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पाँच फूल/कप्तान-साहब

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पाँच फूल  (१९२९) 
द्वारा प्रेमचंद









गतसिंह को स्कूल जाना कुनैन खाने या मछली का तेल पीने से कम अप्रिय न था। वह सैलानी, आवारा, घुमक्कड़ युवक था। कभी अमरूद के बाग़ो की ओर निकल जाता और अमरूदों के साथ माली की गालियाँ बड़े शौक़ से खाता। कभी दरिया की सैर करता और मल्लाहों की डोंगियों में बैठकर उस पार के देहातों में निकल जाता। गालियाँ खाने में उसे मज़ा आता था। गालियाँ खाने का कोई अवसर वह हाथ से न जाने देता। सवार के घोड़े के पीछे ताली बजाना, एक्कों को पीछे से पकड़कर अपनी ओर खींचना, बुड्ढों की चाल की नक़ल करना, उसके

मनोरञ्जन के विषय थे। आलसी काम तो नहीं करता ; पर दुर्व्यसनों का दास होता है, और दुर्व्यसन धन के बिना पूरे नहीं होते। जगतसिंह को जब अवसर मिलता घर से रुपये उड़ा लेजाता। नक़द न मिले, तो बरतन और कपड़े उठा ले जाने में भी उसे संकोच न होता था। घर में जितनी शीशियाँ और बोतलें थीं, वह सब उसने एक-एक करके गुदड़ी-बाज़ार पहुँचा दीं। पुराने दिनों की कितनी ही चीजें घर में पड़ी थीं। उसके मारे एक भी न बचीं। इस कला में ऐसा दक्ष और निपुण था कि उसकी चतुराई और पटुता पर आश्चर्य होता था। एक बार वह बाहर-ही-बाहर, केवल कार्निसों के सहारे, अपने दोमंज़िला मकान की छत पर चढ़ गया और ऊपर ही से पीतल की एक बड़ी थाली लेकर उतर आया। घरवालों को आहट तक न मिली।

उसके पिता ठाकुर भक्तसिंह अपने क़स्बे के डाकख़ाने के मुंशी थे। अफसरों ने उन्हें घर का डाकख़ाना बड़ी दौड़-धूप करने पर दिया था ; किन्तु भक्तसिंह जिन इरादों से यहाँ आये थे, उनमें से एक भी पूरा न हुआ। उलटी हानि यह हुई कि देहातों में जो भाजी-साग, उपले-ईंधन मुफ्त मिल जाते थे, यहाँ बन्द हो गये । यहाँ सबसे पुराना घराँव था। किसी को न दबा सकते थे, न सता सकते थे। इस

दुरवस्था में जगतसिंह की हथ-लपकियाँ बहुत अखरतीं। उन्होंने कितनी ही बार उसे बड़ी निर्दयता से पीटा। जगत- सिंह भीमकाय होने पर भी चुपके से मार खा लिया करता था। अगर वह अपने पिता के हाथ पकड़ लेता, तो वह हिल भी न सकते; पर जगतसिंह इतना सीनाज़ोर न था। हाँ, मार-पीट, घुड़की-धमकी किसी का भी उस पर असर न होता था।

जगतसिंह ज्यों ही घर में क़दम रखता, चारों ओर से काँव-काँव मच जाती -- माँ दुर-दुर करके दौड़ती, बहनें गालियाँ देने लगतीं, मानो घर में कोई साँड़ घुस आया हो। बेचारा उलटे पाँव भागता। कभी-कभी दो-दो तीन-तीन दिन भूखा रह जाता। घरवाले उसकी सूरत से जलते थे। इन तिरस्कारों ने उसे निर्लज्ज बना दिया था। कष्टों के ज्ञान से वह हत-सा होगया था। जहाँ नींद आ जाती वहाँ पड़ रहता, जो कुछ मिल जाता वही खा लेता।

ज्यों-ज्यों घरवालों को उसकी चौर-कला के गुप्त साधनों का ज्ञान होता जाता था, वे उससे चौकन्ने होते जाते थे। यहाँ तक कि एक बार पूरे महीने-भर तक उसकी दाल न गली। चरसवाले के कई रुपए ऊपर चढ़ गये। गाँजेवाले ने धुआँधार तक़ाजे करने शुरू किये। हलवाई

