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पाँच फूल/स्तीफ़ा

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पाँच फूल  (१९२९) 
द्वारा प्रेमचंद








फ्तर का बाबू एक वेज़बान जीव है। मजदूर को आँखें दिखाओ, तो वह त्योरियाँ बदलकर खड़ा हो जावेगा। कुली को एक डाँट बताओ, तो सिर से बोझ फेंककर अपनी राह लेगा। किसी भिखारी को दुतकारो, तो वह तुम्हारी ओर गुस्से की निगाह से देखकर चला जायगा। यहाँ तक कि गधा भी कभी-कभी तकलीफ़ पाकर दो-लत्तियाँ झाड़ने लगता है। मगर बेचारे दफ्तर के बाबू को आप चाहे आँखें दिखायें, डाँट बतायें, दुतकारें या ठोकरें मारें, उसके माथे पर बल न आवेगा। उसे अपने विचारों पर जो आधिपत्य होता है, वह शायद किसी संयमी साधु में भी न

हो। संतोष का पुतला, सब्र की मूर्ति, सच्चा आज्ञाकारी,गरज उसमें तमाम मानवी अच्छाइयाँ मौजूद होती हैं। खँडहर के भी एक दिन भाग्य जगते हैं। दिवाली के दिन उस पर भी रोशनी होती है, बरसात में उस पर हरियाली छाती है, प्रकृति की दिलचस्पियों में उसका भी हिस्सा है। मगर इस ग़रीब बाबू के नसीब कभी नहीं जागते। इसकी अँधेरी तक़दीर में रोशनी का जलवा कभी दिखाई नहीं देता। इसके पीले चेहरे पर कभी मुसकराहट की रोशनी नज़र नहीं आती। इसके लिए सदा सूखा-सावन है ! कभी हरा भादौं नहीं। लाला फ़तहचंद ऐसे ही एक बेज़बान जीव थे।

कहते हैं मनुष्य पर उसके नाम का भी कुछ असर पड़ता है। फ़तहचंद की दशा में यह बात यथार्थ सिद्ध न हो सकी। यदि उन्हें 'हारचंद' कहा जाय, तो कदाचित् यह अत्युक्ति न होगी। दफ्तर में हार, ज़िन्दगी में हार, मित्रों में हार, जीवन में उनके लिये चारों ओर हार और निराशाएँ ही थीं। लड़का एक भी नहीं लड़कियाँ तीन, भाई एक भी नहीं भौजाइयाँ दो, गाँठ में कौड़ी नहीं, मगर दिल में दया और मुरव्वत, सच्चा मित्र एक भी नहीं--जिससे मित्रता हुई उसने धोखा दिया, इस पर तन्दुरुस्ती अच्छी

नहीं--बत्तीस साल की अवस्था में बाल खिचड़ी हो गये थे। आँखों में ज्योति नहीं, हाजमा चौपट, चेहरा पीला, गाल पिचके, कमर झुकी हुई, न दिल में हिम्मत न कलेजे में ताक़त। नौ बजे दफ्तर जाते और छः बजे शाम को लौटकर घर आते। फिर घर से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती। दुनिया में क्या होता है, इसकी उन्हें बिल्कुल खबर न थी। उनकी दुनिया, लोक-परलोक जो कुछ था दफ्तर था। नौकरी की खैर मनाते और जिन्दगी के दिन पूरे करते थे। न धर्म से वास्ता था, न दीन से नाता। न कोई मनोरंजन था न खेल। ताश खेले हुए भी शायद एक मुद्दत गुज़र गई थी।

जाड़ों के दिन थे। आकाश पर कुछ-कुछ बादल थे। फ़तहचंद साढ़े पाँच बजे दफ्तर से लौटे, तो चिराग़ जल गये थे। दफ्तर से आकर वह किसी से कुछ न बोलते। ‌ चुपके से चारपाई पर लेट जाते और पन्द्रह-बीस मिनट तक बिना हिले-डुले पड़े रहते। तब कहीं जाकर उनके मुँह से आवाज़ निकलती। आज भी प्रतिदिन की तरह वे चुपचाप पड़े थे कि एक ही मिनट में बाहर से किसी ने

पुकारा। छोटी लड़की ने जाकर पूछा, तो मालूम हुआ कि दफ्तर का चपरासी है। शारदा पति के मुँह-हाथ धोने के लिए लोटा-ग्लास माँज रही थी। बोली---उससे कह दे, क्या काम है, अभी तो दफ्तर से आये ही हैं, और अभी फिर बुलावा आ गया ?

