पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१२४

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किया! मलों से भरे हुए शरीर से प्रेम! नि:संदेह मैं मूर्ख हूँ। मैंने इतना पढ़ लिखकर झख ही मारा। राजर्पि भरत की कथा स्मरण होने पर भी मैले आसक्ति की! कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगा तेली! राजर्पि भरत का राशि राशि पुण्य- संचय और मैं निरा पामर। उनके सुकृत उन्हें मोहसागर से उधार ले गए और मुझे अपने पाप के फल भोगने हैं। लोग भगवान रामचंद्रजी पर भी मोह होने का दोष लगाते हैं। हाँ! उन्होंने मोह दिखलाया सही किंतु नर-देह धारण करके चित्त-वृत्ति की दुर्बलता प्रदर्शित करने के लिये, संसार का उद्धार करने के लिये। यह केवल उनकी लीला थी। उन्होंने दिखला दिया कि मनुष्य-शरीर में अवतारों तक को आसक्ति होती है किंतु उनकी आसक्ति वास्तविक आसक्ति नहीं थी। हाय! मेरा रोम रोम आसक्ति से भर गया। यदि परमात्मा मेरी रक्षा न करता तो अवश्य, नि:संदेह मेरी गति "कीट भृंग" की सी होती। मैंने हजारों बार -- "भृंगी भय से भृंग होत वह कीट महा जड़, कृष्ण प्रेम में कृष्ण होने में कहा अचरज बड़" का लोगों को उपदेश दिया है किंतु यह शिक्षा औरों के लिये थी। मैं ही स्वयं फँसा और सो भी एक कुलटा के लिये। धिक्कार है मुझको, धिक्कार इस हरामजादी कुलटा को और फिटकार पापी, पाप में प्रवृत्त करनेवाले कामदेव को! खैर! होना था सो हुआ। अब? अब त्याग! बस त्याग के सिवाय और उपाय ही क्या?