कड़वी बातें सुनाने लगा। बेचारे जगत को निकलना मुश्किल हो गया। रात-दिन ताक-झाँक में रहता, पर घात न मिलती थी। आख़िर एक दिन बिल्ली के भागों छींका टूटा। भक्तसिंह दोपहर को डाकख़ाने से चले, तो एक बीमा रजिस्ट्री जेब में डाल ली। कौन जाने कोई हरकारा या डाकिया शरारत कर जाय; किन्तु घर आये तो लिफ़ाफे को अच-कन की जेब से निकालने की सुधि न रही। जगतसिंह तो ताक लगाए हुए था ही। पैसों के लोभ से जेब टटोली तो लिफ़ाफ़ा मिल गया। उस पर कई आने के टिकट लगे थे। वह कई बार टिकट चुराकर आधे दामों पर बेच चुका था। चट लिफ़ाफ़ा उड़ा लिया। यदि उसे मालूम होता कि उसमें नोट हैं, तो कदाचित् वह न छूता। लेकिन जब उसने लिफ़ाफ़ा फाड़ डाला और उसमें से नोट निकल पड़े, तो वह बड़े संकट में पड़ गया। वह फटा हुआ लिफ़ाफ़ा गला फाड़ फाड़कर उसके दुष्कृत्य को धिक्कारने लगा। उसकी दशा उस शिकारी की-सी हो गई जो चिड़ियों का शिकार करने जाय और अनजान में किसी आदमी पर निशाना मार दे। उसके मन में पश्चात्ताप था, लज्जा थी, दुःख था, पर उस भूल का दंड सहने की शक्ति न थी। उसने नोट लिफ़ाफे में रख दिये और बाहर चला गया। गरमी के दिन थे। दोपहर को सारा घर सो रहा था, पर जगत की आँखों में नींद न थी। आज उसकी बुरी तरह कुन्दी होगी। इसमें सन्देह न था। उसका घर पर रहना ठीक नहीं, दस-पाँच दिन के लिए उसे कहीं खिसक जाना चाहिए। तब तक लोगों का क्रोध शान्त हो जायगा। लेकिन कहीं दूर गये बिना काम न चलेगा। बस्ती में वह कई दिन तक अज्ञातवास नहीं कर सकता। कोई-न-कोई ज़रूर ही उसका पता दे देगा और वह पकड़ लिया जायगा। दूर जाने के लिए कुछ-न-कुछ खर्च तो पास होना चाहिए। क्यों न वह लिफ़ाफे में से एक नोट निकाल ले। यह तो मालूम ही हो जायगा कि उसी ने लिफ़ाफ़ा फाड़ा है, फिर एक नोट निकाल लेने में क्या हानि है। दादा के पास रुपए तो हैं ही, झक मारकर दे देंगे। यह सोचकर उसने दस रुपए का एक नोट उड़ा लिया। मगर उसी वक्त उसके मन में एक नई कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ। अगर वह ये सब रुपए लेकर किसी दूसरे शहर में कोई दूकान खोल ले, तो बड़ा मज़ा हो। फिर एक-एक पैसे के लिए उसे क्यों किसी को चोरी करनी पड़े! कुछ दिनों में वह बहुत-सा रुपया जमा करके घर आयेगा, तो लोग कितने चकित हो जायँगे। उसने लिफ़ाफे को फिर निकाला। उसमें कुल २००) के नोट थे। दो सौ रुपए में, दूध की दूकान खूब चल सकती है। आखिर मुरारी की दूकान में दो-चार कढ़ाव और दो-चार पीतल के थालों के सिवा और क्या है ? लेकिन कितने ठाठ से रहता है। रुपयों की चरस उड़ा देता है। एक-एक दाँव पर दस-दस रुपए रख देता है। नफ़ा न होता, तो यह ठाठ कहाँ से निभता। इस आनन्द-कल्पना में वह इतना मग्न हुआ कि उसका मन उसके क़ाबू से बाहर हो गया, जैसे प्रवाह में किसी के पाँव उखड़ जायँ और वह लहरों में बह जाय।

उसी दिन शाम को वह बम्बई चल दिया। दूसरे ही दिन मुंशी भक्तसिंह पर गबन का मुकदमा दायर हो गया।

बम्बई के किले के मैदान में बैंड बज रहा था और राजपूत रेजिमेंट के सजीले सुन्दर जवान क़वायद कर रहे थे। जिस प्रकार हवा बादलों को नये-नये रूप में बनाती और बिगाड़ती है, उसी भाँति सेना का नायक सैनिकों को नये-नये रूप में बना और बिगाड़ रहा था।

जब क़वायद खत्म हो गई, तो एक छरहरे डील का युवक नायक के सामने आकर खड़ा हो गया। नायक ने

पूछा--क्या नाम है ? सैनिक ने फौजी सलाम करके कहा--'जगतसिंह।'

'क्या चाहते हो ?'