चपरासी ने कहा---साहब ने कहा है, अभी बुला लाओ। कोई बड़ा ज़रूरी काम है।

फतहचंद की खामोशी टूट गई। उन्होंने सिर उठाकर पूछा---क्या बात है ?

शारदा---कोई नहीं, दफ्तर का चपरासी है।

फतहचंद ने सहमकर कहा---दफ्तर का चपरासी ! क्या साहब ने बुलाया है ?

शारदा–--हाँ कहता है, साहब बुला रहे हैं। यह कैसा साहब है तुम्हारा, जब देखो बुलाया करता है। सबेरे के गये-गये, अभी मकान को लौटे हो फिर भी बुलावा आ गया ? कह दो नहीं आते---अपनी नौकरी ही लेगा या और कुछ !

फ़तहचंद ने सँभलकर कहा---ज़रा सुन लूँ किस लिये बुलाया है। मैंने तो सब काम ख़तम कर दिया था, अभी आता हूँ। शारदा---जरा जल-पान तो करते जाओ, चपरासी से बातें करने लगोगे, तो तुम्हें अन्दर आने की याद भी न रहेगी।

यह कहकर वह एक प्याली में थोड़ी-सी दालमोट और सेव लाई। फतहचंद उठकर खड़े हो गये; किन्तु खाने की चीजें देखकर चारपाई पर बैठ गये और प्याली की ओर चाव से देखकर डरते हुए बोले---लड़कियों को दे दिया है न !

शारदा ने आँखें चढ़ाकर कहा---हाँ-हाँ, दे दिया है, तुम तो खाओ !

इतने में छोटी लड़की आकर सामने खड़ी हो गई। शारदा ने उसकी ओर क्रोध से देखकर कहा---तू क्या आकर सिर पर सवार हो गई, जा बाहर खेल !

फतहचंद---रहने दो, क्यों डाँटती हो। यहाँ आओ चुन्नी, यह लो दालमोट ले जाओ!

चुन्नी माँ की ओर देखकर डरती हुई बाहर भाग गई।

फतहचंद ने कहा---क्यों बेचारी को भगा दिया। दो-चार दाने दे देता, तो खुश हो जाती।

शारदा---इसमें है ही कितना कि सबको बाँटते फिरोगे। इसे देते तो बाक़ी दोनों न आ जातीं। किस-किस को देते ? इतने में चपरासी ने फिर पुकारा---बाबूजी हमें बड़ी देर हो रही है।

शारदा---कह क्यों नहीं देते कि इस वक्त न आयेंगे।

फतहचंद---ऐसा कैसे कह दूं भाई, रोज़ी का मामला है !

शारदा---तो क्या प्राण देकर काम करोगे ? सूरत नहीं देखते अपनी। मालूम होता हैं छः महीने के बीमार हो।

फतहचंद ने जल्दी-जल्दी दालमोट की दो-तीन फंकियाँ लगाई, एक ग्लास पानी पिया और बाहर की तरफ़ दौड़े‌। शारदा पान बनाती ही रह गई।

चपरासी ने कहा---बाबूजी! आपने बड़ी देर कर दी। अब जरा लपके चलिये, नहीं तो जाते ही डाँट बतावेगा।

फ़तहचंद ने दो कदम दौड़कर कहा---चलेंगे तो भाई आदमी ही की तरह, चाहे डांट बतावे या दाँत दिखाये। हमसे दौड़ा तो नहीं जाता। बँगले ही पर है न ?

चपरासी---भला वह दफ्तर क्यों आने लगा। बादशाह है कि दिल्लगी!

चपरासी तेज़ चलने का आदी था। बेचारे बाबू फ़तहचंद धीरे-धीरे जाते थे। थोड़ी ही दूर चलकर हॉफ उठे। मगर मर्द तो थे ही, यह कैसे कहते कि भाई जरा और धीरे चलो। हिम्मत करके क़दम उठाते जाते थे, यहाँ तक कि

जाँघों में दर्द होने लगा और आधा रास्ता खतम होते-होते पैरों ने उठने से इन्कार कर दिया। सारा शरीर पसीने में तर हो गया। सिर में चक्कर आ गया। आँखों के सामने तितलियाँ उड़ने लगीं।

चपरासी ने ललकारा--जरा क़दम बढ़ाये चलो बाबू !

