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बातें भी बहुत देर त हुई। तीनों ने अपने मन में और कभी
एक दूसरे से कहा भी कई बार कि "यह महाराज योगबल
के बिना कैसे जान गए कि हम क्या प्रश्न करेंगे, कदाचित्
दुनियादारी का सवाल हो तो कुछ अटकल भी लगा लेते!"
खैर मकान पर जब पहुँचे तब इन लोगों के आश्चर्य का पारा-
वार न रहा, किवाड़ खोलते ही चौखट के भीतर से वे ही
दोनों अशर्फियाँ जो गंगा में डाली गई थीं खन्न खान्न करती
हुई धरती पर गिरीं। बस यह चमत्कार देखकर ज्यों ही
पंडितजी भागे हुए वरुणा गुफा पर फिर उन महात्माओं के
दर्शन के लिये गए तो वह पर्णकुटी शून्य थी! बम हाथ मलते,
पछताते और अपनी बुद्धि को कोसते रह गए। पारब्ध को
दोष देकर उन्होंने संतोष किया।
इस तरह इनकी यात्रा समाप्त हुई। काशी आने से यद्दपि इन्हें कष्ट भी कम न हुआ परंतु भगवान् भूतभावन के अनुग्रह से, भगवती गंगा की कृपा से और पंडित पंडितायिन के इष्ट बल से महात्मा ने वह फल ही ऐसा दिया कि उनका आशी- र्वाद सच्चा हो गया। थोड़े ही काल में प्रियंवदा की आकृति से विदित हो गया कि उसका पेट भारी है। उसने यदि लज्जा से न कहा तो न सही किंतु उसके मुख के भाव ने उसके मन के भाव की चुगली खा दी।
अस्तु समस्त देवों सहित काशी को और पंडित दीनबंधु को प्रणाम कर, पार्टी वहाँ से बिदा हो गई।