाक्षी का मन हुआ तुरन्त जाकर देखें पर चुप रही। कुछ उत्सु- कता दिखायेंगी तो दादी और मौसी जाने क्या सोचेंगी। पर दादी बोले जा रही थीं।

'जंबूनाथ शास्त्री ने तो मना कर दिया पुरोहिताई के लिए, बोले, आज पैसे के लालच में करता हूँ कल लोग मुझे नहीं पूछेगे, इसलिए चले गये।

वेणु ने मद्रास से बुलवाया है। गाँव के पंडित तो गए ही नहीं, पर सूना है बाहर से खूब पुरोहित आए हैं। कोर्ट ने उस लड़की को पवित्र साबित कर दिया पर ये पंडित?

'कन्यादान किसने किया?'

'तुम्हें नहीं पता? वही वेणु और उसकी घरवाली। उनके घर ही तो सुहागिनें खिलायी गयीं।'

कामाक्षी ने आगे कुछ नहीं पूछा।

मुहूर्त समाप्त होने के अगले दिन मौसी ने कामाक्षी ने कहा, 'तुम्हें देखने तुम्हारा घरवाला और वह वेणु आये थे। तू सो रही थी, मैंने पूछा जगा दूँ। बोले नहीं फिर मिलेंगे। तुम्हारी तबियत के बारे में पूछा, फिर चले गये।'

'यहाँ कौन रो रहा था। इनके लिए।' कामाक्षी बोली। रुलाई रोक ली थी मुश्किल से।

'उनको छोड़ो। तेरा वह पेट जाया बेटा आशीर्वाद लेने नहीं आया। उसे क्या हो गया।'

मीनाक्षी दादी ने कहा।

'आए तो आएं, न आएं तो न सही। मरे नहीं जा रहे हम....।'

'ऐसी बातें मत करो। तुम्हें नहीं चाहिए था। तो ठीक है पर कायदे की बात भी होती है। उन्हें तो आना चाहिए न....।'

कामाक्षी की आँखें भर गयीं। रुलाई रोक नहीं पायी। इस [ १८५ ]विवाह के प्रति रुखाई जरूर छिपाने की कोशिश की पर मन तो जैसे वहीं लगा था। एक-एक क्षण वहीं कल्पना में डूबी थी। रवि, कमली, शर्मा, बसंती के बारे में लगातार सोच रही थी।

विवाह के बारे में मीनाक्षी दादी या मौसी कुछ बताती तो ध्यान से सुनती।

ऊपर दिखाने को भले ही तटस्थ रहती।

चार दिन में एक-एक अनुष्ठान की खबर, मीनाक्षी दादी देती रहीं। कामाक्षी ने ये बात जरूर पूछी।

'गृह प्रवेश कब करेंगे दादी?'

'मैंने तो पूछा नहीं।'

'पूछ लीजिए। उस दिन तो सब यहाँ आएँगे। हम रोक नहीं सकते। उनका घर है।'

'अरे, हमें तो ध्यान ही नहीं रहा।'

'मीनाक्षी दादी शाम ही खबर लायी।'

'कल का दिन शुभ बताया है। इसलिए कल सुबह छह बजे से साढ़े सात के बीच वे लोग यहाँ आयेंगे। तुम बीमार हो, इसलिए हलवाई पहले ही यहाँ भिजवा देंगे।'

कामाक्षी के मन में कड़वाहट घोलनी चाही।

गृह प्रवेश के लिए यहाँ आने की क्या जरूरत। वह भी वहीं कर डालते। शास्त्र का हवाला क्यों दे देते हैं, ये लोग।'

मौसी ने टोका पर कामाक्षी को यह अच्छा नहीं लगा।

उन लोगों का विचार था कि कामाक्षी के मन में देर कड़वाहट भरी होगी। पर कामाक्षी का मन रवि और कमली को दूल्हा और दुल्हन के रूप में देख रहा था। लांग की धोती से सजी कमली का चेहरा उनकी आँखों में घूमने लगा। मन लगातार डांवाडोल हो रहा था।

'तू तो पड़ी है। यहाँ तो आरती उतारने वाला कोई नहीं। शायद [ १८६ ]
यह बसंती पहले आ जाती तो ठीक।'

'आप ठीक कहती हैं। शादी पसन्द से हो न हो। लड़का तो अपना है शादी के बाद नयी धोती पहने दुल्हन को लेकर आ जाएँ तो द्वार पर आरती उतारनी होगी न। मौसी ने कहा।

पर कामाक्षी सोच नहीं पायी उसे क्या करना है। दादी ने फिर कामाक्षी को टोका।

'लाख मतभेद हो, पर लड़के को छोड़ा थोड़े ही जा सकता है। लड़का अपना है....।'

'ऐसे में हम लोग ही साथ छोड़ते हैं, तो लोगबाग क्या कहेंगे? मौसी बोली।'

'आप दोनों थोड़ी देर चुप रहेंगी? मेरा तो दिमाग काम नहीं कर रहा है, 'कामाक्षी ने रुआंसे स्वर में कहा। पर उसकी मनोदशा वे दोनों भाप नहीं पायीं। उसकी मनःस्थिति को समझने की कोशिश उन्होंने की पर कोई सफलता नहीं मिली। परसों सुबह गृह प्रवेश हो कामाक्षो पता नहीं क्या सोच रही है उसके चेहरे पर रौनक नहीं है। शरीर में शक्ति भी नहीं रही। आँखों में आँसू भी नहीं बन्द हुए। किसी से उसने बात भी नहीं की।'