फ़तहचंद बड़ी मुश्किल से बोले--तुम जाओ मैं आता हूँ।

वे सड़क के किनारे पटरी पर बैठ गये और सिर को दोनों हाथों से थामकर दम मारने लगे। चपरासी ने इनकी‌ यह दशा देखी, तो आगे बढ़ा। फ़तहचंद डरे कि यह शैतान जाकर न-जाने साहब से क्या कह दे, तो ग़जब ही हो जायगा। ज़मीन पर हाथ टेककर उठे और फिर चले। मगर कमज़ोरी से शरीर हाँफ रहा था। इस समय कोई बच्चा भी उन्हें ज़मीन पर गिरा सकता था। बेचारे किसी तरह गिरते-पड़ते साहब के बँगले पर पहुँचे। साहब बंगले पर टहल रहे थे। बार-बार फाटक की तरफ़ देखते थे और किसी को आते न देखकर मन-ही-मन में झल्लाते थे।

चपरासी को देखते ही आँखें निकाल कर बोले--इतनी देर कहाँ था ? चपरासी ने बरामदे की सीढ़ी पर खड़े-खड़े कहा--हुज़र ! जब वह आवें तब तो, मैं तो दौड़ा चला आ‌ रहा हूँ।

साहब ने पैर पटक कर कहा--बाबू क्या बोला ?

चपरासी--आ रहे हैं हुज़र, घंटा-भर में तो घर में से निकले।

इतने में फ़तहचंद अहाते के तार के अंदर से निकलकर वहाँ आ पहुँचे और साहब को सिर झुकाकर सलाम किया।

साहब ने कड़ककर कहा--अब तक कहाँ था ?

फ़तहचंद ने साहब का तमतमाता चेहरा देखा, तो उनका खून सूख गया। बोले--हुज़र ! अभी-अभी तो दफ्तर से गया हूँ, ज्योंही चपरासी ने आवाज़ दी, हाज़िर हुआ।

साहब--झूठ बोलता है, झूठ बोलता है, हम घंटे-भर से खड़ा है।

फ़तहचंद--हुजूर, मैं झूठ नहीं बोलता। आने में जितनी देर हो गई हो, मगर घर से चलने में मुझे बिल्कुल देर नहीं हुई।

साहब ने हाथ की छड़ी घुमाकर कहा--चुप रह, सुअर, हम घंटा-भर से खड़ा है, अपना कान पकड़ो ! फ़तहचंद ने खून का घूंट पीकर कहा--हुजूर, मुझे दस साल काम करते हो गये, कभी.........।

साहब--चुप रह, सुअर, हम कहता है अपना कान पकड़ो।

फ़तहचंद--जब मैंने कोई क़ुसूर किया हो ?

साहब--चपरासी ! इस सुअर का कान पकड़ो।

चपरासी ने दबी ज़बान से कहा--हुजूर, यह भी मेरे अफ़सर हैं, मैं इनका कान कैसे पकड़ूँ !

साहब--हम कहता है इसका कान पकड़ो, नहीं हम तुमको हंटरों से मारेगा।

चपरासी--हुजूर, मैं यहाँ नौकरी करने आया हूँ, मार खाने नहीं। मैं भी इज्जतदार आदमी हूँ। हुजूर अपनी नौकरी ले लें। आप जो हुकुम दें वह बजा लाने को हाज़िर हूँ; लेकिन‌ किसी की इज्जत नहीं बिगाड़ सकता। नौकरी तो चार दिन की है। चार दिन के लिए क्यों ज़माने-भर से बिगाड़ करें ?

साहब अब क्रोध को न बरदाश्त कर सके। हंटर लेकर दौड़े। चपरासी ने देखा यहाँ खड़े रहने में खैरियत नहीं है, तो भाग खड़ा हुआ। फ़तहचंद अभी तक चुप-चाप खड़े थे। साहब चपरासी को न पाकर उनके पास आया और उनके दोनों कान पकड़ कर हिला दिया।
बोला-तुम सुअर, गुस्ताखी करता है ? जाकर आफ़िस से फाइल लाओ।

फ़तहचंद ने कान सहलाते हुए कहा--कौन-सा फाइल लाऊँ हुज़ूर !

साहब--फ़ाइल-फ़ाइल और कौन-सा फ़ाइल ? तुम बहरा है, सुनता नहीं, हम फ़ाइल माँगता है !