'फौज में भरती कर लीजिए।'

'मरने से तो नहीं डरते ?'

'बिलकुल नहीं--राजपूत हूँ।'

'बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी।'

'इसका भी डर नहीं।'

'अदन जाना पड़ेगा।'

'खुशी से जाऊँगा।'

कप्तान ने देखा बला का हाजिर-जवाब, मन-चला,हिम्मत का धनी जवान है, तुरत फौज में भरती कर लिया। तीसरे दिन रेजिमेंट अदन को रवाना हुआ। मगर ज्यों-ज्यों जहाज़ आगे चलता था, जगत का दिल पीछे रहा जाता था। जब तक जमीन का किनारा नज़र आता रहा, वह जहाज़ के डेक पर खड़ा अनुरक्त नेत्रों से उसे देखता रहा। जब वह भूमि-तट जल में विलीन हो गया, तो उसने एक ठंडी साँस ली और मुँह ढाँपकर रोने लगा। आज जीवन में पहली बार उसे प्रिय जनों की याद आई। वह छोटा-सा अपना क़स्बा, वह गाँजे की दूकान, वह सैर-

सपाटे, वह सुहृद मित्रों के जमघटे आँखों में फिरने लगे। कौन जाने फिर कभी उनसे भेंट होगी या नहीं। एक बार वह इतना बेचैन हुआ कि जी में आया पानी में कूद पड़े।

जगतसिंह को अदन में रहते तीन महीने गुजर गये। भाँति-भाँति की नवीनताओं ने कई दिनों तक उसे मुग्ध रक्खा, लेकिन पुराने संस्कार फिर जागृत होने लगे। अब कभी-कभी उसे स्नेहमयी माता की याद भी आने लगी, जो पिता के क्रोध, बहनों के धिक्कार और स्वजनों के तिरस्कार में भी उसकी रक्षा करती रहती थी। उसे वह दिन याद आये, जब एक बार वह बीमार पड़ा था। उसके बचने की कोई आशा न थी ; पर न तो पिता को उसकी कुछ चिन्ता थी, न बहनों को। केवल माता थी, जो रात-की-रात उसके सिरहाने बैठी अपनी मधुर, स्नेहमयी बातों से उसकी पीड़ा शान्त करती रही थी। उन दिनों कितनी बार उसने उस देवी को नीरव रात्रि में रोते देखा था। वह स्वयं रोगों से जीर्ण हो रही थी, लेकिन उसकी सेवा-सुश्रूषा में वह अपनी व्यथा को ऐसी भूल गई थी, मानो उसे कोई कष्ट ही नहीं। क्या उसे माता के दर्शन फिर होंगे ? वह इसी क्षोभ और

नैराश्य में समुद्र-तट पर चला जाता और घण्टों अनन्त-जल-प्रवाह को देखा करता। कई दिनों से उसे घर पर एक पत्र भेजने की इच्छा हो रही थी ; किन्तु लज्जा और ग्लानि के कारण वह टालता जाता था। आखिर, एक दिन उससे न रहा गया। उसने पत्र लिखा और अपने अपराधों के लिये क्षमा माँगी। पत्र, आदि से अन्त तक भक्ति से भरा हुआ था। अन्त में उसने इन शब्दों में अपनी माता को आश्वासन दिया था--'माताजी, मैंने बड़े-बड़े उत्पात किये हैं, आप लोग मुझसे तङ्ग आ गई थी, मैं उन सारी भूलों के लिये सच्चे हृदय से लज्जित हूँ और आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जीता रहा, तो कुछ-न-कुछ कर दिखाऊँगा। तब कदाचित् आपको मुझे अपना पुत्र कहने में संकोच न होगा। मुझे आशीर्वाद दीजिए कि, अपनी प्रतिज्ञा का पालन कर सकूँ।'

यह पत्र लिखकर उसने डाक में छोड़ा और उसी दिन से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा ; किन्तु एक महीना गुजर गया और कोई जवाब न आया। अब उसका जी घबड़ाने लगा। जवाब क्यों नहीं आता--कहीं माताजी बीमार तो नहीं हैं ? शायद दादा ने क्रोधवश जवाब न लिखा होगा। कोई और विपत्ति तो नहीं आ पड़ी ? कैम्प