गृह प्रवेश के पहले दिन मीनाक्षी दादी बोली। 'कल मंगल कार्य रहा है, मैं विधवा यहाँ क्या करूँगी―मैं तो चली....।'

वे चली गयीं मीनाक्षी दादी के जाने के बाद मौसी भी रिश्तेदारों के घर जाने का बहाना कर वहाँ से चली गयी।

हलवाई पिछवाड़े में तंबू लगाकर अपने काम में लगे थे। कामाक्षी के चौके में उनका प्रवेश पता नहीं सम्भव हो या नहीं। इस भय से के पिछवाड़े में ही रहे। शर्मा पहले दिन रात को ही घर आ जाना चाहते थे पर कामाक्षी के मन में उन्होंने अपने इस विचार को स्थगित कर डाला था। आम के पत्तों का बन्दनबार द्वार पर रंगोली 'भीतर से आती खांसी और कराहों की आवाजें―घर का माहौल मिला जुला [ १८७ ]
था। आस पड़ोस का कोई भी वहाँ नहीं आया।'

अगले दिन सुबह चार बजे ही कामाक्षी की आँख खुल गयी। इत्तफाक से वह शुक्रवार का दिन था। पार्वती और कुमार सो रहे थे।

कामाक्षी किसी तरह लड़खड़ाती हुई कुँए तक चली आयी। उसे उस वक्त रोकने वाला घर पर कोई नहीं था। सुबह की ठंडी हवा उसके चेहरे को भिगो गयी। चमेली की खुशबू नथुनों में भर गयी। कुँए से खुद पानी खींच कर नहाया।

गहरे नीले रंग की कांजीपुरम् साड़ी पहनी। इसे केवल विशेष उत्सवों में पहना करती थी। गौशाला में जाकर दूध दुहा। बगीचों से फूल ले आयी और उन्हें गूंथ कर। थोड़ा अपने सिर पर लगा लिया, बाकी रख लिया। घर से पुराना चाँदी का थाल निकाला और उसमें आरती घोल ली। द्वार पर पानी छींट कर रंगोली बनायी। पार्वती की आँख खुली। अम्मा को दीयाबाती करते देख चौंक गयी।

'अम्मा! तुम्हें किसने कहा उसे करने को?' हायराम, ठंडे पानी से सिर भी धो लिया! क्यों किया यह सब मैं तो यहीं थी न....?

'चल, तुझे क्या मालूम है। झटपट तुम नहा कर आ जाओ' अम्मा का उत्साह पार्वती के लिये अविश्वसनीय रहा।

कितने दिनों से खाना पीना छूट गया था। दलिया और फल के सिवा कुछ नहीं खाया। पर आज का उत्साह देखते ही बनता था। गृह स्वामिनी की फुर्ती में सारा काम किए जा रही थी। कितना तेज था उसके चेहरे पर। थकी जरूर लग रही थी।

सुबह सूर्योदय के साथ ही नुक्कड़ से नादास्वरम का स्वर सुनाई दिया।

कामाक्षी मे ओसरे से झांका। झुँड में दे लोग घर की ओर वर बधू को लिए आ रहे थे। उत्साह में वह कुछ अधिक ही काम कर रही थी। खंभे का सहारा लेकर खड़ी हो गयी। सिर चकराने लगा, आँखों [ १८८ ]
के आगे अंधेरा छा गया। धड़कन तेज हो गयी। पार्वती नहाकर कपड़े बदल रही थी अम्मा को देखकर चौंक पड़ी। 'क्या हुआ अम्मा' सिर चकरा रहा है? तुम्हें किसने कहा इतना सब करने को! बस मैं सब कर लूँगी। तुम भीतर जाकर लेट जाओ, बस―।'

'चिल्लाओ मत। कुछ नहीं हुआ है मुझे। भीतर से आरती का थाल उठा लाओ।' कामाक्षी का स्वर धीमा था।

पक्षियों का कलरव, कहीं से हवा में तैरता, वेदपाठ का स्वर, नादास्वरम् से मिल कर बहती राग भोपाल―सुबह के अर्थ में कितनी ताजमी थी।'

आस पड़ोस के लोग बाहर निकल आए। पारू को आरती की याद दिलाने बसंती पहले ही भागी चली आ रही थी। ओसारे पर कामाक्षी को देखकर ठिठक गयी।

'काकी, आप ने यह सब क्यों कर डाला?' आप लेटिए…न…।'

'कुछ नहीं हुआ मुझे। शुक्रवार है―विस्तर में पड़े रहने का मन नहीं हुआ। आओ इधर बैठ जाओ। पारू आरती लेने भीतर गयी है।'

पार्वती भीतर से थाल लिये चली आयी। कामाक्षी को देखकर बसंती को पहले तो लगा। कहीं उनका इरादा, व्यवधान डालने का तो नहीं है। पर बातों से तो लगा, उनका ऐसा कोई इरादा नहीं है। वह बिल्कुल शांत और सामान्य स्थिति में थी कामाक्षी का यह बदलाव उसे आश्चर्यचकित कर दिया।

'काकी, सिर धोया है क्या? बाल गीले हैं।'

'हाँ री, शुभ दिन है, तो क्या बगैर नहाए पड़ी रहूँ?'

कामाक्षी ने उत्तर दिया ही था कि लोग घर के द्वार तक आ गए। कामाक्षी को आरती का थाल लिये द्वार पर देखकर कमली, रवि, शर्मा और वेणुकाका चौंक गए, कामाक्षी और बसंती ने आरती गायी। कामाक्षी ने कमली से दायाँ पैर पहले भीतर रखने को कहा। शर्मा को लगा कि अकेले में कामाक्षी ने स्वयं अपने को समझा बुझा लिया