फतहचंद ने किसी तरह दिलेर होकर कहा--आप कौन-सा फाइल माँगते हैं ?

साहब--वही फ़ाइल जो हम माँगता है। वही फ़ाइल लाओ। अभी लाओ!

बेचारे फ़तहचंद को अब और कुछ पूछने की हिम्मत न हुई। साहब बहादुर एक तो यों ही तेज़ मिज़ाज थे, इस पर हुकूमत का घमंड और सबसे बढ़कर शराब का नशा। हंटर लेकर पिल पड़ते, तो बेचारे क्या कर लेते। चुपके से दफ्तर की तरफ चल पड़े।

साहब ने कहा--दौड़कर जाओ-दौड़ो।

फ़तहचंद ने कहा--हुज़ूर, मुझसे दौड़ा नहीं जाता।

साहब--ओ तुम बहुत सुस्त हो गया है। हम तुमको दौड़ना सिखायेगा। दौड़ो (पीछे से धक्का देकर) तुम अब भी नहीं दौड़ेगा ? यह कहकर साहब हंटर लेने चले। फतहचंद दफ्तर के बाबू होने पर भी मनुष्य ही थे। यदि वह बलवान होते तो उस बदमाश का खून पी जाते। अगर उनके पास कोई हथियार होता, तो उस पर जरूर चला देते। लेकिन उस हालत में तो मार खाना ही उनकी तक़दीर में लिखा था। वे बेतहाशा भागे और फाटक से बाहर निकलकर सड़क पर आ गये।

दूसरे दिन फ़तहचंद दफ्तर न गये। जाकर करते ही क्या ! साहब ने फ़ाइल का नाम तक न बताया। शायद नशा में भूल गया। धीरे-धीरे घर की ओर चले। मगर इस बेइज्ज़ंती ने पैरों में बेड़ियाँ-सी डाल दी थीं। माना कि वह शारीरिक बल में साहब से कम थे, उनके हाथ में कोई चीज़ भी न थी; लेकिन क्या वह उसकी बातों का जवाब न दे सकते थे ? उनके पैरों में जूते तो थे। क्या वह जूते से काम न ले सकते थे ? फिर क्यों उन्होंने इतनी ज़िल्लत बरदाश्त की ?

मगर इलाज ही क्या था। यदि वह क्रोध में उन्हें गोली मार देता, तो उसका क्या बिगड़ता। शायद एक-दो महीने

की सादी क़ैद हो जाती। सम्भव है दो-चार सौ रुपये जुर्माना हो जाता, मगर इनका परिवार तो मिट्टी में मिल जाता। संसार में कौन था जो इनके स्त्री-बच्चों की खबर लेता। वह किसके दरवाजे हाथ फैलाते। यदि उनके पास इतने रुपए होते, जिनसे उनके कुटुम्ब का पालन हो जाता, तो वह आज इतनी जिल्लत न सहते। या तो मर ही जाते या उस शैतान को कुछ सबक ही दे देते। अपनी जान का इन्हें डर न था। ज़िन्दगी में ऐसा कौन सुख था, जिसके लिए वह इस तरह डरते। ख्याल था सिर्फ़ परिवार के बरबाद हो जाने का।

आज फ़तहचंद को अपनी शारीरिक कमजोरी पर जितना दुःख हुआ, उतना कभी न हुआ था। अगर उन्होंने शुरू ही से तन्दुरुस्ती का ख्याल रखा होता, कुछ कसरत करते रहते, लकड़ी चलाना जानते होते, तो क्या इस शैतान की इतनी हिम्मत होती कि वह उनका कान पकड़ता ! उसकी आँखें निकाल लेते। कम से कम इन्हें घर से एक छुरी लेकर चलना था और न होता दो-चार हाथ जमाते ही-पीछे देखा जाता, जेलखाना ही तो होता या और कुछ !

वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे त्यों-त्यों उनकी तबीयत अपनी कायरता और बोदेपन पर और भी झल्लाती थी।
अगर वह उचककर उसके दो-चार थप्पड़ लगा देते, तो क्या होता--यही न कि साहब के ख़ानसामे, बहरे, सब उन पर पिल पड़ते और मारते-मारते बेदम कर देते। बाल-बच्चों के सिर पर जो कुछ पड़ती-पड़ती। साहब को इतना तो मालूम हो जाता कि किसी गरीब को बेगुनाह जलील करना आसान नहीं। आखिर आज मैं मर जाऊँ तो क्या हो ? तब कौन मेरे बच्चों का पालन करेगा ? तब उनके सिर जो कुछ पड़ेगी वह आज ही पड़ जाती, तो क्या हर्ज़ था।

इस अंतिम विचार ने फ़तहचंद के हृदय में इतना जोश भर दिया कि वह लौट पड़े और साहब से ज़िल्लत का बदला लेने के लिए दो-चार कदम चले। मगर फिर ख्याल आया, आखिर जो कुछ जिल्लत होनी थी, वह तो हो ही ली। कौन जाने बँगला पर हो या क्लब चला गया हो। उसी समय उन्हें शारदा की बेकसी और बच्चों का बिना बाप के हो जाने का ख्याल भी आ गया। फिर लौटे और घर चले।

घर में जाते ही शारदा ने पूछा--किस लिये बुलाया था, बड़ी देर हो गई ? फ़तहचंद ने चारपाई पर लेटते हुए कहा--नशे की सनक थी और क्या ? शैतान ने मुझे गालियाँ दीं, जलील किया, बस यही रट लगाये हुए था कि देर क्यों की। निर्दयी ने चपरासी से मेरा कान पकड़ने को कहा।

शरदा ने गुस्से में आकर कहा--तुमने एक जूता उतार कर दिया नहीं सुअर को ?

फ़तहचंद--चपरासी बहुत शरीफ है। उसने साफ कह दिया--हुज़र, मुझसे यह काम न होगा। मैंने भले आदमियों की इज्ज़त उतारने के लिए नौकरी नहीं की थी। वह उसी वक्त सलाम करके चला गया।

शारदा--यह बहादुरी है। तुमने उस साहब को क्यों नहीं फटकारा ?

फ़तहचंद--फटकारा क्यों नहीं-मैंने भी खूब सुनाई। वह छड़ी लेकर दौड़ा-मैंने भी जूता सँभाला। उसने मुझे कई छड़ियाँ जमाई-मैंने भी कई जूते लगाये।

शारदा ने खुश होकर कहा--सच ? इतना-सा मुँह हो गया होगा उसका।

फ़तहचंद--चेहरे पर झाड़ू-सी फिरी हुई थी।

शारदा--बड़ा अच्छा किया तुमने, और मारना चाहिए था। मैं होती, तो बिना जान लिए न छोड़ती। फ़तहचंद--मार तो आया हूँ, लेकिन अब खै़रियत नहीं है। देखो, क्या नतीजा होता है ? नौकरी तो जायगी ही, शायद सज़ा भी काटनी पड़े !

शारदा--सज़ा क्यों काटनी पड़ेगी। क्या कोई इंसाफ़ करनेवाला नहीं है ? उसने क्यों गालियाँ दीं, क्यों छड़ी जमाई ?

फतहचंद--उसके सामने मेरी कौन सुनेगा। अदालत भी उसी की तरफ़ हो जायगी।

शारदा--हो जायगी, हो जाय ; मगर देख लेना अब किसी साहब की यह हिम्मत न होगी कि किसी बाबू को गालियाँ दे बैठे। तुम्हें चाहिए था, कि ज्यों ही उसके मुँह से गालियाँ निकलीं, लपककर एक जूता रसीद करते।

फ़तहचंद तो फिर इस वक्त जिन्दा लौट भी न सकता। ज़रूर मुझे गोली मार देता।

शारदा--देखी जाती।

फ़तहचंद ने मुस्कराकर कहा--फिर तुम लोग कहाँ जाती ?

शारदा--जहाँ ईश्वर की मरज़ी होती। आदमी के लिए सबसे बड़ी चीज़ इज्जत है। इज्ज़त गँवाकर बाल-बच्चों की परवरिश नहीं की जाती। तुम उस शैतान को

मारकर आये हो, मैं ग़रूर से फूली नहीं समाती। मार खाकर आते, तो शायद मैं तुम्हारी सूरत से भी घृणा करती। यों ज़बान से चाहे कुछ न कहती, मगर दिल से तुम्हारी इज्ज़त जाती रहती। अब जो कुछ सिर पर आयेगी खुशी से झेल लूँगी.....। कहाँ जाते हो, सुनो सुनो, कहाँ जाते हो ?