में एक वृक्ष के नीचे कुछ सिपाहियों ने शालिग्राम की एक मूर्ति रख छोड़ी थी। कुछ श्रद्धालु सैनिक रोज उस प्रतिमा पर जल चढ़ाया करते थे। जगतसिंह उनकी हँसी उड़ाया करता। पर आज वह विक्षिप्तों की भाँति उस प्रतिमा के सम्मुख जाकर, बड़ी देर तक मस्तक झुकाये बैठा रहा। वह इसी ध्यानावस्था में बैठा था कि किसी ने उसका नाम लेकर पुकारा। यह दफ़तर का चपरासी था और उसके नाम की चिट्ठी लेकर आया था। जगतसिंह ने पत्र हाथ में लिया तो उसकी सारी देह काँप उठी। ईश्वर की स्तुति करके उसने लिफ़ाफा खोला और पत्र पढ़ा। लिखा था,--'तुम्हारे दादा को ग़बन के अभियोग में ५ वर्ष की सजा हो गई है। तुम्हारी माता इस शोक में मरणासन्न है। छुट्टी मिले, तो घर चले आओ।'

जगतसिंह ने उसी वक्त कप्तान के पास जाकर कहा--'हजूर, मेरी माँ बीमार है, मुझे छुट्टी दे दीजिए।'

कप्तान ने कठोर आँखों से देखकर कहा--'अभी छुट्टी नहीं मिल सकती।'

'तो मेरा इस्तीफ़ा ले लीजिए।

'अभी इस्तीफ़ा भी नहीं लिया जा सकता।'

'मैं अब यहाँ एक क्षण नहीं रह सकता।' 'रहना पड़ेगा। तुम लोगों को बहुत जल्द लाम पर जाना पड़ेगा।'

'लड़ाई छिड़ गई ? आह, तब मैं घर नहीं जाऊँगा। हम लोग कब तक यहाँ से जायेंगे ?'

'बहुत जल्द, दो ही चार दिन में।'

चार वर्ष बीत गये। कैप्टन जगतसिंह का-सा योद्धा उस रेजिमेंट में नहीं है। कठिन अवस्थाओं में उसका साहस और भी उत्तेजित हो जाता है। जिस मुहिम में सबकी हिम्मतें जवाब दे जाती हैं, उसे सर करना उसी का काम है। हल्ले और धावे में वह सदैव सबसे आगे रहता है, उसकी त्योरियों पर कभी मैल नहीं आता ; इसके साथ ही वह इतना विनम्र, इतना गम्भीर, इतना प्रसन्नचित्त है कि सारे अफसर और मातहत उसकी बड़ाई करते हैं। उसका पुनर्जीवन-सा हो गया है। उस पर अफ़सरों को इतना विश्वास है कि अब वे प्रत्येक विषय में उससे परामर्श करते हैं। जिससे पूछिये, वह वीर जगतसिंह की विरुदावली सुना देगा--कैसे उसने जर्मनों के मेगजीन में आग लगाई, कैसे अपने कप्तान को मेशीनगनों की मार से निकाला, कैसे

अपने एक मातहत सिपाही को कन्धे पर लेकर निकल आया। ऐसा जान पड़ता है उसे अपने प्राणों का मोह ही नहीं, मानो वह काल को खोजता फिरता है।

लेकिन नित्य रात्रि के समय जब जगतसिंह को अवकाश मिलता है, वह अपनी छोलदारी में अकेले बैठकर‌ घरवालों की याद कर लिया करता है--दो-चार आँसू की बूँदें अवश्य गिरा देता है। वह प्रतिमास अपने वेतन का बड़ा भाग घर भेज देता है, और ऐसा कोई सप्ताह नहीं जाता कि वह माता को पत्र न लिखता हो। सबसे बड़ी चिन्ता उसे अपने पिता की है, जो आज उसी के दुष्कर्मों के कारण कारावास की यातना झेल रहे हैं। हाय ! वह कौन दिन होगा कि वह उनके चरणों पर सिर रखकर अपना अपराध क्षमा करायेगा और वह उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देंगे।

सवा चार वर्ष बीत गये। सन्ध्या का समय है। नैनी जेल के द्वार पर भीड़ लगी हुई है। कितने ही कैदियों की मीयाद पूरी हो गई है। उन्हें लिवा जाने के लिए उनके घरवाले आये हुए हैं ! किन्तु बूढ़ा भक्तसिंह अपनी अँधेरी

कोठरी में सिर झुकाये उदास बैठा हुआ है। उसकी कमर झुककर कमान हो गई। देह अस्थिपञ्जर-मात्र रह गई है। ऐसा जान पड़ता है किसी चतुर शिल्पी ने एक अकाल-पीड़ित मनुष्य की मूर्ति बनाकर रख दी है। उसकी मीयाद भी पूरी हो गई है। लेकिन उसके घर से कोई नहीं आया। कौन आवे ? आनेवाला था ही कौन ?