फ़तहचंद दीवाने होकर जोश में घर से निकल पड़े। शारदा पुकारती रह गई। वह फिर साहब के बँगले की तरफ जा रहे थे। डर से सहमे हुए नहीं; बल्कि ग़रूर से गर्दन उठाये हुए‌ पक्का इरादा उनके चेहरे से झलक रहा था। उनके पैरों में वह कमज़ोरी, आँखों में वह बेकसी न थी। उनकी कायापलट-सी हो गई। वह कमज़ोर बदन, पीला-मुखड़ा, दुबले बदनवाला, दफ्तर के बाबू की जगह अब मर्दाना चेहरा, हिम्मत के भरा हुआ, मजबूत गठा हुआ जवान था। उन्होंने पहले एक दोस्त के घर जाकर उसका डंडा लिया और अकड़ते हुए साहब के बङ्गले पर जा पहुँचे।

इस वक्त नौ बजे थे। साहब खाने की मेज़ पर थे। मगर फ़तहचंद ने आज उनके मेज पर से उठ जाने का

इन्तज़ार न किया। खानसामा कमरे से बाहर निकला और वह चिक उठाकर अन्दर गया। कमरा प्रकाश से जगमगा रहा था। ज़मीन पर ऐसी कालीन बिछी हुई थी, जैसी फतहचंद की शादी में नहीं बिछी होगी। साहब बहादुर ने उसकी तरफ क्रोधित दृष्टि से देखकर कहा--तुम क्यों आया, बाहर जाओ, क्यों अंदर चला आया ?

फ़तहचंद ने खड़े-खड़े डंडा सँभालकर कहा--तुमने मुझसे अभी फ़ाइल माँगा था, वही फाइल लेकर आया हूँ। खाना खा लो, तो दिखाऊँ। तब तक मैं बैठा हूँ। इतमीनान से खाओ, शायद यह तुम्हारा आखिरी खाना होगा। इसी कारण खूब पेट-भर खा लो।

साहब सन्नाटे में आ गये। फ़तहचंद की तरफ़ डर और क्रोध की दृष्टि से देख कर काँप उठे। फ़तहचंद के चेहरे पर पक्का इरादा झलक रहा था। साहब समझ गये, यह मनुष्य इस समय मरने-मारने के लिए तैयार होकर आया है। ताक़त में फ़तहचंद उनके पासंग भी नहीं था। लेकिन यह निश्चय था कि वह ईट का जवाब पत्थर से नहीं, बल्कि लोहे से देने को तैयार है। यदि वह फ़तहचंद को बुरा-भला कहते हैं, तो क्या आश्चर्य है कि वह डंडा लेकर पिल पड़े। हाथा-पाई करने में यद्यपि उन्हें जीतने में

ज़रा भी संदेह नहीं था, लेकिन बैठे-बिठाये डंडे खाना भी तो कोई बुद्धिमानी नहीं है। कुत्ते को आप डंडे से मारिये, ठुकराइये, जो चाहे कीजिए मगर उसी समय तक, जब तक वह गुर्राता नहीं। एक बार गुर्राकर दौड़ पड़े, तो फिर देखें आपकी हिम्मत कहाँ जाती है ? यही हाल उस वक्त साहब बहादुर का था। जब तक यकीन था कि फ़तहचंद घुड़की-धुरकी, हंटर-ठोकर सब कुछ खामोशी से सह लेगा, तब तक आप शेर थे; अब वह त्योरियाँ बदले, डंडा सँभाले, बिल्ली की तरह घात लगाये खड़ा है। ज़बान से कोई कड़ा शब्द निकला और उसने डंडा चलाया। वह अधिक-से-अधिक उसे बरखास्त कर सकते हैं। अगर मारते हैं, तो मार खाने का भी डर। उस पर फौज़दारी में मुक़दमा दायर हो जाने का अंदेशा--माना कि वह अपने प्रभाव और ताक़त से अंत में फ़तहचंद को जेल में डलवा देंगे ; परन्तु परेशानी और बदनामी से किसी तरह न बच सकते थे। एक बुद्धिमान्, और दूरन्देश आदमी की तरह उन्होंने यह कहा--ओहो, हम समझ गया, आप हमसे नाराज़ हैं। हमने क्या आपको कुछ कहा है, आप क्यों हमसे नाराज़ हैं ?

फ़तहचंद ने तनकर कहा--तुमने अभी आध घंटा

पहले मेरे कान पकड़े थे और मुझे सैकड़ों ऊल-जलूल बातें कहीं थीं। क्या इतनी जल्दी भूल गये ?