एक बूढ़े ; किन्तु हृष्ट-पुष्ट कैदी ने आकर उसका कन्धा हिलाया और बोला--कहो भगत, कोई घर से आया ?

भक्तसिंह ने कंपित कंठस्वर से कहा--'घर पर है ही कौन ?'

'घर तो चलोगे ही ?'

'मेरे घर कहाँ है ?'

'तो क्या यहीं पड़े रहोगे ?'

'अगर यह लोग निकाल न देंगे, तो यहीं पड़ा रहूँगा !'

आज चार साल के बाद भक्तसिंह को अपने प्रताड़ित, निर्वासित पुत्र की याद आ रही थी। जिसके कारण जीवन का सर्वनाश हो गया, आबरू मिट गई, घर बरबाद हो गया, उसकी स्मृति भी उन्हें असह्य थी ; किन्तु आज नैराश्य और दुःख के अथाह सागर में डूबते हुए उन्होंने उसी तिनके का सहारा लिया। न जाने उस बेचारे की क्या

दशा हुई। लाख बुरा है, है तो अपना लड़का ही। खानदान की निशानी तो है, मरूँगा तो चार आँसू तो बहायेगा, दो चिल्लू पानी तो देगा। हाय ! मैंने उसके साथ कभी प्रेम का व्यवहार नहीं किया। जरा भी शरारत करता, तो यमदूत की भाँति उसकी गर्दन पर सवार हो जाता। एक बार रसोई में बिना पैर धोये चले जाने के दंड में मैंने उसे उलटा लटका दिया था। कितनी बार केवल ज़ोर से बोलने पर मैंने उसे तमाचे लगाये। पुत्र-सा रत्न पाकर मैंने उसका आदर न किया। यह उसी का दंड है। जहाँ प्रेम का बंधन शिथिल हो, वहाँ परिवार की रक्षा कैसे हो सकती है !

सबेरा हुआ। आशा का सूर्य निकला। आज उसकी रश्मियाँ कितनी कोमल और मधुर थीं, वायु कितनी सुखद, आकाश कितना मनोहर, वृक्ष कितने हरे-भरे, पक्षियों का कल-रव कितना मीठा। सारी प्रकृति आशा के रंग में रंगी हुई थी। पर भक्तसिंह के लिए चारों ओर घोर अन्धकार था।

जेल का अफसर आया। कैदी एक पंक्ति में खड़े हुए। अफसर एक-एक का नाम लेकर रिहाई का परवाना देने

लगा। क़ैदियों के चेहरे आशा से प्रफुल्लित थे। जिसका नाम आता, वह खुश-खुश अफसर के पास जाता, परवाना लेता, झुककर सलाम करता और तब अपने विपत्ति-काल के संगियों से गले मिलकर बाहर निकल जाता। उसके घरवाले दौड़कर उससे लिपट जाते। कोई पैसे लुटा रहा था, कहीं मिठाइयाँ बाँटी जा रही थीं, कहीं जेल के कर्मचारियों को इनाम दिया जा रहा था। आज नरक के पुतले विनम्रता के देवता बने हुए थे।

अन्त में, भक्तसिंह का नाम आया। वह सिर झुकाये आहिस्ता-आहिस्ता जेलर के पास गये और उदासीन भाव से परवाना लेकर जेल के द्वार की ओर चले, मानो सामने कोई समुद्र लहरें मार रहा है। द्वार से बाहर निकलकर वह ज़मीन पर बैठ गये। कहाँ जायें ?

सहसा उन्होंने एक सैनिक अफसर को घोड़े पर सवार जेल की ओर आते देखा। उसकी देह पर खाकी वरदी थी, सिर पर कारचोबी साफा। अजीब शान से घोड़े पर बैठा हुआथा। उसके पीछे-पीछे एक फिटन आ रही थी। जेल के सिपाहियों ने अफसर को देखते ही बंदूकें सँभाली और लाइन में खड़े होकर सलाम किया। भक्तसिंह ने मन में कहा--एक भाग्यवान् वह है जिसके लिए फ़िटन आ रही है। एक अभागा मैं हूँ जिसका कहीं ठिकाना नहीं।

फौजी अफसर ने इधर-उधर देखा और घोड़े से उतर सीधे भक्तसिंह के सामने आकर खड़ा हो गया।

भक्तसिंह ने उसे ध्यान से देखा और तब चौंककर उठ खड़े हुए और बोले--'अरे ! बेटा जगतसिंह !' जगतसिंह रोता हुआ उनके पैरों पर गिर पड़ा।



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यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।