साहब--मैंने आपका कान पकड़ा, आ-हा-हा-हा-हा ! मैंने आपका कान पकड़ा--आ-हा-हा-हा ! क्या मज़ाक है ? क्या मैं पागल हूँ या दीवाना ?

फ़तहचंद--तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ ? चपरासी गवाह है। आपके नौकर-चाकर भी देख रहे थे।

साहब--कब का बात है ?

फ़तहचंद--अभी-अभी कोई आध घंटा हुआ, आपने मुझे बुलाया था और बिना कारण मेरे कान पकड़े और धक्के दिये थे।

साहब--ओ बाबूजी, उस वक्त हम नशा में था। बहरा ने हमको बहुत दे दिया था। हमको कुछ ख़बर नहीं, क्या हुआ माई गाड, हमको कुछ खबर नहीं।

फ़तहचंद--नशा में अगर तुमने मुझे गोली मार दी होती, तो क्या मैं मर न जाता ? अगर तुम्हें नशा था और नशा में सब कुछ मुआफ़ है, तो मैं भी नशा में हूँ। सुनो मेरा फैसला, या तो अपने कान पकड़ो कि फिर कभी किसी भले आदमी के संग ऐसा बर्ताव न करोगे ; या मैं आकर तुम्हारे कान पकडूंगा। समझ गये कि नहीं ?
इधर-उधर हिलो नहीं, तुमने जगह छोड़ी और मैंने डंडा चलाया। फिर खोपड़ी टूट जाय, तो मेरी खता नहीं। मैं जो कुछ कहता हूँ वह करते चलो, पकड़ो कान !

साहब ने बनावटी हँसी हँस कर कहा-–वेल बाबूजी, आप बहुत दिल्लगी करता है। अगर हमने आपको बुरा बात कहा है, तो हम आपसे माफी माँगता है !

फ़तहचंद--(डंडा तौल कर) नहीं, कान पकड़ो!

साहब आसानी से इतनी जिल्लत न सह सके। लपककर उठे और चाहा कि फ़तहचंद के हाथ से लकड़ी छीन लें, लेकिन फतहचंद गाफ़िल न था। साहब मेज़ पर से उठने भी न पाये थे कि उसने डंडे का भरपूर और तुला हुआ हाथ चलाय। साहब तो नंगे सिर थे ही चोट सिर पर पड़ गई। खोपड़ी भन्ना गई। एक मिनट तक सिर को पकड़े रहने के बाद बोले--हम तुमको बरखास्त कर देगा।

फ़तहचंद--इसकी मुझे परवाह नहीं। मगर आज मैं तुमसे बिना कान पकड़ाये नहीं जाऊँगा। कान पकड़कर वादा करो कि फिर किसी भले आदमी के साथ ऐसी बेअदबी न करोगे, नहीं तो मेरा दूसरा हाथ पड़ा ही चाहता है !

यह कहकर फ़तहचंद ने फिर डंडा उठाया। साहब को अभी तक पहली चोट न भूली थी। अगर कहीं यह

दूसरा हाथ पड़ गया, तो शायद खोपड़ी खुल जाय। कान पर हाथ रखकर बोले--अब आप खुश हुआ ?

'फिर तो कभी किसी को गाली न दोगे ?'

'कभी नहीं।'

'अगर फिर कभी ऐसा किया, तो समझ लेना मैं कहीं बहुत दूर नहीं हूँ।'

'अब किसी को गाली न देगा।'

'अच्छी बात है अब मैं जाता हूँ, आज से मेरा स्तीफ़ा है। मैं कल स्तीफ़ा में यह लिख कर भेजूँगा कि तुमने मुझे गालियाँ दी ; इसलिये मैं नौकरी नहीं करना चाहता,समझ गये ?'

साहब--आप स्तीफ़ा क्यों देता है। हम तो बरखास्त नहीं करता।

फ़तहचंद--अव तुम-जैसे पाजी आदमी की मातहती न करूँगा।

यह कहते हुए फ़तहचंद कमरे से बाहर निकले और बड़े इतमिनान से घर चले। आज उन्हें सच्ची विजय की प्रसन्नता का अनुभव हुआ। उन्हें ऐसी खुशी कभी नहीं प्राप्त हुई थी। यही उनके जीवन की पहली जीत थी।

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यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।